महर्षि भृगु

महर्षि भृगु
पुराणों में महर्षि भृगु के बारे में बहुत कुछ लिखा गया है। ये भारतवर्ष के सर्वाधिक प्रभावशाली, सिद्ध और प्रसिद्ध ऋषियों में से एक है। ये परमपिता ब्रह्मा के पुत्र और महर्षि अंगिरा के छोटे भाई थे और वर्तमान के बलिया (उत्तरप्रदेश) में जन्मे थे। ये एक प्रजापति भी हैं और स्वयंभू मनु के बाद के मन्वन्तरों में कई जगह इनकी गणना सप्तर्षियों में भी की जाती है। इनके वंशज आगे चल कर भार्गव कहलाये और उनसे भी भृगुवंशियों का प्रादुर्भाव हुआ। नारायण के छठे अवतार श्री परशुराम भी इन्ही के वंश में जन्मे और भृगुवंशी कहलाये।

ये ज्योतिष शास्त्र के महान ज्ञाता माने जाते हैं और आधुनिक ज्योतिष शास्त्र के यही जनक है। इन्होने प्रसिद्द "भृगु संहिता" की रचना की जो ज्योतिष शास्त्र की सर्वोत्तम कृति मानी जाती है। मनु स्मृति में इस बात का वर्णन है कि महर्षि भृगु स्वयंभू मनु के मित्र एवं सलाहकार थे। ये भी कहा गया है कि मनुस्मृति की रचना करने के समय इन्होने मनुदेव की बड़ी सहायता की थी। इन्होने पहले अपने आश्रम की स्थापना वर्तमान के हरियाणा और राजस्थान के सीमा पर की थी। स्कंदपुराण के अनुसार बाद में अपना नया आश्रम वर्तमान भरुच (गुजरात) में नर्मदा नदी के तट पर बनाया।

महर्षि भृगु का पहला विवाह दैत्यराज हिरण्यकशिपु की पुत्री "दिव्या" (इन्हे काव्यमाता भी कहा जाता है) से हुआ जिनसे उनके दो पुत्र हुए - "काव्य शुक्र" एवं "त्वष्टा विश्वकर्मा"। इनके पहले पुत्र महान ज्ञानी हुए और अपने पिता की भांति ही ज्योतिष और खगोल शास्त्र के बहुत बड़े विद्वान बने। अपने मातृकुल में इन्हे आचार्य की उपाधि मिली और वे शुक्राचार्य के नाम से प्रसिद्ध हुए। दैत्यराज के अनुरोध पर इन्होने दैत्यगुरु की उपाधि ग्रहण की। देवताओं के गुरु बृहस्पति से इनकी चिर-प्रतिद्वंदिता रही। ये भगवान शंकर के अनन्य भक्त थे और उन्होंने उनकी घोर तपस्या कर उनसे मृतसंजीवनी विद्या प्राप्त कर ली जिससे वे युद्ध में मरे सैनिकों को पुनर्जीवित कर देते थे। इनके कारण ही दैत्य साम्राज्य विनाश से बचा रहा। इनकी पुत्री देवयानी बाद में ययाति से ब्याही गयी और उन्ही से समस्त राजकुल चले।

महर्षि भृगु के दूसरे पुत्र सर्वोत्तम शिल्पी थे। उनके नाम की भांति ही उनकी निपुणता भी देव विश्वकर्मा के समान ही थी। जिस प्रकार विश्वकर्मा देवताओं के प्रधान शिल्पी थे, उसी प्रकार त्वष्टा विश्वकर्मा भी दैत्यों के प्रधान शिल्पी बने और जगत में मय के नाम से प्रसिद्द हुए। आगे चल कर इन्ही की पुत्री मंदोदरी राक्षसराज रावण से ब्याही गयी। महाभारत में युधिष्ठिर के इंद्रप्रस्थ नगर का निर्माण भी इन्होने ही किया था। 

महर्षि भृगु का दूसरा विवाह दानव अधिपति पुलोम की पुत्री "पौलमी" से हुआ। उनसे इन्हे दो पुत्र प्राप्त हुए जो आगे चलकर महान ऋषि बने। इनके पहले पुत्र का नाम "च्यवन" जो औषधिशास्त्र के महान ज्ञाता थे। इसका ज्ञान उन्हें अश्विनीकुमार से प्राप्त हुआ था जो उनके गुरु थे। यज्ञ में इंद्र द्वारा अश्विनीकुमारों को अपमानित करने के लिए उन्होंने भयानक कृत्या को उत्पन्न कर इंद्र का गर्व भंग किया था।

इन्ही च्यवन ऋषि के पुत्र महर्षि और्व हुए। और्व के पुत्र महर्षि ऋचीक हुए। ये अपने पिता के समान ही तेजस्वी और सभी शास्त्रों के ज्ञाता थे। इन्ही ऋचीक के पुत्र महर्षि जमदग्नि हुए जिन्होंने हैहय वंशी राजाओं के कुलगुरु का स्थान संभाला। महर्षि जमदग्नि के सबसे छोटे पुत्र राम के रूप में भगवान विष्णु ने अवतार लिया जो आगे चलकर परशुराम के नाम से विख्यात हुए। इस प्रकार परशुराम के रूप में श्रीहरि ने स्वयं महर्षि भृगु के कुल में ही जन्म लिया।

महर्षि भृगु का तीसरा विवाह प्रजापति दक्ष और मनुकन्या प्रसूति की पुत्री "ख्याति" से हुआ। ख्याति से इन्हे "धाता" एवं "विधाता" नामक दो पुत्र एवं "लक्ष्मी" नामक एक पुत्री प्राप्त हुई। लक्ष्मी का ही एक और नाम श्री था और उन्होंने नारायण को अपने पति के रूप में चुना। इस प्रकार महर्षि भृगु भगवान विष्णु के श्वसुर भी बन गए। बाद में त्रिदेवों की परीक्षा लेने के प्रयास में इन्होने श्रीहरि विष्णु के वक्ष पर अपने पैरों से प्रहार किया।

शिव पुराण एवं वायु पुराण में ऐसा वर्णन है कि जब दक्ष प्रजापति ने भगवान शिव के अपमान हेतु महायज्ञ का आयोजन किया तो महर्षि भृगु उस यज्ञ में उपस्थित थे। जब सबने देखा कि दक्ष ने महादेव को आमंत्रित नहीं किया है तो महर्षि कश्यप के साथ भृगु ने भी दक्ष को चेतावनी दी कि महादेव के बिना ये यज्ञ सफल नहीं हो सकता। किन्तु अभिमान वश दक्ष ने उनकी बात अनसुनी कर दी। इसका परिणाम ये हुआ कि अपने पति का अपमान देख कर सती ने उसी यञकुंड में आत्मदाह कर लिया।

जब महारुद्र को इस बारे में पता चला तो उन्होंने वीरभद्र को उत्पन्न किया और उसे दक्ष को समाप्त करने को भेजा। जब दक्ष को इस बारे में पता चला तो उन्होंने महर्षि भृगु से सहायता माँगी। तब भृगु ने कहा - "हे प्रजापति! अब तो त्रिलोक में आपकी रक्षा और कोई नहीं कर सकता। किन्तु यदि आपको सेना से ही संतोष होता हो तो मैं आपको १ करोड़ योद्धाओं की सेना देता हूँ।" ये कहकर भृगु ने १००००००० भीषण योद्धा अपने मंत्रबल से उत्पन्न किये और उस यज्ञ से प्रस्थान कर गए। हालाँकि उनकी ये सहायता किसी काम ना आई क्यूंकि वीरभद्र ने उन सभी योद्धाओं का नाश कर दिया।

भगवतगीता में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि महर्षि भृगु देवताओं के सौभाग्य और उन्नति का प्रतिनिधित्व करते हैं। महर्षि भृगु द्वारा रचित "भृगु संहिता" हिन्दू धर्म के सर्वाधिक प्रसिद्ध और महत्वपूर्ण ग्रंथों में से एक है। इस ग्रन्थ में उन्होंने ग्रहों और नक्षत्रों की गति की गणना कर उससे किसी के भविष्य फल को जानने का उपाय लिखा है। इस ग्रन्थ को लिखने में उन्होंने श्रीगणेश की सहायता भी ली थी। उनके बाद इस ज्ञान को उनसे उनके पुत्र शुक्राचार्य ने प्राप्त किया।

कहते हैं कि इस ग्रन्थ में महर्षि भृगु ने स्वयं ५००००० समकालीन व्यक्तियों के भविष्यफल को समाहित किया था। यही नहीं, अगर महर्षि भृगु की कला से गणना की जाये तो ये लगभग ४५०००००० (चार करोड़ पचास लाख) गणनाएं बता सकता है। दुर्भाग्य से इस ग्रन्थ का अधिकतर हिस्सा नष्ट हो गया और आज जो भृगु संहिता हमें उपलब्ध है वो उस महान ग्रन्थ का एक छोटा सा हिस्सा ही है।

महर्षि भृगु के जीवन की जो सबसे महत्वपूर्ण घटना थी वो त्रिदेवों की परीक्षा लेना था। एक बार विद्वानों में इस बात को लेकर मतभेद हो गया कि त्रिदेवों में श्रेष्ठ कौन है। इसके लिए त्रिदेवों की परीक्षा लेने का कठिन कार्य महर्षि भृगु को सौंपा गया। इसके बारे में विस्तृत लेख धर्मसंसार पर पहले ही प्रकाशित हो चुका है जिसे आप पढ़ सकते हैं। इसके अतिरिक्त महर्षि भृगु को सप्तर्षियों का भाग भी बताया गया है।

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