यक्षिणियाँ कौन होती हैं?

यक्षिणियाँ कौन होती हैं?
हिन्दू धर्म में कई जातियों का वर्णन है। ये तो हम सभी जानते हैं कि परमपिता ब्रह्मा ने ही पूरी सृष्टि का निर्माण किया। उसे सँभालने के लिए उन्होंने अपने मानस पुत्रों को प्रकट किया। उनमें से ही एक थे महर्षि मरीचि जो सप्तर्षियों में से एक थे। उनके पुत्र थे महर्षि कश्यप जिन्होंने प्रजापति दक्ष की १७ कन्याओं से विवाह किया और उनके ही संतानों से अनेकानेक जातियों का जन्म हुआ। महर्षि कश्यप से उत्पन्न जातियों के बारे में जानने के लिए यहाँ जाएँ।

जातियों को भी कई प्रकार का माना गया है। इनमें से देवताओं का स्थान सबसे ऊँचा है और उनकी शक्तियां भी अपार मानी गयी हैं। मृत्यु लोक में रहने वाले हम मानवों की शक्तियां सीमित हैं। किन्तु कुछ ऐसी जातियां भी है जो देवताओं से नीची किन्तु मनुष्यों से बहुत अधिक शक्तिशाली मानी जाती हैं। यक्ष भी एक ऐसी ही जाति है। इन्ही यक्षों की जो शक्ति हैं वो यक्षिणियाँ हैं।

हालाँकि रामायण और पुराणों के अनुसार, यक्षों की उत्पत्ति राक्षसों के साथ स्वयं परमपिता ब्रह्मा से हुई थी। राक्षस वंश के बारे में हमने पहले ही लेख प्रकाशित किया हुआ है, इसे विस्तार से जानने के लिए यहाँ जाएँ। संक्षेप में कथा ये है कि जब ब्रह्मा जी ने जल की उत्पत्ति की तो उसकी रक्षा के लिए कुछ प्राणियों का निर्माण किया। उनमें से ही पहले थे यक्ष एवं राक्षस।

जब ब्रह्मा जी ने पूछा कि इस जल की रक्षा कौन करेगा तो हेति और प्रहेति नामक दो प्राणियों ने उसकी रक्षा का प्रण लिया और इसीलिए वे राक्षस कहलाये। ब्रह्मा जी से ही उत्पन्न एक अन्य जाति ने उस जल के यक्षण, अर्थात पूजा और वृद्धि का प्रण लिया और वे यक्ष कहलाये। हालाँकि प्रथम यक्ष कौन था इसके बारे में कोई ठोस जानकारी नहीं मिलती। कुछ लोग कुबेर को प्रथम यक्ष मानते हैं किन्तु उनका जन्म बहुत बाद में हुआ।

आगे चल कर इन्ही यक्षों की शक्तियां यक्षिणियां कहलाईं। आगे चल कर जब कुबेर यक्षों के राजा और दिग्पाल बनें तो ये सभी यक्षिणियां उनकी अनुचरी बनी। आज भी यक्षिणियों को कुबेर की द्वारपाल के रूप में चित्रित किया जाता है। ये भगवान रूद्र की सेविकाएं भी हैं। ऐसी मान्यता है कि यक्षिणियों का निवास पृथ्वी पर और पृथ्वी के निकट के लोकों में ही होता है और वे इस पृथ्वी की सभी सम्पदाओं की रक्षा करती हैं।

आम तौर पर लोग यक्षिणियों को भूत-प्रेत इत्यादि से जोड़ कर देखते हैं किन्तु ये सच नहीं है। यक्षिणी एक अलग ही जाति होती है जो अप्सराओं से मिलती जुलती लगती हैं, पर अप्सरा और यक्षिणी दोनों अलग हैं। ये अत्यंत सुन्दर, कामुक और आकर्षक देह वाली होती हैं और इनमें कई अलौकिक शक्तियां भी होती हैं। हिन्दू धर्म में वैसे तो असंख्य यक्षणियों का वर्णन हैं किन्तु उनमें से ३६ प्रमुख मानी जाती हैं। इन ३६ यक्षिणियों में से भी ८ सबसे प्रमुख हैं जिन्हे "अष्ट-यक्षिणी" कहा जाता है। ये आठों मनुष्यों को वरदान या श्राप देने में सक्षम होती हैं।

आम तौर पर यक्षिणियों को सौम्य, दयालु और अच्छे स्वभाव वाला बताया गया है जो मनुष्यों की सहायता करती हैं किन्तु हमारे ग्रंथों में कई बुरी यक्षिणियों के बारे में भी बताया गया है। अन्य यक्षिणियों की भांति ही ये भी अति शक्तिशाली होती हैं। अति सुन्दर होते हुए भी कई बुरी यक्षिणियां भयानक रूप में रहती हैं और मनुष्यों का अहित करती हैं। इन्ही बुरी यक्षिणियों को आम भाषा में "पिशाचिनी" कहा जाता है।

यक्षिणियों का निवास स्थान वैसे तो पृथ्वी पर और किसी अन्य लोक में कहीं भी हो सकता है किन्तु पृथ्वी पर यक्षिणियों को अशोक के वृक्षों से बहुत मोह होता है और उनका स्थान अशोक के पेड़ पर या उसके नीचे माना जाता है। इसीलिए भारत में ऐसा कहा जाता है कि रात्रि में अशोक के पेड़ों के निकट नहीं जाना चाहिए। अशोक के पेडों के अतिरिक्त यक्षिणी पर्वतों, नदियों, तालाबों, वनों, पत्थरों अत्यादि कई स्थानों पर रह सकती है। ऐसा माना जाता है कि ये मनुष्यों के निकट नहीं रहती और उन्हें एकांतवास प्रिय होता है।

यक्षिणियों की उत्पत्ति के विषय में दो कथाएं बहुत प्रचलित हैं। पहली कथा तो वही यक्षों की उत्पत्ति की है जिसका वर्णन हमने किया। यक्षों के साथ ही यक्षिणियों की भी उत्पत्ति हुई, ऐसी मान्यता है। कुछ मान्यताओं के अनुसार यक्षराज कुबेर की माता और महर्षि विश्रवा की पहली पत्नी इलाविडा भी यक्षिणी ही थी किन्तु इस बात में संशय है क्यूंकि हिन्दू धर्म ग्रंथों के अनुसार इलाविडा महर्षि भरद्वाज की पुत्री थी जो देवगुरु बृहस्पति के पुत्र थे।

रामायण के अनुसार मारीच की माता ताड़का भी यक्षिणी ही थी किन्तु महर्षि अगस्त्य के श्राप के कारण वो राक्षसी बन गयी। रामायण के बाल कांड में २४वें एवं २५वें सर्ग में महर्षि विश्वामित्र श्रीराम को बताते हैं कि ताड़का सुकेतु नामक यक्ष की पुत्री थी जिसमें १००० हाथियों का बल था और उसका आकर डेढ़ योजन (६ कोस) तक फैला था। पहले वो अति सुन्दर यक्षिणी ही थी किन्तु महर्षि के श्राप के बाद वो देव योनि से गिरकर राक्षस योनि में पहुँच गयी और उसका रूप अत्यंत भयानक हो गया।

यक्षिणियों के सन्दर्भ में दूसरी कथा सबसे प्रसिद्ध है। इस कथा के अनुसार जब माता सती की मृत्यु के पश्चात भगवान शंकर समाधि में चले गए और माता पार्वती उन्हें पति के रूप में पाने के लिए उनकी सेवा कर रही थी, तब कामदेव ने देवराज इंद्र के कहने पर महादेव पर काम बाण चलाने से पहले माता पार्वती पर भी काम बाण चलाया। इस पर माता को क्रोध तो बहुत आया किन्तु उन्होंने काम देव को क्षमा कर दिया क्यूंकि उनका मंतव्य गलत नहीं था।

बाद में जब कामदेव ने महादेव पर अपना बाण चलाया तो उन्होंने उसे भस्म कर दिया। माता पार्वती उस समय तपस्या में थी इसीलिए कामदेव के काम बाण के कारण उत्पन्न काम के भाव का उन्होंने शमन कर दिया और महादेव के तीसरे नेत्र की ज्वाला के ताप से वो काम भाव उनके मस्तक पर पसीने के रूप में निकल आया। उस पसीने को माता ने पोंछ कर फेंक दिया जो भूमि, पृथ्वी, आकाश और अन्य लोकों में जाकर गिरा। जहाँ-जहाँ भी माता का स्वेद गिरा, वहां से एक-एक यक्षिणी का जन्म हुआ। इसी कारण वे सभी यक्षिणियां सदैव महादेव और महादेवी की सेवा में रहती हैं। चूँकि यक्षिणियां माता के तेज से ही उत्पन्न हुई हैं इसीलिए उनमें भी असाधारण शक्तियां होती है।

यक्षिणियों का जन्म माता के काम भाव से हुआ था इसीलिए वो स्वाभाव से ही कामुक और दिखने में अत्यंत आकर्षक थी। अपने उसी कामुक स्वाभाव के कारण उनसे एक गलती ये हो गयी कि काम वेग में आकर वे अपने पास उपस्थित ऋषियों को छूने लगीं। तब ऋषियों ने क्रोध में आकर उन्हें श्राप दिया कि तुम लोग देवत्व से नीचे गिर जाओ। ऐसा ही हुआ। तब यक्षिणियों ने उनसे क्षमा याचना की जिस पर उन ऋषियों ने कहा कि तुम सब तब तक देवत्व को प्राप्त नहीं कर सकती जब तक कोई साधक तुम्हे सिद्ध ना कर ले। तभी से वे यक्षिणियां इधर उधर भटकती हैं और ऐसे साधक को खोजती हैं जो उन्हें सिद्ध कर सके ताकि वे पुनः देवत्व को प्राप्त कर सकें।

यही कारण है कि प्राचीन काल से ही यक्षिणी साधना हमारे बीच है। इस लेख के आरम्भ में हमने कहा था कि जातियों की भी अपनी श्रेणी होती है। जिनकी श्रेणी जितनी अधिक होती है उन्हें प्रसन्न करना उतना ही कठिन होता है किन्तु यदि वो प्रसन्न हो जाएँ तो हमें उतना ही श्रेष्ठ वरदान भी मिल सकता है। उदाहरण के लिए त्रिदेवों को प्रसन्न करना अत्यंत कठिन है। जो उतनी कठिन तपस्या नहीं कर सकते वे देवताओं को प्रसन्न करते हैं किन्तु जो वरदान हमें त्रिदेवों से प्राप्त हो सकता है वो देवताओं की क्षमता के बाहर हो सकता है।

किन्तु देवताओं को प्रसन्न करना भी अत्यंत कठिन है। इसीलिए लोग उप-देवताओं को भी प्रसन्न करते हैं जिन्हे प्रसन्न करना और सरल है। हालाँकि उप-देवता वे सब तो प्रदान नहीं कर सकते जो देवता कर सकते हैं फिर भी उनके पास इतनी अधिक शक्ति है जो साधारण मनुष्यों की लगभग हर इच्छा को पूर्ण कर सकते हैं। यक्षिणी साधना भी लोग इसीलिए करते हैं क्यूंकि देवताओं को प्रसन्न करना, विशेषकर कलियुग में तो लगभग असंभव है। यक्षिणियां उनसे कहीं अधिक सरलता से सिद्ध हो जाती हैं और हमारी मनोकामना पूर्ण करती हैं।

कुछ लोग ऐसे भी हैं जो उप-देवताओं को प्रसन्न कर सकने लायक भी तपस्या करने में सक्षम नहीं होते। वही फिर भूत-प्रेत इत्यादि की साधना करते हैं। उन्हें सिद्ध करना यक्षिणियों को सिद्ध करने से अधिक सरल तो होता है किन्तु उनके तामसिक स्वाभाव के कारण साधक को लाभ से ज्यादा हानि होने की ही सम्भावना होती है।

यक्षिणियों के विषय में कहा गया है कि ये अत्यंत सुन्दर और आकर्षक, मन को हरने वाली, काम क्रिया में निपुण, नट विद्या की अभ्यस्त, अनुराग प्रिय, विशाल, चंद्र की भांति उज्जवल, विजित करने वाली, भयभीत करने वाली, किसी वस्तु को अदृश्य करने वाली, कान में आकर गुप्त बात बताने वाली, अन्न भंडार भरने वाली, धन वैभव से पूर्ण करने वाली, माया और तंत्र विद्या में पारंगत और मनुष्यों से कहीं अधिक शक्तिशाली होती हैं।

यक्ष लोक को पृथ्वी से सबसे निकट माना गया है इसीलिए यक्षिणियों को प्रसन्न करना अपेक्षाकृत अधिक सरल होता है। यक्षिणी साधना में साधक सिद्ध की हुई यक्षणी से माता, भगिनी (बहन), प्रेमिका और पत्नी, इन चार रूपों में कृपा प्राप्त कर सकता है। साधक की इच्छा अनुसार यक्षणी इन्ही चार स्त्री के रूप में उसके साथ व्यहवार करती है। हालाँकि यक्षिणी इतनी सुंदर और आकर्षक होती है कि अधिकतर साधक उन्हें प्रेमिका और पत्नी के रूप में ही पाने के लिए साधना करते हैं। हालाँकि यदि साधक पहले से विवाहित हो तो प्रेमिका या पत्नी के रूप में यक्षिणी को सिद्ध करने पर उसे अपनी पत्नी का त्याग करना पड़ता है। माता और बहन के रूप में यक्षिणी को सिद्ध करने पर ऐसी कोई बाध्यता नहीं है।

यक्षिणी साधना के पहले कुबेर की साधना करना आवश्यक माना जाता है क्यूंकि सभी यक्षिणियां यक्षराज कुबेर के अधिपत्य में रहती हैं और बिना उनकी कृपा के यक्षिणियों को सिद्ध नहीं किया जा सकता। हालाँकि कोई कायर या दुर्जन व्यक्ति यक्षिणियों को सिद्ध नहीं कर सकता। ये साधना अत्यंत कठिन होती है और यदि इसे गलत तरीके से किया गया तो यक्षिणियों की कृपा के स्थान पर उनके कोप का भाजन बनना पड़ता है।

जैसा कि पहले बताया गया है कि मुख्य रूप से यक्षिणियां ३६ होती हैं, इनमें से पहली ८ और भी प्रमुख होती हैं जिन्हें अष्ट यक्षिणी कहा जता है। इनमें से भी जो पहली दो हैं, अर्थात मनोहारी और सुर सुंदरी यक्षिणी, इन दोनों की साधना ही अघिकांश साधक करते हैं। इन सभी यक्षिणियों में १२ सात्विक, १२ राजसी, और १२ तामसिक गुणों वाली होती है। आइये इनके विषय में सक्षेप में जान लेते हैं।
  1. मनोहारी यक्षिणी: ये साधक को ऐश्वर्य और धन-संपत्ति प्रदान करती हैं। ये साधक का रूप ऐसा मनोहारी बना देती है कि कोई भी उनके आकर्षण के जाल में पड़ सकता है।
  2. सुर सुंदरी यक्षिणी: ये साधक को अपनी तरह सुन्दर बना देती है और उसे अथाह धन संपत्ति प्रदान करती है। देवताओं की भांति सुन्दर होने के कारण ही इसे सुर सुंदरी कहा जाता है।
  3. कनकावती यक्षिणी: ये साधक तो तेजस्विता प्रदान करती है। साधक चाहे कोई भी कार्य करना चाहे, चाहे वो सकारात्मक हो अथवा नकारात्मक, ये सदैव उसका सहयोग करती है।
  4. कामेश्वरी यक्षणी: यदि साधक में प्रबल काम इच्छा हो तो इस यक्षिणी की साधना की जाती है। ये साधक की सभी शारीरिक दुर्बलता को दूर करती है।
  5. रतिप्रिया यक्षिणी: इन्हे सिद्ध करने पर साधक को कामदेव और रति के समान ही सुख प्राप्त होता है।
  6. पद्मिनी यक्षिणी: ये साधक को बुद्धि और आत्मविश्वास प्रदान करती है जिसे साधक उन्नति के मार्ग पर अग्रसर होता है।
  7. नटी यक्षिणी: यदि प्राण का खतरा हो तो इस यक्षिणी को सिद्ध किया जाता है। ये साधक की हर संकट से रक्षा करती है। ऐसी मान्यता है कि महर्षि विश्वामित्र ने भी इस यक्षिणी को सिद्ध किया था। चाहे तो देवता अथवा असुर ही क्यों ना हो, नटी यक्षिणी साधक तो हर स्थिति में सुरक्षा प्रदान करती है।
  8. अनुरागिनी यक्षिणी: अष्ट यक्षिणियों में अंतिम इस यक्षिणी को सिद्ध करने पर साधक को मनचाही वस्तु प्राप्त होती है। ये एक सहचरी की भांति साधक का अनुगमन करती है।
  9. विचित्र यक्षिणी: ये यक्षिणी साधक को धन और वैभव प्रदान करती है।
  10. विभ्रमा यक्षिणी: ये यक्षिणी यदि सिद्ध हो जाये तो जीवन भर साधक का भरण पोषण करती है।
  11. हंसी यक्षिणी: इस यक्षिणी को सिद्ध करने के बाद साधक को भूमि में गड़े खजाने को देखने की शक्ति प्राप्त हो जाती है।
  12. भीषणी यक्षिणी: ये साधक के सभी विघ्नों को दूर करती है।
  13. जनरञ्जिनि यक्षिणी: ये साधक के दुर्भाग्य को सौभाग्य में बदल देती है।
  14. विशाल यक्षिणी: इसे सिद्ध करने के बाद साधक को दिव्य रसायन की प्राप्ति होती है।
  15. मदना यक्षिणी: इस यक्षिणी को सिद्ध करने पर साधक अदृश्य होने की शक्ति प्राप्त कर लेता है।
  16. घन्टाकर्णी यक्षिणी: इसे सिद्ध करने पर साधक को वशीकरण शक्ति प्राप्त हो जाती है।
  17. कालकर्णी यक्षिणी: ये साधक के शत्रुओं का काल होती है।
  18. महाभया यक्षिणी: इसे सिद्ध करने पर साधक को असाधारण लम्बी आयु प्राप्त होती है।
  19. माहेन्द्री यक्षिणी: ये साधक को अनेक प्रकार की सिद्धियां प्रदान करती है।
  20. शंखिनी यक्षिणी: ये साधक की सभी इच्छाओं को पूर्ण करती है।
  21. श्मशाना यक्षिणी: ये साधक को गुप्त धन का पता बता देती है।
  22. वट यक्षिणी: इसकी साधना वटवृक्ष के नीचे की जाती है जिससे अपार धन प्राप्त होता है।
  23. मदनमेखला यक्षिणी: ये साधक को दिव्य दृष्टि प्रदान करती है।
  24. चन्द्रि यक्षिणी: ये साधक को अनेक पारलौकिक शक्तियां प्रदान करती है।
  25. विकला यक्षिणी: इसकी साधना पर्वतों और कंदराओं में की जाती है जो मनुष्य की सभी मनोकामनाओं को पूर्ण करती है।
  26. स्वर्णरेखा यक्षिणी: ये साधक को स्वर्ण एवं दिव्य वस्त्र प्रदान करती है।
  27. प्रमोदा यक्षिणी: ये साधक को दिव्य निधि प्रदान करती है।
  28. नखकोशिका यक्षिणी: ये साधक को निरोगी जीवन प्रदान करती है।
  29. भामिनि यक्षिणी: इन्हे सिद्ध करने के बाद साधक को गड़ा धन प्राप्त होता है।
  30. स्वर्णावती यक्षिणी: ये साधक को अकूत स्वर्ण प्रदान करती है।
  31. धनदा यक्षिणी: ये साधक को अपार धन प्रदान करती है।
  32. पुत्रदा यक्षिणी: ये साधक को संतान प्रदान करती है।
  33. महालक्ष्मी यक्षिणी: ये माता लक्ष्मी का स्वरुप मानी जाती है जो साधक को ऐश्वर्य प्रदान करती है।
  34. जया यक्षिणी: ये साधक के सभी कार्यों को सिद्ध करती है।
  35. भूतिनी यक्षिणी: ये साधक की इच्छा के अनुसार कोई भी रूप ले सकती है।
  36. कर्णपिशाचनी यक्षणी: ये तामसिक यक्षणी होती है जिसे सिद्ध करने पर ये साधक के कान में आकर भूत, वर्तमान और भविष्य बताती है। इसकी साधना करना बहुत खतरनाक बताया गया है।
आपको ये जानकर हैरानी होगी कि संसार के लगभग सभी धर्मों में यक्षिणियों की मान्यता है। हिन्दू धर्म के अतिरिक्त बौद्ध धर्म में भी ६४ यक्षिणियों का वर्णन है जिनमें से ३६ हिन्दू धर्म में वर्णित यक्षिणियां ही हैं।

जैन धर्म में २४ यक्षिणियों का वर्णन है जो उनके २४ तीर्थंकरों की रक्षिकायें मानी जाती हैं। इनके अतिरिक्त पंचांगुली यक्षिणी को वर्तमान तीर्थंकर स्वामी सीमंधर की रक्षिका हैं। उन यक्षिणियों और जिन तीर्थंकरों के सेवा में वे हैं, उनके नाम हैं:
  1. चक्रेश्वरी यक्षिणी: स्वामी ऋषभनाथ
  2. अजिता यक्षिणी: स्वामी अजितनाथ
  3. दुरिता यक्षिणी: स्वामी सम्भवनाथ
  4. कलिका यक्षिणी: स्वामी अभिनन्दननाथ
  5. महाकाली यक्षिणी: स्वामी सुमितनाथ
  6. अच्युता यक्षिणी: स्वामी पद्मप्रभु
  7. शांता यक्षिणी: स्वामी सुपार्श्वनाथ
  8. भृकुटि यक्षिणी: स्वामी चन्द्रप्रभु
  9. सुताश यक्षिणी: स्वामी सुविधिनाथ
  10. अशोका यक्षिणी: स्वामी शीतलनाथ
  11. मानवी यक्षिणी: स्वामी श्रेयांशनाथ
  12. प्रचंडा यक्षिणी: स्वामी वासुपूज्य
  13. विदिता यक्षिणी: स्वामी विमलनाथ
  14. अंकुशा यक्षिणी: स्वामी अनंतनाथ
  15. कंदर्पा यक्षिणी: स्वामी धर्मनाथ
  16. निर्वाणी यक्षिणी: स्वामी शांतिनाथ
  17. बला यक्षिणी: स्वामी कुंथुनाथ
  18. धारिणी यक्षिणी: स्वामी अरनाथ
  19. वैरोढ़या यक्षिणी: स्वामी मल्लिनाथ
  20. नरदसता यक्षिणी: स्वामी सुब्रतनाथ
  21. गांधारी यक्षिणी: स्वामी नमिनाथ
  22. अम्बिका यक्षिणी: स्वामी नेमिनाथ
  23. पद्मावती यक्षिणी: स्वामी पार्श्वनाथ
  24. सिद्धिदायिका यक्षिणी: स्वामी महावीर
  25. पंचांगुली यक्षिणी: स्वामी सीमंधर (वर्तमान तीर्थंकर)
दक्षिण भारत में यक्षिणी की बहुत अधिक मान्यता है। हालाँकि वहां तामसिक प्रवृत्ति वाली यक्षणियों की अधिक प्रसिद्धि है। दक्षिण भारत की कुछ प्रमुख यक्षिणियां हैं चंपाकावाली, नीलापिल्ला, कल्लियंकत्तु नीली, कंजिराट्टु इत्यादि।

ये लेख आपको केवल यक्षणियों की जानकारी देने के लिए है, ना कि उन्हें सिद्ध करने के विषय में। आपसे अनुरोध है कि बिना पूरी जानकारी, गुरु और ज्ञान के कृपया किसी भी यक्षिणी साधना को करने का प्रयास ना करें अन्यथा ये घातक सिद्ध हो सकता है।

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