महर्षि मरीचि

महर्षि मरीचि
महर्षि मरीचि परमपिता ब्रह्मा के प्रथम मानस पुत्रों में से एक हैं जिनकी उत्पत्ति ब्रह्मा के मन से हुई मानी जाती है, जिसके कारण उनका नाम 'मरिचि' पड़ा। प्रथम मनु स्वयंभू के मन्वन्तर में जो ७ ऋषि (मरीचि, पुलत्स्य, पुलह, क्रतु, अंगिरा, अत्रि एवं वशिष्ठ) सप्तर्षि कहलाये वो सभी ब्रह्मपुत्र थे। ब्रह्मदेव के पुत्र होने के कारण उन्हें 'समब्रह्म' अर्थात ब्रह्मा के सामान कहा जाता है किन्तु मरीचि को उनकी महानता के कारण साक्षात् द्वितीय ब्रह्मा भी कहा जाता है।

इनका निवास स्थान मेरु पर्वत के शिखर पर बताया गया है। मरीचि सहित अन्य सप्तर्षियों की गिनती १० प्रजापतियों में भी की जाती है। अन्य तीन प्रजापति हैं - नारद, भृगु और प्रचेता। इनकी महानता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि अर्जुन को गीता का ज्ञान देते हुए श्रीकृष्ण कहते हैं - 'हे पार्थ! आदित्यों में मैं विष्णु हूँ, तेज में मैं सूर्य हूँ, मरुतों में मैं मरीचि हूँ और नक्षत्रों में मैं चंद्र हूँ।' यही कारण है कि इन्हे प्रजापतियों में श्रेष्ठ समझा जाता है। महाभारत में इन्हे 'चित्रशिखण्डी' कहा गया है।

पुराणों में महर्षि मरीचि की तीन पत्नियों के बारे में लिखा गया है। इनकी एक पत्नी प्रजापति दक्ष की पुत्री 'सम्भूति' थी। इनके अतिरिक्त उनकी दो अन्य पत्नियां 'कला' और धर्म की पुत्री 'ऊर्णा' थी। ऊर्णा का ही दूसरा नाम धर्मव्रता था जिसे मरीचि ने मिथ्याबोध के कारण पाषाण बनने का श्राप दे दिया। धर्मव्रता ने इसका विरोध किया और स्वयं को निर्दोष सिद्ध करने के लिए उन्होंने अपना बलिदान दे दिया। उनके इस बलिदान से भगवान विष्णु प्रसन्न हुए और उन्हें वरदान दिया कि उनका ये पाषाण रूप 'देवशिला' के नाम से संसार में प्रसिद्ध होगा। इस पाषाण पर गयासुर की मृत्यु के बाद उसे स्थापित किया गया जो बिहार के गया में अत्यंत पवित्र स्थान माना जाता है।

मरीचि की दूसरी पत्नी कर्दम की पुत्री कला थी जिससे इन्हे दो पुत्र कश्यप एवं पर्णिमास हुए। कश्यप हिन्दू धर्म के सबसे महान ऋषियों में से एक माने जाते हैं। इन्होने आगे चलकर अपने पिता की भांति सप्तर्षियों का पद भी प्राप्त किया। कई जगह इनका नाम अरिष्टनेमि भी कहा गया है। इनका विवाह प्रजापति दक्ष की १३ पुत्रियों के साथ हुआ और उनसे से समस्त संसार की उत्पत्ति हुई। देव, दैत्य, असुर, नाग, सर्प इत्यादि सभी जातियाँ महर्षि कश्यप की ही संताने हैं। 

महर्षि कश्यप के भाई पूर्णिमास का विवाह सरस्वती नामक स्त्री से हुआ जिससे उन्हें 'विरह' एवं 'सर्वस' नामक दो पुत्र प्राप्त हुए। विरह के पुत्र सुधामा हुए और सुधामा के पुत्र वैराज हुए। सर्वस के यज्ञनाम और काश्यप (कश्यप नहीं) नामक दो पुत्र प्राप्त हुए। काश्यप के वत्सर और असित ये दो पुत्र हुए। वत्सर के पुत्र नैध्रुव और रैभ्य हुए। रैभ्य के रैभ्यादिक इत्याति अनेक पुत्र हुए। नैध्रुव का विवाह ऋषि च्यवन की कन्या से हुआ जिससे उन्हें सुमेधा नामक पुत्र प्राप्त हुआ। असित की पत्ती पर्णा से देवल हुए। शण्डिल्य, नैध्रुव और रैभ्य इन तीन वर्गो में महर्षि कश्यप का गोत्र आगे विस्तृत हुआ।

परमपिता ब्रह्मा ने पुष्कर में जो प्रसिद्ध और महान यज्ञ किया था उसमें महर्षि मरीचि 'अच्छावाक्' पद पर नियुक्त हुए थे। यही नहीं, १०००० श्लोकों से युक्त ब्रह्मपुराण का दान भी ब्रह्मदेव ने सबसे पहले महर्षि मरीचि को ही दिया था। कहा जाता है कि जब महारथी भीष्म वाणों की शैय्या पर थे तो महर्षि मरीचि उनसे मिलने आये थे। यही नहीं उन्होंने ही भक्तश्रेष्ठ ध्रुव को श्रीहरि की तपस्या करने की प्रेरणा दी थी। ऐसा वर्णन है कि प्रजापति दक्ष के प्रसिद्ध यज्ञ में महर्षि मरीचि ने भी भगवान शंकर का अपमान कर दिया था जिसके बाद शंकर ने उन्हें भस्म कर दिया था। 

जैन धर्म में भी महर्षि मरीचि का बड़ा महत्त्व है। जैन धर्म में मरीचि को जैन धर्म एक पहले तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव के शिष्य 'भरत चक्रवर्ती' के पुत्र थे। उस जन्म में मरीचि ऋषभदेव के शिष्य बने किन्तु दिगंबर के कठिन नियम का पालन ना कर पाने के कारण उन्होंने अपना अलग धर्म बनाया और कपिल मुनि को अपना प्रथम शिष्य बनाया। वही महर्षि मरीचि कई जन्मों के पश्चात आगे चलकर जैन धर्म के अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर के रूप में जन्मे।

2 टिप्‍पणियां:

कृपया टिपण्णी में कोई स्पैम लिंक ना डालें एवं भाषा की मर्यादा बनाये रखें।