कालयवन

कालयवन
कालयवन महाभारत काल का एक योद्धा था जो यवनों का राजा था। नहुष के पुत्र ययाति के ५ पुत्र हुए और उन्ही से समस्त राजवंश चले। किन्तु पुरु को छोड़ कर ययाति ने किसी को भी एकछत्र सम्राट बनने का अधिकार नहीं दिया। उन्ही के एक पुत्र और पुरु के बड़े भाई 'द्रुहु' से म्लेच्छों का राजवंश चला। 

यवन भी द्रुहु के ही वंश में आते थे और उनका राज्य आर्यावर्त से बहुत दूर उजाड़ जगह पर अलग-थलग बसा हुआ था। अधिकतर लोगों को लगता है मुस्लिम ही प्राचीन काल में यवन थे किन्तु ऐसा नहीं है। हो सकता है इन्ही की कोई जाति से आगे चल कर मुस्लिम धर्म आरम्भ हुआ हो किन्तु मुस्लिम बहुत बाद में (लगभग ५०००) वर्ष बाद अस्तित्व में आये।

कालयवन इन्ही यवनों का राजा था। हालाँकि जन्म से कालयवन एक ब्राह्मण था। एक ब्राह्मण थे जिनका नाम था 'शेशिरायण' जिन्होंने सिद्धि प्राप्त करने के लिए १२ वर्षों का ब्रह्मचर्य धारण किया हुआ था। उन्हें ब्रह्मचर्य धारण किये हुए ११ वर्ष से अधिक हो गया था और कुछ ही दिनों में उनका व्रत पूर्ण होने वाला था। एक दिन वे एक सभा में गए जहाँ कुछ लोगों ने उनके इस ब्रह्मचर्य का मजाक उड़ाते हुए उन्हें नपुंसक कह दिया। ये अपमान उन्हें इतना चुभा कि मारे क्रोध के उन्होंने अपने ब्रह्मचर्य व्रत का ध्यान ना रखते हुए महादेव की घोर तपस्या आरम्भ की। 

जब महादेव प्रसन्न हुए तो शेशिरायण ने उनसे एक ऐसे पुत्र की कामना की जिसे कोई मार ना सके। उनकी इच्छा सुनकर भोलेनाथ ने उन्हें वरदान दिया कि उन्हें एक ऐसा पुत्र प्राप्त होगा जिसे सूर्यवंशी या चंद्रवंशी किसी भी अस्त्र-शस्त्र से ना मार सके। किन्तु अमरता संभव नहीं थी इसी कारण उन्होंने ये प्रतिबन्ध लगा दिया कि जब भी वो किसी ऐसे व्यक्ति का अपमान करेगा जिसे स्वयं किसी को मृत्यु देने का वरदान प्राप्त हो, तब उसकी मृत्यु हो जाएगी। साथ में महादेव ने ये जान लिया कि इतने दिन ब्रह्मचारी रहने के कारण शेशिरायण के मन में भोग विलास की इच्छा भी है इसीलिए उन्होंने उसे काम-वासना की पूर्ति का भी वरदान दे दिया।

महादेव के वरदान से ऋषि का शरीर पूर्ण यौवनत्व को प्राप्त हुआ। वापस जाते समय उन्हें सरोवर में एक अत्यंत सुन्दर स्त्री क्रीड़ा करते हुए दिखी। वो इंद्र की श्रेष्ठ अप्सरा रम्भा थी। ऋषि ने उसे अपना परिचय दिया और विवाह की आकांक्षा रखी। उनका रूप और गुण देखकर रम्भा ने विवाह की सहमति दे दी और दोनों का विवाह हो गया। इन दोनों का पुत्र ही कालयवन हुआ।

उसी समय आर्यावर्त से दूर मलीच देश पर 'कालजंग' नामक यवन राज्य करता था। उसकी इच्छा थी कि वो अपने आस पास के राज्यों पर अधिकार जमा ले किन्तु उसकी सैन्य शक्ति उतनी नहीं थी। एक दिन उसके गुरु ने कहा कि आर्यावर्त में शेशिरायण के पुत्र को ये वरदान प्राप्त है कि उसे कोई पराजित नहीं कर सकता। तुम जाकर उनसे उनका पुत्र माँग लोग जिसके प्रभाव से तुम्हारा कोई विरोध नहीं कर पायेगा।

अपनी गुरु की आज्ञा अनुसार कालजंग शेशिरायण के पास पहुँचा और उनसे उनके पुत्र को माँगा। इसपर ऋषि हिचकिचाए कि किस प्रकार वे अपने पुत्र को उस यवन के हाथों सौंप सकते हैं? ये सोच कर उन्होंने कालजंग के प्रस्ताव को ठुकरा दिया। तब कालजंग ने उन्हें बताया कि उसे पता है कि किस प्रकार उन्होंने भगवान शिव की तपस्या से उस पुत्र को प्राप्त किया है।

उसने कहा - 'हे महर्षि! आपने अजेय पुत्र तो प्राप्त कर लिया किन्तु आप तो ब्राह्मण हैं। युद्ध और राज्य से आपको कोई मतलब नहीं है। धन का आपको कोई लोभ नहीं। ना ही आपका कोई राज्य है जिसके विस्तार की आपको कोई इच्छा है। फिर ऐसे असाधारण वरदान प्राप्त पुत्र की आपको आवश्यकता ही क्या है? ऐसे तो इसका वरदान आपके आश्रम में रहते-रहते व्यर्थ हो जाएगा। इससे अच्छा आप इस मुझे सौंप दें। इसके वरदान की सहायता से मैं इसे विश्व विजेता बना दूँगा और आपका यश समस्त संसार में फ़ैल जाएगा।'

ये सुनकर ऋषि सोच में पड़ गए। कालजंग सत्य ही कह रहा था। जिस प्रकार का वरदान उन्होंने महादेव से माँगा था उसका कोई भी उपयोग उनका पुत्र उनके साथ रहकर नहीं कर सकता था। उन्हें इस प्रकार चिंतामग्न देख कर कालजंग ने पुनः कहा - 'हे महर्षि! आप किसी भी प्रकार की चिंता ना करें। ये सदा आपका ही पुत्र कहलायेगा और मैं केवल इसका दत्तक पिता कहा जाऊँगा। आपने १२ वर्षों तक घोर ब्रह्मचर्य का पालन किया है और उसके पश्चात आपको स्त्री सुख प्राप्त हुआ है। आप अपने पुत्र के पालन पोषण की जिम्मदारी मुझे सौंप कर निश्चिंत हो अपने विवाहित जीवन का आनंद उठायें।'

कालजंग के इस प्रकार समझने पर अंततः ऋषि मान गए और अपने पुत्र को कालजंग का दत्तक पुत्र बना कर उसके साथ भेज दिया। कालजंग प्रसन्नतापूर्वक उस बालक को लेकर मलीच देश वापस आ गया और उसे अपना युवराज घोषित कर दिया। उसने उसका नाम 'कालयवन' रखा। उसके वापस आते ही सब जगह ये बात फ़ैल गयी कि उसका पुत्र महारुद्र का कृपापात्र है। अब कालजंग ने आस-पास के समस्त राजाओं पर आक्रमण किया। अधिकतर राजाओं ने तो केवल उसके पुत्र के वरदान की बात सुकर उसकी अधीनता स्वीकार कर ली। जिन्होंने नहीं की उसे उसने अपने पुत्र के वरदान के कारण बल पूर्वक जीता। 

जल्द ही वो बालक तरुण हुआ और महादेव के वरदान के कारण सभी के द्वारा अवध्य होकर उसने अतुल बल प्राप्त किया। वो साम्राज्य जिसे कालजंग नहीं जीत पाया था उसे कालयवन ने अपने बाहुबल से जीता। सभी जानते थे कि वो अवध्य है, इसी कारण कोई भी उसके विरुद्ध खड़ा नहीं होता था। इस प्रकार अपने बल और पराक्रम से उसने अपने साम्राज्य का अनंत विस्तार किया। सत्ता के विस्तार की उसकी इस लालसा ने उसके अंदर से मनुष्यत्व की भावना मिटा दी और वो निरंकुश हो गया। इस प्रकार जन्म से ब्राह्मण कालयवन कर्म से राक्षस बन गया।

अपने बाहुबल और वरदान के बल पर कालयवन ने समस्त एवं देशों पर अपना अधिपत्य जमा लिया। दूसरी और उसी समय आर्यावर्त में जरासंध श्रीकृष्ण के बढ़ते हुए प्रभाव से दुखी था। उसने मथुरा पर १७ बार आक्रमण किया किन्तु हर बार कृष्ण और बलराम के सामर्थ्य के कारण उसे मुँह की कहानी पड़ी। उसी समय जरासंध को कालयवन और उसे प्राप्त वरदान के बारे में पता चला। कृष्ण उसके वरदान के कारण उसे मार नहीं सकते थे और यही सोच कर जरासंध ने कालयवन को अपने साथ मिलाने के बारे में सोचा। 

ये सोच कर उसने मद्रदेश के राजा शल्य को यवनदेश कालयवन से मिलने को भेजा। उसकी आज्ञा पाकर शल्य आर्यावर्त से बहुत दूर यवनों के देश में पहुँचे और कालयवन से मिले। उन्होंने उसे जरासंध का प्रस्ताव सुनाया कि उसकी सहायता कर कालयवन आर्यावर्त में भी अपना प्रभाव बढ़ा सकता है। किन्तु कालयवन पर उनकी बातों का कोई असर नहीं हुआ। उसे ये समझ में नहीं आया कि क्यों उसे अपना बसा बसाया देश छोड़कर एक अनजान राजा की मदद के लिए अनजान देश जाना चाहिए। 

दैवयोग से देवर्षि नारद उस समय यवन देश पहुंचे। उन्हें पता था कि कालयवन के अंत का समय अब आ गया है। उन्होंने कालयवन को कहा कि भले ही तुम्हारे वरदानों के कारण कोई तुमसे युद्ध नहीं करता किन्तु आर्यवर्त में कृष्ण नाम का एक व्यक्ति है जो तुम्हे परास्त कर सकता है। देवर्षि की ये युक्ति काम कर गयी और कृष्ण को पराजित करने का स्वप्न लेकर कालयवन शल्य के साथ आर्यावर्त चलने को तैयार हो गया।

शल्य कालयवन और उसकी विशाल सेना को लेकर आर्यावर्त पहुँचा। वहाँ जरासंध ने उसका बहुत सत्कार किया और फिर कालयवन की सेना के साथ मिलकर अपनी विशाल सेना के साथ कृष्ण पर १८वीं बार आक्रमण करने को मथुरा की ओर बढ़ा। कृष्ण जरासंध के इस बार-बार के आक्रमण से तंग आ चुके थे। इस बार उन्हें पता चला कि कालयवन भी जरसंध की सेना के साथ आ रहा है। कृष्ण को उसके वरदान के विषय में पता था इसी कारण उन्होंने द्वारका नामक एक नया नगर बसाया और समस्त मथुरावासियों को वहाँ भेज दिया। वे स्वयं बलराम के साथ बिना किसी सेना के मथुरा में ही रुक गए। 

जब जरासंध मथुरा पहुँचा तो वहाँ कृष्ण और बलराम को अकेला देख कर बड़ा हैरान हुआ। कालयवन ने जब श्रीकृष्ण को देखा तो उसे लगा कि ये ग्वाला किस प्रकार मुझे हरा सकता है? इससे पहले कि युद्ध आरम्भ होता, श्रीकृष्ण ने कहा कि युद्ध कर के कई सैनिकों की प्राणों की बलि लेने से अच्छा है कि दो योद्धा आपस में द्वन्द कर लें। जरासंध मान गया और कालयवन को कृष्ण ने युद्ध करने को भेजा। उसे विश्वास था कि अपने वरदान के कारण कालयवन अवश्य कृष्ण का वध कर देगा। 

जब कालयवन कृष्ण से लड़ने आया तो उन्होंने कहा कि हम किसी खुले स्थान पर चलते हैं जहाँ हम खुल कर युद्ध कर सकें। कालयवन उनके झांसे में आ गया। वो कृष्ण के पीछे-पीछे अकेला चल पड़ा। जब सेना पीछे छूट गयी तो श्रीकृष्ण तीव्र गति से युद्ध क्षेत्र छोड़ कर निकल गए। ये देख कर कालयवन को बड़ा क्रोध आया और वो रणछोड़-रणछोड़ कहता हुआ श्रीकृष्ण के पीछे दौड़ा। तभी से कृष्ण का एक नाम 'रणछोड़' भी पड़ा। 

भागते-भागते श्रीकृष्ण एक गुफा के पास आये जिसके अंदर राजा मुचुकुन्द सहस्त्रों वर्षों से सो रहे थे। उन्होंने अपना उत्तरीय राजा मुचुकुन्द के ऊपर डाला और पास में ही छिप गए। मुचुकुन्द श्रीराम के पूर्वज महाराज मान्धाता के पुत्र थे। उन्होंने देवासुर संग्राम में देवराज इंद्र की सहायता की जिसमे उनका सारा परिवार मारा गया। उनके पीछे उनके पिता मान्धाता ने मुचुकुन्द के भाई सुसन्धि को राजा बना दिया।

इन सब से दुखी होकर मुचुकुन्द इंद्र के पास पहुँचे और उनसे कहा कि इतना लम्बा युद्ध कर और अपने परिजनों की मृत्यु का समाचर सुनकर मैं बहुत थक गया हूँ और सोना चाहता हूँ। मैं नहीं चाहता कि कोई मुझे जगाये। तब इंद्र ने उन्हें निद्रा का वरदान दिया और साथ ही ये भी कहा कि जो भी तुम्हे जगायेगा वो तत्काल जल कर भस्म हो जाएगा। तभी से मुचुकुन्द युगों से उसी गुफा में सो रहे थे। 

श्रीकृष्ण का पीछा करता हुआ जब कालयवन वहाँ पहुँचा तो उनका उत्तरीय मुचुकुन्द पर डाला देख उसने उन्हें ही कृष्ण समाझ लिया। तब उसने क्रोध में कृष्ण का उत्तरीय ओढ़े मुचुकंद को लात मारी जिससे उनकी निद्रा टूट गयी। जैसे ही मुचुकुन्द ने आँख खोली, उनके सामने खड़ा कालयवन भस्म हो गया। इस प्रकार श्रीकृष्ण की युक्ति से उस दुष्ट का अंत हुआ। उसके बाद श्रीकृष्ण ने मुचुकुन्द को दर्शन दिए और फिर मुचुकुन्द ने अपने देह को त्याग कर उत्तम लोक को प्राप्त किया।

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