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जब भृगु ऋषि के श्राप के कारण अग्निदेव रुष्ट हो गए

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ब्रह्माजी के पुत्र महर्षि भृगु के विषय में तो हम सब जानते ही हैं। उनकी पत्नी का नाम था पुलोमा जो अद्वितीय सौंदर्य की स्वामिनी थी। एक बार महर्षि भृगु स्नान के लिए आश्रम से बाहर गए हुए थे। उस समय पुलोमा गर्भवती थी। उसी समय एक राक्षस जिसका नाम भी संयोग से पुलोमा ही था, वो आश्रम पर आया। भृगु ऋषि की पत्नी को देखते ही वो सुध-बुध खो बैठा। उसने निश्चय किया कि वो पुलोमा का हरण कर लेगा।

जब तक्षक ने धन देकर काश्यप ऋषि को लौटा दिया

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आपने महाराज परीक्षित वाले लेख में पढ़ा था कि किस प्रकार कलियुग के प्रभाव में आकर उन्होंने ऋषि शमीक के कंधे पर एक मरे हुए सर्प को डाल दिया। इससे क्रोधित होकर उनके पुत्र श्रृंगी ने महाराज परीक्षित को ये श्राप दिया कि आज से सातवें दिन नागराज तक्षक के डंसने से उनकी मृत्यु हो जाएगी। ये सुनकर महाराज परीक्षित बड़ा घबराये और अपनी सुरक्षा का प्रबंध कर लिया, किन्तु फिर भी सबको ये विश्वास था कि तक्षक से उन्हें कोई नहीं बचा सकता।

महर्षि उत्तंक

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पिछले लेख में हमने महर्षि आयोदधौम्य के तीन शिष्यों - आरुणि, उपमन्यु और वेद के विषय में पढ़ा था। इस लेख में हम महर्षि उत्तंक के विषय में जानेंगे जो महर्षि वेद के ही शिष्य थे। महर्षि उत्तंक की कथा हमें महाभारत के दो पर्वों में मिलती है - आदि पर्व और आश्वमेधिक पर्व। हालाँकि दोनों कथाओं का सार एक ही हैं किन्तु दोनों में महर्षि उत्तंक के गुरु अलग-अलग बताये गए हैं। आदि पर्व के अनुसार उनके गुरु थे महर्षि वेद जबकि आश्वमेधिक पर्व के अनुसार महर्षि उत्तंक के गुरु महर्षि गौतम बताये गए हैं।

आरुणि, उपमन्यु और वेद - एक ही गुरु के तीन अद्भुत शिष्य

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हिन्दू धर्म में सदा से गुरु शिष्य परंपरा रही है। हमारे इतिहास में एक से एक शिष्य हुए हैं जिन्होंने अपने गुरु के लिए बड़ा से बड़ा बलिदान दिया, किन्तु आज हम एक ही गुरु के तीन ऐसे शिष्यों के विषय में बताएँगे जैसे फिर किसी और गुरु को नहीं मिले। इसका वर्णन हमें महाभारत के आदि पर्व के तीसरे अध्याय में मिलता है।

क्या वास्तव में महर्षि दुर्वासा ने शकुंतला को श्राप दिया था?

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महाराज दुष्यंत और शकुंतला की कथा तो हम सभी जानते ही हैं। हालाँकि यदि मैं कहूं कि इनकी वास्तविक कथा आज बहुत ही कम लोग जानते होंगे, तो आपको बड़ा आश्चर्य होगा। वो इसीलिए क्यूंकि ये हिन्दू धर्म की सबसे प्रसिद्ध कथाओं में से एक है। लेकिन मेरा विश्वास कीजिये कि आपमें से बहुत ही कम लोग होंगे जिन्हे वास्तव में इन दोनों की सही कथा के विषय में पता होगा। तो सबसे पहले जो कथा जनमानस में प्रसिद्ध है उसे संक्षेप में जान लेते हैं।

मूल व्यास महाभारत की संरचना

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अधिकतर लोगों को ये पता है कि महाभारत में कुल १८ पर्व और १००००० श्लोक हैं। जनमानस में भी यही जानकारी उपलब्ध है किन्तु बहुत कम लोगों को ये पता होगा कि वास्तव में महर्षि वेदव्यास ने बहुत ही वृहद् महाभारत की रचना की थी। इतना वृहद् जिसकी हम लोग कदाचित कल्पना भी नहीं कर सकते। इसका वर्णन हमें महाभारत के प्रथम और द्वितीय अध्याय में मिलता है।

सृष्टि के आरम्भ में ब्रह्माण्ड से किन-किनकी उत्पत्ति हुई?

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जब हम व्यास महाभारत पढ़ते हैं तो उसके पहले ही पर्व, आदिपर्व के अनुक्रमाणिका पर्व के श्लोक २१ में हमें ब्रह्माण्ड की उत्पति और फिर उस ब्रह्माण्ड से जिन-जिन लोगों की उत्पत्ति हुई, उसका वर्णन मिलता है। इससे हमें सृष्टि के आरम्भ का एक सार मिल जाता है।

क्या रामायण में श्रवण कुमार का कोई वर्णन है?

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श्रवण कुमार की कथा से भला कौन परिचित नहीं है। आधुनिक काल में वो एक कर्तव्यनिष्ठ पुत्र के एक ऐसे उदाहरण हैं जिनके जैसा बनना हर संतान का एक स्वप्न होता है। हम ये भी जानते हैं कि श्रवण कुमार की कथा श्रीराम के पिता महाराज दशरथ से जुडी हुई है। किन्तु क्या वाल्मीकि रामायण में श्रवण कुमार नाम के किसी चरित्र का वर्णन दिया गया है? तो इसका उत्तर है नहीं। रामायण में किसी श्रवण कुमार का वर्णन हमें नहीं मिलता।

ऋषि जाबालि

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कुछ समय पहले हमने चार्वाक दर्शन पर एक लेख प्रकाशित किया था जो पूर्ण रूप से नास्तिक विचारधारा पर आधारित है। किन्तु यदि हम रामायण का अध्ययन करते हैं तो हमें पता चलता है कि नास्तिक विचारधारा आज की नहीं अपितु बहुत पहले से चली आ रही है। आधुनिक काल में उसके प्रवर्तक चार्वाक माने जाते हैं किन्तु उनसे बहुत पहले रामायण में भी एक ऋषि थे जिनकी विचारधारा घोर नास्तिक मानी जाती है।

महर्षि विश्वामित्र ने श्रीराम और लक्ष्मण को कौन-कौन से अस्त्र दिए थे?

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रामायण में जब महर्षि विश्वामित्र महाराज दशरथ से श्रीराम और लक्ष्मण को मांग कर ले जाते हैं तो ताड़का वध से पहले और उसके बाद वे दोनों भाइयों कई प्रकार के अस्त्र-शस्त्र और विद्याएं प्रदान करते हैं। इसका वर्णन वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड के २२वें और २७वें सर्ग में दिया गया है। आइये उन सभी के बारे में जानते हैं:

ताड़का

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ताड़का रामायण में वर्णित एक राक्षसी थी जिसका वर्णन हमें रामायण के बालकाण्ड के २४वें सर्ग में मिलता है। जब महर्षि विश्वामित्र महाराज दशरथ से अपने यज्ञ की रक्षा हेतु श्रीराम और लक्ष्मण को मांग कर ले गए, तब मार्ग में यज्ञ से पहले ताड़का राक्षसी का सन्दर्भ आता है। ताड़का वास्तव में एक यक्षिणी थी जिसे राक्षस योनि में जन्म लेने का श्राप मिला था।

धर्मव्रता

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धर्मव्रता सप्तर्षियों में से प्रथम महर्षि मरीचि की धर्मपत्नी है। पुराणों में महर्षि मरीचि की तीन पत्नियों का वर्णन है। उनकी एक पत्नी प्रजापति दक्ष की कन्या सम्भूति थी। उनकी दूसरी पत्नी का नाम कला था और तीसरी पत्नी धर्मराज की कन्या ऊर्णा थी। ऊर्णा को ही धर्मव्रता कहा जाता है। इनकी माता का नाम विश्वरूप बताया गया है। जब धर्मव्रता बड़ी हुई तो उसके पिता धर्मराज ने उसके लिए योग्य वर ढूँढना चाहा किन्तु अपनी पुत्री के लिए उन्हें कोई योग्य वर नहीं मिला। तब धर्मराज ने अपनी पुत्री को वर प्राप्ति हेतु तपस्या करने को कहा।

परावसु, अर्वावसु और यवक्रीत की कथा

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कथा महाभारत के वन पर्व की है। युधिष्ठिर अपना सारा राज पाठ द्युत में हार कर अपने भाइयों और द्रौपदी के साथ १२ वर्षों के लिए वन चले गए। वहाँ सभी भाई, विशेषकर युधिष्ठिर ऋषियों-महर्षियों के सानिध्य में अपना दिन काट रहे थे। उनसे मिली शिक्षा उनके मनोबल को और दृढ करती थी। उसी समय लोमश ऋषि घुमते हुए उनके आश्रम में आये। सभी भाइयों ने उनकी बड़ी सेवा की।

श्रीफल

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नारियल हिन्दू धर्म के सबसे पवित्र वस्तुओं में से एक माना जाता है। इसे श्रीफल भी कहते हैं, अर्थात समृद्धि देने वाला फल। इसीलिए इसे माता लक्ष्मी से भी जोड कर देखा जाता है। दुनिया में केवल नारियल ही एक ऐसा फल है जो पूर्ण रूप से शुद्ध है और जिसमें किसी भी प्रकार की मिलावट नहीं की जा सकती। यही नहीं, केवल नारियल ही एक ऐसा वृक्ष है जिससे जुडी हर चीज मनुष्य के काम आती है। इसीलिए भारत, विशेषकर दक्षिण भारत में इसे "कल्पवृक्ष" भी कहा जाता है।

महर्षि भृगु

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पुराणों में महर्षि भृगु के बारे में बहुत कुछ लिखा गया है। ये भारतवर्ष के सर्वाधिक प्रभावशाली, सिद्ध और प्रसिद्ध ऋषियों में से एक है। ये परमपिता ब्रह्मा  के पुत्र और महर्षि अंगिरा के छोटे भाई थे और वर्तमान के बलिया (उत्तरप्रदेश) में जन्मे थे। ये एक प्रजापति भी हैं और स्वयंभू मनु के बाद के मन्वन्तरों में कई जगह इनकी गणना सप्तर्षियों में भी की जाती है। इनके वंशज आगे चल कर भार्गव कहलाये और उनसे भी भृगुवंशियों का प्रादुर्भाव हुआ। नारायण के छठे अवतार श्री परशुराम भी इन्ही के वंश में जन्मे और भृगुवंशी कहलाये।

कार्तवीर्य अर्जुन

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कार्तवीर्य अर्जुन पौराणिक काल के एक महान चंद्रवंशी सम्राट थे जिनकी राजधानी महिष्मति नगरी थी। इनके वंश का आरम्भ ययाति के पुत्र यदु से हुआ। ये वास्तव में यदुवंशी ही थी किन्तु आगे चलकर यदुवंश से हैहय वंश अलग हो गया जिस कारण ये हैहैयवंशी कहलाये। यदुवंश और हैहयवंश का विस्तृत वर्णन पढ़ने के लिए यहाँ जाएँ। हैहयवंश महाराज शतजित के पुत्र हैहय से प्रारम्भ हुआ। इन्ही के वंश में आगे जाकर महाराज कर्त्यवीर्य के पुत्र के रूप में अर्जुन का जन्म हुआ जो आगे चलकर अपने पिता के नाम से कर्त्यवीर्य अर्जुन और अपने १००० भुजाओं के कारण सहस्त्रार्जुन के नाम से प्रसिद्ध हुए।

ब्राह्मणों के प्रकार

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वैसे तो ये सम्पूर्ण सृष्टि ही परमपिता ब्रह्मा से उत्पन्न हुई है किन्तु उनमे से भी ब्राह्मणों को उनका ही दूसरा रूप माना गया है। "ब्राह्मण", ये शब्द भी स्वयं " ब्रह्मा " से उत्पन्न हुआ है। हमारे धार्मिक ग्रंथों में कई स्थान पर ऋषि, मुनि इत्यादि का वर्णन है। आम तौर पर हम इसे एक ही समझ लेते हैं किन्तु इनमे भी भेद है। हमारे ग्रंथों में ब्राह्मणों के भी ८ प्रकार बताये गए हैं। तो आइए आज इस विषय में कुछ जानते हैं।

तिरुपति बालाजी

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कदाचित ही कोई ऐसा हो जिसने तिरुपति बालाजी का नाम ना सुना हो। इसे दक्षिण भारत के सब बड़े और प्रसिद्ध मंदिर के रूप में मान्यता प्राप्त है। दक्षिण भारत के अतिरिक्त अन्य राज्यों में भी इस मंदिर की बहुत मान्यता है। यह एक ऐसा मंदिर है जहाँ भगवान विष्णु मनुष्य रूप में विद्यमान हैं जिन्हे "वेंकटेश" कहा जाता है। इसी कारण इसे "वेंकटेश्वर बालाजी" भी कहते हैं। ये मंदिर विश्व का सबसे अमीर मंदिर है जहाँ की अनुमानित धनराशि ५०००० करोड़ से भी अधिक है। इसके पीछे का कारण बड़ा विचित्र है।

महर्षि भृगु द्वारा त्रिदेवों की परीक्षा

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बहुत काल के पहले महान ऋषियों द्वारा पृथ्वी पर एक महान यज्ञ किया गया। तब उस समय प्रश्न उठा कि इसका पुण्यफल त्रिदेवों में सर्वप्रथम किसे प्रदान किया जाये। तब महर्षि अंगिरा ने सुझाव दिया कि इन तीनों में जो कोई भी "त्रिगुणातीत" , अर्थात सत, राज और तम गुणों के अधीन ना हो उसे ही सर्वश्रेष्ठ मान कर यज्ञ का पुण्य सबसे पहले प्रदान किया जाये। किन्तु अब त्रिदेवों की परीक्षा कौन ले? वे तो त्रिकालदर्शी हैं और जो कोई भी उनकी परीक्षा लेने का प्रयास करेगा उसे उनके कोप का भाजन बनना पड़ेगा। तब सप्तर्षियों ने महर्षि भृगु का नाम सुझाया और उनके अनुमोदन पर भृगु त्रिदेवों की परीक्षा लेने को तैयार हो गए।

बालखिल्य

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हमारे सप्तर्षि श्रृंखला में आपने महर्षि क्रतु के विषय में पढ़ा। बालखिल्य इन्ही महर्षि क्रतु के पुत्र हैं। प्रजापति दक्ष की पुत्री सन्नति से महर्षि क्रतु ने विवाह किया जिससे इन्हे ६०००० तेजस्वी पुत्र प्राप्त हुए। इन बाल ऋषियों का आकर केवल अंगूठे जितना था। ये सारे ६०००० पुत्र ही सामूहिक रूप से बालखिल्य कहलाते हैं। महर्षि क्रतु के ये तेजस्वी पुत्र गुण और तेज में अपने पिता के समान ही माने जाते हैं। बालखिल्यों और पक्षीराज गरुड़ का सम्बन्ध बहुत पुराना है।