कार्तवीर्य अर्जुन

कार्तवीर्य अर्जुन
कार्तवीर्य अर्जुन पौराणिक काल के एक महान चंद्रवंशी सम्राट थे जिनकी राजधानी महिष्मति नगरी थी। इनके वंश का आरम्भ ययाति के पुत्र यदु से हुआ। ये वास्तव में यदुवंशी ही थी किन्तु आगे चलकर यदुवंश से हैहय वंश अलग हो गया जिस कारण ये हैहैयवंशी कहलाये। यदुवंश और हैहयवंश का विस्तृत वर्णन पढ़ने के लिए यहाँ जाएँ। हैहयवंश महाराज शतजित के पुत्र हैहय से प्रारम्भ हुआ। इन्ही के वंश में आगे जाकर महाराज कर्त्यवीर्य के पुत्र के रूप में अर्जुन का जन्म हुआ जो आगे चलकर अपने पिता के नाम से कर्त्यवीर्य अर्जुन और अपने १००० भुजाओं के कारण सहस्त्रार्जुन के नाम से प्रसिद्ध हुए।

कार्तवीर्य अर्जुन चंद्रवंशी राजाओं में सबसे प्रतापी थे। उनके पिता महाराज कार्तवीर्य ने अपने राज्य को बहुत बढ़ाया। फिर अपने मंत्रियों की सलाह पर उन्होंने भृगुवंशी ब्राह्मणों को अपने पुरोहितों के रूप में नियुक्त किया। उस समय भृगुवंशी ब्राह्मणों का नेतृत्व परशुराम के पिता जमदग्नि कर रहे थे। महर्षि जमदग्नि के साथ कार्तवीर्य के बहुत मधुर सम्बन्ध थे। कार्तवीर्य जमदग्नि का बड़ा आदर करते थे और राजकाज में उनका परामर्श लेते थे।

परशुराम उस समय बालक ही थे और उनका नाम इनके पितामह ऋचीक ने राम रखा था। महर्षि जमदग्नि और उनके आश्रम को महाराज कार्तवीर्य का पूर्ण संरक्षण प्राप्त था। उनके द्वारा किये गए हर यज्ञ को महर्षि जमदग्नि ही पूर्ण करते थे। कार्तवीर्य के ज्येष्ठ पुत्र अर्जुन, जो अपने पिता के नाम पर कार्तवीर्य अर्जुन कहलाते थे उस समय युवा थे। वे शस्त्र एवं शास्त्रों में निपुण थे और अपने पिता को राज-काज चलाने में सहायता करते थे। महाराज कार्तवीर्य की मृत्यु के बाद कार्तवीर्य अर्जुन को राजसिंहासन मिला। 

राजा बनने के पश्चात उन्होंने अपने मंत्रियों से पूछा कि एक राजा में सबसे महत्वपूर्ण गुण कौन सा होता है। तब सभी मंत्रियों ने कहा कि शक्ति ही एक राजा का सर्वाधिक घातक अस्त्र होता है क्यूंकि उसी के बल पर वो शत्रुओं का दमन करता है। अर्जुन स्वयं बहुत शक्तिशाली थे किन्तु अपने मंत्रियों की बात सुनकर उन्होंने तपस्या कर अतुलित शक्ति प्राप्त करने का निश्चय किया। वे तपस्या करने वन की ओर निकल गए। मार्ग में उन्हें देवर्षि नारद मिले। उन्हें प्रणाम कर अर्जुन ने उनसे पूछा कि शक्ति प्राप्त करने के लिए उन्हें किसकी तपस्या करनी चाहिए? तब देवर्षि ने कहा - "हे राजन! इस समय संसार में श्री दत्तात्रेय से महान और कोई नहीं। वे स्वयं भगवान विष्णु के अंश हैं और उन्हें प्रसन्न कर आप अतुल बल को प्राप्त कर सकते हैं।"

तब देवर्षि के परामर्श पर अर्जुन ने १२ वर्षों तक श्री दत्तात्रेय की घोर तपस्या की। उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर अंततः श्री दत्तात्रेय ने उन्हें दर्शन दिए और वरदान मांगने को कहा। तब अर्जुन ने कहा - "हे प्रभु! व्यक्ति का सबसे बड़ा आधार उसका बल ही होता है। और मैं तो एक सम्राट हूँ इसी कारण बल को प्राप्त करना मेरे लिए अनिवार्य है। अतः मैं आपसे बल का ही वरदान चाहता हूँ। आप मुझे ऐसा वरदान दीजिये जिससे मेरे सामने कोई भी योद्धा टिक ना सके और मैं अपने राज्य का रक्षण स्वयं के बल पर कर सकूँ।

तब दत्तात्रेय ने उन्हें १००० भुजाओं का वरदान दिया। उन्होंने कहा कि उन भुजाओं के कारण उनकी शक्ति सहस्त्र गुणा बढ़ जाएगी और कोई भी योद्धा उनका सामना नहीं कर सकेगा। वे जब भी चाहेंगे अपनी भुजाओं को प्रकट कर सकेंगे और जब भी चाहेंगे उसे लुप्त कर पाएंगे। युद्ध स्थल में उनकी ये १००० भुजाएं देख कर उनकी सेना को परम अभय की प्राप्ति होगी और वही उनकी भुजाएं देख कर शत्रु सेना के ह्रदय में ऐसा भय व्याप्त हो जाएगा कि वो उनसे युद्ध का साहस ही नहीं कर पाएंगे। भगवान विष्णु और उनके अंशावतार के अतिरिक्त उन्हें और कोई परास्त नहीं कर पायेगा। आज से ये जगत उन्हें "सहस्त्रार्जुन" के नाम से बुलाएगा।

भगवान दत्तात्रेय से ऐसा अद्भुत वरदान पा कर उन्होंने दंडवत उन्हें प्रणाम किया और चिरकाल तक उनकी भक्ति का वरदान भी उनसे माँगा। उसके बाद वापस आकर उन्होंने अपनी अथाह शक्ति के बल पर अपने राज्य को अनंत तक विस्तृत कर लिया। उन्होंने पृथ्वी के सातों द्वीपों पर अधिपत्य कर लिया। कई शक्तिशाली राजाओं ने उनके साथ युद्ध करने का प्रयास किया किन्तु अपनी अतुलित शक्ति के बल पर उन्होंने अकेले ही सभी राजाओं और योद्धाओं को जीत लिया। सातों द्वीपों पर अधिकार प्राप्त करने के बाद वे सप्तद्वीपाधिपति के नाम से प्रसिद्ध हुए।

उन्होंने सातों द्वीपों पर कुल ७०० यज्ञ किये और ब्राह्मणों एवं भिक्षुकों को बहुत धन एवं भूमि दान की। इस प्रकार वे सभी शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर सुख पूर्वक राज्य करने लगे। पूरी पृथ्वी पर ऐसा कोई नहीं था जो सहस्त्रार्जुन को युद्ध की चुनैती देने का साहस कर सके। अन्य योद्धाओं की तो क्या बात थी, जब लंकाधिपति रावण सातों द्वीपों को जय करता हुआ महिष्मति पहुँचा तो वो भी सहस्त्रार्जुन से परास्त हुआ। बाद में रावण के दादा महर्षि पुलत्स्य की आज्ञा पर सहस्त्रार्जुन ने रावण को मुक्त किया। इस विषय में एक विस्तृत लेख अलग से धर्मसंसार पर प्रकाशित किया जाएगा।

सहस्त्रार्जुन अपनी शक्ति के बल पर प्राप्त किये गए राज्य को बहुत काल तक भोगता रहा। अपने पिता कार्तवीर्य की भांति उसने भी भार्गववंशी ऋषियों को अपने राजपुरोहितों के स्थान पर नियुक्त किया। उनके नेता परशुराम के पिता जमदग्नि का वो भी सम्मान करता था किन्तु उनपर उसे अपनी पिता की भांति श्रद्धा और आस्था नहीं थी। पुराणों में ऐसा कोई वर्णन नहीं मिलता कि अपने वरदान और बल के कारण सहस्त्रार्जुन को किसी प्रकार का अभिमान हो गया था। इसके उलट उनकी गिनती उन महान सम्राटों में होती थी जो अपनी प्रजा का अपने पुत्र की भांति ध्यान रखते थे। किन्तु उनसे भी एक बहुत बड़ी गलती हुई जो उनके जीवन की अंतिम भूल साबित हुई।

उस समय सहस्त्रार्जुन अपनी प्रौढ़ावस्था तक पहुँच चुके थे। दूसरी ओर जमदग्नि के पुत्र राम की कीर्ति पूरे विश्व में फ़ैल चुकी थी। वे त्रिदेवों से वरदान प्राप्त कर अजेय हो चुके थे। महादेव ने उन्हें प्रसन्न होकर एक विकराल परशु दिया था जो संसार के सबसे अधिक घातक शस्त्रों में से अग्रणी था। उस परशु के कारण वे विश्व में परशुराम के नाम से प्रसिद्ध हो चुके थे। विश्व में ये प्रसिद्ध था कि वो स्वयं श्रीहरि विष्णु के अवतार हैं और उन्हें परास्त करना असंभव है। साथ ही साथ उन्हें महादेव से चिरंजीवी होने का भी वरदान प्राप्त था।

एक बार सहस्त्रार्जुन अपनी विशाल सेना सहित महर्षि जमदग्नि के आश्रम पहुँचे। उस समय परशुराम वहाँ उपस्थित नहीं थे। महर्षि जमदग्नि ने उनका स्वागत किया और कहा कि वे अपनी सेना सहित उनके आश्रम में ही विश्राम करें तब तक वे उनके भोजन आदि का प्रबंध करते हैं। तब सहस्त्रार्जुन ने आश्चर्य से पूछा - "हे महर्षि! आप तो एक ब्राह्मण हैं फिर आप किस प्रकार मेरी इतनी विशाल सेना के भोजन का प्रबंध कर सकते हैं?" तब जमदग्नि ने कहा - "हे राजन! ईश्वर की कृपा से मेरे पास कामधेनु गाय है जो किसी भी कामना को पूर्ण कर सकती है।"

तब उन्होंने स्वयं सहस्त्रार्जुन को कामधेनु का चमत्कार दिखाया। केवल उनकी इच्छा मात्र से कामधेनु ने बात ही बात में पूरी सेना के भोजन का प्रबंध कर दिया। उस महान गौ का ऐसा चमत्कार देख कर दैवयोग से सहस्त्रार्जुन के मन में उसे प्राप्त करने की इच्छा उत्पन्न हो गयी। उसने अपनी इच्छा महर्षि जमदग्नि से कही तो उन्होंने नम्रतापूर्वक उन्हें मना कर दिया। बस यही सहस्त्रार्जुन के अभिमान को ठेस पहुँच गयी और वो बलात ही कामधेनु को अपने साथ ले गया। उसकी सेना ने महर्षि जमदग्नि का आश्रम भी तहस नहस कर दिया।

थोड़ी देर बाद जब परशुराम आश्रम वापस लौटे तो वहाँ की हालत देख कर अपने पिता से उसका कारण पूछा। तब जमदग्नि ने उन्हें सारी बातें बता दी। ये सुनकर परशुराम के क्रोध का ठिकाना ना रहा। वे अपना विकराल परशु लेकर तीव्र गति से उसी दिशा में बढे जिधर सहस्त्रार्जुन की सेना गयी थी। पूरी सेना होने के कारण उनकी गति बड़ी धीमी थी इसी कारण परशुराम ने उन्हें मार्ग में ही देख लिया। उन्होंने अकेले ही पूरी सेना को रोकते हुए सहस्त्रार्जुन से कहा - "हे राजन! तुम जैसे सम्राट को इस प्रकार ब्राह्मणों का अपमान कर उनकी संपत्ति हड़पना शोभा नहीं देता। अगर अपने प्राणों की रक्षा चाहते हो तो कामधेनु को मुझे लौटा दो।"

एक युवा को इस प्रकार आह्वान देता देख सहस्त्रार्जुन की सेना ने परशुराम पर आक्रमण कर दिया पर उन्होंने बात ही बात में उन सभी को परलोक पहुँचा दिया। कार्तवीर्य अर्जुन बहुत काल से कोई युद्ध नहीं लड़े थे इसी कारण परशुराम जैसे योद्धा को देख कर वे प्रसन्नता पूर्वक युद्ध के लिए आगे आये। दोनों ओर ऐसे योद्धा थे जिन्होंने कभी पराजय का मुख नहीं देखा था। दोनों ने कई प्रकार के वरदान को प्राप्त किया था। बस अंतर इतना था कि परशुराम युवा थे और सहस्तार्जुन वृद्ध हो चले थे। किन्तु वे वृद्ध अवश्य थे किन्तु उनकी शक्ति को पूरा विश्व जानता था।

जब परशुराम अपना विकराल परशु लेकर और सहस्तार्जुन अपने १००० भुजाओं के साथ युद्ध के आगे बढे तो ऐसा लगा जैसे दोनों के टकराव से प्रलय आ जाएगा। दोनों के बीच भयानक युद्ध होने लगा। दोनों को युद्ध करते हुए कई दिन बीत गए और ऐसा लगा जैसे दोनों में से कोई नहीं जीत पायेगा। किन्तु परशुराम युवा थे और साथ ही उनके पास त्रिदेवों के वरदान के साथ-साथ चिरंजीवी होने का भी वरदान था। कई दिनों के युद्ध के पश्चात अंततः युवा परशुराम ने वृद्ध सहस्त्रार्जुन को परास्त कर दिया। उन्होंने सहस्त्रार्जुन की १००० भुजाओं को अपने परशु से काट डाला और अंततः उसी परशु ने उनका वध कर दिया। उनके वध के बाद उनकी बची हुई सेना वहाँ से भाग निकली। उसके पश्चात परशुराम कामधेनु को लेकर वापस अपने पिता के आश्रम लौट आये।

सहस्त्रार्जुन की पत्नियों के विषय में पुराणों में कोई सटीक जानकारी तो नहीं है पर उनकी कई रानियों का वर्णन है जिनमे से सात रानियाँ प्रमुख हैं - सुकृति, पुद्यागंधा, मनोरमा, यमघंत्ता, बसुमती एवं विष्ट्भाद्र। अपने महान कार्यों, अद्भुत पराक्रम और अपने साम्राज्य को इतनी दूर फैला देने के कारण कार्तवीर्य अर्जुन के मुख्य ७ नाम हुए:
  1. अर्जुन: जन्म का नाम
  2. कार्तवीर्य अर्जुन: अपने पिता कार्तवीर्य के कारण
  3. माहिष्मति नरेश: माहिष्मति के राजा होने के कारण
  4. सहस्त्रार्जुन / सहस्त्रबाहु: भगवान दत्तात्रेय के द्वारा १००० भुजाओं का वरदान पाने के कारण
  5. सप्तद्वीपेश्वर: सातों द्वीपों को जीतने के कारण
  6. दशग्रीवजयी: लंकापति रावण को परास्त करने के कारण
  7. राजराजेश्वर: राजाओं के भी राजा होने के कारण
सहस्त्रार्जुन की मृत्यु के पश्चात जब उनके पुत्रों को इसका समाचार मिलता है तो वे जमदग्नि ऋषि के आश्रम जाकर उनकी हत्या कर देते हैं। जब परशुराम को ये पता चलता है तो वे इतने क्रोधित होते हैं कि हैहयवंश का समूल नाश कर देते हैं। उनका क्रोध यहाँ ही नहीं रुकता बल्कि वे उससे भी आगे जाकर २१ बार पृथ्वी को क्षत्रियों से शून्य कर देते हैं। बाद में महर्षि कश्यप उन्हें समझा-बुझा कर ये हत्याकांड रुकवाते हैं और परशुराम को महेंद्र पर्वत पर निवास करने की आज्ञा देते हैं। 

मृगाजब महर्षि कश्यप ने परशुराम को क्षत्रियों की हत्या करने से रोका और महेंद्र पर्वत पर भेज दिया तब महर्षि कश्यप ने सहस्त्रार्जुन के बचे हुए पाँच पुत्रों में से सबसे ज्येष्ठ पुत्र जयध्वज को महिष्मति का सम्राट बना दिया। जयध्वज का एक नाम क्रताग्नि भी था। ऐसा वर्णन मिलता है कि जयध्वज बड़े प्रतापी एवं प्रराक्रमी थे और अपने पिता सहस्त्रबाहु के समान ही भगवान दत्तात्रेय के परम भक्त थे। उन्होंने भी महिष्मति को ही अपनी राजधानी बनाया और उनका विवाह राजकुमारी सत्य-भू से हुआ।

इन दोनों के ज्येष्ठ पुत्र का नाम तालजंघ था जिसे अपने पिता के बाद सिंहासन मिला। तालजंघ के कुल १०० पुत्र हुए जिन्हे तालजंघवंशी कहा गया। आपने पिछले लेख में सहस्त्रार्जुन के पूर्वज महाराज धनद (कनक) के बारे में पढ़ा था। उनके द्वारा संचित धन इन्ही तालजंघवंशियों को मिला जिससे महिष्मति की बड़ी उन्नति हुई। आगे चल कर हैहयवंश पाँच भागों में विभक्त हो गया - बीतिहोत्र कुल, भोज कुल, अवान्ति कुल, शौदिकेय कुल एवं स्वयाजात कुल। 

पुराणों के अनुसार बीतिहोत्र कुल के संस्थापक महाराज बीतिहोत्र ही हैहयवंश के अंतिम राजा हुए जिन्हे उस विशाल साम्राज्य का दक्षिणी भाग प्राप्त हुआ। इन्होने पुनः महिष्मति को अपने राज्य की राजधानी बनाया। बीतिहोत्र के अनंत नामक एक पुत्र हुए और अनंत के पुत्र हुए दुर्जय। इन्ही दुर्जय ने अवंतिकापुरी नगरी का निर्माण करवाया जिसे आजकल हम उज्जैन कहते हैं। यही कारण है कि उज्जैन और मध्यप्रदेश में महाराज सहस्त्रार्जुन एवं उनके वंशजों का बड़ा सम्मान है। मध्यप्रदेश के महेश्वर में सहस्त्रबाहु का एक मंदिर है जिसे राजराजेश्वर मंदिर कहते हैं। यहाँ पर ११ दीपक अनंतकाल से अखंड जल रहे हैं। ये कैसे हो रहा है वो भी एक रहस्य ही है।

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