सोलह सिद्धियाँ

सोलह सिद्धियाँ
पुराणों में १६ मुख्य सिद्धियों का वर्णन किया गया है। किसी एक व्यक्ति में सभी १६ सिद्धियों का होना दुर्लभ है। केवल अवतारी पुरुष, जैसे श्रीराम, श्रीकृष्ण इत्यादि अथवा बहुत सिद्ध ऋषियों जैसे सप्तर्षियों में ये सारी सिद्धियाँ हो सकती है। इसे १६ कलाओं से भी जोड़ कर देखा जाता है। आइये इन सिद्धियों के विषय में कुछ जानते हैं:
  1. वाक् सिद्धि: ऐसी सिद्धि जिससे वो व्यक्ति जो कुछ भी कहे वो घटित हो जाये। पुराने काल में सिद्ध ऋषि-मुनियों में ये सिद्धि होती थी और इसी कारण वे श्राप या वरदान देने में सक्षम थे। सिर्फ सिद्ध ऋषि ही नहीं, कुछ असाधारण व्यक्तियों में भी ऐसी शक्तियां होती थी। जैसे शांतनु ने अपने पुत्र भीष्म को इच्छा मृत्यु और और द्रोण ने अपने पुत्र अश्वत्थामा को चिरंजीवी होने का वरदान दिया। कई बार जब व्यक्ति अपने चरम आवेग में होता है तब भी उसके मुख से निकली हुई बात सच हो जाती है।
  2. दिव्य दृष्टि: दिव्य दृष्टि उस शक्ति को कहते हैं जिससे आप किसी भी व्यक्ति के भूत, वर्तमान एवं भविष्य का ज्ञान हो जाये। दिव्य दृष्टि और त्रिकालदर्शी होने में अंतर है। दिव्य दृष्टि में सभी कुछ आँखों के सामने होता दीखता है चाहे वो कही भी घटित हो रहा हो। पुराने ज़माने में सिद्ध ऋषियों के पास ये सिद्धि होती थी। श्रीकृष्ण ने गीताज्ञान के लिए अर्जुन को और महर्षि व्यास ने संजय को दिव्य दृष्टि प्रदान की थी। सभी प्रमुख देवताओं और सप्तर्षियों में ये सिद्धि स्वाभाविक रूप से होती है।
  3. प्रज्ञा सिद्धि: इस सिद्धि के साधक के पास संसार का सारा ज्ञान होता है। वो ज्ञान, प्रज्ञा, स्मरणशक्ति, बुद्धि इत्यादि को अपनी बुद्धि में समेत लेता है। इसका एक उदाहरण महर्षि व्यास हैं जिन्होंने महाभारत जैसे महान ग्रन्थ की रचना की जिसके बारे में ये कहा गया है कि जो कुछ भी यहाँ है वो संसार में है और जो यहाँ नहीं वो संसार में कही नहीं है। इसके अतिरिक्त श्रीराम और श्रीकृष्ण को भी इस संसार के सभी चीजों का ज्ञान था। उनके अतिरिक्त पितामह भीष्म का ज्ञान भी अथाह था।
  4. दूरश्रवण: इस सिद्धि को प्राप्त करने के बाद साधक कही भी हो रहे किसी भी वार्तालाप को सुन सकता है। इसके अतिरिक्त तो वार्तालाप भूतकाल में हो चुका हो उसे भी अगर पुनः सुनना चाहे तो वो सुन सकता है। सिद्ध ऋषियों में ये सिद्धि हुआ करती थी। महावीर हनुमान के पास भी ये सिद्धि थी। कुछ मायावी राक्षसों के पास भी ऐसी सिद्धियाँ होती थी।
  5. जलगमन: इस सिद्धि को प्राप्त साधक जल पर ऐसे ही विचरण कर सकता है जैसे वो भूमि पर विचरण करता है। सिद्ध ऋषियों के पास ये सिद्धि होती थी। महर्षि अगस्त्य ने तो समुद्र पर खड़े होकर उसका पान कर लिया था। अधिक दूर क्यों जाएँ, आज से १०० वर्ष पहले भी ऐसे कई सिद्ध पुरुष थे जिनके पास ये सिद्धियाँ हुआ करती थी और वे जल में स्वच्छद विचरण कर सकते थे।
  6. वायुगमन: इस सिद्धि को प्राप्त करने के बाद साधक वायुमार्ग से कही भी जा सकता है। वे अपने रूप को सूक्ष्म बना कर एक लोक से दूसरे लोक में भी गमन कर सकता है। उनकी गति इतनी तीव्र होती है कि वे तत्काल ही एक स्थान से दूसरे स्थान तक जा सकते हैं। बजरंगबली इस सिद्धि के एक जीवंत उदाहरण हैं। उनके अतिरिक्त मायावी राक्षसों में भी ये सिद्धि हुआ करती थी। मेघनाद ने इस सिद्धि के बल पर आकाश में रह कर लक्ष्मण से युद्ध किया था।
  7. अदृश्यकरण: जैसा कि इसके नाम से पता चलता है, इस सिद्धि को प्राप्त साधक अपने आप को अदृश्य कर सकता है और उसी रूप में किसी भी स्थान पर जा सकता था। मायावी राक्षसों के पास ये सिद्धि हुआ करती थी। इसी सिद्धि के बल पर रावण के पुत्र मेघनाद ने अदृश्य होकर लक्ष्मण से युद्ध किया था और श्रीराम और लक्ष्मण को नागपाश से बांध दिया था। इसके अतिरिक्त कई सिद्ध ऋषि अदृश्य होकर विभिन्न स्थानों पर विचरण कर सकते थे।
  8. विषोका: इस सिद्धि को प्राप्त साधक अपने आप को अनेक रूप में परिवर्तित कर सकता है। ऐसा व्यक्ति एक स्थान पर किसी एक रूप में और दूसरे स्थान पर किसी अन्य रूप में उपस्थित रह सकते हैं। आधुनिक काल में ऐसे व्यक्तियों को ऐय्यार कहा जाता है। राक्षसों में ये सिद्धि हुआ करती थी। श्रीकृष्ण ने अपनी माया से ऐसा कई बार किया था जब वे एक ही समय पर कई स्थानों पर उपस्थित रहते थे। इस सिद्धि के बल पर श्रीकृष्ण एक साथ अपनी १६१०८ रानियों के साथ उपस्थित रहते थे।
  9. देवक्रियानुदर्शन: इस सिद्धि को प्राप्त करने के बाद साधक विभिन्न देवताओं का सानिध्य प्राप्त कर सकता है। यही नहीं वो देवताओं को अपने अनुकूल बना कर उनसे उचित सहयोग ले सकता है। हमारे पुराणों में कई महान ऋषि हुए हैं जो अपनी इच्छा अनुसार देवताओं से मिल सकते हैं। दुर्वासा, भृगु, वशिष्ठ इत्यादि ऐसे कई ऋषि इसके उदाहरण हैं।
  10. कायाकल्प: कायाकल्प का अर्थ होता है "शरीर परिवर्तन"। इस सिद्धि को पूर्ण रूप से प्राप्त करने के बाद सहक कभी बूढा नहीं होता। यदि उसका शरीर वृद्ध एवं जर्जर भी है तब भी इस सिद्धि के बल पर वो पुनः अपने आप को युवा बना सकता है। ऐसे कई ऋषि थे जिन्होंने अपने वृद्ध आयु को छोड़ कर यौवन को पुनः प्राप्त किया। कई ऐसे ऋषि हैं जो अजर हैं, अर्थात जिनपर बुढ़ापे का कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
  11. सम्मोहन: ये बहुत प्रसिद्ध सिद्धि है जिससे साधक किसी को भी अपने अनुकूल कर सकता है और उनसे जो भी चाहे वो करवा सकता है। मनुष्य तो मनुष्य, इस सिद्धि को प्राप्त साधक पशु-पक्षियों को भी अपने अनुकूल कर सकता था। इसे वशीकरण विद्या भी कहते हैं। रावण वशीकरण विद्या में माहिर था। नाग जाति के लोगों में स्वाभाविक रूप से समोहन की सिद्धि होती थी। यहाँ तक कि आधुनिक काल में भी ऐसे कई कई सिद्ध पुरुष हुए हैं जो किसी को भी सम्मोहित कर सकते थे।
  12. गुरुत्व: गुरुत्व सिद्धि प्राप्त होने पर मनुष्य गरिमावान हो जाता है। प्राचीन का काल में गुरु का पद अत्यंत महान माना जाता था। यहाँ तक कि ये कहा गया है कि गुरु ब्रह्मा, विष्णु एवं शंकर के सामान है। देवताओं के गुरु बृहस्पति एवं दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य को सर्वश्रेष्ठ गुरु के रूप में मान्यता प्राप्त है। उनके अतिरिक्त वशिष्ठ, परशुराम एवं द्रोण के गुरुत्व की भी बहुत ख्याति है। भगवान शंकर को जगतगुरु कहा गया है।
  13. पूर्ण पुरुषत्व: इस सिद्धि को प्राप्त कर साधक बचपन में भी अपने पूर्ण पुरुषत्व एवं शक्ति को प्राप्त कर सकता है। श्रीराम एवं श्रीकृष्ण में ये सिद्धि बाल्यकाल से ही विद्यमान थी। इसी सिद्धि के बल पर श्रीकृष्ण ने बचपन में ही पूतना, भौमासुर इत्यादि कई दैत्यों का वध कर दिया। १६ वर्ष की आयु में ही उन्होंने चाणूर, मुष्टिक एवं कंस जैसे महावीरों का वध कर दिया। पांडवों में भीम के पास भी ये सिद्धि थी। यही कारण था कि वे अपने बाल्यकाल में भी अपराजेय थे। श्रीराम के पुत्र लव और कुश ने भी इसी सिद्धि के बल पर अपने बचपन में ही पूरी अयोध्या की सेना को परास्त कर दिया।
  14. सर्वगुणसंपन्न: कुछ ऐसे उत्तम पुरुष होते हैं जिनमे संसार के सभी उत्कृष गुण समाहित होते हैं। ऐसे व्यक्ति को सर्वगुणसम्पन्न कहा जाता है। श्रीराम इस के सबसे प्रमुख उदाहरण हैं। संसार में ऐसा कोई भी उत्तम गुण नहीं था जो उनमे नाम हो। इसीलिए श्रीराम को "पुरुषोत्तम" कहा जाता है। कई ऐसी स्त्रियाँ भी हैं जिनमे ये सिद्धि थी। सीता एवं द्रौपदी ऐसी ही स्त्रियाँ थी जो सर्वगुणसम्पन्न थी। इस सिद्धि को प्राप्त करने के बाद साधक की प्रसिद्धि पूरे विश्व में फ़ैल जाती है और वो अपने इन गुणों का प्रयोग लोक कल्याण के लिए करते हैं।
  15. इच्छा मृत्यु: जैसा कि इसके नाम से पता चलता है, इस सिद्धि को प्राप्त साधक अपनी इच्छानुसार अपनी मृत्यु का चुनाव कर सकता है। अर्थात उनकी इच्छा के बिना स्वयं काल भी उन्हें छू नहीं सकता है। यही नहीं, वो अपनी इच्छा अनुसार एक शरीर को त्याग कर दूसरा शरीर धारण कर सकता है। इच्छा मृत्यु की सिद्धि प्राप्त व्यक्तियों में सबसे प्रसिद्ध पितामह भीष्म हैं। उन्हें अपने पिता शांतनु से इच्छा मृत्यु का वरदान मिला था। वे वैसे ही एक अजेय योद्धा थे और उनकी इच्छा मृत्यु की सिद्धि के कारण उनकी मृत्यु और पराजय असंभव थी। यही कारण था कि श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को स्वयं पितामह से उनकी मृत्यु का उपाय पूछने को कहा। जब अर्जुन ने उन्हें अपने बाणों की शैय्या पर बांध दिया तब अपनी इसी सिद्धि के बल पर भीष्म युद्ध के पश्चात भी उसी शर-शैय्या पर ५८ दिनों तक जीवित रहे थे। उसके बाद जब भगवान सूर्य नारायण उत्तरायण को आये, भीष्म ने अपनी इच्छा अनुसार अपने शरीर का त्याग कर दिया।
  16. अनुर्मि: इस सिद्धि को प्राप्त व्यक्ति पर सृष्टि की किसी भी घटना का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। ऐसा व्यक्ति भूक-प्यास, सुख-दुःख, सर्दी-गर्मी, भावना-दुर्भावना इत्यादि से परे होता है। उसके लिए जीवन एवं मृत्यु सामान होती है और संसार के सभी योनि के जीव उनके लिए सामान होते हैं। जो सिद्ध पुरुष ईश्वर का वास्तविक स्वरुप जान लेते हैं वो स्वाभाविक रूप से इस सिद्धि को प्राप्त कर लेते हैं। श्रीकृष्ण ने भी गीता में अर्जुन को इस ज्ञान को देने का प्रयास किया है।

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