पिछले लेख में हमने महर्षि आयोदधौम्य के तीन शिष्यों - आरुणि, उपमन्यु और वेद के विषय में पढ़ा था। इस लेख में हम महर्षि उत्तंक के विषय में जानेंगे जो महर्षि वेद के ही शिष्य थे। महर्षि उत्तंक की कथा हमें महाभारत के दो पर्वों में मिलती है - आदि पर्व और आश्वमेधिक पर्व। हालाँकि दोनों कथाओं का सार एक ही हैं किन्तु दोनों में महर्षि उत्तंक के गुरु अलग-अलग बताये गए हैं। आदि पर्व के अनुसार उनके गुरु थे महर्षि वेद जबकि आश्वमेधिक पर्व के अनुसार महर्षि उत्तंक के गुरु महर्षि गौतम बताये गए हैं।
आदि पर्व में महर्षि उत्तंक का वर्णन पौष्य पर्व के श्लोक ८४ से मिलता है। इस कथा के अनुसार उत्तंक महर्षि वेद के प्रिय शिष्य थे। एक बार महाराज जन्मेजय और महाराज पौष्य ने महर्षि वेद को अपना उपाध्याय बना लिया। तब आश्रम से बाहर जाते हुए महर्षि वेद ने अपने शिष्य उत्तंक को उनकी अनुपस्थित में आश्रम के सँभालने की जिम्मेदारी दी। इसके बाद महर्षि वेद वहां से चले गए।
उत्तंक अपने गुरु की आज्ञा अनुसार आश्रम की ठीक ढंग से देख-भाल करने लगे। एक दिन आश्रम की अन्य स्त्रियों ने उन्हें बुलाकर कहा कि उनकी गुरुपत्नी रजस्वला हुई हैं और महर्षि वेद आश्रम में नहीं है। अतः तुम ऐसा कुछ उपाय करो कि उनका ऋतुकाल व्यर्थ ना जाये। इसपर उत्तंक ने ऐसा पापकर्म करने से साफ़ मना कर दिया। उन्होंने कहा कि उनके गुरु ने उनकी अनुपस्थिति में उनके करने योग्य सभी कार्यों को करने की आज्ञा उन्हें अवश्य दी है किन्तु उन्होंने ऐसी कोई आज्ञा नहीं दी कि ना करने योग्य कार्य भी किया जाये। स्त्रियों के बहुत समझाने पर भी वे अपनी बात पर अडिग रहे।
कुछ समय बाद महर्षि वेद आश्रम लौटे और सारी बातें जानने के बाद वे उत्तंक पर बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने उन्हें बहुत आशीर्वाद दिया और घर वापस जाने को कहा। तब उत्तंक ने कहा कि वे उन्हें बिना गुरुदक्षिणा दिए नहीं जा सकते। इसपर महर्षि ने उत्तंक से कहा कि वे अपनी गुरुमाता के पास जाकर पूछ लें कि उन्हें क्या गुरु दक्षिणा चाहिए। ये सुनकर उत्तंक अपनी गुरुमाता के पास गए और उनसे पूछा कि वे उन्हें क्या गुरुदक्षिणा दें?
तब महर्षि वेद की पत्नी ने कहा कि तुम मुझे महाराज पौष्य की पत्नी के कानों के कुण्डल लाकर दो। आज से चौथे दिन पुण्यक व्रत आने वाला है और मेरी इच्छा है कि मैं उस दिन कानों में वही कुण्डल पहन कर ब्राह्मणों को भोजन करवाऊं। अतः तुम मेरी ये मनोकामना पूर्ण करो। ये सुनकर उत्तंक ने अपनी गुरुपत्नी को प्रणाम किया और फिर महर्षि वेद की आज्ञा लेकर आश्रम से चल दिए।
मार्ग में उन्होंने एक विशालकाय बैल पर चढ़े एक भीमकाय मनुष्य को देखा। उस पुरुष ने उत्तंक से कहा कि तुम इस बैल के गोबर का सेवन कर लो। किन्तु उत्तंक ने ऐसा करने से मना कर दिया। तब उस पुरुष ने कहा कि पूर्वकाल में तुम्हारे गुरु ने भी इसका सेवन किया था। ये सुनकर उत्तंक ने गोबर खा लिया। वे बड़ी शीघ्रता में थे इसीलिए उन्होंने खड़े-खड़े ही आचमन किया और महाराज पौष्य की राजधानी को चल पड़े।
वहां पहुंच कर वे महाराज पौष्य से मिले और उन्हें आशीर्वाद दिया। महाराज ने उनसे पूछा कि वे उनकी क्या सेवा कर सकते हैं? तब उत्तंक ने उन्हें सारी बातें बताई और उनसे कहा कि उन्हें अपनी गुरुपत्नी के लिए महारानी के कुण्डल चाहिए। तब महाराज पौष्य ने उनसे कहा कि वे अंतःपुर जाकर महारानी से उनके कुण्डल मांग लें। तब उत्तंक अंतःपुर गए किन्तु उन्हें महारानी कहीं नहीं दिखी।
तब उत्तंक क्रोध में महाराज पौष्य के पास आये और उनसे कहा कि आपको मरे साथ ऐसा परिहास नहीं करना चाहिए था। महारानी तो अंतःपुर में है ही नहीं। तब महाराज पौष्य ने कहा कि निश्चय ही आप अशुद्ध हैं क्यूंकि मेरी पत्नी पतिव्रता है और अशुद्ध लोगों को दिखाई नहीं देती। तब उत्तंक को याद आया कि उस बैल का गोबर खाने के बाद उन्होंने खड़े-खड़े ही आचमन कर लिया था। ये सोच कर वे तत्काल नदी तट गए और वहां विधिपूर्वक आचमन और स्नान कर वापस अंतःपुर गए। तब उन्हें महारानी के दर्शन हुए।
महारानी ने उठकर उन्हें प्रणाम किया और उनके वहां आने का कारण पूछा। तब उत्तंक ने उन्ही सारी बातें बताई जिसे सुनकर महारानी ने स्वयं अपने कुण्डल उतारकर उन्हें दे दिया और कहा कि नागराज तक्षक इन कुण्डलों को प्राप्त करने के लिए सदैव प्रयासरत रहता है इसीलिए उन्हें इसे संभाल कर ले जाना चाहिए। फिर उत्तंक उन कुण्डलों को लेकर महाराज पौष्य के पास गए और उनसे जाने की आज्ञा मांगी। तब महाराज ने उनसे भोजन करने का आग्रह किया। समय बहुत कम था इसीलिए उत्तंक ने उन्हें जल्दी करने को कहा।
जब उत्तंक को भोजन परोसा गया तो उन्होंने देखा कि उसमें एक बाल है। तब उन्होंने क्रोधित होते हुए महाराज पौष्य को अंधे हो जाने का श्राप दे दिया। इसपर महाराज पौष्य ने भी उत्तंक को संतानहीन हो जाने का श्राप दे दिया। इसपर उत्तंक ने उन्हें भोजन दिखाया जिसमें बाल गिरा हुआ था। ये देख कर पौष्य बड़े लज्जित हुए और उत्तंक से बार-बार क्षमा याचना की। तब उत्तंक ने उन्हें वरदान दिया कि उनके श्राप के कारण वे अंधे तो अवश्य होंगे किन्तु कुछ ही दिनों में वे ठीक हो जाएगें। किन्तु महाराज पौष्य ने अपना श्राप वापस लेने में असमर्थता जतलाई। इस पर उत्तंक ने स्वयं ही अपने संतानहीन रहने वाले उस श्राप का निवारण कर दिया क्यूंकि महाराज पौष्य ने उन्हें बिना सच जाने ही श्राप दे दिया था। इसके बाद वे वापस अपने गुरु के पास चल दिए।
उन कुण्डलों के कारण तक्षक उनके पीछे लग गया ताकि वो उन कुण्डलों को प्राप्त कर सके। मार्ग उत्तंक स्नान करने के लिए नदी में उतरे और उस समय तक्षक उनके कुण्डल चुरा कर नाग रूप में एक बिल में घुस गया। तब उत्तंक ने अपने डंडे से उस बिल को खोदना प्रारम्भ किया। उनका प्रयास देख कर देवराज इंद्र ने अपने वज्र को उनके दंड में प्रविष्ट करवा दिया। इससे उस बिल को खोदते हुए उत्तंक नागलोग जा पहुंचे। वहां पहुंचकर उत्तंक ने नागराज ऐरावत को देखा और उनकी स्तुति की। इससे ऐरावत तो प्रसन्न हुए पर तक्षक फिर भी ना दिखा।
तब देवराज इंद्र वहां भेस बदल कर आये जिन्हे उत्तंक ने पहचान लिया और उनकी बार-बार स्तुति की। जब देवराज प्रसन्न हुए और उनसे वरदान मांगने को कहा तो उत्तंक ने सभी नागों को वश में करने का वरदान माँगा। तब इंद्र ने उन्हें अपने अश्व की गुदा में फंक मारने को कहा। उत्तंक ने ऐसा ही किया जिससे सारा नागलोक धुंए से भर गया। इससे घबराकर तक्षक बाहर निकल आया और उसने वो कुण्डल उत्तंक को लौटा दिए।
तब उत्तंक ने इंद्र का धन्यवाद किया और उनसे कहा कि आज चौथा दिन है और आज ही उनकी गुरुपत्नी को इन कुण्डलों को पहन कर ब्राह्मणों को भोजन करवाना है। किन्तु वे अपने आश्रम से बहुत दूर हैं, अब वे किस प्रकार शीघ्रता से अपने आश्रम पहुंचे। तब इंद्र ने उन्हें वही अश्व दिया जिसपर बैठ कर उत्तंक क्षण भर में अपने आश्रम पहुंच गए। वहां पहुंच कर उन्होंने वे कुण्डल अपनी गुरुपत्नी को दिए जिसे पाकर वे बड़ी प्रसन्न हुई और उत्तंक को बहुत आशीर्वाद दिया।
फिर महर्षि वेद ने उत्तंक से पूछा कि उन्हें इतनी देर क्यों हुई। ये सुनकर उत्तंक ने उनसे सारी कथा सुनाई और उनसे पूछा कि गुरुदेव मार्ग में उस बैल पर बैठे हुए वो मनुष्य कौन थे और उन्होंने मुझे गोबर खाने को क्यों कहा? तब महर्षि वेद ने उन्हें कहा कि वो बैल नागराज ऐरावत था और वो पुरुष स्वयं इंद्र थे। गोबर के रूप में उन्होंने तुम्हे अमृत खिलाया और उसी के कारण तुम नागलोग जाकर भी जीवित रहे। इंद्र मेरे मित्र हैं और इसीलिए उन्होंने तुम्हारी सहायता की। फिर अपने गुरु की आज्ञा लेकर उत्तंक लौट चले।
नागराज तक्षक के छल के कारण उन्हें उसपर बड़ा क्रोध था इसीलिए वे सीधे हस्तिनापुर पहुंचे और वहां परीक्षित पुत्र महाराज जन्मेजय से मिले। उन्होंने उन्हें बताया कि किसी प्रकार तक्षक के काटने पर उनके पिता की मृत्यु हुई थी और उन्होंने ही महाराज जन्मेजय को सर्पयज्ञ करने की प्रेरणा दी जिससे तक्षक का नाश हो सके। जन्मेजय के सर्पयज्ञ पर हम विस्तृत लेख बाद में प्रकाशित करेंगे।
महर्षि उत्तंक की दूसरी कथा हमें महाभारत के ही आश्वमेधिक पर्व के अंतर्गत अनुगीता पर्व के ५३वें अध्याय में मिलती है। इसके अनुसार युद्ध की समाप्ति के बाद जब श्रीकृष्ण वापस द्वारिका जा रहे थे तो मार्ग में उन्हें महर्षि उत्तंक मिले। श्रीकृष्ण ने उन्हें प्रणाम किया और फिर उत्तंक ने उनसे पूछा कि क्या आप कौरवों और पांडवों में संधि करवा कर लौट रहे हैं? तब श्रीकृष्ण ने उन्हें युद्ध के बारे में बताया जिसे सुनकर उत्तंक बड़े क्रोधित हुए। उन्होंने कहा - "वासुदेव! तुम यदि चाहते तो अवश्य ही उस युद्ध को रोक सकते थे किन्तु तुमने ऐसा नहीं किया। अब मैं अवश्य तुहे श्राप दूंगा।"
तब श्रीकृष्ण ने उन्हें समझाते हुए कहा कि - "हे महर्षि! पहले मेरी बात सुन लीजिये। उसके बाद भी यदि आप चाहें तो मुझे श्राप दे दीजियेगा।" ये कहकर श्रीकृष्ण ने महर्षि उत्तंक को अपने वास्तविक स्वरुप के बारे में बताया। ये सुनकर उत्तंक ने उनसे अपना विश्वरूप दिखाने की प्रार्थना की। उनकी प्रार्थना पर श्रीकृष्ण ने उन्हें अपना वही रूप दिखाया जो कुरुक्षेत्र में अर्जुन को दिखाया था। तब महर्षि उत्तंक ने श्रीकृष्ण की अनेकों प्रकार से स्तुति की। उनकी स्तुति से प्रसन्न होकर श्रीकृष्ण ने उनसे वर मांगने कहा।
तब उत्तंक ऋषि ने उनसे वरदान माँगा कि यहाँ मरुभूमि में जल की बड़ी कमी है इसीलिए मुझे वरदान दीजिये कि मैं जब, जहाँ और जितना भी चाहूँ, मुझे जल प्राप्त हो जाए। श्रीकृष्ण ने उन्हें ये वरदान दिया और वापस द्वारिका लौट गए। फिर एक दिन मरुस्थल में घूमते हुए महर्षि उत्तंक को बड़ी प्यास लगी। तब उन्होंने श्रीकृष्ण का स्मरण किया। तभी उनके सामने एक चांडाल आया जिसके हाथों में जल का पात्र था। उसने महर्षि को जल पिलाना चाहा किन्तु उन्होंने एक चांडाल के हाथों से जल पीना अस्वीकार कर दिया। चांडाल के बार-बार कहने पर भी उन्होंने उस जल को नहीं पिया। फिर वो चांडाल वहां से अदृश्य हो गया।
इसपर उन्होंने श्रीकृष्ण को बड़ी उलाहना दी। तब श्रीकृष्ण प्रकट हुए और उनसे पूछा कि वे उन्हें उलाहना क्यों दे रहे हैं। तब उत्तंक ने कहा कि एक ब्राह्मण के लिए आपको चांडाल के हाथों जल नहीं भिजवाना चाहिए था। इसपर श्रीकृष्ण ने हँसते हुए कहा - "हे महर्षि वे चांडाल स्वयं देवराज इंद्र थे और वो जल अमृत था। आपने उनकी अवज्ञा की।" इसपर महर्षि उत्तंक बड़ा पछताए। तब श्रीकृष्ण ने कहा - "महर्षि! मेरा वरदान निष्फल नहीं जाएगा। आज से जब भी आपको जल की आवश्यकता होगी उसी समय वहां मेघ से पवित्र जल बरसेगा। वो मेघ आपके नाम से ही "उत्तंक मेघ" के नाम से जाने जाएंगे। आज भी मरुस्थल में जब मेघ घिरते हैं तो उसे उत्तंक मेघ ही कहा जाता है।
इसके आगे ५६वें अध्याय में महर्षि उत्तंक की कथा मिलती है जो पहले की कथा से अलग है। इसके अनुसार वे महर्षि गौतम के शिष्य थे। वे अपने शिष्यों में उत्तंक को सबसे अधिक प्रेम करते थे। उन्होंने अपने सभी शिष्यों को पढ़ा कर घर लौटा दिया किन्तु उत्तंक पर विशेष प्रेम होने के कारण महर्षि गौतम ने उन्हें वापस लौटने की अनुमति नहीं दी। इस प्रकार १०० वर्ष बीत गए और उत्तंक बूढ़े हो गए किन्तु उन्हें गुरु की सेवा में इसका ध्यान ही नहीं रहा।
एक दिन जब उत्तंक लकड़ियों को लेकर अपने आश्रम पहुंचे तो उसके भार से बड़ा थक गए। जब उन्होंने उन लकड़ियों को गिराया तो उनके साथ उनके कुछ सफ़ेद बाल भी आ गिरे। ये देख कर उत्तंक को पता चला कि वे वृद्ध हो गए हैं। ये जान कर वे रोने लगे। तभी वहां महर्षि गौतम की पुत्री आयी और उन्होंने अपने हाथों में उत्तंक के आंसू भर लिए। किन्तु उससे उनके हाथ जल गए और पृथ्वी पर जा लगे। किन्तु पृथ्वी भी उनके आंसुओं को धारण करने में असमर्थ रही।
अपने शिष्य का ऐसा प्रताप देख कर महर्षि गौतम बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने उनसे पूछा कि तुम रो क्यों रहे हो। तब महर्षि उत्तंक ने कहा - "हे गुरुदेव! मेरे पहले और बाद में आये सहस्त्रों शिष्यों को आपने घर जाने की आज्ञा दी पर मुझे अब तक रोक कर रखा है इसका क्या कारण है?" तब महर्षि गौतम ने उन्हें बताया कि उनके प्रति अति स्नेह होने के कारण उन्होंने उन्हें जाने नहीं दिया, किन्तु चूँकि अब वे जाना चाहते हैं तो उन्हें उनकी आज्ञा है। ये कहकर महर्षि गौतम ने अपने तपोबल से उन्हें १६ वर्ष का तरुण बना दिया और अपनी पुत्री का विवाह उससे कर दिया।
इसके बाद उत्तंक ने अपने गुरु से पूछा कि वे उन्हें क्या गुरुदक्षिणा दें? तब महर्षि गौतम ने उन्हें कहा कि अपनी गुरुमाता से पूछ लो। इसपर उत्तंक महर्षि गौतम की पत्नी अहल्या के पास गए और उनसे पूछा कि उन्हें क्या गुरुदक्षिणा चाहिए? तब अहल्या ने उसने महाराज सौदास की पत्नी के कुण्डल लाने को कहा। ये सुनकर उत्तंक सौदास के पास चल पड़े। जब महर्षि गौतम ने उन्हें आश्रम में नहीं देखा तो उन्होंने अहल्या से पूछा कि वे कहाँ हैं? इसपर अहल्या ने उन्हें सारी बातें बताई। ये सुनकर महर्षि गौतम बड़े चिंतित हुए क्यूंकि सौदास श्राप के कारण राक्षस बन गए थे। वे दोनों अपनी पुत्री, जो उत्तंक की पत्नी थी, के साथ उत्तंक के वापस लौटने की प्रतीक्षा करने लगे।
उधर उत्तंक राजा सौदास के पास पहुंचे जो राक्षस बन जाने के कारण बड़े भयानक रूप वाले हो गए थे। राक्षस बन जाने के बाद भी सौदास ने उत्तंक का स्वागत किया और उनकी इच्छा सुनकर उन्हें अपनी पत्नी मदयन्ति के पास भेजा। तब महारानी से हाथ जोड़ कर उत्तंक से कहा - "हे ब्राह्मणदेव! इस दिव्य मणिमय कुण्डलों को पाने के लिए देवता, नाग, यक्ष और गन्धर्व सभी व्याकुल हैं। अतः आप कोई प्रमाण दिखाइए जिससे मुझे पता चल जाये कि आपको मेरे पति ने ही भेजा है।"
तब उत्तंक वापस सौदास के पास गए और उनसे कोई प्रमाण माँगा। तब सौदास ने उन्हें अपनी कथा सुनाई की किसी प्रकार वे मनुष्य से राक्षस बन गए। ये कथा केवल उन्हें और उनकी पत्नी को ही पता थी। अब उत्तंक वापस गए और महारानी मदयन्ति को सौदास की कथा सुनाई जिससे उन्हें विश्वास हो गया और उन्होंने उत्तंक को अपने दिव्य कुण्डल दे दिए। तब उत्तंक पुनः सौदास के पास गए और उनसे कहा कि वे अपने गुरुपत्नी को ये कुण्डल दे कर वापस उनसे आकर मिलेंगे। तब सौदास ने कहा कि "हे महर्षि! मैं एक ऋषि के श्राप के कारण राक्षस हो गया हूँ इसीलिए आपको पुनः मेरे पास नहीं आना चाहिए क्यूंकि उस स्थित में मैं आपको जीता नहीं छोडूंगा। इसीलिए आप इन कुण्डलों को लेकर जाइये और वापस मेरे पास मत लौटिएगा, इसी में आप कल्याण है।"
तब उत्तंक उन कुण्डलों को लेकर आश्रम की ओर चल पड़े। मार्ग में वे भोजन करने को रुके तो तक्षक ने उन कुण्डलों को चुरा लिया और एक बिल में घुस गया। तब उत्तंक अपने डंडे से ३५ दिनों तक उस बिल को खोदते रहे पर नाग लोक ना पहुंच सके। तब इंद्र ने अपने वज्र को उनके डंडे के अग्रभाग में जोड़ दिया जिससे उत्तंक शीघ्रता से नागलोग पहुंचे। किन्तु बहुत खोजने के बाद भी वे उन कुण्डलों को नहीं पा सके।
तब इंद्र की प्रेरणा से एक अश्व वहां आया और उत्तंक से कहा कि वे उनकी गुदा में फंक मारें। उस अश्व कहा कि तुमने पहले भी अपने गुरु के आश्रम में अनेकों बार ऐसा किया है। तब उत्तंक ने कहा कि मुझे याद नहीं कि मैंने किसी अश्व की गुदा में पहले फूंक मारी है, फिर आप ऐसा कैसे कहते हैं? आप कौन हैं? तब उस अश्व ने कहा - "पुत्र! मैं तुम्हारे गुरु का भी गुरु हूँ। मैं स्वयं अग्नि हूँ। तुमने प्रतिदिन अग्निहोत्र के लिए मुझे प्रज्वलित करने के लिए फूंक मारी है, इसीलिए आज भी ऐसा ही करो।"
तब उत्तंक ने वैसा ही किया जिससे समस्त नागलोक में आग लग गयी। इससे भयभीत हुए तक्षक ने वहां आकर उन्हें कुण्डल लौटा दिए। उसे लेकर उत्तंक अपने आश्रम लौटे और उन कुण्डलों को माता अहल्या को अर्पित किया। इसके बाद अपने गुरु की आज्ञा लेकर वे पत्नी सहित अपने घर वापस लौट गए।
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