वीरभद्र - जिस पर स्वयं विष्णु भी अंकुश ना रख सके

शिव और सती के विषय में सब जानते ही हैं। अपने पिता ब्रह्मापुत्र प्रजापति दक्ष के विरूद्ध जाकर सती ने शिव से विवाह किया। दक्ष घोर शिव विरोधी थे क्यूंकि उन्होंने उनके पिता ब्रह्मा का पाँचवा मस्तक काटा था। सती ने विवाह तो कर लिया किन्तु दक्ष उसे कभी स्वीकार नहीं कर सके और शिव और सती का त्याग कर दिया। कई वर्षों के पश्चात दक्ष ने कनखल (आज के हरिद्वार में स्थित) में एक महान वैष्णव यज्ञ का अनुष्ठान किया। भगवान विष्णु उस यज्ञ के अग्रदेवता बने और स्वयं ब्रह्मदेव ने पुरोहित का स्थान सँभाला।

उस यज्ञ में इंद्र सहित समस्त देवता, यक्ष, गन्धर्व एवं महान ऋषिओं को आमंत्रित किया गया किन्तु शिव के साथ बैर के कारण दक्ष ने उन्हें आमंत्रित नहीं किया। जब परमपिता ब्रह्मा ने देखा कि महादेव को आमंत्रित नहीं किया गया है तो उन्होंने दक्ष से कहा कि अविलम्ब शिव से क्षमा माँग कर उन्हें आमंत्रित कर लें क्योंकि उनके बिना यज्ञ पूरा नहीं हो सकता किन्तु दक्ष नहीं माने। 

भगवान विष्णु और ब्रह्मा अग्रदेव और पुरोहित का पद सँभाल चुके थे इसीलिए यज्ञ को बीच में छोड़ना उन्हें उचित नहीं लगा। यज्ञ आरम्भ तो हो गया किन्तु महर्षि भृगु एवं कश्यप ने यज्ञ के  अनिष्ट की भविष्यवाणी कर दी। इसपर ब्रह्मदेव और नारायण ने एक बार और दक्ष को समझाया किन्तु उनके ना मानने पर उन्होंने विनाशकाल को समझ कर यज्ञ के आरम्भ की आज्ञा दे दी। 

उधर जब सती को पता चला कि उनके पिता ने यज्ञ का संकल्प लिया है किन्तु उनके पति को नहीं बुलाया तो वे अत्यंत क्रोधित हो गयी और महादेव के बहुत रोकने के बाद भी अपने पिता के यञमंडप में पहुँच गयी। उन्होंने वहाँ उपस्थित समस्त समुदाय को धिक्कारते हुए कहा कि जिस यज्ञ में उनके पति आमंत्रित नहीं है उस यज्ञ में बैठ कर उन्होंने बड़ा पाप किया है। 

उन्होंने अपने पिता को समझाते हुए कहा कि "हे पिताश्री! अभी भी बहुत देर नहीं हुई है। आप महादेव से क्षमा माँगकर उन्हें आमंत्रित कर लाइए।" इसपर दक्ष ने कपाळी, अघोरी, नग्न, असभ्य और अन्य कई अपशब्द कह कर शिव का अपमान किया। भरी सभा में अपने पति का ऐसा अपमान सती सह ना पायी और उन्होंने उसी यज्ञ मंडप में अपने आप को स्वाहा कर लिया।

ऐसा दृश्य देख कर समस्त सभा हाहाकार कर उठी। दक्ष का निश्चित विनाश जानकर ब्रह्मा और विष्णु उस यज्ञ से प्रस्थान कर गए। अपने इष्टदेव को जाते देख सभी महर्षि भी उस यज्ञ को छोड़ कर चले गए। इसपर दक्ष ने कहा कि अब तो शिव अवश्य ही मेरा नाश करने को आएंगे इसी कारण आप लोग मेरी सहायता करें। उन्हें इस प्रकार भयभीत देख कर इंद्र अन्य देवताओं के साथ वहाँ रुक गए। 

तब महर्षि भृगु ने कहा "हे प्रजापति! अब तो चौदह लोकों में आपकी रक्षा और कोई नहीं कर सकता किन्तु अगर आपको सेना से ही संतोष होता है तो मैं आपको १ करोड़ दुर्धुष योद्धाओं की सेना देता हूँ।" ऐसा कहकर महर्षि भृगु ने जल को मंत्रसिद्ध कर हवनकुंड में डाला जिससे वहाँ भांति-भांति के अस्त्र-शास्त्रों से सुसज्जित १ करोड़ भीषण योद्धाओं की सेना प्रकट हो गयी। इसके बाद महर्षि भृगु भी वहाँ से प्रस्थान कर गए किन्तु इतनी बड़ी सेना और इन्द्रादि देवताओं को वहाँ देख कर दक्ष को कुछ संतोष हुआ। 

उधर नंदी अदि गण रोते हुए कैलाश पहुँचे और डरते-डरते महादेव को वो समाचार सुनाया। महारुद्र ने जब सती की मृत्यु का समाचार सुना तब दुःख और क्रोध से काँपते हुए उन्होंने अपनी एक जटा को तोड़ कर वहीँ भूमि पर पटका जिससे वहाँ प्रलय के समान ज्वाला प्रकट हुई और उसी ज्वाला से तीन नेत्रों और हजार भुजाओं वाले वीरभद्र की उत्पत्ति हुई। उसके नेत्रों से अग्नि निकल रही थी, जिह्वा शेषनाग के सामान लपलपा रही थी और वो हृदय को कंपाने वाला अट्टहास कर रहा था। उनकी काया इतनी विशाल थी जैसे स्वर्ग को छू लेगी। कहा जाता है कि उनका रूप ऐसा भयानक था कि नंदी, भृंगी सहित समस्त शिवगणों ने भय से अपने नेत्र बंद कर लिए।

जैसे ही उस रुद्रावतार ने शिव को प्रणाम किया, क्रोध एवं दुःख से संतप्त महारुद्र ने कहा "हे पुत्र! तत्काल दक्ष के यञशाला जाओ और उसका वध कर दो। अगर उसे बचाने कोई भी आये तो उसे भी समाप्त कर दो।" शिव की आज्ञा सुनकर वीरभद्र ने एक भीषण अट्टहास किया और एक ही छलाँग में वहाँ से सैकड़ों योजन दूर दक्ष की यञशाला में पहुँच गए। जैसे ही वहाँ सबने वीरभद्र का रूप देखा, असंख्य योद्धा अचेत हो गए और कई तो युद्ध स्थल छोड़ कर पलायन कर गए। 

महर्षि भृगु की सेना के सभी योद्धा एक साथ वीरभद्र से लड़ने आगे बढे किन्तु उन्होंने मुहूर्त भर में उस पूरी सेना का संहार कर दिया और असंख्य योद्धाओं को अपना ग्रास बना लिया। ऐसा भीषण कर्म देख कर इंद्र उसे रोकने आगे बढे किन्तु वीरभद्र ने बात ही बात में उन्हें भी अपने पैरों से कुचल डाला। वीरभद्र की ऐसी शक्ति देख कर इंद्र सहित समस्त देवता तत्काल वहाँ से पलायन कर गए। अपनी सेना का ऐसा हाल देख कर दक्ष वहीँ बैठ कर अपने आराध्य नारायण का ध्यान करने लगे।

अपने भक्त के प्राण संकट में आया देख भगवान विष्णु शंख, चक्र, धनुष और गदा से युक्त होकर गरुड़ पर बैठ तीव्र गति से वहाँ पहुँचे और अपने भयानक अस्त्रों से वीरभद्र पर प्रहार किया। उनके भीषण प्रहरों से वीरभद्र एक पल को विचलित हो गए किन्तु फिर तुरंत ही उन्होंने भी कई अस्त्र-शस्त्रों से नारायण पर प्रचंड प्रहार किया। उनके प्रहार इतने तीव्र थे कि नारायण समझ गए कि शिव का ये अवतार स्वयं उनका ही दूसरा रूप है। उन दोनों का युद्ध देखने के लिए देवता आकाश में स्थित हो गए और स्वयं ब्रह्मा यञशाला में उपस्थित हुए। 

वीरभद्र ने क्रोध से कांपते हुए नारायण पर एक सहस्त्र बाणों से प्रहार किया किन्तु नारायण ने अपने धनुष श्राङ्ग से उन सभी बाणों को काट दिया। फिर नारायण ने श्राङ्ग से असंख्य बाण वीरभद्र पर चलाये किन्तु उसने उन सभी बाणों को निगल लिया। इसपर गरुड़ ने वायु मार्ग से वीरभद्र पर पूरी शक्ति से प्रहार किया किन्तु उसे विचलित ना कर सके। नारायण को गरुड़ पर बैठा देख कर वीरभद्र ने उसे यज्ञाग्नि से एक दिव्य रथ प्रकट किया और उसपर विराजमान हुए। 

अब दोनों में ऐसा भयानक युद्ध होने लगा जिससे तीनों लोक कांप उठे। ऐसा लगा कि उन दोनों के प्रहारों से पूरी पृथ्वी फट जाएगी। जब ब्रह्मदेव ने देखा कि उन दोनों में से कोई भी पीछे हटने को तैयार नहीं है और उनकी सृष्टि का नाश हो जाएगा तब वे स्वयं वीरभद्र के सारथि बन गए और इतनी कुशलता से उनका रथ चलाने लगे कि स्वयं नारायण भी आश्चर्यचकित हो गए। ब्रह्मा के सारथि बनने के बाद वीरभद्र का पड़ला थोड़ा भारी हो गया और उनके कुशल सारथ्य के कारण गरुड़ वीरभद्र का सामना करने में असमर्थ हो गए। 

ऐसा देख कर नारायण ने अपनी महान गदा कौमोदीकी से वीरभद्र पर पूरी शक्ति से प्रहार किया जिससे वीरभद्र व्याकुल हो गए और रक्त वमन करने लगे किन्तु फिर अगले ही पल उन्होंने भी पुनः पूरी शक्ति से नारायण पर प्रहार किया जिससे गरुड़ की गति रुक गयी और उसके पंख झड़ गए। 

ऐसा देख कर वीरभद्र के प्राण लेने का निश्चय कर भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र को उसका विनाश करने भेजा। भगवान शिव के द्वारा ही उन्हें प्रदान किया गया १००० आरों वाला वो महान अस्त्र भयानक प्रलयाग्नि निकलता हुआ वीरभद्र की ओर बढ़ा किन्तु वीरभद्र ने उस प्रचंड अस्त्र को निगल लिया जिसे देख एक पल के लिए नारायण भी स्तंभित हो गए।

दोनों को इस प्रकार लड़ते देखकर वीरभद्र के सारथि बने परमपिता ब्रह्मा ने भगवान विष्णु से कहा कि "हे नारायण! जो स्वयं आपके प्रहार से भी विचलित ना हुआ और जिसने सुदर्शन चक्र का भी भक्षण कर लिया हो, वो अवश्य ही महादेव का ही दूसरा रूप है। ये तो आप भी जानते हैं कि आज दक्ष की मृत्यु निश्चित है। वो स्वयं मेरा पुत्र है किन्तु मैं भी उसे महादेव के प्रकोप से नहीं बचा सकता। अगर आप दोनों इसी प्रकार युद्ध करते रहे तो सृष्टि का विनाश निश्चित है। 

आप तो समस्त जगत के पालनहार हैं फिर आप कैसे उसका विनाश होने दे सकते हैं। ये तो आप भी जानते हैं कि दक्ष ने जिस क्षण महादेव का अपमान किया था और पुत्री सती की मृत्यु का कारण बना, काल ने उसी क्षण उसका विनाश निश्चित कर दिया था। और ये भी तो सोचिये सच्चिदानंद कि अगर आप वीरभद्र को रोकने में सफल हो भी गए तो उसके बाद महादेव के क्रोध को कैसे शांत करेंगे? अतः अपना हठ छोड़िये और भाग्य ने जो दक्ष के लिए लिखा है उसे भोगने दीजिये।"

ब्रह्मदेव के ऐसे वचन सुनकर नारायण ने वीरभद्र से कहा "हे महावीर! तुम स्वयं महादेव के शरीर से उत्पन्न हुए हो और तेज में स्वयं उनके समान ही हो। तुम्हारे इस तेज का सामना आज सातों लोकों में कोई और नहीं कर सकता। तुम धन्य हो कि तीनों लोकों का विनाश करने में सक्षम सुदर्शन को तुम जल के सामान पी गए। तुम्हारी शक्ति और प्रताप अद्भुत है। अतः तुम अब जैसे चाहो दक्ष को दंड दे सकते हो क्यूंकि उसने भी अपनी पुत्री की मृत्यु का कारण बन कर महान पाप किया है और तुम उसे दंड देकर उसके पाप से मुक्त करो।" ऐसा कहकर भगवान विष्णु ब्रह्मदेव के साथ यज्ञ स्थल से प्रस्थान कर गए। 

उनके जाने के पश्चात वीरभद्र ने भय से कांपते दक्ष की भुजाओं को पकड़ कर उसका सर धड़ से अलग कर दिया और उसके शीश को यञकुंड की अग्नि में भस्म कर दिया। इस महान कार्य को करने के पश्चात वो कैलाश लौटा और भगवान शिव को दक्ष की मृत्यु का समाचार दिया। इसके बाद ब्रह्मा और नारायण के अनुरोध पर भगवान शिव यज्ञस्थल पहुँचे और दक्ष के धड़ में बकरे का सर जोड़ कर उसे जीवित किया ताकि वो अधूरा यज्ञ पूरा कर सके और फिर महादेव देवी सती के मृत शरीर को लेकर वहाँ से चले गए।

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