सुदर्शन चक्र

सुदर्शन चक्र
पुराणों में विभिन्न देवताओं के अनेक अस्त्र-शस्त्र का वर्णन दिया गया है। किन्तु जब भी बात दिव्यास्त्रों की आती है तो उसमें सुदर्शन चक्र का वर्णन प्रमुखता से किया जाता है। ये मूल रूप से भगवान विष्णु का अस्त्र है। उनके अतिरिक्त दशावतारों में भी कइयों ने इसे धारण किया, किन्तु उनमें से भी विशेष रूप से ये श्रीकृष्ण के साथ जुड़ा है।

सुदर्शन चक्र की उत्पत्ति, बनावट और शक्ति के विषय में हमें अलग-अलग ग्रंथों में अलग-अलग जानकारियां मिलती हैं। चूँकि ये नारायण का अस्त्र है, इसीलिए पहले विष्णु पुराण की ही बात करते हैं। विष्णु पुराण के अनुसार एक बार दैत्यों के अत्याचारों से दुखी होकर जब देवताओं ने श्रीहरि की शरण ली तब वे अत्यंत क्रोधित हो गए। उनके उसी क्रोध से सुदर्शन चक्र की उत्पत्ति हुई जिससे उन्होंने दैत्यों का संहार किया।

तो इस प्रकार विष्णु पुराण के अनुसार सुदर्शन चक्र उनका एक अवतार ही था। इस प्रकार के अवतारों को पुराणों में "आयुध पुरुष" कहा गया है। आपको ये जानकर आश्चर्य होगा कि इस आयुध पुरुष अवतार सुदर्शन चक्र के भी अवतार का वर्णन है। रामायण के अनुसार श्रीराम के सबसे छोटे भाई शत्रुघ्न को सुदर्शन चक्र का ही अवतार माना जाता है। इसके अतिरिक्त हैहैयवंश के सम्राट कार्तवीर्य अर्जुन भी सुदर्शन चक्र के ही अवतार माने जाते हैं।

हालाँकि सुदर्शन चक्र की उत्पत्ति के विषय में जो सबसे प्रसिद्ध और प्रामाणिक कथा है वो शिव पुराण में वर्णित है। इसके अनुसार एक बार जब दैत्यों का अत्याचार बहुत बढ़ गया तब सभी देवता श्रीहरि की शरण में गए। उस समय श्रीहरि के पास कोई उत्तम अस्त्र नहीं था। उसे ही प्राप्त करने हेतु श्रीहरि ने भगवान शिव की तपस्या करने का निर्णय लिया।

उन्होंने इसके लिए भगवान शिव की १००० वर्षों तक तपस्या की। इस तपस्या में उन्होंने महादेव के १००० नामों का उच्चारण किया। हर बार एक नाम लेने के बाद वे १ नील कमल महादेव को समर्पित करते थे। ऐसे करते-करते ९९९ वर्षों में उन्होंने ९९९ नील कमल के पुष्प महादेव को चढ़ा दिए।

तब महादेव ने उनकी परीक्षा लेने के लिए उस अंतिम नील कमल को छिपा दिया। जब १००० वर्ष बीतने के बाद श्रीहरि ने महादेव का १००० वां नाम लिया तो देखा कि चढाने के लिए अंतिम पुष्प है ही नहीं। तब उन्हें ध्यान आया कि उनके नेत्रों को भी नयन कमल की संज्ञा दी जाती है। ये सोच कर वे अपना एक नेत्र ही अंतिम पुष्प के रूप में चढाने को उद्धत हो गए।

जैसे ही उन्होंने अपने नेत्र को निकलना चाहा, भगवान शिव ने प्रकट होकर उनका हाथ पकड़ लिया। उन्होंने उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर अपने तीसरे नेत्र की ज्वाला से एक महान आयुध को प्रकट किया और उसका नाम "सुदर्शन" रखा। उसी महान आयुध से श्रीहरि ने सभी दुष्टों का नाश किया और तब से ही सुदर्शन चक्र नारायण से अभिन्न रूप से जुड़ गया।

एक अन्य कथा के अनुसार प्राचीन काल में श्रीदामा नामक एक असुर था जिन्होंने अपने पराक्रम से संसार को जीत लिया और लक्ष्मी को अपने वश में कर लिया। इससे समस्त सृष्टि श्री हीन हो गयी। उसका साहस इतना बढ़ गया कि वो अब स्वयं माता लक्ष्मी को भी प्राप्त करने के बारे में सोचने लगा। ये सोच कर भगवान विष्णु एक दुर्लभ अस्त्र की प्राप्ति के लिए महादेव के पास गए।

उस समय महादेव योग साधना में मग्न थे। नारायण उन्ही के सामने अपने पैर के अंगूठे पर खड़े रह कर १००० वर्षों तक तप करते रहे। जब महादेव की चेतन हुए तो उन्होंने अपने समक्ष श्रीहरि को तप करते देखा। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर उन्होंने अपने तीसरे नेत्र की ज्वाला से उत्पन सुदर्शन नामक चक्र उन्हें प्रदान किया जिससे नारायण ने श्रीदामा का वध किया।

वाल्मीकि रामायण के अनुसार जब श्रीहरि ने विश्वकर्मा द्वारा बनाये गए चक्रवण पर्वत पर हयग्रीव अवतार लेकर दानव हयग्रीव का वध करने के पश्चात सुदर्शन चक्र को उससे ले लिया। नारायण ने स्वर्भानु (राहु) का मस्तक भी इसी चक्र से काटा था। उसी अस्त्र से भगवान विष्णु ने माता सती के मृत देह के ५१ भाग कर दिए थे जो शक्तिपीठ कहलाये। 

श्रीराम के पूर्वज अंबरीष ने भगवान विष्णु की घोर साधना कर सुदर्शन चक्र उनसे प्राप्त किया। इसी चक्र को उन्होंने महर्षि दुर्वासा का अभिमान भंग करने के लिए उन पर छोड़ा था। उससे बचने के लिए वे ब्रह्मा और महादेव के पास गए जिन्होंने उससे रक्षा के लिए उन्हें श्रीहरि के पास जाने को कहा। बाद में वे नारायण की कृपा से ही सुदर्शन से बच पाए।

कुछ अन्य पुराणों में ऐसा वर्णित है कि परमपिता ब्रह्मा की आज्ञा अनुसार देवशिल्पी विश्वकर्मा ने सूर्य की अभेद्य राख से तीन अद्भुत चीजों का निर्माण किया था। वे तीन चीजें थी - सुदर्शन चक्र, त्रिशूल एवं पुष्पक विमान। सुदर्शन चक्र को नारायण ने अपने पास रख लिया। त्रिशूल महादेव ने और पुष्पक विमान कुबेर को मिला। बाद में कुबेर से रावण ने उस पुष्पक विमान को छीन लिया।

ऋग्वेद में सुदर्शन चक्र को ही काल चक्र बताया गया है। कहा गया है कि इसके प्रभाव से स्वयं काल अथवा समय को भी बांधा जा सकता था। श्रीकृष्ण ने जो अर्जुन को गीता ज्ञान दिया था, उस समय उन्होंने सुदर्शन द्वारा ही समय को रोक दिया था। जयद्रथ के वध के समय भी श्रीकृष्ण ने सुदर्शन द्वारा ही सूर्य की गति रोक कर उसे ढँक लिया था। शिशुपाल का वध भी श्रीकृष्ण ने सुदर्शन से ही किया था।

महादेव से ये अस्त्र नारायण को मिला। नारायण ने आवश्यकता पड़ने पर कुछ समय के लिए इस अस्त्र को माता पार्वती को दिया। माता पार्वती से सुदर्शन भगवान परशुराम को मिला और फिर द्वापर में उनसे इस अस्त्र को श्रीकृष्ण ने प्राप्त किया। नारायण की भांति ही ये अस्त्र श्रीकृष्ण का अभिन्न अंग बन गया और उनके लीला संवरण के पश्चात ये पुनः नारायण के पास चला गया। कुछ समय के लिए ये अस्त्र अग्नि और वरुण के पास भी रहा। 

महाभारत के अनुसार एक बार श्रीकृष्ण अपने गुरु सांदीपनि के आश्रम में गए। संयोग से परशुराम जी भी वहीँ थे। उन्होंने श्रीकृष्ण को देखते ही समझ लिया कि यही श्रीहरि के अवतार हैं। उन्होंने श्रीकृष्ण और बलराम को गोमांतक पर्वत पर जाने को कहा और कहा कि वहां मैंने आपके लिए एक उपहार रखा है। जब श्रीकृष्ण गोमांतक पर्वत पहुंचे तो जरासंध की सेना ने वहां आक्रमण किया और श्रीकृष्ण और बलराम ने उस सेना को परास्त कर दिया। उस युद्ध के परिणाम स्वरूप गोमांतक पर्वत जल गया।

कुछ दिनों के पश्चात जब परशुराम जी वहां पहुंचे तो उन्होंने श्रीकृष्ण से कहा कि भविष्य में उन्हें अनेकों युद्ध लड़ने हैं जिसके लिए उन्हें एक अद्भुत अस्त्र की आवश्यकता पड़ेगी। तब उन्होंने सुदर्शन चक्र श्रीकृष्ण को प्रदान किया क्यूंकि वे उसके सर्वथा योग्य थे। गोमांतक से वापस लौटते हुए करवीर राज्य के राजा श्रगाल ने उनपर आक्रमण किया और उस समय पहली बार श्रीकृष्ण ने सुदर्शन का उपयोग किया। उस अस्त्र द्वारा उन्होंने श्रगाल की सेना का नाश कर दिया और वापस मथुरा लौट आये।

सुदर्शन की क्षमता के विषय में भी बहुत वर्णन प्राप्त होता है। ये एक महा विध्वंसक अस्त्र था जो एक बार चलने पर शत्रु का नाश कर के ही लौटता था। इसकी शक्ति महादेव के त्रिशूल और इंद्र के वज्र के समकक्ष ही बताई गयी है। इसकी गिनती दिव्यास्त्रों में की जाती है और ब्रह्मास्त्र के समान विध्वंसक ना होने के बाद भी ये उसी के सामान प्रभावशाली बताया गया है। ऐसी भी मान्यता है कि ये चक्र किसी भी लोक से किसी खोई हुई वस्तु को खोज कर ला सकता था।

जब ये चलाया जाता था तो पवन के प्रचंड वेग से से मिलकर भयंकर प्रलयाग्नि उत्पन्न करता था। आवश्यकता अनुसार ये अपना आकर बदल सकता था। ये देखने में अत्यंत सुन्दर था इसी कारण इसका "सुदर्शन" नाम पड़ा था। यह अत्यंत तीव्रगामी एवं त्वरित संचालित होने वाला अस्त्र था। कहते हैं कि ब्रह्मास्त्र के समान ही सुदर्शन चक्र के विज्ञान को भी गुप्त रखा गया ताकि ये किसी गलत हाथों में ना चला जाये।

इसकी बनावट के बारे में भी हमें विभिन्न ग्रंथों में अलग-अलग जानकारियां प्राप्त होती है। कुछ ग्रंथों के अनुसार ये चांदी से निर्मित था और इसकी निचली और ऊपरी परतों पर लौह शूल लगे थे जो अत्यंत विषैले थे। इसके चलने पर उसी विषयुक्त दोधारी छुरियां निकल कर शत्रुओं पर बरसती थीं। इसके अतिरिक्त इससे अन्य कई अस्त्र-शस्त्र भी शत्रुओं पर बरसते थे।

इसमें लगी हुई आरियों की संख्या के विषय में भी अलग-अलग मत हैं। कुछ ग्रंथों के अनुसार सुदर्शन में १००० आरे थे, क्यूंकि श्रीहरि ने १००० वर्षों तक १००० नील कमलों द्वारा महादेव के १००० नामों द्वारा उनकी तपस्या की थी। वीरभद्र और भगवान विष्णु के युद्ध के सन्दर्भ में कहा गया - "१००० आरों वाला वो महान अस्त्र (सुदर्शन) भयंकर प्रलयाग्नि निकालता हुआ वीरभद्र की ओर बढ़ा किन्तु उस रुद्रावतार ने, जो बल में स्वयं रूद्र के समान ही थे, उस अस्त्र को इस प्रकार मुख में रख लिया जैसे कोई जल को पी जाता है।

महाभारत एवं हरिवंश पुराण के अनुसार सुदर्शन चक्र के कुल १०८ आरे थे। इसका एक वर्णन तब भी मिलता है जब महाबली हनुमान सुदर्शन को पकड़ कर अपने मुख में रख लेते हैं। अग्नि पुराण के अनुसार सुदर्शन चक्र, जिसका निर्माण विश्वकर्मा ने किया था, में दो पंक्तियों में सजे कुल १ करोड़ आरियाँ थी जो एक दूसरे के विपरीत दिशा में घूमती थी।

हालाँकि इसका सबसे प्रामाणिक और विस्तृत वर्णन हमें शिव पुराण में मिलता है जिसके अनुसार इसमें कुल १२ आरे थे। जब महादेव उस अस्त्र को भगवान विष्णु को देते हुए कहते हैं -

"हे नारायण! यह सुदर्शन नाम का श्रेष्ठ आयुध बारह अरों, छह नाभियों एवं दो युगों से युक्त, तीव्र गतिशील और समस्त आयुधों का नाश करने वाला है। सज्जनों की रक्षा करने के लिए इसके अरों में देवता, राशियाँ, ऋतुएँ, अग्नि, सोम, मित्र, वरुण, शचीपति इन्द्र, विश्वेदेव, प्रजापति, हनुमान, धन्वन्तरि, तप तथा चैत्र से लेकर फाल्गुन तक के बारह महीने प्रतिष्ठित हैं। अतः आप इसे लेकर निर्भीक होकर शत्रुओं का संहार करें।"

विष्णु पुराण में सुदर्शन चक्र का मन्त्र भी दिया है जिसे बोलने से अनन्य पुण्य प्राप्त होता है। ये है - ॐ सुदर्शनाय विद्महे महा ज्वालाय धीमहि तन्नो चक्रा प्रचोदयात।

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