परशुराम

परशुराम
आप सभी को परशुराम जयंती (अक्षय तृतीया) की हार्दिक शुभकामनायें। आज अक्षय तृतीया के ही दिन जब नवग्रहों में से ६ ग्रह उच्च दशा में थे, ऐसे शुभ मुहूर्त में भगवान विष्णु के छठे अवतार के रूप में परशुराम का जन्म हुआ था। श्रीहरि के इस अवतार का ध्येय था संसार से दुष्ट क्षत्रियों का नाश करना। वैसे तो इनका मूल नाम राम था किन्तु भगवान शिव द्वारा प्रदत्त विकराल परशु को सदैव धारण करने के कारण इनका नाम परशुराम पड़ गया और वे इसी नाम से जगत विख्यात हुए।

परशुराम महर्षि भृगु के कुल में जन्मे थे, इसी कारण उनका एक नाम भार्गव भी है। इनके पिता का नाम महर्षि जमदग्नि था जिनका विवाह प्रसेनजित की कन्या रेणुका से हुआ। रेणुका से उन्हें ५ पुत्रों की प्राप्ति हुई - रुक्मवान, सुखेण, वसु, विश्ववानस एवं राम (यही आगे चलकर परशुराम कहलाये)। कहा जाता है कि अपने पाँचवे पुत्र की प्राप्ति हेतु जमदग्नि ने देवराज इंद्र के समक्ष पुत्रेष्टि यज्ञ किया और इंद्र के अनुग्रह पर स्वयं श्रीहरि ने राम के रूप में जन्म लिया। क्रोधी स्वाभाव उन्हें जन्मजात ही प्राप्त हुआ। पिता जमदग्नि के कारण वे जामदग्नेय भी कहलाये।

परशुराम का जन्म वर्तमान बलिया के खैराडीह में हुआ माना जाता है। ८ वर्ष की आयु तक उन्होंने अधिकांश विद्याएँ अपनी माता रेणुका से प्राप्त कर ली। ब्राह्मण होने के कारण परशुराम को समस्त वेदों और शास्त्रों की शिक्षा दी गयी। उन्होंने सर्वप्रथम अपनी विद्या अपने पिता जमदग्नि से प्राप्त की। वे मेधावी थे इसी कारण शीघ्र ही वे समस्त शास्त्रों के ज्ञाता हो गए। शास्त्र विद्या का पूर्ण अध्ययन करने के बाद परशुराम ने अपने पिता से शस्त्र विद्या प्राप्त करने की इच्छा जताई। 

जमदग्नि ने उन्हें समझाया कि वे ब्राह्मण हैं और विषय को अपने ज्ञान से प्रकाशित करना ही उनका धर्म है किन्तु परशुराम युद्धकला में पारंगत होना चाहते थे उन्होंने इसका निश्चय कर लिया। ये देख कर उनके पिता समझ गए कि महर्षि भृगु के आशीर्वाद के कारण परशुराम ब्राह्मण होते हुए भी क्षत्रिय हैं, अतः उन्होंने परशुराम को रोकना उचित नहीं समझा और उन्हें शस्त्रविद्या प्राप्त करने की अनुमति दे दी।

उन्होंने परशुराम को उसके नाना राजर्षि विश्वामित्र के पास भेजा जो उस समय शस्त्रविद्या के महान ज्ञाता थे। विश्वामित्र उन गिने चुने गुरुओं में थे जिनके पास समस्त प्रकार के दिव्यास्त्र थे और युद्धकला का ज्ञान देने में उसने श्रेष्ठ और कोई नहीं था। जब परशुराम राजर्षि विश्वामित्र के पास पहुँचे तो उन्होंने उनकी शस्त्रविद्या सीखने की आकांक्षा का अनुमोदन किया। 

उन्होंने कहा कि जब वे क्षत्रिय होकर ब्राह्मणत्व को प्राप्त कर सकते हैं तो फिर परशुराम ब्राह्मण होकर क्षत्रियों की विद्या क्यों नहीं सीख सकते? उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक परशुराम को युद्ध कला का ज्ञान देना आरम्भ किया। शीघ्र ही परशुराम ने विश्वामित्र से समस्त प्रकार की युद्धकालाओं का ज्ञान प्राप्त कर लिया। उन्हें उत्तम शिष्य जान कर विश्वामित्र ने उन्हें समस्त प्रकार के दिव्यास्त्रों का भी पूर्ण ज्ञान दे दिया। उन महान अस्त्रों का ज्ञान प्राप्त कर परशुराम विश्व के सर्वश्रेष्ठ अजेय योद्धा बन गए।

किन्तु परशुराम की विद्या प्राप्त करने की क्षुधा अभी नहीं मिटी थी। उन्होंने विश्वामित्र से कहा - "हे मातामह! आपने मुझे जो ज्ञान दिया उसे पाकर मैं धन्य हो गया किन्तु मेरी इच्छा और विद्या प्राप्त करने की है। मैं चाहता हूँ कि त्रिलोक में कोई मुझे परास्त ना कर सके।" तब विश्वामित्र ने कहा - "पुत्र! मेरे पास जितनी विद्या और दिव्यास्त्र थे मैंने सब तुम्हे प्रदान कर दिया। किन्तु अगर तुम और ज्ञान प्राप्त करना चाहते हो तो वो तुम्हे केवल भगवान शंकर ही दे सकते हैं। ब्रह्मास्त्र, नारायणास्त्र एवं पाशुपास्त्र सहित विश्व के सभी अस्त्र-शस्त्रों के अधिपति महादेव ही हैं। अतः उन्हें प्रसन्न करो।"

विश्वामित्र की प्रेरणा से परशुराम ने ये निश्चय किया कि वे भगवान शंकर के शिष्य बनने का गौरव प्राप्त करेंगे। फिर उन्होंने अपनी गुरु की आज्ञा लेकर महादेव को प्रसन्न करने के लिए तपस्या करने को प्रस्थान किया। परशुराम महादेव की तपस्या करने पूर्व दिशा में चक्रतीर्थ की ओर गए। भारत के अरुणाचल प्रदेश के उत्तर पूर्वी सीमा में जहाँ ब्रह्मपुत्र नदी लोहित नदी से मिलती है, वहीँ परशुराम ने तपस्या की थी। आज भी वहाँ परशुराम कुण्ड स्थित है जिनमे स्नान करने से सभी पाप धुल जाते हैं। ये कुंड लोहित का सबसे पड़ा पर्यटन केंद्र भी है जहाँ हर वर्ष मकर संक्रांति के अवसर पर भारी संख्या में लोग आते हैं।

चक्रतीर्थ में परशुराम ने महादेव की घोर आराधना की। उनकी घोर तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने आकाशवाणी के माध्यम से उन्हें आज्ञा दी कि वे कैलाश की भूमि से दैत्यों का नाश करें। उनकी आज्ञा पाकर परशुराम ने अकेले ही दैत्यों से युद्ध किया और उनका समूल नाश कर दिया। किन्तु इस युद्ध में उनका शरीर क्षत-विक्षत हो गया। 

वो मृत्यु को प्राप्त होने ही वाले थे कि उनकी इस भक्ति से अंततः महादेव ने उन्हें दर्शन दिए। उन्होंने परशुराम का शरीर पुनः पहले जैसा कर दिया और उनका शारीरिक बल सहस्त्र गुणा बढ़ा दिया। तब परशुराम ने महादेव से उनका शिष्य बनने की याचना की। उनकी तपस्या से प्रसन्न महादेव ने उन्हें अपना शिष्य स्वीकार किया और त्रिलोक में जो दुर्लभ है ऐसी युद्धकला उन्हें सिखाई।

महादेव के आशीर्वाद से उन्हें कई दिव्यास्त्र प्राप्त हुए जिसमे से सबसे प्रमुख था "विद्युदभि" नामक विकराल परशु। इसी परशु के कारण जमदग्नि पुत्र राम परशुराम कहलाये। इस परशु के विषय में लिखा गया है कि ये विश्व के सबसे मारक अस्त्रों में से एक था। इसे किसी भी प्रकार नष्ट नहीं किया जा सकता था और ना ही इसे परशुराम के अतिरिक्त कोई और संचालित कर सकता था। इसकी तुलना के अस्त्र केवल इंद्र का वज्र, नारायण का सुदर्शन, शिव का त्रिशूल एवं ब्रह्मा का ब्रह्मास्त्र ही था। इसके अतिरिक्त उन्हें भगवान शिव से नारायण का त्रैलोक्य विजय कवच, स्तवराज स्त्रोत्र एवं कल्पतरु मन्त्र भी प्राप्त हुआ। तब भगवान की स्तुति करते हुए परशुराम ने उनके सम्मान में एकादश छन्दयुक्त "शिव पंचत्वारिंशनाम स्तोत्र" की रचना की। 

इसके बाद भगवान शिव ने उन्हें भगवान विष्णु की तपस्या करने का आदेश दिया। महादेव की आज्ञा मान कर परशुराम ने चक्रतीर्थ में ही श्रीहरि विष्णु की घोर आराधना की। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर श्रीहरि ने उन्हें दर्शन दिए और महान नारायणास्त्र और सुदर्शन चक्र उन्हें प्रदान किया। उसके अतिरिक्त उन्होंने परशुराम को अविनाशी वैष्णव मन्त्र प्रदान किया जिसकी कृपा से परशुराम अमर हो गए। उसके बाद भगवान विष्णु ने उन्हें कल्प के अंत तक जीवित रहने का आशीर्वाद दिया।

तत्पश्चात भगवान विष्णु ने उन्हें ब्रह्मदेव को भी प्रसन्न करने को कहा। उनकी आज्ञा पाकर परशुराम ने परमपिता ब्रह्मा की भी आराधना की और उनके प्रसन्न होने पर उनसे सर्वाधिक मारक अस्त्र ब्रह्मास्त्र प्राप्त किया। इससे परशुराम वशिष्ठ, विश्वामित्र आदि के सामान उन गिने-चुने योद्धाओं में शामिल हुए जिन्हे ब्रह्मास्त्र का ज्ञान था। त्रिदेवों को प्रसन्न करने के बाद देवराज इंद्र ने उन्हें "विजय" नामक दिव्य धनुष प्रदान किया जिसकी रचना स्वयं विश्वकर्मा ने की थी। इस प्रकार त्रिदेवों से वरदान प्राप्त कर परशुराम त्रिलोक में अजेय हो गए और उनकी प्रसिद्धि पूरे विश्व में फ़ैल गयी। 

इसी बीच एक अप्रिय घटना घट गयी। एक दिन उनकी माता रेणुका जल लेने गंगा तट पर गयी। वहाँ गंधर्वराज चित्ररथ कई अप्सराओं के साथ विहार कर रहे थे। जब रेणुका ने चित्ररथ के रूप को देखा तो एक क्षण के लिए उसपर आसक्त हो गयी। शीघ्र ही उन्हें भान हुआ कि उन्होंने बहुत बड़ी भूल कर दी है इसी कारण वो तुरंत जल लेकर वापस आश्रम आ गयी। 

जब जमदग्नि ने रेणुका का क्लांत मुख देखा तो उन्हें संदेह हुआ। उन्होंने अपनी योगविद्या से ये जान लिया कि उनकी पत्नी चित्ररथ पर आसक्त हो गयी थी। ये जानकर उन्हें अत्यंत क्रोध हुआ। उन्होंने अपने बड़े पुत्र रुक्मवान को आज्ञा दी कि वो मानसिक व्यभिचार करने के दण्डस्वरूप अपनी माता रेणुका का वध कर दे। जब रुक्मवान ने ऐसी आज्ञा सुनी तो काँप उठा। उसने अपनी माता का वध करने में असमर्थता जताई। तब जमदग्नि ने वही आज्ञा अपने तीन अन्य पुत्रों को दी किन्तु वे सभी अपनी माता का वध करने का साहस न जुटा पाए। इस पर जमदग्नि ने अपने सभी पुत्रों को चेतना खो देने का श्राप दे दिया।

अंत में जमदग्नि ने अपने सबसे छोटे पुत्र परशुराम को उनकी माता के वध की आज्ञा दी। परशुराम ने अपने पिता की आज्ञा पाकर अपनी माता का मस्तक अपने परशु से काट डाला। अपने पुत्र की ऐसी पितृभक्ति देख कर जमदग्नि अत्यंत प्रसन्न हुए और उनसे वरदान मांगने को कहा। तब परशुराम ने उनसे कहा कि उनकी माता जीवित हो जाये और उन्हें इस घटना की स्मृति ना रहे। साथ ही उनके चारो भाइयों की चेतना भी वापस आ जाये। 

जमदग्नि ने प्रसन्नतापूर्वक रेणुका को पुनर्जीवन दे दिया। इस प्रकार परशुराम ने ना केवल अपने पिता की आज्ञा मानी पर अंततः अपनी माता को भी जीवनदान दिया। कुछ समय बाद उनका विवाह "धारिणी" से हुआ। कहते हैं कि स्वयं माता लक्ष्मी ही धारिणी के रूप में अवतरित हुई थी। हम सभी श्रीराम को उनके एकपत्नीव्रत के लिए याद करते हैं किन्तु उनसे बहुत पहले परशुराम ने इसकी परंपरा रखी थी।

एक बार हैहयवंशी कर्त्यवीर्य अर्जुन आखेट के बाद महर्षि जमदग्नि के आश्रम पहुँचा। ये वही सहस्त्रार्जुन था जिसने स्वयं रावण को भी युद्ध में परास्त किया था। जब वो अपनी सेना के साथ वहाँ पहुंचा तो जमदग्नि ने कामधेनु गाय के चमत्कार से सभी लोगों को भोजन करवाया। सभी मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाली उस  चमत्कारी गाय ऋषि को देवराज इंद्र की सहायता से मिली थी। कामधेनु का चमत्कार देख कर कर्त्यवीर्य अर्जुन ने जमदग्नि से प्रार्थना की कि वे वह गाय उसे दे दें। किन्तु जब जमदग्नि ने मना किया तो उसने अपनी सेना की सहायता से आश्रम में उत्पात मचा दिया और कामधेनु को जबरन अपने साथ ले गया।

उस समय परशुराम आश्रम में उपस्थित नहीं थे। जब वे वापस आये तो अपने पिता से आश्रम की ऐसी स्थिति का कारण पूछा। जब उन्हें पता चला कि सहस्त्रार्जुन ने उसके पिता का अपमान किया और कामधेनु को जबरन अपने साथ ले गया है तो वे महर्षि अगस्त्य द्वारा प्राप्त रथ पर बैठ कर उसी ओर गए जिधर राजा की सेना गयी थी। वे शीघ्र ही सहस्त्रार्जुन तक पहुँच गए और उसे युद्ध के लिए ललकारा। 

सहस्त्रार्जुन निःसंदेह महान योद्धा थे किन्तु एक तो वे अपनी वृद्धावस्था में थे और परशुराम तरुण थे, और दूसरे परशुराम के पास त्रिदेवों से प्राप्त कई महान अस्त्र थे जिसकी काट सहस्त्रार्जुन के पास नहीं थी। दोनों में कई दिनों तक भयानक युद्ध चला और अंततः परशुराम ने महादेव द्वारा प्रदत्त महान परशु से सहस्त्रार्जुन की १००० भुजाएँ काट डाली और उनका वध कर दिया। उसके बाद वे कामधेनु को लेकर वापस आश्रम में वापस आ गए।

जब कर्त्यवीर्यअर्जुन के पुत्रों ने सुना कि परशुराम ने उनके पिता का वध कर दिया है तो वे सेना लेकर जमदग्नि के आश्रम पहुँचे। उस समय भी परशुराम वहाँ उपस्थित नहीं थे। उनकी अनुपस्थिति में सहस्त्रार्जुन के पुत्रों ने क्रोध में आकर जमदग्नि की हत्या कर दी। अपने पति को मरा देख कर परशुराम की माँ रेणुका ने भी प्राण त्याग दिए। जब परशुराम वापस आश्रम आये तो अपने माता और पिता को मृत देखा। उन्हें पता चला कि ये अनर्थ सहस्त्रार्जुन के पुत्रों ने किया है। इस कृत्य से उन्हें इतना अधिक दुःख हुआ कि उन्होंने हैहयवंश के समूल नाश की प्रतिज्ञा कर ली। वे क्रोध में भरकर अकेले ही सहस्त्रार्जुन की राजधानी महिष्मति पहुँचे और उनके सभी पुत्रों का सेना सहित वध कर दिया। 

किन्तु सहस्त्रार्जुन के पुत्रों का समूल नाश करने के बाद भी उन्हें शांति नहीं मिली। वे इतने अधिक क्रोध में थे कि उन्होंने एक-एक हैहैयवंशियों को ढूंढ-ढूंढ कर मारा। कहा जाता है कि उन्होंने पूरे आर्यावर्त में घूम घूम कर कुल २१ अभियान किये और अपने इन अभियानों में हैहयवंश के ६४ कुलों का समूल नाश कर दिया। उस समय पूरे विश्व में हैहयवंशी ही क्षत्रियों का नेतृत्व करते थे। इसी कारण ये कहा जाता है कि परशुराम ने २१ बार पृथ्वी से क्षत्रियों का विनाश कर दिया। वो इतने क्रोध में थे कि उन्होंने सम्यक पञ्चक स्थान पर क्षत्रियों के रक्त से ५ सरोवर भर दिए। उसके बाद उन्होंने अपने पिता का श्राद्ध भी हैहयवंशी राजकुमारों के रक्त से ही किया। 

उनके इस घोर कृत्य से दुखी होकर अन्त में उनके दादा महर्षि ऋचीक ने स्वयं परशुराम को ऐसा घोर कृत्य करने से रोका। वे अपने पितामह की आज्ञा टाल नहीं सके और अंततः क्षत्रियों का विनाश रुका। फिर उन्होंने सम्यक पञ्चक स्थान ही अपने इस कृत्य का पश्चाताप किया जहाँ देवराज इंद्र ने उन्हें वरदान दिया कि इस स्थान पर जो कोई भी अपने प्राण त्यागेगा वो निश्चय ही स्वर्ग जाएगा। यही कारण था कि श्रीकृष्ण ने महाभारत के युद्ध के लिए इसी स्थान का चुनाव किया। किन्तु ऋषियों को इस बात की आशंका थी कि क्षत्रियों को पुनः बढ़ता देख कर परशुराम फिर से उनका विनाश आरभ कर सकते हैं। इस कारण महर्षि कश्यप ने परशुराम से एक अश्वमेघ यज्ञ करने और उसके बाद उन्हें दान देने को कहा। 

महर्षि कश्यप की आज्ञा मान कर परशुराम ने यज्ञ करने के लिए बत्तीस हाथ ऊँची सोने की वेदी बनवायी। उसके बाद यज्ञ करने के पश्चात महर्षि कश्यप ने दक्षिण में पृथ्वी सहित उस वेदी को ले लिया तथा परशुराम से पृथ्वी छोड़कर चले जाने के लिए कहा। उन्होंने परशुराम से कहा कि "हे वत्स! ये पृथ्वी तुमने मुझे दान कर दी है अतः अब तुम यहाँ नहीं रह सकते। दिन में तो तुम पृथ्वी पर आ सकते हो किन्तु रात्रि में तुम्हे इस पृथ्वी को छोड़ना होगा। मैं तुम्हे महेंद्र पर्वत का स्थान देता हूँ जहाँ तुम निवास कर सकते हो। साथ ही तुम पृथ्वी, पाताल और आकाश सब जगह विचरण कर सके इसी लिए मैं तुम्हे स्वछन्द विचरण करने की शक्ति भी देता हूँ।" उनकी आज्ञा मान कर परशुराम महेंद्र पर्वत पर जा कर बस गए। महर्षि कश्यप से प्राप्त शक्ति के कारण वे सब जगह आ जा सकते थे किन्तु रात्रि में वे पृथ्वी पर नहीं रुक सकते थे।

ब्रह्मवैवर्त पुराण में ये वर्णन है कि एक बार कैलाश स्थित भगवान शंकर के अन्त:पुर में प्रवेश करते समय गणेश जी द्वारा रोके जाने पर परशुराम ने बलपूर्वक अन्दर जाने की चेष्ठा की। तब गणपति ने उन्हें स्तम्भित कर अपनी सूँड में लपेटकर समस्त लोकों का भ्रमण कराते हुए गोलोक में भगवान श्रीकृष्ण का दर्शन कराके भूतल पर पटक दिया। चेतनावस्था में आने पर कुपित परशुरामजी ने श्रीगणेश को युद्ध के लिए ललकारा और उसी युद्ध में उनके परशु के प्रहार से गणेश जी का एक दाँत टूट गया। इसी कारण गणेश एकदन्त भी कहलाये।

सीता स्वयंवर में जब श्रीराम ने पिनाक धनुष को भंग किया तो इससे क्रोधित परशुराम वहाँ पहुँचे और श्रीराम का वध करने को उद्धत हो गए। तब श्रीहरि की कृपा से परशुराम को दिव्य दृष्टि प्राप्त हुई जिससे वे श्रीराम के वास्तविक स्वरुप को जान गए। फिर अपना वैष्णव धनुष दिया और उसपर बाण संधान करने को कहा। तब श्रीराम ने उस धनुष पर अपने "राम बाण" का संधान किया और परशुराम की सहमति से उनके सारे अर्जित पुण्य का नाश कर दिया। उसके पश्चात परशुराम एक वर्ष तक लज्जित, तेजहीन तथा अभिमानशून्य होकर तपस्या में लगे रहे और अंततः वधूसर नामक नदी के तीर्थ पर स्नान करके उन्होंने अपना तेज़ पुनः प्राप्त किया।

ऐसा वर्णन है कि वे सौ वर्षों तक सौम नामक विमान पर बैठे हुए शाल्व से युद्ध करते रहे किंतु गीत गाती हुई नग्निका (कन्या) कुमारियों के मुंह से यह सुनकर कि शाल्व का वध श्रीहरि के अवतार श्रीकृष्ण करेंगे, उन्होंने अपने अस्त्र शस्त्र इत्यादि पानी में डुबा दिए और कृष्णावतार की प्रतीक्षा में तपस्या करने लगे। जब श्रीकृष्ण ने अवतार लिया तब भगवान परशुराम उनसे महर्षि सांदीपनि के आश्रम में मिले और विश्व कल्याण हेतु श्रीहरि से प्राप्त सुदर्शन चक्र उन्हें प्रदान किया। उसी सुदर्शन से श्रीकृष्ण में महाभारत काल में शाल्व और अन्य दुष्टों को नाश किया। 

परशुराम के शिष्य: परशुराम के तीन प्रमुख शिष्यों में भीष्म, द्रोण और कर्ण का नाम आता है। तीनों अपने युग के महान योद्धा थे और उन गिने चुने योद्धाओं में थे जिनके पास ब्रह्मास्त्र था जिनका ज्ञान उन्हें भगवान परशुराम से ही प्राप्त हुआ था।
  • भीष्म: परशुराम केवल ब्राह्मणों को शिक्षा देते थे। उनके एकमात्र क्षत्रिय शिष्य महारथी भीष्म बनें (कर्ण भी क्षत्रिय थे किन्तु ये बात परशुराम नहीं जानते थे)। वे क्षत्रिय होते हुए भी ब्राह्मणों की भांति सत्तरित्र थे इसी कारण परशुराम ने उन्हें अपने शिष्य के रूप में स्वीकार किया। अम्बा स्वयंवर में जब भीष्म तीनों बहनों का हरण कर लाये तब अम्बा ने परशुराम से ये प्रार्थना की कि वे भीष्म को उससे विवाह करने को विवश करें। किन्तु भीष्म ब्रह्मचारी थे और इसी कारण परशुराम और भीष्म में युद्ध हुआ किन्तु २३ दिनों तक लगातार युद्ध करने के बाद भी परशुराम भीष्म को परास्त नहीं कर पाए। तब भीष्म ने प्रस्वपात्र का संधान किया जिससे परशुराम की पराजय निश्चित थी किन्तु देवताओं के कहने पर, कि इससे उनके गुरु का अपमान होगा, उन्होंने उसका प्रयोग नहीं किया और परशुराम का आशीर्वाद लेकर वापस लौट गए।
  • द्रोणाचार्य: जब द्रोण को पता चला कि परशुराम अपनी सारी संपत्ति दान कर रहे हैं तो कुछ दान लेने की इच्छा लेकर द्रोणाचार्य परशुराम के पास पहुँचे किन्तु उस समय तक वे अपना सब कुछ दान कर चुके थे। तब द्रोण ने उनसे उनकी बची हुई धनुर्विद्या का ज्ञान देने की याचना की। तब परशुराम ने उन्हें द्रोण को धनुर्विद्या का ज्ञान दिया और ब्रह्मास्त्र सहित सभी प्रकार के दिव्यास्त्र प्रदान किये। यही शिक्षा द्रोणाचार्य से अर्जुन को प्राप्त हुई और वो भी उनकी ही भांति महान योद्धा बना।
  • कर्ण: द्रोणाचार्य द्वारा ठुकराए जाने के बाद कर्ण शिक्षा प्राप्त करने परशुराम के पास पहुँचे। तब परशुराम ने उससे पूछा कि क्या वो क्षत्रिय है। तब कर्ण ने कहा नहीं कहा (क्यूंकि वो स्वयं भी नहीं जनता था) किन्तु चूँकि परशुराम ने उससे पूछा नहीं था इसी कारण उसने ये भी नहीं बताया कि वो ब्राह्मण नहीं है। तब परशुराम ने उसे भी वो ब्रह्मास्त्र सहित सभी दिव्यास्त्र प्रदान किये और अपना विजय धनुष भी उसे प्रदान किया। एक बार वो कर्ण की जंघा पर सर रखकर सो रहे थे तो एक कीड़ा कर्ण जंघा को चीर कर उसमे घुस गया। गुरु की निद्रा में व्यवधान ना पड़े इसी कारण कर्ण बिना हिले-डुले बैठे रहे। जब परशुराम उठे तो ये देख कर उन्होंने कहा कि किसी भी ब्राह्मण में इतनी सहनशक्ति नहीं हो सकती। उन्होंने ये समझा कि कर्ण ने उससे झूठ कहा और इसी कारण परशुराम ने उसे श्राप दे दिया कि आवश्यकता के समय वो उनसे प्राप्त ज्ञान को भूल जाएगा। इसी कारण कर्ण अर्जुन पर ब्रह्मास्त्र का प्रयोग नहीं कर सका क्यूंकि उसे उसकी विद्या का विस्मरण हो गया था। अर्जुन से निर्णायक युद्ध से पहले कर्ण ने परशुराम से प्रार्थना की कि वो केवल एक दिन के लिए उसकी विद्या लौटा दें। तब परशुराम ने उसे समझाते हुए कहा कि इस युद्ध में पांडवों की विजय आवश्यक है और इसी कारण कर्ण ने उनसे पुनः अपनी विद्या नहीं माँगी और मृत्यु को प्राप्त हुए।
परशुराम ८ चिरंजीवियों में से एक हैं अर्थात वे कल्प के अंत तक जीवित रहेंगे। यही कारण है कि त्रेतायुग के मध्य में जन्म लेने वाले परशुराम त्रेतायुग के अंत में श्रीराम को भी दर्शन देते हैं, द्वापरयुग में श्रीकृष्ण को दर्शन देते हैं और भीष्म, द्रोण एवं कर्ण के गुरु भी बनते हैं। 

कलियुग के अंत समय में जब भगवान विष्णु के दसवें अवतार भगवान कल्कि का अवतरण होगा तब परशुराम ही उनके गुरु बनकर उन्हें शस्त्र एवं शास्त्र विद्या प्रदान करेंगे। 

भगवान परशुराम के विषय में जितना लिखा जाये उतना कम है। इसी कारण अंत में इस इच्छित फल-प्रदाता परशुराम गायत्री को लिखते हुए मैं ये लेख समाप्त करता हूँ। इस परशुराम गायत्री मन्त्र का जो कोई भी सच्चे मन से ध्यान करता है उसे सभी पापों से मुक्ति मिलती है। 

ॐ जामदग्न्याय विद्महे महावीराय धीमहि
तन्नोपरशुराम: प्रचोदयात्।

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