महर्षि पुलस्त्य

महर्षि पुलस्त्य
महर्षि पुलस्त्य भी परमपिता ब्रह्मा के मानस पुत्रों एवं प्रजापतियों में से एक हैं जिनकी उत्पत्ति ब्रह्मदेव के कान से हुई। महाभारत और पुराणों में इनके विषय में बहुत कुछ लिखा गया है। कहते हैं कि जगत में जो कुछ भी शांति और सुख का अनुभव होता है, उसमे महर्षि पुलस्त्य की बहुत बड़ी भूमिका है। इनका स्वाभाव अत्यंत दयालु बताया गया है जो देव, दानव, मानव में कोई भेद-भाव नहीं करते। महाभारत में इस बात का उल्लेख है कि अपने पिता ब्रह्मा की आज्ञा से महर्षि पुलस्त्य ने पितामह भीष्म को ज्ञान प्रदान किया था।

अपने पिता भगवान ब्रह्मा की आज्ञा से महर्षि पुलस्त्य ने प्रजापति दक्ष की कन्या प्रीती और प्रजापति कर्दम की कन्या हविर्भुवा (मानिनी) से विवाह किया। इनके कई पुत्र थे किन्तु दो पुत्रों ऐसे रहे जिन्होंने अपने तप से देवत्व को प्राप्त किया। इनके पहले पुत्र थे दत्तोलि जो आगे चलकर स्वयंभू मन्वन्तर में महर्षि अगस्त्य के नाम से प्रसिद्ध हुए। महर्षि अगस्त्य के विषय में कुछ बताने की आवश्यकता नहीं है क्यूंकि वे अपने पिता के सामान ही तेजस्वी थे और हिन्दू धर्म के सर्वाधिक प्रभावशाली ऋषियों में उनका नाम सर्वोपरि है। 

कर्दम प्रजापति की कन्या हविर्भुवा से इन्हे विश्रवा नाम का एक पुत्र प्राप्त हुआ। यही विश्रवा यक्ष एवं रक्ष (राक्षस) जाति के जनक थे। विश्रवा का विवाह महर्षि भारद्वाज की पुत्री और महर्षि गर्ग की बहन इडविला से हुआ जिससे उन्हें कुबेर नाम का पुत्र प्राप्त हुआ। यही कुबेर यक्षों सम्राट बनें। आगे चल कर विश्रवा ने राक्षसराज माली की पुत्री कैकसी से विवाह किया जिससे उन्हें रावण, कुम्भकर्ण और विभीषण नामक तीन पुत्र और शूर्पनखा नामक एक पुत्री की प्राप्ति हुई। इसी रावण ने रक्षाओं के प्रताप को अपने शिखर पर पहुँचाया। राक्षसों के वंश के विषय में विस्तार से यहाँ पढ़ें।

इसके अतिरिक्त विष्णु पुराण में इनके एक पुत्र निदाघ का भी वर्णन आता है जिसने महर्षि ऋभु से तत्वज्ञान प्राप्त किया था। इस प्रकार महर्षि पुलस्त्य यक्षों और राक्षसों, दोनों के आदि पुरुष थे। कहा जाता है कि दक्ष के यज्ञ ध्वंस के समय अन्य लोगों के साथ महर्षि पुलस्त्य भी जलकर मृत्यु को प्राप्त हो गए थे। वैवस्वत मन्वंतर में ब्रह्मा के सभी मानस पुत्रों के साथ पुलस्त्य का भी पुनर्जन्म हुआ था। इन्होने महादेव को तप से प्रसन्न किया और उनसे लंका में अपने तप हेतु एक स्थाई स्थान प्राप्त किया।

महर्षि पुलस्त्य के विवाह के विषय में पुराणों में एक रोचक कथा भी है। कथा के अनुसार एक बार वे मेरु पर्वत पर तपस्या कर रहे थे। वहाँ रहने वाली अप्सराएँ बार-बार वहाँ आकर हास-परिहास करती थी जिससे उनके तप में विघ्न पड़ता था। इससे क्रोधित होकर उन्होंने श्राप दे दिया कि जो कोई भी कन्या उनके सामने आएगी वो गर्भवती हो जाएगी। इस श्राप से घबराकर अप्सराओं ने वहाँ आना बंद कर दिया। किन्तु एक दिन वैशाली की राजा की कन्या, जिसे इस श्राप के बारे में पता नहीं था, भूलवश महर्षि के समक्ष आ गयी जिससे वो गर्भवती हो गयी। तब बाद में महर्षि पुलस्त्य ने उससे भी विवाह किया।

महर्षि पुलस्त्य ने अपने पिता ब्रह्मा से विष्णु पुराण सुना और फिर उसे अपने शिष्य महर्षि पराशर को सुनाया। तब उनकी आज्ञा से महर्षि पराशर ने इस पुराण का ज्ञान अन्य मनुष्यों को प्रदान किया। एक कथा के अनुसार मरुतवंशी चक्रवर्ती सम्राट तृणबिन्दु ने महर्षि पुलस्त्य को अपने यज्ञ में ब्रह्मा का स्थान लेने का अनुरोध किया। उन्होंने यज्ञ में केवल स्वर्ण का ही उपयोग किया और उसका परिमाण इतना था कि महर्षि पुलस्त्य दक्षिणा में कुछ स्वर्ण लेकर बाँकी को वही छोड़ कर वापस चले गए। उसके बाद बहुत काल बीतने के बाद उसी बचे हुए स्वर्ण का भाग युधिष्ठिर को प्राप्त हुआ जिससे उन्होंने इंद्रप्रस्थ नगरी बसाई और राजसू यज्ञ किया।

महर्षि पुलस्त्य और गोवर्धन पर्वत की कथा भी बहुत रोचक है। कहा जाता है कि प्राचीन काल में ये पर्वत ३०००० हाथ (मीटर) ऊँचा हुआ करता था। एक बार महर्षि पुलस्त्य वहाँ आये और गोवर्धन की सुंदरता देख कर मंत्रमुग्ध हो गए। उन्होंने गोवर्धन के पिता द्रोणाचल से गोवर्धन को काशी ले जाने की बात कही। द्रोणाचल तो मान गए किन्तु गोवर्धन ने कहा कि अगर आप मुझे बीच मार्ग में कही भी रख देंगे तो मैं वही स्थापित हो जाऊंगा। महर्षि पुलस्त्य ने इस शर्त को मान लिया। 

जब वे गोवर्धन को उठाकर ब्रजमंडल पहुंचे तो उन्हें लघुशंका लगी और इस कारण उन्हें गोवर्धन को वही रखना पड़ा। जब वे वापस आये तो उन्होंने गोवर्धन को उठाने का बहुत प्रयास किया किन्तु अपनी शर्त के अनुसार गोवर्धन वही अड़ गए। तब क्रोधित होकर महर्षि पुलस्त्य ने उसे श्राप दिया कि वो रोज १ मुट्ठी कम होता चला जाएगा। इस पर्वत को श्रीकृष्ण ने अपनी छोटी अँगुली पर उठा लिया था। कहते हैं आज भी ये लगातार कम होता जा रहा है। ये पर्वत मथुरा से करीब २२ किलोमीटर पर स्थित है। 

जब महर्षि पुलस्त्य के पोते रावण ने सहस्त्रार्जुन से युद्ध किया तो उसने उसे परास्त कर बंदी बना लिया और उसे मृत्युदंड देने का निश्चय किया। तब महर्षि पुलस्त्य सहस्त्रार्जुन की राजधानी महिष्मति पहुँचे। इन्हे आया देख कर कर्त्यवीर्यअर्जुन ने उनकी अभ्यर्थना की और उनसे वहाँ आने का कारण पूछा। तब महर्षि पुलस्त्य ने उसे रावण को मुक्त करने को कहा। ये जानकर कि रावण उनका पौत्र है, सहस्त्रार्जुन ने तत्काल महर्षि की आज्ञा का पालन करते हुए रावण को मुक्त कर दिया। इस प्रकार महर्षि पुलस्त्य ने अपने पौत्र के प्राणों की रक्षा की। 

महर्षि पुलस्त्य का वर्णन जैन धर्म में भी आया है। जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव ने बहुत दिनों तक राज्यपालन करने के पश्चात् अपने ज्येष्ठ पुत्र भरत को राज्य सौंप दिया। उसके बाद जब वो वनगमन को निकले तब मुक्ति की प्राप्ति हेतु उन्होंने महर्षि पुलस्त्य को ही अपना गुरु बनाया और उनकी के आश्रम पर उन्होंने तपस्या की। कहते हैं आज भी विश्व कल्याण हेतु महर्षि पुलस्त्य तपस्यारत रहते हैं। 

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