एकलव्य - क्यों माँगा गुरु द्रोण ने अंगूठा? क्यों किया श्रीकृष्ण ने वध?

एकलव्य - क्यों माँगा गुरु द्रोण ने अंगूठा? क्यों किया श्रीकृष्ण ने वध?
एकलव्य महाभारत का एक गौण पात्र है। यदि मूल महाभारत की बात की जाये तो एकलव्य के बारे में बहुत अधिक नहीं लिखा गया है। आज जो भी जानकारियां हमें एकलव्य के विषय में मिलती हैं वो अधिकतर लोक कथाओं के रूप में ही है लेकिन उन कथाओं और मान्यताओं में बहुत अधिक दुष्प्रचार किया गया है। तो आइये एकलव्य के बारे में थोड़ा विस्तार से जानते हैं और इन मिथ्या जानकारियों को भी समझते हैं।

यदि एकलव्य के विषय में जानना हो तो केवल महाभारत में दी गयी जानकारी पर्याप्त नहीं है। कारण ये है कि महाभारत में एकलव्य का वर्णन केवल एक-आध स्थानों पर ही किया गया है। एकलव्य के बारे में थोड़ी अधिक जानकारी हमें हरिवंश पुराण और भागवत पुराण में मिलती है। यदि आप इनमें एकलव्य के चरित्र के बारे में पढ़ेंगे तो पता चलेगा कि वास्तव में क्यों गुरु द्रोण ने एकलव्य का अंगूठा मांग लिया और क्यों श्रीकृष्ण को उसका वध करना पड़ा।

पहले बात करते हैं उन चीजों के बारे में जो एकलव्य के बारे में आम जनमानस में प्रचलित है। संक्षेप में कथा ये है कि एकलव्य के पिता का नाम हिरण्यधनु था जो निषादों के सम्राट थे। एकलव्य धनुर्विद्या सीखना चाहता था इसीलिए वो गुरु द्रोण के पास विद्या अध्ययन के लिए गया किन्तु उन्होंने एकलव्य को शिक्षा देने से मना कर दिया। इससे एकलव्य निराश नहीं हुए और वे गुरु द्रोण की मूर्ति बना कर धनुर्विद्या का अभ्यास करने लगे और श्रेष्ठ धनुर्धर बन गए।

एक बार गुरु द्रोण अपने शिष्यों के साथ वन में भ्रमण कर रहे थे। उनके साथ उनका श्वान (कुत्ता) भी था। वही पास में एकलव्य अभ्यास कर रहा था जहाँ पर वो श्वान जाकर भौंकने लगा। इससे एकलव्य के अभ्यास में व्यवधान पड़ने लगा। उसे चुप करने के लिए एकलव्य ने उसके मुँह में सात बाण इस प्रकार मारे कि उसका मुख बंद हो गया किन्तु उस श्वान को कोई हानि नहीं हुई। जब पांडवों और कौरवों ने ऐसा हस्तलाघव देखा तो हैरान रह गए।

अर्जुन को गुरु द्रोण ने संसार का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनाने का वचन दिया था। अर्जुन ने गुरु द्रोण से कहा कि ये विद्या तो मैं भी नहीं जानता। तब द्रोण एकलव्य से मिले और उस विद्या का रहस्य पूछा। तब उसने गुरु द्रोण की प्रतिमा दिखाते हुए कहा कि उसने उन्हें ही अपना गुरु माना है। इस पर आचार्य द्रोण ने अर्जुन की श्रेष्ठता बनाये रखने के लिए गुरु दक्षिणा में उससे उसके दाएं हाथ का अंगूठा मांग लिया। एकलव्य ने बिना कुछ सोचे अपना अंगूठा काट कर गुरु द्रोण को अर्पित किया। इस प्रकार वह कभी उतना श्रेष्ठ धनुर्धर नहीं बन पाया जितना बन सकता था।

अब इतनी कथा हो हम सभी जानते हैं, लेकिन एकलव्य के विषय में कुछ ऐसी चीजें भी है जो बहुत ही कम लोग जानते हैं। महाभारत में एकलव्य की गुरुदक्षिणा का बहुत संक्षेप विवरण मिलता है किन्तु हरिवंश पुराण और भागवत पुराण में एकलव्य के बारे में थोड़ा विस्तार से लिखा गया है। उन विवरणों से हमें वास्तव में जानने को मिलता है कि आखिरकार द्रोणाचार्य ने एकलव्य का अंगूठा क्यों माँगा।

हरिवंश पुराण और ब्रह्मपुराण के अनुसार एकलव्य वास्तव में श्रीकृष्ण का ही चचेरा भाई था। ब्रह्मपुराण के अध्याय १४ के श्लोक २७ और हरिवंश पुराण के अध्याय ३४ के श्लोक ३३ में लिखा गया है कि एकलव्य का वास्तविक नाम शत्रुघ्न था और वो यदुवंशी देवश्रवा, जिनका एक नाम श्रुतदेव भी था, उनका पुत्र था। उसे अकल्याणकारी कार्यों और कंस का समर्थन करने के कारण देश से निकाल दिया गया था। बाद में निषादराज हिरण्यधनु ने उसे अपने दत्तक पुत्र के रूप में स्वीकार किया। अब चूँकि हिरण्यधनु जरासंध के सहयोगी था, एकलव्य ने भी जरासंध को ही अपना स्वामी माना। ऐसा ही कुछ वर्णन वायुपुराण में भी किया गया है।

उस काल में आर्यावर्त की धुरी केवल दो महाजनपदों के आस-पास घूमती थी। वे थे कुरु और मगध। कुरु महाजनपद जिसकी राजधानी हस्तिनापुर थी भीष्म के द्वारा सुरक्षित था। दूसरी ओर मगध नरेश जरासंध के पास आर्यावर्त की सबसे बड़ी और शक्तिशाली सेना थी। ऐसा लिखा गया है कि जहाँ महाभारत में दोनों ओर से कुल १८ अक्षौहिणी सेना लड़ी, वहीँ अकेले जरासंध के पास २३ अक्षौहिणी सेना थी। हालाँकि हस्तिनापुर और भीष्म इतने शक्तिशाली थे कि कभी जरासंध ने सीधे तौर पर उनपर आक्रमण नहीं किया। यही कार्य हस्तिनापुर ने भी किया।

इन दोनों के अतिरिक्त प्राग्ज्योतिषपुर का राजा नरकासुर भी विश्व-विजय का स्वप्न देखता था। नरकासुर से भी कोई और राजा टक्कर नहीं लेना चाहता था। कंस जरासंध का दामाद था और बाणासुर का मित्र। चूँकि बाणासुर नरकासुर का मित्र था इसीलिए एक तरह से नरकासुर और जरासंध सहयोगी थे। इन दोनों राजाओं ने पाप की पराकाष्ठा पार कर ली। जहाँ जरासंध १०० राजाओं की बलि देने के लिए उन्हें बंदी बना रहा था वहीँ नरकासुर ने सहस्त्रों स्त्रियों को बंदी बना रखा था। हालाँकि भीष्म और कुरु महाजनपद के कारण इनका प्रभुत्व कभी भी पूरे आर्यावर्त पर नहीं हो पाया किन्तु फिर भी ये दूसरे राजाओं पर अत्याचार करते रहे।

एकलव्य इसी जरासंध की सेना का एक नायक था। इस प्रकार वो पहले ही धर्म और हस्तिनापुर का विरोधी था। दूसरी और पांचाल और हस्तिनापुर के सम्बन्ध भी बहुत अच्छे नहीं थे और द्रुपद ने भी जरासंध से संधि कर ली। जब द्रोण द्रुपद द्वारा अपमानित हो हस्तिनापुर आये तो भीष्म ने उन्हें सम्मानपूर्वक कौरवों और पांडवों का गुरु बना दिया। कृपाचार्य उनसे पहले ही हस्तिनापुर के कुलगुरु के पद पर आसीन थे। द्रोण और कृप जैसे महान योद्धाओं का साथ पाकर हस्तिनापुर और अधिक शक्तिशाली बन गया।

ऐसा प्रचारित किया गया है कि जब एकलव्य गुरु द्रोण से शिक्षा प्राप्त करने गया तो उन्होंने उसके शूद्र वर्ण के कारण उसे शिक्षा देने से मना कर दिया। ये बात बिलकुल गलत है। ऐसा कोई भी वर्णन महाभारत या किसी अन्य पुराणों में नहीं मिलता। महाभारत में द्रोण एकलव्य से उसके वर्ण या कुल की बात ही नहीं करते। वे सिर्फ इतना कहते हैं कि ये गुरुकुल केवल हस्तिनापुर के राजकुमारों के लिए आरक्षित है इसीलिए वे उसे यहाँ शिक्षा नहीं दे सकते। बाद में कथित दलितों और सवर्णों के बीच की खाई को बढ़ाने के लिए इसे बहुत ही गलत प्रकार से प्रचारित किया गया।

द्रोणाचार्य के व्यक्तित्व के विषय में बताने की कोई आवश्यकता नहीं है। महाभारत के आदिपर्व के अध्याय १४२ के श्लोक ४० और ४१ में एकलव्य और द्रोणाचार्य की बात चीत का वर्णन है। यहाँ स्पष्ट लिखा है कि निषादराज हिरण्यधनु का पुत्र एकलव्य द्रोण के पास गया किन्तु धर्मज्ञ द्रोणाचार्य ने उसे निषादपुत्र समझकर धनुर्विद्या नहीं दी। महर्षि वेदव्यास ने द्रोणाचार्य को धर्मज्ञ ऐसे ही नहीं कह दिया है।

द्रोण कदाचित ये जानते थे कि एकलव्य एक राजपुत्र है और हिरण्यधनु ने केवल उसका पालन किया है। उसे उसके कृत्यों के कारण देश से निकाल दिया गया है ये भी वे जानते थे। इसीलिए उसे योग्य ना मान कर उन्होंने उसे शिक्षा नहीं दी। वो गुरुकुल राजकुमारों के लिए था इसीलिए वहां एकलव्य को शिक्षा नहीं दी जा सकती थी। इसके अतिरिक्त वे ये भी जानते थे कि एकलव्य और हिरण्यधनु जरासंध के सेवक हैं और जरासंध हस्तिनापुर का घोर शत्रु। फिर किस प्रकार वे उसे शिक्षा दे सकते थे?

किसी विद्या को प्राप्त करने के लिए केवल युद्धकुशल होना पर्याप्त नहीं है। व्यक्ति का धर्मपरायण होना भी आवश्यक है। जैसे जैसे अस्त्रों का स्तर बढ़ता है, उसे प्राप्त करने के लिए योग्यता के साथ साथ धर्म में आस्था होना भी आवश्यक हो जाता है। एकलव्य निःसंदेह वीर और योग्य था लेकिन वो अधर्म का सहयोगी था। धर्मयुद्ध महाभारत में अधर्म का साथ देने के कारण तो भीष्म और द्रोण जैसे धर्मनिष्ठ व्यक्ति भी मृत्यु को प्राप्त हुए फिर एकलव्य अपवाद कैसे हो सकता है?

कई लोग मानते हैं कि द्रोणाचार्य ने एकलव्य के साथ अन्याय किया पर ऐसा नहीं है। द्रोणाचार्य ने अपने शिष्यों को उनकी योग्यता अनुसार ही शिक्षा दी। यही कारण है कि उन्होंने ब्रह्मास्त्र का पूर्ण ज्ञान केवल अर्जुन को दिया। अपने पुत्र अश्वथामा को भी उन्होंने ब्रह्मास्त्र का पूरा ज्ञान नहीं दिया। कर्ण को भी उन्होंने ब्रह्मास्त्र का ज्ञान देने से मना कर दिया जिसके बाद वो उनका आश्रम छोड़ कर परशुराम जी से ब्रह्मास्त्र प्राप्त करने चला गया। इसीलिए ऐसा नहीं है कि उन्होंने केवल एकलव्य को ही मना किया। स्वयं उनका पुत्र भी उनसे वो प्राप्त नहीं कर पाया जिसके योग्य वो नहीं था।

कुछ लोग कहते हैं कि एकलव्य शूद्र था और इसी कारण उपेक्षित रहा जो कि बिलकुल गलत है। महाभारत में एकलव्य की प्रशंसा स्वयं श्रीकृष्ण करते हैं। युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ के पहले श्रीकृष्ण उनसे कहते हैं कि यदि आप पृथ्वी पर सम्राट बनना चाहते हैं तो दुर्योधन, भीष्म, द्रोणाचार्य, अश्वत्थामा, कृपाचार्य, कर्ण, शिशुपाल, रुक्मी, एकलव्य, द्रुम, श्वेत, शैब्य, शकुनि आदि को बिना जीते ही राजसूय यज्ञ कैसे कर सकते हैं ? भीष्म, द्रोण, कृप आदि आपके प्रति स्नेह और सम्मान का भाव रखने से आपसे युद्ध नहीं करेंगे किन्तु आपसे ईर्ष्या करने वाला कर्ण तो अपने दिव्यास्त्र के बल पर अभिमान करने के कारण आपसे युद्ध करेगा ही। यदि वह भी युद्ध न करे तो भी जरासन्ध के जीवित रहते आप यह राजसूय यज्ञ नहीं कर सकते।

ऐसा ही एक वर्णन युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में आता है जब शिशुपाल श्रीकृष्ण का अपमान करते हुए एकलव्य के बारे में बात करता है। जब श्रीकृष्ण की अग्रपूजा होती है तो शिशुपाल वहां उपस्थित गणमान्य लोगों के नाम गिनाता है जिसमें एकलव्य का नाम भी आता है। शिशुपाल कहता है - "अत्यंत पराक्रमी भीष्मक, राजा दन्तवक्त्र, कामरूप के स्वामी भगदत्त, यूपकेतु, मगध के वीर जयत्सेन, विराट एवं द्रुपद ये दोनों, गान्धारनरेश शकुनि, बृहद्बल, अवन्ती के विन्द एवं अनुविन्द, पाण्ड्य के राजा, उत्तम आचरण वाले श्वेत, महाभाग शङ्ख, स्वाभिमानी वृषसेन, पराक्रमी एकलव्य, महारथी कलिंगनरेश, इन सभी महाबलशालियों को छोड़कर तुम केशव की प्रशंसा क्यों करते हो ?"

ध्यान दें कि यहाँ श्रीकृष्ण और शिशुपाल ने किन महान योद्धाओं के साथ एकलव्य का नाम जोड़ा है। यदि वो केवल अपने वर्ण द्वारा वंचित होता तो क्या श्रीकृष्ण और शिशुपाल उसके बारे में ऐसा कहते? इसीलिए सिर्फ ये कहना कि एकलव्य अपने वर्ण के कारण वंचित था बहुत ही हास्यप्रद है।

पहली बात तो ये कि हरिवंश पुराण के अनुसार एकलव्य यदुवंशी राजपुत्र थे, निषाद नहीं। वर्णित है कि महाराज शूरसेन के ५ पुत्र और ५ पुत्रियां थी। सबसे ज्येष्ठ पुत्र थे श्रीकृष्ण के पिता वसुदेव। दूसरे पुत्र का नाम था देवभाग जिनके पुत्र थे उद्धव। शूरसेन के तीसरे पुत्र देवश्रवा थे जिनके पुत्र थे शत्रुघ्न जिन्हे इनके कार्यों के कारण त्याग दिया गया था। कही कही उसका नाम अभिद्युम्न भी बताया गया है। अपने लक्ष्य की ओर एकनिष्ठ होने कारण ही इनका नाम एकलव्य पड़ा। गुरु द्रोण शत्रुघ्न के जन्म का रहस्य और उसके पूर्व में किये क्रूर कर्मों के विषय में जानते थे इसिलिए उन्होंने उसे शिक्षा नहीं दी।

दूसरी बात ये कि निषाद कोई वंचित समुदय नहीं था। महाराज शांतनु की पत्नी सत्यवती स्वयं वक निषाद कन्या थी। एकलव्य के पालक पिता हिरण्यधनु निषादों के राजा थे जिनका शासन श्रृंगवेरपुर में था। ये एक शक्तिशाली राज्य था और एकलव्य उसके राजकुमार, तो वो वंचित तो बिलकुल नहीं थे। हिरण्यधनु की पत्नी का नाम सुलेखा था जो एकलव्य की माता थी। जब द्रोण ने एकलव्य का अंगूठा मांग लिया तब वे वापस अपने राज्य लौट आये। अपने पिता हिरण्यधनु की मृत्यु के बाद वे राजा बने और सुनीता नामक स्त्री से उनका विवाह हुआ।

पुराणों के विवरण द्रोणाचार्य द्वारा एकलव्य के अंगूठे को मांगने के कारण को और स्पष्ट कर देते हैं। द्रोणाचार्य जो कुछ भी अपने शिष्यों को बताते थे वो उसे चोरी से सुनता था और फिर वन में जाकर उसका अभ्यास करता था। निःसंदेह वो मेधावी था किन्तु जिस प्रकार से उसने धनुर्विद्या सीखी वो गलत था। द्रोणाचार्य ने सीधे एकलव्य से अंगूठा नहीं माँगा था। उसका एक विशेष कारण था।

कई पुराणों द्रोणाचार्य और एकलव्य का संवाद है जिसमें द्रोणाचार्य उससे उसका परिचय पूछते हैं। तब एकलव्य उन्हें बताता है कि वो जरासंध के सेनापति हिरण्यधनु का पुत्र है। तब द्रोण उससे पूछते हैं कि वो किस प्रकार इस विद्या का उपयोग करेगा? इसपर एकलव्य उन्हें बताते हैं कि वो वापस जाकर जरासंध की सेना का नेतृत्व करेगा। इसपर द्रोणाचार्य उससे कहते हैं कि क्या ये जान कर भी कि जरासंध एक नरपिशाच है, वो उसी की सेवा में जाएगा? इस पर एकलव्य कहते हैं कि हाँ, वो उसी की सेवा में जाएगा। इस वार्तालाप के बाद द्रोण समझ गए कि वो भविष्य में समाज के लिए एक संकट बन सकता है इसी कारण तब उन्होंने एकलव्य से उसका अंगूठा माँगा।

महाभारत के आदिपर्व में ये वर्णित है कि एकलव्य ने अद्भुत गुरु भक्ति दिखाते हुए उन्हें अपना अंगूठा दे दिया। तब उसकी गुरुदक्षिणा से प्रसन्न होकर द्रोण ने उसे इशारे से बताया कि कैसे तर्जनी और मध्यमा अंगुली का प्रयोग कर प्रत्यंचा खींची जा सकती है। तब एकलव्य ने उसी विद्या का अभ्यास किया और बिना अंगूठे के बाण चलाने में महारत हासिल कर ली। आज आधुनिक युग में बाण के संधान के लिए कोई भी अंगूठे का प्रयोग नहीं करता बल्कि तर्जनी और मध्यमा अंगुली का ही प्रयोग किया जाता है। इस प्रकार हम मान सकते हैं कि आधुनिक तीरदांजी के जनक भी द्रोण ही थे और एकलव्य ऐसे पहले योद्धा से जिन्होंने इसका प्रयोग किया।

श्रीकृष्ण द्वारा कंस के वध के बाद जरासंध ने १७ बार मथुरा पर आक्रमण किया और उनमें एकलव्य ने भी उसका साथ दिया। १७ बार जरासंध को पराजय का मुख देखना पड़ा और तब १८वीं बार में उसने कालयवन के एक करोड़ योद्धाओं की सेना के साथ पुनः मथुरा पर आक्रमण किया। तब उस अनावश्यक युद्ध से बचने के लिए श्रीकृष्ण अपने बंधु-बांधवों सहित मथुरा छोड़ कर द्वारिका चले गए। मार्ग में उन्होंने प्रवर्षण पर्वत पर शरण ली तो जरासंध ने उस पूरे पर्वत में आग लगवा दी। उस पर्वत में आग लगाने वालों में एकलव्य भी था।

हरिवंश पुराण के भविष्य पर्व के अध्याय १८ में वर्णित है कि बाद में जब पौंड्रक ने द्वारिका पर आक्रमण किया तो एकलव्य ने उस अधर्मी का ही साथ दिया। उस युद्ध में पौंड्रक को सात्यिकी ने परास्त कर दिया। बाद में श्रीकृष्ण ने युद्ध उसका वध कर दिया। उसी युद्ध में एकलव्य ने बलराम से युद्ध किया और उनसे बुरी तरह पराजित हुआ। उस युद्ध में एकलव्य ने बलराम जी पर एक दिव्य शक्ति से प्रहार किया जिसे उन्होंने बीच में ही पकड़ कर एकलव्य पर ही चला दिया। इससे एकलव्य बुरी तरह घायल हुआ और युद्धक्षेत्र में उसे मूर्छित देख कर बलराम ने उसके प्राण नहीं लिए। तब एकलव्य युद्ध से भाग कर समुद्र में कूद गया और पांच योजन दूर एक द्वीप पर शरण ली।

राजसूय यज्ञ से पहले पूर्व दिशा की ओर दिग्विजय के दौरान भीम ने निषादों को परास्त किया और उनपर अधिकार प्राप्त कर लिया। हालाँकि यहाँ पर एकलव्य का नाम नहीं लिखा बल्कि उसे निषादराज कह कर सम्बोधित किया गया है। बाद में चारों भाइयों के दिग्विजय के पश्चात जब युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ किया तो अन्य राजाओं की भांति एकलव्य भी उस यज्ञ में आया। उस समय शिशुपाल ने वहां उपस्थित मुख्य लोगों में एकलव्य का नाम भी गिनवाया था।

महाभारत के उद्योग पर्व में लिखा गया है कि युधिष्ठिर ने युद्ध के लिए एकलव्य को भी निमंत्रण भेजा था किन्तु युद्ध से पहले ही उसका वध श्रीकृष्ण द्वारा हो गया। एकलव्य के वध की सूचना संजय हस्तिनापुर की सभा में देते हैं। संजय कहते हैं - "पांडवों के संरक्षक श्रीकृष्ण हैं। ये भगवान श्रीकृष्ण उस निषादराज एकलव्य को सदा युद्ध के लिए ललकारा करते थे, जो दूसरों के लिए अजेय था। वह एकलव्य कृष्ण के हाथों प्राणशून्य होकर रणशय्या पर उसी प्रकार सो रहा है, जिस प्रकार जम्भ नामक दैत्य स्वयं ही वेगपूर्वक पर्वत पर आघात करके महानिद्रा में डूब गया था।"

उस युद्ध के बारे में हरिवंश पुराण में लिखा गया है कि एकलव्य को केवल दो अँगुलियों से इतनी निपुणता से बाण चलाते देख कर श्रीकृष्ण आश्चर्यचकित रह गए। वे समझ गए कि एकलव्य भी धर्म की स्थापना में रोड़ा बन सकता है इसीलिए उन्होंने उसके वध का निश्चय किया। उस युद्ध में एकलव्य ने कई यादव वीरों को परास्त किया और फिर उसने श्रीकृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न पर आक्रमण किया। तब श्रीकृष्ण ने उसे ललकारा और एक भारी शिला से उसका वध कर दिया।

जब श्रीकृष्ण ने कर्ण की शक्ति घटोत्कच पर चलवा कर उसे व्यर्थ कर दिया तब उसकी मृत्यु पर सभी दुखी थे किन्तु श्रीकृष्ण प्रसन्न। इस पर अर्जुन ने उनसे इसका कारण पूछा तब श्रीकृष्ण द्रोण पर्व के १८०वें अध्याय के श्लोक ३२ और फिर अध्याय १८१ के श्लोक २, ५, १७, १८, १९, २० और २१ में एकलव्य के पराक्रम का वर्णन करते हैं।

महाभारत के द्रोण पर्व के १८० वें अध्याय के श्लोक ३२ में श्रीकृष्ण कहते हैं - "मगधराज जरासंध, महामनस्वी चेदिराज शिशुपाल और निषादजातीय महाबाहु एकलव्य - इन सब को मैंने ही तुम्हारे हित के लिए विभिन्न उपायों द्वारा एक-एक करके मार डाला है।"

महाभारत के द्रोण पर्व के १८१ वें अध्याय के श्लोक २ में श्रीकृष्ण कहते हैं - "अर्जुन! जरासंध, शिशुपाल और महाबली एकलव्य यदि ये पहले ही मारे ना गए होते तो इस समय बड़े भयंकर सिद्ध होते।"

इसी अध्याय के श्लोक ५ में श्रीकृष्ण कहते हैं - "सूतपुत्र कर्ण, जरासंध, चेदिराज शिशुपाल एवं निषादनंदन एकलव्य - ये चारो मिल कर यदि दुर्योधन का पक्ष लेते तो पृथ्वी को अवश्य जीत लेते।"

इसी अध्याय के श्लोक १७ में श्रीकृष्ण पुनः कहते हैं - "तुम्हारे हित के लिए ही द्रोणाचार्य ने सत्यपराक्रमी एकलव्य का आचार्यत्व करके छलपूर्वक उसका अंगूठा कटवा लिया।"

अगले श्लोक १८ में श्रीकृष्ण कहते हैं - "सुदृढ़ पराक्रमसे सम्पन्न अत्यन्त अभिमानी एकलव्य जब हाथोंमें दस्ताने पहनकर वनमें विचरता, उस समय दूसरे परशुराम के समान जान पड़ता था।"

आगे १९वें श्लोक में श्रीकृष्ण कहते हैं - "कुंतीकुमार! यदि एकलव्य का अंगूठा सुरक्षित होता तो देवता, दानव, राक्षस, और नाग - ये सब मिलकर भी युद्ध में उसे कभी परास्त नहीं कर सकते थे।"

२०वें श्लोक में श्रीकृष्ण कहते हैं - "फिर कोई मनुष्यमात्र तो उसकी ओर देख ही कैसे सकता था? उसकी मुट्ठी मजबूत थी। वह अस्त्र-विद्याका विद्वान् था और सदा दिन-रात बाण चलानेका अभ्यास करता था।"

२१वें श्लोक में वे कहते हैं - "तुम्हारे हितके लिये मैंने ही युद्धके मुहानेपर उसे मार डाला था। पराक्रमी चेदिराज शिशुपाल तो तुम्हारी आँखोंके सामने ही मारा गया था।"

एकलव्य का एक पुत्र था जिसका नाम केतुमान था। एकलव्य के युद्ध में वीरगति को प्राप्त होने के बाद उसका पुत्र केतुमान सिंहासन पर बैठा और उसने युद्ध में कौरवों का साथ देने का निश्चय किया। महाभारत के युद्ध में वह भीम के हाथ से मारा गया।

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