जब हनुमान जी ने बलराम जी, गरुड़, सुदर्शन एवं देवी सत्यभामा का अभिमान भंग किया

जब हनुमान जी ने बलराम जी, गरुड़, सुदर्शन एवं देवी सत्यभामा का अभिमान भंग किया
महाबली हनुमान अष्टचिरंजीवियों में से एक हैं। उन्हें कल्प के अंत तक जीवित रहने का वरदान प्राप्त है। यही कारण है कि रामायण के साथ साथ हनुमान जी का वर्णन महाभारत में भी आता है। महाभारत में उनके द्वारा भीम के अभिमान को भंग करने और अर्जुन के रथ की रक्षा करने के विषय में तो हम सभी जानते ही हैं किन्तु हरिवंश पुराण में एक वर्णन ऐसा भी आता है जब श्रीकृष्ण ने बजरंगबली के द्वारा बलराम जी, सुदर्शन चक्र, गरुड़ एवं देवी सत्यभामा का अभिमान भंग करवाया था।

श्रीकृष्ण कभी ऐसा नहीं चाहते कि उनका कोई भी प्रिय अहंकार के वश में आये। इसी कारण वे समय समय पर अपने प्रियजनों का अहंकार भंग करते ही रहते थे। किन्तु एक बार स्वयं उनकी माया से महाबली बलराम, सुदर्शन चक्र, गरुड़ एवं उनकी पत्नी सत्यभामा अहंकार के वश में आ गए। वैसे मैं ये बताना आवश्यक समझता हूँ कि इस कथा में मूल रूप से सुदर्शन, गरुड़ एवं सत्यभामा जी का ही वर्णन है। बलराम जी का प्रसंग मूल रूप से इसमें नहीं है क्यूंकि वे स्वयं श्रीहरि के अवतार हैं। कदाचित जब उन्हें शेषावतार के रूप में प्रचारित किया जाने लगा, तभी उनका प्रसंग भी इसमें जोड़ दिया गया होगा।

तो कथा ऐसी है कि श्रीकृष्ण के माया के प्रभाव से बलराम जी, सुदर्शन, गरुड़ एवं माता सत्यभामा एक ही समय अहंकार के प्रभाव में आ गए। द्वैत नामक एक महाशक्तिशाली वानर था जो स्वयं को हनुमान जी से भी अधिक शक्तिशाली बताता था। वो राजा पौंड्रक का सेवक था जो स्वयं को कृष्ण ही बताता था। तो वे दोनों वास्तव में श्रीकृष्ण और हनुमान जी की प्रसिद्धि का श्रेय स्वयं लेना चाहते थे। उसी महापराक्रमी द्वैत वानर का बलराम जी ने अपने केवल एक ही मुष्टि प्रहार से वध कर दिया था। तब उनके मन में अपने बल के प्रति तनिक अहंकार का भाव आ गया।

सुदर्शन ने एक बार देवराज इंद्र के वज्र को निष्क्रिय कर दिया था जिससे उसे भी अपने बल का अभिमान हो गया। गरुड़ प्रभु के वाहन थे। उनकी गति अतुलनीय थी और उन्हें अपने वेग का ही अभिमान था। अपनी पत्नी सत्यभामा के लिए श्रीकृष्ण ने स्वर्ग पर चढ़ाई कर देवताओं से युद्ध किया और पारिजात को प्राप्त किया। इससे सत्यभामा जी को ये अभिमान हो गया कि वे ही श्रीकृष्ण की सबसे प्रिय पत्नी हैं।

श्रीकृष्ण तो मायापति हैं, उन्हें इनके अभिमान के विषय में पता चल गया। ये सभी उन्हें अत्यंत प्रिय थे अतः उन्हें अभिमान के वश से निकालना आवश्यक था। तब बहुत सोच विचार कर श्रीकृष्ण ने निर्णय लिया कि एक पवनपुत्र हनुमान ही हैं जो अकेले इन सभी का गर्व तोड़ सकते हैं। यह सोच कर उन्होंने गरुड़ को आज्ञा दी कि वे महाबली हनुमान को सूचित करें कि वे उनसे मिलना चाहते हैं और उन्हें लेकर द्वारिका आ जाएँ।

उस समय हनुमान जी गंधमादन पर्वत पर एकांतवास कर रहे थे जो द्वारिका से लगभग ढाई सौ योजन दूर था। श्रीकृष्ण की आज्ञा पाकर गरुड़ तीव्र गति से तत्काल गंधमादन की ओर उड़े और शीघ्र ही वहां पहुँच गए। वहां वे हनुमान जी से मिले और उन्हें श्रीकृष्ण का सन्देश दिया। हनुमान जानते थे कि कृष्ण और राम एक ही हैं, उन्होंने गरुड़ से कहा कि "पक्षीराज! ये मेरा सौभाग्य है कि प्रभु ने मुझे समरण किया है। आप चलिए, मैं शीघ्र ही आता हूँ।"

इसपर गरुड़ ने कहा कि "हे महाबली! द्वारिका यहाँ से बहुत दूर है अतः आप मुझपर बैठ जाएँ, मैं आपको अतिशीघ्र द्वारिका पंहुचा दूंगा।" इस पर हनुमान जी ने कहा - "हे पक्षीराज! आप मेरी चिंता ना करें, आप चलिए, मैं आपसे पहले ही द्वारिका पहुँच जाऊंगा।" हनुमान जी को ऐसा बोलते देख कर गरुड़ के अभिमान को ठेस लगी। उन्होंने कहा कि इस संसार में सबसे अधिक गति मेरी ही है पर फिर भी द्वारिका से यहाँ पहुँचने में मुझे बहुत समय लगा, फिर किस प्रकार हनुमान मुझसे पहले द्वारिका पहुंचेंगे? वे तीव्र गति से द्वारिका की और बढे ताकि वहां पहुंचकर हनुमान की गति को मात दे सकें।

गरुड़ की गति वास्तव में अद्वितीय थी किन्तु पवनपुत्र तो फिर पवनपुत्र थे। वे उनसे पहले द्वारिका पहुँच गए। उन्होंने सोचा कि श्रीकृष्ण के दर्शनों से पहले थोड़ा भोजन कर लूँ। यही सोच कर वे राजकीय उद्यान में गए और वृक्षों को उखाड़ कर फल खाने लगे। उन्हें रोकने के लिए नारायणी सेना के एक से बढ़कर एक वीर आये किन्तु हनुमान जी की शक्ति के समक्ष वे कितनी देर टिकते? तब उस उपद्रव के विषय में सुनकर स्वयं महाबली बलराम उन्हें रोकने उद्यान पहुंचे।

स्वयं बलभद्र को आया देख कर हनुमान सावधान हो गए। वे जानते थे कि श्रीकृष्ण उनके माध्यम से ही बलराम जी का अभिमान भंग करवाना चाहते हैं इसीलिए उनके कई बार रोकने पर भी वे नहीं रुके। इससे बलराम क्रोधित हो गए और दोनों के बीच तुमुल युद्ध छिड़ गया। दोनों ऐसे योद्धा थे जिनके बल की कोई सीमा नहीं थी। उस युद्ध में बलराम ये देख कर आश्चर्यचकित रह गए कि उनके भीषण से भीषण प्रहारों को भी वो वानर सहज रूप से रोक रहा था। यह देख कर उन्होंने अपनी पूरी शक्ति से हनुमान जी पर मुष्टि प्रहार किया। ये प्रहार उस प्रहार से कई सैकड़ों गुणा अधिक शक्तिशाली था जो उन्होंने द्वैत वानर पर किया था, किन्तु आश्चर्य, वो वानर उसी प्रकार अविचल खड़ा रहा।

अपने इतने भीषण प्रहार को व्यर्थ जाते देख कर बलराम का अभिमान चूर हो गया। उन्हें समझते देर ना लगी कि जो उनके भी वार को इतनी सहजता से झेल ले वो पवनपुत्र हनुमान के अतिरिक्त और कोई हो ही नहीं सकता। उन्होंने हनुमान जी को पहचान लिया और उन्हें प्रणाम किया। तब हनुमान जी ने भी उनसे अकारण युद्ध के लिए क्षमा मांगी और श्रीकृष्ण से मिलने भवन की ओर बढे।

उधर श्रीकृष्ण ने सुदर्शन को द्वार की रक्षा के लिए खड़ा कर दिया और कहा कि किसी को अंदर प्रवेश ना करने दें। जब हनुमान जी द्वार पर पहुंचे तो सुदर्शन ने उन्हें रोक लिया। पवनपुत्र ने उनसे आग्रह किया कि वे श्रीकृष्ण को उनके आगमन की सूचना दें किन्तु अपने बल के अभिमान में सुदर्शन ने ऐसा करने से भी मना कर दिया और उनसे युद्ध को उद्धत हो गया। तब और कोई उपाय ना देख कर हनुमान जी ने बात ही बात में सुदर्शन को अपने मुख में रख लिया और भवन के अंदर प्रवेश किया। इससे सुदर्शन का अभिमान भी चूर-चूर हो गया।

उधर श्रीकृष्ण ने देवी सत्यभामा से कहा कि हनुमान बड़े क्रोध में इधर ही आ रहे हैं। इस समय उन्हें केवल प्रभु श्रीराम और माता सीता के दर्शन ही शांत कर सकते हैं। मैं राम का वेश धरता हूँ और तुम सीता के वेश में मेरे निकट बैठो। ये सुनकर सत्यभामा अत्यंत प्रसन्न हुई। उनका रूप तो अद्वितीय था ही, वे माता सीता का वेश धर कर भगवान राम बनें श्रीकृष्ण एक निकट बैठ गयी और हनुमान के आने की प्रतीक्षा करने लगी।

जब हनुमान जी ने भवन में प्रवेश किया तो श्रीराम रुपी श्रीकृष्ण को सामने देखा। अपने प्रभु के दर्शन होते ही हनुमान जी भावुक हो गए। उनके नेत्रों से अश्रु बहने लगे। वे आकर प्रभु के चरणों में लोट गए और राम नाम का जाप करने लगे। तब श्रीकृष्ण ने हनुमान जी को उठाया और अपने ह्रदय से लगा लिया। प्रभु और भक्त के संगम का विहंगम दृश्य वहां प्रस्तुत हो गया।

उधर माता सीता बनी सत्यभामा इसकी प्रतीक्षा कर रही थी कि अब हनुमान उनका भी आशीर्वाद लेंगे, किन्तु उनकी ओर देखते ही हनुमानजी ने कहा - "हे प्रभु! आज आपने किस दासी को अपने वामभाग में बिठा रखा है? माता सीता कहाँ हैं?" ये सुनकर श्रीकृष्ण ने तत्काल माता रुक्मिणी को वहां आने को कहा। माता रुक्मिणी के दर्शन होते ही हनुमान जी उन्हें माता सीता ही समझ कर उन्हें प्रणाम किया। ये देख कर देवी सत्यभामा का अभिमान जल की भांति बह गया।

जब प्रभु की लीला समाप्त हुई तब गरुड़ ने हनुमान का सन्देश लेकर भवन में प्रवेश किया किन्तु जब उन्हें ये पता चला कि ना केवल पवनपुत्र उनसे पहले यहाँ पहुंचे हैं, बल्कि उन्होंने इतनी लीलाएं भी समाप्त कर ली हैं, गरुड़ का अपने वेग के प्रति अभिमान तक्षण समाप्त हो गया। इस प्रकार श्रीकृष्ण ने बजरंगबली के माध्यम से एक ही बार में अपने सभी प्रियजनों के अभिमान को भंग कर दिया।

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