अष्ट चिरंजीवी - वे आठ महापुरुष जो अमर हैं

भारत में जब बड़े आशीर्वाद देते हैं तो सबसे आम आशीर्वाद होता है "चिरंजीवी भवः"। चिरंजीवी का अर्थ होता है चिरकाल तक जीवित रहना। इसे आम भाषा में अमर होना कहते हैं। वैसे तो लोग समझते हैं कि अमर का अर्थ होता है जो कभी ना मरे, किन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है। खैर अमर होने का वास्तविक अर्थ हम किसी और लेख में समझेंगे। आज इस लेख में हम चर्चा करेंगे उन ८ व्यक्तियों की जो अमर माने जाते हैं।

पुराणों में वर्णित अमर व्यक्तियों के विषय में कुछ लोगों में मतभेद है। कई लोग मानते हैं कि वे सात हैं जिन्हे सप्त चिरंजीवी कहा जाता है तो कुछ लोगो इन्हे आठ मानते हैं जिन्हे अष्ट चिरंजीवी कहा जाता है। सप्त चिरंजीवियों के विषय में एक श्लोक आता है -

अश्वत्थामा बलिर्व्यासो हनुमांश्च विभीषणः।
कृपः परशुरामश्चैव सप्तैते चिरंजीविनः॥

अर्थात: अश्वत्थामा, बलि, व्यास, हनुमान, विभीषण, कृपाचार्य एवं परशुराम सप्त चिरंजीवी हैं।

इसी श्लोक के आधार पर सप्त चिरंजीवियों का निर्धारण किया जाता है किन्तु वास्तव में ये श्लोक अधूरा है। इसके बाद का श्लोक इसे पूरा करता है। ये है -

सप्तैतान् स्मरेन्नित्यम् मार्कंडेयम् तथाष्टमम्।
जीवेद्‌वर्षशतं सोऽपि सर्वव्याधिविवर्जितः॥

अर्थात: इन सातों के नित्य स्मरण के साथ आठवें मार्कण्डेय का भी स्मरण करने से भक्त निरोगी और दीर्घायु बनता है।

इस श्लोक में जो महर्षि मार्कण्डेय को जोड़ा गया है उसी कारण इन चिरंजीवियों की संख्या आठ हो जाती है। इन दोनों श्लोकों को मिला दें तो ये इस प्रकार हो जाता है -

अश्वत्थामा बलिर्व्यासो हनुमांश्च विभीषणः।
कृपः परशुरामश्चैव सप्तैते चिरंजीविनः॥
सप्तैतान् स्मरेन्नित्यम् मार्कंडेयम् तथाष्टमम्।
जीवेद्‌वर्षशतं सोऽपि सर्वव्याधिविवर्जितः॥

जैसा कि मैंने पहले बताया, अमर होने का अर्थ ये नहीं कि वो कभी मरेगा ही नहीं। इन आठ व्यक्तियों में से अश्वत्थामा, व्यास एवं कृपाचार्य युगांतजीवी हैं, अर्थात वे वर्तमान चतुर्युग के कलियुग के अंत तक जीवित रहेंगे। अन्य पांच अर्थात बलि, हनुमान, विभीषण, परशुराम एवं मार्कण्डेय कल्पान्तजीवी हैं, अर्थात उनकी आयु इनसे भी अधिक हैं और वे कल्प के अंत तक जीवित रहेंगे।

यहाँ ये भी ध्यान रखना आवश्यक है कि सप्त या अष्ट चिरंजीवी दीर्घायु व्यक्तियों का एक समूह है जिसका विशेष महत्त्व है। अन्यथा संसार में और भी कई व्यक्ति हुए हैं जिनकी आयु इनसे भी अधिक मानी गयी है। जैसे कि महर्षि लोमश, काकभुशुण्डि, सप्तर्षि, मानसपुत्र इत्यादि। 

अमरता के विषय में हम कभी और विस्तार से बात करेंगे। युग और कल्प की काल गणना के विषय में आप इस लेख में विस्तार से पढ़ सकते हैं। तो आइये इन अष्टचिरंजीवियों के विषय में संक्षेप में जानते हैं।

अश्वत्थामा
अश्वत्थामा:
इन्हे रूद्र का अंशावतार माना जाता है। ये महर्षि भरद्वाज के पौत्र और गुरु द्रोण के पुत्र थे। इनकी माता का नाम कृपी था जो कृपाचार्य की बहन थी। कहा जाता है कि ये अपने मस्तक पर एक दिव्य मणि के साथ ही जन्में थे। वो मणि इन्हे सदैव निरोगी और शक्तिशाली बनाये रखती थी। महाभारत में इनकी वीरता के विषय में बहुत विस्तार पूर्वक लिखा गया है। श्रीकृष्ण के अतिरिक्त ये एकमात्र ऐसे योद्धा थे जिनके पास नारायणास्त्र था। इन्हे कहीं अतिरथी तो कहीं महारथी कहा गया है। इन्हे अमरता का वरदान इनके पिता द्रोण ने दिया था। महाभारत के अंत में जब अश्वत्थामा और अर्जुन का युद्ध हुआ तो दोनों ने ब्रह्मास्त्र चला दिया। महर्षि व्यास और देवर्षि के कहने पर अर्जुन ने तो अपना ब्रह्मास्त्र वापस ले लिया किन्तु अश्वत्थामा को ये विद्या नहीं आती थी। उसने उस ब्रह्मास्त्र को उत्तरा के गर्भ पर चला दिया जिससे उसका पुत्र परीक्षित मृत पैदा हुआ। बाद में श्रीकृष्ण ने उसे जीवित किया। अश्वत्थामा के इस कृत्य पर श्रीकृष्ण बड़े क्रोधित हुए। वे उसे मार तो नहीं सकते थे किन्तु उन्होंने उसकी मणि उससे छीन ली और उसे युगांत तक भटकने का श्राप दे दिया। कहीं-कहीं ऐसा लिखा है कि उन्हें ३००० वर्षों तक भटकने का श्राप मिला था।

बलि
बलि:
ये दैत्यराज प्रह्लाद के पोते और विरोचन के पुत्र थे। अपने दादा और पिता की भांति ये भी महान विष्णु भक्त थे। इन्होने अपने प्रताप से देवताओं को स्वर्ग से च्युत कर दिया था और फिर वे स्वर्ग पर सदा के लिए अधिकार प्राप्त करने के लिए अपने गुरु शुक्राचार्य की आज्ञा से एक महान यज्ञ करने लगे। जब उस यज्ञ में अंतिम हविष्य पड़ने ही वाला था कि श्रीहरि ने वामन अवतार लेकर इनसे तीन पग भूमि का दान माँगा। ये महादानी थे इसीलिए अपने गुरु शुक्राचार्य के मना करने पर भी इन्होने उन्हें तीन पग भूमि देने की प्रतिज्ञा कर ली। बाद में वामनदेव ने विराट स्वरुप लेकर एक पग से पृथ्वी और दूसरे पग से आकाश को नाप लिया। तब महादानी दैत्यराज बलि ने उन्हें अपना तीसरा पग अपने शीश पर रखने को कहा। उनकी दानवीरता देख कर भगवान वामन अत्यंत प्रसन्न हुए और उन्होंने तीसरा पग उनके शीश पर रख कर उन्हें पाताल तक धकेल दिया। साथ ही उन्होंने बलि को अनंतकाल तक पाताल का राज्य प्रदान किया। ऐसी मान्यता है कि वर्ष में एक दिन महाबली पृथ्वी पर आते हैं और उसी उपलक्ष्य पर केरल में ओणम का पर्व मनाया जाता है।

व्यास
व्यास:
ये महर्षि पराशर और सत्यवती की संतान थे। इन्हे भगवान विष्णु के २४ अवतारों में से एक माना जाता है। साथ ही महाभारत में इन्हे भगवान ब्रह्मा का भी अवतार कहा गया है। इनकी गिनती हिन्दू धर्म के सर्वकालिक महान ऋषियों में की जाती है। इन्होने ने ही १८ महापुराण और पंचम वेद कहे जाने वाले महाभारत की रचना की। कहते हैं कि महाभारत जैसी उत्कृष्ट रचना देख कर ब्रह्मदेव ने उन्हें अमरता का वरदान दिया था। इन्होने ने ही कुरुवंश की रक्षा की थी और यही धृतराष्ट्र, पाण्डु एवं विदुर के जनक थे। यही नहीं, गांधारी ने भी अपने १०० कौरव इन्ही की कृपा से प्राप्त किये थे। इन्होने ही ब्रह्मा द्वारा रचित वेदों का वर्गीकरण किया और इसी कारण इन्हे वेदव्यास के नाम से जाना गया। 

हनुमान
हनुमान:
पवनदेव के औरस पुत्र हनुमान भी रुद्रावतार हैं। श्रीराम अवतार को सार्थक बनाने के लिए इन्होने २४वें कल्प के त्रेता में जन्म लिया था। ये श्रीराम के अनन्य भक्त थे। महर्षि वाल्मीकि कृत रामायण इनकी लीलाओं से भरा पड़ा है। पृथ्वी पर इन्होने वानर राज केसरी और अंजना के पुत्र के रूप में जन्म लिया। बलशाली तो ये ऐसे थे कि बचपन में सूर्यदेव को निगलने का प्रयास कर बैठे। उस समय उन्हें बचाने के लिए इंद्र ने इन पर वज्र प्रहार किया जिससे इनकी ठोड़ी टूट गयी और ये हनुमान कहलाये। अनेकों देवों से इन्होने वरदान प्राप्त किये और अजेय हो गए। ये वानरराज सुग्रीव के मंत्री थे और इन्होने ही श्रीराम और सुग्रीव की मित्रता करवाई थी। माता सीता का पता लगाने के लिए इन्होने एक ही छलांग में १०० योजन समुद्र लाँघ लिया और अकेले ही सम्पूर्ण लंका को जलाकर लौटे। लक्ष्मण के प्राण बचाने के लिए इन्होने पूरे पर्वत शिखर को ही उखाड़ लिया था। इन्हे अष्ट सिद्धि और नव निधि का वरदान प्राप्त है जिससे इन्हे कोई परास्त नहीं कर सकता। मनुष्यों, राक्षसों और देवताओं की तो बात ही क्या, श्रीराम के अश्वमेघ यज्ञ में इन्होने स्वयं भगवान शंकर के साथ युद्ध कर उन्हें संतुष्ट किया था। श्रीराम ने इन्हे कल्प के अंत तक राम कथा के प्रचार का आशीर्वद दिया था। कहते हैं कि कलयुग में गोस्वामी तुलसीदास ने भी बजरंगबली के दर्शन किये थे और उन्ही की प्रेरणा से उन्होंने श्री रामचरितमानस की रचना की।

विभीषण
विभीषण:
ये महर्षि विश्रवा और कैकसी के पुत्र और महाबली रावण और कुम्भकर्ण के छोटे भाई थे। ये भी श्रीराम के अनन्य भक्त थे और सदैव उनका ही स्मरण करते रहते थे। ये सच्चरित्र और निर्मल ह्रदय थे और इन्होने सदैव रावण को उचित मार्गदर्शन देने का प्रयास किया। राक्षस कुल से विपरीत स्वाभाव के होने के कारण रावण ने इन्हे अपमानित कर लंका से निष्कासित कर दिया। बाद में ये श्रीराम की शरण में गए और श्रीराम ने इन्हे लंका का राजा घोषित किया। लंका युद्ध में इन्होने वानर सेना की बड़ी सहायता की जिससे श्रीराम ने रावण का वध किया और विभीषण को लंका का राज्य सौंपा। उन्होंने ने ही विभीषण को चिरंजीवी होने का वरदान भी दिया। कई स्थानों पर लिखा है कि जब रावण, कुम्भकर्ण और विभीषण की तपस्या से ब्रह्माजी प्रसन्न हुए तो उन्होंने रावण और कुम्भकर्ण को तो अमरता का वरदान नहीं दिया किन्तु विभीषण को प्रभु का सच्चा भक्त जान कर उन्हें चिरंजीवी होने का वरदान दिया।

कृपाचार्य
कृपाचार्य:
ये महर्षि शरद्वान के पुत्र थे। शरद्वान का तप भंग करने के लिए इंद्र ने जानपदी नामक एक अप्सरा उनके पास भेजी जिससे उन्हें कृप और कृपी नाम के दो जुड़वाँ पुत्र-पुत्री प्राप्त हुए। तप भंग होने के कारण शरद्वान ऋषि ने उन दोनों को एक वन में छोड़ दिए। उस वन से महाराज शांतनु ने इन दोनो को प्राप्त किया और इनका पालन पोषण किया। बड़े होने के बाद कृपाचार्य कुरुवंश के कुलगुरु के पद पर आसीन हुए और कृपी का विवाह द्रोणाचार्य से हुआ। कृपाचार्य कौरवों और पांडवों के प्रथम गुरु भी थे। कहा जाता है कि इन्होने अपने तप से अमरत्व को प्राप्त किया था और युद्ध में वे अवध्य थे। पितामह भीष्म ने इन्हे अतिरथी कह सम्बोधित किया था। महाभारत युद्ध की समाप्ति पर कौरव सेना के बचे तीन योद्धाओं में ये एक थे। अन्य दो अश्वत्थामा और कृतवर्मा थे। जब युधिष्ठिर राजा बनें तो उन्होंने पुनः कृपाचार्य को कुलगुरु के पद पर नियुक्त किया। अगले मन्वन्तर अर्थात सर्वाणि मनु के शासनकाल में कृपाचार्य सप्तर्षियों में से एक होंगे।

परशुराम
परशुराम:
ये भगवान विष्णु के छठे अवतार थे और महर्षि भृगु के कुल में इनका जन्म हुआ। इनके पिता महर्षि जमदग्नि और माता रेणुका थी। ये महर्षि विश्वामित्र के नाती थे। इन्होने अपने तप से त्रिदेवों को प्रसन्न किया और उनसे कई वरदान प्राप्त किये। महादेव ने इन्हे अपने शिष्य के रूप में स्वीकार किया और सभी प्रकार के दिव्यास्त्र के अतिरिक्त "विद्युतभि" नामक एक विकराल परशु भी दिया जिस कारण ये परशुराम के नाम से प्रसिद्ध हुए। जब कर्त्यवीर्य अर्जुन और जमदग्नि में विवाद हुआ तो परशुराम ने युद्ध में सहस्त्रार्जुन का वध किया। बाद में उनके पुत्रों ने महर्षि जमदग्नि की हत्या कर दी। इससे परशुराम इतने क्रोधित हुए कि उन्होंने २१ बार पृथ्वी से क्षत्रियों का समूल नाश कर दिया और सम्यक पंचक में उनके रक्त से पांच सरोवर भर दिए। बाद में महर्षि कश्यप ने उन्हें समझा-बुझा कर क्षत्रियों के प्राण बचाये। श्रीराम ने जब अवतार लिया तो उनका वास्तविक स्वरुप पहचान कर इन्होने संन्यास धारण किया। महाभारत में ये भीष्म, द्रोण एवं कर्ण के गुरु थे। हर कलियुग के अंत में जब कल्कि अवतार होता है तो भगवान परशुराम ही उनका गुरुपद सँभालते हैं।

मार्कण्डेय
मार्कण्डेय:
ये भृगुवंशी विधाता के पौत्र और महर्षि मृकण्ड और मरुद्मति के पुत्र थे। ये अल्पायु थे और इनकी कुंडली के अनुसार इनकी मृत्यु केवल १६ वर्ष में होनी थी। ये जानकर मार्कण्डेय बहुत छोटी आयु से ही महादेव की आराधना करने लगे। जब ये १६ वर्ष की आयु के हुए तो इन्हे लेने यमदूत आये किन्तु इनके तेज को देख कर भयभीत हो गए। तब स्वयं यमराज इनके प्राण लेने आये। उन्हें आया देख कर मार्कण्डेय ने शिवलिंग को पकड़ लिया और महादेव का स्मरण करने लगे। तब यमराज ने अपना पाश इनके गले में डाला और इन्हे बलपूर्वक खींचने लगे। उसी समय मार्कण्डेय ने महामृत्युंजय मन्त्र की रचना की जिससे स्वयं भगवान शंकर वहां प्रकट हुए और यमराज के वध को ही उद्धत हुए। बाद में यमराज ने उनसे क्षमा याचना की और महादेव की कृपा से मार्कण्डेय चिरंजीवी बने। इन्होने ने ही उर्वशी का अभिमान भी भंग किया था। कहते हैं कि प्रलय के समय मार्कण्डेय सभी जीवों और वनस्पतियों के साथ सुरक्षित  रहते हैं और प्रलय के बाद सबको पुनःस्थापित करते हैं। इनकी आयु बहुत अधिक बताई गयी है और इसी कारण लगभग सभी पुराणों में हमें "मार्कण्डेय उवाच" अर्थात "मार्कण्डेय ने ऐसा कहा", ये वाक्य अवश्य मिलता है।

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