महर्षि शुकदेव

शुकदेव ऋषि का वर्णन महाभारत में आता है। वो महर्षि व्यास के अनियोजित पुत्र एवं उनके पहले शिष्य थे। उन्होंने महर्षि व्यास से महाभारत की पूरी कथा सुनकर कंठस्थ कर लिया था और आगे उस कथा का विस्तार किया। जब परीक्षित को उस श्राप का पता चला कि आज से सातवें दिन तक्षक के दंश से उनकी मृत्यु हो जाएगी तो उन्होंने अपनी अंतिम इच्छा के रूप में महाभारत और गीता कथा सुनने की इच्छा प्रकट की।

तब शुकदेव जी ने ही उन्हें और उनके साथ महर्षि व्यास समेत कई अन्य ऋषियों को महाभारत एवं गीता की कथा सुनाई थी। वे बड़ी कम आयु में ही विरक्ति भाव से मृत्यु को प्राप्त हुए। वे एक ऐसे ऋषि के रूप में जाने जाते हैं जिन्होंने ब्रम्हचर्य के बाद सीधे सन्यास आश्रम में प्रवेश किया। इनके जन्म के सम्बन्ध में एक कथा मिलती है जो भगवान शिव और माता पार्वती से जुडी है।

पूर्वजन्म में वे एक शुक (तोता) थे। एक बार माता पार्वती ने भगवान शिव से अमरता के रहस्य को जानने की इच्छा प्रकट की। महादेव ने उन्हें समझने की बड़ी कोशिश की कि ये एक गूढ़ रहस्य है जिसे हर कोई नहीं जान सकता किन्तु देवी पार्वती अपनी बात पर अड़ी रही। उनका हठ देख कर अंततः महादेव उन्हें वो रहस्य बताने को तैयार हो गए किन्तु उन्होंने उनसे वचन लिया कि वे वो रहस्य और किसी को नहीं बताएंगी। 

उनकी स्वीकृति के बाद भगवान शिव उन्हें अमरनाथ की गुफा में ले गए ताकि जब वे उन्हें वो रहस्य बताएँ तो कोई और ना सुन सके। गुफा में प्रवेश करने से पहले महादेव ने नंदी, वासुकि और चंद्र का भी परित्याग कर दिया। जब वे अंदर पहुँचे तो वहाँ बहुत अँधेरा था। महादेव ने देवी पार्वती से कहा "भद्रे! अब मैं तुम्हे अमरता का रहस्य बताने जा रहा हूँ जिसे तुम ध्यान पूर्वक सुनो। बीच-बीच में हुँकार मारती रहना ताकि मुझे पता चलता रहे कि तुम मेरी बात सुन रही हो।

ऐसा कहकर महादेव ने उन्हें वो रहस्य बताना शुरू किया और देवी पार्वती भी बीच-बीच में हुँकार मारती रहीं। किन्तु थोड़ी देर बाद देवी पार्वती को नींद आ गयी और वे सो गयी। उस गुफा के अंधरे में एक शुक भी छुपकर बैठा था जो भगवान शिव की बातें सुन रहा था। जब माता पार्वती सो गयी तो वो शुक उनके स्थान पर हुँकार भरने लगा। 

इसपर महादेव को थोड़ा संदेह हो गया और उन्होंने अपनी दिव्य दृष्टि से देख लिया कि एक शुक छुप कर उनकी बातें सुन रहा है। इससे उन्हें बड़ा क्रोध आया और उन्होंने उस शुक को मारने के लिए अपना त्रिशूल छोड़ा। उस त्रिशूल से बचने के लिए वो शुक तीनों लोक भागने लगा किन्तु महादेव के त्रिशूल से उसकी रक्षा कौन करता? यहाँ तक कि ब्रह्मदेव और नारायण ने भी उनके त्रिशूल से रक्षा करने में असमर्थता जताई। 

भागते-भागते वे महर्षि व्यास के आश्रम पहुँचे। उन्होंने देखा कि महर्षि व्यास साधना में लीन है और उनकी पत्नी पिंजला निद्रा में हैं। इसे देख कर वो शुक देवी पिंजला के मुख से प्रवेश कर उनके गर्भ तक पहुँच कर स्थिर हो गया जिससे देवी पिंजला को गर्भ रह गया। महादेव का त्रिशूल जब व्यास के आश्रम के अंदर आया तो देखा कि शुक महर्षि की पत्नी के अंदर गर्भ के रूप में स्थित हो गया है। ये देख कर महादेव ने गर्भवती स्त्री पर प्रहार करना उचित नहीं समझा और त्रिशूल को वापस बुला लिया।

किन्तु ये सोच कर कि बाहर निकलते ही महादेव का त्रिशूल फिर उसपर प्रहार करेगा, वो शुक उसी प्रकार वहाँ पड़ा रहा। जब महर्षि व्यास को पता चला कि उनकी पत्नी गर्भवती हैं तो उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई किन्तु जब बड़े समय तक उनकी पत्नी को प्रसव नहीं हुआ तो वे चिंतित हो गए। अंत में उन्होंने अपनी दिव्य दृष्टि से देखा और वास्तविकता समझ ली। उन्होंने शुक को बड़ा समझाया कि महादेव का त्रिशूल लौट चुका है और अब वो बाहर आ सकता है किन्तु भयभीत शुक बाहर नहीं आया। इस प्रकार १२ वर्ष व्यतीत हो गए। अंततः हार कर महर्षि व्यास ने श्रीकृष्ण को बुलाया और उनके आश्वासन देने के बाद ही शुकदेव गर्भ से बाहर निकले। 

अपने पुत्र का जन्म होते देख महर्षि व्यास बड़े प्रसन्न हुए और उनका नाम शुकदेव रखा। वे बचपन से ही बड़े मेधावी थे और उन्होंने कम समय में ही महर्षि व्यास से सारी विद्याओं का ज्ञान प्राप्त कर लिया। महर्षि व्यास के अतिरिक्त उन्होंने देवगुरु बृहस्पति से भी शिक्षा प्राप्त की। कुछ समय बाद उन्होंने अपने पिता से चारो आश्रमों (ब्रम्हचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास) के बारे में पूछा। इसपर महर्षि व्यास ने कहा "हे पुत्र! तुम विदेह के महाराज जनक के पास जाओ (कई लोग इन्हे देवी सीता के पिता जनक ही मानते हैं पर कोई लोगो में मतभेद है)। वही तुम्हे सभी आश्रमों का ज्ञान देंगे। 

शुकदेव लम्बी यात्रा के बाद जनकपुरी पहुँचे और महाराज जनक से मिले। जनक ने उन्हें सभी आश्रमों की शिक्षा दी किन्तु शुकदेव को संन्यास आश्रम सबसे प्रिय जान पड़ा और उन्होंने जनक से उसके बारे में कई प्रश्न पूछे। जनक के उत्तरों से वे इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने संन्यास ग्रहण करने की प्रतिज्ञा कर ली।

वापस आने के बाद जब उन्होंने महर्षि व्यास को इसके बारे में बताया तो वे बड़े व्यथित हुए। उन्होंने कहा कि ये आयु संन्यास लेने की नहीं है किन्तु शुकदेव नहीं माने। इसपर महर्षि व्यास ने उन्हें सम्पूर्ण शास्त्रों का सन्दर्भ देते हुए अपने निर्णय को वापस लेने को कहा किन्तु महाराज जनक द्वारा सीखे गए सारे तर्कों से शुकदेव ने व्यास को निरुत्तर कर दिया। इन दोनों के बीच ये शास्त्रार्थ कई दिनों तक चलता रहा और इसी बीच शुकदेव की प्रसिद्धि समस्त विश्व में फ़ैल गयी। अंत में शुकदेव ने अपने तर्कों से महर्षि व्यास को निरुत्तर कर दिया।

अपने पिता को शास्त्रार्थ में पराजित करने के बाद वे उनसे आशीर्वाद लेकर संन्यास लेने वन की ओर निकले। अपने पुत्र के प्रेम में व्यास उनके पीछे भागे। आगे एक सरोवर में कुछ स्त्रियाँ स्नान कर रही थी उसी समय शुकदेव वहाँ पहुँचे। उनके मुख पर संसार के प्रति विरक्ति देख कर वे स्त्रियाँ उसी नग्न अवस्था में निःसंकोच उनसे आशीर्वाद लेने जल से बाहर निकल आयीं। किन्तु जब उन्हें पता चला कि महर्षि व्यास यहाँ आ रहे हैं तो वे सभी पुनः जल में चली गईं। जब महर्षि व्यास ने अपने पुत्र का ऐसा प्रताप देखा तो उन्होंने उसे संन्यास ग्रहण करने की आज्ञा दे दी। 

महाराज परीक्षित की मृत्यु के कुछ काल के बाद इन्होने भी अपनी इच्छा से इस संसार को छोड़ने का निश्चय किया। जिस जगह शुकदेव जी ब्रह्मलीन हुए थे, वर्तमान समय में वह जगह हरियाणा में कैथल के गाॅंव सजूमा में है। 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

कृपया टिपण्णी में कोई स्पैम लिंक ना डालें एवं भाषा की मर्यादा बनाये रखें।