जय और विजय - जिन्होंने श्रीहरि के भक्त बनने के स्थान पर उनका शत्रु बनना पसंद किया

जय और विजय
वैसे तो भगवान विष्णु के कई पार्षद हैं किन्तु जय-विजय उनमें से प्रमुख हैं। ये दोनों वैकुण्ठ के मुख्य द्वार के रक्षक हैं और श्रीहरि को सर्वाधिक प्रिय हैं। ये दोनों उप-देवता की श्रेणी में आते हैं और इन्हे गुण एवं रूप में श्रीहरि के समान ही बताया गया है। श्रीहरि की भांति ही ये भी अपने तीन हाथों में शंख, चक्र एवं गदा धारण करते हैं, पर इनके चौथे हाथ में तलवार होती है, वहीँ श्रीहरि अपने चौथे हाथ में कमल धारण करते हैं।

जय के ऊपर के बाएं हाथ में दाएं हाथ में शंख होता है। नीचे के बाएं हाथ में गदा और दाएं हाथ में तलवार होती है। विजय भी अपने चारों हाथों में समान वस्तु ही धारण करते हैं बस उनकी चीजें जय से उलटे हाथों में होती है। अर्थात विजय अपने ऊपर के बाएं हाथ में शंख और दाएं हाथ में चक्र धारण करते हैं और नीचे के बाएं हाथ में तलवार और दाएं हाथ में गदा धारण करते हैं। 

ब्रह्माण्ड पुराण के अनुसार ब्रह्माजी से सप्तर्षियों में से एक महर्षि मरीचि की उत्पत्ति हुई। मरीचि के कला से एक पुत्र हुए महर्षि कश्यप। कश्यप ऋषि की १७ पत्नियों से ही समस्त जातियों की उत्पत्ति हुई। उनकी पत्नी अदिति से वरुण जन्में और वरुण और उनकी पत्नी के स्तुत के पुत्र हुए कलि और वैद्य। जय और विजय इन्ही कलि की संतान थे।

भागवत पुराण के अनुसार एक बार ब्रह्मा के मानस पुत्रों में से एक चार कुमार - सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार भगवान विष्णु के दर्शनों को वैकुण्ठ पहुंचे। वे ब्रह्मपुत्र थे इसीलिए तीनों लोकों में उनकी गति अबाध थी। जब वे वैकुण्ठ के द्वार पर पहुंचे तो जय और विजय ने उन्हें प्रणाम किया और उनके वहां आने का कारण पूछा। जब उन्होंने श्रीहरि के दर्शनों की इच्छा जताई तब जय-विजय ने उन्हें ये कहते हुए रोक दिया कि श्रीहरि अभी विश्राम कर रहे हैं। 

इस पर सनत्कुमारों ने कहा कि हम श्रीहरि की ही इच्छा से उनके दर्शन हेतु यहाँ आये हैं। हम परमपिता ब्रह्मा के पुत्र और भगवान विष्णु के परम भक्त हैं। हमारी गति कहीं भी नहीं रूकती है। तुम दोनों सदा श्रीहरि के सानिध्य में रहते हो इसी कारण तुम्हारी मति भी उन्ही के समान समदर्शी होनी चाहिए। अतः हाथ मत करो और हमें श्रीहरि के दर्शन करने दो।

किन्तु जय और विजय ने इस पर भी उन्हें वैकुण्ठ के अंदर नहीं जाने दिया। इसपर उन्होंने क्रोधित हो कहा कि "रे मुर्ख! तुम दोनों सदैव नारायण के सानिध्य में रहने के बाद भी उनके गुणों का सतांश भी ग्रहण नहीं कर सके। उनके कृपापात्र होकर भी तुममे अहंकार है। तुम दोनों वैकुण्ठ के योग्य नहीं हो, इसीलिए हम तुम्हे श्राप देते हैं कि तुम दोनों का पतन हो जाये और तुम सदा के लिए मृत्युलोक में जा गिरो।

ऐसा श्राप पाकर जय-विजय सनत्कुमारों के चरणों में गिर पड़े और बार-बार उनसे क्षमा याचना करने लगे। उधर जब श्रीहरि को पता चला कि सनत्कुमार उनके द्वार पर आये हैं तो वे स्वयं माता लक्ष्मी के साथ द्वार पर आये और सनत्कुमारों का स्वागत करते हुए कहा - "हे मुनिश्रेष्ठ! मेरे पार्षदों के व्यव्हार से जो आपको कष्ट हुआ है उसके लिए मुझे अत्यंत खेद है। सेवक द्वारा किया गया अपमान भी स्वामी का ही माना जाता है अतः इनकी ओर से मैं आपसे क्षमा मांगता हूँ।"

श्रीहरि के ऐसे मधुर वचन सुनकर सनत्कुमारों का क्रोध तत्काल शांत हो गया। उन्होंने श्रीहरि से कहा - "हे प्रभु! आप तो भक्तवत्सल हैं किन्तु हम आपके भक्त होते हुए भी क्रोध के आवेश में आ गए। उसी क्रोध के वशीभूत हो हमें इन दोनों को ऐसा श्राप दे दिया। हम अपने व्यव्हार के लिए अत्यंत लज्जित हैं। यदि आप चाहें तो इन दोनों को हमारे श्राप से मुक्त कर सकते हैं।"

ये सुनकर श्रीहरि ने कहा - "मुनिवर! मैं त्रिलोक का अधिपति होकर भी ब्राह्मणों के वचन को मिथ्या नहीं कर सकता। फिर आप तो सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा के पुत्र हैं, फिर आपके श्राप का शमन कर मैं आपका अपमान कैसे कर सकता हूँ? आपने इन दोनों को श्राप देकर उचित ही किया है। जब अहंकार सीमा से अधिक बढ़ जाये तो उसका दमन अति आवश्यक होता है।"

भगवान विष्णु के ऐसे वचन सुनकर जय-विजय व्याकुल हो उनके चरणों में गिर पड़े और रोते हुए कहा - "हे स्वामी! अज्ञानतावश हमसे बहुत बड़ा पाप हो गया किन्तु उसका इतना बड़ा दंड हमें ना दें। हम दोनों तो आपसे विलग होकर एक क्षण भी नहीं रह सकते फिर किस प्रकार हम सदा के लिए पृथ्वीलोक जा सकते हैं? कृपा कर इसका कोई उपाय करें कि ये श्राप सीमित हो जाये।"

ये सुनकर श्रीहरि ने कहा कि चूँकि श्राप तुम्हे सनत्कुमारों ने दिया है इसीलिए केवल वही तुम्हारे श्राप को सीमित कर सकते हैं। इस पर जय-विजय ने पुनः सनत्कुमारों से अपने श्राप को सीमित करने की प्रार्थना की। ये सुनकर उन्होंने कहा - "हे वत्स! श्रीहरि का आदेश है इसीलिए हमें तुम्हारा कल्याण करना ही होगा। हमारा श्राप तो मिथ्या नहीं हो सकता किन्तु हम तुम्हे वरदान देते हैं कि तुम दोनों पृथ्वीलोक पर महान विष्णुभक्त के रूप में जन्म लोगे और सात जन्मों के बाद पुनः श्रीहरि के चरणों में वैकुण्ठ लौट जाओगे।"

ये सुनकर जय-विजय ने कहा - "हे मुनिवर! हम तो क्षणभर के लिए उनका वियोग नहीं सह सकते, फिर सात जन्म तो बहुत अधिक है। कृपा कर इसे और सीमित कर दीजिये।" ये सुनकर सनत्कुमारों ने हँसते हुए कहा कि प्रभु के भक्त से अभी अधिक यदि कोई उनका स्मरण करता है तो वो उनका शत्रु है। भक्त प्रभु की भक्ति करना भूल भी जाये किन्तु शत्रु प्रत्येक क्षण केवल उनका ही ध्यान करता है। यदि तुम सात जन्मों तक प्रतीक्षा नहीं करना चाहते तो उनके घोर शत्रु के रूप में जन्मों। इससे तुम केवल तीन जन्मों में ही श्राप से मुक्त हो पुनः वैकुण्ठ लौट जाओगे।"

अब जय और विजय के पास दो विकल्प थे - एक तो उनका भक्त बन ७ जन्मों तक उनका वियोग सहना और दूसरा अपने ही स्वामी का घोर शत्रु बन केवल ३ जन्मों के बाद पुनः उनकी कृपा में लौट आना। उन्होंने अपने अगले जन्मों में उनका शत्रु बनना ही स्वीकार किया ताकि वे कम से कम अवधि तक उनसे अलग रह सके। उन्होंने सनत्कुमारों से कहा कि वे श्रीहरि के घोर शत्रु के रूप में ही पृथ्वी पर जन्म लेने चाहते हैं ताकि ३ जन्मों के बाद वे उन्हें पुनः प्राप्त कर सकें। सनत्कुमारों ने तथास्तु कह दिया।

जब श्रीहरि ने ये सुना तो उन्होंने जय-विजय की प्रशंसा करते हुए कहा कि - "तुम दोनों ने उचित चुनाव ही किया। तुम दोनों भी मुझे अत्यंत प्रिय हो और मैं भी तुमसे अधिक समय तक विलग नहीं रहना चाहता। अतः मैं तुम्हे वरदान देता हूँ कि प्रत्येक जन्म में मैं स्वयं तुम्हारा वध कर तुम्हे तुम्हारे पापों से मुक्त करूँगा।" सनत्कुमारों के श्राप के कारण जय और विजय ने तीन बार जन्म लिया। 
  1. सतयुग: अपने पहले जन्म में महर्षि कश्यप और दक्षपुत्री दिति के पुत्रों के रूप में जय हिरण्यकशिपु और विजय उसके छोटे भाई हिरण्याक्ष के रूप में जन्मे। हिरण्याक्ष का वध श्रीहरि ने वाराह अवतार लेकर और हिरण्यकशिपु का वध उन्होंने नृसिंह अवतार लेकर किया।
  2. त्रेतायुग: अपने दूसरे जन्म में महर्षि विश्रवा और राक्षस कन्या कैकसी एक पुत्रों के रूप में जय रावण और विजय उसके छोटे भाई कुम्भकर्ण के रूप में जन्मे। लंका युद्ध में दोनों का वध श्रीहरि ने श्रीराम का अवतार लेकर किया।
  3. द्वापरयुग: अपने तीसरे जन्म में जय महाराज दमघोष और रानी श्रुतश्रवा के पुत्र के रूप में जन्में जिनका नाम शिशुपाल पड़ा। श्रुतश्रवा श्रीकृष्ण की माता देवकी की बहन थी। विजय राजा वृध्श्रमण एवं रानी श्रुतिदेवी के पुत्र के रूप में जन्में जिसका नाम दन्तवक्र पड़ा। रानी श्रुतिदेवी श्रीकृष्ण के पिता वसुदेव और कुंती की बहन थी। इस प्रकार शिशुपाल और दन्तवक्र दोनों श्रीकृष्ण के भाई थे किन्तु दोनों का वध श्रीहरि के नवें अवतार श्रीकृष्ण द्वारा ही हुआ। युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में शिशुपाल श्रीकृष्ण से उलझा जिस कारण उन्होने उसका वध कर दिया। राजसूय यज्ञ से लौटते समय अपने मित्र शिशुपाल और जरासंध के वध का प्रतिशोध लेने के लिए दन्तवक्र ने श्रीकृष्ण पर आक्रमण कर दिया। दोनों में गदायुद्ध हुआ जिसमें दन्तवक्र वीरगति को प्राप्त हुआ।
इस प्रकार अपने श्राप को भोग कर तीन जन्मों के पश्चात जय और विजय पुनः श्रीहरि के पास वैकुण्ठ लौट गए और उनके पार्षद बनें। अपने स्वामी का सानिध्य पाने के लिए पापी तक बन जाना, ऐसा कोई अन्य उदाहरण हमें अनहि मिलता। ये कथा इस बात को भी सिद्ध करती है कि चाहे वो भगवान का भक्त हो अथवा शत्रु, अंततः वो उनकी ही कृपा को प्राप्त करता है। 

जय श्रीहरि।

टिप्पणियाँ

  1. जय भगवान विष्णु जय माता लक्ष्मी बहुत रोचक और अच्छी जानकारी

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    1. धर्म शिक्षा से संबंधित बहु प्रतिक्षित स्वागतार्ह ब्लॉग बहुत प्रामाणिक जानकारी दे कर साधारण जनता अपने पौराणिक तथा धार्मिक संस्कृती को जान सकती है,अज्ञान का अंधकार दूर करने मे साह्य कारी प्रयास ,अनेकानेक साधुवाद व नमस्कार.

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  2. बहुत ही शोधपरक जानकारी।
    सादर प्रणाम

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