नवनाथ - नाथ संप्रदाय के नौ सर्वोच्च सिद्ध

नवनाथ - नाथ संप्रदाय के नौ सर्वोच्च सिद्ध
हिन्दू धर्म में नाथ संप्रदाय का बड़ा महत्त्व है। ऐसी मान्यता है कि ये संप्रदाय स्वयं भगवान शंकर के भैरव रूप से आरम्भ हुआ और इसके पहले गुरु श्रीहरि के अवतार भगवान दत्तात्रेय हुए। इसी कारण नाथ संप्रदाय में महादेव अथवा भैरव को "आदिनाथ" एवं दत्तात्रेय को "आदिगुरु" कहा जाता है। ऐसी भी मान्यता है कि सभी नौ सिद्धों का जन्म परमपिता ब्रह्मा के वीर्य से ही हुआ था। 

मूलतः हिन्दू धर्म से सम्बंधित होने पर भी ये एक ऐसा संप्रदाय है जिसके अनुयाई एवं शिष्य लगभग सभी धर्मों के लोग हैं। वैसे तो नाथ संप्रदाय में कुल ८४ गुरुओं का वर्णन है किन्तु इसमें नौ परम गुरुओं का, जिन्हे नवनाथ कहा जाता है, बहुत महत्त्व है। कई मतों के अनुसार अलग-अलग नौ गुरुओं का वर्णन है पर स्वामी नरसिंहनाथ द्वारा बताये गए नवनाथों को सर्वाधिक मान्यता प्राप्त है। आइये उन नौ परम सिद्ध गुरुओं को जानते हैं। 
  1. मच्छिन्द्रनाथ
    मच्छिन्द्रनाथ:
    इनका एक नाम मत्स्यनाथ भी है। इन्हे नाथ प्रथा का संस्थापक भी माना जाता है। ये गोरखनाथ के गुरु थे और इन्होने ही हठयोग विद्यालय की स्थापना की थी। ये हठयोग की पहली पुस्तक कौलजणाननिर्णय के लेखक भी हैं। इनकी बौद्ध धर्म में भी समान महत्ता है। बौद्ध धर्म के ६४ महासिद्धों में भी इनका वर्णन आता है। इन्हे नाथ संप्रदाय में "विश्वयोगी" भी कहा जाता है। इनके विषय में जो एक कथा सबसे प्रसिद्ध है वो उनके और महाबली हनुमान के बीच के युद्ध के विषय में है। संक्षेप में कथा ये है कि एक बार मच्छिन्द्रनाथ रामसेतु पर तपस्यारत थे। उसी समय हनुमानजी ने उनकी परीक्षा लेने का सोचा। उन्होंने वही पास में पड़े सात पर्वतों पर अपनी गदा से प्रहार करने लगे जिससे मच्छिन्द्रनाथ की तपस्या भंग हो गयी। इस पर दोनों में युद्ध छिड़ गया। हनुमानजी ने उन सभी ७ पर्वतों को उखाड़ कर मत्स्यनाथ पर फेंका किन्तु उन्होंने उन सभी पर्वतों को अपनी मंत्रशक्ति से चूर कर दिया। फिर मच्छिन्द्रनाथ ने अपने मन्त्र से हनुमान जी को स्तंभित कर दिया। ये देख कर महाबली हनुमान बड़े प्रसन्न हुए और उन्होंने मच्छिन्द्रनाथ को अपना आशीर्वाद दिया।
  2. गोरक्षनाथ
    गोरक्षनाथ:
    नाथ संप्रदाय के सर्वाधिक प्रसिद्ध गुरु जिन्हे हम गोरखनाथ के नाम से जानते हैं। उत्तरप्रदेश का गोरखपुर उन्ही के नाम पर है जहाँ उन्होंने वर्तमान गोरक्षपीठ मठ की स्थापना की थी। नेपाल का जो गोरखा समाज है, वो भी उन्ही के नाम पर पड़ा है। उन्ही के नाम पर नेपाल के एक जिले का नाम भी गोरखा है जहाँ एक प्राचीन गुफा में उनकी एक मूर्ति स्थापित है। गोरखनाथ का वर्णन त्रेतायुग एवं द्वापरयुग में भी आता है। जहाँ त्रेतायुग में वे श्रीराम के राज्याभिषेक में सम्मलित हुए थे वही द्वापरयुग में वे श्रीकृष्ण और माता रुक्मिणी के विवाह में भी आये थे। कलियुग में भी उनकी कथा आती है जब महान वीर बाप्पा रावल ने उनके दर्शन किये और उनसे वरदान स्वरुप एक दिव्य तलवार प्राप्त की। उसी तलवार से उन्होंने मुगलों को पराजित किया था। भैरोंनाथ इन्ही के शिष्य थे जिनका उद्धार माता वैष्णोदेवी ने किया था। गोरखनाथ के जन्म के विषय में एक कथा आती है कि एक बार मच्छिन्द्रनाथ चंद्रगिरि नामक स्थान पर एक घर में भिक्षा मांगने पहुंचे। सरस्वती नाम की जिस स्त्री ने उन्हें भिक्षा दी वो निःसंतान थी। उन्होंने उसे विभूति दी और कहा इसे खा लेना, तुम्हे पुत्र प्राप्त होगा। किन्तु उस स्त्री ने भय से उस विभूति को गोबर के ढेर पर रख दिया। १२ वर्ष के बाद मत्स्यनाथ वहां पहुंचे तब उन्हें पता चला कि उस स्त्री ने उनकी विभूति को गोबर के ढेर पर रख दिया था। वे उस गोबर के ढेर पर पहुंचे और अलख जगाई तो उसी ढेर से १२ वर्ष के गुरु गोरखनाथ प्रकट हुए। गोबर में सुरक्षित रहने के कारण मत्स्यनाथ ने उन्हें गोरक्षनाथ नाम दिया। 
  3. गहिनीनाथ
    गहिनीनाथ:
    ये गोरखनाथ के शिष्य थे। इनके जन्म की एक अद्भुत कथा मिलती है। एक बार मछेन्द्रनाथ और गोरखनाथ भ्रमण करते हुए कनक गांव पहुंचे। वहां मत्स्यनाथ ने गोरखनाथ से कहा कि मैं भिक्षा लेने जा रहा हूँ, तुम एकांत में मृतसंजीवनी विद्या का अभ्यास करो। जब गोरखनाथ ध्यानमग्न थे तब वहां कुछ बच्चे खेलते हुए आ गए। उन्होंने गोरखनाथ से कहा कि वो गीली मिट्टी से एक पुतला बना दें। उनका आग्रह मानकर गोरखनाथ जी संजीवनी मन्त्र पढ़ते ही एक बच्चे का पुतला बनाने लगे, जो उस मन्त्र के प्रभाव से जीवित हो उठा। जब मत्स्यनाथ लौटे तो उन्होंने अपने कमंडल से उस बालक को दूध पिलाया। कुछ समय बाद वे दोनों उस बालक को लेकर वहां से जाने लगे। तब उसी गांव में रहने वाले एक ब्राह्मण जिनका नाम मधुमय था, अपनी पत्नी गंगा के साथ उनके पास पहुंचे। वे दोनों निःसंतान थे इसीलिए उन्होंने गोरखनाथ से उस बालक को गोद लेने का आग्रह किया। अपने गुरु मत्स्यनाथ के समर्थन से गोरखनाथ ने उस बालक को मधुमय को प्रदान किया जो उसके दत्तक पिता बने। उन्होंने उस बालक का नाम गहिनीनाथ रखा जो आगे चल कर महान संत बनें। 
  4. जालंधरनाथ
    जालंधरनाथ:
    ये पंजाब के रहने वाले थे और आज का जालंधर शहर इन्हे के नाम से जाना जाता है। कई स्थानों पर इन्हे गुरु मत्स्यनाथ का गुरुभाई बताया जाता है। इन्हे स्वयं भगवान दत्तात्रेय का शिष्य बताया गया है। इनके शिष्यों में श्री कृष्णपाद, जो बाद में नवनाथों में शामिल हुए, प्रमुख थे। अपने शिष्य कृष्णपाद के साथ मिलकर इन्होने ही कापालिक संप्रदाय की स्थापना की थी। तिब्बत में इनका बड़ा महत्त्व है और वहां की मान्यताओं के अनुसार ये मत्स्यनाथ के गुरु थे जिनका जन्म नगरभोग देश के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। हठयोग का एक समूचा अध्याय इनके नाम पर ही है जिसे "जालंधर बंध" कहा जाता है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने कहा था कि जालंधर नाथ पहले नाथ और अंतिम सिद्ध हैं। इनके जन्म के विषय में जो कथा आती है वो ये है कि हस्तिनापुर में बृहद्रव नामक राजा सोम नाम का एक यज्ञ कर रहे थे। उसी यज्ञ के समिधा के रूप में अंतरिक्षनारायण ने उस यज्ञ में प्रवेश किया जिससे उस यञकुंड से जालंधरनाथ की उत्पत्ति हुई। 
  5. कानिफनाथ
    कानिफनाथ:
    इनका ही दूसरा नाम कृष्णपाद था और ये जालंधरनाथ के शिष्य थे। महाराष्ट्र में इन्हे कान्होबा भी कहा जाता है। चार्यपद में इन्हे ही कण्हपा के नाम से जाना जाता है। इन्होने हेव्रज और शैव योग साधना को मिश्रित कर अपना एक विशिष्ट योग बनाया जिसका अनुसार उनके शिष्यों ने किया। इनका जन्म कर्नाट देशीय ब्राह्मण के घर हुआ था और इनके शरीर का रंग काला होने के कारण इन्हे कृष्णपाद नाम मिला। इनकी एक शिष्या थी मेखला जिन्हे वज्रयान संप्रदाय में बहुत सम्मान प्राप्त है। उनके अतिरिक्त कनखल, अचिति एवं भदलि इन्ही के प्रसिद्ध शिष्य थे। इन्हे प्रबुद्ध नारायण के नौ अवतारों, जिन्हे "नवनारायण" कहा जाता है, में से एक माना गया है। अपने गुरु जालंधर नाथ के साथ मिलकर इन्होने कापालिक पंथ की स्थापना की। हालाँकि बाद में ये शैव योग की ओर मुड़ गए। भागवत पुराण के अनुसार ये स्वामी ऋषभ देव के पुत्र थे। इन्हे ब्रह्मा जी का पुत्र भी माना जाता है। एक बार ब्रह्मा जी माता सरस्वती के प्रति आकृष्ट हुए तो उनका तेज स्खलित हो पृथ्वी पर एक हथिनी के कान में जा गिरा। उसी से एक बालक का जन्म हुआ और कान से उत्पन्न होने के कारण उनका नाम कनीफनाथ पड़ा। 
  6. भृतहरिनाथ
    भृतहरिनाथ:
    इन्हे भरथरी नाथ भी कहा जाता है। भृतहरि राजा विक्रमादित्य के बड़े भाई और उज्जैन के राजा थे। वे अपनी पत्नी पिंगला से अत्यधिक प्रेम करते थे। उन्होंने संन्यास भी अपनी पत्नी के कारण लिया। एक बार गुरु गोरखनाथ ने उन्हें एक फल दिया जिससे वे चिरकाल तक युवा बने रहेंगे। उस फल को उन्होंने अपनी रानी पिंगला को दिया। पिंगला किसी और युवक से प्रेम करती थी तो वो फल उसने उसे दे दिया। वो युवक एक वैश्या से प्रेम करता था तो वो फल उसने उस वेश्या को दे दिया। वेश्या ने सोचा कि वो इस फल का क्या करेगी? ये सोच कर उसने उस फल को राजा भृतहरि को उनकी लम्बी आयु के लिए दे दिया। जब राजा ने वो फल देखा तो उसे पिंगला की असलियत पता चली। उसी दुःख में उन्होंने संन्यास ले लिया। एक अन्य कथा इसके बिलकुल विपरीत है। उस कथा के अनुसार पिंगला अपने पति से अत्यंत प्रेम करती थी। एक बार भृतहरि ने पिंगला से पूछा कि यदि वे मर गए तो वो क्या करेगी? इसपर पिंगला ने कहा कि वो तो ये समाचार सुनते ही मर जाएगी। ये सुनकर भृतहरि ने उनकी परीक्षा लेने के लिए उनकी मृत्यु का झूठा समाचार रानी तक पहुंचाया। ये सुनते ही रानी ने अपने प्राण त्याग दिए। अब तो भृतहरि को अत्यंत क्षोभ हुआ और वे विलाप करने लगे। तब गोरखनाथ भ्रमण करते हुए उनके राज्य में पहुंचे। राजा भृतहरि ने उनसे आग्रह किया कि वे उनकी पत्नी को जीवनदान दें। गोरखनाथ ने ऐसा ही किया। इस पर भृतहरि ने संन्यास लेने का निश्चय किया और अपने छोटे भाई विक्रमादित्य को राज्य सौंप कर वे गुरु गोरकनाथ के साथ चले गए।
  7. रेवणनाथ
    रेवणनाथ:
    सिद्ध रेवणनाथ को भी ब्रह्माजी का पुत्र माना जाता है। एक कथा के अनुसार रेवा नदी के किनारे एक निःसंतान व्यक्ति ने प्रेम पूर्वक बालू से एक बालक की प्रतिमा का निर्माण किया और वापस चला गया। कानिफनाथ का जन्म ब्रह्मा के जिस तेज से हुआ उसी तेज का कुछ अंश रेवा नदी के किनारे पड़े उस प्रतिमा पर भी पड़ा जिससे उसमें प्राण आ गए और वो रोने लगा। अगले दिन जब वही व्यक्ति नदी किनारे आया तो अपने द्वारा बनाई गयी प्रतिमा को जीवित देख कर उसे अपने घर ले गया और रेवा नदी के किनारे उत्पन्न होने के कारण उसे रेवणनाथ नाम दिया। थोड़ा बड़े होने पर रेवणनाथ को दत्तात्रेय जी ने दर्शन दिए और उसे वरदान दिया कि वो जो कुछ भी चाहेगा, वो पूर्ण हो जाएगा। अब तो वो सब की इच्छा पूर्ण करने लगा और लोग उन्हें रेवणसिद्धि के नाम से पुकारने लगे। इससे उनमे थोड़ा अभिमान आ गया। एक दिन मछेन्द्रनाथ उस नगर में पधारे और रेवणनाथ की प्रसिद्धि के बारे में सुनकर उससे मिलने गए। वहाँ उनकी सिद्धि देख कर वे बड़े हैरान हुए किन्तु ये समझ गए कि उन्हें अभिमान ने घेर रखा है। उससे रेवणनाथ को मुक्त करवाने के लिए उन्होंने देव दत्तात्रेय से प्रार्थना की। उनकी प्रार्थना सुन कर दत्तात्रेय रेवणनाथ के पास आये और उनके मन में छिपे अभिमान और अज्ञान को दूर किया।
  8. नागनाथ
    नागनाथ:
    एक कथा के अनुसार ब्रह्माजी के तेज को एक नागिन ने निगल लिया जो जन्मेजय के नागयज्ञ से छिप कर एक पेड़ के कोटर में बैठी थी। समय आने पर उस नागिन ने अंडे का प्रसव किया और उससे एक बालक का जन्म हुआ जो नागनाथ के नाम से प्रसिद्ध हुए। उसकी माता का वटवृक्ष में आश्रय लेने के कारण उनका एक नाम वटनाथ भी पड़ा। बड़े होने पर उन्हें भी दत्तात्रेय जी ने दर्शन दिए और आशीर्वाद दिया कि वो जिस भी भोजन को चाहेगा वो उसके सामने आ जाएगा। उस वरदान को प्राप्त कर नागनाथ समस्त भिक्षुओं को प्रतिदिन भोजन करवाने लगे। इसे देख कर दत्तात्रेय अत्यंत प्रसन्न हुए। बाद में दत्तात्रेय ने उन्हें काशी ले जाकर भगवान शंकर का और बद्रीनाथ ले जाकर श्रीहरि का आशीर्वाद दिलवाया। इसे नागनाथ सभी ६४ विद्याओं के ज्ञाता हो गए। एक बार मछेन्द्रनाथ उनसे मिलने आये किन्तु नागनाथ के शिष्यों ने उन्हें अंदर नहीं जाने दिया। इस पर मछेन्द्रनाथ ने उन सभी को नागपाश से बांध दिया। ये देख कर नागनाथ मछेन्द्रनाथ से युद्ध करने लगे। युद्ध को भयावह होते देख दत्तात्रेय वहां पधारे और नागनाथ को बताया कि मत्स्यनाथ उनके बड़े गुरु भाई हैं। सत्य जान कर नागनाथ को बड़ा पश्चाताप हुआ और उन्होंने मछेन्द्रनाथ से क्षमा मांगी।
  9. चर्पटीनाथ
    चर्पटीनाथ:
    नवनाथों में अंतिम चर्पटीनाथ हैं जो गुरु गोरखनाथ के शिष्य थे। एक कथा के अनुसार भगवान शंकर ने जब ब्रह्मदेव को माता पार्वती को देखने के कारण श्राप दिया, तब उन्होंने अपने तेज को अपने पैरों से मसल दिया। उसके आधे भाग से ८८००० दिव्य ऋषि उत्पन्न हुए और आधा भाग होम नदी में गिर गया। किन्तु उनके तेज का कुछ भाग नदी किनारे उगे घास में फस गया और ९ महीने बाद उससे एक बालक का जन्म हुआ। घास या ईख में फंसे होने के कारण उनका नाम चर्पटीनाथ पड़ा। देवर्षि नारद की प्रेरणा से सत्यश्रवा नाम के एक व्यक्ति ने उन्हें गोद ले लिया। देवर्षि नारद ने बाद में दत्तात्रेय से कहा कि आपने जो नौ नाथों के समूह को बनाने का स्वप्न देखा था उसमें ८ सिद्ध तो सम्मलित हो गए हैं। अब नवें एवं अंतिम सिद्ध के रूप में आप चर्पटीनाथ को उस समूह में सम्मलित करें। इसपर दत्तात्रेय ने कहा कि बिना पश्चाताप कोई सिद्ध नहीं बन सकता अतः उन्हें चर्पटीनाथ के सिद्ध बनने तक प्रतीक्षा करनी होगी। ये सुनकर देवर्षि नारद रूप बदल कर चर्पटीनाथ के पास गए और उनके मार्गदर्शन में चर्पटीनाथ ने पश्चाताप किया और फिर ६४ विद्याओं को प्राप्त कर नवें सिद्ध का स्थान ग्रहण किया।
इन सभी नवनाथों के लिए एक स्मरण मन्त्र है:

आदि-नाथ ओ स्वरुप, उदय-नाथ उमा-महि-रुप। 
जल-रुपी ब्रह्मा सत-नाथ, रवि-रुप विष्णु सन्तोष-नाथ। 
हस्ती-रुप गनेश भतीजै, ताकु कन्थड-नाथ कही जै।
माया-रुपी मछिन्दर-नाथ, चन्द-रुप चौरङ्गी-नाथ। 
शेष-रुप अचम्भे-नाथ, वायु-रुपी गुरु गोरख-नाथ। 
घट-घट-व्यापक घट का राव, अमी महा-रस स्त्रवती खाव।
ॐ नमो नव-नाथ-गण, चौरासी गोमेश। 
आदि-नाथ आदि-पुरुष, शिव गोरख आदेश।
ॐ श्री नव-नाथाय नमः।।

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