महाराज विक्रमादित्य

महाराज विक्रमादित्य
भारतीय इतिहास में कुछ ऐसे महान सम्राट हुए हैं जिन्होंने अपनी वीरता और न्यायप्रियता से इतिहास पर अपनी एक अमिट छाप छोड़ी है। महाराज विक्रमादित्य उन्ही महान राजाओं में से एक हैं। हिन्दू धर्म में नव वर्ष का आरम्भ विक्रम सम्वत के आधार पर ही किया जाता है और ये विक्रम सम्वत महाराज विक्रमादित्य के नाम से ही आरम्भ हुआ। बच्चों में जो बेताल पच्चीसी एवं सिंहासन बत्तीसी कथाएं प्रसिद्ध हैं उसका सम्बन्ध भी महाराज विक्रमादित्य से ही है। यही नहीं उन्हें आधुनिक काल का अंतिम चक्रवर्ती सम्राट भी माना जाता है। आइये इनके विषय में कुछ जानते हैं।

उज्जैन के एक राजा थे महाराज गर्दभिल्ल। उन्हें गंधर्वसेन, गर्दभवेश एवं महेन्द्रादित्य के नाम से भी सम्बोधित किया गया है। उनकी पत्नी का नाम था सौम्यदर्शना। इन्हे भी वीरमति, मदनरेखा आदि नामों से जाना जाता है। दोनों की एक पुत्री हुई मैनावती। इसके अतिरिक्त उन्हें कई पुत्र प्राप्त हुए जिनमें से भृतहरि एवं शंख प्रमुख थे। इन्ही दोनों के सबसे छोटे पुत्र के रूप में ईसा से १०१ वर्ष पूर्व विक्रमादित्य जन्में। राजा गर्दभिल्ल अपने बड़े पुत्र भृतहरि को सम्राट बनाना चाहते थे किन्तु उन्हें राज-काज में कोई रूचि नहीं थी। वे अपने समय के महान दार्शनिक एवं कवि बनें। 

गर्दभिल्ल के शासन के समय उज्जैन चारों ओऱ से शकों द्वारा घिरा हुआ था और शकों के साथ उनका संघर्ष लम्बे समय से चला आ रहा था। अपने बड़े भाई द्वारा राज्य छोड़ने के बाद विक्रमादित्य सम्राट बनें और शासन सँभालते ही उन्होंने शकों पर हमला किया और उज्जैन और आस पास का इलाका अपने अधीन कर लिया। ऐसी मान्यता है कि ईसा से ५७ वर्ष पूर्व महाराज विक्रमादित्य ने शकों पर विजय प्राप्त की थी और तभी से विक्रम सम्वत का आरम्भ हुआ। हमारा हिन्दू पंचांग भी विक्रम सम्वत पर ही आधारित है। अंग्रेजी कैलेंडर में ५७ वर्ष जोड़ देने के बाद विक्रम सम्वत वर्ष प्राप्त होता है। अर्थात विक्रम सम्वत के अनुसार वर्तमान में २०२१ + ५७ = २०७८ वर्ष चल रहा है।

ऐसा वर्णित है कि अपने नाम से संवत्सर चलाने वाले सम्राट को संवत्सर प्रारंभ करने से पूर्व अपने राज्य के प्रत्येक व्यक्ति को ऋण मुक्त करना पड़ता था। महाराजा विक्रमादित्य ने भी विक्रम संवत प्रारम्भ करने से पूर्व देश के प्रत्येक व्यक्ति का संपूर्ण ऋण स्वयं चुकाया और समस्त समाज को ऋणमुक्त किया। एक सम्राट द्वारा अपने सभी नागरिकों को ऋणमुक्त करने का ऐसा उदाहरण और कोई नहीं मिलता।

महाराज विक्रमादित्य की पांच पत्नियाँ थी - मलयावती, मदनलेखा, पद्मिनी, चेल्ल एवं चिल्लमहादेवी। उन पांचों से उन्हें कई पुत्रियाँ एवं पुत्र प्राप्त हुए। उनकी प्रमुख पुत्रियाँ थी - प्रियंगुमञ्जरी (विद्योत्तमा) एवं वसुंधरा। उनके प्रमुख पुत्रों में विक्रमचरित्र (विक्रमसेन) एवं विनयपाल प्रमुख थे। महाराज विक्रमादित्य के राज्य में उनके भांजे अर्थात महाराज विक्रमादित्य की बड़ी बहन मैनावती के पुत्र गोपीचंद का भी बड़ा महत्त्व है। हालाँकि बाद में गोपीचंद ने संन्यास ग्रहण कर लिया। इसके अतिरिक्त सम्राट के परम मित्र भट्टमात्र, उनके पुरोहित त्रिविक्रम एवं वसुमित्र, उनके मंत्री भट्टि एवं बहिसिन्धु तथा उनके सेनापति विक्रमशाक्ति एवं चंद्र का भी प्रमुखता से उल्लेख किया गया है।

अपने जीवनकाल में महाराज विक्रमादित्य ने लगभग सम्पूर्ण आर्यावर्त पर राज किया और चक्रवर्ती सम्राट कहलाये। उनका प्रताप ऐसा था कि उनका नाम "विक्रमादित्य" एक सम्मानित पदवी बन गया और उनके बाद कुल १४ उत्कृष्ट सम्राटों ने "विक्रमादित्य" की पदवी ग्रहण की। विक्रमादित्य शब्द विक्रम एवं आदित्य के संधि से बना है जिसका अर्थ होता है सूर्य के समान पराक्रमी। तत्कालीन ग्रंथों में उनकी तुलना सूर्य से की गयी है और उन्हें "विक्रमार्क" भी कहा गया है। संस्कृत में अर्क का अर्थ भी सूर्य होता है।

महाराज विक्रमादित्य के विषय में दो कथा संकलन बहुत प्रसिद्ध हैं:
  1. बेताल पच्चीसी: इसकी रचना श्री बेताल भट्टराव ने की थी जो उनके मंत्री थे। हालाँकि ऐसी मान्यता है कि इन सभी कथाओं की रचना सबसे पहले राजा सातवाहन के मंत्री गुणाढ्य ने ईसा से ४९५ ईस्वी पूर्व की थी। उनके ग्रन्थ का नाम बृहत्कथा था जो बाद में "बड़कथा" के नाम से प्रसिद्ध हुई। इसकी विशेषता ये थी कि बृहत्कथा को गुणाढ्य ने "पैशाची भाषा" में लिखा था। कही-कही इसे प्राकृत भाषा भी कहा गया है। कहते हैं कि इसमें कुल ७००००० छंद थे किन्तु पैशाची भाषा का ज्ञान लुप्त हो जाने के कारण ये ग्रन्थ भी लुप्त हो गया। बाद में इसे कश्मीर के महाकवि सोमदेव भट्टराव ने संस्कृत भाषा में लिखा और इसे "कथासरित्सागर" का नाम दिया। महाराज विक्रमादित्य के काल में बेताल भट्टराव ने कथासरित्सागर को आधार मान कर ही "बेताल पञ्चविंशति" ग्रन्थ लिखा जो बेताल पच्चीसी के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इसमें महाराज विक्रमादित्य एक बेताल को पकड़ने का प्रयत्न करते हैं जो हर बार उन्हें एक ऐसी कथा सुनाता है जिसमें एक प्रश्न छिपा हुआ है और केवल एक न्यायप्रिय राजा ही उसका समाधान कर सकता है। राजा के सामने शर्त थी कि यदि वे कुछ बोलेंगे तो बेताल पुनः अपने वृक्ष पर लौट जाएगा और यदि उत्तर ज्ञात होते हुए भी नहीं बोलेंगे तो राजा के सर के १०० टुकड़े हो जाएंगे। इसमें महाराज विक्रमादित्य २४ कथाओं के गूढ़ प्रश्नों का उत्तर देते हैं। अंत में वो बेताल, जो वास्तव में भगवान शंकर का एक गण था उसे अंतिम कथा सुनाता है जिसे सुनकर महाराज निरुत्तर हो जाते हैं। इस प्रकार शिव गण रुपी वो बेताल राजा को एक पाखंडी तांत्रिक से (जिसने राजा से बेताल को पकड़ लाने को कहा था) बचा लेते हैं। बेताल पच्चीसी की सभी कथाएं और उसके गूढ़ अर्थ महाराज विक्रमादित्य की अद्भुत बुद्धि का परिचायक हैं। 
  2. सिंहासन बत्तीसी: सिंहासन द्वात्रिंशिका महाराज विक्रमादित्य की ३२ पुतलियों द्वारा सुनाई गयी कथाएं हैं। वे सभी ३२ पुतलियां महाराज विक्रमादित्य के सिंहासन में विराजमान रहती थी और उनके परामर्श अनुसार ही महाराज विक्रमादित्य न्याय किया करते थे। इसकी कथा तब आरम्भ होती है जब महाराज विक्रमादित्य से लगभग १००० वर्ष के बाद राजा भोज को खुदाई में विक्रमादित्य का सिंहासन मिला। राजा भोज भी अपने समय के महान राजा थे किन्तु जब वे उस सिंहासन पर बैठने को उद्धत हुए तो एक-एक कर उन सभी ३२ पुतलियों ने राजा भोज को ३२ कथा सुनाई जिसके उत्तर देने के बाद ही राजा भोज उस सिंहासन पर बैठ सकते थे। उन कथाओं को सुनकर राजा भोज निरुत्तर हो गए और तब उन्हें पता चला कि महाराज विक्रमादित्य कितने महान सम्राट थे। बाद में महाराज विक्रमादित्य को स्वयं से श्रेष्ट स्वीकार करने के बाद ही उन पुतलियों ने राजा भोज को उनकी विनम्रता से प्रसन्न होकर उस सिंहासन पर बैठने दिया।
इसके अतिरिक्त महाराज विक्रमादित्य एवं शनिदेव की कथा भी दक्षिण भारत में बहुत प्रसिद्ध हैं जिसे यक्षगण के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। इस कथा के अनुसार एक बार विद्वानों ने सूर्यपुत्र शनिदेव की महिमा के बारे में महाराज विक्रमादित्य को बताया किन्तु महाराज ने शनिदेव की महिमा नहीं मानी। तब विद्वानों ने उन्हें कहा कि उनकी कुंडली के १२वें घर में शनि का प्रवेश है किन्तु तब भी महाराज विक्रमादित्य शनिदेव की पूजा करने को तैयार नहीं हुए। तब क्रोधित होकर शनिदेव ने उन्हें चुनौती दी कि वे उनसे स्वयं की पूजा करवा लेंगे। महाराज विक्रमादित्य ने इस चुनौती को स्वीकार कर लिया।

तब दिन शनिदेव एक घोड़े के व्यापारी के रूप में उनके पास आये और उन्हें एक घोड़ा देते हुए कहा कि ये अश्व एक पल में आकाश में और दूसरे ही पल पृथ्वी पर होता है। तब राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ और वे उस अश्व पर बैठ गए। वो अश्व राजा को आकाश में ले गया और वहाँ से भूमि पर पटक दिया। वे घायल हो गए किन्तु सोचा चलो प्राण बचे। उस जंगल में कुछ डाकुओं ने उसका सब कुछ लूट लिया और उन्हें खूब प्रताड़ित किया। आगे जाने पर राजा एक नदी में गिर गए और बहुत दूर बहते हुए चले गए। थोड़ी दूर पर उसे एक कृपण व्यापारी ने कुछ खाने को दिया। राजा के भाग्य से उस दिन उस व्यापारी ने बहुत लाभ कमाया। उसने सोचा कि यदि वो राजा से अपनी पुत्री का विवाह कर दे तो वो जीवन भर लाभ कमा सकता है। 

ये सोच कर उसने अपनी पुत्री को राजा के कक्ष में भेजा। राजा उस समय सो रहे थे। उस व्यापारी की कन्या ने अपने सारे आभूषण खोल कर रखे और सो गयी। शनिदेव की माया से एक हंस उसके सारे आभूषणों को लेकर उड़ गया। सुबह जब वो जगी तो राजा विक्रमादित्य पर आभूषण चोरी करने का आरोप लगा दिया। व्यापारी ने उस नगर के राजा से इसकी शिकायत कर दी। राजा ने विक्रमादित्य को चोर मानते हुए उनके हाथ पैर कटवा दिए और रेगिस्तान में छोड़ दिया। रेगिस्तान में वे मरणासन्न अवस्था में थे तब एक दंपत्ति की दृष्टि उनपर पड़ी और वे उन्हें अपने घर ले गए। 

एक शाम अँधेरा होने पर विक्रमादित्य दीपक राग गाते हैं जिससे समस्त नगर के दिए जल उठते हैं। उस नगर की राजकुमारी ने ये प्रण किया था कि वो उस व्यक्ति से विवाह करेगी जो राज दीपक गा कर सारे नगर के दिए जला दे। राजा के अपाहिज होने के बाद भी वे उससे विवाह करने को तैयार हो जाती है। जब उस नगर के राजा ने ये देखा तो उन्होंने विक्रमादित्य को मारने के लिए अपनी तलवार उठाई। तब अंततः राजा शनिदेव की महिमा मान लेते हैं और उनसे अपनी रक्षा करने को कहते हैं। राजा के पराजय स्वीकार करने के बाद शनिदेव उन्हें स्वस्थ कर देते हैं और फिर राजा उनकी पूजा कर राजा एवं व्यापारी की पुत्रियों से विवाह कर वापस उज्जैन लौट आते हैं। 

राजा विक्रमादित्य ने ही सर्वप्रथम नवरत्नों की प्रथा आरम्भ की थी। उनके नवरत्न थे:
  1. धन्वन्तरि: महान वैद्य जिन्होंने औषधि विज्ञान का अविष्कार किया। 
  2. क्षणपक: वे महान गणितज्ञ और महाराज के कोषाध्यक्ष थे।
  3. अमर सिंह: ये शब्दों के अद्भुत जानकर थे। कहा जाता है कि सर्वप्रथम उन्होंने ही शब्दकोष की रचना की।
  4. शंकु: महान नीतिज्ञ एवं रस शास्त्र के ज्ञाता। 
  5. बेताल भट्ट: बेताल पच्चीसी के रचयिता, महान योद्धा जो सदैव महाराज के साथ ही रहे। 
  6. घटकर्पर: महान साहित्य रचनाकार। 
  7. वराहमिहिर: महान ज्योतिषाचार्य एवं अंक ज्योतिष के अधिष्ठाता। 
  8. वररूचि: महान संगीतज्ञ एवं व्याकरण के विद्वान। 
  9. कालिदास: महान कवि जिन्होंने कुमारसम्भव, मेघदूत, रघुवंश, अभिज्ञान शाकुंतलम जैसे कालजयी महाकाव्यों की रचना की।
महाराज विक्रमादित्य की भांति उनकी विशाल सेना भी प्रसिद्ध थी। ऐसा कहा जाता है कि उनके पास संसार की सबसे बड़ी सेना थी जिसमें ३ करोड़ पैदल सैनिक, १० करोड़ अश्व, २४६०० गज एवं ४ लाख नौकाएं थी। अपनी इसी विशाल सेना के बल पर उन्होंने समस्त आर्यावर्त पर राज किया। इतने शक्तिशाली होने के बाद भी वे सदैव अपनी प्रजा का ध्यान रखते थे और रात्रि में एक साधारण व्यक्ति की भांति प्रजा के मध्य भ्रमण करते थे ताकि उनके दुःख एवं तकलीफों को जान सकें। 

ईसा से ५७ ईस्वी पूर्व महाराज विक्रमादित्य ने ही विक्रम सम्वत की शुरुआत की और वर्ष को १२ मासों में बांटा। ये १२ मास हिन्दू पंचांग में विशेष स्थान रखते हैं और इन्ही के अनुसार हिन्दू नव वर्ष आरम्भ होता है। ये हैं:
  1. चैत्र: मार्च 
  2. वैशाख: अप्रैल 
  3. ज्येष्ठ: मई 
  4. आषाढ़: जून 
  5. श्रावण: जुलाई 
  6. भाद्रपद: अगस्त 
  7. अश्विन: सितम्बर 
  8. कार्तिक: अक्टूबर 
  9. मार्गशीर्ष: नवम्बर 
  10. पौष: दिसंबर 
  11. माघ: जनवरी 
  12. फाल्गुन: फरवरी
क्या आप जानते हैं कि आज हमारे पास जो हमारे धर्म ग्रन्थ लिखित रूप में उपलब्ध हैं उसमें महाराज विक्रमादित्य का बहुत बड़ा योगदान है। उन्होंने हमारे सभी धर्म ग्रंथों को लिखित रूप से ताड़पत्रों पर सुरक्षित किया। इसके अतिरिक्त महाकवि कालिदास ने विक्रमादित्य के अनुरोध पर ही हमारे पौराणिक चरित्रों को केंद्र में रख कर अनेक महाकाव्यों की रचना की।

इसके अतिरिक्त आज उज्जैन में जो महाकालेश्वर महादेव का मंदिर है वो भी महाराज विक्रमादित्य की ही देन है। महाकालेश्वर के अतिरिक्त भी उन्होंने पूरे देश में महादेव एवं भगवान विष्णु के अनेक मंदिर बनवाये। अयोध्या में जिस राम मंदिर को तोड़ कर बाबरी मस्जिद बनाई गयी वो मंदिर भी महाराज विक्रमादित्य ने ही बनवाया था। महाराज विक्रमादित्य ने कुल १०० वर्षों तक शासन किया। हमें गर्व है कि भारत भूमि पर ऐसे महान राजा ने जन्म लिया।

3 टिप्‍पणियां:

  1. सादर प्रणाम आपको कि आप इतने शोध के बाद हमारे धर्म, संस्कृति की रक्षा में संलग्न हैं एवम आने वाली पीढ़ियों को हमारे इतिहास की प्रामाणिकता से परिचित करवाते हैं।

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  2. बहुत सुंदर ,सटीक जानकारी।सादर प्रणाम

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  3. दुनिया p विक्रमादित्य जैसा न्यायप्रिय , शक्तिशाली , निडर , तेजस्वी , महान साम्राज्य के स्वामी . शान्ति प्रिय , सम्राटो के सम्राट , सम्पूर्ण विश्व विजेता. अपने प्राणो से ज्यादा प्रजा की सुरक्षा ऐसा नही कोई दुसरा होगा ।

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