होलिका दहन

सबसे पहले आप सभी को होलिका दहन की हार्दिक शुभकामनाएं। होलिका दहन सामान्यतः होली से एक दिन पहले मनाया जाने वाला पर्व है जिसे हर वर्ष फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। इसे छोटी होली या धुड़खेली भी कहते हैं। आज के दिन "गोधूलि" स्नान या होली का बड़ा महत्त्व है।

गोधूलि का अर्थ होता है गाय के द्वारा उड़ाए गए धूल से होली खेलना। श्रीकृष्ण के बारे में भी ये मान्यता थी कि उनका आकर्षक व्यक्तित्व "गोधूलि स्नान" के कारण ही है। गावों और कस्बों में आज धूल-मिट्टी से होली खेलने की प्रथा है। कई जगह लोग होलिका जलने के बाद उसकी राख से भी होली खेलते हैं। उसके अगले दिन यानि होली के दिन गीले एवं सूखे रंगों से होली खेली जाती है और स्वादिष्ट पकवानों, विशेषकर "पुए" का मजा लिया जाता है।

वैसे तो होलिका दहन के पीछे कई कथाएँ हैं लेकिन सर्वाधिक प्रसिद्ध, जिसपर आज के दिन का नाम रखा गया है, होलिका की कथा है। ये अत्यंत प्राचीन कथा है जिसका वर्णन सतयुग में भगवान विष्णु के नृसिंह अवतार से मिलता है। नृसिंह अवतार उन्होंने दैत्यराज हिरण्यकशिपु के वध के लिए लिया था। हिरण्यकशिपु ने मद में आकर पूरे राज्य में ये घोषणा करवा दी कि सब केवल उसी की पूजा करें। दूसरी ओर उसका अपना पुत्र प्रह्लाद भगवान विष्णु का अनन्य भक्त निकला। अपने ही पुत्र को अपने शत्रु का भक्त बने देख कर हिरण्यकशिपु ने उसकी हत्या करने का निर्णय किया।

लेकिन जो स्वयं नारायण की छाया में हो उसका कोई क्या बिगाड़ सकता है? अपने प्रत्येक प्रयासों के बाद भी वो प्रह्लाद को मारने में असफल रहा। जब उसके पास और कोई उपाय ना रहा तो उसने अपनी बहन होलिका से सहायता माँगी। होलिका को ये वरदान था कि अग्नि उसे जला नहीं सकती। अपने इस वरदान के बल पर होलिका प्रह्लाद को लेकर जलती हुई चिता पर बैठ गयी ताकि वो जल कर भस्म हो जाये किन्तु अपने भगवान विष्णु की कृपा से प्रह्लाद का बाल भी बाँका ना हुआ उलटे होलिका जल कर भस्म हो गयी।

एक अन्य कथा के अनुसार होलिका को परमपिता ब्रह्मा से एक वस्त्र मिला था जिसे ओढ़ने पर अग्नि का प्रभाव नहीं होता था। जैसे ही होलिका वो वस्त्र ओढ़ कर प्रह्लाद के साथ चिता पर बैठी, ईश्वर की कृपा से उसका वस्त्र उसके शरीर से निकल कर प्रह्लाद के शरीर पर लिपट गया जिससे प्रह्लाद बच गया और होलिका जल मरी। 

कई जगह होलिका के चरित्र को इतना हीं नहीं माना जाता। कहा जाता है कि वो स्वयं अपने भाई के कृत्यों से दुखी थी और अपने भतीजे प्रह्लाद के प्रेम के कारण उसने स्वयं अपना वस्त्र उसे ओढ़ा दिया। इस असफलता के पश्चात ही जब हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद को मरने की कोशिश की तो नृसिंहदेव ने अवतार लेकर उसका वध किया।

एक अन्य कथा हमें रामायण में मिलती है जिसे श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को सुनाया था। ये कथा श्रीराम के परदादा महाराज रघु के समय की है। उनके राज्य में ढोंढा नामक एक राक्षसी रहती थी जिसपर सारे अस्त्र-शस्त्र, तंत्र-मन्त्र, अग्नि-जल प्रभावहीन थे। राजा रघु ने महर्षि वशिष्ठ से इसका उपाय पूछा तो उन्होंने बताया कि इस राक्षसी को ये बल महादेव के आशीर्वाद से प्राप्त है किन्तु उन्होंने ये भी कहा था कि उसे केवल उन्मत्त बालकों से ही खतरा रहेगा। ये सुनकर राजा ने कई बालकों को ये बात बताई और उनकी प्रेरणा से आज के ही दिन उन बालकों ने ढोंढा राक्षसी को लकड़ियों से पीट-पीट कर जीवित ही जला दिया। तब से होलिका दहन की प्रथा चली आ रही है।
कहा जाता है कि आज के ही दिन भगवान शंकर ने कामदेव को अपने तीसरे नेत्र की अग्नि से भस्म कर दिया था। भगवान् ब्रम्हा की आज्ञा से कामदेव ने महादेव को देवी पार्वती की ओर आकर्षित करने हेतु उनपर अपना काम-बाण चला दिया था जिससे क्रोधित होकर महादेव ने कामदेव को भस्म कर दिया था। 

हरिवंश पुराण के अनुसार आज के ही दिन श्रीकृष्ण ने कंस की बहन पूतना का वध किया था। कंस जब बल से कृष्ण को मारने में असफल हो गया तो उसने छल का सहारा लिया। उसने अपनी बहन पूतना को ब्रज भेजा जहाँ पूतना ने यशोदा से कृष्ण को दूध पिलाने की प्रार्थना की। उसने अपने स्तनों पर कालकूट विष लगाया हुआ था किन्तु श्रीकृष्ण ने उसके स्तनों को अपने दाँतों के बीच दबा कर उसका वध कर दिया।

होलिका दहन के पीछे चाहे जितनी भी कथाएं हों किन्तु सभी कथा का सार यही निकलता है कि अच्छाई की हमेशा बुराई पर जीत होती है और होलिका दहन का वास्तविक उद्देश्य यही है। आज के दिन हमें भी होलिका दहन की अग्नि में अपने अंदर बसी हर बुराई को भस्म कर देना चाहिए ताकि हमारे पास केवल सकारात्मकता ही बची रहे। 

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