जब हनुमान ने अर्जुन का अभिमान भंग किया

महाभारत का युद्ध आरम्भ होने वाला था। दोनों ओर की सेनाएँ युद्ध की तैयारी में जोर शोर से जुटी थीं। श्रीकृष्ण के परामर्श से अर्जुन ने देवराज इंद्र से सारे दिव्यास्त्र प्राप्त कर लिए थे। उससे भी ऊपर उन्हें भगवान रूद्र से पाशुपतास्त्र भी मिल चुका था। इतने दिव्यास्त्र प्राप्त करने के कारण अर्जुन में थोड़ा अभिमान आ गया कि अब तो संसार का कोई भी योद्धा उन्हें परास्त नहीं कर सकता।

श्रीकृष्ण जानते थे कि इस अभिमान के साथ वो महाभारत का युद्ध नहीं जीत सकता क्यूँकि जिन दिव्यास्त्रों पर उसे गर्व था उनके ज्ञाता कुरु सेना में भी थे। भीष्म, द्रोण और कर्ण के पास सभी दिव्यास्त्रों का ज्ञान था। साथ ही कर्ण के पास दिव्य कवच और कुण्डल थे और भीष्म भी अवध्य थे। इसके अतिरिक्त अर्जुन का घमंड तोडना भी आवश्यक था। श्रीकृष्ण ने महाबली हनुमान के द्वारा सुदर्शन चक्र, गरुड़ और बलराम के गर्व का मर्दन किया था और इसीलिए उन्होंने अर्जुन के घमंड को तोड़ने के लिए भी हनुमान को ही चुना।

एक बार अर्जुन घूमते-घूमते एक सरोवर के निकट पहुँचे जहाँ उन्हें एक वानर दिखा। उस वानर का अप्रतिम तेज देख कर अर्जुन उनके पास पहुँचे और उन्हें प्रणाम करते हुए कहा कि "हे वानर! मैं पाण्डु पुत्र अर्जुन हूँ और गुरुओं में श्रेष्ठ द्रोण का शिष्य हूँ। आप जैसा तेज मैंने आजतक किसी में नहीं देखा। मुझे लगता है आप कोई साधारण वानर नहीं। मैंने महाबली हनुमान को तो आज तक नहीं देखा किन्तु आप देखने से उनके सामान ही बलशाली प्रतीत होते हैं। कृपया अपना परिचय दीजिये।" 

अर्जुन की नम्रता से प्रसन्न होकर उस वानर ने, जो महाबली हनुमान ही थे, कहा "हे अर्जुन! मैं ही हनुमान हूँ। अपने भ्राता भीम से मैंने तुम्हारे शौर्य के बारे में सुना था। तुम्हे अपने सम्मुख देख कर मुझे अत्यंत प्रसन्नता हो रही है। तुम भी भीम के सामान मेरे छोटे भाई ही हो।" 

अपने सामने महाबली हनुमान को पाकर अर्जुन ने उन्हें दंडवत प्रणाम किया और कहा "हे महाबली! ये तो मेरा सौभाग्य है कि मुझे आपसे मिलने का अवसर प्राप्त हुआ। हम एक महायुद्ध की तैयारी कर रहे हैं और मैंने देवराज इंद्र से सभी दिव्यास्त्र और आपके पिता महादेव से पाशुपतास्त्र भी प्राप्त कर लिया है इसी कारण मुझे विश्वास है कि ये युद्ध तो हम सहज ही जीत जाएँगे। आज आपके दर्शन के बाद मेरा विश्वास और दृढ़ हो गया है। किन्तु आपसे एक प्रश्न पूछना चाहता हूँ।"

अर्जुन की बात सुन कर हनुमान भी समझ गए कि इस समय अर्जुन गर्व के वेग में है किन्तु उन्होंने कुछ कहा नहीं। हनुमान की आज्ञा मिलने पर अर्जुन ने पूछा कि "हे महाबली! देवी सीता की खोज में जाते समय आप लोगों ने सेतु बनाने के लिए इतना परिश्रम क्यों किया। आपके नायक तो धनुर्धरों में श्रेष्ठ स्वयं श्रीराम थे। वे अपनी धनुर्विद्या से सागर पर बाणों का सेतु बना सकते थे।" 

अर्जुन को इस प्रकार कहते देख हनुमान ने हँसते हुए कहा "निःसंदेह मेरे प्रभु श्रीराम सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर थे किन्तु हे अर्जुन! वो सागर १०० योजन लम्बा था। और इसके अतिरिक्त बाणों का सेतु सुग्रीव, अंगद, नल, नील और असंख्य महावीर वानरों का भार नहीं संभाल सकता था।" इसपर अर्जुन ने कहा कि "अवश्य संभाल लेता। आप कदाचित धनुर्विद्या के विषय में उतना ज्ञान नहीं रखते किन्तु एक धनुर्धर होने के कारण मैं कह सकता हूँ कि बाणों का सेतु आप सब का भार संभाल लेता। मैं तो श्रीराम का एक अंश भी नहीं किन्तु अगर आप कहें तो मैं आपको इस सरोवर पर सेतु बांध कर दिखा सकता हूँ।"

अर्जुन को इस प्रकार बोलते देख हनुमान ने कहा कि "ठीक है। तुम सेतु बाँधो पर क्या तुम्हे लगता है कि वो मेरा भार संभाल सकेगा?" इसपर अर्जुन ने कहा "मैं अभी इस सरोवर पर बाणों का सेतु बांधता हूँ। अगर वो आपके भार से टूट गया तो मैं अग्नि समाधि ले लूँगा।" ऐसा करते हुए अर्जुन ने अपने मंत्रसिद्ध बाणों से उस सरोवर पर एक सेतु का निर्माण कर दिया और हनुमान को उसपर चढ़ने को कहा। 

हनुमान ने अर्जुन की इस अज्ञानता पर हँसते हुए अपने सामान्य रूप में ही उस सेतु पर अपना पग धरा। जैसे ही हनुमान का पग उस सेतु पर पड़ा, उनके अँगूठे के भार से ही वो सेतु टूट गया। ऐसा देखकर अर्जुन शर्म से पानी-पानी हो गया। उसका सारा घमंड एक क्षण में टूट गया। 

अर्जुन अग्नि समाधि के लिए तैयार हुआ तो हनुमान ने उसे रोकते हुए कहा कि "हे अर्जुन! विषाद त्यागो। इसमें लज्जा की कोई बात नहीं है। तुमने दूसरे के बल का कोई अनुमान ना लगाते हुए केवल अपने बल के आधार पर ऐसी शर्त लगा ली। तुमने तो एक निरीह बालक के सामान व्यवहार किया है अतः मै तुम्हे क्षमा करता हूँ। तुम्हे अपने प्राण त्यागने की आवश्यकता नहीं है।"

हनुमान से ऐसी सांत्वना पाकर अर्जुन को कुछ संतोष हुआ किन्तु उसने फिर कहा "हे महाबली! मैं एक बार फिर प्रयास करना चाहता हूँ।" अर्जुन को ऐसा कहते देख हनुमान बोले "हे अर्जुन! बालक के समान बातें मत कर। जो व्यक्ति अपनी गलती से शिक्षा नहीं लेता उसका कभी कल्याण नहीं होता। अपने सेतु का हाल देख कर भी तू फिर वही गलती करना चाहता है? मैंने तुझे बालक समझ कर एक बार क्षमा कर दिया पर अब पुनः वही हठ मत कर।" 

इसपर अर्जुन ने कहा कि "हे महावीर, इस बार मैं सेतु दिव्यास्त्रों से बनाऊँगा जो पिछले सेतु से सहस्त्रों गुणा अधिक मजबूत होगा और आपका भार सह लेगा। और अगर इस बार भी सेतु टूट गया तो मैं गांडीव की शपथ लेकर कहता हूँ कि मैं अवश्य ही अग्नि समाधि ले लूँगा।" ऐसा कह कर अर्जुन ने अपने समस्त्र दिव्यास्त्रों से एक और सेतु का निर्माण किया।"

हनुमान बड़े धर्मसंकट में पड़ गए। वे अर्जुन के प्राण नहीं लेना चाहते थे किन्तु उसका अभिमान तोडना भी आवश्यक था। उन्होंने श्रीराम का नाम लिया और अपना एक पग सेतु पर रखा। उनके पग धरते ही सेतु डगमगाने लगा। अर्जुन को लगा कि अब उसके प्राण नहीं बचेंगे। हनुमान ने अर्जुन से कहा "पुत्र अभी भी समय है। तुम अपनी गलती मान लो तो मैं नीचे उतर जाता हूँ।" किन्तु अर्जुन ने सोचा कि इस अपमान से तो मर जाना अच्छा है इसीलिए उन्होंने हनुमान को रोका नहीं। ऐसा देख कर हनुमान ने अपना दूसरा पग भी सेतु पर रखा। सेतु इतनी जोर से डगमगाया कि अभी टूट जाएगा किन्तु अचानक वो सेतु पाषाण की तरह स्थिर हो गया। 

हनुमान को बड़ा आश्चर्य हुआ। वे धीरे-धीरे अपना भार बढ़ाने लगे किन्तु सेतु उसी प्रकार अडिग रहा। अंत में कोई और उपाय ना देख कर हनुमान ने अपना वो विराट स्वरूप धरा जो उन्होंने सागर को पार करने के समय धरा था। वो रूप इतना विशाल था कि अर्जुन को उसका दूसरा छोर नहीं दिख रहा था। किन्तु आश्चर्य, उनके विराट स्वरुप धरने के बाद भी सेतु शिथिल रहा। 

ऐसा देख कर हनुमान और अर्जुन के आश्चर्य का ठिकाना ना रहा। अर्जुन को विश्वास ना हुआ कि हनुमान के इस स्वरुप को भी उसके बाण कैसे संभाले हुए हैं। उधर हनुमान क्रोध में आ गए और सेतु पर अपने सर्वाधिक विशाल स्वरुप में पूरे बल के साथ कूदने लगे। पहली बार कूदने पर सेतु में थोड़ा स्पंदन हुआ। दूसरी बार कूदने पर सेतु डगमगाने लगा किन्तु टुटा नहीं। ये देख कर हनुमान फिर एक बार अपनी पूरी शक्ति से कूड़े। इस बार भी सेतु टूटा नहीं किन्तु सरोवर के पानी का रंग लाल हो गया। 

हनुमान अब समझ गए कि अवश्य ही कोई दैवीय शक्ति है जो सेतु को टूटने नहीं दे रही। वे तुरंत सरोवर में उतरे और उन्होंने देखा कि एक विशालकाय कच्छप ने सेतु को संभाला हुआ है। वे कुछ समझ पाते उससे पहले उन्हें वहाँ श्रीराम के दर्शन हुए। उन्होंने हनुमान से कहा कि ऊपर जाएँ और अपनी शंका का समाधान कर लें। जब वे ऊपर पहुँचे तो उन्होंने श्रीकृष्ण को देखा। 

कृष्ण ने अर्जुन से कहा कि "हे पार्थ! मेरी ही प्रेरणा से हनुमान तुम्हारा गर्व चूर करने यहाँ आये थे। किसी भी दिव्यास्त्र का सेतु महाबली हनुमान के विराट स्वरुप का भार नहीं संभाल सकता। किन्तु अगर सेतु टूट जाता तो तुम्हे अपने प्राण त्यागने पड़ते इसी कारण स्वयं नारायण ने कच्छप अवतार लेकर इस सेतु को संभाला हुआ था। यदि ऐसा ना होता तो तुम्हारे प्राण बचना असंभव था।" ऐसा सुनकर हनुमान बड़े व्यथित हो गए। उन्होंने करुण स्वर में कहा "इस संसार में मुझ जैसा पापी कौन होगा जिसके कारण उसके स्वामी का रक्त निकला। अगर मुझे पता होता कि मेरे कारण नारायण को ऐसा कष्ट झेलना होगा तो मैं स्वयं अपने प्राण त्याग देता।"

इसपर श्रीकृष्ण ने हनुमान को गले से लगा लिया और कहा कि "हे महाबली। इस संसार में आपसे शक्तिशाली और कौन है? आपके बल के कारण ही तो श्रीराम ने रावण सहित समस्त राक्षसों का संहार किया था। आज ये सिद्ध हो गया कि आप वास्तव में रूद्र के अंश है अन्यथा किसमे इतना बल है कि स्वयं भगवान विष्णु के अंश का रक्त निकाल सके? भगवान विष्णु के जिस कच्छप रूप ने समुद्र मंथन के समय बिना किसी श्रम के बात ही बात में मेरु पर्वत का भार संभाल लिया था, उससे अधिक श्रम उन्हें आज आपके विराट स्वरुप को सँभालने में करना पड़ा। ऐसी शक्ति तो केवल महादेव के अंश में ही हो सकती है।"

ऐसा कह कर उन्होंने अर्जुन से कहा कि वे हनुमान से महाभारत युद्ध के लिए सहायता माँगे। इसपर हनुमान ने कहा "हे वासुदेव! युद्ध से तो मैंने त्रेतायुग में ही सन्यास ले लिया था किन्तु आपकी इच्छा है इसी कारण मैं युद्ध में तो भाग नहीं लूँगा किन्तु अर्जुन के रथ की ध्वजा पर उपस्थित रहूँगा।" ऐसा कह कर हनुमान ने दोनों को आशीर्वाद देकर वहाँ से विदा किया। अपने वचन के अनुसार महाभारत के युद्ध में महाबली हनुमान अर्जुन के रथ की ध्वजा पर विराजमान रहे और अर्जुन की रक्षा में श्रीकृष्ण के साथ-साथ बड़ी भूमिका निभाई। 

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