वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड (सम्पूर्ण) - मूल श्लोक और हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड (सम्पूर्ण) - मूल श्लोक और हिंदी अर्थ सहित
सर्ग १ 

ॐ तपःस्वाध्यायनिरतं तपस्वी वाग्विदां वरम्।
नारदं परिपप्रच्छ वाल्मीकिर्मुनिपुंगवम्॥१॥

तपस्वी वाल्मीकिजी ने तपस्या और स्वाध्याय में लगे हुए विद्वानों में श्रेष्ठ मुनिवर नारदजी से पूछा-

को न्वस्मिन् साम्प्रतं लोके गुणवान् कश्च वीर्यवान्।
धर्मज्ञश्च कृतज्ञश्च सत्यवाक्यो दृढव्रतः॥२॥

(मुने!) इस समय इस संसारमें गुणवान्, वीर्यवान्, धर्मज्ञ, उपकार माननेवाला, सत्यवक्ता और दृढ़प्रतिज्ञ कौन है?

चारित्रेण च को युक्तः सर्वभूतेषु को हितः।
विद्वान् कः कः समर्थश्च कश्चैकप्रियदर्शनः॥३॥

सदाचारसे युक्त, समस्त प्राणियोंका हितसाधक, विद्वान्, सामर्थ्यशाली और एकमात्र प्रियदर्शन (सुन्दर) पुरुष कौन है?

आत्मवान् को जितक्रोधो द्युतिमान् कोऽनसूयकः।
कस्य बिभ्यति देवाश्च जातरोषस्य संयुगे॥४॥

मनपर अधिकार रखनेवाला, क्रोधको जीतनेवाला, कान्तिमान् और किसीकी भी निन्दा नहीं करनेवाला कौन है? तथा संग्राममें कुपित होनेपर किससे देवता भी डरते हैं?

एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं परं कौतूहलं हि मे।
महर्षे त्वं समर्थोऽसि ज्ञातुमेवंविधं नरम्॥५॥

महर्षे! मैं यह सुनना चाहता हूँ, इसके लिये मुझे बड़ी उत्सुकता है और आप ऐसे पुरुषको जानने में समर्थ हैं’।

श्रुत्वा चैतत्रिलोकज्ञो वाल्मीकेर्नारदो वचः।
श्रूयतामिति चामन्त्र्य प्रहृष्टो वाक्यमब्रवीत्॥६॥

महर्षि वाल्मीकिके इस वचनको सुनकर तीनोंलोकोंका ज्ञान रखनेवाले नारदजीने उन्हें सम्बोधित करके कहा, अच्छा सुनिये और फिर प्रसन्नतापूर्वक बोले-

बहवो दुर्लभाश्चैव ये त्वया कीर्तिता गुणाः।
मुने वक्ष्याम्यहं बुद्ध्वा तैर्युक्तः श्रूयतां नरः॥७॥

‘मुने! आपने जिन बहुत-से दुर्लभ गुणोंका वर्णन किया है, उनसे युक्त पुरुषको मैं विचार करके कहता हूँ, आप सुनें।

इक्ष्वाकुवंशप्रभवो रामो नाम जनैः श्रुतः।
नियतात्मा महावीर्यो द्युतिमान् धृतिमान् वशी॥८॥

‘इक्ष्वाकुके वंशमें उत्पन्न हुए एक ऐसे पुरुष हैं, जो लोगोंमें राम-नामसे विख्यात हैं, वे ही मनको वशमें रखनेवाले, महाबलवान्, कान्तिमान्, धैर्यवान् और जितेन्द्रिय हैं।

बुद्धिमान् नीतिमान् वाग्मी श्रीमान् शत्रुनिबर्हणः।
विपुलांसो महाबाहुः कम्बुग्रीवो महाहनुः॥९॥

वे बुद्धिमान्, नीतिज्ञ, वक्ता, शोभायमान तथा शत्रुसंहारक हैं। उनके कंधे मोटे और भुजाएँ बड़ीबड़ी हैं। ग्रीवा शङ्खके समान और ठोढ़ी मांसल (पुष्ट) है।

महोरस्को महेष्वासो गूढजत्रुररिन्दमः।
आजानुबाहुः सुशिराः सुललाटः सुविक्रमः॥१०॥

‘उनकी छाती चौड़ी तथा धनुष बड़ा है, गलेके नीचेकी हड्डी (हँसली) मांससे छिपी हुई है। वे शत्रुओंका दमन करनेवाले हैं। भुजाएँ घुटनेतक लम्बी हैं, मस्तक सुन्दर है, ललाट भव्य और चाल मनोहर है।

समः समविभक्तांगः स्निग्धवर्णः प्रतापवान्।
पीनवक्षा विशालाक्षो लक्ष्मीवान् शुभलक्षणः॥११॥

‘उनका शरीर अधिक ऊँचा या नाटा न होकर मध्यम और सुडौल है, देहका रंग चिकना है। वे बड़े प्रतापी हैं। उनका वक्षःस्थल भरा हुआ है, आँखें बड़ी-बड़ी हैं। वे शोभायमान और शुभलक्षणोंसे सम्पन्न हैं।

धर्मज्ञः सत्यसंधश्च प्रजानां च हिते रतः।
यशस्वी ज्ञानसम्पन्नः शुचिर्वश्यः समाधिमान्॥१२॥

‘धर्मके ज्ञाता, सत्यप्रतिज्ञ तथा प्रजाके हित-साधनमें लगे रहनेवाले हैं। वे यशस्वी, ज्ञानी, पवित्र, जितेन्द्रिय और मनको एकाग्र रखनेवाले हैं।

प्रजापतिसमः श्रीमान् धाता रिपुनिषूदनः।
रक्षिता जीवलोकस्य धर्मस्य परिरक्षिता॥१३॥

‘प्रजापतिके समान पालक, श्रीसम्पन्न, वैरिविध्वंसक और जीवों तथा धर्मके रक्षक हैं।

रक्षिता स्वस्य धर्मस्य स्वजनस्य च रक्षिता।
वेदवेदांगतत्त्वज्ञो धनुर्वेदे च निष्ठितः॥१४॥

‘स्वधर्म और स्वजनोंके पालक, वेद-वेदांगोंके तत्त्ववेत्ता तथा धनुर्वेदमें प्रवीण हैं।

सर्वशास्त्रार्थतत्त्वज्ञः स्मृतिमान् प्रतिभानवान्।
सर्वलोकप्रियः साधुरदीनात्मा विचक्षणः॥१५॥

‘वे अखिल शास्त्रोंके तत्त्वज्ञ, स्मरणशक्तिसे युक्त और प्रतिभासम्पन्न हैं। अच्छे विचार और उदार हृदयवाले वे श्रीरामचन्द्रजी बातचीत करनेमें चतुर तथा समस्त लोकोंके प्रिय हैं।

सर्वदाभिगतः सद्भिः समुद्र इव सिन्धुभिः।
आर्यः सर्वसमश्चैव सदैव प्रियदर्शनः॥१६॥

‘जैसे नदियाँ समुद्रमें मिलती हैं, उसी प्रकार सदा रामसे साधु पुरुष मिलते रहते हैं। वे आर्य एवं सबमें समान भाव रखनेवाले हैं, उनका दर्शन सदा ही प्रिय मालूम होता है।

स च सर्वगुणोपेतः कौसल्यानन्दवर्धनः।
समुद्र इव गाम्भीर्ये धैर्येण हिमवानिव॥१७॥

‘सम्पूर्ण गुणोंसे युक्त वे श्रीरामचन्द्रजी अपनी माता कौसल्याके आनन्द बढ़ानेवाले हैं, गम्भीरतामें समुद्र और धैर्यमें हिमालयके समान हैं।

विष्णुना सदृशो वीर्ये सोमवत्प्रियदर्शनः।
कालाग्निसदृशः क्रोधे क्षमया पृथिवीसमः॥१८॥

‘वे विष्णुभगवान् के समान बलवान् हैं। उनका दर्शन चन्द्रमाके समान मनोहर प्रतीत होता है। वे क्रोधमें कालाग्निके समान और क्षमामें पृथिवीके सदृश हैं। 

धनदेन समस्त्यागे सत्ये धर्म इवापरः।
तमेवंगुणसम्पन्नं रामं सत्यपराक्रमम्॥१९॥

त्यागमें कुबेर और सत्यमें द्वितीय धर्मराजके समान हैं। श्रीराम ऐसे सद्गुणों और सच्चे पराक्रम से संपन्न थे। 

ज्येष्ठं ज्येष्ठगुणैर्युक्तं प्रियं दशरथः सुतम्।
प्रकृतीनां हितैर्युक्तं प्रकृतिप्रियकाम्यया॥२०॥

‘इस प्रकार उत्तम गुणोंसे युक्त और सत्यपराक्रमवाले सद्गुणशाली अपने प्रियतम ज्येष्ठ पुत्रको, जो प्रजाके हितमें संलग्न रहनेवाले थे। 

यौवराज्येन संयोक्तुमैच्छत् प्रीत्या महीपतिः।
तस्याभिषेकसम्भारान् दृष्ट्वा भार्याथ कैकयी॥२१॥

प्रजावर्गका हित करनेकी इच्छासे राजा दशरथने प्रेमवश युवराजपदपर अभिषिक्त करना चाहा। इसकी तैयारी उनकी पत्नी कैकेयी ने देखी। 

पूर्वं दत्तवरा देवी वरमेनमयाचत।
विवासनं च रामस्य भरतस्याभिषेचनम्॥ २२॥

‘तदनन्तर रामके राज्याभिषेककी तैयारियाँ देखकर रानी कैकेयीने, जिसे पहले ही वर दिया जा चुका था, राजासे यह वर माँगा कि रामका निर्वासन (वनवास) और भरतका राज्याभिषेक हो।

स सत्यवचनाद् राजा धर्मपाशेन संयतः।
विवासयामास सुतं रामं दशरथः प्रियम्॥२३॥

‘राजा दशरथने सत्य वचनके कारण धर्म-बन्धनमें बँधकर प्यारे पुत्र रामको वनवास दे दिया।

स जगाम वनं वीरः प्रतिज्ञामनुपालयन्।
पितुर्वचननिर्देशात् कैकेय्याः प्रियकारणात्॥२४॥

‘कैकेयीका प्रिय करनेके लिये पिताकी आज्ञाके अनुसार उनकी प्रतिज्ञाका पालन करते हुए वीर रामचन्द्र वनको चले।

तं व्रजन्तं प्रियो भ्राता लक्ष्मणोऽनुजगाम ह।
स्नेहाद् विनयसम्पन्नः सुमित्रानन्दवर्धनः॥ २५॥

‘तब सुमित्राके आनन्द बढ़ानेवाले विनयशील लक्ष्मणजीने भी, जो अपने बड़े भाई रामको बहुत ही प्रिय थे। 

भ्रातरं दयितो भ्रातुः सौभ्रात्रमनुदर्शयन्।
रामस्य दयिता भार्या नित्यं प्राणसमा हिता॥२६॥

अपने सुबन्धुत्वका परिचय देते हुए स्नेहवश वनको जानेवाले बन्धुवर रामका अनुसरण किया। श्रीराम पत्नी (सीता) भी उनका ही अनुसरण करने वाली थी। 

जनकस्य कुले जाता देवमायेव निर्मिता।
सर्वलक्षणसम्पन्ना नारीणामुत्तमा वधूः ॥२७॥

‘और जनकके कुलमें उत्पन्न सीता भी, जो अवतीर्ण हुई देवमायाकी भाँति सुन्दरी, समस्त शुभलक्षणोंसे विभूषित, स्त्रियोंमें उत्तम, रामके प्राणोंके समान प्रियतमा पत्नी तथा सदा ही पतिका हित चाहनेवाली थी, रामचन्द्रजीके पीछे चली। 

सीताप्यनुगता रामं शशिनं रोहिणी यथा।
पौरैरनुगतो दूरं पित्रा दशरथेन च॥२८॥

जैसे चन्द्रमाके पीछे रोहिणी चलती है। उस समय पिता दशरथ (ने अपना सारथि भेजकर) और पुरवासी मनुष्योंने (स्वयं साथ जाकर) दूरतक उनका अनुसरण किया।

श्रृंगवेरपुरे सूतं गंगाकुले व्यसर्जयत्।
गुहमासाद्य धर्मात्मा निषादाधिपतिं प्रियम्।

‘फिर शृंगवेरपुरमें गंगा-तटपर अपने प्रिय निषादराज गुहके पास पहुँचकर धर्मात्मा श्रीरामचन्द्रजीने सारथिको (अयोध्याके लिये) विदा कर दिया।

गुहेन सहितो रामो लक्ष्मणेन च सीतया।
ते वनेन वनं गत्वा नदीस्तीक़ बहूदकाः॥३०॥

निषादराज गुह, लक्ष्मण और सीताके साथ राम, ये चारों एक वनसे दूसरे वनमें गये। मार्गमें बहुत जलोंवाली अनेकों नदियोंको पार करके-

चित्रकूटमनुप्राप्य भरद्वाजस्य शासनात्।
रम्यमावसथं कृत्वा रममाणा वने त्रयः॥३१॥

(भरद्वाजके आश्रमपर पहुँचे और गुहको वहीं छोड़) भरद्वाज मुनिकी आज्ञासे चित्रकूटपर्वतपर गये। वहाँ वे तीनों देवता और गन्धर्वोके समान वनमें नाना प्रकारकी लीलाएँ करते हुए-

देवगन्धर्वसंकाशास्तत्र ते न्यवसन् सुखम्।
चित्रकूटं गते रामे पुत्रशोकातुरस्तदा ॥३२॥

एक रमणीय पर्णकुटी बनाकर उसमें सानन्द रहने लगे। रामके चित्रकूट चले जानेपर पुत्रशोकसे पीडित राजा दशरथ उस समय पुत्रके लिये-

राजा दशरथः स्वर्गं जगाम विलपन् सुतम्।
गते तु तस्मिन् भरतो वसिष्ठप्रमुखैर्द्विजैः॥३३॥

(उसका नाम लेलेकर) विलाप करते हुए स्वर्गगामी हुए। उनके स्वर्गगमनके पश्चात् वसिष्ठ आदि प्रमुख ब्राह्मणोंद्वारा राज्यसंचालनके लिये नियुक्त किये जानेपर भी महाबलशाली वीर भरतने-

नियुज्यमानो राज्याय नैच्छद् राज्यं महाबलः।
स जगाम वनं वीरो रामपादप्रसादकः॥ ३४॥

राज्यकी कामना न करके पूज्य रामको प्रसन्न करनेके लिये वनको ही प्रस्थान किया।

गत्वा तु स महात्मानं रामं सत्यपराक्रमम्।
अयाचद् भ्रातरं राममार्यभावपुरस्कृतः॥३५॥

‘वहाँ पहुँचकर सद्भावनायुक्त भरतजीने अपने बड़े भाई सत्यपराक्रमी महात्मा रामसे याचना की और यों कहा-धर्मज्ञ! आप ही राजा हों।

त्वमेव राजा धर्मज्ञ इति रामं वचोऽब्रवीत्।
रामोऽपि परमोदारः सुमुखः सुमहायशाः॥३६॥

परंतु महान् यशस्वी परम उदार प्रसन्नमुख महाबली रामने भी पिताके आदेशका पालन करते हुए राज्यकी अभिलाषा न की और-

न चैच्छत् पितुरादेशाद् राज्यं रामो महाबलः।
पादुके चास्य राज्याय न्यासं दत्त्वा पुनः पुनः॥३७॥

‘उन भरताग्रजने राज्यके लिये न्यास (चिह्न) रूपमें अपनी खड़ाऊँ भरतको देकर उन्हें बार-बार आग्रह करके लौटा दिया।

निवर्तयामास ततो भरतं भरताग्रजः।
स काममनवाप्यैव रामपादावुपस्पृशन्॥ ३८॥

‘अपनी अपूर्ण इच्छाको लेकर ही भरतने रामके चरणोंका स्पर्श किया और रामके आगमनकी प्रतीक्षा करते हुए- 

नन्दिग्रामेऽकरोद् राज्यं रामागमनकांक्षया।
गते तु भरते श्रीमान् सत्यसंधो जितेन्द्रियः॥३९॥

वे नन्दिग्राममें राज्य करने लगे। भरतके लौट जानेपर सत्यप्रतिज्ञ जितेन्द्रिय श्रीमान्-

रामस्तु पुनरालक्ष्य नागरस्य जनस्य च।
तत्रागमनमेकाग्रो दण्डकान् प्रविवेश ह॥४०॥

‘ रामने वहाँपर पुनः नागरिक जनोंका आना-जाना देखकर उनसे बचनेके लिये) एकाग्रभावसे दण्डकारण्यमें प्रवेश किया।

प्रविश्य तु महारण्यं रामो राजीवलोचनः।
विराधं राक्षसं हत्वा शरभंगं ददर्श ह॥४१॥

‘उस महान् वनमें पहुँचनेपर कमललोचन रामने विराध नामक राक्षसको मारकर-

सुतीक्ष्णं चाप्यगस्त्यं च अगस्त्यभ्रातरं तथा।
अगस्त्यवचनाच्चैव जग्राहैन्द्रं शरासनम्॥४२॥

शरभंग, सुतीक्ष्ण, अगस्त्य मुनि तथा अगस्त्यके भ्राताका दर्शन किया। फिर अगस्त्य मुनिके कहनेसे उन्होंने ऐन्द्र धनुष-

खड्गं च परमप्रीतस्तूणी चाक्षयसायकौ।
वसतस्तस्य रामस्य वने वनचरैः सह ॥४३॥

एक खड्ग और दो तूणीर, जिनमें बाण कभी नहीं घटते थे, प्रसन्नतापूर्वक ग्रहण किये।

ऋषयोऽभ्यागमन् सर्वे वधायासुररक्षसाम्।
स तेषां प्रतिशुश्राव राक्षसानां तदा वने॥४४॥

‘एक दिन वनमें वनचरोंके साथ रहनेवाले श्रीरामके पास असुर तथा राक्षसोंके वधके लिये निवेदन करनेको वहाँके सभी ऋषि आये।

प्रतिज्ञातश्च रामेण वधः संयति रक्षसाम्।
ऋषीणामग्निकल्पानां दण्डकारण्यवासिनाम्॥४५॥

‘उस समय वनमें श्रीरामने दण्डकारण्यवासी अग्निके समान तेजस्वी उन ऋषियोंको राक्षसोंके मारनेका वचन दिया और संग्राममें उनके वधकी प्रतिज्ञा की।

तेन तत्रैव वसता जनस्थाननिवासिनी।
विरूपिता शूर्पणखा राक्षसी कामरूपिणी॥४६॥

‘वहाँ ही रहते हुए श्रीरामने इच्छानुसार रूप बनानेवाली जनस्थाननिवासिनी शूर्पणखा नामकी राक्षसीको (लक्ष्मणके द्वारा उसकी नाक कटाकर) कुरूप कर दिया।

ततः शूर्पणखावाक्यादुधुक्तान् सर्वराक्षसान्।
खरं त्रिशिरसं चैव दूषणं चैव राक्षसम्॥४७॥

‘तब शूर्पणखाके कहनेसे चढ़ाई करनेवाले सभी राक्षसोंको और खर, दूषण, त्रिशिरा तथा उनके पृष्ठपोषक असुरोंको-

निजघान रणे रामस्तेषां चैव पदानुगान्।
वने तस्मिन् निवसता जनस्थाननिवासिनाम्॥४८॥

रामने युद्ध में मार डाला। उस वनमें निवास करते हुए उन्होंने जनस्थान में निवास करने वाले-

रक्षसां निहतान्यासन् सहस्राणि चतुर्दश।
ततो ज्ञातिवधं श्रुत्वा रावणः क्रोधमूर्च्छितः॥४९॥

चौदह हजार राक्षसोंका वध किया। तदनन्तर अपने कुटुम्बका वध सुनकर रावण नामका राक्षस क्रोधसे मूर्च्छित हो उठा और-

सहायं वरयामास मारीचं नाम राक्षसम्।
वार्यमाणः सुबहुशो मारीचेन स रावणः॥५०॥

उसने मारीच राक्षससे सहायता माँगी। यद्यपि मारीचने यह कहकर कि ‘रावण! 

न विरोधो बलवता क्षमो रावण तेन ते।
अनादृत्य तु तद्वाक्यं रावणः कालचोदितः॥५१॥

‘उस बलवान् रामके साथ तुम्हारा विरोध ठीक नहीं है’ रावणको अनेकों बार मना किया; परंतु कालकी प्रेरणासे रावणने मारीचके वाक्योंको टाल दिया और-

जगाम सहमारीचस्तस्याश्रमपदं तदा।
तेन मायाविना दूरमपवाह्य नृपात्मजौ॥५२॥

उसके साथ ही रामके आश्रमपर गया। मायावी मारीचके द्वारा उसने दोनों राजकुमारोंको आश्रमसे दूर हटा दिया और-

जहार भार्यां रामस्य गृधं हत्वा जटायुषम्।
गृधं च निहतं दृष्ट्वा हृतां श्रुत्वा च मैथिलीम्॥५३॥

स्वयं रामकी पत्नी सीताका अपहरण कर लिया। (जाते समय मार्गमें विघ्न डालनेके कारण) उसने जटायु नामक गृध्रका वध किया।

राघवः शोकसंतप्तो विललापाकुलेन्द्रियः।
ततस्तेनैव शोकेन गृधं दग्ध्वा जटायुषम्॥५४॥

‘तत्पश्चात् जटायुको आहत देखकर और (उसीके मुखसे) सीताका हरण सुनकर रामचन्द्रजी शोकसे पीड़ित होकर विलाप करने लगे, उस समय उनकी सभी इन्द्रियाँ व्याकुल हो उठी थीं।

मार्गमाणो वने सीतां राक्षसं संददर्श ह।।
कबन्धं नाम रूपेण विकृतं घोरदर्शनम्॥५५॥

फिर उसी शोकमें पड़े हुए उन्होंने जटायु गृध्रका अग्निसंस्कार किया और वनमें सीताको ढूँढ़ते हुए कबन्ध नामक राक्षसको देखा, जो शरीरसे विकृत तथा भयंकर दीखनेवाला था।

तं निहत्य महाबाहुर्ददाह स्वर्गतश्च सः।
स चास्य कथयामास शबरी धर्मचारिणीम्॥५६॥

महाबाहु रामने उसे मारकर उसका भी दाह किया, अतः वह स्वर्गको चला गया।

श्रमणां धर्मनिपुणामभिगच्छेति राघव।
सोऽभ्यगच्छन्महातेजाः शबरीं शत्रुसूदनः॥५७॥

‘जाते समय उसने रामसे धर्मचारिणी शबरीका पता बतलाया और कहा- ’रघुनन्दन! आप धर्मपरायणा संन्यासिनी शबरीके आश्रमपर जाइये’।

शबर्या पूजितः सम्यग् रामो दशरथात्मजः।
पम्पातीरे हनुमता संगतो वानरेण ह॥५८॥

‘शत्रुहन्ता महान् तेजस्वी दशरथकुमार राम शबरीके यहाँ गये, उसने इनका भलीभाँति पूजन किया। फिर वे पम्पासरके तटपर हनुमान् नामक वानरसे मिले-

हनुमद्वचनाच्चैव सुग्रीवेण समागतः।
सुग्रीवाय च तत्सर्वं शंसद्रामो महाबलः॥५९॥

और उन्हींके कहनेसे सुग्रीवसे भी मेल किया।

आदितस्तद् यथावृत्तं सीतायाश्च विशेषतः।
सुग्रीवश्चापि तत्सर्वं श्रुत्वा रामस्य वानरः॥६०॥

‘तदनन्तर महाबलवान् रामने आदिसे ही लेकर जो कुछ हुआ था वह और विशेषतः सीताका वृत्तान्त सुग्रीवसे कह सुनाया।

चकार सख्यं रामेण प्रीतश्चैवाग्निसाक्षिकम्।
ततो वानरराजेन वैरानुकथनं प्रति॥६१॥

‘वानर सुग्रीवने रामकी सारी बातें सुनकर उनके साथ प्रेमपूर्वक अग्निको साक्षी बनाकर मित्रता की। 

रामायावेदितं सर्वं प्रणयाद् दुःखितेन च।
प्रतिज्ञातं च रामेण तदा वालिवधं प्रति॥६२॥

उसके बाद वानरराज सुग्रीवने स्नेहवश वालीके साथ वैर होनेकी सारी बातें रामसे दुःखी होकर बतलायीं। उस समय रामने वालीको मारनेकी प्रतिज्ञा की। 

वालिनश्च बलं तत्र कथयामास वानरः।
सुग्रीवः शङ्कितश्चासीन्नित्यं वीर्येण राघवे॥६३॥

तब वानर सुग्रीवने वहाँ वालीके बलका वर्णन किया; क्योंकि सुग्रीवको रामके बलके विषयमें बराबर शंका बनी रहती थी।

राघवप्रत्ययार्थं तु दुन्दुभेः कायमुत्तमम्।
दर्शयामास सुग्रीवो महापर्वतसंनिभम्॥६४॥

‘रामकी प्रतीतिके लिये उन्होंने दुन्दुभि दैत्यका महान् पर्वतके समान विशाल शरीर दिखलाया।

उत्स्मयित्वा महाबाहुः प्रेक्ष्य चास्थि महाबलः।
पादांगुष्ठेन चिक्षेप सम्पूर्णं दशयोजनम्॥६५॥

‘महाबली महाबाहु श्रीरामने तनिक मुसकराकर उस अस्थिसमूहको देखा और पैरके अँगूठेसे उसे दस योजन दूर फेंक दिया।

बिभेद च पुनस्तालान् सप्तैकेन महेषुणा।
गिरिं रसातलं चैव जनयन् प्रत्ययं तदा॥६६॥

‘फिर एक ही महान् बाणसे उन्होंने अपना । विश्वास दिलाते हुए सात तालवृक्षोंको और पर्वत तथा रसातलको बींध डाल।

ततः प्रीतमनास्तेन विश्वस्तः स महाकपिः।
किष्किन्धां रामसहितो जगाम च गुहां तदा॥६७॥

‘तदनन्तर रामके इस कार्यसे महाकपि सुग्रीव मनही-मन प्रसन्न हुए और उन्हें रामपर विश्वास हो गया। फिर वे उनके साथ किष्किन्धा गुहामें गये।

ततोऽगर्जद्धरिवरः सुग्रीवो हेमपिंगलः।
तेन नादेन महता निर्जगाम हरीश्वरः॥६८॥

वहाँपर सुवर्णके समान पिंगलवर्णवाले वीरवर सुग्रीवने गर्जना की, उस महानादको सुनकर वानरराज वाली-

अनुमान्य तदा तारां सुग्रीवेण समागतः।
निजघान च तत्रैनं शरेणैकेन राघवः॥६९॥

अपनी पत्नी ताराको आश्वासन देकर तत्काल घरसे बाहर निकला और सुग्रीवसे भिड़ गया। वहाँ रामने वालीको एक ही बाणसे मार गिराया।

ततः सुग्रीववचनाद्धत्वा वालिनमाहवे।
सुग्रीवमेव तद्राज्ये राघवः प्रत्यपादयत्॥७०॥

‘सुग्रीवके कथनानुसार उस संग्राममें वालीको मारकर उसके राज्यपर रामने सुग्रीवको ही बिठा दिया।

स च सर्वान् समानीय वानरान् वानरर्षभः।
दिशः प्रस्थापयामास दिदृक्षुर्जनकात्मजाम्॥७१॥

‘तब उन वानरराजने भी सभी वानरोंको बुलाकर जानकीका पता लगानेके लिये उन्हें चारों दिशाओंमें भेजा।

ततो गृध्रस्य वचनात् सम्पातेर्हनुमान् बली।
शतयोजनविस्तीर्णं पुप्लुवे लवणार्णवम्॥७२॥

‘तत्पश्चात् सम्पाति नामक गृध्रके कहनेसे बलवान् हनुमान जी सौ योजन विस्तारवाले क्षार समुद्रको कूदकर लाँघ गये।

तत्र लङ्कां समासाद्य पुरीं रावणपालिताम्।
ददर्श सीतां ध्यायन्तीमशोकवनिकां गताम्॥७३॥

‘वहाँ रावणपालित लङ्कापुरीमें पहुँचकर उन्होंने अशोकवाटिकामें सीताको चिन्तामग्न देखा।

निवेदयित्वाभिज्ञानं प्रवृत्तिं विनिवेद्य च।
समाश्वास्य च वैदेहीं मर्दयामास तोरणम्॥७४॥

‘तब उन विदेहनन्दिनीको अपनी पहचान देकर रामका संदेश सुनाया और उन्हें सान्त्वना देकर उन्होंने वाटिकाका द्वार तोड़ डाला।

पञ्च सेनाग्रगान् हत्वा सप्त मन्त्रिसुतानपि।
शूरमक्षं च निष्पिष्य ग्रहणं समुपागमत्॥७५॥

‘फिर पाँच सेनापतियों और सात मन्त्रिकुमारोंकी हत्या कर वीर अक्षकुमारका भी कचूमर निकाला, इसके बाद वे (जान-बूझकर) पकड़े गये। ७५ ॥

अस्त्रेणोन्मुक्तमात्मानं ज्ञात्वा पैतामहाद् वरात्।
मर्षयन् राक्षसान् वीरो यन्त्रिणस्तान् यदृच्छया॥७६॥

‘ब्रह्माजीके वरदानसे अपनेको ब्रह्मपाशसे छूटा हुआ जानकर भी वीर हनुमान जी ने अपनेको बाँधनेवाले उन राक्षसोंका अपराध स्वेच्छानुसार सह लिया।

ततो दग्ध्वा पुरीं लङ्कामृते सीतां च मैथिलीम्।
रामाय प्रियमाख्यातुं पुनरायान्महाकपिः॥७७॥

‘तत्पश्चात् मिथिलेशकुमारी सीताके [स्थानके] अतिरिक्त समस्त लङ्काको जलाकर वे महाकपि हनुमान् जी रामको प्रिय संदेश सुनानेके लिये लंकासे लौट आये।

सोऽभिगम्य महात्मानं कृत्वा रामं प्रदक्षिणम्।
न्यवेदयदमेयात्मा दृष्टा सीतेति तत्त्वतः॥७८॥

‘अपरिमित बुद्धिशाली हनुमान जी ने वहाँ जा महात्मा रामकी प्रदक्षिणा करके यो सत्य निवेदन किया—’मैंने सीताजीका दर्शन किया है’।

ततः सुग्रीवसहितो गत्वा तीरं महोदधेः।
समुद्रं क्षोभयामास शरैरादित्यसंनिभैः॥७९॥

‘इसके अनन्तर सुग्रीवके साथ भगवान् रामने महासागरके तटपर जाकर सूर्यके समान तेजस्वी बाणोंसे समुद्रको क्षुब्ध किया।

दर्शयामास चात्मानं समुद्रः सरितां पतिः।
समुद्रवचनाच्चैव नलं सेतुमकारयत्॥८०॥

‘तब नदीपति समुद्रने अपनेको प्रकट कर दिया, फिर समुद्रके ही कहनेसे रामने नलसे पुल निर्माण कराया।

तेन गत्वा पुरीं लङ्कां हत्वा रावणमाहवे।
रामः सीतामनुप्राप्य परां व्रीडामुपागमत्॥८१॥

‘उसी पुलसे लङ्कापुरीमें जाकर रावणको मारा, फिर सीताके मिलनेपर रामको बड़ी लज्जा हुई।

तामुवाच ततो रामः परुषं जनसंसदि।
अमृष्यमाणा सा सीता विवेश ज्वलनं सती॥८२॥

‘तब भरी सभामें सीताके प्रति वे मर्मभेदी वचन कहने लगे। उनकी इस बातको न सह सकनेके कारण साध्वी सीता अग्निमें प्रवेश कर गयी।

ततोऽग्निवचनात् सीतां ज्ञात्वा विगतकल्मषाम्।
कर्मणा तेन महता त्रैलोक्यं सचराचरम्॥८३॥

‘इसके बाद अग्निके कहनेसे उन्होंने सीताको निष्कलङ्क माना। महात्मा रामचन्द्रजीके इस महान् कर्मसे देवता और ऋषियोंसहित चराचर त्रिभुवन संतुष्ट हो गया।

सदेवर्षिगणं तुष्टं राघवस्य महात्मनः।
बभौ रामः सम्प्रहृष्टः पूजितः सर्वदैवतैः॥ ८४॥

फिर सभी देवताओंसे पूजित होकर राम बहुत ही प्रसन्न हुए और-

अभिषिच्य च लङ्कायां राक्षसेन्द्रं विभीषणम्।
कृतकृत्यस्तदा रामो विज्वरः प्रमुमोद ह॥८५॥

राक्षसराज विभीषणको लङ्काके राज्यपर अभिषिक्त करके कृतार्थ हो गये। उस समय निश्चिन्त होनेके कारण उनके आनन्दका ठिकाना न रहा।

देवताभ्यो वरं प्राप्य समुत्थाप्य च वानरान्।
अयोध्यां प्रस्थितो रामः पुष्पकेण सुहृवृतः॥८६॥

‘यह सब हो जानेपर राम देवताओंसे वर पाकर । और मरे हुए वानरोंको जीवन दिलाकर अपने सभी साथियोंके साथ पुष्पक विमानपर चढ़कर अयोध्याके लिये प्रस्थित हुए।

भरद्वाजाश्रमं गत्वा रामः सत्यपराक्रमः।
भरतस्यान्तिके रामो हनूमन्तं व्यसर्जयत्॥८७॥

‘भरद्वाज मुनिके आश्रमपर पहुँचकर सबको आराम देनेवाले सत्यपराक्रमी रामने भरतके पास हनुमान्को भेजा।

पुनराख्यायिकां जल्पन् सुग्रीवसहितस्तदा।
पुष्पकं तत् समारुह्य नन्दिग्रामं ययौ तदा॥८८॥

‘फिर सुग्रीवके साथ कथा-वार्ता कहते हुए पुष्पकारूढ़ हो वे नन्दिग्राम को गये।

नन्दिग्रामे जटां हित्वा भ्रातृभिः सहितोऽनघः।
रामः सीतामनुप्राप्य राज्यं पुनरवाप्तवान्॥८९॥

‘निष्पाप रामचन्द्रजीने नन्दिग्राममें अपनी जटा कटाकर भाइयोंके साथ, सीताको पानेके अनन्तर, पुनः अपना राज्य प्राप्त किया है।

प्रहृष्टमुदितो लोकस्तुष्टः पुष्टः सुधार्मिकः।
निरामयो ह्यरोगश्च दुर्भिक्षभयवर्जितः॥९०॥

‘अब रामके राज्यमें लोग प्रसन्न, सुखी, संतुष्ट, पुष्ट, धार्मिक तथा रोग-व्याधिसे मुक्त रहेंगे, उन्हें दुर्भिक्षका भय न होगा।

न पुत्रमरणं केचिद् द्रक्ष्यन्ति पुरुषाः क्वचित् ।
नार्यश्चाविधवा नित्यं भविष्यन्ति पतिव्रताः॥९१॥

‘कोई कहीं भी अपने पुत्रकी मृत्यु नहीं देखेंगे, स्त्रियाँ विधवा न होंगी, सदा ही पतिव्रता होंगी।

न चाग्निजं भयं किंचिन्नाप्सु मज्जन्ति जन्तवः।
न वातजं भयं किंचिन्नापि ज्वरकृतं तथा॥९२॥

‘आग लगनेका किंचित् भी भय न होगा, कोई प्राणी जलमें नहीं डूबेंगे, वात और ज्वरका भय थोड़ा भी नहीं रहेगा।

न चापि क्षुद्भयं तत्र न तस्करभयं तथा।
नगराणि च राष्ट्राणि धनधान्ययुतानि च ॥ ९३॥

‘क्षुधा तथा चोरीका डर भी जाता रहेगा, सभी नगर और राष्ट्र धन-धान्य सम्पन्न होंगे। 

नित्यं प्रमुदिताः सर्वे यथा कृतयुगे तथा।
अश्वमेधशतैरिष्ट्वा तथा बहुसुवर्णकैः॥ ९४॥

सत्ययुगकी भाँति सभी लोग सदा प्रसन्न रहेंगे। महायशस्वी राम बहुत-से सुवर्णोंकी दक्षिणावाले सौ अश्वमेध यज्ञ करेंगे। 

गवां कोट्ययुतं दत्त्वा विद्वद्भयो विधिपूर्वकम्।
असंख्येयं धनं दत्त्वा ब्राह्मणेभ्यो महायशाः॥९५॥

उनमें विधिपूर्वक विद्वानोंको दस हजार करोड़ (एक खरब) गौ और ब्राह्मणोंको अपरिमित धन देंगे तथा-

राजवंशान् शतगुणान् स्थापयिष्यति राघवः।
चातुर्वण्र्यं च लोकेऽस्मिन् स्वे स्वे धर्मे नियोक्ष्यति॥९६॥

सौगुने राजवंशोंकी स्थापना करेंगे। संसारमें चारों वर्गोंको वे अपने-अपने धर्ममें नियुक्त रखेंगे।

दशवर्षसहस्राणि दशवर्षशतानि च।
रामो राज्यमुपासित्वा ब्रह्मलोकं प्रयास्यति॥९७॥

‘फिर ग्यारह हजार वर्षांतक राज्य करनेके अनन्तर । श्रीरामचन्द्रजी अपने परमधामको पधारेंगे।

इदं पवित्रं पापघ्नं पुण्यं वेदैश्च सम्मितम्।
यः पठेद् रामचरितं सर्वपापैः प्रमुच्यते॥९८॥

‘वेदोंके समान पवित्र, पापनाशक और पुण्यमय इस रामचरितको जो पढ़ेगा, वह सब पापोंसे मुक्त हो जायगा।

एतदाख्यानमायुष्यं पठन् रामायणं नरः।
सपुत्रपौत्रः सगणः प्रेत्य स्वर्गे महीयते॥ ९९॥

‘आयु बढ़ानेवाली इस रामायण-कथाको पढ़नेवाला मनुष्य मृत्युके अनन्तर पुत्र, पौत्र तथा अन्य परिजनवर्गके साथ ही स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होगा।

पठन् द्विजो वागृषभत्वमीयात् स्यात् क्षत्रियो भूमिपतित्वमीयात्।
वणिग्जनः पण्यफलत्वमीयाज्जनश्च शूद्रोऽपि महत्त्वमीयात्॥१००॥

‘इसे ब्राह्मण पढ़े तो विद्वान् हो, क्षत्रिय पढ़ता हो तो पृथ्वीका राज्य प्राप्त करे, वैश्यको व्यापारमें लाभ हो और शूद्र भी प्रतिष्ठा प्राप्त करे’।

सर्ग २

नारदस्य तु तद् वाक्यं श्रुत्वा वाक्यविशारदः।
पूजयामास धर्मात्मा सहशिष्यो महामुनिम्॥१॥

देवर्षि नारदजीके उपर्युक्त वचन सुनकर वाणीविशारद धर्मात्मा ऋषि वाल्मीकिजीने अपने शिष्योंसहित उन महामुनिका पूजन किया।

यथावत् पूजितस्तेन देवर्षि रदस्तथा।
आपृच्छयेवाभ्यनुज्ञातः स जगाम विहायसम्॥२॥

वाल्मीकिजीसे यथावत् सम्मानित हो देवर्षि नारदजीने जानेके लिये उनसे आज्ञा माँगी और उनसे अनुमति मिल जानेपर वे आकाशमार्गसे चले गये।

स मुहूर्तं गते तस्मिन् देवलोकं मुनिस्तदा।
जगाम तमसातीरं जाह्नव्यास्त्वविदूरतः॥३॥

उनके देवलोक पधारनेके दो ही घड़ी बाद वाल्मीकिजी तमसा नदीके तटपर गये, जो गंगाजीसे अधिक दूर नहीं था।

स तु तीरं समासाद्य तमसाया मुनिस्तदा।
शिष्यमाह स्थितं पार्श्वे दृष्ट्वा तीर्थमकर्दमम्॥४॥

तमसाके तटपर पहुँचकर वहाँके घाटको कीचड़से रहित देख मुनिने अपने पास खड़े हुए शिष्यसे कहा-

अकर्दममिदं तीर्थं भरद्वाज निशामय।
रमणीयं प्रसन्नाम्बु सन्मनुष्यमनो यथा॥५॥

‘भरद्वाज! देखो, यहाँका घाट बड़ा सुन्दर है। इसमें कीचड़का नाम नहीं है। यहाँका जल वैसा ही स्वच्छ है, जैसा सत्पुरुषका मन होता है।

न्यस्यतां कलशस्तात दीयतां वल्कलं मम।
इदमेवावगाहिष्ये तमसातीर्थमुत्तमम्॥६॥

‘तात! यहीं कलश रख दो और मुझे मेरा वल्कल दो। मैं तमसाके इसी उत्तम तीर्थमें स्नान करूँगा’।

एवमुक्तो भरद्वाजो वाल्मीकेन महात्मना।
प्रायच्छत मुनेस्तस्य वल्कलं नियतो गुरोः॥७॥

महात्मा वाल्मीकिके ऐसा कहनेपर नियम-परायण शिष्य भरद्वाजने अपने गुरु मुनिवर वाल्मीकिको वल्कलवस्त्र दिया।

स शिष्यहस्तादादाय वल्कलं नियतेन्द्रियः।
विचचार ह पश्यंस्तत् सर्वतो विपुलं वनम्॥८॥

शिष्यके हाथसे वल्कल लेकर वे जितेन्द्रिय मुनि वहाँके विशाल वनकी शोभा देखते हुए सब ओर विचरने लगे।

तस्याभ्याशे तु मिथुनं चरन्तमनपायिनम्।
ददर्श भगवांस्तत्र क्रौञ्चयोश्चारुनिःस्वनम्॥९॥

उनके पास ही क्रौञ्च पक्षियोंका एक जोड़ा, जो कभी एक-दूसरेसे अलग नहीं होता था, विचर रहा था। वे दोनों पक्षी बड़ी मधुर बोली बोलते थे। भगवान् वाल्मीकिने पक्षियोंके उस जोड़ेको वहाँ देखा।

तस्मात् तु मिथुनादेकं पुमांसं पापनिश्चयः।
जघान वैरनिलयो निषादस्तस्य पश्यतः॥१०॥

उसी समय पापपूर्ण विचार रखनेवाले एक निषादने, जो समस्त जन्तुओंका अकारण वैरी था, वहाँ आकर पक्षियोंके उस जोड़ेमेंसे एक–नर पक्षीको मुनिके देखते-देखते बाणसे मार डाला।

तं शोणितपरीतांगं चेष्टमानं महीतले।
भार्या तु निहतं दृष्ट्वा रुराव करुणां गिरम्॥११॥

वह पक्षी खूनसे लथपथ होकर पृथ्वीपर गिर पड़ा और पंख फड़फड़ाता हुआ तड़पने लगा। अपने पतिकी हत्या हुई देख उसकी भार्या क्रौञ्ची करुणाजनक स्वरमें चीत्कार कर उठी।

वियुक्ता पतिना तेन द्विजेन सहचारिणा।
ताम्रशीर्षेण मत्तेन पत्रिणा सहितेन वै॥१२॥

उत्तम पंखोंसे युक्त वह पक्षी सदा अपनी भार्याके साथसाथ विचरता था। उसके मस्तकका रंग ताँबेके समान लाल था और वह कामसे मतवाला हो गया था। ऐसे पतिसे वियुक्त होकर क्रौञ्ची बड़े दुःखसे रो रही थी।

तथाविधं द्विजं दृष्ट्वा निषादेन निपातितम्।
ऋषेर्धर्मात्मनस्तस्य कारुण्यं समपद्यत॥१३॥

निषादने जिसे मार गिराया था, उस नर पक्षीकी वह दुर्दशा देख उन धर्मात्मा ऋषिको बड़ी दया आयी।

ततः करुणवेदित्वादधर्मोऽयमिति द्विजः।
निशाम्य रुदतीं क्रौञ्चीमिदं वचनमब्रवीत्॥१४॥

स्वभावतः करुणाका अनुभव करनेवाले ब्रह्मर्षिने ‘यह अधर्म हुआ है’ ऐसा निश्चय करके रोती हुई क्रौञ्चीकी ओर देखते हुए निषादसे इस प्रकार कहा-

मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः।
यत् क्रौञ्चमिथुनादेकमवधीः काममोहितम्॥१५॥

‘निषाद! तुझे नित्य-निरन्तर—कभी भी शान्ति न मिले; क्योंकि तूने इस क्रौञ्चके जोड़ेमेंसे एककी, जो कामसे मोहित हो रहा था, बिना किसी अपराधके ही हत्या कर डाली’।

तस्येत्थं ब्रुवतश्चिन्ता बभूव हृदि वीक्षतः।
शोकार्तेनास्य शकुनेः किमिदं व्याहृतं मया॥१६॥

ऐसा कहकर जब उन्होंने इसपर विचार किया, तब उनके मनमें यह चिन्ता हुई कि ‘अहो! इस पक्षीके शोकसे पीड़ित होकर मैंने यह क्या कह डाला’।

चिन्तयन् स महाप्राज्ञश्चकार मतिमान्मतिम्।
शिष्यं चैवाब्रवीद् वाक्यमिदं स मुनिपुंगवः ॥१७॥

यही सोचते हुए महाज्ञानी और परम बुद्धिमान् मुनिवर वाल्मीकि एक निश्चयपर पहुँच गये और अपने शिष्यसे इस प्रकार बोले-

पादबद्धोऽक्षरसमस्तन्त्रीलयसमन्वितः।
शोकार्तस्य प्रवृत्तो मे श्लोको भवतु नान्यथा॥१८॥

‘तात! शोकसे पीड़ित हुए मेरे मुखसे जो वाक्य निकल पड़ा है, यह चार चरणोंमें आबद्ध है। इसके प्रत्येक चरणमें बराबर-बराबर (यानी आठ-आठ) अक्षर हैं तथा इसे वीणाके लयपर गाया भी जा सकता है; अतः मेरा यह वचन श्लोकरूप (अर्थात् श्लोक नामक छन्दमें आबद्ध काव्यरूप या यशःस्वरूप) होना चाहिये, अन्यथा नहीं’।

शिष्यस्तु तस्य ब्रुवतो मुनेर्वाक्यमनुत्तमम्।
प्रतिजग्राह संतुष्टस्तस्य तुष्टोऽभवन्मुनिः॥१९॥

मुनिकी यह उत्तम बात सुनकर उनके शिष्य भरद्वाजको बड़ी प्रसन्नता हुई और उसने उनका समर्थन करते हुए कहा - ’हाँ, आपका यह वाक्य श्लोकरूप ही होना चाहिये।’ शिष्यके इस कथनसे मुनिको विशेष संतोष हुआ।

सोऽभिषेकं ततः कृत्वा तीर्थे तस्मिन् यथाविधि।
तमेव चिन्तयन्नर्थमुपावर्तत वै मुनिः॥२०॥

तत्पश्चात् उन्होंने उत्तम तीर्थमें विधिपूर्वक स्नान किया और उसी विषयका विचार करते हुए वे आश्रमकी ओर लौट पड़े।

भरद्वाजस्ततः शिष्यो विनीतः श्रुतवान् गुरोः।
कलशं पूर्णमादाय पृष्ठतोऽनुजगाम ह॥२१॥

फिर उनका विनीत एवं शास्त्रज्ञ शिष्य भरद्वाज भी वह जलसे भरा हुआ कलश लेकर गुरुजीके पीछे-पीछे चला।

स प्रविश्याश्रमपदं शिष्येण सह धर्मवित्।
उपविष्टः कथाश्चान्याश्चकार ध्यानमास्थितः ॥ २२॥

शिष्यके साथ आश्रममें पहुँचकर धर्मज्ञ ऋषि वाल्मीकिजी आसनपर बैठे और दूसरी-दूसरी बातें करने लगे; परंतु उनका ध्यान उस श्लोककी ओर ही लगा था।

आजगाम ततो ब्रह्मा लोककर्ता स्वयं प्रभुः।
चतुर्मुखो महातेजा द्रष्टुं तं मुनिपुंगवम्॥२३॥

इतनेहीमें अखिल विश्वकी सृष्टि करनेवाले, सर्वसमर्थ, महातेजस्वी चतुर्मुख ब्रह्माजी मुनिवर वाल्मीकिसे मिलनेके लिये स्वयं उनके आश्रमपर आये।

वाल्मीकिरथ तं दृष्ट्वा सहसोत्थाय वाग्यतः।
प्राञ्जलिः प्रयतो भूत्वा तस्थौ परमविस्मितः॥२४॥

उन्हें देखते ही महर्षि वाल्मीकि सहसा उठकर खड़े हो गये। वे मन और इन्द्रियोंको वशमें रखकर अत्यन्त विस्मित हो हाथ जोड़े चुपचाप कुछ कालतक खड़े ही रह गये, कुछ बोल न सके।

पूजयामास तं देवं पाद्याासनवन्दनैः।
प्रणम्य विधिवच्चैनं पृष्ट्वा चैव निरामयम्॥२५॥

तत्पश्चात् उन्होंने पाद्य, अर्घ्य, आसन और स्तुति आदिके द्वारा भगवान् ब्रह्माजीका पूजन किया और उनके चरणोंमें विधिवत् प्रणाम करके उनसे कुशल-समाचार पूछा।

अथोपविश्य भगवानासने परमार्चिते।
वाल्मीकये च ऋषये संदिदेशासनं ततः॥२६॥

भगवान् ब्रह्माने एक परम उत्तम आसनपर विराजमान होकर वाल्मीकि मुनिको भी आसन-ग्रहण करनेकी आज्ञा दी।

ब्रह्मणा समनुज्ञातः सोऽप्युपाविशदासने।
उपविष्टे तदा तस्मिन् साक्षाल्लोकपितामहे ॥२७॥

ब्रह्माजीकी आज्ञा पाकर वे भी आसनपर बैठे। उस समय साक्षात् लोकपितामह ब्रह्मा सामने बैठे हुए थे तो भी-

तद्गतेनैव मनसा वाल्मीकिानमास्थितः।
पापात्मना कृतं कष्टं वैरग्रहणबुद्धिना॥२८॥

वाल्मीकिका मन उस क्रौञ्च पक्षीवाली घटनाकी ओर ही लगा रहा। वे उसीके विषयमें सोचने लगे - ओह ! जिसकी बुद्धि वैरभावको ग्रहण करनेमें ही लगी रहती है, उस पापात्मा व्याधने बिना किसी अपराधके ही-

यत् तादृशं चारुरवं क्रौञ्चं हन्यादकारणात्।
शोचन्नेव पुनः क्रौञ्चीमुपश्लोकमिमं जगौ॥२९॥

वैसे मनोहर कलरव करनेवाले क्रौञ्च पक्षीके प्राण ले लिये’। यही सोचते-सोचते उन्होंने क्रौञ्चीके आर्तनादको सुनकर निषादको लक्ष्य करके जो श्लोक कहा था, उसीको फिर ब्रह्माजीके सामने दुहराया।

पुनरन्तर्गतमना भूत्वा शोकपरायणः।
तमुवाच ततो ब्रह्मा प्रहसन् मुनिपुंगवम्॥३०॥

उसे दुहराते ही फिर उनके मनमें अपने दिये हुए शापके अनौचित्यका ध्यान आया। तब वे शोक और चिन्तामें डूब गये। ब्रह्माजी उनकी मनःस्थितिको समझकर हँसने लगे और मुनिवर वाल्मीकिसे इस प्रकार बोले। 

श्लोक एवास्त्वयं बद्धो नात्र कार्या विचारणा।
मच्छन्दादेव ते ब्रह्मन् प्रवृत्तेयं सरस्वती॥३१॥

ब्रह्मन् ! तुम्हारे मुँहसे निकला हुआ यह छन्दोबद्ध वाक्य श्लोकरूप ही होगा। इस विषयमें तुम्हें कोई अन्यथा विचार नहीं करना चाहिये। मेरे संकल्प अथवा प्रेरणासे ही तुम्हारे मुँहसे ऐसी वाणी निकली है।

रामस्य चरितं कृत्स्नं कुरु त्वमृषिसत्तम।
धर्मात्मनो भगवतो लोके रामस्य धीमतः॥३२॥

‘मुनिश्रेष्ठ! तुम श्रीरामके सम्पूर्ण चरित्रका वर्णन करो। परम बुद्धिमान् भगवान् श्रीराम संसारमें सबसे बड़े धर्मात्मा और धीर पुरुष हैं। 

वृत्तं कथय धीरस्य यथा ते नारदाच्छ्रुतम्।
रहस्यं च प्रकाशं च यद् वृत्तं तस्य धीमतः॥३३॥

तुमने नारदजीके मुँहसे जैसा सुना है, उसीके अनुसार उनके चरित्रका चित्रण करो।

रामस्य सहसौमित्रे राक्षसानां च सर्वशः।
वैदेह्याश्चैव यद् वृत्तं प्रकाशं यदि वा रहः॥ ३४॥

‘बुद्धिमान् श्रीरामका जो गुप्त या प्रकट वृत्तान्त है तथा लक्ष्मण, सीता और राक्षसोंके जो सम्पूर्ण गुप्त या प्रकट चरित्र हैं, वे सब अज्ञात होनेपर भी तुम्हें ज्ञात हो जायेंगे।

तच्चाप्यविदितं सर्वं विदितं ते भविष्यति।
न ते वागनृता काव्ये काचिदत्र भविष्यति॥ ३५॥

‘इस काव्यमें अंकित तुम्हारी कोई भी बात झूठी नहीं होगी; इसलिये तुम श्रीरामचन्द्रजीकी परम पवित्र एवं मनोरम कथाको श्लोकबद्ध करके लिखो।

कुरु रामकथां पुण्यां श्लोकबद्धां मनोरमाम्।
यावत् स्थास्यन्ति गिरयः सरितश्च महीतले ॥३६॥

‘इस पृथ्वीपर जबतक नदियों और पर्वतोंकी सत्ता रहेगी। 

तावद् रामायणकथा लोकेषु प्रचरिष्यति।
यावद्रामस्य च कथा त्वत्कृता प्रचरिष्यति ॥३७॥

तबतक संसारमें रामायणकथाका प्रचार होता रहेगा। जबतक तुम्हारी बनायी हुई श्रीरामकथाका लोकमें प्रचार रहेगा-

तावदूर्ध्वमधश्च त्वं मल्लोकेषु निवत्स्यसि।
इत्युक्त्वा भगवान् ब्रह्मा तत्रैवान्तरधीयत।
ततः सशिष्यो भगवान् मुनिर्विस्मयमाययौ॥ ३८॥

तबतक तुम इच्छानुसार ऊपर-नीचे तथा मेरे लोकोंमें निवास करोगे। ऐसा कहकर भगवान् ब्रह्माजी वहीं अन्तर्धान हो गये। उनके वहीं अन्तर्धान होनेसे शिष्योंसहित भगवान् वाल्मीकि मुनिको बड़ा विस्मय हुआ।

तस्य शिष्यास्ततः सर्वे जगुः श्लोकमिमं पुनः।
मुहुर्मुहुः प्रीयमाणाः प्राहुश्च भृशविस्मिताः॥३९॥

तदनन्तर उनके सभी शिष्य अत्यन्त प्रसन्न होकर बार-बार इस श्लोकका गान करने लगे तथा परम विस्मित हो परस्पर इस प्रकार कहने लगे-

समाक्षरैश्चतुर्भिर्यः पादैर्गीतो महर्षिणा।
सोऽनुव्याहरणाद् भूयः शोकः श्लोकत्वमागतः॥ ४०॥

हमारे गुरुदेव महर्षि ने क्रौञ्च पक्षीके दुःखसे दुःखी होकर जिस समान अक्षरोंवाले चार चरणोंसे युक्त वाक्यका गान किया था, वह था तो उनके हृदयका शोक; किंतु उनकी वाणीद्वारा उच्चारित होकर श्लोकरूप हो गया’।

तस्य बुद्धिरियं जाता महर्षेर्भावितात्मनः।
कृत्स्नं रामायणं काव्यमीदृशैः करवाण्यहम्॥४१॥

इधर शुद्ध अन्तःकरणवाले महर्षि वाल्मीकिके मनमें यह विचार हुआ कि मैं ऐसे ही श्लोकोंमें सम्पूर्ण रामायणकाव्यकी रचना करूँ।

उदारवृत्तार्थपदैर्मनोरमैस्तदास्य रामस्य चकार कीर्तिमान्।
समाक्षरैः श्लोकशतैर्यशस्विनो यशस्करं काव्यमुदारदर्शनः॥४२॥

यह सोचकर उदार दृष्टिवाले उन यशस्वी महर्षिने भगवान् श्रीरामचन्द्रजीके चरित्रको लेकर हजारों श्लोकोंसे युक्त महाकाव्यकी रचना की, जो उनके यशको बढ़ानेवाला है। इसमें श्रीरामके उदार चरित्रोंका प्रतिपादन करनेवाले मनोहर पदोंका प्रयोग किया गया है।

तदुपगतसमाससंधियोगं सममधुरोपनतार्थवाक्यबद्धम्।
रघुवरचरितं मुनिप्रणीतं दशशिरसश्च वधं निशामयध्वम्॥४३॥

महर्षि वाल्मीकि के बनाये हुए इस काव्यमें तत्पुरुष आदि समासों, दीर्घ-गुण आदि संधियों और प्रकृति-प्रत्ययके सम्बन्धका यथायोग्य निर्वाह हुआ है। इसकी रचना में समता (पतत्-प्रकर्ष आदि दोषों का अभाव) है, पदों में माधुर्य है और अर्थ में प्रसाद-गुण की अधिकता है। भावुकजनो! इस प्रकार शास्त्रीय पद्धति के अनुकूल बने हए इस रघुवर-चरित्र और रावण-वध के प्रसंग को ध्यान देकर सुनो।

सर्ग ३ 

श्रुत्वा वस्तु समग्रं तद्धर्मार्थसहितं हितम्।
व्यक्तमन्वेषते भूयो यद् वृत्तं तस्य धीमतः॥१॥

नारदजी के मुखसे धर्म, अर्थ एवं कामरूपी फल से युक्त, हितकर (मोक्षदायक) तथा प्रकट और गुप्तसम्पूर्ण रामचरित्रको, जो रामायण महाकाव्यकी प्रधान कथावस्तु था, सुनकर महर्षि वाल्मीकिजी बुद्धिमान् श्रीरामके उस जीवनवृत्त का पुनः भलीभाँति साक्षात्कार करनेके लिये प्रयत्न करने लगे।

उपस्पृश्योदकं सम्यमुनिः स्थित्वा कृताञ्जलिः।
प्राचीनाग्रेषु दर्भेषु धर्मेणान्वेषते गतिम्॥२॥

वे पूर्वाग्र कुशोंके आसनपर बैठ गये और विधिवत् आचमन करके हाथ जोड़े हुए स्थिर भावसे स्थित हो योगधर्म (समाधि) के द्वारा श्रीराम आदिके चरित्रोंका अनुसंधान करने लगे।

रामलक्ष्मणसीताभी राज्ञा दशरथेन च।
सभार्येण सराष्ट्रण यत् प्राप्तं तत्र तत्त्वतः॥३॥

श्रीराम-लक्ष्मण-सीता तथा राज्य और रानियों सहित राजा दशरथसे सम्बन्ध रखनेवाली जितनी बातें थीं-

हसितं भाषितं चैव गतिर्यावच्च चेष्टितम्।
तत् सर्वं धर्मवीर्येण यथावत् सम्प्रपश्यति॥४॥

हँसना, बोलना, चलना और राज्यपालन आदि जितनी चेष्टाएँ हुईं–उन सबका महर्षि ने अपने योगधर्म के बल से भलीभाँति साक्षात्कार किया।

स्त्रीतृतीयेन च तथा यत् प्राप्तं चरता वने।
सत्यसंधेन रामेण तत् सर्वं चान्ववैक्षत॥५॥

सत्यप्रतिज्ञ श्रीरामचन्द्रजी ने लक्ष्मण और सीता के साथ वन में विचरते समय जो-जो लीलाएँ की थीं, वे सब उनकी दृष्टि में आ गयीं॥५॥

ततः पश्यति धर्मात्मा तत् सर्वं योगमास्थितः।
पुरा यत् तत्र निर्वृत्तं पाणावामलकं यथा॥६॥

योगका आश्रय लेकर उन धर्मात्मा महर्षि ने पूर्वकालमें जो-जो घटनाएँ घटित हुई थीं, उन सबको वहाँ हाथपर रखे हुए आँवलेकी तरह प्रत्यक्ष देखा।

तत् सर्वं तत्त्वतो दृष्ट्वा धर्मेण स महामतिः।
अभिरामस्य रामस्य तत् सर्वं कर्तुमुद्यतः॥७॥

सबके मनको प्रिय लगनेवाले भगवान् श्रीरामके सम्पूर्ण चरित्रोंका योगधर्म (समाधि) के द्वारा यथार्थरूपसे निरीक्षण करके महाबुद्धिमान् महर्षि वाल्मीकिने उन सबको महाकाव्यका रूप देनेकी चेष्टा की।

कामार्थगुणसंयुक्तं धर्मार्थगुणविस्तरम्।
समुद्रमिव रत्नाढ्यं सर्वश्रुतिमनोहरम्॥८॥

यह धर्म, अर्थ, काम, मोक्षरूपी गुणों (फलों) से युक्त तथा इनका विस्तारपूर्वक प्रतिपादन एवं दान करनेवाला है। जैसे समुद्र सब रत्नोंकी निधि है, उसी प्रकार यह महाकाव्य गुण, अलङ्कार एवं ध्वनि आदि रत्नोंका भण्डार है। इतना ही नहीं, यह सम्पूर्ण श्रुतियोंके सारभूत अर्थका प्रतिपादक होनेके कारण सबके कानोंको प्रिय लगनेवाला तथा सभीके चित्तको आकृष्ट करनेवाला है।

स यथा कथितं पूर्वं नारदेन महात्मना।
रघुवंशस्य चरितं चकार भगवान् मुनिः॥९॥

महात्मा नारदजीने पहले जैसा वर्णन किया था, उसी के क्रम से भगवान् वाल्मीकि मुनि ने रघुवंशविभूषण श्रीराम के चरित्रविषयक रामायण काव्य का निर्माण किया।

जन्म रामस्य सुमहद्वीर्यं सर्वानुकूलताम्।
लोकस्य प्रियतां क्षान्तिं सौम्यतां सत्यशीलताम्॥१०॥

श्रीराम के जन्म, उनके महान् पराक्रम, उनकी सर्वानुकूलता, लोकप्रियता, क्षमा, सौम्यभाव तथा सत्यशीलता का इस महाकाव्य में महर्षि ने वर्णन किया।

नाना चित्राः कथाश्चान्या विश्वामित्रसहायने।
जानक्याश्च विवाहं च धनुषश्च विभेदनम्॥११॥

विश्वामित्रजीके साथ श्रीराम-लक्ष्मणके जानेपर जो उनके द्वारा नाना प्रकारकी विचित्र लीलाएँ तथा अद्भुत बातें घटित हुईं, उन सबका इसमें महर्षिने वर्णन किया। श्रीरामद्वारा मिथिलामें धनुषके तोड़े जाने तथा जनकनन्दिनी सीता और उर्मिला आदिके विवाहका भी इसमें चित्रण किया।

रामरामविवादं च गुणान् दाशरथेस्तथा।
तथाभिषेकं रामस्य कैकेय्या दुष्टभावताम्॥१२॥

श्रीराम-परशुराम-संवाद, दशरथनन्दन श्रीरामके गुण, उनके अभिषेक, कैकेयीकी दुष्टता,

विघातं चाभिषेकस्य रामस्य च विवासनम्।
राज्ञः शोकं विलापं च परलोकस्य चाश्रयम्॥१३॥

श्रीरामके राज्याभिषेकमें विघ्न, उनके वनवास, राजा दशरथके शोक-विलाप और परलोक-गमन,

प्रकृतीनां विषादं च प्रकृतीनां विसर्जनम्।
निषादाधिपसंवाद सूतोपावर्तनं तथा॥१४॥

प्रजाओंके विषाद, साथ जानेवाली प्रजाओंको मार्ग में छोड़ने, निषादराज गुहके साथ बात करने तथा सूत सुमन्त को अयोध्या लौटाने आदि का भी इसमें उल्लेख किया।

गंगायाश्चापि संतारं भरद्वाजस्य दर्शनम्।
भरद्वाजाभ्यनुज्ञानाच्चित्रकूटस्य दर्शनम्॥१५॥

श्रीराम आदि का गंगाके पार जाना, भरद्वाज मुनिका दर्शन करना, भरद्वाज मुनिकी आज्ञा लेकर चित्रकूट जाना और वहाँकी नैसर्गिक शोभाका अवलोकन करना,

वास्तुकर्म निवेशं च भरतागमनं तथा।
प्रसादनं च रामस्य पितुश्च सलिलक्रियाम्॥१६॥

(चित्रकूट में) कुटिया बनाना, निवास करना, वहाँ भरतका श्रीरामसे मिलने के लिये आना, उन्हें अयोध्या लौट चलने के लिये प्रसन्न करना (मनाना), श्रीरामद्वारा पिता को जलाञ्जलि दान,

पादुकाग्र्याभिषेकं च नन्दिग्रामनिवासनम्।
दण्डकारण्यगमनं विराधस्य वधं तथा॥१७॥

भरत द्वारा अयोध्या के राजसिंहासन पर श्रीरामचन्द्रजी की श्रेष्ठ पादुकाओं का अभिषेक एवं स्थापन, नन्दिग्राममें भरतका निवास, श्रीरामका दण्डकारण्यमें गमन, उनके द्वारा विराधका वध,

दर्शनं शरभंगस्य सुतीक्ष्णेन समागमम्।
अनसूयासमाख्यां च अंगरागस्य चार्पणम्॥१८॥

शरभंगमुनिका दर्शन, सुतीक्ष्णके साथ समागम, अनसूयाके साथ सीतादेवीकी कुछ कालतक स्थिति, उनके द्वारा सीताको अंगरागसमर्पण,

दर्शनं चाप्यगस्त्यस्य धनुषो ग्रहणं तथा।
शूर्पणख्याश्च संवादं विरूपकरणं तथा॥१९॥

श्रीराम आदिके द्वारा अगस्त्यका दर्शन, उनके दिये हुए वैष्णव धनुषका ग्रहण, शूर्पणखाका संवाद, श्रीरामकी आज्ञासे लक्ष्मणद्वारा उसका विरूपकरण (उसकी नाक और कानका छेदन),

वधं खरत्रिशिरसोरुत्थानं रावणस्य च।
मारीचस्य वधं चैव वैदेह्या हरणं तथा॥२०॥

श्रीरामद्वारा खरदूषण और त्रिशिराका वध, शूर्पणखाके उत्तेजित करनेसे रावणका श्रीरामसे बदला लेनेके लिये उठना, श्रीरामद्वारा मारीचका वध, रावणद्वारा विदेहनन्दिनी सीताका हरण,

राघवस्य विलापं च गृध्रराजनिबर्हणम्।।
कबन्धदर्शनं चैव पम्पायाश्चापि दर्शनम्॥२१॥

सीताके लिये श्रीरघुनाथजीका विलाप, रावणद्वारा गृध्रराज जटायुका वध, श्रीराम और लक्ष्मणकी कबन्धसे भेंट, उनके द्वारा पम्पासरोवरका अवलोकन,

शबरीदर्शनं चैव फलमूलाशनं तथा।
प्रलापं चैव पम्पायां हनूमद्दर्शनं तथा॥२२॥

श्रीरामका शबरीसे मिलना और उसके दिये हुए फल-मूलको ग्रहण करना, श्रीरामका सीताके लिये प्रलाप, पम्पासरोवरके निकट हनुमान जी से भेंट,

ऋष्यमूकस्य गमनं सुग्रीवेण समागमम्।
प्रत्ययोत्पादनं सख्यं वालिसुग्रीवविग्रहम्॥२३॥

श्रीराम और लक्ष्मणका हनुमान् जी के साथ ऋष्यमूक पर्वतपर जाना, वहाँ सुग्रीवके साथ भेंट करना, उन्हें अपने बलका विश्वास दिलाना और उनसे मित्रता स्थापित करना, वाली और सुग्रीवका युद्ध,

वालिप्रमथनं चैव सुग्रीवप्रतिपादनम्।
ताराविलापं समयं वर्षरात्रनिवासनम्॥२४॥

श्रीरामद्वारा वालीका विनाश, सुग्रीवको राज्य-समर्पण, अपने पति वाली के लिये तारा का विलाप, शरत्कालमें सीताकी खोज करानेके लिये सुग्रीवकी प्रतिज्ञा, श्रीरामका बरसातके दिनोंमें माल्यवान् पर्वत के प्रस्रवण नामक शिखरपर निवास,

कोपं राघवसिंहस्य बलानामुपसंग्रहम्।
दिशः प्रस्थापनं चैव पृथिव्याश्च निवेदनम्॥२५॥

रघुकुलसिंह श्रीरामका सुग्रीवके प्रति क्रोध-प्रदर्शन, सुग्रीवद्वारा सीताकी खोजके लिये वानरसेनाका संग्रह, सुग्रीवका सम्पूर्ण दिशाओंमें वानरोंको भेजना और उन्हें पृथ्वीके द्वीप-समुद्र आदि विभागोंका परिचय देना,

अङ्गुलीयकदानं च ऋक्षस्य बिलदर्शनम्।
प्रायोपवेशनं चैव सम्पातेश्चापि दर्शनम्॥२६॥

श्रीरामका सीताके विश्वासके लिये हनुमान जी को अपनी अंगूठी देना, वानरोंको ऋक्ष-बिल (स्वयंप्रभा-गुफा) का दर्शन, उनका प्रायोपवेशन (प्राणत्यागके लिये अनशन), सम्पातीसे उनकी भेंट और बातचीत,

पर्वतारोहणं चैव सागरस्यापि लङ्घनम्।
समुद्रवचनाच्चैव मैनाकस्य च दर्शनम्॥ २७॥

समुद्रलङ्घनके लिये हनुमान् जी का महेन्द्र पर्वतपर चढ़ना, समुद्रको लाँघना, समुद्रके कहनेसे ऊपर उठे हुए मैनाकका दर्शन करना,

राक्षसीतर्जनं चैव च्छायाग्राहस्य दर्शनम्।
सिंहिकायाश्च निधनं लङ्कामलयदर्शनम्॥२८॥

इनको राक्षसीका डाँटना, हनुमान्द्वारा छायाग्राहिणी सिंहिका का दर्शन एवं निधन, लङ्काके आधारभूत पर्वत लङ्काके आधारभूत पर्वत (त्रिकूट) का दर्शन,

रात्रौ लङ्काप्रवेशं च एकस्यापि विचिन्तनम्।
आपानभूमिगमनमवरोधस्य दर्शनम्॥२९॥

रात्रिके समय लङ्कामें प्रवेश, अकेला होनेके कारण अपने कर्तव्य का विचार करना, पैदल मार्ग में मिलने वाले निम्नकर्म वाले अवरोधों को देखना (रावण के मद्यपान-स्थान में जाना, उसके अन्तःपुरकी स्त्रियों को देखना) ,

दर्शनं रावणस्यापि पुष्पकस्य च दर्शनम्।
अशोकवनिकायानं सीतायाश्चापि दर्शनम्॥३०॥

हनुमान जी का रावणको देखना, पुष्पकविमानका निरीक्षण करना, अशोकवाटिकामें जाना और सीताजीके दर्शन करना,

अभिज्ञानप्रदानं च सीतायाश्चापि भाषणम्।
राक्षसीतर्जनं चैव त्रिजटास्वप्नदर्शनम्॥३१॥

पहचानके लिये सीताजीको अँगूठी देना और उनसे बातचीत करना, राक्षसियोंद्वारा सीताको डाँट-फटकार, त्रिजटाको श्रीरामके लिये शुभसूचक स्वप्नका दर्शन,

मणिप्रदानं सीताया वृक्षभंगं तथैव च।
राक्षसीविद्रवं चैव किंकराणां निबर्हणम्॥३२॥

सीताका हनुमान जी को चूड़ामणि प्रदान करना, हनुमान् जी का अशोकवाटिकाके वृक्षोंको तोड़ना, राक्षसियोंका भागना, रावणके सेवकोंका हनुमान जी के द्वारा संहार,

ग्रहणं वायुसूनोश्च लङ्कादाहाभिगर्जनम्।
प्रतिप्लवनमेवाथ मधूनां हरणं तथा॥३३॥

वायुनन्दन हनुमान् का बन्दी होकर रावणकी सभामें जाना, उनके द्वारा गर्जन और लङ्काका दाह, फिर लौटती बार समुद्रको लाँघना, वानरोंका मधुवनमें आकर मधुपान करना,

राघवाश्वासनं चैव मणिनिर्यातनं तथा।
संगमं च समुद्रेण नलसेतोश्च बन्धनम्॥३४॥

हनुमान् जी का श्रीरामचन्द्रजीको आश्वासन देना और सीताजीकी दी हुई चूड़ामणि समर्पित करना, सेनासहित सुग्रीवके साथ श्रीरामकी लङ्कायात्राके समय समुद्रसे भेंट, नलका समुद्रपर सेतु बाँधना,

प्रतारं च समुद्रस्य रात्रौ लङ्कावरोधनम्।
विभीषणेन संसर्ग वधोपायनिवेदनम्॥३५॥

उसी सेतुके द्वारा वानरसेनाका समुद्रके पार जाना, रातको वानरोंका लङ्कापर चारों ओरसे घेरा डालना, विभीषणके साथ श्रीरामका मैत्रीसम्बन्ध होना, विभीषणका श्रीरामको रावणके वधका उपाय बताना,

कुम्भकर्णस्य निधनं मेघनादनिबर्हणम्।
रावणस्य विनाशं च सीतावाप्तिमरेः पुरे ॥३६॥

कुम्भकर्णका निधन, मेघनादका वध, रावणका विनाश, सीताकी प्राप्ति, शत्रुनगरी लङ्कामें-

विभीषणाभिषेकं च पुष्पकस्य च दर्शनम्।
अयोध्यायाश्च गमनं भरद्वाजसमागमम्॥३७॥

विभीषणका अभिषेक, श्रीरामद्वारा पुष्पकविमानका अवलोकन, (उसके द्वारा दल-बलसहित उनका) अयोध्या के लिये प्रस्थान, श्रीरामका भरद्वाजमुनिसे मिलना,

प्रेषणं वायुपुत्रस्य भरतेन समागमम्।
रामाभिषेकाभ्युदयं सर्वसैन्यविसर्जनम्।
स्वराष्ट्ररञ्जनं चैव वैदेह्याश्च विसर्जनम्॥ ३८॥

वायुपुत्र हनुमान्को दूत बनाकर भरतके पास भेजना तथा अयोध्यामें आकर भरतसे मिलना, श्रीरामके राज्याभिषेकका उत्सव, फिर श्रीरामका सारी वानरसेनाको विदा करना, अपने राष्ट्रकी प्रजाको प्रसन्न रखना तथा उनकी प्रसन्नताके लिये ही विदेहनन्दिनी सीताको वनमें त्याग देना

अनागतं च यत् किंचिद् रामस्य वसुधातले।
तच्चकारोत्तरे काव्ये वाल्मीकिर्भगवानृषिः॥ ३९॥

इत्यादि वृत्तान्तोंको एवं इस पृथ्वीपर श्रीरामका जो कुछ भविष्य चरित्र था, उसको भी भगवान् वाल्मीकि मुनिने अपने उत्कृष्ट महाकाव्यमें अंकित किया। 

सर्ग ४ 

प्राप्तराजस्य रामस्य वाल्मीकिर्भगवानृषिः।
चकार चरितं कृत्स्नं विचित्रपदमर्थवत्॥१॥

श्रीरामचन्द्रजीने जब वनसे लौटकर राज्यका शासन अपने हाथमें ले लिया, उसके बाद भगवान् वाल्मीकि मुनिने उनके सम्पूर्ण चरित्रके आधारपर विचित्र पद और अर्थसे युक्त रामायणकाव्यका निर्माण किया।

चतुर्विंशत्सहस्राणि श्लोकानामुक्तवानृषिः।
तथा सर्गशतान् पञ्च षटकाण्डानि तथोत्तरम्॥२॥

इसमें महर्षिने चौबीस हजार श्लोक, पाँच सौ सर्ग तथा उत्तरसहित छह काण्डोंका प्रतिपादन किया है।

कृत्वा तु तन्महाप्राज्ञः सभविष्यं सहोत्तरम्।
चिन्तयामास को न्वेतत् प्रयुञ्जीयादिति प्रभुः॥३॥

भविष्य तथा उत्तरकाण्डसहित समस्त रामायण पूर्ण कर लेनेके पश्चात् सामर्थ्यशाली, महाज्ञानी महर्षिने सोचा कि कौन ऐसा शक्तिशाली पुरुष होगा, जो इस महाकाव्यको पढ़कर जनसमुदायमें सुना सके।

तस्य चिन्तयमानस्य महर्षे वितात्मनः।
अगृह्णीतां ततः पादौ मुनिवेषौ कुशीलवौ॥४॥

शुद्ध अन्तःकरण वाले उन महर्षि के इस प्रकार विचार करते ही मुनिवेष में रहने वाले राजकुमार कुश और लव ने आकर उनके चरणों में प्रणाम किया।

कुशीलवौ तु धर्मज्ञौ राजपुत्रौ यशस्विनौ।
भ्रातरौ स्वरसम्पन्नौ ददर्शाश्रमवासिनौ॥५॥

राजकुमार कुश और लव दोनों भाई धर्मके ज्ञाता और यशस्वी थे। उनका स्वर बड़ा ही मधुर था और वे मुनिके आश्रमपर ही रहते थे।

स तु मेधाविनौ दृष्ट्वा वेदेषु परिनिष्ठितौ।
वेदोपबृंहणार्थाय तावग्राहयत प्रभुः॥६॥

उनकी धारणाशक्ति अद्भुत थी और वे दोनों ही वेदोंमें पारंगत हो चुके थे। भगवान् वाल्मीकिने उनकी ओर देखा और उन्हें सुयोग्य समझकर उत्तम व्रतका पालन करनेवाले उन महर्षिने वेदार्थका विस्तारके साथ ज्ञान करानेके लिये-

काव्यं रामायणं कृत्स्नं सीतायाश्चरितं महत्।
पौलस्त्यवधमित्येवं चकार चरितव्रतः॥७॥

उन्हें सीताके चरित्रसे युक्त सम्पूर्ण रामायण नामक महाकाव्यका, जिसका दूसरा नाम पौलस्त्यवध अथवा दशाननवध था, अध्ययन कराया।

पाठ्ये गेये च मधुरं प्रमाणैस्त्रिभिरन्वितम्।
जातिभिः सप्तभिर्युक्तं तन्त्रीलयसमन्वितम्॥८॥

वह महाकाव्य पढ़ने और गानेमें भी मधुर, द्रुत, मध्य और विलम्बित–इन तीनों गतियोंसे अन्वित, षड्ज आदि सातों स्वरोंसे युक्त, वीणा बजाकर स्वर और तालके साथ गाने योग्य तथा-

रसैः शृंगारकरुणहास्य रौद्रभयानकैः।
वीरादिभी रसैर्युक्तं काव्यमेतदगायताम्॥९॥

शृंगार, करुण, हास्य, रौद्र, भयानक तथा वीर आदि सभी रसोंसे । अनुप्राणित है। दोनों भाई कुश और लव उस महाकाव्यको पढ़कर उसका गान करने लगे।

तौ तु गान्धर्वतत्त्वज्ञौ स्थानमूर्च्छनकोविदौ।
भ्रातरौ स्वरसम्पन्नौ गन्धर्वाविव रूपिणौ॥१०॥

सुन्दर रूप और शुभ लक्षण उनकी सहज सम्पत्ति थे। वे दोनों भाई बड़े मधुर स्वरसे वार्तालाप करते थे। जैसे बिम्बसे प्रतिबिम्ब प्रकट होते हैं, उसी प्रकार श्रीरामके शरीरसे उत्पन्न हुए वे दोनों राजकुमार दूसरे युगल श्रीराम ही प्रतीत होते थे।

तौ राजपुत्रौ कात्स्न्येन धर्म्यमाख्यानमुत्तमम्।
वाचोविधेयं तत्सर्वं कृत्वा काव्यमनिन्दितौ ॥१२॥

वे दोनों राजपुत्र सब लोगोंकी प्रशंसाके पात्र थे, उन्होंने उस धर्मानुकूल उत्तम उपाख्यानमय सम्पूर्ण काव्यको जिह्वाग्र कर लिया था और-

ऋषीणां च द्विजातीनां साधूनां च समागमे।
यथोपदेशं तत्त्वज्ञौ जगतुः सुसमाहितौ॥१३॥

जब कभी ऋषियों, ब्राह्मणों तथा साधुओंका समागम होता था, उस समय उनके बीचमें बैठकर वे दोनों तत्त्वज्ञ बालक एकाग्रचित्त हो रामायणका गान किया करते थे।

महात्मानौ महाभागौ सर्वलक्षणलक्षितौ।
तौ कदाचित् समेतानामृषीणां भावितात्मनाम्॥१४॥

एक दिनकी बात है, बहुत-से शुद्ध अन्तःकरणवाले महर्षियोंकी मण्डली एकत्र हुई थी। उसमें महान् सौभाग्यशाली तथा समस्त शुभ लक्षणोंसे सुशोभित महामनस्वी कुश और लव भी उपस्थित थे।

मध्ये सभं समीपस्थाविदं काव्यमगायताम्।
तच्छ्रुत्वा मुनयः सर्वे बाष्पपर्याकुलेक्षणाः ॥१५॥

उन्होंने बीच सभामें उन महात्माओंके समीप बैठकर उस रामायणकाव्यका गान किया। उसे सुनकर सभी मनियोंके नेत्रोंमें आँसू भर आये और-

साधु साध्विति तावूचुः परं विस्मयमागताः।
ते प्रीतमनसः सर्वे मुनयो धर्मवत्सलाः॥१६॥

वे अत्यन्त विस्मय-विमुग्ध होकर उन्हें साधुवाद देने लगे। मुनि धर्मवत्सल तो होते ही हैं; वह धार्मिक उपाख्यान सुनकर उन सबके मनमें बड़ी प्रसन्नता हुई।

प्रशशंसुः प्रशस्तव्यौ गायमानौ कुशीलवौ।
अहो गीतस्य माधुर्यं श्लोकानां च विशेषतः॥१७॥

वे रामायण-कथाके गायक कुमार कुश और लवकी, जो प्रशंसा के ही योग्य थे, इस प्रकार प्रशंसा करने लगे—’अहो! इन बालकों के गीत में कितना माधुर्य है। श्लोकों की मधुरता तो और भी अद्भुत है।

चिरनिर्वृत्तमप्येतत् प्रत्यक्षमिव दर्शितम्।
प्रविश्य तावुभौ सुष्ठ तथाभावमगायताम्॥१८॥

‘यद्यपि इस काव्यमें वर्णित घटना बहुत दिनों पहले हो चुकी है तो भी इन दोनों बालकोंने इस सभामें प्रवेश करके एक साथ ऐसे सुन्दर भावसे स्वरसम्पन्न, रागयुक्त मधुरगान किया है कि वे पहलेकी घटनाएँ भी प्रत्यक्ष-सी दिखायी देने लगी हैं- 

सहितौ मधुरं रक्तं सम्पन्नं स्वरसम्पदा।
एवं प्रशस्यमानौ तौ तपः श्लाघ्यैर्महर्षिभिः॥१९॥

मानो अभी-अभी आँखोंके सामने घटित हो रही हों’ । इस प्रकार उत्तम तपस्यासे युक्त महर्षिगण उन दोनों कुमारोंकी प्रशंसा करते-

संरक्ततरमत्यर्थं मधुरं तावगायताम्।
प्रीतः कश्चिन्मुनिस्ताभ्यां संस्थितः कलशं ददौ॥२०॥

और वे उनसे प्रशंसित होकर अत्यन्त मधुर रागसे रामायणका गान करते थे। उनके गान से संतुष्ट हुए किसी मुनि ने उठकर उन्हें पुरस्कार के रूप में एक कलश प्रदान किया। 

प्रसन्नो वल्कलं कश्चिद् ददौ ताभ्यां महायशाः।
अन्यः कृष्णाजिनमदाद् यज्ञसूत्रं तथापरः॥२१॥

किसी दूसरे महायशस्वी महर्षि ने प्रसन्न होकर उन दोनों को वल्कल वस्त्र दिया। किसीने काला मृगचर्म भेंट किया तो किसीने यज्ञोपवीत।

कश्चित् कमण्डलुं प्रादान्मौजीमन्यो महामुनिः।
बृसीमन्यस्तदा प्रादात् कौपीनमपरो मुनिः॥२२॥

एकने कमण्डलु दिया तो दूसरे महामुनिने मुञ्जकी मेखला भेंट की। तीसरेने आसन और चौथेने कौपीन प्रदान किया।

ताभ्यां ददौ तदा हृष्टः कुठारमपरो मुनिः।
काषायमपरो वस्त्रं चीरमन्यो ददौ मुनिः॥२३॥

किसी अन्य मुनिने हर्षमें भरकर उन दोनों बालकोंके लिये कुठार अर्पित किया। किसीने गेरुआ वस्त्र दिया तो किसी मुनिने चीर भेंट किया।

जटाबन्धनमन्यस्तु काष्ठरज्जुं मुदान्वितः।
यज्ञभाण्डमृषिः कश्चित् काष्ठभारं तथापरः॥२४॥

किसी दूसरेने आनन्दमग्न होकर जटा बाँधनेके लिये रस्सी दी तो किसीने समिधा बाँधकर लाने के लिये डोरी प्रदान की। एक ऋषिने यज्ञपात्र दिया तो दूसरेने काष्ठभार समर्पित किया।

औदुम्बरी बृसीमन्यः स्वस्ति केचित् तदावदन्।
आयुष्यमपरे प्राहुर्मुदा तत्र महर्षयः॥ २५॥

किसीने गूलरकी लकड़ीका बना हुआ पीढ़ा अर्पित किया। कुछ लोग उस समय आशीर्वाद देने लगे–’बच्चो! तुम दोनोंका कल्याण हो।’ दूसरे महर्षि प्रसन्नतापूर्वक बोल उठे - ’तुम्हारी आयु बढ़े।’

ददुश्चैवं वरान् सर्वे मुनयः सत्यवादिनः।
आश्चर्यमिदमाख्यानं मुनिना सम्प्रकीर्तितम्॥२६॥

इस प्रकार सभी सत्यवादी मुनियोंने उन दोनोंको नाना प्रकारके वर दिये। महर्षि वाल्मीकि द्वारा वर्णित यह आश्चर्यमय काव्य परवर्ती कवियों के लिये श्रेष्ठ आधारशिला है। 

परं कवीनामाधारं समाप्तं च यथाक्रमम्।
अभिगीतमिदं गीतं सर्वगीतिषु कोविदौ॥२७॥

श्रीरामचन्द्रजीके सम्पूर्ण चरित्रों का क्रमशः वर्णन करते हुए इसकी समाप्ति की गयी है। सम्पूर्ण गीतोंके विशेषज्ञ राजकुमारो! यह काव्य आयु एवं पुष्टि प्रदान करनेवाला तथा सबके कान और मनको मोहनेवाला मधुर संगीत है।

आयुष्यं पुष्टिजननं सर्वश्रुतिमनोहरम्।
प्रशस्यमानौ सर्वत्र कदाचित् तत्र गायकौ ॥२८॥

तुम दोनोंने बड़े सुन्दर ढंगसे इसका गान किया है। एक समय सर्वत्र प्रशंसित होनेवाले राजकुमार कुश और लव अयोध्याकी गलियों और सड़कोंपर रामायणके श्लोकोंका गान करते हुए विचर रहे थे।

रथ्यासु राजमार्गेषु ददर्श भरताग्रजः।
स्ववेश्म चानीय ततो भ्रातरौ स कुशीलवौ॥२९॥

इसी समय उनके ऊपर भरतके बड़े भाई श्रीरामकी दृष्टि पड़ी। उन्होंने उन समादरयोग्य बन्धुओंको अपने घर बुलाकर उनका यथोचित सम्मान किया।

पूजयामास पूजाौँ रामः शत्रुनिबर्हणः।
आसीनः काञ्चने दिव्ये स च सिंहासने प्रभुः॥३०॥

 तदनन्तर शत्रुओंका संहार करनेवाले (श्रीराम) सुवर्णमय दिव्य सिंहासन पर विराजमान हुए। 

उपोपविष्टैः सचिवैर्भ्रातृभिश्च समन्वितः।
दृष्ट्वा तु रूपसम्पन्नौ विनीतौ भ्रातरावुभौ॥३१॥

उनके मन्त्री और भाई भी उनके पास ही बैठे थे। उन सबके साथ सन्दर रूपवाले उन दोनों विनयशील भाइयोंकी ओर देखकर श्रीरामचन्द्रजीने-

उवाच लक्ष्मणं रामः शत्रुजं भरतं तथा।
श्रूयतामेतदाख्यानमनयोर्देववर्चसोः॥ ३२॥

भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्नसे कहा ये देवताके समान तेजस्वी दोनों कुमार विचित्र अर्थ और पदोंसे युक्त मधुर काव्य बड़े सुन्दर ढंगसे गाकर सुनाते हैं।

विचित्रार्थपदं सम्यग्गायकौ समचोदयत्।
तौ चापि मधुरं रक्तं स्वचित्तायतनिःस्वनम्॥ ३३॥

तुम सब लोग इसे सुनो।’ यों कहकर उन्होंने उन दोनों भाइयोंको गानेकी आज्ञा दी। आज्ञा पाकर वे दोनों भाई वीणाके लयके साथ अपने मनके अनुकूल तार (उच्च) एवं मधुर स्वरमें राग अलापते हुए रामायणकाव्यका गान करने लगे।

तन्त्रीलयवदत्यर्थं विश्रुतार्थमगायताम्।
लादयत् सर्वगात्राणि मनांसि हृदयानि च।
श्रोत्राश्रयसुखं गेयं तद् बभौ जनसंसदि॥३४॥

उनका उच्चारण इतना स्पष्ट था कि सुनते ही अर्थका बोध हो जाता था। उनका गान सुनकर श्रोताओंके समस्त अंगोंमें हर्षजनित रोमाञ्च हो आया तथा उन सबके मन और आत्मामें आनन्दकी तरंगें उठने लगीं। उस जनसभामें होनेवाला वह गान सबकी श्रवणेन्द्रियोंको अत्यन्त सुखद प्रतीत होता था।

इमौ मुनी पार्थिवलक्षणान्वितौ कुशीलवौ चैव महातपस्विनौ।
ममापि तद् भूतिकरं प्रचक्षते महानुभावं चरितं निबोधत॥ ३५॥

उस समय श्रीरामने अपने भाइयोंका ध्यान आकृष्ट करते हुए कहा—’ये दोनों कुमार मुनि होकर भी राजोचित लक्षणोंसे सम्पन्न हैं। संगीतमें कुशल होनेके साथ ही महान् तपस्वी हैं। ये जिस चरित्रका-प्रबन्ध काव्यका गान करते हैं, वह शब्दार्थालङ्कार, उत्तम गुण एवं सुन्दर रीति आदिसे युक्त होनेके कारण अत्यन्त प्रभावशाली है। मेरे लिये भी अभ्युदयकारक है; ऐसा वृद्ध पुरुषोंका कथन है। अतः तुम सब लोग ध्यान देकर इसे सुनो’।

ततस्तु तौ रामवचःप्रचोदितावगायतां मार्गविधानसम्पदा।
स चापि रामः परिषद्गतः शनै बुंभूषयासक्तमना बभूव ॥३६॥

तदनन्तर श्रीरामकी आज्ञासे प्रेरित हो वे दोनों भाई मार्गविधानकी रीतिसे रामायणका गान करने लगे। सभामें बैठे हुए भगवान् श्रीराम भी धीरे-धीरे उनका गान सुननेमें तन्मय हो गये।

सर्ग ५ 

सर्वा पूर्वमियं येषामासीत् कृत्स्ना वसुंधरा।
प्रजापतिमुपादाय नृपाणां जयशालिनाम्॥१॥

यह सारी पृथ्वी पूर्वकालमें प्रजापति मनु से लेकर अब तक जिस वंशके विजयशाली नरेशों के अधिकार में रही है,

येषां स सगरो नाम सागरो येन खानितः।
षष्टिपुत्रसहस्राणि यं यान्तं पर्यवारयन्॥२॥

जिन्होंने समुद्र को खुदवाया था और जिन्हें यात्राकाल में साठ हजार पुत्र घेरकर चलते थे, वे महाप्रतापी राजा सगर जिनके कुलमें उत्पन्न हुए,

इक्ष्वाकूणामिदं तेषां राज्ञां वंशे महात्मनाम्।
महदुत्पन्नमाख्यानं रामायणमिति श्रुतम्॥३॥

इन्हीं इक्ष्वाकुवंशी महात्मा राजाओं की कुलपरम्परा में रामायण नाम से प्रसिद्ध इस महान् ऐतिहासिक काव्य की अवतारणा हुई है। 

तदिदं वर्तयिष्यावः सर्वं निखिलमादितः।
धर्मकामार्थसहितं श्रोतव्यमनसूयता॥४॥

हम दोनों आदिसे अन्ततक इस सारे काव्यका पूर्णरूपसे गान करेंगे। इसके द्वारा धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चारों पुरुषार्थोंकी सिद्धि होती है; अतः आपलोग दोषदृष्टिका परित्याग करके इसका श्रवण करें॥४॥

कोशलो नाम मुदितः स्फीतो जनपदो महान्।
निविष्टः सरयूतीरे प्रभूतधनधान्यवान्॥५॥

कोशल नामसे प्रसिद्ध एक बहुत बड़ा जनपद है, जो सरयू नदीके किनारे बसा हुआ है। वह प्रचुर धनधान्यसे सम्पन्न, सुखी और समृद्धिशाली है॥ ५ ॥

अयोध्या नाम नगरी तत्रासील्लोकविश्रुता।
मनुना मानवेन्द्रेण या पुरी निर्मिता स्वयम्॥६॥

उसी जनपदमें अयोध्या नामकी एक नगरी है, जो समस्त लोकोंमें विख्यात है। उस पुरीको स्वयं महाराज मनुने बनवाया और बसाया था। 

आयता दश च द्वे च योजनानि महापुरी।
श्रीमती त्रीणि विस्तीर्णा सुविभक्तमहापथा॥७॥

वह शोभाशालिनी महापुरी बारह योजन लम्बी और तीन योजन चौड़ी थी। वहाँ बाहरके जनपदोंमें जानेका जो विशाल राजमार्ग था, वह उभयपार्श्वमें विविध वृक्षावलियोंसे विभूषित होनेके कारण सुस्पष्टतया अन्य मार्गोंसे विभक्त जान पड़ता था। 

राजमार्गेण महता सुविभक्तेन शोभिता।
मुक्तपुष्पावकीर्णेन जलसिक्तेन नित्यशः॥८॥

सुन्दर विभागपूर्वक बना हुआ महान् राजमार्ग उस पुरीकी शोभा बढ़ा रहा था। उसपर खिले हुए फूल बिखेरे जाते थे तथा प्रतिदिन उसपर जलका छिड़काव होता था॥ ८॥

तां तु राजा दशरथो महाराष्ट्रविवर्धनः।
पुरीमावासयामास दिवि देवपतिर्यथा॥९॥

जैसे स्वर्गमें देवराज इन्द्रने अमरावतीपुरी बसायी थी, । उसी प्रकार धर्म और न्यायके बलसे अपने महान् राष्ट्रकी वृद्धि करनेवाले राजा दशरथने अयोध्यापुरीको पहलेकी अपेक्षा विशेषरूपसे बसाया था। 

कपाटतोरणवतीं सुविभक्तान्तरापणाम्।
सर्वयन्त्रायुधवतीमुषितां सर्वशिल्पिभिः॥१०॥

वह पुरी बड़े-बड़े फाटकों और किवाड़ोंसे सुशोभित थी। उसके भीतर पृथक्-पृथक् बाजारें थीं। वहाँ सब प्रकारके यन्त्र और अस्त्र-शस्त्र संचित थे। उस पुरीमें सभी कलाओंके शिल्पी निवास करते थे।

सूतमागधसम्बाधां श्रीमतीमतुलप्रभाम्।
उच्चाट्टालध्वजवतीं शतघ्नीशतसंकुलाम्॥११॥

स्तुति-पाठ करनेवाले सूत और वंशावलीका बखान करनेवाले मागध वहाँ भरे हुए थे। वह पुरी सुन्दर शोभासे सम्पन्न थी। उसकी सुषमाकी कहीं तुलना नहीं थी। वहाँ ऊँची-ऊँची अट्टालिकाएँ थीं, जिनके ऊपर ध्वज फहराते थे। सैकड़ों शतघ्नियों (तोपों) से वह पुरी व्याप्त थी।

वधूनाटकसंधैश्च संयुक्तां सर्वतः पुरीम्।
उद्यानाम्रवणोपेतां महतीं सालमेखलाम्॥१२॥

उस पुरीमें ऐसी बहुत-सी नाटक-मण्डलियाँ थीं, जिनमें केवल स्त्रियाँ ही नृत्य एवं अभिनय करती थीं। उस नगरीमें चारों ओर उद्यान तथा आमोंके बगीचे थे। लम्बाई और चौड़ाईकी दृष्टिसे वह पुरी बहुत विशाल थी तथा साखूके वन उसे सब ओरसे घेरे हुए थे।

दुर्गगम्भीरपरिखां दुर्गामन्यैर्दुरासदाम्।
वाजिवारणसम्पूर्णां गोभिरुष्टैः खरैस्तथा॥१३॥

उसके चारों ओर गहरी खाई खुदी थी, जिसमें प्रवेश करना या जिसे लाँघना अत्यन्त कठिन था। वह नगरी दूसरोंके लिये सर्वथा दुर्गम एवं दुर्जय थी। घोड़े, हाथी, गाय-बैल, ऊँट तथा गदहे आदि उपयोगी पशुओंसे वह पुरी भरी-पूरी थी।

सामन्तराजसंधैश्च बलिकर्मभिरावृताम्।
नानादेशनिवासैश्च वणिग्भिरुपशोभिताम्॥१४॥

कर देनेवाले सामन्त नरेशोंके समुदाय उसे सदा घेरे रहते थे। विभिन्न देशोंके निवासी वैश्य उस पुरीकी शोभा बढ़ाते थे।

प्रासादै रत्नविकृतैः पर्वतैरिव शोभिताम्।
कूटागारैश्च सम्पूर्णामिन्द्रस्येवामरावतीम्॥१५॥

वहाँके महलोंका निर्माण नाना प्रकारके रत्नोंसे हुआ था। वे गगनचुम्बी प्रासाद पर्वतोंके समान जान पड़ते थे। उनसे उस पुरीकी बड़ी शोभा हो रही थी। बहुसंख्यक कूटागारों (गुप्तगृहों अथवा स्त्रियोंके क्रीड़ाभवनों) से परिपूर्ण वह नगरी इन्द्रकी अमरावतीके समान जान पड़ती थी।

चित्रामष्टापदाकारां वरनारीगणायुताम्।
सर्वरत्नसमाकीर्णां विमानगृहशोभिताम्॥१६॥

उसकी शोभा विचित्र थी। उसके महलोंपर सोनेका पानी चढ़ाया गया था (अथवा वह पुरी द्यूतफलकके आकारमें बसायी गयी थी)। श्रेष्ठ एवं सुन्दरी नारियोंके समूह उस पुरीकी शोभा बढ़ाते थे। वह सब प्रकारके रत्नोंसे भरी-पूरी तथा सतमहले प्रासादोंसे सुशोभित थी।

गृहगाढामविच्छिद्रां समभूमौ निवेशिताम्।
शालितण्डुलसम्पूर्णामिक्षुकाण्डरसोदकाम्॥१७॥

पुरवासियोंके घरोंसे उसकी आबादी इतनी घनी हो गयी थी कि कहीं थोड़ा-सा भी अवकाश नहीं दिखायी देता था। उसे समतल भूमिपर बसाया गया था। वह नगरी जड़हन धानके चावलोंसे भरपूर थी। वहाँका जल इतना मीठा या स्वादिष्ट था, मानो ईखका रस हो॥

दुन्दुभीभिर्मेदंगैश्च वीणाभिः पणवैस्तथा।
नादितां भृशमत्यर्थं पृथिव्यां तामनुत्तमाम्॥१८॥

भूमण्डलकी वह सर्वोत्तम नगरी दुन्दुभि, मृदंग, वीणा, पणव आदि वाद्योंकी मधुर ध्वनिसे अत्यन्त गूंजती रहती थी।

विमानमिव सिद्धानां तपसाधिगतं दिवि।
सुनिवेशितवेश्मान्तां नरोत्तमसमावृताम्॥१९॥

देवलोकमें तपस्यासे प्राप्त हए सिद्धोंके विमानकी भाँति उस पुरीका भूमण्डलमें सर्वोत्तम स्थान था। वहाँके सुन्दर महल बहुत अच्छे ढंगसे बनाये और बसाये गये थे। उनके भीतरी भाग बहुत ही सुन्दर थे। बहुत-से श्रेष्ठ पुरुष उस पुरीमें निवास करते थे।

ये च बाणैर्न विध्यन्ति विविक्तमपरापरम्।
शब्दवेध्यं च विततं लघुहस्ता विशारदाः॥२०॥

जो अपने समूहसे बिछुड़कर असहाय हो गया हो, जिसके आगे-पीछे कोई न हो (अर्थात् जो पिता और पुत्र दोनोंसे हीन हो) तथा जो शब्दवेधी बाणद्वारा बेधने योग्य हों (अथवा युद्धसे हारकर भागे जा रहे हों) ऐसे पुरुषोंपर जो लोग बाणोंका प्रहार नहीं करते, जिनके सधे-सधाये हाथ शीघ्रतापूर्वक लक्ष्यवेध करनेमें समर्थ हैं, अस्त्र-शस्त्रोंके प्रयोगमें कुशलता प्राप्त कर चुके हैं तथा-

सिंहव्याघ्रवराहाणां मत्तानां नदतां वने।
हन्तारो निशितैः शस्त्रैर्बलाद् बाहुबलैरपि॥२१॥

जो वनमें गर्जते हुए मतवाले सिंहों, व्याघ्रों और सूअरोंको तीखे शस्त्रों से एवं भुजाओं के बल से भी बलपूर्वक मार डालने में समर्थ हैं-

तादृशानां सहस्रेस्तामभिपूर्णां महारथैः ।
पुरीमावासयामास राजा दशरथस्तदा ॥ २२॥

ऐसे सहस्रों महारथी वीरों से अयोध्यापुरी भरी-पूरी थी। उसे महाराज दशरथ ने बसाया और पाला था। 

तामग्निमद्भिर्गुणवद्भिरावृतां द्विजोत्तमैर्वेदषडंगपारगैः।
सहस्रदैः सत्यरतैर्महात्मभिमहर्षिकल्पैर्ऋषिभिश्च केवलैः॥२३॥

अग्निहोत्री, शम-दम आदि उत्तम गुणोंसे सम्पन्न तथा छहों अंगोंसहित सम्पूर्ण वेदोंके पारंगत विद्वान् श्रेष्ठ ब्राह्मण उस पुरीको सदा घेरे रहते थे। वे सहस्रोंका दान करनेवाले और सत्यमें तत्पर रहनेवाले थे। ऐसे महर्षिकल्प महात्माओं तथा ऋषियोंसे अयोध्यापुरी सुशोभित थी तथा राजा दशरथ उसकी रक्षा करते थे।

सर्ग ६ 

तस्यां पुर्यामयोध्यायां वेदवित् सर्वसंग्रहः।
दीर्घदर्शी महातेजाः पौरजानपदप्रियः॥१॥

उस अयोध्यापुरी में रहकर राजा दशरथ प्रजावर्ग का पालन करते थे। वे वेदों के विद्वान् तथा सभी उपयोगी वस्तुओं का संग्रह करने वाले थे। दूरदर्शी और महान् तेजस्वी थे। नगर और जनपद की प्रजा उनसे बहुत प्रेम रखती थी।

इक्ष्वाकूणामतिरथो यज्वा धर्मपरो वशी।
महर्षिकल्पो राजर्षिस्त्रिषु लोकेषु विश्रुतः॥२॥

वे इक्ष्वाकुकुलके अतिरथी वीर थे। यज्ञ करनेवाले, धर्मपरायण और जितेन्द्रिय थे। महर्षियोंके समान दिव्य गुणसम्पन्न राजर्षि थे। उनकी तीनों लोकोंमें ख्याति थी।

बलवान् निहतामित्रो मित्रवान् विजितेन्द्रियः।
धनैश्च संचयैश्चान्यैः शक्रवैश्रवणोपमः॥३॥

वे बलवान्, शत्रुहीन, मित्रोंसे युक्त एवं इन्द्रियविजयी थे। धन और अन्य वस्तुओंके संचयकी दृष्टि से इन्द्र और कुबेरके समान जान पड़ते थे।

यथा मनुर्महातेजा लोकस्य परिरक्षिता।
तथा दशरथो राजा लोकस्य परिरक्षिता॥४॥

जैसे महातेजस्वी प्रजापति मनु सम्पूर्ण जगत् की रक्षा करते थे, उसी प्रकार महाराज दशरथ भी करते थे।

तेन सत्याभिसंधेन त्रिवर्गमनुतिष्ठता।
पालिता सा पुरी श्रेष्ठा इन्द्रेणेवामरावती॥५॥

धर्म, अर्थ और कामका सम्पादन करने वाले कर्मों का अनुष्ठान करते हुए वे सत्यप्रतिज्ञ नरेश उस श्रेष्ठ अयोध्यापुरी का उसी तरह पालन करते थे, जैसे इन्द्र अमरावतीपुरी का।

तस्मिन् पुरवरे हृष्टा धर्मात्मानो बहुश्रुताः।
नरास्तुष्टा धनैः स्वैः स्वैरलुब्धाः सत्यवादिनः॥६॥

उस उत्तम नगरमें निवास करनेवाले सभी मनुष्य प्रसन्न, धर्मात्मा, बहुश्रुत, निर्लोभ, सत्यवादी तथा अपने-अपने धनसे संतुष्ट रहनेवाले थे।

नाल्पसंनिचयः कश्चिदासीत् तस्मिन् पुरोत्तमे।
कुटुम्बी यो ह्यसिद्धार्थोऽगवाश्वधनधान्यवान्॥७॥

उस श्रेष्ठ पुरीमें कोई भी ऐसा कुटुम्बी नहीं था, जिसके पास उत्कृष्ट वस्तुओंका संग्रह अधिक मात्रामें न हो, जिसके धर्म, अर्थ और काममय पुरुषार्थ सिद्ध न हो गये हों तथा जिसके पास गाय-बैल, घोड़े, धनधान्य आदिका अभाव हो।

कामी वा न कदर्यो वा नृशंसः पुरुषः क्वचित्।
द्रष्टुं शक्यमयोध्यायां नाविद्वान् न च नास्तिकः॥८॥

अयोध्यामें कहीं भी कोई कामी, कृपण, क्रूर, मूर्ख और नास्तिक मनुष्य देखनेको भी नहीं मिलता था।

सर्वे नराश्च नार्यश्च धर्मशीलाः सुसंयताः।
मुदिताः शीलवृत्ताभ्यां महर्षय इवामलाः॥९॥

वहाँके सभी स्त्री-पुरुष धर्मशील, संयमी, सदा प्रसन्न रहनेवाले तथा शील और सदाचारकी दृष्टिसे महर्षियोंकी भाँति निर्मल थे।

नाकुण्डली नामुकुटी नास्रग्वी नाल्पभोगवान्।
नामृष्टो न नलिप्तांगो नासुगन्धश्च विद्यते॥१०॥

वहाँ कोई भी कुण्डल, मुकुट और पुष्पहारसे शून्य नहीं था। किसीके पास भोग-सामग्रीकी कमी नहीं थी। कोई भी ऐसा नहीं था, जो नहा-धोकर साफ-सुथरा न हो, जिसके अंगोंमें चन्दनका लेप न हुआ हो तथा जो सुगन्धसे वञ्चित हो।

नामृष्टभोजी नादाता नाप्यनंगदनिष्कधृक्।
नाहस्ताभरणो वापि दृश्यते नाप्यनात्मवान्॥११॥

अपवित्र अन्न भोजन करनेवाला, दान न देनेवाला तथा मनको काबूमें न रखनेवाला मनुष्य तो वहाँ कोई दिखायी ही नहीं देता था। कोई भी ऐसा पुरुष देखनेमें नहीं आता था, जो बाजूबन्द, निष्क (स्वर्णपदक या मोहर) तथा हाथका आभूषण (कड़ा आदि) धारण न किये हो।

नानाहिताग्निर्नायज्वा न क्षुद्रो वा न तस्करः।
कश्चिदासीदयोध्यायां न चावृत्तो न संकरः॥

अयोध्यामें कोई भी ऐसा नहीं था, जो अग्निहोत्र और यज्ञ न करता हो; जो क्षुद्र, चोर, सदाचारशून्य अथवा वर्णसंकर हो।

स्वकर्मनिरता नित्यं ब्राह्मणा विजितेन्द्रियाः।
दानाध्ययनशीलाश्च संयताश्च प्रतिग्रहे ॥१३॥

वहाँ निवास करनेवाले ब्राह्मण सदा अपने कर्मोमें लगे रहते, इन्द्रियोंको वशमें रखते, दान और स्वाध्याय करते तथा प्रतिग्रहसे बचे रहते थे।

नास्तिको नानृती वापि न कश्चिदबहुश्रुतः।
नासूयको न चाशक्तो नाविद्वान् विद्यते क्वचित्॥१४॥

वहाँ कहीं एक भी ऐसा द्विज नहीं था, जो नास्तिक, असत्यवादी, अनेक शास्त्रोंके ज्ञानसे रहित, दूसरोंके दोष ढूँढ़नेवाला, साधनमें असमर्थ और विद्याहीन हो।

नाषडंगविदत्रास्ति नाव्रतो नासहस्रदः।
न दीनः क्षिप्तचित्तो वा व्यथितो वापि कश्चन॥१५॥

उस पुरीमें वेदके छहों अंगोंको न जाननेवाला, व्रतहीन, सहस्रोंसे कम दान देनेवाला, दीन, विक्षिप्तचित्त अथवा दुःखी भी कोई नहीं था।

कश्चिन्नरो वा नारी वा नाश्रीमान् नाप्यरूपवान्।
द्रष्टुं शक्यमयोध्यायां नापि राजन्यभक्तिमान्॥१६॥

अयोध्यामें कोई भी स्त्री या पुरुष ऐसा नहीं देखा जा सकता था, जो श्रीहीन, रूपरहित तथा राजभक्तिसे शून्य हो।

वर्णेष्वग्र्यचतुर्थेषु देवतातिथिपूजकाः।
कृतज्ञाश्च वदान्याश्च शूरा विक्रमसंयुताः॥१७॥

ब्राह्मण आदि चारों वर्गों के लोग देवता और अतिथियोंके पूजक, कृतज्ञ, उदार, शूरवीर और पराक्रमी थे।

दीर्घायुषो नराः सर्वे धर्मं सत्यं च संश्रिताः।
सहिताः पुत्रपौत्रैश्च नित्यं स्त्रीभिः पुरोत्तमे॥१८॥

उस श्रेष्ठ नगरमें निवास करनेवाले सब मनुष्य दीर्घायु तथा धर्म और सत्यका आश्रय लेनेवाले थे। वे सदा स्त्री-पुत्र और पौत्र आदि परिवारके साथ सुखसे रहते थे।

क्षत्रं ब्रह्ममुखं चासीद् वैश्याः क्षत्रमनुव्रताः।
शूद्राः स्वकर्मनिरतास्त्रीन् वर्णानुपचारिणः॥१९॥

क्षत्रिय ब्राह्मणोंका मुँह जोहते थे, वैश्य क्षत्रियोंकी आज्ञाका पालन करते थे और शूद्र अपने कर्तव्यका पालन करते हुए उपर्युक्त तीनों वर्गों की सेवामें संलग्न रहते थे।

सा तेनेक्ष्वाकुनाथेन पुरी सुपरिरक्षिता।
यथा पुरस्तान्मनुना मानवेन्द्रेण धीमता॥२०॥

इक्ष्वाकुकुलके स्वामी राजा दशरथ अयोध्यापुरीकी रक्षा उसी प्रकार करते थे, जैसे बुद्धिमान् महाराज मनुने पूर्वकालमें उसकी रक्षा की थी।

योधानामग्निकल्पानां पेशलानाममर्षिणाम्।
सम्पूर्णा कृतविद्यानां गुहा केसरिणामिव॥२१॥

शौर्यकी अधिकताके कारण अग्निके समान दुर्धर्ष, कुटिलतासे रहित, अपमानको सहन करनेमें असमर्थ तथा अस्त्र-शस्त्रोंके ज्ञाता योद्धाओंके समुदायसे वह पुरी उसी तरह भरी-पूरी रहती थी, जैसे पर्वतोंकी गुफा सिंहोंके समूहसे परिपूर्ण होती है।

काम्बोजविषये जातैर्बाह्नीकैश्च हयोत्तमैः।
वनायुजैर्नदीजैश्च पूर्णा हरिहयोत्तमैः॥ २२॥

काम्बोज और बालीक देशमें उत्पन्न हुए उत्तम घोड़ोंसे, वनायु देशके अश्वोंसे तथा सिन्धुनदके निकट पैदा होनेवाले दरियाई घोड़ोंसे, जो इन्द्रके अश्व । उच्चैःश्रवाके समान श्रेष्ठ थे, अयोध्यापुरी भरी रहती थी।

विन्ध्यपर्वतजैर्मत्तैः पूर्णा हैमवतैरपि।
मदान्वितैरतिबलैर्मातंगैः पर्वतोपमैः ॥२३॥

विन्ध्य और हिमालय पर्वतोंमें उत्पन्न होनेवाले अत्यन्त बलशाली पर्वताकार मदमत्त गजराजोंसे भी वह नगरी परिपूर्ण रहती थी।

ऐरावतकुलीनैश्च महापद्मकुलैस्तथा।
अञ्जनादपि निष्क्रान्तर्वामनादपि च द्विपैः ॥२४॥

रावतकुलमें उत्पन्न, महापद्मके वंशमें पैदा हुए तथा अञ्जन और वामन नामक दिग्गजों से भी प्रकट हुए हाथी उस पुरीकी पूर्णतामें सहायक हो रहे थे।

भद्रैर्मन्म॑गैश्चैव भद्रमन्द्रमृगैस्तथा।
भद्रमन्द्रैर्भद्रमृगैर्मुगमन्त्रैश्च सा पुरी॥२५॥

हिमालय पर्वत पर उत्पन्न भद्रजाति के, विन्ध्यपर्वत पर उत्पन्न हुए मन्द्रजाति के तथा सह्यपर्वत पर पैदा हुए मृग जाति के हाथी भी वहाँ मौजूद थे। भद्र, मन्द्र और मृग -इन तीनों के मेल से उत्पन्न हुए संकरजाति के, भद्र और मन्द्र-इन दो जातियों के मेल से पैदा हुए संकर जाति के, भद्र और मृग जातिके संयोगसे उत्पन्न संकरजाति के तथा मृग और मन्द्र-इन दो जातियोंके सम्मिश्रण से पैदा हुए पर्वताकार गजराज भी, जो सदा मदोन्मत्त रहते थे, उस पुरीमें भरे हुए थे।

नित्यमत्तैः सदा पूर्णा नागैरचलसंनिभैः।
सा योजने द्वे च भूयः सत्यनामा प्रकाशते।
यस्यां दशरथो राजा वसञ्जगदपालयत्॥२६॥

(तीन योजनके विस्तारवाली अयोध्यामें) दो योजनकी भूमि । तो ऐसी थी, जहाँ पहुँचकर किसीके लिये भी युद्ध करना असम्भव था, इसलिये वह पुरी ‘अयोध्या’ इस सत्य एवं सार्थक नामसे प्रकाशित होती थी; जिसमें रहते हुए राजा दशरथ इस जगत् का (अपने राज्यका) पालन करते थे। 

तां पुरीं स महातेजा राजा दशरथो महान्।
शशास शमितामित्रो नक्षत्राणीव चन्द्रमाः॥२७॥

जैसे चन्द्रमा नक्षत्रलोकका शासन करते हैं, उसी प्रकार महातेजस्वी महाराज दशरथ अयोध्यापुरीका शासन करते थे। उन्होंने अपने समस्त शत्रुओंको नष्ट कर दिया था।

तां सत्यनामां दृढतोरणार्गलां गृहैर्विचित्रैरुपशोभितां शिवाम्।
पुरीमयोध्यां नृसहस्रसंकुलां शशास वै शक्रसमो महीपतिः॥२८॥

जिसका अयोध्या नाम सत्य एवं सार्थक था, जिसके दरवाजे और अर्गला सुदृढ़ थे, जो विचित्र गृहोंसे सदा सुशोभित होती थी, सहस्रों मनुष्योंसे भरी हुई उस कल्याणमयी पुरीका इन्द्रतुल्य तेजस्वी राजा दशरथ न्यायपूर्वक शासन करते थे। 

सर्ग ७ 

तस्यामात्या गुणैरासन्निक्ष्वाकोः सुमहात्मनः।
मन्त्रज्ञाश्चेङ्गितज्ञाश्च नित्यं प्रियहिते रताः॥१॥

इक्ष्वाकुवंशी वीर महामना महाराज दशरथके मन्त्रिजनोचित गुणोंसे सम्पन्न आठ मन्त्री थे, जो मन्त्रके तत्त्वको जाननेवाले और बाहरी चेष्टा देखकर ही मनके भावको समझ लेनेवाले थे। वे सदा ही राजाके प्रिय एवं हितमें लगे रहते थे।

अष्टौ बभूवुर्वीरस्य तस्यामात्या यशस्विनः।
शुचयश्चानुरक्ताश्च राजकृत्येषु नित्यशः॥२॥

इसीलिये उनका यश बहुत फैला हुआ था। वे सभी शुद्ध आचारविचार से युक्त थे और राजकीय कार्यों में निरन्तर संलग्न रहते थे।

धृष्टिर्जयन्तो विजयः सुराष्ट्रो राष्ट्रवर्धनः ।
अकोपो धर्मपालश्च सुमन्त्रश्चाष्टमोऽर्थवित्॥३॥ 

उनके नाम इस प्रकार हैं- धृष्टि, जयन्त, विजय, सुराष्ट्र, राष्ट्रवर्धन, अकोप, धर्मपाल और आठवें सुमन्त्र। जो अर्थशास्त्र के ज्ञाता थे।

ऋत्विजौ द्वावभिमतौ तस्यास्तामृषिसत्तमौ।
वसिष्ठो वामदेवश्च मन्त्रिणश्च तथापरे॥४॥

ऋषियों में श्रेष्ठतम वसिष्ठ और वामदेव - ये दो महर्षि राजा के माननीय ऋत्विज् (पुरोहित) थे।

सुयज्ञोऽप्यथ जाबालिः काश्यपोऽप्यथ गौतमः।
मार्कण्डेयस्तु दीर्घायुस्तथा कात्यायनो द्विजः॥५॥

इनके सिवा सुयज्ञ, जाबालि, काश्यप, गौतम, दीर्घायु मार्कण्डेय और विप्रवर कात्यायन भी महाराज के मन्त्री थे।

एतैर्ब्रह्मर्षिभिर्नित्यमृत्विजस्तस्य पौर्वकाः।
विद्याविनीता हीमन्तः कुशला नियतेन्द्रियाः॥६॥

इन ब्रह्मर्षियोंके साथ राजाके पूर्वपरम्परागत ऋत्विज् भी सदा मन्त्रीका कार्य करते थे। वे सब-के-सब विद्वान् होनेके कारण विनयशील, सलज्ज, कार्यकुशल, जितेन्द्रिय,-

श्रीमन्तश्च महात्मानः शस्त्रज्ञा दृढविक्रमाः।
कीर्तिमन्तः प्रणिहिता यथावचनकारिणः॥७॥

श्रीसम्पन्न, महात्मा, शस्त्रविद्याके ज्ञाता, सुदृढ़ पराक्रमी, यशस्वी, समस्त राजकार्यों में सावधान, राजाकी आज्ञाके अनुसार कार्य करनेवाले,

तेजःक्षमायशःप्राप्ताः स्मितपूर्वाभिभाषिणः।
क्रोधात् कामार्थहेतोर्वा न ब्रूयुरनृतं वचः॥८॥

तेजस्वी, क्षमाशील, कीर्तिमान् तथा मुसकराकर बात करनेवाले थे। वे कभी काम, क्रोध या स्वार्थके वशीभूत होकर झूठ नहीं बोलते थे।

तेषामविदितं किंचित् स्वेषु नास्ति परेषु वा।
क्रियमाणं कृतं वापि चारेणापि चिकीर्षितम्॥९॥

अपने या शत्रुपक्ष के राजाओं की कोई भी बात उनसे छिपी नहीं रहती थी। दूसरे राजा क्या करते हैं, क्या कर चुके हैं और क्या करना चाहते हैं—ये सभी बातें गुप्तचरोंद्वारा उन्हें मालूम रहती थीं।

कुशला व्यवहारेषु सौहृदेषु परीक्षिताः।
प्राप्तकालं यथा दण्डं धारयेयुः सुतेष्वपि॥१०॥

वे सभी व्यवहारकुशल थे। उनके सौहार्दकी अनेक अवसरोंपर परीक्षा ली जा चुकी थी। वे मौका पड़नेपर अपने पुत्रको भी उचित दण्ड देने में भी नहीं हिचकते थे।

कोशसंग्रहणे युक्ता बलस्य च परिग्रहे।
अहितं चापि पुरुषं न हिंस्युरविदूषकम्॥११॥

कोषके संचय तथा चतुरंगिणी सेनाके संग्रहमें सदा लगे रहते थे। शत्रुने भी यदि अपराध न किया हो तो वे उसकी हिंसा नहीं करते थे।

वीराश्च नियतोत्साहा राजशास्त्रमनुष्ठिताः।
शुचीनां रक्षितारश्च नित्यं विषयवासिनाम्॥१२॥

उन सबमें सदा शौर्य एवं उत्साह भरा रहता था। वे राजनीतिके अनुसार कार्य करते तथा अपने राज्यके भीतर रहनेवाले सत्पुरुषोंकी सदा रक्षा करते थे।

ब्रह्मक्षत्रमहिंसन्तस्ते कोशं समपूरयन्।
सुतीक्ष्णदण्डाः सम्प्रेक्ष्य पुरुषस्य बलाबलम्॥१३॥

ब्राह्मणों और क्षत्रियोंको कष्ट न पहुँचाकर न्यायोचित धनसे राजाका खजाना भरते थे। वे अपराधी पुरुषके बलाबलको देखकर उसके प्रति तीक्ष्ण अथवा मृदु दण्डका प्रयोग करते थे।

शुचीनामेकबुद्धीनां सर्वेषां सम्प्रजानताम्।
नासीत्पुरे वा राष्ट्र वा मृषावादी नरः क्वचित्॥१४॥

उन सबके भाव शुद्ध और विचार एक थे। उनकी जानकारीमें अयोध्यापुरी अथवा कोसलराज्यके भीतर कहीं एक भी मनुष्य ऐसा नहीं था, जो मिथ्यावादी,-

क्वचिन्न दुष्टस्तत्रासीत् परदाररतिर्नरः।
प्रशान्तं सर्वमेवासीद् राष्ट्र पुरवरं च तत्॥१५॥

दुष्ट और परस्त्रीलम्पट हो। सम्पूर्ण राष्ट्र और नगरमें पूर्ण शान्ति छायी रहती थी।

सुवाससः सुवेषाश्च ते च सर्वे शुचिव्रताः।
हितार्थाश्च नरेन्द्रस्य जाग्रतो नयचक्षुषा॥१६॥

उन मन्त्रियोंके वस्त्र और वेष स्वच्छ एवं सुन्दर होते थे। वे उत्तम व्रतका पालन करनेवाले तथा राजाके हितैषी थे। नीतिरूपी नेत्रोंसे देखते हुए सदा सजग रहते थे।

गुरोर्गुणगृहीताश्च प्रख्याताश्च पराक्रमैः।
विदेशेष्वपि विज्ञाताः सर्वतो बुद्धिनिश्चयाः॥ १७॥

अपने गुणोंके कारण वे सभी मन्त्री गुरुतुल्य समादरणीय राजाके अनुग्रहपात्र थे। अपने पराक्रमोंके कारण उनकी सर्वत्र ख्याति थी। विदेशोंमें भी सब लोग उन्हें जानते थे। वे सभी बातोंमें बुद्धिद्वारा भलीभाँति विचार करके किसी निश्चयपर पहुँचते थे।

अभितो गुणवन्तश्च न चासन् गुणवर्जिताः।
संधिविग्रहतत्त्वज्ञाः प्रकृत्या सम्पदान्विताः॥१८॥

समस्त देशों और कालोंमें वे गुणवान् ही सिद्ध होते थे, गुणहीन नहीं। संधि और विग्रहके उपयोग और अवसरका उन्हें अच्छी तरह ज्ञान था। वे स्वभावसे ही सम्पत्तिशाली (दैवी सम्पत्तिसे युक्त) थे।

मन्त्रसंवरणे शक्ताः शक्ताः सूक्ष्मासु बुद्धिषु।
नीतिशास्त्रविशेषज्ञाः सततं प्रियवादिनः॥१९॥

उनमें राजकीय मन्त्रणाको गुप्त रखनेकी पूर्ण शक्ति थी। वे सूक्ष्मविषयका विचार करनेमें कुशल थे। नीतिशास्त्रमें उनकी विशेष जानकारी थी तथा वे सदा ही प्रिय लगनेवाली बात बोलते थे।

ईदृशैस्तैरमात्यैश्च राजा दशरथोऽनघः।
उपपन्नो गुणोपेतैरन्वशासद् वसुन्धराम्॥२०॥

ऐसे गुणवान् मन्त्रियोंके साथ रहकर निष्पाप राजा दशरथ उस भूमण्डलका शासन करते थे।

अवेक्ष्यमाणश्चारेण प्रजा धर्मेण रक्षयन्।
प्रजानां पालनं कुर्वन्नधर्म परिवर्जयन्॥२१॥

वे गुप्तचरोंके द्वारा अपने और शत्रु-राज्यके वृत्तान्तोंपर दृष्टि रखते थे, प्रजाका धर्मपूर्वक पालन करते थे तथा प्रजापालन करते हुए अधर्मसे दूर ही रहते थे।

विश्रुतस्त्रिषु लोकेषु वदान्यः सत्यसंगरः।
स तत्र पुरुषव्याघ्रः शशास पृथिवीमिमाम्॥२२॥

उनकी तीनों लोकोंमें प्रसिद्धि थी। वे उदार और सत्यप्रतिज्ञ थे। पुरुषसिंह राजा दशरथ अयोध्यामें ही रहकर इस पृथ्वीका शासन करते थे।

नाध्यगच्छद्विशिष्टं वा तुल्यं वा शत्रुमात्मनः।
मित्रवान्नतसामन्तः प्रतापहतकण्टकः।
स शशास जगद् राजा दिवि देवपतिर्यथा॥२३॥

उन्हें कभी अपनेसे बड़ा अथवा अपने समान भी कोई शत्रु नहीं मिला। उनके मित्रोंकी संख्या बहुत थी। सभी सामन्त उनके चरणोंमें मस्तक झुकाते थे। उनके प्रतापसे राज्यके सारे कण्टक (शत्रु एवं चोर आदि) नष्ट हो गये थे। जैसे देवराज इन्द्र स्वर्गमें रहकर तीनों लोकोंका पालन करते हैं, उसी प्रकार राजा दशरथ अयोध्यामें रहकर सम्पूर्ण जगत् का शासन करते थे। 

तैर्मन्त्रिभिर्मन्त्रहिते निविष्टैवृतोऽनुरक्तैः कुशलैः समर्थैः ।
स पार्थिवो दीप्तिमवाप युक्तस्तेजोमयैर्गोभिरिवोदितोऽर्कः॥२४॥

उनके मन्त्री मन्त्रणाको गुप्त रखने तथा राज्यके हित-साधनमें संलग्न रहते थे। वे राजाके प्रति अनुरक्त, कार्यकुशल और शक्तिशाली थे। जैसे सूर्य अपनी तेजोमयी किरणोंके साथ उदित होकर प्रकाशित होते हैं, उसी प्रकार राजा दशरथ उन तेजस्वी मन्त्रियोंसे घिरे । रहकर बड़ी शोभा पाते थे। 

सर्ग ८ 

तस्य चैवंप्रभावस्य धर्मज्ञस्य महात्मनः।
सुतार्थं तप्यमानस्य नासीद् वंशकरः सुतः॥१॥

सम्पूर्ण धर्मोको जाननेवाले महात्मा राजा दशरथ ऐसे प्रभावशाली होते हुए भी पुत्रके लिये सदा चिन्तित रहते थे। उनके वंशको चलानेवाला कोई पुत्र नहीं था। 

चिन्तयानस्य तस्यैवं बुद्धिरासीन्महात्मनः।
सुतार्थं वाजिमेधेन किमर्थं न यजाम्यहम्॥२॥

उसके लिये चिन्ता करते-करते एक दिन उन महामनस्वी नरेशके मनमें यह विचार हुआ कि मैं पुत्रप्राप्तिके लिये अश्वमेध यज्ञका अनुष्ठान क्यों न करूँ?

स निश्चितां मतिं कृत्वा यष्टव्यमिति बुद्धिमान्।
मन्त्रिभिः सह धर्मात्मा सर्वैरपि कृतात्मभिः॥३॥

अपने समस्त शुद्ध बुद्धिवाले मन्त्रियोंके साथ परामर्शपूर्वक यज्ञ करने का ही निश्चित विचार करके-

ततोऽब्रवीन्महातेजाः सुमन्त्रं मन्त्रिसत्तम।
शीघ्रमानय मे सर्वान् गुरूंस्तान् सपुरोहितान्॥४॥

उन महातेजस्वी, बुद्धिमान् एवं धर्मात्मा राजा ने सुमन्त्र से कहा—’मन्त्रिवर! तुम मेरे समस्त गुरुजनों एवं पुरोहितोंको यहाँ शीघ्र बुला ले आओ’।

ततः सुमन्त्रस्त्वरितं गत्वा त्वरितविक्रमः।
समानयत् स तान् सर्वान् समस्तान् वेदपारगान्॥५॥

तब शीघ्रतापूर्वक पराक्रम प्रकट करनेवाले सुमन्त्र तुरंत जाकर उन समस्त वेदविद्याके पारंगत मुनियोंको वहाँ बुला लाये।

सुयज्ञं वामदेवं च जाबालिमथ काश्यपम्।
परोहितं वसिष्ठं च ये चाप्यन्ये द्विजोत्तमाः॥६॥

सुयज्ञ, वामदेव, जाबालि, काश्यप, कुलपुरोहित वसिष्ठ तथा और भी जो श्रेष्ठ ब्राह्मण थे -

तान् पूजयित्वा धर्मात्मा राजा दशरथस्तदा।
इदं धर्मार्थसहितं श्लक्ष्णं वचनमब्रवीत्॥७॥

उन सबकी पूजा करके धर्मात्मा राजा दशरथ ने धर्म और अर्थ से युक्त यह मधुर वचन कहा-

मम लालप्यमानस्य सुतार्थं नास्ति वै सुखम्।
तदर्थं हयमेधेन यक्ष्यामीति मतिर्मम॥८॥

‘महर्षियो! मैं सदा पुत्रके लिये विलाप करता रहता हूँ। उसके बिना इस राज्य आदिसे मुझे सुख नहीं मिलता; अतः मैंने यह निश्चय किया है कि मैं पुत्रप्राप्तिके लिये अश्वमेधद्वारा भगवान् का यजन करूँ।

तदहं यष्टुमिच्छामि शास्त्रदृष्टेन कर्मणा।
कथं प्राप्स्याम्यहं कामं बुद्धिरत्रविचिन्त्यताम्॥९॥

‘मेरी इच्छा है कि शास्त्रोक्त विधिसे इस यज्ञका अनुष्ठान करूँ; अतः किस प्रकार मुझे मेरी मनोवाञ्छित वस्तु प्राप्त होगी? इसका विचार आपलोग यहाँ करें’।

ततः साध्विति तद्वाक्यं ब्राह्मणाः प्रत्यपूजयन्।
वसिष्ठप्रमुखाः सर्वे पार्थिवस्य मुखेरितम्॥१०॥

राजाके ऐसा कहनेपर वसिष्ठ आदि सब ब्राह्मणोंने ‘बहुत अच्छा’ कहकर उनके मुखसे कहे गये पूर्वोक्त वचनकी प्रशंसा की।

ऊचुश्च परमप्रीताः सर्वे दशरथं वचः।
सम्भाराः सम्भियन्तां ते तुरगश्च विमुच्यताम्॥११॥

फिर वे सभी अत्यन्त प्रसन्न होकर राजा दशरथसे बोले - ’महाराज! यज्ञ-सामग्रीका संग्रह किया जाय। भूमण्डलमें भ्रमणके लिये यज्ञसम्बन्धी अश्व छोड़ा जाय तथा-

सरय्वाश्चोत्तरे तीरे यज्ञभूमिर्विधीयताम्।
सर्वथा प्राप्स्यसे पुत्रानभिप्रेतांश्च पार्थिव॥१२॥

सरयू के उत्तर तटपर यज्ञभूमि का निर्माण किया जाय। तुम यज्ञ द्वारा सर्वथा अपनी इच्छा के अनुरूप पुत्र प्राप्त कर लोगे -

यस्य ते धार्मिकी बुद्धिरियं पत्रार्थमागता।
ततस्तुष्टोऽभवद् राजा श्रुत्वैतद् द्विजभाषितम्॥१३॥

क्यों कि पुत्रके लिये तुम्हारे हृदय में ऐसी धार्मिक बुद्धि का उदय हुआ है’।

अमात्यानब्रवीद् राजा हर्षव्याकुललोचनः।
सम्भाराः सम्भ्रियन्तां मे गुरूणां वचनादिह ॥१४॥

ब्राह्मणोंका यह कथन सुनकर राजा बहुत संतुष्ट हुए। हर्षसे उनके नेत्र चञ्चल हो उठे। वे अपने मन्त्रियों से बोले - ‘गुरुजनोंकी आज्ञाके अनुसार यज्ञकी सामग्री यहाँ एकत्र की जाय।

समर्थाधिष्ठितश्चाश्वः सोपाध्यायो विमुच्यताम्।
सरय्वाश्चोत्तरे तीरे यज्ञभूमिर्विधीयताम्॥१५॥

शक्तिशाली वीरों के संरक्षण में उपाध्याय सहित अश्व को छोड़ा जाय। सरयू के उत्तर तट पर यज्ञभूमि का निर्माण हो।

शान्तयश्चापि वर्धन्तां यथाकल्पं यथाविधि।
शक्यः प्राप्तुमयं यज्ञः सर्वेणापि महीक्षिता॥१६॥

शास्त्रोक्त विधि के अनुसार क्रमशः शान्तिकर्म का विस्तार किया जाय (जिससे विघ्नोंका निवारण हो)। सभी राजा इसका सम्पादन कर सकते हैं।

नापराधो भवेत् कष्टो यद्यस्मिन् क्रतुसत्तमे।
छिद्रं हि मृगयन्ते स्म विद्वांसो ब्रह्मराक्षसाः॥१७॥

यदि इस श्रेष्ठ यज्ञमें कष्टप्रद अपराध बन जानेका भय न हो; परंतु ऐसा होना कठिन है; क्योंकि विद्वान् ब्रह्मराक्षस यज्ञ में विघ्न डालने के लिये छिद्र ढूँढ़ा करते हैं।

विधिहीनस्य यज्ञस्य सद्यः कर्ता विनश्यति।
तद्यथा विधिपूर्वं मे क्रतुरेष समाप्यते॥१८॥

‘विधिहीन यज्ञ का अनुष्ठान करने वाला यजमान तत्काल नष्ट हो जाता है; अतः मेरा यह यज्ञ जिस तरह विधिपूर्वक सम्पन्न हो सके -

तथा विधानं क्रियतां समर्थाः साधनेष्विति।
तथेति चाब्रुवन् सर्वे मन्त्रिणः प्रतिपूजिताः॥१९॥

वैसा उपाय किया जाय। तुम सब लोग ऐसे साधन प्रस्तुत करने में समर्थ हो’। राजाके द्वारा सम्मानित हुए समस्त मन्त्री पूर्ववत् उनके वचनोंको सुनकर बोले-‘बहुत अच्छा, ऐसा ही होगा’

पार्थिवेन्द्रस्य तद् वाक्यं यथापूर्वं निशम्य ते।
तथा द्विजास्ते धर्मज्ञा वर्धयन्तो नृपोत्तमम्॥२०॥

इसी प्रकार वे सभी धर्मज्ञ ब्राह्मण भी नृपश्रेष्ठ दशरथको बधाई देते हुए उनकी आज्ञा लेकर जैसे आये थे -

अनुज्ञातास्ततः सर्वे पुनर्जग्मुर्यथागतम्।
विसर्जयित्वा तान् विप्रान् सचिवानिदमब्रवीत्॥२१॥

वैसे ही फिर लौट गये। उन ब्राह्मणोंको विदा करके राजाने मन्त्रियोंसे कहा -

ऋत्विग्भिरुपसंदिष्टो यथावत् क्रतुराप्यताम्।
इत्युक्त्वा नृपशार्दूलः सचिवान् समुपस्थितान्॥२२॥

’पुरोहितोंके उपदेशके अनुसार इस यज्ञको विधिवत् पूर्ण करना चाहिये’। वहाँ उपस्थित हुए मन्त्रियोंसे ऐसा कहकर-

विसर्जयित्वा स्वं वेश्म प्रविवेश महामतिः।
ततः स गत्वा ताः पत्नीनरेन्द्रो हृदयंगमाः॥२३॥

परम बुद्धिमान् नृपश्रेष्ठ दशरथ उन्हें विदा करके अपने महलमें चले गये। वहाँ जाकर नरेशने अपनी प्यारी पत्नियोंसे कहा -

उवाच दीक्षां विशत यक्ष्येऽहं सुतकारणात्।
तासां तेनातिकान्तेन वचनेन सुवर्चसाम्।
मुखपद्मान्यशोभन्त पद्मानीव हिमात्यये॥२४॥

’देवियो! दीक्षा ग्रहण करो। मैं पुत्रके लिये यज्ञ करूँगा’। उस मनोहर वचनसे उन सुन्दर कान्तिवाली रानियोंके मुखकमल वसन्तऋतुमें विकसित होनेवाले पङ्कजोंके समान खिल उठे और अत्यन्त शोभा पाने लगे।

सर्ग ९ 

एतच्छ्रुत्वा रहः सूतो राजानमिदमब्रवीत्।
श्रूयतां तत् पुरावृत्तं पुराणे च मया श्रुतम्॥१॥

पुत्र के लिये अश्वमेध यज्ञ करने की बात सुनकर सुमन्त्रने राजासे एकान्तमें कहा—’महाराज! एक पुराना इतिहास सुनिये। मैंने पुराण में भी इसका वर्णन सुना है।

ऋत्विग्भिरुपदिष्टोऽयं पुरावृत्तो मया श्रुतः।
सनत्कुमारो भगवान् पूर्वं कथितवान् कथाम्॥२॥

‘ऋत्विजों ने पुत्र-प्राप्तिके लिये इस अश्वमेधरूप उपाय का उपदेश किया है; परंतु मैंने इतिहासके रूपमें कुछ विशेष बात सुनी है। राजन्! पूर्वकालमें भगवान् सनत्कुमारने ऋषियों के निकट एक कथा सुनायी थी।

ऋषीणां संनिधौ राजंस्तव पुत्रागमं प्रति।
काश्यपस्य च पुत्रोऽस्ति विभाण्डक इति श्रुतः॥३॥

वह आपकी पुत्रप्राप्ति से सम्बन्ध रखने वाली है। ‘उन्होंने कहा था, मुनिवरो! महर्षि काश्यप के विभाण्डक नाम से प्रसिद्ध एक पुत्र हैं।

ऋष्यशृंग इति ख्यातस्तस्य पुत्रो भविष्यति।
स वने नित्यसंवृद्धो मुनिर्वनचरः सदा॥४॥

 उनके भी एक पुत्र होगा, जिसकी लोगों में ऋष्यशृंग नाम से प्रसिद्धि होगी। वे ऋष्यशृंग मुनि सदा वन में ही रहेंगे और वन में ही सदा लालन-पालन पाकर वे बड़े होंगे।

नान्यं जानाति विप्रेन्द्रो नित्यं पित्रनुवर्तनात्।
दैविध्यं ब्रह्मचर्यस्य भविष्यति महात्मनः॥५॥

‘सदा पिताके ही साथ रहने के कारण विप्रवर ऋष्यशृंग दूसरे किसी को नहीं जानेंगे। राजन्! लोक में ब्रह्मचर्य के दो रूप विख्यात हैं और ब्राह्मणों ने सदा उन दोनों स्वरूपोंका वर्णन किया है। 

लोकेषु प्रथितं राजन् विप्रैश्च कथितं सदा।
तस्यैवं वर्तमानस्य कालः समभिवर्तत॥६॥

एक तो है दण्ड, मेखला आदि धारणरूप मुख्य ब्रह्मचर्य और दूसरा है ऋतुकाल में पत्नी-समागमरूप गौण ब्रह्मचर्य। उन महात्माके द्वारा उक्त दोनों प्रकार के ब्रह्मचर्यों का पालन होगा।

अग्निं शुश्रूषमाणस्य पितरं च यशस्विनम्।
एतस्मिन्नेव काले तु रोमपादः प्रतापवान्॥७॥

“इस प्रकार रहते हुए मुनि का समय अग्नि तथा यशस्वी पिता की सेवा में ही व्यतीत होगा। “उसी समय अंगदेश में रोमपाद नामक एक बड़े प्रतापी और बलवान् राजा होंगे। 

अंगेषु प्रथितो राजा भविष्यति महाबलः।
तस्य व्यतिक्रमाद् राज्ञो भविष्यति सुदारुणा॥८॥

उनके द्वारा धर्मका उल्लङ्घन हो जाने के कारण उस देश में घोर अनावृष्टि हो जायगी -

अनावृष्टिः सुघोरा वै सर्वलोकभयावहा।
अनावृष्टयां तु वृत्तायां राजा दुःखसमन्वितः॥९॥

जो सब लोगोंको अत्यन्त भयभीत कर देगी। “वर्षा बंद हो जानेसे राजा रोमपादको भी बहुत दुःख होगा।

ब्राह्मणाञ्छुतसंवृद्धान् समानीय प्रवक्ष्यति।
भवन्तः श्रुतकर्माणो लोकचारित्रवेदिनः॥१०॥

वे शास्त्रज्ञानमें बढ़े-चढ़े ब्राह्मणों को बुलाकर कहेंगे - ’विप्रवरो! आप लोग वेद-शास्त्रके अनुसार कर्म करने वाले तथा लोगों के आचार-विचार को जानने वाले हैं। 

समादिशन्तु नियमं प्रायश्चित्तं यथा भवेत्।
इत्युक्तास्ते ततो राज्ञा सर्वे ब्राह्मणसत्तमाः॥११॥

अतः कृपा करके मुझे ऐसा कोई नियम बताइये, जिससे मेरे पापका प्रायश्चित्त हो जाय’। “राजाके ऐसा कहने पर वे वेदों के पारंगत विद्वान् -

वक्ष्यन्ति ते महीपालं ब्राह्मणा वेदपारगाः।
विभाण्डकसुतं राजन् सर्वोपायैरिहानय॥१२॥

सभी श्रेष्ठ ब्राह्मण उन्हें इस प्रकार सलाह देंगे - ‘राजन्! विभाण्डक के पुत्र ऋष्यशृंग वेदों के पारगामी विद्वान् हैं।

आनाय्य तु महीपाल ऋष्यश्रृंगं सुसत्कृतम्।
विभाण्डकसुतं राजन् ब्राह्मणं वेदपारगम्।
प्रयच्छ कन्यां शान्तां वै विधिना सुसमाहितः॥१३॥

भूपाल! आप सभी उपायोंसे उन्हें यहाँ ले आइये। बुलाकर उनका भलीभाँति सत्कार कीजिये। फिर एकाग्रचित्त हो वैदिक विधिके अनुसार उनके साथ अपनी कन्या शान्ता का विवाह कर दीजिये। १२-१३॥

तेषां तु वचनं श्रुत्वा राजा चिन्तां प्रपत्स्यते।
केनोपायेन वै शक्यमिहानेतुं स वीर्यवान्॥१४॥

उनकी बात सुनकर राजा इस चिन्ता में पड़ जायँगे कि किस उपाय से उन शक्तिशाली महर्षि को यहाँ लाया जा सकता है।

ततो राजा विनिश्चित्य सह मन्त्रिभिरात्मवान्।
पुरोहितममात्यांश्च प्रेषयिष्यति सत्कृतान्॥१५॥

“फिर वे मनस्वी नरेश मन्त्रियों के साथ निश्चय करके अपने पुरोहित और मन्त्रियों को सत्कारपूर्वक वहाँ भेजेंगे।

ते तु राज्ञो वचः श्रुत्वा व्यथिता विनताननाः।
न गच्छेम ऋषेीता अनुनेष्यन्ति तं नृपम्॥१६॥

राजा की बात सुनकर वे मन्त्री और पुरोहित मुँह लटकाकर दुःखी हो यों कहने लगेंगे कि ‘हम महर्षिसे डरते हैं, इसलिये वहाँ नहीं जायँगे।’ यों कहकर वे राजासे बड़ी अनुनय-विनय करेंगे॥१६॥

वक्ष्यन्ति चिन्तयित्वा ते तस्योपायांश्च तान् क्षमान्।
आनेष्यामो वयं विप्रं न च दोषो भविष्यति॥१७॥

‘इसके बाद सोच-विचारकर वे राजा को योग्य उपाय बतायेंगे और कहेंगे कि ‘हम उन ब्राह्मणकुमार को किसी उपायसे यहाँ ले आयेंगे। ऐसा करनेसे कोई दोष नहीं घटित होगा’।

एवमंगाधिपेनैव गणिकाभिषेः सुतः।
आनीतोऽवर्षयद् देवः शान्ता चास्मै प्रदीयते॥१८॥

“इस प्रकार गणिकाओं की सहायता से अंगराज मुनिकुमार ऋष्यशृंग को अपने यहाँ बुलायेंगे। उनके आते ही इन्द्रदेव उस राज्य में वर्षा करेंगे। फिर राजा उन्हें अपनी पुत्री शान्ता समर्पित कर देंगे।

ऋष्यश्रृंगस्तु जामाता पुत्रांस्तव विधास्यति।
सनत्कुमारकथितमेतावद् व्याहृतं मया॥१९॥

इस तरह ऋष्यशृंग आपके जामाता हुए। वे ही आपके लिये पुत्रों को सुलभ कराने वाले यज्ञकर्म का सम्पादन करेंगे। यह सनत्कुमारजीकी कही हुई बात मैंने आपसे निवेदन की है”।

अथ हृष्टो दशरथः सुमन्त्रं प्रत्यभाषत।
यथर्ण्यश्रृंगस्त्वानीतो येनोपायेन सोच्यताम्॥२०॥

यह सुनकर राजा दशरथ को बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने सुमन्त्रसे कहा—’मुनिकुमार ऋष्यशृंगको वहाँ जिस प्रकार और जिस उपायसे बुलाया गया, वह स्पष्टरूपसे बताओ’ ॥ २० ॥

सर्ग १० 

सुमन्त्रश्चोदितो राज्ञा प्रोवाचेदं वचस्तदा।
यथर्ण्यश्रृंगस्त्वानीतो येनोपायेन मन्त्रिभिः।
तन्मे निगदितं सर्वं शृणु मे मन्त्रिभिः सह ॥१॥

राजाकी आज्ञा पाकर उस समय सुमन्त्रने इस प्रकार कहना आरम्भ किया-“राजन् ! रोमपादके मन्त्रियोंने ऋष्यशृंगको वहाँ जिस प्रकार और जिस उपायसे बुलाया था, वह सब मैं बता रहा हूँ। आप मन्त्रियोंसहित मेरी बात सुनिये।

रोमपादमुवाचेदं सहामात्यः पुरोहितः।
उपायो निरपायोऽयमस्माभिरभिचिन्तितः॥२॥

“उस समय अमात्योसहित पुरोहितने राजा रोमपादसे कहा—’महाराज! हमलोगोंने एक उपाय सोचा है, जिसे काममें लानेसे किसी भी विघ्न-बाधाके आनेकी सम्भावना नहीं है।

ऋष्यशृंगो वनचरस्तपःस्वाध्यायसंयुतः।
अनभिज्ञस्तु नारीणां विषयाणां सुखस्य च॥३॥

“ऋष्यशृंग मुनि सदा वनमें ही रहकर तपस्या और स्वाध्यायमें लगे रहते हैं। वे स्त्रियोंको पहचानतेतक नहीं हैं और विषयोंके सुखसे भी सर्वथा अनभिज्ञ हैं।

इन्द्रियार्थैरभिमतैर्नरचित्तप्रमाथिभिः।
पुरमानाययिष्यामः क्षिप्रं चाध्यवसीयताम्॥४॥

“हम मनुष्योंके चित्तको मथ डालनेवाले मनोवाञ्छित विषयोंका प्रलोभन देकर उन्हें अपने नगरमें ले आयेंगे; अतः इसके लिये शीघ्र प्रयत्न किया जाय।

गणिकास्तत्र गच्छन्तु रूपवत्यः स्वलंकृताः।
प्रलोभ्य विविधोपायैरानेष्यन्तीह सत्कृताः॥५॥

“यदि सुन्दर आभूषणोंसे विभूषित मनोहर रूपवाली वेश्याएँ वहाँ जायँ तो वे भाँति-भाँतिके उपायोंसे उन्हें लुभाकर इस नगरमें ले आयेंगी; अतः इन्हें सत्कारपूर्वक भेजना चाहिये’।

श्रुत्वा तथेति राजा च प्रत्युवाच पुरोहितम्।
पुरोहितो मन्त्रिणश्च तदा चक्रुश्च ते तथा॥६॥

यह सुनकर राजाने पुरोहितको उत्तर दिया, बहुत अच्छा, आपलोग ऐसा ही करें।’ आज्ञा पाकर पुरोहित और मन्त्रियोंने उस समय वैसी ही व्यवस्था की।

वारमुख्यास्तु तच्छ्रुत्वा वनं प्रविविशुर्महत्।
आश्रमस्याविदूरेऽस्मिन् यत्नं कुर्वन्ति दर्शने॥७॥

“तब नगरकी मुख्य-मुख्य वेश्याएँ राजाका आदेश सुनकर उस महान् वनमें गयीं और मुनिके आश्रमसे थोड़ी ही दूरपर ठहरकर उनके दर्शनका उद्योग करने लगीं।

ऋषेः पुत्रस्य धीरस्य नित्यमाश्रमवासिनः।
पितुः स नित्यसंतुष्टो नातिचक्राम चाश्रमात्॥८॥

“मुनिकुमार ऋष्यशृंग बड़े ही धीर स्वभावके थे। सदा आश्रममें ही रहा करते थे। उन्हें सर्वदा अपने पिताके पास रहनेमें ही अधिक सुख मिलता था। अतः वे कभी आश्रमके बाहर नहीं निकलते थे॥ ८ ॥

न तेन जन्मप्रभृति दृष्टपूर्वं तपस्विना।
स्त्री वा पुमान् वा यच्चान्यत् सत्त्वं नगरराष्ट्रजम्॥९॥

“उन तपस्वी ऋषिकुमारने जन्मसे लेकर उस समयतक पहले कभी न तो कोई स्त्री देखी थी और न पिताके सिवा दूसरे किसी पुरुषका ही दर्शन किया था। नगर या राष्ट्रके गाँवोंमें उत्पन्न हुए दूसरे-दूसरे प्राणियोंको भी वे नहीं देख पाये थे।

ततः कदाचित् तं देशमाजगाम यदृच्छया।
विभाण्डकसुतस्तत्र ताश्चापश्यद् वरांगनाः॥१०॥

“तदनन्तर एक दिन विभाण्डककुमार ऋष्यशृंग अकस्मात् घूमते-फिरते उस स्थानपर चले आये, जहाँ वे वेश्याएँ ठहरी हुई थीं। वहाँ उन्होंने उन सुन्दरी वनिताओंको देखा।

ताश्चित्रवेषाः प्रमदा गायन्त्यो मधुरस्वरम्।
ऋषिपुत्रमुपागम्य सर्वा वचनमब्रुवन्॥११॥

उन प्रमदाओंका वेष बड़ा ही सुन्दर और अद्भुत था। वे मीठे स्वरमें गा रही थीं। ऋषिकुमारको आया देख सभी उनके पास चली आयीं और इस प्रकार पूछने लगीं- 

कस्त्वं किं वर्तसे ब्रह्मन् ज्ञातुमिच्छामहे वयम्।
एकस्त्वं विजने दूरे वने चरसि शंस नः॥१२॥

ब्रह्मन् ! आप कौन हैं? क्या करते हैं? तथा इस निर्जन वनमें आश्रमसे इतनी दूर आकर अकेले क्यों विचर रहे हैं? यह हमें बताइये। हमलोग इस बातको जानना चाहती हैं’।

अदृष्टरूपास्तास्तेन काम्यरूपा वने स्त्रियः।
हात्तिस्य मतिर्जाता आख्यातुं पितरं स्वकम्॥१३॥

“ऋष्यशृंगने वनमें कभी स्त्रियोंका रूप नहीं देखा था और वे स्त्रियाँ तो अत्यन्त कमनीय रूपसे सुशोभित थीं; अतः उन्हें देखकर उनके मनमें स्नेह उत्पन्न हो गया। इसलिये उन्होंने उनसे अपने पिताका परिचय देनेका विचार किया।

पिता विभाण्डकोऽस्माकं तस्याहं सुत औरसः।
ऋष्यशृंग इति ख्यातं नाम कर्म च मे भुवि॥१४॥

“वे बोले—’मेरे पिताका नाम विभाण्डक मुनि है। मैं उनका औरस पुत्र हूँ। मेरा ऋष्यशृंग नाम और तपस्या आदि कर्म इस भूमण्डलमें प्रसिद्ध है।

इहाश्रमपदोऽस्माकं समीपे शुभदर्शनाः।
करिष्ये वोऽत्र पूजां वै सर्वेषां विधिपूर्वकम्॥१५॥

“यहाँ पास ही मेरा आश्रम है। आपलोग देखनेमें परम सुन्दर हैं। (अथवा आपका दर्शन मेरे लिये शुभकारक है।) आप मेरे आश्रमपर चलें। वहाँ मैं आप सब लोगोंकी विधिपूर्वक पूजा करूँगा’।

ऋषिपुत्रवचः श्रुत्वा सर्वासां मतिरास वै।
तदाश्रमपदं द्रष्टुं जग्मुः सर्वास्ततोऽङ्गनाः॥१६॥

“ऋषिकुमारकी यह बात सुनकर सब उनसे सहमत हो गयीं। फिर वे सब सुन्दरी स्त्रियाँ उनका आश्रम देखनेके लिये वहाँ गयीं।

गतानां तु ततः पूजामृषिपुत्रश्चकार ह।
इदमर्ध्यमिदं पाद्यमिदं मूलं फलं च नः॥१७॥

“वहाँ जानेपर ऋषिकुमारने ‘यह अर्घ्य है, यह पाद्य है तथा यह भोजनके लिये फल-मूल प्रस्तुत है’ ऐसा कहते हुए उन सबका विधिवत् पूजन किया।

प्रतिगृह्य तु तां पूजां सर्वा एव समुत्सुकाः।
ऋषेीताश्च शीघ्रं तु गमनाय मतिं दधुः॥१८॥

“ऋषिकी पूजा स्वीकार करके वे सभी वहाँसे चली जानेको उत्सुक हुईं। उन्हें विभाण्डक मुनिका भय लग रहा था, इसलिये उन्होंने शीघ्र ही वहाँसे चली जानेका विचार किया।

अस्माकमपि मुख्यानि फलानीमानि हे द्विज।
गृहाण विप्र भद्रं ते भक्षयस्व च मा चिरम्॥१९॥

“वे बोलीं—’ब्रह्मन् ! हमारे पास भी ये उत्तम-उत्तम फल हैं। विप्रवर! इन्हें ग्रहण कीजिये। आपका कल्याण हो। इन फलोंको शीघ्र ही खा लीजिये, विलम्ब न कीजिये’।

ततस्तास्तं समालिङ्ग्य सर्वा हर्षसमन्विताः।
मोदकान् प्रददुस्तस्मै भक्ष्यांश्च विविधाञ्छुभान्॥२०॥

“ऐसा कहकर उन सबने हर्षमें भरकर ऋषिका आलिंगन किया और उन्हें खानेयोग्य भाँति-भाँतिके उत्तम पदार्थ तथा बहुत-सी मिठाइयाँ दीं।

तानि चास्वाद्य तेजस्वी फलानीति स्म मन्यते।
अनास्वादितपूर्वाणि वने नित्यनिवासिनाम्॥२१॥

“उनका रसास्वादन करके उन तेजस्वी ऋषिने समझा कि ये भी फल हैं; क्योंकि उस दिनके पहले उन्होंने कभी वैसे पदार्थ नहीं खाये थे। भला, सदा वनमें रहनेवालोंके लिये वैसी वस्तुओंके स्वाद लेनेका अवसर ही कहाँ है।

आपृच्छ्य च तदा विप्रं व्रतचर्यां निवेद्य च।
गच्छन्ति स्मापदेशात्ता भीतास्तस्य पितुः स्त्रियः॥२२॥

“तत्पश्चात् उनके पिता विभाण्डक मुनि के डरसे डरी हुई वे स्त्रियाँ व्रत और अनुष्ठान की बात बता उन ब्राह्मणकुमार से पूछकर उसी बहाने वहाँ से चली गयी।

गतासु तासु सर्वासु काश्यपस्यात्मजो द्विजः।
अस्वस्थहृदयश्चासीद् दुःखाच्च परिवर्तते॥२३॥

“उन सबके चले जानेपर काश्यपकुमार ब्राह्मण ऋष्यशृंग मन-ही-मन व्याकुल हो उठे और बड़े दुःखसे इधर-उधर टहलने लगे।

ततोऽपरेधुस्तं देशमाजगाम स वीर्यवान्।
विभाण्डकसुतः श्रीमान् मनसाचिन्तयन्मुहुः॥२४॥

“तदनन्तर दूसरे दिन फिर मनसे उन्हींका बारम्बार चिन्तन करते हुए शक्तिशाली विभाण्डककुमार श्रीमान् ऋष्यशृंग उसी स्थान पर गये, जहाँ पहले दिन उन्होंने वस्त्र और आभूषणोंसे सजी हुई उन मनोहर रूपवाली वेश्याओं को देखा था।

मनोज्ञा यत्र ता दृष्टा वारमुख्याः स्वलंकृताः।
दृष्ट्वैव च ततो विप्रमायान्तं हृष्टमानसाः॥२५॥

“ब्राह्मण ऋष्यशृंग को आते देख तुरंत ही उन वेश्याओं का हृदय प्रसन्नतासे खिल उठा। 

उपसृत्य ततः सर्वास्तास्तमूचुरिदं वचः।
एह्याश्रमपदं सौम्य अस्माकमिति चाब्रुवन्॥२६॥

वे सब-की सब उनके पास जाकर उनसे इस प्रकार कहने लगी - ’सौम्य! आओ, आज हमारे आश्रम पर चलो।

चित्राण्यत्र बहूनि स्युर्मूलानि च फलानि च।
तत्राप्येष विशेषेण विधिर्हि भविता ध्रुवम्॥२७॥

यद्यपि यहाँ नाना प्रकारके फल-मूल बहुत मिलते हैं तथापि वहाँ भी निश्चय ही इन सबका विशेषरूपसे प्रबन्ध हो सकता है’।

श्रुत्वा तु वचनं तासां सर्वासां हृदयंगमम्।
गमनाय मतिं चक्रे तं च निन्युस्तथा स्त्रियः॥२८॥

“उन सबके मनोहर वचन सुनकर ऋष्यशृंग उनके साथ जानेको तैयार हो गये और वे स्त्रियाँ उन्हें अंगदेशमें ले गयीं।

तत्र चानीयमाने तु विप्रे तस्मिन् महात्मनि।
ववर्ष सहसा देवो जगत् प्रह्लादयंस्तदा ॥२९॥

“उन महात्मा ब्राह्मणके अंगदेशमें आते ही इन्द्रने सम्पूर्ण जगत् को प्रसन्न करते हुए सहसा पानी बरसाना आरम्भ कर दिया।

वर्षेणैवागतं विप्रं तापसं स नराधिपः।
प्रत्युद्गम्य मुनिं प्रह्वः शिरसा च महीं गतः॥३०॥

“वर्षासे ही राजाको अनुमान हो गया कि वे तपस्वी ब्राह्मणकुमार आ गये। फिर बड़ी विनयके साथ राजाने उनकी अगवानी की और पृथ्वीपर मस्तक टेककर उन्हें साष्टांग प्रणाम किया।

अर्घ्यं च प्रददौ तस्मै न्यायतः सुसमाहितः।
वने प्रसादं विप्रेन्द्रान्मा विप्रं मन्युराविशेत्॥३१॥

“फिर एकाग्रचित्त होकर उन्होंने ऋषिको अर्घ्य निवेदन किया तथा उन विप्रशिरोमणिसे वरदान माँगा, ‘भगवन् ! आप और आपके पिताजीका कृपाप्रसाद मुझे प्राप्त हो।’ ऐसा उन्होंने इसलिये किया कि कहीं कपटपूर्वक यहाँतक लाये जानेका रहस्य जान लेनेपर विप्रवर ऋष्यशृंग अथवा विभाण्डक मुनिके मनमें मेरे प्रति क्रोध न हो।

अन्तःपुरं प्रवेश्यास्मै कन्यां दत्त्वा यथाविधि।
शान्तां शान्तेन मनसा राजा हर्षमवाप सः॥ ३२॥

“तत्पश्चात् ऋष्यशृंगको अन्तःपुरमें ले जाकर उन्होंने शान्तचित्तसे अपनी कन्या शान्ताका उनके साथ विधिपूर्वक विवाह कर दिया। ऐसा करके राजाको बड़ी प्रसन्नता हुई।

एवं स न्यवसत् तत्र सर्वकामैः सुपूजितः।
ऋष्यश्रृंगो महातेजाः शान्तया सह भार्यया॥३३॥

“इस प्रकार महातेजस्वी ऋष्यशृंग राजा से पूजित हो सम्पूर्ण मनोवाञ्छित भोग प्राप्त कर अपनी धर्मपत्नी शान्ता के साथ वहाँ रहने लगे’।

सर्ग ११ 

भूय एव हि राजेन्द्र शृणु मे वचनं हितम्।
यथा स देवप्रवरः कथयामास बुद्धिमान्॥१॥

तदनन्तर सुमन्त्रने फिर कहा-“राजेन्द्र! आप पुनः मुझसे अपने हितकी वह बात सुनिये, जिसे देवताओंमें श्रेष्ठ बुद्धिमान् सनत्कुमारजीने ऋषियोंको सुनाया था।

इक्ष्वाकूणां कुले जातो भविष्यति सुधार्मिकः।
नाम्ना दशरथो राजा श्रीमान् सत्यप्रतिश्रवः॥२॥

“उन्होंने कहा था-इक्ष्वाकुवंशमें दशरथ नामसे प्रसिद्ध एक परम धार्मिक सत्यप्रतिज्ञ राजा होंगे।

अंगराजेन सख्यं च तस्य राज्ञो भविष्यति।
कन्या चास्य महाभागा शान्ता नाम भविष्यति॥३॥

“उनकी अंगराजके साथ मित्रता होगी। दशरथ के एक परम सौभाग्यशालिनी कन्या होगी, जिसका नाम होगा ‘शान्ता’।

पुत्रस्त्वंगस्य राज्ञस्तु रोमपाद इति श्रुतः।
तं स राजा दशरथो गमिष्यति महायशाः॥४॥

अंगदेशके राजकुमारका नाम होगा ‘रोमपाद’। महायशस्वी राजा दशरथ उनके पास जायेंगे और कहेंगे -

नपत्योऽस्मि धर्मात्मन् शान्ताभर्ता मम
क्रतुम्। आहरेत त्वयाऽऽज्ञप्तः संतानार्थं कुलस्य च॥

‘धर्मात्मन् ! मैं संतानहीन हूँ। यदि आप आज्ञा दें तो शान्ताके पति ऋष्यशृंग मुनि चलकर मेरा यज्ञ करा दें। इससे मुझे पुत्रकी प्राप्ति होगी और मेरे वंशकी रक्षा हो जायगी’।

श्रुत्वा राज्ञोऽथ तद् वाक्यं मनसा स विचिन्त्य
च। प्रदास्यते पुत्रवन्तं शान्ताभर्तारमात्मवान्॥६॥

“राजाकी यह बात सुनकर मन-ही-मन उसपर विचार करके मनस्वी राजा रोमपाद शान्ताके पुत्रवान् पतिको उनके साथ भेज देंगे।

प्रतिगृह्य च तं विप्रं स राजा विगतज्वरः।
आहरिष्यति तं यज्ञं प्रहृष्टेनान्तरात्मना॥७॥

“ब्राह्मण ऋष्यशृंगको पाकर राजा दशरथकी सारी चिन्ता दूर हो जायगी और वे प्रसन्नचित्त होकर उस यज्ञका अनुष्ठान करेंगे।

तं च राजा दशरथो यशस्कामः कृताञ्जलिः।
ऋष्यशृंगं द्विजश्रेष्ठं वरयिष्यति धर्मवित्॥८॥

“यशकी इच्छा रखने वाले धर्मज्ञ राजा दशरथ हाथ जोड़कर द्विजश्रेष्ठ ऋष्यशृंग का-

यज्ञार्थं प्रसवार्थं च स्वर्गार्थं च नरेश्वरः।
लभते च स तं कामं द्विजमुख्याद्विशाम्पतिः॥९॥

यज्ञ, पुत्र और स्वर्ग के लिये वरण करेंगे तथा वे प्रजापालक नरेश उन श्रेष्ठ ब्रह्मर्षि से अपनी अभीष्ट वस्तु प्राप्त कर लेंगे। 

पुत्राश्चास्य भविष्यन्ति चत्वारोऽमितविक्रमाः।
वंशप्रतिष्ठानकराः सर्वभूतेषु विश्रुताः॥१०॥

“राजाके चार पुत्र होंगे, जो अप्रमेय पराक्रमी, वंशकी मर्यादा बढ़ानेवाले और सर्वत्र विख्यात होंगे।

एवं स देवप्रवरः पूर्वं कथितवान् कथाम्।
सनत्कुमारो भगवान् पुरा देवयुगे प्रभुः॥११॥

“महाराज! पहले सत्ययुगमें शक्तिशाली देवप्रवर भगवान् सनत्कुमारजीने ऋषियोंके समक्ष ऐसी कथा कही थी।

स त्वं पुरुषशार्दूल समानय ससत्कृतम्।
स्वयमेव महाराज गत्वा सबलवाहनः॥१२॥

“पुरुषसिंह महाराज! इसलिये आप स्वयं ही सेना और सवारियों के साथ अंगदेशमें जाकर मुनिकुमार ऋष्यशृंग को सत्कारपूर्वक यहाँ ले आइये”।

सुमन्त्रस्य वचः श्रुत्वा हृष्टो दशरथोऽभवत्।
अनुमान्य वसिष्ठं च सूतवाक्यं निशाम्य च॥१३॥

सुमन्त्रका वचन सुनकर राजा दशरथ को बड़ा हर्ष हुआ। उन्होंने मुनिवर वसिष्ठजी को भी सुमन्त्र की बातें सुनायीं।

सान्तःपुरः सहामात्यः प्रययौ यत्र स द्विजः।
वनानि सरितश्चैव व्यतिक्रम्य शनैः शनैः॥१४॥

उनकी आज्ञा लेकर रनिवास की रानियों तथा मन्त्रियों के साथ अंगदेश के लिये प्रस्थान किया, जहाँ विप्रवर ऋष्यशृंग निवास करते थे।

अभिचक्राम तं देशं यत्र वै मुनिपुंगवः।
आसाद्य तं द्विजश्रेष्ठं रोमपादसमीपगम्॥१५॥

मार्गमें अनेकानेक वनों और नदियोंको पार करके वे धीरे-धीरे उस देशमें जा पहुँचे, जहाँ मुनिवर ऋष्यशृंग विराजमान थे। वहाँ पहुँचनेपर उन्हें द्विजश्रेष्ठ ऋष्यशृंग रोमपादके पास ही बैठे दिखायी दिये।

ऋषिपुत्रं ददर्शाथो दीप्यमानमिवानलम्।
ततो राजा यथायोग्यं पूजां चक्रे विशेषतः॥१६॥

 वे ऋषिकुमार प्रज्वलित अग्निके समान तेजस्वी जान पड़ते थे। तदनन्तर राजा रोमपाद ने मित्रता के नाते अत्यन्त प्रसन्न हृदय से महाराज दशरथ का शास्त्रोक्त विधि के अनुसार विशेषरूप से पूजन किया-

खित्वात् तस्य वै राज्ञः प्रहृष्टेनान्तरात्मना।
रोमपादेन चाख्यातमृषिपुत्राय धीमते॥१७॥

और बुद्धिमान् ऋषिकुमार ऋष्यशृंगको राजा दशरथ के साथ अपनी मित्रता की बात बतायी।

सख्यं सम्बन्धकं चैव तदा तं प्रत्यपूजयत्।
एवं सुसत्कृतस्तेन सहोषित्वा नरर्षभः॥१८॥

इस प्रकार भलीभाँति आदर-सत्कार पाकर नरश्रेष्ठ राजा दशरथ रोमपाद के साथ वहाँ सातआठ दिनों तक रहे।

सप्ताष्टदिवसान् राजा राजानमिदमब्रवीत्।
शान्ता तव सुता राजन् सह भर्ना विशाम्पते॥१९॥

इसके बाद वे अंगराज से बोले - ’प्रजापालक नरेश! तुम्हारी पुत्री शान्ता अपने पति के साथ मेरे नगरमें पदार्पण करे-

मदीयं नगरं यातु कार्यं हि महदुद्यतम्।
तथेति राजा संश्रुत्य गमनं तस्य धीमतः॥२०॥

क्योंकि वहाँ एक महान् आवश्यक कार्य उपस्थित हुआ है। राजा रोमपादने ‘बहुत अच्छा’ कहकर उन बुद्धिमान् महर्षिका जाना स्वीकार कर लिया -

उवाच वचनं विप्रं गच्छ त्वं सह भार्यया।
ऋषिपुत्रः प्रतिश्रुत्य तथेत्याह नृपं तदा ॥२१॥

और ऋष्यशृंगसे कहा- ‘विप्रवर! आप शान्ताके साथ महाराज दशरथके यहाँ जाइये।’ राजाकी आज्ञा पाकर उन ऋषिपुत्रने ‘तथास्तु’ कहकर राजा दशरथको अपने चलनेकी स्वीकृति दे दी।

स नृपेणाभ्यनुज्ञातः प्रययौ सह भार्यया।
तावन्योन्याञ्जलिं कृत्वा स्नेहात्संश्लिष्य चोरसा॥२२॥

राजा रोमपादकी अनुमति ले ऋष्यशृंगने पत्नीके साथ वहाँसे प्रस्थान किया। उस समय शक्तिशाली राजा रोमपाद और दशरथने एकदूसरेको हाथ जोड़कर- 

ननन्दतुर्दशरथो रोमपादश्च वीर्यवान्।
ततः सुहृदमापृच्छ्य प्रस्थितो रघुनन्दनः॥२३॥

स्नेहपूर्वक छाती से लगाया तथा अभिनन्दन किया। फिर मित्र से विदा ले रघुकुलनन्दन दशरथ वहाँ से प्रस्थित हुए।

पौरेषु प्रेषयामास दूतान् वै शीघ्रगामिनः।
क्रियतां नगरं सर्वं क्षिप्रमेव स्वलंकृतम्॥२४॥

उन्होंने पुरवासियोंके पास अपने शीघ्रगामी दूत भेजे और कहलाया कि ‘समस्त नगरको शीघ्र ही सुसज्जित किया जाय। सर्वत्र धूपकी सुगन्ध फैले। 

धूपितं सिक्तसम्मृष्टं पताकाभिरलंकृतम्।
ततः प्रहृष्टाः पौरास्ते श्रुत्वा राजानमागतम्॥२५॥

नगरकी सड़कोंको झाड़-बुहारकर उनपर पानीका छिड़काव कर दिया जाय तथा सारा नगर ध्वजा-पताकाओंसे अलंकृत हो। राजाका आगमन सुनकर पुरवासी बड़े प्रसन्न हुए।

तथा चक्रुश्च तत् सर्वं राज्ञा यत् प्रेषितं तदा।
ततः स्वलंकृतं राजा नगरं प्रविवेश ह॥२६॥

महाराजने उनके लिये जो संदेश भेजा था, उसका उन्होंने उस समय पूर्णरूपसे पालन किया। तदनन्तर राजा दशरथने शङ्ख और दुन्दुभि आदि वाद्योंकी ध्वनिके साथ-

शङ्खदुन्दुभिनिर्हादैः पुरस्कृत्वा द्विजर्षभम्।
ततः प्रमुदिताः सर्वे दृष्ट्वा वै नागरा द्विजम्॥२७॥

विप्रवर ऋष्यशृंगको आगे करके अपने सजे-सजाये नगरमें प्रवेश किया। उन द्विजकुमारका दर्शन करके सभी नगरनिवासी बहुत प्रसन्न हुए।

प्रवेश्यमानं सत्कृत्य नरेन्द्रेणेन्द्रकर्मणा।
यथा दिवि सुरेन्द्रेण सहस्राक्षेण काश्यपम्॥२८॥

उन्होंने इन्द्रके समान पराक्रमी नरेन्द्र दशरथके साथ पुरीमें प्रवेश करते हुए ऋष्यशृंगका उसी प्रकार सत्कार किया, जैसे देवताओंने स्वर्गमें सहस्राक्ष इन्द्रके साथ प्रवेश करते हुए कश्यपनन्दन वामनजीका समादर किया था। 

अन्तःपुरं प्रवेश्यैनं पूजां कृत्वा च शास्त्रतः।
कृतकृत्यं तदात्मानं मेने तस्योपवाहनात्॥२९॥

ऋषिको अन्तःपुरमें ले जाकर राजाने शास्त्रविधिके अनुसार उनका पूजन किया और उनके निकट आ जानेसे अपनेको कृतकृत्य माना।

अन्तःपुराणि सर्वाणि शान्तां दृष्ट्वा तथागताम्।
सह भा विशालाक्षीं प्रीत्यानन्दमुपागमन्॥३०॥

विशाललोचना शान्ताको इस प्रकार अपने पति के साथ उपस्थित देख अन्तःपुर की सभी रानियों को बड़ी प्रसन्नता हुई। वे आनन्दमग्न हो गयीं।

पूज्यमाना तु ताभिः सा राज्ञा चैव विशेषतः।
उवास तत्र सुखिता कञ्चित् कालं सहद्विजा॥

शान्ता भी उन रानियोंसे तथा विशेषतः महाराज दशरथके द्वारा आदर-सत्कार पाकर वहाँ कुछ काल तक अपने पति विप्रवर ऋष्यशृंगके साथ बड़े सुखसे रही।

सर्ग १२ 

ततः काले बहुतिथे कस्मिंश्चित् सुमनोहरे।
वसन्ते समनुप्राप्ते राज्ञो यष्टुं मनोऽभवत्॥१॥

तदनन्तर बहुत समय बीत जाने के पश्चात् कोई परम मनोहर-दोष रहित समय प्राप्त हुआ। उस समय वसन्त ऋतुका आरम्भ हुआ था। राजा दशरथने उसी शुभ समयमें यज्ञ आरम्भ करनेका विचार किया।

ततः प्रणम्य शिरसा तं विप्रं देववर्णिनम्।
यज्ञाय वरयामास संतानार्थं कुलस्य च॥२॥

तत्पश्चात् उन्होंने देवोपम कान्तिवाले विप्रवर ऋष्यशृंगको मस्तक झुकाकर प्रणाम किया और वंशपरम्परा की रक्षा के लिये पुत्र-प्राप्तिके निमित्त यज्ञ कराने के उद्देश्य से उनका वरण किया।

तथेति च स राजानमुवाच वसुधाधिपम्।
सम्भाराः सम्भ्रियन्तां ते तुरगश्च विमुच्यताम्॥३॥

ऋष्यशृंगने ‘बहुत अच्छा’ कहकर उनकी प्रार्थना स्वीकार की और उन पृथ्वीपति नरेश से कहा—’राजन! यज्ञकी सामग्री एकत्र कराइये। 

सरय्वाश्चोत्तरे तीरे यज्ञभूमिर्विधीयताम्।
ततोऽब्रवीन्नृपो वाक्यं ब्राह्मणान् वेदपारगान्॥४॥

भूमण्डल में भ्रमण के लिये आपका यज्ञ सम्बन्धी अश्व छोड़ा जाय और सरयू के उत्तर तट पर यज्ञभूमि का निर्माण किया जाय।

सुमन्त्रावाहय क्षिप्रमृत्विजो ब्रह्मवादिनः।
सुयज्ञं वामदेवं च जाबालिमथ काश्यपम्॥५॥

तब राजा ने कहा - सुमन्त्र! तुम शीघ्र ही वेदविद्या के पारंगत ब्राह्मणों तथा ब्रह्मवादी ऋत्विजों को बुला ले आओ। सुयज्ञ, वामदेव, जाबालि, काश्यप -

पुरोहितं वसिष्ठं च ये चान्ये द्विजसत्तमाः।
ततः सुमन्त्रस्त्वरितं गत्वा त्वरितविक्रमः॥६॥

पुरोहित वसिष्ठ तथा अन्य जो श्रेष्ठ ब्राह्मण हैं, उन सबको बुलाओ। तब शीघ्रगामी सुमन्त्र तुरंत जाकर -

समानयत् स तान् सर्वान् समस्तान् वेदपारगान्।
तान् पूजयित्वा धर्मात्मा राजा दशरथस्तदा॥७॥

वेदविद्या के पारगामी उन समस्त ब्राह्मणोंको बुला लाये। धर्मात्मा राजा दशरथ ने उन सबका पूजन किया -

धर्मार्थसहितं युक्तं श्लक्ष्णं वचनमब्रवीत्।
मम तातप्यमानस्य पुत्रार्थं नास्ति वै सुखम्॥८॥

और उनसे धर्म तथा अर्थ से युक्त मधुर वचन कहा - ‘महर्षियो! मैं पुत्रके लिये निरन्तर संतप्त रहता हूँ। उसके बिना इस राज्य आदिसे भी मुझे सुख नहीं मिलता है। 

पुत्रार्थं हयमेधेन यक्ष्यामीति मतिर्मम।
तदहं यष्टुमिच्छामि हयमेधेन कर्मणा॥९॥

अतः मैंने यह विचार किया है कि पुत्रके लिये अश्वमेध यज्ञका अनुष्ठान करूँ। ‘इसी संकल्पके अनुसार मैं अश्वमेध यज्ञका आरम्भ करना चाहता हूँ।

ऋषिपुत्रप्रभावेण कामान् प्राप्स्यामि चाप्यहम्।
ततः साध्विति तद्वाक्यं ब्राह्मणाः प्रत्यपूजयन्॥१०॥

मुझे विश्वास है कि ऋषिपुत्र ऋष्यशृंगके प्रभावसे मैं अपनी सम्पूर्ण कामनाओंको प्राप्त कर लूँगा। राजा दशरथके मुखसे निकले हुए इस वचनकी -

वसिष्ठप्रमुखाः सर्वे पार्थिवस्य मुखाच्च्युतम्।
ऋष्यशृंगपुरोगाश्च प्रत्यूचुर्नृपतिं तदा ॥११॥

वसिष्ठ आदि सब ब्राह्मणोंने ‘साधु-साधु’ कहकर बड़ी सराहना की। इसके बाद ऋष्यशृंग आदि सब महर्षियोंने उस समय राजा दशरथसे पुनः यह बात कही -

सम्भाराः सम्भ्रियन्तां ते तुरगश्च विमुच्यताम्।
सरय्वाश्चोत्तरे तीरे यज्ञभूमिर्विधीयताम्॥१२॥

’महाराज! यज्ञसामग्रीका संग्रह किया जाय, यज्ञसम्बन्धी अश्व छोड़ा जाय तथा सरयूके उत्तर तटपर यज्ञभूमिका निर्माण किया जाय।

सर्वथा प्राप्स्यसे पुत्रांश्चतुरोऽमितविक्रमान्।
यस्य ते धार्मिकी बुद्धिरियं पुत्रार्थमागता॥१३॥

‘तुम यज्ञद्वारा सर्वथा चार अमित पराक्रमी पुत्र प्राप्त करोगे; क्योंकि पुत्रके लिये तुम्हारे मनमें ऐसे धार्मिक विचारका उदय हुआ है’।

ततः प्रीतोऽभवद् राजा श्रुत्वा तु द्विजभाषितम्।
अमात्यानब्रवीद् राजा हर्षेणेदं शुभाक्षरम्॥१४॥

ब्राह्मणोंकी यह बात सुनकर राजाको बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने बड़े हर्षके साथ अपने मन्त्रियोंसे यह शुभ अक्षरोंवाली बात कही।

गुरूणां वचनाच्छीघ्रं सम्भाराः सम्भ्रियन्तु मे।
समर्थाधिष्ठितश्चाश्वः सोपाध्यायो विमुच्यताम्॥१५॥

‘गुरुजनोंकी आज्ञाके अनुसार तुमलोग शीघ्र ही मेरे लिये यज्ञकी सामग्री जुटा दो। शक्तिशाली वीरोंके संरक्षणमें यज्ञिय अश्व छोड़ा जाय और उसके साथ प्रधान ऋत्विज् भी रहें।

सरय्वाश्चोत्तरे तीरे यज्ञभूमिर्विधीयताम्।
शान्तयश्चाभिवर्धन्तां यथाकल्पं यथाविधि॥१६॥

‘सरयूके उत्तर तटपर यज्ञभूमिका निर्माण हो, शास्त्रोक्त विधिके अनुसार क्रमशः शान्तिकर्म पुण्याहवाचन आदिका विस्तारपूर्वक अनुष्ठान किया जाय, जिससे विघ्नोंका निवारण हो।

शक्यः कर्तुमयं यज्ञः सर्वेणापि महीक्षिता।
नापराधो भवेत् कष्टो यद्यस्मिन् क्रतुसत्तमे॥१७॥

‘यदि इस श्रेष्ठ यज्ञमें कष्टप्रद अपराध बन जानेका भय न हो तो सभी राजा इसका सम्पादन कर सकते हैं।

छिद्रं हि मृगयन्त्येते विद्वांसो ब्रह्मराक्षसाः।
विधिहीनस्य यज्ञस्य सद्यः कर्ता विनश्यति॥१८॥

‘परंतु ऐसा होना कठिन है; क्योंकि ये विद्वान् ब्रह्म-राक्षस यज्ञमें विघ्न डालनेके लिये छिद्र ढूँढ़ा करते हैं। विधिहीन यज्ञका अनुष्ठान करनेवाला यजमान तत्काल नष्ट हो जाता है।

तद् यथा विधिपूर्वं मे क्रतुरेष समाप्यते।
तथा विधानं क्रियतां समर्थाः करणेष्विह॥१९॥

‘अतः मेरा यह यज्ञ जिस तरह विधिपूर्वक सम्पूर्ण हो सके वैसा उपाय किया जाय। तुम सब लोग ऐसे साधन प्रस्तुत करनेमें समर्थ हो’।

तथेति च ततः सर्वे मन्त्रिणः प्रत्यपूजयन्।
पार्थिवेन्द्रस्य तद् वाक्यं यथाज्ञप्तमकुर्वत॥२०॥

तब ‘बहुत अच्छा’ कहकर सभी मन्त्रियोंने राजराजेश्वर दशरथके उस कथनका आदर किया और उनकी आज्ञाके अनुसार सारी व्यवस्था की।

ततो द्विजास्ते धर्मज्ञमस्तुवन् पार्थिवर्षभम्।
अनुज्ञातास्ततः सर्वे पुनर्जग्मुर्यथागतम्॥ २१॥

तत्पश्चात् उन ब्राह्मणों ने भी धर्मज्ञ नृपश्रेष्ठ दशरथ की प्रशंसा की और उनकी आज्ञा पाकर सब जैसे आये थे, वैसे ही फिर चले गये।

गतेषु तेषु विप्रेषु मन्त्रिणस्तान् नराधिपः।
विसर्जयित्वा स्वं वेश्म प्रविवेश महामतिः॥२२॥

उन ब्राह्मणों के चले जानेपर मन्त्रियोंको भी विदा करके वे महाबुद्धिमान् नरेश अपने महल में गये।

सर्ग १३ 

पुनः प्राप्ते वसन्ते तु पूर्णः संवत्सरोऽभवत्।
प्रसवार्थं गतो यष्टुं हयमेधेन वीर्यवान्॥१॥

वर्तमान वसन्त ऋतु के बीतने पर जब पुनः दूसरा वसन्त आया, तबतक एक वर्षका समय पूरा हो गया। उस समय शक्तिशाली राजा दशरथ संतानके लिये अश्वमेध यज्ञकी दीक्षा लेने के निमित्त वसिष्ठजी के समीप गये॥

अभिवाद्य वसिष्ठं च न्यायतः प्रतिपूज्य च।
अब्रवीत् प्रश्रितं वाक्यं प्रसवार्थं द्विजोत्तमम्॥२॥

वसिष्ठजीको प्रणाम करके राजाने न्यायतः उनका पूजन किया और पुत्र-प्राप्तिका उद्देश्य लेकर उन द्विजश्रेष्ठ मुनिसे यह विनययुक्त बात कही।

यज्ञो मे क्रियतां ब्रह्मन् यथोक्तं मुनिपुंगव।
यथा न विघ्नाः क्रियन्ते यज्ञांगेषु विधीयताम्॥३॥

‘ब्रह्मन्! मुनिप्रवर! आप शास्त्रविधिके अनुसार मेरा यज्ञ करावें और यज्ञके अंगभूत अश्वसंचारण आदि में ब्रह्मराक्षस आदि जिस तरह विघ्न न डाल सकें, वैसा उपाय कीजिये।

भवान् स्निग्धः सुहृन्मह्यं गुरुश्च परमो महान्।
वोढव्यो भवता चैव भारो यज्ञस्य चोद्यतः॥४॥

‘आपका मुझपर विशेष स्नेह है, आप मेरे सुहृद्-अकारण हितैषी, गुरु और परम महान् हैं। यह जो यज्ञका भार उपस्थित हुआ है, इसको आप ही वहन कर सकते हैं।

तथेति च स राजानमब्रवीद द्विजसत्तमः।
करिष्ये सर्वमेवैतद् भवता यत् समर्थितम्॥

तब ‘बहुत अच्छा’ कहकर विप्रवर वसिष्ठ मुनि राजासे इस प्रकार बोले—’नरेश्वर ! तुमने जिसके लिये प्रार्थना की है, वह सब मैं करूँगा’।

ततोऽब्रवीद् द्विजान् वृद्धान् यज्ञकर्मसुनिष्ठितान्।
स्थापत्ये निष्ठितांश्चैव वृद्धान् परमधार्मिकान्॥६॥

तदनन्तर वसिष्ठजीने यज्ञसम्बन्धी कर्मोंमें निपुण तथा यज्ञविषयक शिल्पकर्ममें कुशल, परम धर्मात्मा, बूढ़े ब्राह्मणों -

कान्तिकान् शिल्पकारान् वर्धकीन् खनकानपि।
गणकान् शिल्पिनश्चैव तथैव नटनर्तकान्॥७॥

यज्ञकर्म समाप्त होनेतक उसमें सेवा करनेवाले सेवकों, शिल्पकारों, बढ़इयों, भूमि खोदनेवालों, ज्योतिषियों, कारीगरों, नटों, नर्तकों -

तथा शुचीन् शास्त्रविदः पुरुषान् सुबहुश्रुतान्।
यज्ञकर्म समीहन्तां भवन्तो राजशासनात्॥८॥

विशुद्ध शास्त्रवेत्ताओं तथा बहुश्रुत पुरुषोंको बुलाकर उनसे कहा—’तुमलोग महाराजकी आज्ञासे यज्ञकर्मके लिये आवश्यक प्रबन्ध करो।

इष्टका बहुसाहस्री शीघ्रमानीयतामिति।
उपकार्याः क्रियन्तां च राज्ञो बहुगुणान्विताः॥९॥

शीघ्र ही कई हजार ईंटें लायी जायें। राजाओंके ठहरनेके लिये उनके योग्य अन्न-पान आदि अनेक उपकरणों से युक्त बहुत-से महल बनाये जाय।

ब्राह्मणावसथाश्चैव कर्तव्याः शतशः शुभाः।
भक्ष्यान्नपानैर्बहुभिः समुपेताः सुनिष्ठिताः॥१०॥

‘ब्राह्मणोंके रहनेके लिये भी सैकड़ों सुन्दर घर बनाये जाने चाहिये। वे सभी गृह बहुत-से भोजनीय अन्न-पान आदि उपकरणोंसे युक्त तथा आँधी-पानी आदिके निवारणमें समर्थ हों।

तथा पौरजनस्यापि कर्तव्याश्च सुविस्तराः।
आगतानां सुदूराच्च पार्थिवानां पृथक् पृथक्॥११॥

‘इसी तरह पुरवासियोंके लिये भी विस्तृत मकान बनने चाहिये। दूरसे आये हुए भूपालोंके लिये पृथक्-पृथक् महल बनाये जायें।

वाजिवारणशालाश्च तथा शय्यागृहाणि च।
भटानां महदावासा वैदेशिकनिवासिनाम्॥१२॥

‘घोड़े और हाथियोंके लिये भी शालाएँ बनायी जायँ। साधारण लोगोंके सोनेके लिये भी घरों की व्यवस्था हो। विदेशी सैनिकों के लिये भी बड़ी बड़ी छावनियाँ बननी चाहिये।

आवासा बहुभक्ष्या वै सर्वकामैरुपस्थिताः।
तथा पौरजनस्यापि जनस्य बहुशोभनम्॥१३॥

‘जो घर बनाये जायँ, उनमें खाने-पीनेकी प्रचुर सामग्री संचित रहे। उनमें सभी मनोवांछित पदार्थ सुलभ हों तथा नगरवासियों को भी बहुत सुन्दर -

दातव्यमन्नं विधिवत् सत्कृत्य न तु लीलया।
सर्वे वर्णा यथा पूजां प्राप्नुवन्ति सुसत्कृताः॥१४॥

अन्न भोजन के लिये देना चाहिये। वह भी विधिवत् सत्कारपूर्वक दिया जाय, अवहेलना करके नहीं, ‘ऐसी व्यवस्था होनी चाहिये, जिससे सभी वर्ण के लोग भलीभाँति सत्कृत हो सम्मान प्राप्त करें।

न चावज्ञा प्रयोक्तव्या कामक्रोधवशादपि।
यज्ञकर्मसु ये व्यग्राः पुरुषाः शिल्पिनस्तथा॥१५॥

 काम और क्रोध के वशीभूत होकर भी किसीका अनादर नहीं करना चाहिये। ‘जो शिल्पी मनुष्य यज्ञकर्म की आवश्यक तैयारी में लगे हों, -

तेषामपि विशेषेण पूजा कार्या यथाक्रमम्।
ये स्युः सम्पूजिताः सर्वे वसुभिर्भोजनेन च॥१६॥

उनका तो बड़े-छोटे का खयाल रखकर विशेषरूप से समादर करना चाहिये। ‘जो सेवक या कारीगर धन और भोजन आदिके द्वारा सम्मानित किये जाते हैं -

यथा सर्वं सुविहितं न किंचित् परिहीयते।
तथा भवन्तः कुर्वन्तु प्रीतियुक्तेन चेतसा॥१७॥

वे सब परिश्रमपूर्वक कार्य करते हैं। उनका किया हुआ सारा कार्य सुन्दर ढंगसे सम्पन्न होता है। उनका कोई काम बिगड़ने नहीं पाता; अतः तुम सब लोग प्रसन्नचित्त होकर ऐसा ही करो’।

ततः सर्वे समागम्य वसिष्ठमिदमब्रुवन्।
यथेष्टं तत् सुविहितं न किंचित् परिहीयते॥१८॥

तब वे सब लोग वसिष्ठजीसे मिलकर बोले - ’आपको जैसा अभीष्ट है, उसके अनुसार ही करनेके लिये अच्छी व्यवस्था की जायगी। कोई भी काम बिगड़ने नहीं पायेगा। 

यथोक्तं तत् करिष्यामो न किंचित्परिहास्यते।
ततः सुमन्त्रमाहूय वसिष्ठो वाक्यमब्रवीत्॥१९॥

आपने जैसा कहा है, हमलोग वैसा ही करेंगे। उसमें कोई त्रुटि नहीं आने देंगे’। तदनन्तर वसिष्ठजीने सुमन्त्रको बुलाकर कहा -

मन्त्रयस्व नृपतीन् पृथिव्यां ये च धार्मिकाः।
ब्राह्मणान् क्षत्रियान् वैश्यान् शूद्रांश्चैव सहस्रशः॥२०॥

’इस पृथ्वीपर जो-जो धार्मिक राजा, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और सहस्रों शूद्र हैं, उन सबको इस यज्ञमें आनेके लिये निमन्त्रित करो।

समानयस्व सत्कृत्य सर्वदेशेषु मानवान्।
मिथिलाधिपतिं शूरं जनकं सत्यवादिनम्॥२१॥

‘सब देशोंके अच्छे लोगोंको सत्कारपूर्वक यहाँ ले आओ। मिथिलाके स्वामी शूरवीर महाभाग जनक सत्यवादी नरेश हैं।

तमानय महाभागं स्वयमेव सुसत्कृतम्।
पूर्वं सम्बन्धिनं ज्ञात्वा ततः पूर्वं ब्रवीमि ते॥२२॥

उनको अपना पुराना सम्बन्धी जानकर तुम स्वयं ही जाकर उन्हें बड़े आदर-सत्कारके साथ यहाँ ले आओ; इसीलिये पहले तुम्हें यह बात बता देता हूँ।

तथा काशिपतिं स्निग्धं सततं प्रियवादिनम्।
सदवृत्तं देवसंकाशं स्वयमेवानयस्व ह॥२३॥

‘इसी प्रकार काशीके राजा अपने स्नेही मित्र हैं और सदा प्रिय वचन बोलने वाले हैं। वे सदाचारी तथा देवताओं के तुल्य तेजस्वी हैं; अतः उन्हें भी स्वयं ही जाकर ले आओ।

तथा केकयराजानं वृद्धं परमधार्मिकम्।
श्वशुरं राजसिंहस्य सपुत्रं तमिहानय॥२४॥

‘केकयदेशके बूढ़े राजा बड़े धर्मात्मा हैं, वे राजसिंह महाराज दशरथ के श्वशुर हैं; अतः उन्हें भी पुत्रसहित यहाँ ले आओ।

अंगेश्वरं महेष्वासं रोमपादं सुसत्कृतम्।
वयस्यं राजसिंहस्य सपुत्रं तमिहानय॥२५॥

‘अंगदेशके स्वामी महाधनुर्धर राजा रोमपाद हमारे महाराज के मित्र हैं, अतः उन्हें पुत्रसहित यहाँ सत्कारपूर्वक ले आओ।

तथा कोसलराजानं भानुमन्तं सुसत्कृतम्।
मगधाधिपतिं शूरं सर्वशास्त्रविशारदम्॥२६॥

‘कोशलराज भानुमान् को भी सत्कारपूर्वक ले आओ। मगधदेशके राजा प्राप्तिज्ञ को, जो शूरवीर, सर्वशास्त्रविशारद, परम उदार तथा पुरुषोंमें श्रेष्ठ हैं -

प्राप्तिशं परमोदारं सत्कृतं पुरुषर्षभम्।
राज्ञः शासनमादाय चोदयस्व नृपर्षभान्।
प्राचीनान् सिन्धुसौवीरान् सौराष्ट्रेयांश्चपार्थिवान्॥२७॥

स्वयं जाकर सत्कारपूर्वक बुला ले आओ। ‘महाराजकी आज्ञा लेकर तुम पूर्वदेशके श्रेष्ठ नरेशों को तथा सिन्धु-सौवीर एवं सुराष्ट्र देशके भूपालों को यहाँ आनेके लिये निमन्त्रण दोप्राचीनान् सिन्धुसौवीरान् सौराष्ट्रेयांश्चपार्थिवान्।

दाक्षिणात्यान् नरेन्द्रांश्च समस्तानानयस्व ह।
सन्ति स्निग्धाश्च ये चान्ये राजानः पृथिवीतले ॥२८॥

‘दक्षिण भारतके समस्त नरेशोंको भी आमन्त्रित करो। इस भूतलपर और भी जो-जो नरेश महाराजके प्रति स्नेह रखते हैं -

तानानय यथा क्षिप्रं सानुगान् सहबान्धवान्।
एतान् दूतैर्महाभागैरानयस्व नृपाज्ञया॥२९॥

उन सबको सेवकों और सगे-सम्बन्धियों सहित यथासम्भव शीघ्र बुला लो। महाराजकी आज्ञासे बड़भागी दूतोंद्वारा इन सबके पास बुलावा भेज दो’।

वसिष्ठवाक्यं तच्छ्रुत्वा सुमन्त्रस्त्वरितं तदा।
व्यादिशत् पुरुषांस्तत्र राज्ञामानयने शुभान्॥३०॥

वसिष्ठका यह वचन सुनकर सुमन्त्रने तुरंत ही अच्छे पुरुषों को राजाओं की बुलाहट के लिये जाने का आदेश दे दिया।

स्वयमेव हि धर्मात्मा प्रयातो मुनिशासनात्।
सुमन्त्रस्त्वरितो भूत्वा समानेतुं महामतिः॥३१॥

परम बुद्धिमान् धर्मात्मा सुमन्त्र वसिष्ठ मुनिकी आज्ञा से खास-खास राजाओं को बुलाने के लिये स्वयं ही गये।

ते च कर्मान्तिकाः सर्वे वसिष्ठाय महर्षये।
सर्वं निवेदयन्ति स्म यज्ञे यदुपकल्पितम्॥३२॥

यज्ञकर्म की व्यवस्था के लिये जो सेवक नियुक्त किये गये थे, उन सबने आकर उस समय तक यज्ञसम्बन्धी जो-जो कार्य सम्पन्न हो गया था, उस सबकी सूचना महर्षि वसिष्ठको दी।

ततः प्रीतो द्विजश्रेष्ठस्तान् सर्वान् मुनिरब्रवीत्।
अवज्ञया न दातव्यं कस्यचिल्लीलयापि वा॥३३॥

वसिष्ठका यह वचन सुनकर सुमन्त्रने तुरंत ही अच्छे पुरुषोंको राजाओंकी बुलाहटके लिये जानेका आदेश दे दिया। यह सुनकर वे द्विजश्रेष्ठ मुनि बड़े प्रसन्न हुए और उन सबसे बोले -

अवज्ञया कृतं हन्याद् दातारं नात्र संशयः।
ततः कैश्चिदहोरात्रैरुपयाता महीक्षितः॥३४॥

’भद्र पुरुषो! किसीको जो कुछ देना हो; उसे अवहेलना या अनादरपूर्वक नहीं देना चाहिये; क्योंकि अनादरपूर्वक दिया हुआ दान दाता को नष्ट कर देता है, इसमें संशय नहीं है’।

बहूनि रत्नान्यादाय राज्ञो दशरथस्य ह।
ततो वसिष्ठः सुप्रीतो राजानमिदमब्रवीत्॥३५॥

तदनन्तर कुछ दिनोंके बाद राजा लोग महाराज दशरथके लिये बहुत-से रत्नोंकी भेंट लेकर अयोध्यामें आये।

उपयाता नरव्याघ्र राजानस्तव शासनात्।
मयापि सत्कृताः सर्वे यथार्ह राजसत्तम॥३६॥

इससे वसिष्ठजी को बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने राजासे कहा - ’पुरुषसिंह! तुम्हारी आज्ञासे राजालोग यहाँ आ गये। नृपश्रेष्ठ! मैंने भी यथायोग्य उन सबका सत्कार किया है।

यज्ञियं च कृतं सर्वं पुरुषैः सुसमाहितैः।
निर्यातु च भवान् यष्टुं यज्ञायतनमन्तिकात्॥३७॥

‘हमारे कार्यकर्ताओं ने पूर्णतः सावधान रहकर यज्ञके लिये सारी तैयारी की है। अब तुम भी यज्ञ करनेके लिये यज्ञमण्डप के समीप चलो।

सर्वकामैरुपहृतैरुपेतं वै समन्ततः।
द्रष्टमर्हसि राजेन्द्र मनसेव विनिर्मितम् ॥ ३८॥

‘राजेन्द्र! यज्ञमण्डपमें सब ओर सभी वाञ्छनीय वस्तुएँ एकत्र कर दी गयी हैं। आप स्वयं चलकर देखें। यह मण्डप इतना शीघ्र तैयार किया गया है, मानो मनके संकल्पसे ही बन गया हो’।

तथा वसिष्ठवचनादृष्यशृंगस्य चोभयोः।
दिवसे शुभनक्षत्रे निर्यातो जगतीपतिः॥३९॥

मुनिवर वसिष्ठ तथा ऋष्यशृंग दोनोंके आदेशसे शुभ नक्षत्रवाले दिनको राजा दशरथ यज्ञके लिये राजभवनसे निकले।

ततो वसिष्ठप्रमुखाः सर्व एव द्विजोत्तमाः।
ऋष्यशृंगं पुरस्कृत्य यज्ञकर्मारभंस्तदा॥४०॥

तत्पश्चात् वसिष्ठ आदि सभी श्रेष्ठ द्विजोंने यज्ञमण्डपमें जाकर ऋष्यशृंगको आगे करके शास्त्रोक्त विधिके अनुसार -

यज्ञवाटं गताः सर्वे यथाशास्त्रं यथाविधि।
श्रीमांश्च सह पत्नीभी राजा दीक्षामुपाविशत्॥४१॥

यज्ञकर्मका आरम्भ किया। पत्नियोंसहित श्रीमान् अवधनरेशने यज्ञकी दीक्षा ली।

सर्ग १४ 

अथ संवत्सरे पूर्णे तस्मिन् प्राप्ते तुरंगमे।
सरय्वाश्चोत्तरे तीरे राज्ञो यज्ञोऽभ्यवर्तत॥१॥

इधर वर्ष पूरा होनेपर यज्ञसम्बन्धी अश्व भूमण्डलमें भ्रमण करके लौट अया। फिर सरयू नदीके उत्तर तटपर राजाका यज्ञ आरम्भ हुआ।

ऋष्यशृंगं पुरस्कृत्य कर्म चक्रुर्दिजर्षभाः।
अश्वमेधे महायज्ञे राज्ञोऽस्य सुमहात्मनः॥२॥

महामनस्वी राजा दशरथके उस अश्वमेध नामक महायज्ञमें ऋष्यशृंगको आगे करके श्रेष्ठ ब्राह्मण यज्ञसम्बन्धी कर्म करने लगे।

कर्म कुर्वन्ति विधिवद् याजका वेदपारगाः।
यथाविधि यथान्यायं परिक्रामन्ति शास्त्रतः॥३॥

यज्ञ करानेवाले सभी ब्राह्मण वेदोंके पारंगत विद्वान् थे; अतः वे न्याय तथा विधिके अनुसार सब कर्मोंका उचित रीतिसे सम्पादन करते थे और शास्त्रके अनुसार किस क्रमसे किस समय कौन-सी क्रिया करनी चाहिये, इसको स्मरण रखते हुए प्रत्येक कर्ममें प्रवृत्त होते थे।

प्रवर्दी शास्त्रतः कृत्वा तथैवोपसदं द्विजाः।
चक्रुश्च विधिवत् सर्वमधिकं कर्म शास्त्रतः॥४॥

ब्राह्मणोंने प्रवर्दी (अश्वमेधके अंगभूत कर्मविशेष) का शास्त्र (विधि, मीमांसा और कल्पसूत्र) के अनुसार सम्पादन करके उपसद नामक इष्टिविशेषका भी शास्त्रके अनुसार ही अनुष्ठान किया। तत्पश्चात् शास्त्रीय उपदेशसे अधिक जो अतिदेशतः प्राप्त कर्म है, उस सबका भी विधिवत् सम्पादन किया।

अभिपूज्य तदा हृष्टाः सर्वे चक्रुर्यथाविधि।
प्रातःसवनपूर्वाणि कर्माणि मुनिपुंगवाः॥५॥

तदनन्तर तत्तत् कर्मोके अंगभूत देवताओंका पूजन करके हर्षमें भरे हुए उन सभी मुनिवरोंने विधिपूर्वक प्रातःसवन आदि (अर्थात् प्रातःसवन, माध्यन्दिनसवन तथा तृतीय सवन) कर्म किये।

ऐन्द्रश्च विधिवद् दत्तो राजा चाभिषुतोऽनघः।
माध्यन्दिनं च सवनं प्रावर्तत यथाक्रमम्॥६॥

इन्द्रदेवताको विधिपूर्वक हविष्यका भाग अर्पित किया गया। पापनिवर्तक राजा सोम (सोमलता)* का रस निकाला गया। फिर क्रमशः माध्यन्दिनसवनका कार्य प्रारम्भ हुआ।

तृतीयसवनं चैव राज्ञोऽस्य सुमहात्मनः।
चक्रुस्ते शास्त्रतो दृष्ट्वा यथा ब्राह्मणपुंगवाः॥७॥

तत्पश्चात् उन श्रेष्ठ ब्राह्मणोंने शास्त्रसे देखभालकर मनस्वी राजा दशरथके तृतीय सवनकर्मका भी विधिवत् सम्पादन किया।

आह्वयाञ्चक्रिरे तत्र शक्रादीन्विबुधोत्तमान्।
ऋष्यशृंगादयो मन्त्रैः शिक्षाक्षरसमन्वितैः॥८॥

ऋष्यशृंग आदि महर्षियोंने वहाँ अभ्यासकालमें सीखे गये अक्षरोंसे युक्त-स्वर और वर्णसे सम्पन्न मन्त्रोंद्वारा इन्द्र आदि श्रेष्ठ देवताओंका आवाहन किया।

गीतिभिर्मधुरैः स्निग्धैर्मन्त्राह्वानैर्यथार्हतः।
होतारो ददुरावाह्य हविर्भागान् दिवौकसाम्॥९॥

मधुर एवं मनोरम सामगानके लयमें गाये हुए आह्वान-मन्त्रोंद्वारा देवताओंका आवाहन करके होताओं ने उन्हें उनके योग्य हविष्यके भाग समर्पित किये।

न चाहुतमभूत् तत्र स्खलितं वा न किंचन।
दृश्यते ब्रह्मवत् सर्वं क्षेमयुक्तं हि चक्रिरे॥१०॥

उस यज्ञमें कोई अयोग्य अथवा विपरीत आहुति नहीं पड़ी। कहीं कोई भूल नहीं हुईअनजानमें भी कोई कर्म छूटने नहीं पाया; क्योंकि वहाँ सारा कर्म मन्त्रोच्चारण-पूर्वक सम्पन्न होता दिखायी देता था। महर्षियोंने सब कर्म क्षेमयुक्त एवं निर्विघ्न परिपूर्ण किये।

न तेष्वहःसु श्रान्तो वा क्षुधितो वा न दृश्यते।
नाविद्वान् ब्राह्मणः कश्चिन्नाशतानुचरस्तथा॥११॥

यज्ञके दिनोंमें कोई भी ऋत्विज् थका-माँदा या भूखा-प्यासा नहीं दिखायी देता था। उसमें कोई भी ब्राह्मण ऐसा नहीं था, जो विद्वान् न हो अथवा जिसके सौसे कम शिष्य या सेवक रहे हों।

ब्राह्मणा भुञ्जते नित्यं नाथवन्तश्च भुञ्जते।
तापसा भुञ्जते चापि श्रमणाश्चैव भुञ्जते॥१२॥

उस यज्ञमें प्रतिदिन ब्राह्मण भोजन करते थे (क्षत्रिय और वैश्य भी भोजन पाते थे) तथा शूद्रोंको भी भोजन उपलब्ध होता था। तापस और श्रमण भी भोजन करते थे।

वृद्धाश्च व्याधिताश्चैव स्त्रीबालाश्च तथैव च।
अनिशं भुञ्जमानानां न तृप्तिरुपलभ्यते॥१३॥

बूढ़े, रोगी, स्त्रियाँ तथा बच्चे भी यथेष्ट भोजन पाते थे। भोजन इतना स्वादिष्ट होता था कि । निरन्तर खाते रहनेपर भी किसीका मन नहीं भरता था।

दीयतां दीयतामन्नं वासांसि विविधानि च।
इति संचोदितास्तत्र तथा चक्रुरनेकशः॥१४॥

‘अन्न दो, नाना प्रकारके वस्त्र दो’ अधिकारियोंकी ऐसी आज्ञा पाकर कार्यकर्ता लोग बारम्बार वैसा ही करते थे।

अन्नकूटाश्च दृश्यन्ते बहवः पर्वतोपमाः।
दिवसे दिवसे तत्र सिद्धस्य विधिवत् तदा॥१५॥

वहाँ प्रतिदिन विधिवत् पके हुए अन्नके बहुतसे पर्वतों-जैसे ढेर दिखायी देते थे।

नानादेशादनुप्राप्ताः पुरुषाः स्त्रीगणास्तथा।
अन्नपानैः सुविहितास्तस्मिन् यज्ञे महात्मनः॥१६॥

महामनस्वी राजा दशरथके उस यज्ञमें नाना देशोंसे आये हुए स्त्री-पुरुष अन्न-पानद्वारा भलीभाँति तृप्त किये गये थे।

अन्नं हि विधिवत्स्वादु प्रशंसन्ति द्विजर्षभाः।
अहो तृप्ताः स्म भद्रं ते इति शुश्राव राघवः॥१७॥

श्रेष्ठ ब्राह्मण ‘भोजन विधिवत् बनाया गया है। बहुत स्वादिष्ट है’ - ऐसा कहकर अन्नकी प्रशंसा करते थे। भोजन करके उठे हुए लोगोंके मुखसे राजा सदा यही सुनते थे कि ‘हमलोग खूब तृप्त हुए। आपका कल्याण हो’।

स्वलंकृताश्च पुरुषा ब्राह्मणान् पर्यवेषयन्।
उपासन्ते च तानन्ये सुमृष्टमणिकुण्डलाः॥१८॥

वस्त्र-आभूषणोंसे अलंकृत हुए पुरुष ब्राह्मणोंको भोजन परोसते थे और उन लोगोंकी जो दूसरे लोग सहायता करते थे, उन्होंने भी विशुद्ध मणिमय कुण्डल धारण कर रखे थे।

कर्मान्तरे तदा विप्रा हेतुवादान् बहूनपि।
प्राहुः सुवाग्मिनो धीराः परस्परजिगीषया॥१९॥

एक सवन समाप्त करके दूसरे सवनके आरम्भ होनेसे पूर्व जो अवकाश मिलता था, उसमें उत्तम वक्ता धीर ब्राह्मण एक-दूसरेको जीतनेकी इच्छासे बहुतेरे युक्तिवाद उपस्थित करते हुए शास्त्रार्थ करते थे।

दिवसे दिवसे तत्र संस्तरे कुशला द्विजाः।
सर्वकर्माणि चक्रुस्ते यथाशास्त्रं प्रचोदिताः॥२०॥

उस यज्ञमें नियुक्त हुए कर्मकुशल ब्राह्मण प्रतिदिन शास्त्रके अनुसार सब कार्योंका सम्पादन करते थे।

नाषडंगविदत्रासीन्नाव्रतो नाबहुश्रुतः।
सदस्यास्तस्य वै राज्ञो नावादकुशलो द्विजः॥२१॥

राजाके उस यज्ञमें कोई भी सदस्य ऐसा नहीं था, जो व्याकरण आदि छहों अंगोंका ज्ञाता न हो, जिसने ब्रह्मचर्यव्रतका पालन न किया हो तथा जो बहुश्रुत न हो। वहाँ कोई ऐसा द्विज नहीं था, जो वाद-विवादमें कुशल न हो।

प्राप्ते यूपोच्छ्रये तस्मिन् षड् बैल्वाःखादिरास्तथा।
तावन्तो बिल्वसहिताः पर्णिनश्च तथा परे॥२२॥

जब यूप खड़ा करनेका समय आया, तब बेलकी लकड़ी के छः यूप गाड़े गये। उतने ही खैर के यूप खड़े किये गये तथा पलाशके भी उतने ही यूप थे, जो बिल्वनिर्मित यूपोंके साथ खड़े किये गये थे।

श्लेष्मातकमयो दिष्टो देवदारुमयस्तथा।
द्वावेव तत्र विहितौ बाहुव्यस्तपरिग्रहौ॥२३॥

बहेड़े के वृक्षका एक यूप अश्वमेध यज्ञके लिये विहित है। देवदारुके बने हुए यूपका भी विधान है; परंतु उसकी संख्या न एक है न छः । देवदारुके दो ही यूप विहित हैं। दोनों बाँहें फैला देनेपर जितनी दूरी होती है, उतनी ही दूरपर वे दोनों स्थापित किये गये थे।

कारिताः सर्व एवैते शास्त्रज्ञैर्यज्ञकोविदैः।
शोभार्थं तस्य यज्ञस्य काञ्चनालंकृता भवन्॥२४॥

यज्ञकुशल शास्त्रज्ञ ब्राह्मणोंने ही इन सब यूपोंका निर्माण कराया था। उस यज्ञकी शोभा ङ्केबढ़ानेके लिये उन सबमें सोमा जड़ा गया था। 

एकविंशतियूपास्ते एकविंशत्यरत्नयः।
वासोभिरेकविंशद्भिरेकैकं समलंकृताः॥२५॥

पूर्वोक्त इक्कीस यूप इक्कीस-इक्कीस अरनि (पाँच सौ चार अंगुल/एक अरनि = चौबीस अङ्गल) ऊँचे बनाये गये थे। उन सबको पृथक्-पृथक् इक्कीस कपड़ोंसे अलंकृत किया गया था।

विन्यस्ता विधिवत् सर्वे शिल्पिभिः सुकृता दृढाः।
अष्टास्रयः सर्व एव श्लक्ष्णरूपसमन्विताः॥२६॥

कारीगरोंद्वारा अच्छी तरह बनाये गये वे सभी सुदृढ़ यूप विधिपूर्वक स्थापित किये गये थे। वे सब-के-सब आठ कोणोंसे सुशोभित थे। उनकी आकृति सुन्दर एवं चिकनी थी।

आच्छादितास्ते वासोभिः पुष्पैर्गन्धैश्च पूजिताः।
सप्तर्षयो दीप्तिमन्तो विराजन्ते यथा दिवि॥२७॥

उन्हें वस्त्रोंसे ढक दिया गया था और पुष्पचन्दनसे उनकी पूजा की गयी थी। जैसे आकाशमें तेजस्वी सप्तर्षियोंकी शोभा होती है, उसी प्रकार यज्ञमण्डपमें वे दीप्तिमान् यूप सुशोभित होते थे।

इष्टकाश्च यथान्यायं कारिताश्च प्रमाणतः।
चितोऽग्निर्ब्राह्मणैस्तत्र कुशलैः शिल्पकर्मणि॥२८॥

सूत्रग्रन्थों में बताये अनुसार ठीक मापसे ईंटें तैयार करायी गयी थीं। उन ईंटोंके द्वारा यज्ञसम्बन्धी शिल्पिकर्म में कुशल ब्राह्मणोंने अग्निका चयन किया था।

स चित्यो राजसिंहस्य संचितः कुशलैर्द्विजैः।
गरुडो रुक्मपक्षो वै त्रिगुणोऽष्टादशात्मकः॥२९॥

राजसिंह महाराज दशरथके यज्ञमें चयनद्वारा सम्पादित अग्निकी कर्मकाण्डकुशल ब्राह्मणोंद्वारा शास्त्रविधिके अनुसार स्थापना की गयी। उस अग्निकी आकृति दोनों पंख और पुच्छ फैलाकर नीचे देखते हुए पूर्वाभिमुख खड़े हुए गरुड़की-सी प्रतीत होती थी। सोनेकी ईंटोंसे पंखका निर्माण होनेसे उस गरुड़के पंख सुवर्णमय दिखायी देते थे। प्रकृत-अवस्थामें चित्य-अग्निके छः प्रस्तार होते हैं; किंतु अश्वमेध यज्ञमें उसका प्रस्तार तीनगुना हो जाता है। इसलिये वह गरुड़ाकृति अग्नि अठारह प्रस्तारोंसे युक्त थी।

नियुक्तास्तत्र पशवस्तत्तदुद्दिश्य दैवतम्।
उरगाः पक्षिणश्चैव यथाशास्त्रं प्रचोदिताः॥३०॥

वहाँ पूर्वोक्त यूपोंमें शास्त्रविहित पशु, सर्प और पक्षी विभिन्न देवताओंके उद्देश्यसे बाँधे गये थे।

शामित्रे तु हयस्तत्र तथा जलचराश्च ये।
ऋषिभिः सर्वमेवैतन्नियुक्तं शास्त्रतस्तदा॥३१॥

शामित्र कर्ममें यज्ञिय अश्व तथा कूर्म आदि जलचर जन्तु जो वहाँ लाये गये थे, ऋषियोंने उन सबको शास्त्रविधिके अनुसार पूर्वोक्त यूपोंमें बाँध दिया।

पशूनां त्रिशतं तत्र यूपेषु नियतं तदा।
अश्वरत्नोत्तमं तत्र राज्ञो दशरथस्य ह ॥३२॥

उस समय उन यूपों में तीन सौ पशु बँधे हुए थे तथा राजा दशरथका वह उत्तम अश्वरत्न भी वहीं बाँधा गया था।

कौसल्या तं हयं तत्र परिचर्य समन्ततः।
कृपाणैर्विशशारैनं त्रिभिः परमया मदा॥३३॥

रानी कौसल्या ने वहाँ प्रोक्षण आदि के द्वारा सब ओरसे उस अश्व का संस्कार करके बड़ी प्रसन्नता के साथ तीन तलवारों से उसका स्पर्श किया।

पतत्त्रिणा तदा सार्धं सुस्थितेन च चेतसा।
अवसद् रजनीमेकां कौसल्या धर्मकाम्यया॥३४॥

तदनन्तर कौसल्या देवीने सुस्थिर चित्त से धर्मपालन की इच्छा रखकर उस अश्व के निकट एक रात निवास किया।

होताध्वर्युस्तथोद्गाता हस्तेन समयोजयन्।
महिष्या परिवृत्त्यार्थं वावातामपरां तथा॥३५॥

तत्पश्चात् होता, अध्वर्यु और उद्गाता ने राजाकी (क्षत्रियजातीय) महिषी ‘कौसल्या’, (वैश्यजातीय स्त्री) ‘वावाता’ तथा (शूद्रजातीय स्त्री) ‘परिवृत्ति’-इन सबके हाथ से उस अश्वका स्पर्श कराया।

पतत्त्रिणस्तस्य वपामुद्धृत्य नियतेन्द्रियः।
ऋत्विक्परमसम्पन्नः श्रपयामास शास्त्रतः॥३६॥

इसके बाद परम चतुर जितेन्द्रिय ऋत्विक्ने विधिपूर्वक अश्वकन्द के गूदे को निकालकर शास्त्रोक्त रीतिसे पकाया।

धूमगन्धं वपायास्तु जिघ्रति स्म नराधिपः।
यथाकालं यथान्यायं निर्णदन् पापमात्मनः॥३७॥

त्पश्चात् उस गूदेकी आहुति दी गयी। राजा दशरथ ने अपने पाप को दूर करने के लिये ठीक समय पर आकर विधिपूर्वक उसके धूएँ की गन्ध को सूंघा।

हयस्य यानि चांगानि तानि सर्वाणि ब्राह्मणाः।
अग्नौ प्रास्यन्ति विधिवत् समस्ताः षोडशर्विजः॥ ३८॥

उस अश्वमेध यज्ञके अंगभूत जो-जो हवनीय पदार्थ थे, उन सबको लेकर समस्त सोलह ऋत्विज् ब्राह्मण अग्निमें विधिवत् आहुति देने लगे।

प्लक्षशाखासु यज्ञानामन्येषां क्रियते हविः।
अश्वमेधस्य यज्ञस्य वैतसो भाग इष्यते॥३९॥

अश्वमेधके अतिरिक्त अन्य यज्ञोंमें जो हवि दी जाती है, वह पाकरकी शाखाओंमें रखकर दी जाती है; परंतु अश्वमेध यज्ञका हविष्य बेंतकी चटाईमें रखकर देनेका नियम है।

त्र्यहोऽश्वमेधः संख्यातः कल्पसूत्रेण ब्राह्मणैः।
चतुष्टोममहस्तस्य प्रथमं परिकल्पितम्॥४०॥

कल्पसूत्र और ब्राह्मणग्रन्थोंके द्वारा अश्वमेध के तीन सवनीय दिन बताये गये हैं। उनमेंसे प्रथम दिन जो सवन होता है, उसे चतुष्टोम (‘अग्निष्टोम’) कहा गया है।

उक्थ्यं द्वितीयं संख्यातमतिरानं तथोत्तरम्।
कारितास्तत्र बहवो विहिताः शास्त्रदर्शनात्॥४१॥

द्वितीय दिवस साध्य सवनको ‘उक्थ्य’ नाम दिया गया है तथा तीसरे दिन जिस सवनका अनुष्ठान होता है, उसे ‘अतिरात्र’ कहते हैं। उसमें शास्त्रीय दृष्टिसे विहित बहुत-से दूसरे-दूसरे क्रतु भी सम्पन्न किये गये।

ज्योतिष्टोमायुषी चैवमतिरात्रौ च निर्मितौ।
अभिजिद्विश्वजिच्चैवमाप्तोर्यामौ महाक्रतुः॥४२॥

ज्योतिष्टोम, आयुष्टोम यज्ञ, दो बार अतिरात्र यज्ञ, पाँचवाँ अभिजित् , छठा विश्वजित् तथा सातवें-आठवें आप्तोर्याम - ये सब-के-सब महाक्रतु माने गये हैं, जो अश्वमेधके उत्तर कालमें सम्पादित हुए।

प्राचीं होने ददौ राजा दिशं स्वकुलवर्धनः।
अध्वर्यवे प्रतीची तु ब्रह्मणे दक्षिणां दिशम्॥४३॥

अपने कुलकी वृद्धि करनेवाले राजा दशरथने । यज्ञ पूर्ण होनेपर होताको दक्षिणारूपमें अयोध्यासे पूर्व दिशाका सारा राज्य सौंप दिया, अध्वर्युको पश्चिम दिशा तथा ब्रह्माको दक्षिण दिशाका राज्य दे दिया।

उद्गात्रे तु तथोदीची दक्षिणैषा विनिर्मिता।
अश्वमेधे महायज्ञे स्वयंभूविहिते पुरा॥४४॥

इसी तरह उद्गाताको उत्तर दिशाकी सारी भूमि दे दी। पूर्वकालमें भगवान् ब्रह्माजीने जिसका अनुष्ठान किया था, उस अश्वमेध नामक महायज्ञमें ऐसी ही दक्षिणाका विधान किया गया है।

क्रतुं समाप्य तु तदा न्यायतः पुरुषर्षभः।
ऋत्विग्भ्यो हि ददौ राजा धरां तां कुलवर्धनः॥४५॥

इस प्रकार विधिपूर्वक यज्ञ समाप्त करके अपने कुलकी वृद्धि करनेवाले पुरुषशिरोमणि राजा दशरथने ऋत्विजोंको सारी पृथ्वी दान कर दी।

एवं दत्त्वा प्रहृष्टोऽभूच्छीमानिक्ष्वाकुनन्दनः।
ब्रह्मणः ऋत्विजस्त्वब्रुवन् सर्वे राजानं गतकिल्बिषम्॥४६॥

यों दान देकर इक्ष्वाकुकुलनन्दन श्रीमान् महाराज दशरथके हर्षकी सीमा न रही, परंतु समस्त ऋत्विज् उन निष्पाप नरेशसे इस प्रकार बोले-

भवानेव महीं कृत्स्नामेको रक्षितुमर्हति।
न भूम्या कार्यमस्माकं नहि शक्ताः स्म पालने॥४७॥

‘महाराज! अकेले आप ही इस सम्पूर्ण पृथ्वीकी रक्षा करनेमें समर्थ हैं। हममें इसके पालनकी शक्ति नहीं है; अतः भूमिसे हमारा कोई प्रयोजन नहीं है।

रताः स्वाध्यायकरणे वयं नित्यं हि भूमिप।
निष्क्रयं किञ्चिदेवेह प्रयच्छतु भवानिति॥४८॥

‘भूमिपाल! हम तो सदा वेदोंके स्वाध्यायमें ही लगे रहते हैं (इस भूमिका पालन हमसे नहीं हो सकता); अतः आप हमें यहाँ इस भूमिका कुछ निष्क्रय (मूल्य) ही दे दें।

मणिरत्नं सुवर्णं वा गावो यद्वा समुद्यतम्।
तत् प्रयच्छ नृपश्रेष्ठ धरण्या न प्रयोजनम्॥४९॥

‘नृपश्रेष्ठ! मणि, रत्न, सुवर्ण, गौ अथवा जो भी वस्तु यहाँ उपस्थित हो, वही हमें दक्षिणारूपसे दे दीजिये। इस धरतीसे हमें कोई प्रयोजन नहीं है’।

एवमुक्तो नरपतिर्ब्राह्मणैर्वेदपारगैः।
गवां शतसहस्राणि दश तेभ्यो ददौ नृपः॥५०॥

वेदोंके पारगामी विद्वान् ब्राह्मणोंके ऐसा कहनेपर राजाने उन्हें दस लाख गौएँ प्रदान की। 

दशकोटिं सुवर्णस्य रजतस्य चतुर्गुणम्।
ऋत्विजस्तु ततः सर्वे प्रददुः सहिता वसु॥५१॥

दस करोड़ स्वर्णमुद्रा तथा उससे चौगुनी रजतमुद्रा अर्पित की। तब उस समस्त ऋत्विजोंने एक साथ होकर वह सारा धन -

ऋष्यशृंगाय मुनये वसिष्ठाय च धीमते।
ततस्ते न्यायतः कृत्वा प्रविभागं द्विजोत्तमाः॥५२॥

मुनिवर ऋष्यशृंग तथा बुद्धिमान् वसिष्ठको सौंप दिया। तदनन्तर उन दोनों महर्षियोंके सहयोगसे उस धनका न्यायपूर्वक बँटवारा करके वे सभी श्रेष्ठ ब्राह्मण मन-ही-मन बड़े प्रसन्न हुए और बोले -

सुप्रीतमनसः सर्वे प्रत्यूचुर्मुदिता भृशम्।
ततः प्रसर्पकेभ्यस्तु हिरण्यं सुसमाहितः॥५३॥

महाराज! इस दक्षिणासे हम-लोग बहुत संतुष्ट हैं’। इसके बाद एकाग्रचित्त होकर राजा दशरथने अभ्यागत ब्राह्मणोंको -

जाम्बूनदं कोटिसंख्यं ब्राह्मणेभ्यो ददौ तदा।
दरिद्राय द्विजायाथ हस्ताभरणमुत्तमम्॥५४॥

एक करोड़ जाम्बूनद सुवर्णकी मुद्राएँ बाँटीं। सारा धन दे देनेके बाद जब कुछ नहीं बच रहा, तब एक दरिद्र ब्राह्मणने आकर राजासे धनकी याचना की।

कस्मैचिद याचमानाय ददौ राघवनन्दनः।
ततः प्रीतेषु विधिवद् द्विजेषु द्विजवत्सलः॥५५॥

उस समय उन रघुकुलनन्दन नरेशने उसे अपने हाथका उत्तम आभूषण उतारकर दे दिया। तत्पश्चात् जब सभी ब्राह्मण विधिवत् संतुष्ट हो गये, उस समय उनपर स्नेह रखनेवाले नरेशने उन सबको प्रणाम किया।

प्रणाममकरोत् तेषां हर्षव्याकुलितेन्द्रियः।
तस्याशिषोऽथ विविधा ब्राह्मणैः समुदाहृताः॥५६॥

प्रणाम करते समय उनकी सारी इन्द्रियाँ हर्षसे विह्वल हो रही थीं। पृथ्वीपर पड़े हुए उन उदार नरवीरको ब्राह्मणों ने -

उदारस्य नृवीरस्य धरण्यां पतितस्य च।
ततः प्रीतमना राजा प्राप्य यज्ञमनुत्तमम्॥५७॥

नाना प्रकारके आशीर्वाद दिये। तदनन्तर उस परम उत्तम यज्ञका पुण्यफल पाकर राजा दशरथके मनमें बड़ी प्रसन्नता हुई। 

पापापहं स्वर्नयनं दुस्तरं पार्थिवर्षभैः।
ततोऽब्रवीदृष्यश्रृंगं राजा दशरथस्तदा॥५८॥

वह यज्ञ उनके सब पापोंका नाश करनेवाला तथा उन्हें स्वर्गलोकमें पहुँचानेवाला था। साधारण राजाओंके लिये उस यज्ञको आदिसे अन्ततक पूर्ण कर लेना बहुत ही कठिन था। यज्ञ समाप्त होनेपर राजा दशरथने ऋष्यशृंगसे कहा -

कुलस्य वर्धनं तत् तु कर्तुमर्हसि सुव्रत।
तथेति च स राजानमुवाच द्विजसत्तमः।
भविष्यन्ति सुता राजश्चत्वारस्ते कुलोद्रहाः॥५९॥

’उत्तम व्रतका पालन करनेवाले मुनीश्वर! अब जो कर्म मेरी कुलपरम्पराको बढ़ानेवाला हो, उसका सम्पादन आपको करना चाहिये’। तब द्विजश्रेष्ठ ऋष्यशृंग ‘तथास्तु’ कहकर राजासे बोले-‘राजन् ! आपके चार पुत्र होंगे, जो इस कुलके भारको वहन करनेमें समर्थ होंगे’।

स तस्य वाक्यं मधुरं निशम्य प्रणम्य तस्मै प्रयतो नृपेन्द्रः।
जगाम हर्षं परमं महात्मा तमृष्यश्रृंगं पुनरप्युवाच॥६०॥

उनका यह मधुर वचन सुनकर मन और इन्द्रियोंको संयममें रखनेवाले महामना महाराज दशरथ उन्हें प्रणाम करके बड़े हर्षको प्राप्त हुए तथा उन्होंने ऋष्यशृंगको पुनः पुत्रप्राप्ति करानेवाले कर्मका अनुष्ठान करनेके लिये प्रेरित किया।

सर्ग १५ 

मेधावी तु ततो ध्यात्वा स किञ्चिदिदमुत्तरम्।
लब्धसंज्ञस्ततस्तं तु वेदज्ञो नृपमब्रवीत्॥१॥

महात्मा ऋष्यशृंग बड़े मेधावी और वेदोंके ज्ञाता थे। उन्होंने थोड़ी देर तक ध्यान लगाकर अपने भावी कर्तव्य का निश्चय किया। फिर ध्यानसे विरत हो वे राजा से इस प्रकार बोले-

इष्टिं तेऽहं करिष्यामि पुत्रीयां पुत्रकारणात्।
अथर्वशिरसि प्रोक्तैर्मन्त्रैः सिद्धां विधानतः॥२॥

‘महाराज! मैं आपको पुत्रकी प्राप्ति करानेके लिये अथर्ववेदके मन्त्रोंसे पुत्रेष्टि नामक यज्ञ करूँगा। वेदोक्त विधिके अनुसार अनुष्ठान करनेपर वह यज्ञ अवश्य सफल होगा’।

ततः प्राक्रमदिष्टिं तां पुत्रीयां पुत्रकारणात्।
जुहावाग्नौ च तेजस्वी मन्त्रदृष्टेन कर्मणा॥३॥

यह कहकर उन तेजस्वी ऋषिने पुत्रप्राप्तिके उद्देश्यसे पुत्रेष्टि नामक यज्ञ प्रारम्भ किया और श्रौत विधि के अनुसार अग्नि में आहुति डाली।

ततो देवाः सगन्धर्वाः सिद्धाश्च परमर्षयः।
भागप्रतिग्रहार्थं वै समवेता यथाविधि॥४॥

तब देवता, सिद्ध, गन्धर्व और महर्षिगण विधि के अनुसार अपना-अपना भाग ग्रहण करने के लिये उस यज्ञमें एकत्र हुए।

ताः समेत्य यथान्यायं तस्मिन् सदसि देवताः।
अब्रुवँल्लोककर्तारं ब्रह्माणं वचनं ततः॥५॥

उस यज्ञ-सभामें क्रमशः एकत्र होकर (दूसरोंकी दृष्टिसे अदृश्य रहते हुए) सब देवता लोककर्ता ब्रह्माजीसे इस प्रकार बोले-

भगवंस्त्वत्प्रसादेन रावणो नाम राक्षसः।
सर्वान् नो बाधते वीर्याच्छासितुं तं न शक्नुमः॥६॥

‘भगवन्! रावण नामक राक्षस आपका कृपाप्रसाद पाकर अपने बलसे हम सब लोगोंको बड़ा कष्ट दे रहा है। हममें इतनी शक्ति नहीं है कि अपने पराक्रमसे उसको दबा सकें॥६॥

त्वया तस्मै वरो दत्तः प्रीतेन भगवंस्तदा।
मानयन्तश्च तं नित्यं सर्वं तस्य क्षमामहे॥७॥

‘प्रभो! आपने प्रसन्न होकर उसे वर दे दिया है। तबसे हमलोग उस वरका सदा समादर करते हुए उसके सारे अपराधोंको सहते चले आ रहे हैं॥७॥

उद्धेजयति लोकांस्त्रीनुच्छ्रितान् द्वेष्टि दुर्मतिः।
शक्रं त्रिदशराजानं प्रधर्षयितुमिच्छति॥८॥

‘उसने तीनों लोकोंके प्राणियोंका नाकोंदम कर रखा है। वह दुष्टात्मा जिनको कुछ ऊँची स्थितिमें देखता है, उन्हींके साथ द्वेष करने लगता है देवराज इन्द्रको परास्त करनेकी अभिलाषा रखता है॥८॥

ऋषीन् यक्षान् सगन्धर्वान् ब्राह्मणानसुरांस्तदा।
अतिक्रामति दुर्धर्षो वरदानेन मोहितः॥९॥

‘आपके वरदानसे मोहित होकर वह इतना उद्दण्ड हो गया है कि ऋषियों, यक्षों, गन्धर्वो, असुरों तथा ब्राह्मणोंको पीड़ा देता और उनका अपमान करता फिरता है॥९॥

नैनं सूर्यः प्रतपति पार्वे वाति न मारुतः।
चलोर्मिमाली तं दृष्ट्वा समुद्रोऽपि न कम्पते॥१०॥

‘सूर्य उसको ताप नहीं पहुँचा सकते। वायु उसके पास जोरसे नहीं चलती तथा जिसकी उत्ताल तरंगें सदा ऊपर-नीचे होती रहती हैं, वह समुद्र भी रावणको देखकर भयके मारे स्तब्ध-सा हो जाता है उसमें कम्पन नहीं होता ॥ १० ॥

तन्महन्नो भयं तस्माद् राक्षसाद् घोरदर्शनात्।
वधार्थं तस्य भगवन्नुपायं कर्तुमर्हसि ॥११॥

‘वह राक्षस देखनेमें भी बड़ा भयंकर है। उससे हमें महान् भय प्राप्त हो रहा है; अतः भगवन्! उसके वधके लिये आपको कोई-न-कोई उपाय अवश्य करना चाहिये’ ॥ ११॥

एवमुक्तः सुरैः सर्वैश्चिन्तयित्वा ततोऽब्रवीत्।
हन्तायं विदितस्तस्य वधोपायो दुरात्मनः॥१२॥
तेन गन्धर्वयक्षाणां देवतानां च रक्षसाम्।
अवध्योऽस्मीति वागुक्ता तथेत्युक्तं च तन्मया॥१३॥

समस्त देवताओंके ऐसा कहनेपर ब्रह्माजी कुछ सोचकर बोले-‘देवताओ! लो, उस दुरात्माके वधका उपाय मेरी समझमें आ गया। उसने वर माँगते समय यह बात कही थी कि मैं गन्धर्व, यक्ष, देवता तथा राक्षसोंके हाथसे न मारा जाऊँ। मैंने भी ‘तथास्तु’ कहकर उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली॥ १२-१३॥

नाकीर्तयदवज्ञानात् तद् रक्षो मानुषांस्तदा।
तस्मात् स मानुषाद् वध्यो मृत्यु न्योऽस्य विद्यते॥१४॥

‘मनुष्योंको तो वह तुच्छ समझता था, इसलिये उनके प्रति अवहेलना होनेके कारण उनसे अवध्य होने का वरदान नहीं माँगा। इसलिये अब मनुष्यके हाथसे ही उसका वध होगा। मनुष्यके सिवा दूसरा कोई उसकी मृत्यु का कारण नहीं है’॥ १४॥

एतच्छ्रुत्वा प्रियं वाक्यं ब्रह्मणा समुदाहृतम्।
देवा महर्षयः सर्वे प्रहृष्टास्तेऽभवंस्तदा ॥१५॥

ब्रह्माजीकी कही हुई यह प्रिय बात सुनकर उस समय समस्त देवता और महर्षि बड़े प्रसन्न हुए॥१५॥

एतस्मिन्नन्तरे विष्णुरुपयातो महाद्युतिः।
शङ्खचक्रगदापाणिः पीतवासा जगत्पतिः॥१६॥
वैनतेयं समारुह्य भास्करस्तोयदं यथा।

इसी समय महान् तेजस्वी जगत्पति भगवान् विष्णु भी मेघके ऊपर स्थित हुए सूर्यकी भाँति गरुड़पर सवार हो वहाँ आ पहुँचे। उनके शरीरपर पीताम्बर और हाथोंमें शङ्ख, चक्र एवं गदा आदि आयुध शोभा पा रहे थे।

तप्तहाटककेयूरो वन्द्यमानः सुरोत्तमैः॥१७॥
ब्रह्मणा च समागत्य तत्र तस्थौ समाहितः।

उनकी दोनों भुजाओंमें तपाये हुए सुवर्ण के बने केयूर प्रकाशित हो रहे थे। उस समय सम्पूर्ण देवताओंने उनकी वन्दना की और वे ब्रह्माजीसे मिलकर सावधानीके साथ सभामें विराजमान हो गये॥ १६-१७ १/२ ॥

तमब्रुवन् सुराः सर्वे समभिष्ट्रय संनताः॥१८॥
त्वां नियोक्ष्यामहे विष्णो लोकानां हितकाम्यया।

तब समस्त देवताओंने विनीत भावसे उनकी स्तति करके कहा—’सर्वव्यापी परमेश्वर! हम तीनों लोकोंके हितकी कामनासे आपके ऊपर एक महान् कार्यका भार दे रहे हैं॥ १८ १/२ ॥

राज्ञो दशरथस्य त्वमयोध्याधिपतेर्विभो॥१९॥
धर्मज्ञस्य वदान्यस्य महर्षिसमतेजसः।
अस्य भार्यासु तिसृषु ह्रीश्रीकीर्तुपमासु च॥२०॥

‘प्रभो! अयोध्याके राजा दशरथ धर्मज्ञ, उदार तथा महर्षियोंके समान तेजस्वी हैं। उनके तीन रानियाँ हैं जो ह्री, श्री और कीर्ति—इन तीन देवियोंके समान हैं।

विष्णो पुत्रत्वमागच्छ कृत्वाऽऽत्मानं चतुर्विधम्।
तत्र त्वं मानुषो भूत्वा प्रवृद्ध लोककण्टकम्॥२१॥
अवध्यं दैवतैर्विष्णो समरे जहि रावणम्।

विष्णुदेव! आप अपने चार स्वरूप बनाकर राजाकी उन तीनों रानियोंके गर्भसे पुत्ररूपमें अवतार ग्रहण कीजिये। इस प्रकार मनुष्यरूपमें प्रकट होकर आप संसारके लिये प्रबल कण्टकरूप रावणको, जो देवताओंके लिये अवध्य है, समरभूमिमें मार डालिये॥

स हि देवान् सगन्धर्वान् सिद्धांश्च ऋषिसत्तमान्॥२२॥
राक्षसो रावणो मूो वीर्योद्रेकेण बाधते।

‘वह मूर्ख राक्षस रावण अपने बढ़े हुए पराक्रमसे देवता, गन्धर्व, सिद्ध तथा श्रेष्ठ महर्षियोंको बहुत कष्ट दे रहा है॥ २२ १/२ ॥

ऋषयश्च ततस्तेन गन्धर्वाप्सरसस्तथा ॥२३॥
क्रीडन्तो नन्दनवने रौद्रेण विनिपातिताः।

‘उस रौद्र निशाचरने ऋषियोंको तथा नन्दनवनमें क्रीड़ा करनेवाले गन्धर्वो और अप्सराओंको भी स्वर्गसे भूमिपर गिरा दिया है। २३ १/२॥

वधार्थं वयमायातास्तस्य वै मुनिभिः सह ॥२४॥
सिद्धगन्धर्वयक्षाश्च ततस्त्वां शरणं गताः।

‘इसलिये मुनियोंसहित हम सब सिद्ध, गन्धर्व, यक्ष तथा देवता उसके वधके लिये आपकी शरणमें आये हैं ॥ २४ १/२॥

त्वं गतिः परमा देव सर्वेषां नः परंतप॥ २५॥
वधाय देवशत्रूणां नृणां लोके मनः कुरु।

‘शत्रुओंको संताप देनेवाले देव! आप ही हम सब लोगोंकी परमगति हैं, अतः इन देवद्रोहियोंका वध करनेके लिये आप मनुष्यलोकमें अवतार लेनेका निश्चय कीजिये’ ॥ २५ १/२ ॥

एवं स्तुतस्तु देवेशो विष्णुस्त्रिदशपुंगवः॥२६॥
पितामहपुरोगांस्तान् सर्वलोकनमस्कृतः।
अब्रवीत् त्रिदशान् सर्वान् समेतान् धर्मसंहितान्॥२७॥

उनके इस प्रकार स्तुति करनेपर सर्वलोकवन्दित देवप्रवर देवाधिदेव भगवान् विष्णुने वहाँ एकत्र हुए उन समस्त ब्रह्मा आदि धर्मपरायण देवताओंसे कहा- ॥ २६-२७॥

भयं त्यजत भद्रं वो हितार्थं युधि रावणम्।
सपुत्रपौत्रं सामात्यं समन्त्रिज्ञातिबान्धवम्॥२८॥

‘देवगण! तुम्हारा कल्याण हो। तुम भयको त्याग दो। मैं तुम्हारा हित करनेके लिये रावणको पुत्र, पौत्र, अमात्य, मन्त्री और बन्धुबान्धवोंसहित युद्धमें मार डालूँगा।

हत्वा क्रूरं दुराधर्षं देवर्षीणां भयावहम्।
दशवर्षसहस्राणि दशवर्षशतानि च॥२९॥
वत्स्यामि मानुषे लोके पालयन् पृथिवीमिमाम्।

देवताओं तथा ऋषियोंको भय देनेवाले उस क्रूर एवं दुर्धर्ष राक्षसका नाश करके मैं ग्यारह हजार वर्षांतक इस पृथ्वीका पालन करता हुआ मनुष्यलोकमें निवास करूँगा’ ।। २८-२९ १/२॥

एवं दत्त्वा वरं देवो देवानां विष्णुरात्मवान्॥३०॥
मानुष्ये चिन्तयामास जन्मभूमिमथात्मनः।

देवताओं को ऐसा वर देकर मनस्वी भगवान् विष्णु ने मनुष्यलोक में पहले अपनी जन्मभूमि के सम्बन्ध में विचार किया॥ ३० १/२॥

ततः पद्मपलाशाक्षः कृत्वाऽऽत्मानं चतुर्विधम्॥३१॥
पितरं रोचयामास तदा दशरथं नृपम्।

इसके बाद कमलनयन श्रीहरि ने अपने को चार स्वरूपों में प्रकट करके राजा दशरथ को पिता बनाने का निश्चय किया॥ ३१ १/२॥

ततो देवर्षिगन्धर्वाः सरुद्राः साप्सरोगणाः।
स्तुतिभिर्दिव्यरूपाभिस्तुष्टवुर्मधुसूदनम्॥३२॥

तब देवता, ऋषि, गन्धर्व, रुद्र तथा अप्सराओंने दिव्य स्तुतियोंके द्वारा भगवान् मधुसूदनका स्तवन किया॥३२॥

तमुद्धतं रावणमुग्रतेजसं प्रवृद्धदएँ त्रिदशेश्वरद्विषम्।
विरावणं साधुतपस्विकण्टकं तपस्विनामुद्धर तं भयावहम्॥३३॥

वे कहने लगे—’प्रभो! रावण बड़ा उद्दण्ड है। उसका तेज अत्यन्त उग्र और घमण्ड बहुत बढ़ा। चढ़ा है। वह देवराज इन्द्रसे सदा द्वेष रखता है। । तीनों लोकोंको रुलाता है, साधुओं और तपस्वी । जनोंके लिये तो वह बहुत बड़ा कण्टक है; अतः तापसों को भय देनेवाले उस भयानक राक्षस की आप जड़ उखाड़ डालिये॥ ३३॥

तमेव हत्वा सबलं सबान्धवं विरावणं रावणमुग्रपौरुषम्।
स्वर्लोकमागच्छ गतज्वरश्चिरं सुरेन्द्रगुप्तं गतदोषकल्मषम्॥ ३४॥

‘उपेन्द्र! सारे जगत् को रुलानेवाले उस उग्र पराक्रमी रावणको सेना और बन्धु-बान्धवोंसहित नष्ट करके अपनी स्वाभाविक निश्चिन्तताके साथ अपने ही द्वारा सुरक्षित उस चिरन्तन वैकुण्ठधाममें आ जाइये; जिसे राग-द्वेष आदि दोषोंका कलुष कभी छू नहीं पाता है’ ॥ ३४ ॥

सर्ग १६ 

ततो नारायणो विष्णुर्नियुक्तः सुरसत्तमैः।
जानन्नपि सुरानेवं श्लक्ष्णं वचनमब्रवीत्॥१॥

तदनन्तर उन श्रेष्ठ देवताओंद्वारा इस प्रकार रावणवधके लिये नियुक्त होनेपर सर्वव्यापी नारायणने रावणवधके उपायको जानते हुए भी देवताओंसे यह मधुर वचन कहा- ॥१॥

उपायः को वधे तस्य राक्षसाधिपतेः सुराः।
यमहं तं समास्थाय निहन्यामृषिकण्टकम्॥२॥

‘देवगण! राक्षसराज रावणके वधके लिये कौन-सा उपाय है, जिसका आश्रय लेकर मैं महर्षियोंके लिये कण्टकरूप उस निशाचरका वध करूँ?’ ॥२॥

एवमुक्ताः सुराः सर्वे प्रत्यूचुर्विष्णुमव्ययम्।
मानुषं रूपमास्थाय रावणं जहि संयुगे॥३॥

उनके इस तरह पूछनेपर सब देवता उन अविनाशी भगवान् विष्णुसे बोले—’प्रभो! आप मनुष्यका रूप धारण करके युद्ध में रावणको मार डालिये॥३॥

स हि तेपे तपस्तीवं दीर्घकालमरिंदमः।
येन तुष्टोऽभवद् ब्रह्मा लोककृल्लोकपूर्वजः॥४॥

‘उस शत्रुदमन निशाचरने दीर्घकालतक तीव्र तपस्या की थी, जिससे सब लोगोंके पूर्वज लोकस्रष्टा ब्रह्माजी उसपर प्रसन्न हो गये॥ ४॥

संतुष्टः प्रददौ तस्मै राक्षसाय वरं प्रभुः।
नानाविधेभ्यो भूतेभ्यो भयं नान्यत्र मानुषात्॥

‘उसपर संतुष्ट हुए भगवान् ब्रह्माने उस राक्षसको यह वर दिया कि तुम्हें नाना प्रकारके प्राणियोंमेंसे मनुष्यके सिवा और किसीसे भय नहीं है॥५॥

अवज्ञाताः पुरा तेन वरदाने हि मानवाः।
एवं पितामहात् तस्माद वरदानेन गर्वितः॥६॥

‘पूर्वकालमें वरदान लेते समय उस राक्षसने मनुष्योंको दुर्बल समझकर उनकी अवहेलना कर दी थी। इस प्रकार पितामहसे मिले हुए वरदानके कारण उसका घमण्ड बढ़ गया है॥६॥

उत्सादयति लोकांस्त्रीन स्त्रियश्चाप्यपकर्षति।
तस्मात् तस्य वधो दृष्टो मानुषेभ्यः परंतप॥७॥

‘शत्रुओंको संताप देनेवाले देव! वह तीनों लोकोंको पीड़ा देता और स्त्रियोंका भी अपहरण कर लेता है;अतः उसका वध मनुष्यके हाथसे ही निश्चित हुआ है’॥ ७॥

इत्येतद् वचनं श्रुत्वा सुराणां विष्णुरात्मवान्।
पितरं रोचयामास तदा दशरथं नृपम्॥८॥

समस्त जीवात्माओंको वशमें रखनेवाले भगवान् विष्णुने देवताओंकी यह बात सुनकर अवतारकालमें राजा दशरथको ही पिता बनानेकी इच्छा की॥८॥

स चाप्यपुत्रो नृपतिस्तस्मिन् काले महाद्युतिः।
अयजत् पुत्रयामिष्टिं पुत्रेप्सुररिसूदनः॥९॥

उसी समय वे शत्रुसूदन महातेजस्वी नरेश पुत्रहीन होनेके कारण पुत्रप्राप्तिकी इच्छासे पुत्रेष्टियज्ञ कर रहे थे॥९॥

स कृत्वा निश्चयं विष्णरामन्त्र्य च पितामहम्।
अन्तर्धानं गतो देवैः पूज्यमानो महर्षिभिः॥१०॥

उन्हें पिता बनानेका निश्चय करके भगवान् विष्णु पितामहकी अनुमति ले देवताओं और महर्षियोंसे पूजित हो वहाँसे अन्तर्धान हो गये॥ १०॥

ततो वै यजमानस्य पावकादतुलप्रभम्।
प्रादुर्भूतं महद् भूतं महावीर्यं महाबलम्॥११॥

तत्पश्चात् पुत्रेष्टि यज्ञ करते हुए राजा दशरथके यज्ञमें अग्निकुण्डसे एक विशालकाय पुरुष प्रकट हुआ। उसके शरीरमें इतना प्रकाश था, जिसकी कहीं तुलना नहीं थी। उसका बल-पराक्रम महान् था॥ ११॥

कृष्णं रक्ताम्बरधरं रक्तास्यं दुन्दुभिस्वनम्।
स्निग्धहर्यक्षतनुजश्मश्रुप्रवरमूर्धजम्॥१२॥

उसकी अंगकान्ति काले रंग की थी। उसने अपने शरीरपर लाल वस्त्र धारण कर रखा था। उसका मुख भी लाल ही था। उसकी वाणीसे दुन्दुभिके समान गम्भीर ध्वनि प्रकट होती थी। उसके रोम, दाढ़ी-मूंछ और बड़े-बड़े केश चिकने और सिंहके समान थे॥ १२॥

शुभलक्षणसम्पन्नं दिव्याभरणभूषितम्।
शैलशृंगसमुत्सेधं दृप्तशार्दूलविक्रमम्॥१३॥

वह शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न, दिव्य आभूषणोंसे विभूषित, शैलशिखरके समान ऊँचा तथा गर्वीले सिंहके समान चलनेवाला था॥१३॥

दिवाकरसमाकारं दीप्तानलशिखोपमम्।
तप्तजाम्बूनदमयीं राजतान्तपरिच्छदाम्॥१४॥
दिव्यपायससम्पूर्णां पात्री पत्नीमिव प्रियाम्।
प्रगृह्य विपुलां दोभ्वा॒ स्वयं मायामयीमिव॥१५॥

उसकी आकृति सूर्यके समान तेजोमयी थी। वह प्रज्वलित अग्निकी लपटोंके समान देदीप्यमान हो रहा था। उसके हाथमें तपाये हुए जाम्बूनद नामक सुवर्णकी बनी हुई परात थी, जो । चाँदीके ढक्कनसे ढंकी हुई थी। वह (परात) थाली बहुत बड़ी थी और दिव्य खीरसे भरी हुई थी। उसे उस पुरुषने स्वयं अपनी दोनों भुजाओं पर इस तरह उठा रखा था, मानो कोई रसिक अपनी प्रियतमा पत्नीको अङ्कमें लिये हुए हो। वह अद्भुत परात मायामयी-सी जान पड़ती थी॥ १४-१५॥

समवेक्ष्याब्रवीद् वाक्यमिदं दशरथं नृपम्।
प्राजापत्यं नरं विद्धि मामिहाभ्यागतं नृप॥१६॥

उसने राजा दशरथकी ओर देखकर कहा —’नरेश्वर! मुझे प्रजापतिलोकका पुरुष जानो। मैं प्रजापतिकी ही आज्ञासे यहाँ आया हूँ’॥ १६॥

ततः परं तदा राजा प्रत्युवाच कृताञ्जलिः।
भगवन् स्वागतं तेऽस्तु किमहं करवाणि ते॥१७॥

तब राजा दशरथने हाथ जोड़कर उससे कहा – ‘भगवन्! आपका स्वागत है। कहिये, मैं आपकी क्या सेवा करूँ? ॥ १७॥

अथो पुनरिदं वाक्यं प्राजापत्यो नरोऽब्रवीत्।
राजन्नर्चयता देवानद्य प्राप्तमिदं त्वया॥१८॥

फिर उस प्राजापत्य पुरुषने पुनः यह बात कही —’राजन् ! तुम देवताओंकी आराधना करते हो; इसीलिये तुम्हें आज यह वस्तु प्राप्त हुई है॥ १८ ॥

इदं तु नृपशार्दूल पायसं देवनिर्मितम्।
प्रजाकरं गृहाण त्वं धन्यमारोग्यवर्धनम्॥१९॥

‘नृपश्रेष्ठ! यह देवताओंकी बनायी हुई खीर है, जो संतानकी प्राप्ति करानेवाली है। तुम इसे ग्रहण करो। यह धन और आरोग्यकी भी वृद्धि करनेवाली है॥१९॥

भार्याणामनुरूपाणामश्नीतेति प्रयच्छ वै।
तासु त्वं लप्स्यसे पुत्रान् यदर्थं यजसे नृप२०॥

‘राजन् ! यह खीर अपनी योग्य पत्नियोंको दो और कहो—’तुमलोग इसे खाओ।’ ऐसा करनेपर उनके गर्भसे आपको अनेक पुत्रोंकी प्राप्ति होगी, जिनके लिये तुम यह यज्ञ कर रहे हो’ ॥ २० ॥

तथेति नृपतिः प्रीतः शिरसा प्रतिगृह्य ताम्।
पात्री देवान्नसम्पूर्णा देवदत्तां हिरण्मयीम्॥२१॥
अभिवाद्य च तद्भूतमद्भुतं प्रियदर्शनम्।
मुदा परमया युक्तश्चकाराभिप्रदक्षिणम्॥२२॥

राजाने प्रसन्नतापूर्वक ‘बहुत अच्छा’ कहकर उस दिव्य पुरुषकी दी हुई देवान्नसे परिपूर्ण सोनेकी थालीको लेकर उसे अपने मस्तकपर धारण किया। फिर उस अद्भुत एवं प्रियदर्शन पुरुषको प्रणाम करके बड़े आनन्दके साथ उसकी परिक्रमा की॥ २१-२२॥

ततो दशरथः प्राप्य पायसं देवनिर्मितम्।
बभूव परमप्रीतः प्राप्य वित्तमिवाधनः॥२३॥
ततस्तदद्भुतप्रख्यं भूतं परमभास्वरम्।
संवर्तयित्वा तत् कर्म तत्रैवान्तरधीयत॥ २४॥

इस प्रकार देवताओंकी बनायी हुई उस खीरको पाकर राजा दशरथ बहुत प्रसन्न हुए, मानो निर्धनको धन मिल गया हो। इसके बाद वह परम तेजस्वी अद्भुत पुरुष अपना वह काम पूरा करके वहीं अन्तर्धान हो गया॥ २३-२४॥

हर्षरश्मिभिरुद्द्योतं तस्यान्तःपुरमाबभौ।
शारदस्याभिरामस्य चन्द्रस्येव नभोंऽशुभिः॥२५॥

उस समय राजाके अन्तःपुरकी स्त्रियाँ हर्षोल्लाससे बढ़ी हुई कान्तिमयी किरणोंसे प्रकाशित हो ठीक उसी तरह शोभा पाने लगी, जैसे शरत्कालके नयनाभिराम चन्द्रमाकी रम्य रश्मियोंसे उद्भासित होनेवाला आकाश सुशोभित होता है॥ २५ ॥

सोऽन्तःपुरं प्रविश्यैव कौसल्यामिदमब्रवीत्।
पायसं प्रतिगृह्णीष्व पुत्रीयं त्विदमात्मनः॥२६॥

राजा दशरथ वह खीर लेकर अन्तःपुरमें गये और कौसल्यासे बोले—’देवि! यह अपने लिये पुत्रकी प्राप्ति करानेवाली खीर ग्रहण करो’॥ २६॥

कौसल्यायै नरपतिः पायसार्धं ददौ तदा।
अर्धादर्धं ददौ चापि सुमित्रायै नराधिपः॥२७॥

ऐसा कहकर नरेशने उस समय उस खीरका आधा भाग महारानी कौसल्याको दे दिया। फिर बचे हुए आधेका आधा भाग रानी सुमित्राको अर्पण किया॥ २७॥

कैकेय्यै चावशिष्टार्धं ददौ पुत्रार्थकारणात्।
प्रददौ चावशिष्टार्धं पायसस्यामृतोपमम्॥२८॥
अनुचिन्त्य सुमित्रायै पुनरेव महामतिः।
एवं तासां ददौ राजा भार्याणां पायसं पृथक्॥२९॥

उन दोनोंको देनेके बाद जितनी खीर बच रही, उसका आधा भाग तो उन्होंने पुत्रप्राप्तिके उद्देश्यसे कैकेयीको दे दिया। तत्पश्चात् उस खीरका जो अवशिष्ट आधा भाग था, उस अमृतोपम भागको महाबुद्धिमान् नरेशने कुछ सोच-विचारकर पुनः सुमित्राको ही अर्पित कर दिया। इस प्रकार राजाने अपनी सभी रानियोंको अलग-अलग खीर बाँट दी॥ २८-२९॥

ताश्चैवं पायसं प्राप्य नरेन्द्रस्योत्तमस्त्रियः।
सम्मानं मेनिरे सर्वाः प्रहर्षोदितचेतसः॥ ३०॥

महाराजकी उन सभी साध्वी रानियोंने उनके । हाथसे वह खीर पाकर अपना सम्मान समझा। । उनके चित्तमें अत्यन्त हर्षोल्लास छा गया॥३०॥

ततस्तु ताः प्राश्य तमुत्तमस्त्रियो महीपतेरुत्तमपायसं पृथक्।
हुताशनादित्यसमानतेजसोऽचिरेण गर्भान् प्रतिपेदिरे तदा ॥३१॥

उस उत्तम खीरको खाकर महाराजकी उन तीनों साध्वी महारानियोंने शीघ्र ही पृथक्-पृथक् गर्भ धारण किया। उनके वे गर्भ अग्नि और सूर्यके समान तेजस्वी थे॥ ३१॥

ततस्तु राजा प्रतिवीक्ष्य ताः स्त्रियः प्ररूढगर्भाः प्रतिलब्धमानसः।
बभूव हृष्टस्त्रिदिवे यथा हरिः सुरेन्द्रसिद्धर्षिगणाभिपूजितः ॥ ३२॥

तदनन्तर अपनी उन रानियोंको गर्भवती देख राजा दशरथको बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने समझा, मेरा मनोरथ सफल हो गया। जैसे स्वर्गमें इन्द्र, सिद्ध तथा ऋषियोंसे पूजित हो श्रीहरि प्रसन्न होते हैं, उसी प्रकार भूतलमें देवेन्द्र, सिद्ध तथा महर्षियोंसे सम्मानित हो राजा दशरथ संतुष्ट हुए थे॥ ३२॥

सर्ग १७ 

त्रत्वं त् गते विष्णौ राज्ञस्तस्य महात्मनः।
उवाच देवताः सर्वाः स्वयम्भूर्भगवानिदम्॥

जब भगवान् विष्णु महामनस्वी राजा दशरथ के पुत्रभाव को प्राप्त हो गये, तब भगवान् ब्रह्माजी ने सम्पूर्ण देवताओं से इस प्रकार कहा- ॥१॥

सत्यसंधस्य वीरस्य सर्वेषां नो हितैषिणः।
विष्णोः सहायान् बलिनः सृजध्वंकामरूपिणः॥२॥
मायाविदश्च शूरांश्च वायुवेगसमान् जवे।
नयज्ञान् बुद्धिसम्पन्नान् विष्णुतुल्यपराक्रमान्॥३॥
असंहार्यानुपायज्ञान् दिव्यसंहननान्वितान्।
सर्वास्त्रगुणसम्पन्नानमृतप्राशनानिव॥४॥

‘देवगण! भगवान् विष्णु सत्यप्रतिज्ञ, वीर और हम सब लोगों के हितैषी हैं। तुमलोग उनके सहायक रूप से ऐसे पुत्रों की सृष्टि करो, जो बलवान्, इच्छानुसार रूप धारण करने में समर्थ, माया जानने वाले, शूरवीर, वायु के समान वेगशाली, नीतिज्ञ, बुद्धिमान्, विष्णुतुल्य पराक्रमी, किसी से परास्त न होने वाले, तरह-तरह के उपायों के जानकार, दिव्य शरीरधारी तथा अमृतभोजी देवताओं के समान सब प्रकार की अस्त्रविद्या के गुणों से सम्पन्न हों।

अप्सरस्सु च मुख्यासु गन्धर्वीणां तनूषु च।
यक्षपन्नगकन्यासु ऋक्षविद्याधरीषु च॥५॥
किन्नरीणां च गात्रेषु वानरीणां तनूषु च।
सृजध्वं हरिरूपेण पुत्रांस्तुल्यपराक्रमान्॥६॥

‘प्रधान-प्रधान अप्सराओं, गन्धर्वो की स्त्रियों, यक्ष और नागों की कन्याओं, रीछों की स्त्रियों, विद्याधरियों, किन्नरियों तथा वानरियों के गर्भ से वानररूप में अपने ही तुल्य पराक्रमी पुत्र उत्पन्न करो॥५-६॥

पूर्वमेव मया सृष्टो जाम्बवानृक्षपंगवः।
जृम्भमाणस्य सहसा मम वक्त्रादजायत॥७॥

‘मैंने पहले से ही ऋक्षराज जाम्बवान् की सृष्टि कर रखी है। एक बार मैं अँभाई ले रहा था, उसी समय वह सहसा मेरे मुंह से प्रकट हो गया’ ॥ ७॥

ते तथोक्ता भगवता तत् प्रतिश्रुत्य शासनम्।
जनयामासुरेवं ते पुत्रान् वानररूपिणः॥८॥

भगवान् ब्रह्मा के ऐसा कहने पर देवताओं ने उनकी आज्ञा स्वीकार की और वानर रूप में अनेकानेक पुत्र उत्पन्न किये॥८॥

ऋषयश्च महात्मानः सिद्धविद्याधरोरगाः।
चारणाश्च सुतान् वीरान् ससृजुर्वनचारिणः॥

महात्मा, ऋषि, सिद्ध, विद्याधर, नाग और चारणों ने भी वन में विचरने वाले वानर-भालुओं के रूप में वीर पुत्रों को जन्म दिया॥९॥

वानरेन्द्र महेन्द्राभमिन्द्रो वालिनमात्मजम्।
सुग्रीवं जनयामास तपनस्तपतां वरः॥१०॥

देवराज इन्द्र ने वानरराज वाली को पुत्र रूप में उत्पन्न किया, जो महेन्द्र पर्वत के समान विशालकाय और बलिष्ठ था। तपने वालों में श्रेष्ठ भगवान् सूर्य ने सुग्रीव को जन्म दिया॥ १० ॥

बृहस्पतिस्त्वजनयत् तारं नाम महाकपिम्।
सर्ववानरमुख्यानां बुद्धिमन्तमनुत्तमम्॥११॥

बृहस्पति ने तार नामक महाकाय वानर को उत्पन्न किया, जो समस्त वानर सरदारों में परम बुद्धिमान् और श्रेष्ठ था॥

धनदस्य सुतः श्रीमान् वानरो गन्धमादनः।
विश्वकर्मा त्वजनयन्नलं नाम महाकपिम्॥१२॥

तेजस्वी वानर गन्धमादन कुबेर का पुत्र था। विश्वकर्मा ने नल नामक महान् वानर को जन्म दिया॥१२॥

पावकस्य सुतः श्रीमान् नीलोऽग्निसदृशप्रभः।
तेजसा यशसा वीर्यादत्यरिच्यत वीर्यवान्॥१३॥

अग्नि के समान तेजस्वी श्रीमान् नील साक्षात् अग्निदेव का ही पुत्र था। वह पराक्रमी वानर तेज, यश और बल-वीर्य में सबसे बढ़कर था॥ १३॥

रूपद्रविणसम्पन्नावश्विनौ रूपसम्मतौ।
मैन्दं च द्विविदं चैव जनयामासतुः स्वयम्॥१४॥

रूप-वैभव से सम्पन्न, सुन्दर रूपवाले दोनों अश्विनीकुमारों ने स्वयं ही मैन्द और द्विविद को जन्म दिया था॥ १४॥

वरुणो जनयामास सुषेणं नाम वानरम्।
शरभं जनयामास पर्जन्यस्तु महाबलः॥१५॥

वरुण ने सुषेण नामक वानर को उत्पन्न किया और महाबली पर्जन्यने शरभ को जन्म दिया। १५॥

मारुतस्यौरसः श्रीमान् हनूमान् नाम वानरः।
वज्रसंहननोपेतो वैनतेयसमो जवे॥१६॥

हनुमान् नामवाले ऐश्वर्यशाली वानर वायुदेवता के औरस पुत्र थे। उनका शरीर वज्र के समान सुदृढ़ था। वे तेज चलने में गरुड़ के समानथे॥ १६॥

सर्ववानरमुख्येषु बुद्धिमान् बलवानपि।
ते सृष्टा बहुसाहस्रा दशग्रीववधोद्यताः॥१७॥

सभी श्रेष्ठ वानरों में वे सबसे अधिक बुद्धिमान् और बलवान् थे। इस प्रकार कई हजार वानरों की उत्पत्ति हुई। वे सभी रावण का वध करने के लिये उद्यत रहते थे॥ १७॥

अप्रमेयबला वीरा विक्रान्ताः कामरूपिणः।
ते गजाचलसंकाशा वपुष्मन्तो महाबलाः॥१८॥

उनके बल की कोई सीमा नहीं थी। वे वीर,पराक्रमी और इच्छानुसार रूप धारण करनेवाले थे। गजराजों और पर्वतों के समान महाकाय तथा महाबली थे॥ १८॥

ऋक्षवानरगोपुच्छाः क्षिप्रमेवाभिजज्ञिरे।
यस्य देवस्य यद्रूपं वेषो यश्च पराक्रमः॥१९॥
अजायत समं तेन तस्य तस्य पृथक् पृथक्।
गोलांगूलेषु चोत्पन्नाः किंचिदुन्नतविक्रमाः॥२०॥

रीछ, वानर तथा गोलांगूल (लंगूर) जाति के वीर शीघ्र ही उत्पन्न हो गये। जिस देवता का जैसा रूप, वेष और पराक्रम था, उससे उसी के समान पृथक्-पृथक् पुत्र उत्पन्न हुआ। लंगूरों में जो देवता उत्पन्न हुए, वे देवावस्था की अपेक्षा भी कुछ अधिक पराक्रमी थे॥ १९-२०॥

ऋक्षीषु च तथा जाता वानराः किन्नरीषु च।
देवा महर्षिगन्धर्वास्तार्थ्ययक्षा यशस्विनः॥२१॥
नागाः किंपुरुषाश्चैव सिद्धविद्याधरोरगाः।
बहवो जनयामासुहृष्टास्तत्र सहस्रशः॥२२॥

कुछ वानर रीछ जाति की माताओं से तथा कुछ किन्नरियों से उत्पन्न हुए। देवता, महर्षि, गन्धर्व,गरुड़, यशस्वी यक्ष,नाग, किम्पुरुष, सिद्ध, विद्याधर तथा सर्प जाति के बहुसंख्यक व्यक्तियों ने अत्यन्त हर्ष में भरकर सहस्रों पुत्र उत्पन्न किये॥ २१-२२॥

चारणाश्च सुतान् वीरान् ससृजुर्वनचारिणः।
वानरान् सुमहाकायान् सर्वान् वैवनचारिणः॥२३॥

देवताओं का गुण गाने वाले वनवासी चारणों ने बहुत-से वीर, विशालकाय वानरपुत्र उत्पन्न किये। वे सब जंगली फल-मूल खाने वाले थे। २३॥

अप्सरस्सु च मुख्यासु तथा विद्याधरीषु च।
नागकन्यासु च तदा गन्धर्वीणां तनूषु च।
कामरूपबलोपेता यथाकामविचारिणः॥२४॥

मुख्य-मुख्य अप्सराओं, विद्याधरियों, नागकन्याओं तथा गन्धर्व-पत्नियों के गर्भ से भी इच्छानुसार रूप और बल से युक्त तथा स्वेच्छानुसार सर्वत्र विचरण करने में समर्थ वानर पुत्र उत्पन्न हुए॥२४॥

सिंहशार्दूलसदृशा दर्पण च बलेन च।
शिलाप्रहरणाः सर्वे सर्वे पर्वतयोधिनः॥२५॥

वे दर्प और बल में सिंह और व्याघ्रों के समान थे। पत्थर की चट्टानों से प्रहार करते और पर्वत उठाकर लड़ते थे॥ २५॥

नखदंष्ट्रायुधाः सर्वे सर्वे सर्वास्त्रकोविदाः।
विचालयेयुः शैलेन्द्रान् भेदयेयुः स्थिरान्दुमान्॥२६॥

वे सभी नख और दाँतों से भी शस्त्रों का काम लेते थे। उन सबको सब प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों का ज्ञान था। वे पर्वतों को भी हिला सकते थे और स्थिरभाव से खड़े हुए वृक्षों को भी तोड़ डालने की शक्ति रखते थे।। २६ ॥

क्षोभयेयुश्च वेगेन समुद्रं सरितां पतिम्।
दारयेयुः क्षितिं पद्भ्यामाप्लवेयुर्महार्णवान्॥२७॥

अपने वेग से सरिताओं के स्वामी समुद्र को भी क्षुब्ध कर सकते थे। उनमें पैरों से पृथ्वी को विदीर्ण कर डालने की शक्ति थी। वे महासागरों को भी लाँघ सकते थे॥२७॥

नभस्तलं विशेयुश्च गृह्णीयुरपि तोयदान्।
गृह्णीयुरपि मातंगान् मत्तान् प्रव्रजतो वने॥२८॥

वे चाहें तो आकाश में घुस जायँ, बादलों को हाथों से पकड़ लें तथा वन में वेग से चलते हुए मतवाले गजराजों को भी बन्दी बना लें॥२८॥

नर्दमानांश्च नादेन पातयेयुर्विहंगमान्।
ईदृशानां प्रसूतानि हरीणां कामरूपिणाम्॥२९॥
शतं शतसहस्राणि यूथपानां महात्मनाम्।
ते प्रधानेषु यूथेषु हरीणां हरियूथपाः॥ ३०॥

घोर शब्द करते हुए आकाश में उड़ने वाले पक्षियों को भी वे अपने सिंहनाद से गिरा सकते थे। ऐसे बलशाली और इच्छानुसार रूप धारण करने वाले महाकाय वानर यूथपति करोड़ों की संख्या में उत्पन्न हुए थे। वे वानरों के प्रधान यूथों के भी यूथपति थे॥ २९-३० ॥

बभूवुर्मूथपश्रेष्ठान् वीरांश्चाजनयन् हरीन्।
अन्ये ऋक्षवतः प्रस्थानुपतस्थुः सहस्रशः॥३१॥

उन यूथपतियों ने भी ऐसे वीर वानरों को उत्पन्न किया था, जो यूथपों से भी श्रेष्ठ थे। वे और ही प्रकार के वानर थे—इन प्राकृत वानरों से विलक्षण थे। उनमें से सहस्रों वानर-यूथपति ऋक्षवान् पर्वत के शिखरों पर निवास करने लगे॥ ३१॥

अन्ये नानाविधान् शैलान् काननानि चभेजिरे।
सूर्यपुत्रं च सुग्रीवं शक्रपुत्रं च वालिनम्॥३२॥
भ्रातरावुपतस्थुस्ते सर्वे च हरियूथपाः।
नलं नीलं हनूमन्तमन्यांश्च हरियूथपान्॥३३॥
ते तार्थ्यबलसम्पन्नाः सर्वे युद्धविशारदाः।
विचरन्तोऽर्दयन् सर्वान् सिंहव्याघ्रमहोरगान्॥३४॥

दूसरों ने नाना प्रकार के पर्वतों और जंगलों का आश्रय लिया। इन्द्रकुमार वाली और सूर्यनन्दन सुग्रीव ये दोनों भाई थे। समस्त वानरयूथपति उन दोनों भाइयों की सेवा में उपस्थित रहते थे। इसी प्रकार वे नल-नील, हनुमान् तथा अन्य वानर सरदारों का आश्रय लेते थे। वे सभी गरुड़ के समान बलशाली तथा युद्ध की कला में निपुण थे। वे वन में विचरते समय सिंह, व्याघ्र और बड़े-बड़े नाग आदि समस्त वनजन्तुओं को रौंद डालते थे।

महाबलो महाबाहुली विपुलविक्रमः।
जुगोप भुजवीर्येण ऋक्षगोपुच्छवानरान्॥३५॥

महाबाहु वाली महान् बल से सम्पन्न तथा विशेष पराक्रमी थे। उन्होंने अपने बाहुबल से रीछों, लंगूरों तथा अन्य वानरों की रक्षा की थी॥ ३५॥

तैरियं पृथिवी शूरैः सपर्वतवनार्णवा।
कीर्णा विविधसंस्थान नाव्यञ्जनलक्षणैः॥

उन सबके शरीर और पार्थक्यसूचक लक्षण नाना प्रकार के थे। वे शूरवीर वानर पर्वत, वन और समुद्रोंसहित समस्त भूमण्डल में फैल गये॥ ३६॥

तैर्मेघवृन्दाचलकूटसंनिभैमहाबलैर्वानरयूथपाधिपैः।
बभूव भूर्भीमशरीररूपैः समावृता रामसहायहेतोः॥ ३७॥

वे वानरयूथपति मेघसमूह तथा पर्वतशिखर के समान विशालकाय थे। उनका बल महान् था। उनके शरीर और रूप भयंकर थे। भगवान् श्रीराम की सहायता के लिये प्रकट हुए उन वानर वीरों से यह सारी पृथ्वी भर गयी थी॥ ३७॥

सर्ग १८ 

निर्वृत्ते तु क्रतौ तस्मिन् हयमेधे महात्मनः।
प्रतिगृह्यामरा भागान् प्रतिजग्मुर्यथागतम्॥

महामना राजा दशरथ का यज्ञ समाप्त होने पर देवतालोग अपना-अपना भाग ले जैसे आये थे, वैसे लौट गये॥१॥

समाप्तदीक्षानियमः पत्नीगणसमन्वितः।
प्रविवेश पुरीं राजा सभृत्यबलवाहनः॥२॥

दीक्षा का नियम समाप्त होने पर राजा अपनी पत्नियों को साथ ले सेवक, सैनिक और सवारियोंसहित पुरी में प्रविष्ट हुए॥२॥

यथार्ह पूजितास्तेन राज्ञा च पृथिवीश्वराः।
मुदिताः प्रययुर्देशान् प्रणम्य मुनिपुंगवम्॥३॥

भिन्न-भिन्न देशों के राजा भी (जो उनके यज्ञ में सम्मिलित होने के लिये आये थे) महाराज दशरथ द्वारा यथावत् सम्मानित हो मुनिवर वसिष्ठ तथा ऋष्यशृंग को प्रणाम करके प्रसन्नतापूर्वक अपने-अपने देश को चले गये॥३॥

श्रीमतां गच्छतां तेषां स्वगृहाणि पुरात् ततः।
बलानि राज्ञां शुभ्राणि प्रहृष्टानि चकाशिरे॥४॥

अयोध्यापुरी से अपने घर को जाते हुए उन श्रीमान् नरेशों के शुभ्र सैनिक अत्यन्त हर्षमग्न होने के कारण बड़ी शोभा पा रहे थे॥४॥

गतेषु पृथिवीशेषु राजा दशरथः पुनः।
प्रविवेश पुरीं श्रीमान् पुरस्कृत्य द्विजोत्तमान्॥

उन राजाओं के विदा हो जाने पर श्रीमान् महाराज दशरथ ने श्रेष्ठ ब्राह्मणों को आगे करके अपनी पुरी में प्रवेश किया॥ ५ ॥

शान्तया प्रययौ सार्धमृष्यश्रृंगः सुपूजितः।
अनुगम्यमानो राज्ञा च सानुयात्रेण धीमता॥

राजा द्वारा अत्यन्त सम्मानित हो ऋष्यशृंग मुनि भी शान्ता के साथ अपने स्थान को चले गये। उस समय सेवकोंसहित बुद्धिमान् महाराज दशरथ कुछ दूर तक उनके पीछे-पीछे उन्हें पहुँचाने गये थे॥६॥

एवं विसृज्य तान् सर्वान् राजा सम्पूर्णमानसः।
उवास सुखितस्तत्र पुत्रोत्पत्तिं विचिन्तयन्॥७॥

इस प्रकार उन सब अतिथियों को विदा करके सफल मनोरथ हुए राजा दशरथ पुत्रोत्पत्ति की प्रतीक्षा करते हुए वहाँ बड़े सुख से रहने लगे। ७॥

ततो यज्ञे समाप्ते तु ऋतूनां षट् समत्ययुः।
ततश्च द्वादशे मासे चैत्रे नावमिके तिथौ॥८॥
नक्षत्रेऽदितिदैवत्ये स्वोच्चसंस्थेषु पञ्चसु।
ग्रहेषु कर्कटे लग्ने वाक्पताविन्दुना सह॥९॥
प्रोद्यमाने जगन्नाथं सर्वलोकनमस्कृतम्।
कौसल्याजनयद् रामं दिव्यलक्षणसंयुतम्॥१०॥

यज्ञ-समाप्ति के पश्चात् जब छः ऋतुएँ बीत गयीं, तब बारहवें मास में चैत्र के शुक्लपक्ष की नवमी तिथि को पुनर्वसु नक्षत्र एवं कर्क लग्न में कौसल्यादेवी ने दिव्य लक्षणों से युक्त, सर्वलोकवन्दित जगदीश्वर श्रीराम को जन्म दिया। उस समय (सूर्य, मंगल, शनि, गुरु और शुक्रये) पाँच ग्रह अपने-अपने उच्च स्थान में विद्यमान थे तथा लग्न में चन्द्रमा के साथ बृहस्पति विराजमान थे॥

विष्णोरर्धं महाभागं पुत्रमैक्ष्वाकुनन्दनम्।
लोहिताक्षं महाबाहुं रक्तोष्ठं दुन्दुभिस्वनम्॥११॥

वे विष्णुस्वरूप हविष्य या खीर के आधे भाग से प्रकट हुए थे। कौसल्या के महाभाग पुत्र श्रीराम इक्ष्वाकुकुल का आनन्द बढ़ाने वाले थे। उनके नेत्रों में कुछ-कुछ लालिमा थी। उनके ओठ लाल, भुजाएँ बड़ी-बड़ी और स्वर दुन्दुभि के शब्द के समान गम्भीर था॥ ११॥

कौसल्या शुशुभे तेन पुत्रेणामिततेजसा।
यथा वरेण देवानामदितिर्वज्रपाणिना॥१२॥

उस अमिततेजस्वी पुत्र से महारानी कौसल्या की बड़ी शोभा हुई, ठीक उसी तरह, जैसे सुरश्रेष्ठ वज्रपाणि इन्द्र से देवमाता अदिति सुशोभित हुई थीं॥ १२॥

रतो नाम कैकेय्यां जज्ञे सत्यपराक्रमः।
साक्षाद् विष्णोश्चतुर्भागः सर्वैः समुदितोगुणैः॥१३॥

तदनन्तर कैकेयी से सत्यपराक्रमी भरत का जन्म हुआ, जो साक्षात् भगवान् विष्णु के (स्वरूपभूत पायस-खीर के) चतुर्थांश से भी न्यून भाग से प्रकट हुए थे। ये समस्त सद्गुणों से सम्पन्न थे। १३॥

अथ लक्ष्मणशत्रुघ्नौ सुमित्राजनयत् सतौ।
वीरौ सर्वास्त्रकुशलौ विष्णोरर्धसमन्वितौ॥१४॥

इसके बाद रानी सुमित्रा ने लक्ष्मण और शत्रुघ्न -इन दो पुत्रों को जन्म दिया। ये दोनों वीर साक्षात् भगवान् विष्णु के अर्धभाग से सम्पन्न और सब प्रकार के अस्त्रों की विद्या में कुशल थे॥ १४ ॥

पुष्ये जातस्तु भरतो मीनलग्ने प्रसन्नधीः।
सार्पे जातौ तु सौमित्री कुलीरेऽभ्युदिते रवौ॥१५॥

भरत सदा प्रसन्नचित्त रहते थे। उनका जन्म पुष्य नक्षत्र तथा मीन लग्न में हुआ था। सुमित्रा के दोनों पुत्र आश्लेषा नक्षत्र और कर्कलग्न में उत्पन्न हुए थे। उस समय सूर्य अपने उच्च स्थान में विराजमान थे॥ १५॥

राज्ञः पुत्रा महात्मानश्चत्वारो जज्ञिरे पृथक्।
गुणवन्तोऽनुरूपाश्च रुच्या प्रोष्ठपदोपमाः॥१६॥

राजा दशरथ के ये चारों महामनस्वी पुत्र पृथक्पृथक गुणों से सम्पन्न और सुन्दर थे। ये भाद्रपदा नामक चार तारों के समान कान्तिमान् थे* ॥ १६ ॥

जगुः कलं च गन्धर्वा ननृतुश्चाप्सरोगणाः।
देवदुन्दुभयो नेदुः पुष्पवृष्टिश्च खात् पतत्॥१७॥

इनके जन्म के समय गन्धर्वो ने मधुर गीत गाये। अप्सराओं ने नृत्य किया। देवताओं की दुन्दुभियाँ बजने लगीं तथा आकाश से फूलों की वर्षा होने लगी॥ १७॥

उत्सवश्च महानासीदयोध्यायां जनाकुलः।
रथ्याश्च जनसम्बाधा नटनर्तकसंकुलाः॥१८॥

अयोध्या में बहुत बड़ा उत्सव हुआ। मनुष्यों की भारी भीड़ एकत्र हुई। गलियाँ और सड़कें लोगों से खचाखच भरी थीं। बहुत-से नट और नर्तक वहाँ अपनी कलाएँ दिखा रहे थे॥१८॥

गायनैश्च विराविण्यो वादनैश्च तथापरैः।
विरेजुर्विपुलास्तत्र सर्वरत्नसमन्विताः॥१९॥

वहाँ सब ओर गाने-बजाने वाले तथा दूसरे लोगों के शब्द गूंज रहे थे। दीन-दुःखियों के लिये लुटाये गये सब प्रकार के रत्न वहाँ बिखरे पड़े थे॥ १९॥

प्रदेयांश्च ददौ राजा सूतमागधवन्दिनाम्।
ब्राह्मणेभ्यो ददौ वित्तं गोधनानि सहस्रशः॥२०॥

राजा दशरथ ने सूत, मागध और वन्दीजनों को देने योग्य पुरस्कार दिये तथा ब्राह्मणों को धन एवं सहस्रों गोधन प्रदान किये॥ २० ॥

अतीत्यैकादशाहं तु नामकर्म तथाकरोत्।
ज्येष्ठं रामं महात्मानं भरतं कैकयीसुतम्॥२१॥
सौमित्रिं लक्ष्मणमिति शत्रुघ्नमपरं तथा।
वसिष्ठः परमप्रीतो नामानि कुरुते तदा ॥२२॥

ग्यारह दिन बीतने पर महाराजने बालकों का नामकरण संस्कार किया। उस समय महर्षि वसिष्ठ ने प्रसन्नता के साथ सबके नाम रखे। उन्होंने ज्येष्ठ पुत्र का नाम ‘राम’ रखा। श्रीराम महात्मा (परमात्मा) थे। कैकेयीकुमार का नाम भरत तथा सुमित्रा के एक पुत्र का नाम लक्ष्मण और दूसरे का शत्रुघ्न निश्चित किया॥ २१-२२॥

ब्राह्मणान् भोजयामास पौरजानपदानपि।
अददद् ब्राह्मणानां च रत्नौघममलं बहु॥२३॥

राजा ने ब्राह्मणों, पुरवासियों तथा जनपदवासियों को भी भोजन कराया। ब्राह्मणों को बहुत-से उज्ज्व ल रत्नसमूह दान किये॥ २३॥

तेषां जन्मक्रियादीनि सर्वकर्माण्यकारयत्।
तेषां केतुरिव ज्येष्ठो रामो रतिकरः पितुः॥२४॥

महर्षि वसिष्ठ ने समय-समयपर राजा से उन बालकों के जातकर्म आदि सभी संस्कार करवाये थे। उन सबमें श्रीरामचन्द्रजी ज्येष्ठ होने के साथ ही अपने कुल की कीर्ति-ध्वजा को फहराने वाली पताका के समान थे। वे अपने पिता की प्रसन्नता को बढानेवाले थे॥२४॥

बभूव भूयो भूतानां स्वयम्भूरिव सम्मतः।
सर्वे वेदविदः शूराः सर्वे लोकहिते रताः॥२५॥

सभी भूतों के लिये वे स्वयम्भू ब्रह्माजी के समान विशेष प्रिय थे। राजा के सभी पुत्र वेदों के विद्वान् और शूरवीर थे। सब-के-सब लोकहितकारी कार्यों में संलग्न रहते थे॥ २५ ॥

सर्वे ज्ञानोपसम्पन्नाः सर्वे समुदिता गुणैः।
तेषामपि महातेजा रामः सत्यपराक्रमः॥२६॥
इष्टः सर्वस्य लोकस्य शशाङ्क इव निर्मलः।
गजस्कन्धेऽश्वपृष्ठे च रथचर्यासु सम्मतः॥२७॥
धनुर्वेदे च निरतः पितुः शुश्रूषणे रतः।

सभी ज्ञानवान् और समस्त सद्गुणों से सम्पन्न थे। उनमें भी सत्यपराक्रमी श्रीरामचन्द्रजी सबसे अधिक तेजस्वी और सब लोगों के विशेष प्रिय थे। वे निष्कलङ्क चन्द्रमा के समान शोभा पाते थे। उन्होंने हाथी के कंधे और घोड़े की पीठपर बैठने तथा रथ हाँकने की कला में भी सम्मानपूर्ण स्थान । प्राप्त किया था। वे सदा धनुर्वेद का अभ्यास करते और पिताजी की सेवा में लगे रहते थे।

बाल्यात् प्रभृति सुस्निग्धो लक्ष्मणोलक्ष्मिवर्धनः॥ २८॥
रामस्य लोकरामस्य भ्रातुर्येष्ठस्य नित्यशः।
सर्वप्रियकरस्तस्य रामस्यापि शरीरतः॥२९॥

लक्ष्मी की वृद्धि करने वाले लक्ष्मण बाल्यावस्था से ही श्रीरामचन्द्रजी के प्रति अत्यन्त अनुराग रखते थे। वे अपने बड़े भाई लोकाभिराम श्रीराम का सदा ही प्रिय करते थे और शरीर से भी उनकी सेवा में ही जुटे रहते थे।

लक्ष्मणो लक्ष्मिसम्पन्नो बहिःप्राण इवापरः।
न च तेन विना निद्रां लभते पुरुषोत्तमः॥३०॥
मृष्टमन्नमुपानीतमश्नाति न हि तं विना।

शोभासम्पन्न लक्ष्मण श्रीरामचन्द्रजी के लिये बाहर विचरने वाले दूसरे प्राण के समान थे। पुरुषोत्तम श्रीराम को उनके बिना नींद भी नहीं आती थी। यदि उनके पास उत्तम भोजन लाया जाता तो श्रीरामचन्द्रजी उसमें से लक्ष्मण को दिये बिना नहीं खाते थे॥ ३० १/२॥

यदा हि हयमारूढो मृगयां याति राघवः॥३१॥
अथैनं पृष्ठतोऽभ्येति सधनुः परिपालयन्।
भरतस्यापि शत्रुघ्नो लक्ष्मणावरजो हि सः॥३२॥
प्राणैः प्रियतरो नित्यं तस्य चासीत् तथा प्रियः।

जब श्रीरामचन्द्रजी घोड़े पर चढ़कर शिकार खेलने के लिये जाते, उस समय लक्ष्मण धनुष लेकर उनके शरीर की रक्षा करते हुए पीछे-पीछे जाते थे। इसी प्रकार लक्ष्मण के छोटे भाई शत्रुघ्न भरतजी को प्राणों से भी अधिक प्रिय थे और वे भी भरतजी को सदा प्राणों से भी अधिक प्रिय मानते थे। ३१-३२ १/२॥

स चतुर्भिर्महाभागैः पुत्रैर्दशरथः प्रियैः॥ ३३॥
बभूव परमप्रीतो देवैरिव पितामहः।

इन चार महान् भाग्यशाली प्रिय पुत्रों से राजा दशरथ को बड़ी प्रसन्नता प्राप्त होती थी, ठीक वैसे ही जैसे चार देवताओं (दिक्पालों) से ब्रह्माजी को प्रसन्नता होती है।॥ ३३ १/२ ॥

ते यदा ज्ञानसम्पन्नाः सर्वे समुदिता गुणैः॥३४॥
ह्रीमन्तः कीर्तिमन्तश्च सर्वज्ञा दीर्घदर्शिनः।
तेषामेवंप्रभावाणां सर्वेषां दीप्ततेजसाम्॥३५॥
पिता दशरथो हृष्टो ब्रह्मा लोकाधिपो यथा।

वे सब बालक जब समझदार हुए, तब समस्त सद्गुणों से सम्पन्न हो गये। वे सभी लज्जाशील, यशस्वी, सर्वज्ञ और दूरदर्शी थे। ऐसे प्रभावशालीऔर अत्यन्त तेजस्वी उन सभी पुत्रों की प्राप्ति से राजा दशरथ लोकेश्वर ब्रह्मा की भाँति बहुत प्रसन्न थे॥ ३४-३५ १/२॥

ते चापि मनुजव्याघ्रा वैदिकाध्ययने रताः॥३६॥
पितृशुश्रूषणरता धनुर्वेदे च निष्ठिताः।

वे पुरुषसिंह राजकुमार प्रतिदिन वेदों के स्वाध्याय, पिता की सेवा तथा धनुर्वेद के अभ्यास में दत्त-चित्त रहते थे॥ ३६ १/२॥

अथ राजा दशरथस्तेषां दारक्रियां प्रति॥३७॥
चिन्तयामास धर्मात्मा सोपाध्यायः सबान्धवः।
तस्य चिन्तयमानस्य मन्त्रिमध्ये महात्मनः॥३८॥
अभ्यागच्छन्महातेजा विश्वामित्रो महामुनिः।

एक दिन धर्मात्मा राजा दशरथ पुरोहित तथा बन्धु-बान्धवों के साथ बैठकर पुत्रों के विवाह के विषय में विचार कर रहे थे। मन्त्रियों के बीच में विचार करते हुए उन महामनानरेशके यहाँ महातेजस्वी महामुनि विश्वामित्र पधारे॥ ३७-३८ १/२॥

स राज्ञो दर्शनाकांक्षी द्वाराध्यक्षानुवाच ह॥३९॥
शीघ्रमाख्यात मां प्राप्तं कौशिकं गाधिनःसुतम्।

वे राजा से मिलना चाहते थे। उन्होंने द्वारपालों से कहा—’तुमलोग शीघ्र जाकर महाराज को यह सूचना दो कि कुशिकवंशी गाधिपुत्र विश्वामित्र आये हैं’ ॥ ३९ १/२ ॥

तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य राज्ञो वेश्म प्रदुद्रुवुः ॥४०॥
सम्भ्रान्तमनसः सर्वे तेन वाक्येन चोदिताः।

उनकी यह बात सुनकर वे द्वारपाल दौड़े हुए राजा के दरबार में गये। वे सब विश्वामित्र के उस वाक्य से प्रेरित होकर मन-ही-मन घबराये हुए थे। ४० १/२॥

ते गत्वा राजभवनं विश्वामित्रमृषिं तदा॥४१॥
प्राप्तमावेदयामासुर्नृपायेक्ष्वाकवे तदा।

राजा के दरबार में पहुँचकर उन्होंने इक्ष्वाकुकुलनन्दन अवधनरेश से कहा—’महाराज! महर्षि विश्वामित्र पधारे हैं’। ४१ १/२॥

तेषां तद् वचनं श्रुत्वा सपुरोधाः समाहितः॥४२॥
प्रत्युज्जगाम संहृष्टो ब्रह्माणमिव वासवः।

उनकी वह बात सुनकर राजा सावधान हो गये। उन्होंने पुरोहित को साथ लेकर बड़े हर्ष के साथ उनकी अगवानी की, मानो देवराज इन्द्र ब्रह्माजी का स्वागत कर रहे हों॥ ४२ १/२ ॥

स दृष्ट्वा ज्वलितं दीप्त्या तापसं संशितव्रतम्॥४३॥
प्रहृष्टवदनो राजा ततोऽर्ध्यमुपहारयत्।

विश्वामित्रजी कठोर व्रत का पालन करने वाले तपस्वी थे। वे अपने तेज से प्रज्वलित हो रहे थे। उनका दर्शन करके राजा का मुख प्रसन्नता से खिल उठा और उन्होंने महर्षि को अर्घ्य निवेदन किया॥ ४३ १/२॥

स राज्ञः प्रतिगृह्यार्घ्य शास्त्रदृष्टेन कर्मणा॥४४॥
कुशलं चाव्ययं चैव पर्यपृच्छन्नराधिपम्।

राजा का वह अर्घ्य शास्त्रीय विधि के अनुसार स्वीकार करके महर्षि ने उनसे कुशल-मंगल पूछा॥ ४४ १/२॥

पुरे कोशे जनपदे बान्धवेषु सुहृत्सु च॥४५॥
कुशलं कौशिको राज्ञः पर्यपृच्छत् सुधार्मिकः।

धर्मात्मा विश्वामित्र ने क्रमशः राजा के नगर, खजाना, राज्य, बन्धु-बान्धव तथा मित्रवर्गआदि के विषय में कुशल प्रश्न किया- ॥ ४५ १/२॥

अपि ते संनताः सर्वे सामन्तरिपवो जिताः॥
दैवं च मानुषं चैव कर्म ते साध्वनुष्ठितम्।

‘राजन् आपके राज्य की सीमा के निकट रहने वाले शत्रु राजा आपके समक्ष नतमस्तक तो हैं? आपने उनपर विजय तो प्राप्त की है न? आपके यज्ञयाग आदि देवकर्म और अतिथिसत्कार आदि मनुष्यकर्म तो अच्छी तरह सम्पन्न होते हैं न?’ ॥ ४६ १/२॥

वसिष्ठं च समागम्य कुशलं मुनिपुंगवः॥४७॥
ऋषींश्च तान् यथान्यायं महाभाग उवाच ह। ।

इसके बाद महाभाग मुनिवर विश्वामित्र ने वसिष्ठजी तथा अन्यान्य ऋषियों से मिलकर उन सबका यथावत् कुशल-समाचार पूछा॥ ४७ १/२॥

ते सर्वे हृष्टमनसस्तस्य राज्ञो निवेशनम्॥४८॥
विविशुः पूजितास्तेन निषेदुश्च यथार्हतः।

फिर वे सब लोग प्रसन्नचित्त होकर राजा के दरबार में गये और उनके द्वारा पूजित हो यथायोग्य आसनों पर बैठे॥

अथ हृष्टमना राजा विश्वामित्रं महामुनिम्॥४९॥
उवाच परमोदारो हृष्टस्तमभिपूजयन्।

तदनन्तर प्रसन्नचित्त परम उदार राजा दशरथ ने पुलकित होकर महामुनि विश्वामित्र की प्रशंसा करते हुए कहा- ॥ ४९ १/२॥

यथामृतस्य सम्प्राप्तिर्यथा वर्षमनूदके॥५०॥
यथा सदृशदारेषु पुत्रजन्माप्रजस्य वै।
प्रणष्टस्य यथा लाभो यथा हर्षो महोदयः॥५१॥
तथैवागमनं मन्ये स्वागतं ते महामुने।
कं च ते परमं कामं करोमि किमु हर्षितः॥५२॥

‘महामुने! जैसे किसी मरणधर्मा मनुष्य को अमृतकी प्राप्ति हो जाय, निर्जल प्रदेश में पानी बरस जाय, किसी संतानहीन को अपने अनुरूपपत्नी के गर्भ से पुत्र प्राप्त हो जाय, खोयी हुई निधि मिल जाय तथा किसी महान् उत्सव से हर्ष का उदय हो, उसी प्रकार आपका यहाँ शुभागमन हुआ है। ऐसा मैं मानता हूँ। आपका स्वागत है। आपके मन में कौन-सी उत्तम कामना है, जिसको मैं हर्ष के साथ पूर्ण करूँ? ॥ ५०–५२॥

पात्रभूतोऽसि मे ब्रह्मन् दिष्ट्या प्राप्तोऽसिमानद।
अद्य मे सफलं जन्म जीवितं च सुजीवितम्॥

‘ब्रह्मन्! आप मुझसे सब प्रकार की सेवा लेने योग्य उत्तम पात्र हैं। मानद! मेरा अहोभाग्य है, जो आपने यहाँ तक पधारने का कष्ट उठाया। आज मेरा जन्म सफल और जीवन धन्य हो गया। ५३॥

यस्माद् विप्रेन्द्रमद्राक्षं सुप्रभाता निशा मम।
पूर्वं राजर्षिशब्देन तपसा द्योतितप्रभः॥५४॥
ब्रह्मर्षित्वमनुप्राप्तः पूज्योऽसि बहुधा मया।
तदद्भुतमभूद् विप्र पवित्रं परमं मम॥५५॥

‘मेरी बीती हुई रात सुन्दर प्रभात दे गयी, जिससे मैंने आज आप ब्राह्मणशिरोमणि का दर्शन किया। पूर्वकाल में आप राजर्षि शब्द से उपलक्षित होते थे, फिर तपस्या से अपनी अद्भुत प्रभा को प्रकाशित करके आपने ब्रह्मर्षि का पद पाया; अतः आप राजर्षि और ब्रह्मर्षि दोनों ही रूपों में मेरे पूजनीय हैं। आपका जो यहाँ मेरे समक्ष शुभागमन हुआ है, यह परम पवित्र और अद्भुत है।

शुभक्षेत्रगतश्चाहं तव संदर्शनात् प्रभो।
ब्रूहि यत् प्रार्थितं तुभ्यं कार्यमागमनं प्रति॥

“प्रभो! आपके दर्शनसे आज मेरा घर तीर्थ हो गया। मैं अपने-आपको पुण्यक्षेत्रों की यात्रा करके आया हुआ मानता हूँ। बताइये, आप क्या चाहते हैं? आपके शुभागमन का शुभ उद्देश्य क्या है ? ॥५६॥

इच्छाम्यनुगृहीतोऽहं त्वदर्थं परिवृद्धये।
कार्यस्य न विमर्श च गन्तुमर्हसि सुव्रत॥५७॥

‘उत्तम व्रत का पालन करने वाले महर्षे! मैं चाहता हूँ कि आपकी कृपा से अनुगृहीत होकर आपके अभीष्ट मनोरथ को जान लूँ और अपने अभ्युदय के लिये उसकी पूर्ति करूँ। ‘कार्य सिद्ध होगा या नहीं’ ऐसे संशय को अपने मन में स्थान न दीजिये।। ५७॥

कर्ता चाहमशेषेण दैवतं हि भवान् मम।
मम चायमनुप्राप्तो महानभ्युदयो द्विज।
तवागमनजः कृत्स्नो धर्मश्चानुत्तमो द्विज॥५८॥

‘आप जो भी आज्ञा देंगे, मैं उसका पूर्णरूप से पालन करूँगा; क्योंकि सम्माननीय अतिथि होने के नाते आप मुझ गृहस्थ के लिये देवता हैं। ब्रह्मन्! आज आपके आगमन से मुझे सम्पूर्ण धर्मों का उत्तम फल प्राप्त हो गया। यह मेरे महान् अभ्युदय का अवसर आया है’। ५८॥

इति हृदयसुखं निशम्य वाक्यं श्रुतिसुखमात्मवता विनीतमुक्तम्।
प्रथितगुणयशा गुणैर्विशिष्टःपरमऋषिः परमं जगाम हर्षम्॥५९॥

मनस्वी नरेश के कहे हुए ये विनययुक्त वचन, जो हृदय और कानों को सुख देने वाले थे, सुनकर विख्यात गुण और यशवाले, शम-दम आदि सद्गुणों से सम्पन्न महर्षि विश्वामित्र बहुत प्रसन्न हुए॥ ५९॥

सर्ग १९ 

तच्छ्रुत्वा राजसिंहस्य वाक्यमद्भुतविस्तरम्।
हृष्टरोमा महातेजा विश्वामित्रोऽभ्यभाषत॥

नृपश्रेष्ठ महाराज दशरथ का यह अद्भुत विस्तार से युक्त वचन सुनकर महातेजस्वी विश्वामित्र पुलकित हो उठे और इस प्रकार बोले॥१॥

सदृशं राजशार्दूल तवैव भुवि नान्यतः।
महावंशप्रसूतस्य वसिष्ठव्यपदेशिनः॥२॥

राजसिंह! ये बातें आपके ही योग्य हैं। इस पृथ्वी पर दूसरे के मुख से ऐसे उदार वचन निकलने की सम्भावना नहीं है। क्यों न हो, आपमहान् कुल में उत्पन्न हैं और वसिष्ठ-जैसे ब्रह्मर्षि आपके उपदेशक हैं ॥२॥

यत् तु मे हृद्गतं वाक्यं तस्य कार्यस्य निश्चयम्।
कुरुष्व राजशार्दूल भव सत्यप्रतिश्रवः॥३॥

‘अच्छा, अब जो बात मेरे हृदय में है, उसे सुनिये। नृपश्रेष्ठ! सुनकर उस कार्य को अवश्य पूर्ण करने का निश्चय कीजिये। आपने मेरा कार्य सिद्ध करने की प्रतिज्ञा की है। इस प्रतिज्ञा को सत्य कर दिखाइये॥३॥

अहं नियममातिष्ठे सिद्ध्यर्थं पुरुषर्षभ।
तस्य विघ्नकरौ द्वौ तु राक्षसौ कामरूपिणौ ॥४॥

‘पुरुषप्रवर! मैं सिद्धि के लिये एक नियम का अनुष्ठान करता हूँ। उसमें इच्छानुसार रूप धारण करने वाले दो राक्षस विघ्न डाल रहे हैं॥ ४॥

व्रते तु बहुशश्चीर्णे समाप्त्यां राक्षसाविमौ।
मारीचश्च सुबाहुश्च वीर्यवन्तौ सुशिक्षितौ॥

‘मेरे इस नियम का अधिकांश कार्य पूर्ण हो चुका है। अब उसकी समाप्ति के समय वे दो राक्षस आ धमके हैं। उनके नाम हैं मारीच और सुबाहु। वे दोनों बलवान् और सुशिक्षित हैं॥५॥

तौ मांसरुधिरौघेण वेदिं तामभ्यवर्षताम्।
अवधूते तथाभूते तस्मिन् नियमनिश्चये॥६॥
कृतश्रमो निरुत्साहस्तस्माद् देशादपाक्रमे।

‘उन्होंने मेरी यज्ञवेदी पर रक्त और मांस की वर्षा कर दी है। इस प्रकार उस समाप्तप्राय नियम में विघ्न पड़ जाने के कारण मेरा परिश्रम व्यर्थ गयाऔर मैं उत्साहहीन होकर उस स्थान से चला आया॥ ६ १/२॥

न च मे क्रोधमुत्स्रष्टुं बुद्धिर्भवति पार्थिव॥७॥

‘पृथ्वीनाथ! उनके ऊपर अपने क्रोध का प्रयोग करूँ- उन्हें शाप दे दूं, ऐसा विचार मेरे मन में नहीं आता है।

तथाभूता हि सा चर्या न शापस्तत्र मुच्यते।
स्वपुत्रं राजशार्दूल रामं सत्यपराक्रमम्॥८॥
काकपक्षधरं वीरं ज्येष्ठं मे दातुमर्हसि।

‘क्योंकि वह नियम ही ऐसा है, जिसको आरम्भ कर देने पर किसी को शाप नहीं दिया जाता; अतः नृपश्रेष्ठ! आप अपने काकपच्छधारी, सत्यपराक्रमी, शूरवीर ज्येष्ठ पुत्र श्रीराम को मुझे दे दें॥ ८ १/२॥

शक्तो ह्येष मया गुप्तो दिव्येन स्वेन तेजसा॥९॥
राक्षसा ये विकर्तारस्तेषामपि विनाशने।
श्रेयश्चास्मै प्रदास्यामि बहुरूपं न संशयः॥१०॥

‘ये मुझसे सुरक्षित रहकर अपने दिव्य तेज से उन विघ्नकारी राक्षसों का नाश करने में समर्थ हैं। मैं इन्हें अनेक प्रकार का श्रेय प्रदान करूँगा, इसमें संशय नहीं है॥

त्रयाणामपि लोकानां येन ख्यातिं गमिष्यति।
न च तौ राममासाद्य शक्तो स्थातुं कथंचन॥११॥

‘उस श्रेय को पाकर ये तीनों लोकों में विख्यात होंगे। श्रीराम के सामने आकर वे दोनों राक्षस किसी तरह ठहर नहीं सकते॥११॥

न च तौ राघवादन्यो हन्तुमुत्सहते पुमान्।
वीर्योत्सिक्तौ हि तौ पापौ कालपाशवशंगतौ॥१२॥
रामस्य राजशार्दूल न पर्याप्तौ महात्मनः।

‘इन रघुनन्दन के सिवा दूसरा कोई पुरुष उन राक्षसों को मारने का साहस नहीं कर सकता। नृपश्रेष्ठ! अपने बल का घमण्ड रखने वाले वे दोनों पापी निशाचर कालपाश के अधीन हो गये हैं; अतः महात्मा श्रीराम के सामने नहीं टिक सकते॥ १२ १/२॥

न च पुत्रगतं स्नेहं कर्तुमर्हसि पार्थिव॥१३॥
अहं ते प्रतिजानामि हतौ तौ विद्धि राक्षसौ।

‘भूपाल! आप पुत्रविषयक स्नेह को सामने न लाइये। मैं आपसे प्रतिज्ञापूर्वक कहता हूँ कि उन दोनों राक्षसों को इनके हाथ से मरा हुआ ही समझिये॥ १३ १/२॥

अहं वेद्मि महात्मानं रामं सत्यपराक्रमम्॥१४॥
वसिष्ठोऽपि महातेजा ये चेमे तपसि स्थिताः।

‘सत्यपराक्रमी महात्मा श्रीराम क्या हैं—यह मैं जानता हूँ। महातेजस्वी वसिष्ठजी तथा ये अन्य तपस्वी भी जानते हैं॥ १४ १/२ ॥

यदि ते धर्मलाभं तु यशश्च परमं भुवि॥१५॥
स्थिरमिच्छसि राजेन्द्र रामं मे दातुमर्हसि।

‘राजेन्द्र! यदि आप इस भूमण्डल में धर्म-लाभ और उत्तम यश को स्थिर रखना चाहते हों तो श्रीराम को मुझे दे दीजिये। १५ १/२ ॥

यद्यभ्यनुज्ञां काकुत्स्थ ददते तव मन्त्रिणः॥१६॥
वसिष्ठप्रमुखाः सर्वे ततो रामं विसर्जय।

‘ककुत्स्थनन्दन! यदि वसिष्ठ आदि आपके सभी मन्त्री आपको अनुमति दें तो आप श्रीराम को मेरे साथ विदा कर दीजिये। १६ १/२॥

अभिप्रेतमसंसक्तमात्मजं दातुमर्हसि ॥१७॥
दशरात्रं हि यज्ञस्य रामं राजीवलोचनम्।

‘मुझे राम को ले जाना अभीष्ट है। ये भी बड़े होने के कारण अब आसक्तिरहित हो गये हैं; अतःआप यज्ञ के अवशिष्ट दस दिनों के लिये अपने पुत्र कमलनयन श्रीराम को मुझे दे दीजिये॥ १७ १/२ ।।

नात्येति कालो यज्ञस्य यथायं मम राघव॥१८॥
तथा कुरुष्व भद्रं ते मा च शोके मनः कृथाः।

‘रघुनन्दन! आप ऐसा कीजिये जिससे मेरे यज्ञ का समय व्यतीत न हो जाय। आपका कल्याण हो। आप अपने मन को शोक और चिन्ता में न डालिये’ ।। १८ १/२ ॥

इत्येवमुक्त्वा धर्मात्मा धर्मार्थसहितं वचः॥१९॥
विरराम महातेजा विश्वामित्रो महामतिः।

यह धर्म और अर्थ से युक्त वचन कहकर धर्मात्मा, महातेजस्वी, परमबुद्धिमान् विश्वामित्रजी चुप हो गये॥

स तन्निशम्य राजेन्द्रो विश्वामित्रवचः शुभम्॥२०॥
शोकेन महताविष्टश्चचाल च मुमोह च।

विश्वामित्र का यह शुभ वचन सुनकर महाराज दशरथ को पुत्र-वियोग की आशङ्का से महान् दुःख हुआ। वे उससे पीड़ित हो सहसा काँप उठे और बेहोश हो गये॥ २० १/२ ॥

लब्धसंज्ञस्तदोत्थाय व्यषीदत भयान्वितः॥२१॥
इति हृदयमनोविदारणं मुनिवचनं तदतीव शुश्रुवान्।
नरपतिरभवन्महान् महात्मा व्यथितमनाः प्रचचाल चासनात्॥२२॥

थोड़ी देर बाद जब उन्हें होश हुआ, तब वे भयभीत हो विषाद करने लगे। विश्वामित्र मुनि का वचन राजा के हृदय और मन को विदीर्ण करने वाला था। उसे सुनकर उनके मन में बड़ी व्यथा हुई। वे महामनस्वी महाराज अपने आसन से विचलित हो मूर्च्छित हो गये।

सर्ग २०

तच्छ्रुत्वा राजशार्दूलो विश्वामित्रस्य भाषितम्।
मुहर्तमिव निःसंज्ञः संज्ञावानिदमब्रवीत्॥१॥

विश्वामित्रजी का वचन सुनकर नृपश्रेष्ठ दशरथ दो घड़ी के लिये संज्ञाशून्य-से हो गये। फिर सचेत होकर इस प्रकार बोले- ॥१॥

ऊनषोडशवर्षो मे रामो राजीवलोचनः।
न युद्धयोग्यतामस्य पश्यामि सह राक्षसैः॥२॥

‘महर्षे! मेरा कमलनयन राम अभी पूरे सोलह वर्ष का भी नहीं हुआ है। मैं इसमें राक्षसों के साथ युद्ध करने की योग्यता नहीं देखता॥२॥

इयमक्षौहिणी सेना यस्याहं पतिरीश्वरः।
अनया सहितो गत्वा योद्धाहं तैर्निशाचरैः॥३॥

‘यह मेरी अक्षौहिणी सेना है, जिसका मैं पालक और स्वामी भी हूँ। इस सेना के साथ मैं स्वयं ही चलकर उन निशाचरों के साथ युद्ध करूँगा॥३॥

इमे शूराश्च विक्रान्ता भृत्यामेऽस्त्रविशारदाः।
योग्या रक्षोगणैर्योढुं न रामं नेतुमर्हसि ॥४॥

‘ये मेरे शूरवीर सैनिक, जो अस्त्रविद्या में कुशल और पराक्रमी हैं, राक्षसों के साथ जूझने की योग्यता रखते हैं; अतः इन्हें ही ले जाइये; राम को ले जाना उचित नहीं होगा॥ ४॥

अहमेव धनुष्पाणिर्गोप्ता समरमूर्धनि।
यावत् प्राणान् धरिष्यामि तावद् योत्स्येनिशाचरैः॥५॥

‘मैं स्वयं ही हाथ में धनुष ले युद्ध के मुहाने पर रहकर आपके यज्ञ की रक्षा करूँगा और जब तक इस शरीर में प्राण रहेंगे तबतक निशाचरों के साथ लड़ता रहँगा॥५॥

निर्विघ्ना व्रतचर्या सा भविष्यति सुरक्षिता।
अहं तत्र गमिष्यामि न रामं नेतुमर्हसि॥६॥

‘मेरे द्वारा सुरक्षित होकर आपका नियमानुष्ठान बिना किसी विघ्न-बाधा के पूर्ण होगा; अतः मैं ही वहाँ आपके साथ चलूँगा। आप राम को न ले जाइये॥६॥

बालो ह्यकृतविद्यश्च न च वेत्ति बलाबलम्।
न चास्त्रबलसंयुक्तो न च युद्धविशारदः॥७॥

‘मेरा राम अभी बालक है। इसने अभी तक युद्ध की विद्या ही नहीं सीखी है। यह दूसरे के बलाबल को नहीं जानता है। न तो यह अस्त्रबल से सम्पन्न है और न युद्ध की कला में निपुण ही॥७॥

न चासौ रक्षसां योग्यः कूटयुद्धा हि राक्षसाः।
विप्रयुक्तो हि रामेण मुहूर्तमपि नोत्सहे॥८॥
जीवितुं मुनिशार्दूलं न रामं नेतुमर्हसि।
यदि वा राघवं ब्रह्मन् नेतुमिच्छसि सुव्रत॥९॥
चतुरंगसमायुक्तं मया सह च तं नय।

‘अतः यह राक्षसों से युद्ध करने योग्य नहीं है; क्योंकि राक्षस माया से–छल-कपट से युद्ध करते हैं। इसके सिवा राम से वियोग हो जाने पर मैं दो घड़ी भी जीवित नहीं रह सकता; मुनिश्रेष्ठ ! इसलिये आप मेरे राम को न ले जाइये। अथवा ब्रह्मन् ! यदि आपकी इच्छा राम को ही ले जाने की हो तो चतुरङ्गिणी सेना के साथ मैं भी चलता हूँ। मेरे साथ इसे ले चलिये॥ ८-९ १/२॥

षष्टिर्वर्षसहस्राणि जातस्य मम कौशिक॥१०॥
कृच्छ्रेणोत्पादितश्चायं न रामं नेतुमर्हसि।

‘कुशिकनन्दन! मेरी अवस्था साठ हजार वर्ष की हो गयी। इस बुढ़ापे में बड़ी कठिनाई से मुझे पुत्र की प्राप्ति हुई है, अतः आप राम को न ले जाइये॥ १० १/२॥

चतुर्णामात्मजानां हि प्रीतिः परमिका मम॥११॥
ज्येष्ठे धर्मप्रधाने च न रामं नेतुमर्हसि।

‘धर्मप्रधान राम मेरे चारों पुत्रों में ज्येष्ठ है; इसलिये उसपर मेरा प्रेम सबसे अधिक है; अतः आप राम को न ले जाइये॥ ११ १/२ ॥

किंवीर्या राक्षसास्ते च कस्य पुत्राश्च के च ते॥१२॥
कथं प्रमाणाः के चैतान् रक्षन्ति मुनिपुंगव।
कथं च प्रतिकर्तव्यं तेषां रामेण रक्षसाम्॥१३॥

‘वे राक्षस कैसे पराक्रमी हैं, किसके पुत्र हैं और कौन हैं? उनका डील डौल कैसा है? मनीश्वर! उनकी रक्षा कौन करते हैं? राम उन राक्षसों का सामना कैसे कर सकता है? ॥ १२-१३॥

मामकैर्वा बलैर्ब्रह्मन् मया वा कूटयोधिनाम्।
सर्वं मे शंस भगवन् कथं तेषां मया रणे॥१४॥
स्थातव्यं दुष्टभावानां वीर्योत्सिक्ता हि राक्षसाः।

‘ब्रह्मन्! मेरे सैनिकों को या स्वयं मुझे ही उन मायायोधी राक्षसों का प्रतीकार कैसे करना चाहिये? भगवन्! ये सारी बातें आप मुझे बताइये। उन दुष्टों के साथ युद्ध में मुझे कैसे खड़ा होना चाहिये? क्योंकि राक्षस बड़े बलाभिमानी होते हैं’॥ १४ १/२॥

तस्य तद् वचनं श्रुत्वा विश्वामित्रोऽभ्यभाषत॥१५॥
पौलस्त्यवंशप्रभवो रावणो नाम राक्षसः।
स ब्रह्मणा दत्तवरस्त्रैलोक्यं बाधते भृशम्॥
महाबलो महावीर्यो राक्षसैर्बहुभिर्वृतः।
श्रूयते च महाराज रावणो राक्षसाधिपः॥१७॥
साक्षाद्वैश्रवणभ्राता पुत्रो विश्रवसो मुनेः।

राजा दशरथ की इस बात को सुनकर विश्वामित्रजी बोले—’महाराज! रावण नाम से प्रसिद्ध एक राक्षस है,जो महर्षि पुलस्त्य के कुल में उत्पन्न हुआ है। उसे ब्रह्माजी से मुँहमाँगा वरदान प्राप्त हुआ है। जिससे महान् बलशाली और महापराक्रमी होकर बहुसंख्यक राक्षसों से घिरा हुआ वह निशाचर तीनों लोकों के निवासियों को अत्यन्त कष्ट दे रहा है। सुना जाता है कि राक्षसराज रावण विश्रवा मुनि का औरस पुत्र तथा साक्षात् कुबेर का भाई है॥

यदा न खलु यज्ञस्य विघ्नकर्ता महाबलः॥१८॥
तेन संचोदितौ तौ तु राक्षसौ च महाबलौ।
मारीचश्च सुबाहुश्च यज्ञविघ्नं करिष्यतः॥१९॥

‘वह महाबली निशाचर इच्छा रहते हुए भी स्वयं आकर यज्ञ में विघ्न नहीं डालता (अपने लिये इसे तुच्छ कार्य समझता है); इसलिये उसी की प्रेरणा से दो महान् बलवान् राक्षस मारीच और सुबाहु यज्ञों में विघ्न डाला करते हैं’। १८-१९॥

इत्युक्तो मुनिना तेन राजोवाच मुनिं तदा।
नहि शक्तोऽस्मि संग्रामे स्थातुं तस्य दुरात्मनः॥ २०॥

विश्वामित्र मुनि के ऐसा कहने पर राजा दशरथ उनसे इस प्रकार बोले—’मुनिवर! मैं उस दुरात्मा रावण के सामने युद्ध में नहीं ठहर सकता ॥ २० ॥

स त्वं प्रसादं धर्मज्ञ कुरुष्व मम पुत्रके।
मम चैवाल्पभाग्यस्य दैवतं हि भवान् गुरुः॥२१॥

‘धर्मज्ञ महर्षे! आप मेरे पुत्र पर तथा मुझ मन्दभागी दशरथ पर भी कृपा कीजिये; क्योंकि आप मेरे देवता तथा गुरु हैं ॥ २१॥

देवदानवगन्धर्वा यक्षाः पतगपन्नगाः।
न शक्ता रावणं सोढुं किं पुनर्मानवा युधि॥२२॥

‘युद्ध में रावण का वेग तो देवता, दानव, गन्धर्व, यक्ष, गरुड़ और नाग भी नहीं सह सकते; फिर मनुष्यों की तो बात ही क्या है॥ २२॥

स तु वीर्यवतां वीर्यमादत्ते युधि रावणः।
तेन चाहं न शक्तोऽस्मि संयोद्धं तस्य वा बलैः॥२३॥
सबलो वा मुनिश्रेष्ठ सहितो वा ममात्मजैः।

‘मुनिश्रेष्ठ! रावण समरांगण में बलवानों के बल का अपहरण कर लेता है, अतः मैं अपनी सेना और पुत्रों के साथ रहकर भी उससे तथा उसके सैनिकों से युद्ध करने में असमर्थ हूँ॥ २३ १/२॥

कथमप्यमरप्रख्यं संग्रामाणामकोविदम्॥२४॥
बालं मे तनयं ब्रह्मन् नैव दास्यामि पुत्रकम्।

‘ब्रह्मन्! यह मेरा देवोपम पुत्र युद्ध की कला से सर्वथा अनभिज्ञ है। इसकी अवस्था भी अभी बहुत थोड़ी है; इसलिये मैं इसे किसी तरह नहीं दूंगा॥ २४ १/२॥

अथ कालोपमौ युद्धे सुतौ सुन्दोपसुन्दयोः॥२५॥
यज्ञविघ्नकरौ तौ ते नैव दास्यामि पुत्रकम्।
मारीचश्च सुबाहुश्च वीर्यवन्तौ सुशिक्षितौ॥२६॥

‘मारीच और सुबाहु सुप्रसिद्ध दैत्य सुन्द और उपसुन्द के पुत्र हैं। वे दोनों युद्ध में यमराज के समान हैं। यदि वे ही आपके यज्ञ में विघ्न डालने वाले हैं तो मैं उनका सामना करने के लिये अपने पुत्र को नहीं दूंगा; क्योंकि वे दोनों प्रबल पराक्रमी और युद्धविषयक उत्तम शिक्षा से सम्पन्न हैं॥ २५-२६॥

तयोरन्यतरं योद्धं यास्यामि ससुहृद्गणः।
अन्यथा त्वनुनेष्यामि भवन्तं सहबान्धवः॥२७॥

‘मैं उन दोनों में से किसी एक के साथ युद्ध करने के लिये अपने सुहृदों के साथ चलूँगा; अन्यथा—यदि आप मुझे न ले जाना चाहें तो मैं भाई-बन्धुओंसहित आपसे अनुनय-विनय करूँगा कि आप राम को छोड़ दें’॥ २७॥

इति नरपतिजल्पनाद् द्विजेन्द्रं कुशिकसुतं सुमहान् विवेश मन्युः।
सुहुत इव मखेऽग्निराज्यसिक्तः समभवदुज्ज्वलितो महर्षिवह्निः॥२८॥

राजा दशरथ के ऐसे वचन सुनकर विप्रवर कुशिकनन्दन विश्वामित्र के मन में महान् क्रोध का आवेश हो आया, जैसे यज्ञशाला में अग्नि को भलीभाँति आहुति देकर घी की धारा से अभिषिक्त कर दिया जाय और वह प्रज्वलित हो उठे, उसी तरह अग्नितुल्य तेजस्वी महर्षि विश्वामित्र भी क्रोध से जल उठे॥२८॥

सर्ग २१ 

तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य स्नेहपर्याकुलाक्षरम्।
समन्युः कौशिको वाक्यं प्रत्युवाच महीपतिम्॥

राजा दशरथ की बात के एक-एक अक्षर में पुत्र के प्रति स्नेह भरा हुआ था, उसे सुनकर महर्षि विश्वामित्र कुपित हो उनसे इस प्रकार बोले- ॥१॥

पूर्वमर्थं प्रतिश्रुत्य प्रतिज्ञा हातुमिच्छसि।।
राघवाणामयुक्तोऽयं कुलस्यास्य विपर्ययः॥२॥

‘राजन् ! पहले मेरी माँगी हुई वस्तु के देने की प्रतिज्ञा करके अब तुम उसे तोड़ना चाहते हो। प्रतिज्ञा का यह त्याग रघुवंशियों के योग्य तो नहीं है,यह बर्ताव तो इस कुल के विनाश का सूचक है॥२॥

यदीदं ते क्षमं राजन् गमिष्यामि यथागतम्।
मिथ्याप्रतिज्ञः काकुत्स्थ सुखी भव सुहृवृतः॥

‘नरेश्वर ! यदि तुम्हें ऐसा ही उचित प्रतीत होता है तो मैं जैसे आया था, वैसे ही लौट जाऊँगा। ककुत्स्थकुल के रत्न! अब तुम अपनी प्रतिज्ञा झूठी करके हितैषी सुहृदों से घिरे रहकर सुखी रहो’ ॥ ३॥

तस्य रोषपरीतस्य विश्वामित्रस्य धीमतः।
चचाल वसुधा कृत्स्ना देवानां च भयं महत्॥४॥

बुद्धिमान् विश्वामित्र के कुपित होते ही सारी पृथ्वी काँप उठी और देवताओं के मन में महान् भय समा गया॥४॥

त्रस्तरूपं तु विज्ञाय जगत् सर्वं महानृषिः।
नृपतिं सुव्रतो धीरो वसिष्ठो वाक्यमब्रवीत्॥५॥

उनके रोष से सारे संसार को त्रस्त हुआ जान उत्तम व्रत का पालन करने वाले धीरचित्त महर्षि वसिष्ठ ने राजासे इस प्रकार कहा- ॥५॥

इक्ष्वाकूणां कुले जातः साक्षाद् धर्म इवापरः।
धृतिमान् सुव्रतः श्रीमान् न धर्मं हातुमर्हसि॥६॥

‘महाराज! आप इक्ष्वाकुवंशी राजाओं के कुल में साक्षात् दूसरे धर्म के समान उत्पन्न हुए हैं। धैर्यवान्, ” उत्तम व्रत के पालक तथा श्रीसम्पन्न हैं। आपको अपने धर्म का परित्याग नहीं करना चाहिये॥६॥

त्रिषु लोकेषु विख्यातो धर्मात्मा इति राघवः।
स्वधर्मं प्रतिपद्यस्व नाधर्मं वोढुमर्हसि ॥७॥

“रघुकुलभूषण दशरथ बड़े धर्मात्मा हैं’ यह बात तीनों लोकों में प्रसिद्ध है। अतः आप अपने धर्म का ही पालन कीजिये; अधर्म का भार सिरपर न उठाइये॥ ७॥

प्रतिश्रुत्य करिष्येति उक्तं वाक्यमकुर्वतः।
इष्टापूर्तवधो भूयात् तस्माद् रामं विसर्जय॥८॥

‘मैं अमुक कार्य करूँगा’—ऐसी प्रतिज्ञा करके भी जो उस वचनका पालन नहीं करता, उसके यज्ञयागादि इष्ट तथा बावली-तालाब बनवाने आदि पूर्त कर्मो के पुण्यका नाश हो जाता है, अतः आप श्रीराम को विश्वामित्रजी के साथ भेज दीजिये॥ ८॥

कृतास्त्रमकृतास्त्रं वा नैनं शक्ष्यन्ति राक्षसाः।
गुप्तं कुशिकपुत्रेण ज्वलनेनामृतं यथा॥९॥

‘ये अस्त्रविद्या जानते हों या न जानते हों, राक्षस इनका सामना नहीं कर सकते। जैसे प्रज्वलित अग्निद्वारा सुरक्षित अमृत पर कोई हाथ नहीं लगा सकता, उसी प्रकार कुशिकनन्दन विश्वामित्र से सुरक्षित हुए श्रीराम का वे राक्षस कुछ भी बिगाड़ नहीं सकते॥९॥

एष विग्रहवान् धर्म एष वीर्यवतां वरः।
एष विद्याधिको लोके तपसश्च परायणम्॥

‘ये श्रीराम तथा महर्षि विश्वामित्र साक्षात् धर्म की मूर्ति हैं। ये बलवानों में श्रेष्ठ हैं। विद्या के द्वारा ही ये संसार में सबसे बढ़े-चढ़े हैं। तपस्या के तो ये विशाल भण्डार ही हैं॥ १०॥

एषोऽस्त्रान् विविधान् वेत्ति त्रैलोक्ये सचराचरे।
नैनमन्यः पुमान् वेत्ति न च वेत्स्यन्ति केचन॥ ११॥

‘चराचर प्राणियों सहित तीनों लोकों में जो नाना प्रकार के अस्त्र हैं, उन सबको ये जानते हैं। इन्हें मेरे सिवा दूसरा कोई पुरुष न तो अच्छी तरह जानता है और न कोई जानेंगे ही॥ ११॥

न देवा नर्षयः केचिन्नामरा न च राक्षसाः।
गन्धर्वयक्षप्रवराः सकिन्नरमहोरगाः॥१२॥

‘देवता, ऋषि, राक्षस, गन्धर्व, यक्ष, किन्नर तथा बड़े-बड़े नाग भी इनके प्रभाव को नहीं जानते हैं। १२॥

सर्वास्त्राणि कृशाश्वस्य पुत्राः परमधार्मिकाः।
कौशिकाय पुरा दत्ता यदा राज्यं प्रशासति॥ १३॥

‘प्रायः सभी अस्त्र प्रजापति कृशाश्व के परम धर्मात्मा पुत्र हैं। उन्हें प्रजापति ने पूर्वकाल में कुशिकनन्दन विश्वामित्र को जब कि वे राज्यशासन करते थे, समर्पित कर दिया था॥१३॥

तेऽपि पुत्राः कृशाश्वस्य प्रजापतिसुतासुताः।
नैकरूपा महावीर्या दीप्तिमन्तो जयावहाः॥१४॥

‘कृशाश्व के वे पुत्र प्रजापति दक्ष की दो पुत्रियों की संतानें हैं,उनके अनेक रूप हैं। वे सब-के-सब महान् शक्तिशाली, प्रकाशमान और विजय दिलानेवाले हैं॥१४॥

जया च सुप्रभा चैव दक्षकन्ये सुमध्यमे।
ते सतेऽस्त्राणि शस्त्राणि शतं परमभास्वरम्॥ १५॥

‘प्रजापति दक्ष की दो सुन्दरी कन्याएँ हैं, उनके नाम हैं जया और सुप्रभा। उन दोनों ने एक सौ परम प्रकाशमान अस्त्र-शस्त्रों को उत्पन्न किया है॥ १५॥

पञ्चाशतं सुताँल्लेभे जया लब्धवरा वरान्।
वधायासुरसैन्यानामप्रमेयानरूपिणः॥१६॥

‘उनमेंसे जया ने वर पाकर पचास श्रेष्ठ पुत्रों को प्राप्त किया है, जो अपरिमित शक्तिशाली और रूपरहित हैं। वे सब-के-सब असुरों की सेनाओं का वध करने के लिये प्रकट हुए हैं।॥ १६॥

सुप्रभाजनयच्चापि पुत्रान् पञ्चाशतं पुनः ।
संहारान् नाम दुर्धर्षान् दुराकामान् बलीयसः॥ १७॥

‘फिर सुप्रभा ने भी संहार नामक पचास पुत्रों को जन्म दिया, जो अत्यन्त दुर्जय हैं। उन पर आक्रमण करना किसी के लिये भी सर्वथा कठिन है तथा वे सब-के-सब अत्यन्त बलिष्ठ हैं॥ १७॥

तानि चास्त्राणि वेत्त्येष यथावत् कुशिकात्मजः।
अपूर्वाणां च जनने शक्तो भूयश्च धर्मवित्॥ १८॥

‘ये धर्मज्ञ कुशिकनन्दन उन सब अस्त्र-शस्त्रों को अच्छी तरह जानते हैं। जो अस्त्र अब तक उपलब्ध नहीं हुए हैं, उनको भी उत्पन्न करने की इनमें पूर्ण शक्ति है॥ १८॥

तेनास्य मुनिमुख्यस्य धर्मज्ञस्य महात्मनः।
न किञ्चिदस्त्यविदितं भूतं भव्यं च राघव॥ १९॥

‘रघुनन्दन! इसलिये इन मुनिश्रेष्ठ धर्मज्ञ महात्मा विश्वामित्रजीसे भूत या भविष्यकी कोई बात छिपी नहीं है ॥ १९॥

एवंवीर्यो महातेजा विश्वामित्रो महायशाः।
न रामगमने राजन् संशयं गन्तुमर्हसि ॥२०॥

‘राजन्! ये महातेजस्वी, महायशस्वी विश्वामित्र ऐसे प्रभावशाली हैं। अतः इनके साथ राम को भेजने में आप किसी प्रकार का संदेह न करें॥२०॥

तेषां निग्रहणे शक्तः स्वयं च कुशिकात्मजः।
तव पुत्रहितार्थाय त्वामुपेत्याभियाचते॥२१॥

‘महर्षि कौशिक स्वयं भी उन राक्षसोंका संहार करने में समर्थ हैं; किंतु ये आपके पुत्र का कल्याण करना चाहते हैं, इसीलिये यहाँ आकर आपसे याचना कर रहे हैं ॥ २१॥

इति मुनिवचनात् प्रसन्नचित्तो रघुवृषभश्च मुमोद पार्थिवाग्र्यः।
गमनमभिरुरोच राघवस्य प्रथितयशाः कुशिकात्मजाय बुद्ध्या॥२२॥

महर्षि वसिष् ठके इस वचन से विख्यात यश वाले रघुकुल शिरोमणि नृपश्रेष्ठ दशरथ का मन प्रसन्न हो गया। वे आनन्दमग्न हो गये और बुद्धि से विचार करनेपर विश्वामित्रजी की प्रसन्नता के लिये उनके साथ श्रीराम का जाना उन्हें रुचि के अनुकूल प्रतीत होने लगा॥ २२॥

सर्ग २२

तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य स्नेहपर्याकुलाक्षरम्।
समन्युः कौशिको वाक्यं प्रत्युवाच महीपतिम्॥

राजा दशरथ की बात के एक-एक अक्षर में पुत्र के प्रति स्नेह भरा हुआ था, उसे सुनकर महर्षि विश्वामित्र कुपित हो उनसे इस प्रकार बोले- ॥१॥

पूर्वमर्थं प्रतिश्रुत्य प्रतिज्ञा हातुमिच्छसि।।
राघवाणामयुक्तोऽयं कुलस्यास्य विपर्ययः॥२॥

‘राजन् ! पहले मेरी माँगी हुई वस्तु के देने की प्रतिज्ञा करके अब तुम उसे तोड़ना चाहते हो। प्रतिज्ञा का यह त्याग रघुवंशियों के योग्य तो नहीं है,यह बर्ताव तो इस कुल के विनाश का सूचक है॥२॥

यदीदं ते क्षमं राजन् गमिष्यामि यथागतम्।
मिथ्याप्रतिज्ञः काकुत्स्थ सुखी भव सुहृवृतः॥

‘नरेश्वर ! यदि तुम्हें ऐसा ही उचित प्रतीत होता है तो मैं जैसे आया था, वैसे ही लौट जाऊँगा। ककुत्स्थकुल के रत्न! अब तुम अपनी प्रतिज्ञा झूठी करके हितैषी सुहृदों से घिरे रहकर सुखी रहो’ ॥ ३॥

तस्य रोषपरीतस्य विश्वामित्रस्य धीमतः।
चचाल वसुधा कृत्स्ना देवानां च भयं महत्॥४॥

बुद्धिमान् विश्वामित्र के कुपित होते ही सारी पृथ्वी काँप उठी और देवताओं के मन में महान् भय समा गया॥४॥

त्रस्तरूपं तु विज्ञाय जगत् सर्वं महानृषिः।
नृपतिं सुव्रतो धीरो वसिष्ठो वाक्यमब्रवीत्॥५॥

उनके रोष से सारे संसार को त्रस्त हुआ जान उत्तम व्रत का पालन करने वाले धीरचित्त महर्षि वसिष्ठ ने राजासे इस प्रकार कहा- ॥५॥

इक्ष्वाकूणां कुले जातः साक्षाद् धर्म इवापरः।
धृतिमान् सुव्रतः श्रीमान् न धर्मं हातुमर्हसि॥६॥

‘महाराज! आप इक्ष्वाकुवंशी राजाओं के कुल में साक्षात् दूसरे धर्म के समान उत्पन्न हुए हैं। धैर्यवान्, ” उत्तम व्रत के पालक तथा श्रीसम्पन्न हैं। आपको अपने धर्म का परित्याग नहीं करना चाहिये॥६॥

त्रिषु लोकेषु विख्यातो धर्मात्मा इति राघवः।
स्वधर्मं प्रतिपद्यस्व नाधर्मं वोढुमर्हसि ॥७॥

“रघुकुलभूषण दशरथ बड़े धर्मात्मा हैं’ यह बात तीनों लोकों में प्रसिद्ध है। अतः आप अपने धर्म का ही पालन कीजिये; अधर्म का भार सिरपर न उठाइये॥ ७॥

प्रतिश्रुत्य करिष्येति उक्तं वाक्यमकुर्वतः।
इष्टापूर्तवधो भूयात् तस्माद् रामं विसर्जय॥८॥

‘मैं अमुक कार्य करूँगा’—ऐसी प्रतिज्ञा करके भी जो उस वचनका पालन नहीं करता, उसके यज्ञयागादि इष्ट तथा बावली-तालाब बनवाने आदि पूर्त कर्मो के पुण्यका नाश हो जाता है, अतः आप श्रीराम को विश्वामित्रजी के साथ भेज दीजिये॥ ८॥

कृतास्त्रमकृतास्त्रं वा नैनं शक्ष्यन्ति राक्षसाः।
गुप्तं कुशिकपुत्रेण ज्वलनेनामृतं यथा॥९॥

‘ये अस्त्रविद्या जानते हों या न जानते हों, राक्षस इनका सामना नहीं कर सकते। जैसे प्रज्वलित अग्निद्वारा सुरक्षित अमृत पर कोई हाथ नहीं लगा सकता, उसी प्रकार कुशिकनन्दन विश्वामित्र से सुरक्षित हुए श्रीराम का वे राक्षस कुछ भी बिगाड़ नहीं सकते॥९॥

एष विग्रहवान् धर्म एष वीर्यवतां वरः।
एष विद्याधिको लोके तपसश्च परायणम्॥

‘ये श्रीराम तथा महर्षि विश्वामित्र साक्षात् धर्म की मूर्ति हैं। ये बलवानों में श्रेष्ठ हैं। विद्या के द्वारा ही ये संसार में सबसे बढ़े-चढ़े हैं। तपस्या के तो ये विशाल भण्डार ही हैं॥ १०॥

एषोऽस्त्रान् विविधान् वेत्ति त्रैलोक्ये सचराचरे।
नैनमन्यः पुमान् वेत्ति न च वेत्स्यन्ति केचन॥ ११॥

‘चराचर प्राणियों सहित तीनों लोकों में जो नाना प्रकार के अस्त्र हैं, उन सबको ये जानते हैं। इन्हें मेरे सिवा दूसरा कोई पुरुष न तो अच्छी तरह जानता है और न कोई जानेंगे ही॥ ११॥

न देवा नर्षयः केचिन्नामरा न च राक्षसाः।
गन्धर्वयक्षप्रवराः सकिन्नरमहोरगाः॥१२॥

‘देवता, ऋषि, राक्षस, गन्धर्व, यक्ष, किन्नर तथा बड़े-बड़े नाग भी इनके प्रभाव को नहीं जानते हैं। १२॥

सर्वास्त्राणि कृशाश्वस्य पुत्राः परमधार्मिकाः।
कौशिकाय पुरा दत्ता यदा राज्यं प्रशासति॥ १३॥

‘प्रायः सभी अस्त्र प्रजापति कृशाश्व के परम धर्मात्मा पुत्र हैं। उन्हें प्रजापति ने पूर्वकाल में कुशिकनन्दन विश्वामित्र को जब कि वे राज्यशासन करते थे, समर्पित कर दिया था॥१३॥

तेऽपि पुत्राः कृशाश्वस्य प्रजापतिसुतासुताः।
नैकरूपा महावीर्या दीप्तिमन्तो जयावहाः॥१४॥

‘कृशाश्व के वे पुत्र प्रजापति दक्ष की दो पुत्रियों की संतानें हैं,उनके अनेक रूप हैं। वे सब-के-सब महान् शक्तिशाली, प्रकाशमान और विजय दिलानेवाले हैं॥१४॥

जया च सुप्रभा चैव दक्षकन्ये सुमध्यमे।
ते सतेऽस्त्राणि शस्त्राणि शतं परमभास्वरम्॥ १५॥

‘प्रजापति दक्ष की दो सुन्दरी कन्याएँ हैं, उनके नाम हैं जया और सुप्रभा। उन दोनों ने एक सौ परम प्रकाशमान अस्त्र-शस्त्रों को उत्पन्न किया है॥ १५॥

पञ्चाशतं सुताँल्लेभे जया लब्धवरा वरान्।
वधायासुरसैन्यानामप्रमेयानरूपिणः॥१६॥

‘उनमेंसे जया ने वर पाकर पचास श्रेष्ठ पुत्रों को प्राप्त किया है, जो अपरिमित शक्तिशाली और रूपरहित हैं। वे सब-के-सब असुरों की सेनाओं का वध करने के लिये प्रकट हुए हैं।॥ १६॥

सुप्रभाजनयच्चापि पुत्रान् पञ्चाशतं पुनः ।
संहारान् नाम दुर्धर्षान् दुराकामान् बलीयसः॥ १७॥

‘फिर सुप्रभा ने भी संहार नामक पचास पुत्रों को जन्म दिया, जो अत्यन्त दुर्जय हैं। उन पर आक्रमण करना किसी के लिये भी सर्वथा कठिन है तथा वे सब-के-सब अत्यन्त बलिष्ठ हैं॥ १७॥

तानि चास्त्राणि वेत्त्येष यथावत् कुशिकात्मजः।
अपूर्वाणां च जनने शक्तो भूयश्च धर्मवित्॥ १८॥

‘ये धर्मज्ञ कुशिकनन्दन उन सब अस्त्र-शस्त्रों को अच्छी तरह जानते हैं। जो अस्त्र अब तक उपलब्ध नहीं हुए हैं, उनको भी उत्पन्न करने की इनमें पूर्ण शक्ति है॥ १८॥

तेनास्य मुनिमुख्यस्य धर्मज्ञस्य महात्मनः।
न किञ्चिदस्त्यविदितं भूतं भव्यं च राघव॥ १९॥

‘रघुनन्दन! इसलिये इन मुनिश्रेष्ठ धर्मज्ञ महात्मा विश्वामित्रजीसे भूत या भविष्यकी कोई बात छिपी नहीं है ॥ १९॥

एवंवीर्यो महातेजा विश्वामित्रो महायशाः।
न रामगमने राजन् संशयं गन्तुमर्हसि ॥२०॥

‘राजन्! ये महातेजस्वी, महायशस्वी विश्वामित्र ऐसे प्रभावशाली हैं। अतः इनके साथ राम को भेजने में आप किसी प्रकार का संदेह न करें॥२०॥

तेषां निग्रहणे शक्तः स्वयं च कुशिकात्मजः।
तव पुत्रहितार्थाय त्वामुपेत्याभियाचते॥२१॥

‘महर्षि कौशिक स्वयं भी उन राक्षसोंका संहार करने में समर्थ हैं; किंतु ये आपके पुत्र का कल्याण करना चाहते हैं, इसीलिये यहाँ आकर आपसे याचना कर रहे हैं ॥ २१॥

इति मुनिवचनात् प्रसन्नचित्तो रघुवृषभश्च मुमोद पार्थिवाग्र्यः।
गमनमभिरुरोच राघवस्य प्रथितयशाः कुशिकात्मजाय बुद्ध्या॥२२॥

महर्षि वसिष् ठके इस वचन से विख्यात यश वाले रघुकुल शिरोमणि नृपश्रेष्ठ दशरथ का मन प्रसन्न हो गया। वे आनन्दमग्न हो गये और बुद्धि से विचार करनेपर विश्वामित्रजी की प्रसन्नता के लिये उनके साथ श्रीराम का जाना उन्हें रुचि के अनुकूल प्रतीत होने लगा॥ २२॥

सर्ग २३ 

प्रभातायां तु शर्वर्यां विश्वामित्रो महामुनिः।
अभ्यभाषत काकुत्स्थौ शयानौ पर्णसंस्तरे॥१॥

जब रात बीती और प्रभात हुआ, तब महामुनि विश्वामित्र ने तिनकों और पत्तों के बिछौने पर सोये हुए उन दोनों ककुत्स्थवंशी राजकुमारों से कहा- ॥१॥

कौसल्या सुप्रजा राम पूर्वा संध्या प्रवर्तते।
उत्तिष्ठ नरशार्दूल कर्तव्यं दैवमाह्निकम्॥२॥

‘नरश्रेष्ठ राम! तुम्हारे-जैसे पुत्र को पाकर महारानी कौसल्या सुपुत्रजननी कही जाती हैं। यह देखो, प्रातःकाल की संध्या का समय हो रहा है; उठो और प्रतिदिन किये जाने वाले देव सम्बन्धी कार्यों को पूर्ण करो’ ॥२॥

तस्यर्षेः परमोदारं वचः श्रुत्वा नरोत्तमौ।
स्नात्वा कृतोदकौ वीरौ जेपतुः परमं जपम्॥३॥

महर्षि का यह परम उदार वचन सुनकर उन दोनों नरश्रेष्ठ वीरों ने स्नान करके देवताओं का तर्पण किया और फिर वे परम उत्तम जपनीय मन्त्र गायत्री का जप करने लगे॥३॥

कृताह्निकौ महावीर्यो विश्वामित्रं तपोधनम्।
अभिवाद्यातिसंहृष्टौ गमनायाभितस्थतुः॥४॥

नित्य कर्म समाप्त करके महापराक्रमी श्रीराम और लक्ष्मण अत्यन्त प्रसन्न हो तपोधन विश्वामित् रको प्रणाम करके वहाँ से आगे जाने को उद्यत हो गये। ४॥

तौ प्रयान्तौ महावी? दिव्यां त्रिपथगां नदीम्।
ददृशाते ततस्तत्र सरय्वाः संगमे शुभे॥५॥

जाते-जाते उन महाबली राजकुमारों ने गंगा और सरयू के शुभ संगम पर पहुँचकर वहाँ दिव्य त्रिपथगा नदी गंगाजी का दर्शन किया॥५॥

तत्राश्रमपदं पुण्यमृषीणां भावितात्मनाम्।
बहुवर्षसहस्राणि तप्यतां परमं तपः॥६॥

संगम के पास ही शुद्ध अन्तःकरण वाले महर्षियों का एक पवित्र आश्रम था, जहाँ वे कई हजार वर्षों से तीव्र तपस्या करते थे॥६॥

तं दृष्ट्वा परमप्रीतौ राघवौ पुण्यमाश्रमम्।
ऊचतुस्तं महात्मानं विश्वामित्रमिदं वचः॥७॥

उस पवित्र आश्रम को देखकर रघुकुलरत्न श्रीराम और लक्ष्मण बड़े प्रसन्न हुए उन्होंने महात्मा विश्वामित्र से यह बात कही— ॥७॥

कस्यायमाश्रमः पुण्यः को न्वस्मिन् वसते पुमान्।
भगवञ्छ्रोतुमिच्छावः परं कौतूहलं हि नौ॥८॥

‘भगवन्! यह किसका पवित्र आश्रम है? और इसमें कौन पुरुष निवास करता है? यह हम दोनों सुनना चाहते हैं इसके लिये हमारे मन में बड़ी उत्कण्ठा है’॥ ८॥

तयोस्तद् वचनं श्रुत्वा प्रहस्य मुनिपुंगवः।
अब्रवीच्छ्रयतां राम यस्यायं पूर्व आश्रमः॥९॥

उन दोनों का यह वचन सुनकर मुनिश्रेष्ठ विश्वामित्र हँसते हुए बोले—’राम! यह आश्रम पहले जिसके अधिकार में रहा है, उसका परिचय देता हूँ, सुनो। ९॥

कन्दर्पो मूर्तिमानासीत् काम इत्युच्यते बुधैः ।
तपस्यन्तमिह स्थाणुं नियमेन समाहितम्॥१०॥

‘विद्वान् पुरुष जिसे काम कहते हैं, वह कन्दर्प पूर्वकाल में मूर्तिमान् था—शरीर धारण करके विचरता था। उन दिनों भगवान् स्थाणु (शिव) इसी आश्रम में चित्तको एकाग्र करके नियमपूर्वक तपस्या करते थे। १०॥

कृतोद्धाहं तु देवेशं गच्छन्तं समरुद्गणम्।
धर्षयामास दुर्मेधा हुंकृतश्च महात्मना ॥११॥

‘एक दिन समाधि से उठकर देवेश्वर शिव मरुद्गणों के साथ कहीं जा रहे थे। उसी समय दुर्बुद्धि काम ने उन पर आक्रमण किया। यह देख महात्मा शिव ने हुङ्कार करके उसे रोका॥ ११॥

अवध्यातश्च रुद्रेण चक्षुषा रघुनन्दन।
व्यशीर्यन्त शरीरात् स्वात् सर्वगात्राणि दुर्मते॥ १२॥

‘रघुनन्दन! भगवान् रुद्र ने रोष भरी दृष् टिसे अवहेलना-पूर्वक उसकी ओर देखा; फिर तो उस दुर्बुद्धि के सारे अंग उसके शरीर से जीर्ण-शीर्ण होकर गिर गये॥ १२॥

तत्र गात्रं हतं तस्य निर्दग्धस्य महात्मनः।
अशरीरः कृतः कामः क्रोधाद् देवेश्वरेण ह॥ १३॥

‘वहाँ दग्ध हुए महामना कन्दर्पका शरीर नष्ट हो गया,देवेश्वर रुद्र ने अपने क्रोध से कामको अंगहीन कर दिया॥ १३॥

अनंग इति विख्यातस्तदाप्रभृति राघव।
स चांगविषयः श्रीमान् यत्रांगं स मुमोच ह॥ १४॥

‘राम! तभीसे वह ‘अनंग’ नाम से विख्यात हुआ शोभाशाली कन्दर्प ने जहाँ अपना अंग छोड़ा था, वह प्रदेश अंगदेश के नाम से विख्यात हुआ॥ १४ ॥

तस्यायमाश्रमः पुण्यस्तस्येमे मुनयः पुरा।
शिष्या धर्मपरा वीर तेषां पापं न विद्यते॥१५॥

‘यह उन्हीं महादेवजी का पुण्य आश्रम है। वीर! ये मुनि लोग पूर्वकाल में उन्हीं स्थाणु के धर्मपरायण शिष्य थे,इनका सारा पाप नष्ट हो गया है॥ १५ ॥

इहाद्य रजनीं राम वसेम शुभदर्शन।
पुण्ययोः सरितोर्मध्ये श्वस्तरिष्यामहे वयम्॥ १६॥

‘शुभदर्शन राम! आज की रात में हम लोग यहीं इन पुण्यसलिला सरिताओं के बीच में निवास करें। कल सबेरे इन्हें पार करेंगे॥१६॥

अभिगच्छामहे सर्वे शुचयः पुण्यमाश्रमम्।
इह वासः परोऽस्माकं सुखं वत्स्यामहे निशाम्॥ १७॥
स्नाताश्च कृतजप्याश्च हुतहव्या नरोत्तम।

‘हम सब लोग पवित्र होकर इस पुण्य आश्रम में चलें। यहाँ रहना हमारे लिये बहुत उत्तम होगा। नरश्रेष्ठ! यहाँ स्नान करके जप और हवन करने के बाद हम रात में बड़े सुख से रहेंगे’ ॥ १७ १/२ ॥

तेषां संवदतां तत्र तपोदीर्घेण चक्षुषा॥१८॥
विज्ञाय परमप्रीता मुनयो हर्षमागमन्।

वे लोग वहाँ इस प्रकार आपस में बातचीत कर ही रहे थे कि उस आश्रम में निवास करने वाले मुनि तपस्या द्वारा प्राप्त हुई दूर दृष्टि से उनका आगमन जानकर मन-ही-मन बड़े प्रसन्न हुए, उनके हृदयमें हर्षजनित उल्लास छा गया॥ १८ १/२ ॥

अर्घ्यं पाद्यं तथाऽऽतिथ्यं निवेद्य कुशिकात्मजे॥ १९॥
रामलक्ष्मणयोः पश्चादकुर्वन्नतिथिक्रियाम्।

उन्होंने विश्वामित्रजी को अर्घ्य, पाद्य और अतिथि सत्कार की सामग्री अर्पित करने के बाद श्रीराम और लक्ष्मण का भी आतिथ्य किया॥ १९ १/२॥

सत्कारं समनुप्राप्य कथाभिरभिरञ्जयन्॥२०॥
यथार्हमजपन् संध्यामृषयस्ते समाहिताः।

यथोचित सत्कार करके उन मुनियों ने इन अतिथियों का भाँति-भाँति की कथा-वार्ताओं द्वारा मनोरञ्जन किया, फिर उन महर्षियों ने एकाग्रचित्त होकर यथावत् संध्यावन्दन एवं जप किया॥ २० १/२॥

तत्र वासिभिरानीता मुनिभिः सुव्रतैः सह ॥२१॥
न्यवसन् सुसुखं तत्र कामाश्रमपदे तथा।

तदनन्तर वहाँ रहने वाले मुनियों ने अन्य उत्तम व्रतधारी मुनियों के साथ विश्वामित्र आदि को शयन के लिये उपयुक्त स्थान में पहुँचा दिया। सम्पूर्ण कामनाओं की पूर्ति करने वाले उस पुण्य आश्रम में विश्वामित्र आदि ने बड़े सुख से निवास किया॥ २१ १/२॥

कथाभिरभिरामाभिरभिरामौ नृपात्मजौ।
रमयामास धर्मात्मा कौशिको मुनिपुंगवः॥२२॥

धर्मात्मा मुनिश्रेष्ठ विश्वामित्र ने उन मनोहर राजकुमारों का सुन्दर कथाओं द्वारा मनोरञ्जन किया॥ २२।।

सर्ग २४ 

ततः प्रभाते विमले कृताह्निकमरिन्दमौ।
विश्वामित्रं पुरस्कृत्य नद्यास्तीरमुपागतौ॥१॥

तदनन्तर निर्मल प्रभात काल में नित्यकर्म से निवृत्त हुए विश्वामित्रजी को आगे करके शत्रुदमन वीर श्रीराम और लक्ष्मण गंगा नदी के तट पर आये॥१॥

ते च सर्वे महात्मानो मुनयः संशितव्रताः।
उपस्थाप्य शुभां नावं विश्वामित्रमथाब्रवन्॥२॥

उस समय उत्तम व्रत का पालन करने वाले उन पुण्याश्रम निवासी महात्मा मुनियों ने एक सुन्दर नाव मँगवाकर विश्वामित्रजी से कहा- ॥२॥

आरोहतु भवान् नावं राजपुत्रपुरस्कृतः।
अरिंष्ट गच्छ पन्थानं मा भूत् कालस्य पर्ययः॥ ३॥

‘महर्षे! आप इन राजकुमारों को आगे करके इस नाव पर बैठ जाइये और मार्ग को निर्विघ्नतापूर्वक तय कीजिये, जिससे विलम्ब न हो’ ॥३॥

विश्वामित्रस्तथेत्युक्त्वा तानृषीन् प्रतिपूज्य च।
ततार सहितस्ताभ्यां सरितं सागरंगमाम्॥४॥

विश्वामित्रजी ने ‘बहुत अच्छा’ कहकर उन महर्षियों की सराहना की और वे श्रीराम तथा लक्ष्मण के साथ समुद्रगामिनी गंगा नदी को पार करने लगे॥ ४॥

तत्र शुश्राव वै शब्दं तोयसंरम्भवर्धितम्।
मध्यमागम्य तोयस्य तस्य शब्दस्य निश्चयम्॥
ज्ञातुकामो महातेजाः सह रामः कनीयसा।

गंगा की बीच धारा में आने पर छोटे भाई सहित महातेजस्वी श्रीराम को दो जलों के टकराने की बड़ी भारी आवाज सुनायी देने लगी। ‘यह कैसी आवाज है? क्यों तथा कहाँ से आ रही है?’ इस बात को निश्चित रूप से जानने की इच्छा उनके भीतर जाग उठी॥ ५ १/२॥

अथ रामः सरिन्मध्ये पप्रच्छ मुनिपुंगवम्॥६॥
वारिणो भिद्यमानस्य किमयं तमलो ध्वनिः।

तब श्रीराम ने नदी के मध्य भाग में मुनिवर विश्वामित्र से पूछा—’जल के परस्पर मिलने से यहाँ ऐसी तुमुलध्वनि क्यों हो रही है ?’॥ ६ १/२॥

राघवस्य वचः श्रुत्वा कौतूहलसमन्वितम्॥७॥
कथयामास धर्मात्मा तस्य शब्दस्य निश्चयम्।

श्रीरामचन्द्रजी के वचन में इस रहस्य को जानने की उत्कण्ठा भरी हुई थी। उसे सुनकर धर्मात्मा विश्वामित्र ने उस महान् शब्द (तुमुलध्वनि) का सुनिश्चित कारण बताते हुए कहा- ॥ ७ १/२॥

कैलासपर्वते राम मनसा निर्मितं परम्॥८॥
ब्रह्मणा नरशार्दूल तेनेदं मानसं सरः।

‘नरश्रेष्ठ राम! कैलास पर्वत पर एक सुन्दर सरोवर है। उसे ब्रह्माजी ने अपने मानसिक संकल्प से प्रकट किया था। मन के द्वारा प्रकट होने से ही वह उत्तम सरोवर ‘मानस’ कहलाता है॥ ८ १/२॥

तस्मात् सुस्राव सरसः सायोध्यामुपगूहते॥९॥
सरःप्रवृत्ता सरयूः पुण्या ब्रह्मसरश्च्युता।

‘उस सरोवर से एक नदी निकली है, जो अयोध्यापुरी से सटकर बहती है। ब्रह्मसर से निकलने के कारण वह पवित्र नदी सरयू के नाम से विख्यात है॥ ९ १/२॥

तस्यायमतुलः शब्दो जाह्नवीमभिवर्तते॥१०॥
वारिसंक्षोभजो राम प्रणामं नियतः कुरु।

“उसी का जल गंगा जी में मिल रहा है। दो नदियों के जलों के संघर्ष से ही यह भारी आवाज हो रही है; जिसकी कहीं तुलना नहीं है। राम! तुम अपने मन को संयम में रखकर इस संगम के जलको प्रणाम करो’ ॥ १० १/२॥

ताभ्यां तु तावुभौ कृत्वा प्रणाममतिधार्मिकौ॥
तीरं दक्षिणमासाद्य जग्मतुर्लघुविक्रमौ।

यह सुनकर उन दोनों अत्यन्त धर्मात्मा भाइयों ने उन दोनों नदियों को प्रणाम किया और गंगा के दक्षिण किनारे पर उतरकर वे दोनों बन्धु जल्दी-जल्दी पैर बढ़ाते हुए चलने लगे॥ ११ १/२॥

स वनं घोरसंकाशं दृष्ट्वा नरवरात्मजः॥१२॥
अविप्रहतमैक्ष्वाकः पप्रच्छ मुनिपुंगवम्।

उस समय इक्ष्वाकुनन्दन राजकुमार श्रीराम ने अपने सामने एक भयङ्कर वन देखा, जिसमें मनुष्यों के आने-जाने का कोई चिह्न नहीं था। उसे देखकर उन्होंने मुनिवर विश्वामित्र से पूछा- ॥ १२ १/२॥

अहो वनमिदं दुर्गं झिल्लिकागणसंयुतम्॥१३॥
भैरवैः श्वापदैः कीर्णं शकन्तैर्दारुणारवैः।
नानाप्रकारैः शकुनैर्वाश्यद्भिभैरवस्वनैः॥१४॥

‘गुरुदेव! यह वन तो बड़ा ही अद्भुत एवं दुर्गम है। यहाँ चारों ओर झिल्लियों की झनकार सुनायी देती है। भयानक हिंसक जन्तु भरे हुए हैं। भयङ्कर बोली बोलनेवाले पक्षी सब ओर फैले हुए हैं। नाना प्रकारके विहंगम भीषण स्व रमें चहचहा रहे हैं। १३-१४॥

सिंहव्याघ्रवराहैश्च वारणैश्चापि शोभितम्।
धवाश्वकर्णककुभैर्बिल्वतिन्दुकपाटलैः॥१५॥
संकीर्णं बदरीभिश्च किं न्विदं दारुणं वनम्।

‘सिंह, व्याघ्र, सूअर और हाथी भी इस जंगलकी शोभा बढ़ा रहे हैं। धव (धौरा), अश्वकर्ण (एक प्रकारके शालवृक्ष), ककुभ (अर्जुन), बेल, तिन्दुक (तेन्दू), पाटल (पाड़र) तथा बेरके वृक्षों से भरा हुआ यह भयङ्कर वन क्या है?—इसका क्या नाम है?’ ॥ १५ १/२॥

तमुवाच महातेजा विश्वामित्रो महामुनिः॥१६॥
श्रूयतां वत्स काकुत्स्थ यस्यैतद् दारुणं वनम्।

तब महातेजस्वी महामुनि विश्वामित्र ने उनसे कहा —’वत्स! ककुत्स्थनन्दन! यह भयङ्कर वन जिसके अधिकार में रहा है, उसका परिचय सुनो। १६ १/२ ॥

एतौ जनपदौ स्फीतौ पूर्वमास्तां नरोत्तम॥१७॥
मलदाश्च करूषाश्च देवनिर्माणनिर्मितौ।

‘नरश्रेष्ठ ! पूर्वकाल में यहाँ दो समृद्धिशाली जनपद थे—मलद और करूष। ये दोनों देश देवताओं के प्रयत्न से निर्मित हुए थे॥ १७ १/२॥

पुरा वृत्रवधे राम मलेन समभिप्लुतम्॥१८॥
क्षुधा चैव सहस्राक्षं ब्रह्महत्या समाविशत्।

‘राम! पहले की बात है, वृत्रासुर का वध करने के पश्चात् देवराज इन्द्र मल से लिप्त हो गये,क्षुधाने भी उन्हें धर दबाया और उनके भीतर ब्रह्म हत्या प्रविष्ट हो गयी॥

तमिन्द्रं मलिनं देवा ऋषयश्च तपोधनाः॥१९॥
कलशैः स्नापयामासुर्मलं चास्य प्रमोचयन्।

‘तब देवताओं तथा तपोधन ऋषियों ने मलिन इन्द्र को यहाँ गंगाजल से भरे हुए कलशों द्वारा नहलाया तथा उनके मल (और कारूष—क्षुधा) को छुड़ा दिया॥

इह भूम्यां मलं दत्त्वा देवाः कारूषमेव च॥२०॥
शरीर महेन्द्रस्य ततो हर्षं प्रपेदिरे।

इस भूभाग में देवराज इन्द्र के शरीर से उत्पन्न हुए मल और कारूष को देकर देवता लोग बड़े प्रसन्न हुए॥

निर्मलो निष्करूषश्च शुद्ध इन्द्रो यथाभवत्॥ २१॥
ततो देशस्य सुप्रीतो वरं प्रादादनुत्तमम्।
इमौ जनपदौ स्फीतौ ख्यातिं लोके गमिष्यतः॥ २२॥
मलदाश्च करूषाश्च ममांगमलधारिणौ।

‘इन्द्र पूर्ववत् निर्मल, निष्करूष (क्षुधाहीन) एवं शुद्ध हो गये। तब उन्होंने प्रसन्न होकर इस देशको यह उत्तम वर प्रदान किया—’ये दो जनपद लोक में मलद और करूष नाम से विख्यात होंगे। मेरे अंगजनित मल को धारण करने वाले ये दोनों देश बड़े समृद्धिशाली होंगे’।

साधु साध्विति तं देवाः पाकशासनमब्रुवन्॥ २३॥
देशस्य पूजां तां दृष्ट्वा कृतां शक्रेण धीमता।

‘बुद्धिमान् इन्द्र के द्वारा की गयी उस देश की वह पूजा देखकर देवताओं ने पाकशासन को बारम्बार साधुवाद दिया॥ २३ १/२॥

एतौ जनपदौ स्फीतौ दीर्घकालमरिंदम ॥२४॥
मलदाश्च करूषाश्च मुदिता धनधान्यतः।

‘शत्रुदमन! मलद और करूष—ये दोनों जनपद दीर्घकाल तक समृद्धिशाली, धन-धान्यसे सम्पन्न तथा सुखी रहे हैं॥ २४ १/२॥

कस्यचित्त्वथ कालस्य यक्षिणी कामरूपिणी॥ २५॥
बलं नागसहस्रस्य धारयन्ती तदा ह्यभूत्।

‘कुछ काल के अनन्तर यहाँ इच्छानुसार रूप धारण करनेवाली एक यक्षिणी आयी, जो अपने शरीर में एक हजार हाथियों का बल धारण करती है॥ २५ १/२॥

ताटका नाम भद्रं ते भार्या सुन्दस्य धीमतः॥ २६॥
मारीचो राक्षसः पुत्रो यस्याः शक्रपराक्रमः।
वृत्तबाहुर्महाशीर्षो विपुलास्यतनुर्महान्॥ २७॥

“उसका नाम ताटका है। वह बुद्धिमान् सुन्द नामक दैत्य की पत्नी है,तुम्हारा कल्याण हो। मारीच नामक राक्षस, जो इन्द्र के समान पराक्रमी है, उस ताटका का ही पुत्र है। उसकी भुजाएँ गोल, मस्तक बहुत बड़ा, मुँह फैला हुआ और शरीर विशाल है॥ २६-२७॥

राक्षसो भैरवाकारो नित्यं त्रासयते प्रजाः।
इमौ जनपदौ नित्यं विनाशयति राघव॥२८॥
मलदांश्च करूषांश्च ताटका दुष्टचारिणी।

‘वह भयानक आकार वाला राक्षस यहाँ की प्रजा को सदा ही त्रास पहुँचाता रहता है। रघुनन्दन! वह दुराचारिणी ताटका भी सदा मलद और करूष—इन दोनों जनपदों का विनाश करती रहती है॥ २८१/२॥

सेयं पन्थानमावृत्य वसत्यत्यर्धयोजने॥२९॥
अत एव च गन्तव्यं ताटकाया वनं यतः।
स्वबाहुबलमाश्रित्य जहीमां दुष्टचारिणीम्॥३०॥

‘वह यक्षिणी डेढ़ योजन (छः कोस) तक के मार्ग को घेरकर इस वन में रहती है; अतः हमलोगों को जिस ओर ताटका-वन है, उधर ही चलना चाहिये। तुम अपने बाहुबल का सहारा लेकर इस दुराचारिणी को मार डालो॥ २९-३०॥

मन्नियोगादिमं देशं कुरु निष्कण्टकं पुनः।
नहि कश्चिदिमं देशं शक्तो ह्यागन्तुमीदृशम्॥ ३१॥

‘मेरी आज्ञा से इस देश को पुनः निष्कण्टक बना दो। यह देश ऐसा रमणीय है तो भी इस समय कोई यहाँ आ नहीं सकता है॥ ३१॥

यक्षिण्या घोरया राम उत्सादितमसह्यया।
एतत्ते सर्वमाख्यातं यथैतद् दारुणं वनम्।
यक्ष्या चोत्सादितं सर्वमद्यापि न निवर्तते॥ ३२॥

‘राम! उस असह्य एवं भयानक यक्षिणी ने इस देशको उजाड़ कर डाला है। यह वन ऐसा भयङ्कर क्यों है, यह सारा रहस्य मैंने तुम्हें बता दिया। उस यक्षिणी ने ही इस सारे देश को उजाड़ दिया है और वह आज भी अपने उस क्रूर कर्म से निवृत्त नहीं हुई है’॥ ३२॥

सर्ग २५ 

अथ तस्याप्रमेयस्य मुनेर्वचनमुत्तमम्।
श्रुत्वा पुरुषशार्दूलः प्रत्युवाच शुभां गिरम्॥१॥

अपरिमित प्रभावशाली विश्वामित्र मुनि का यह उत्तम वचन सुनकर पुरुषसिंह श्रीराम ने यह शुभ बात कही-॥१॥

अल्पवीर्या यदा यक्षी श्रूयते मुनिपुंगव।
कथं नागसहस्रस्य धारयत्यबला बलम्॥२॥

‘मुनिश्रेष्ठ! जब वह यक्षिणी एक अबला सुनी जाती है, तब तो उसकी शक्ति थोड़ी ही होनी चाहिये; फिर वह एक हजार हाथियों का बल कैसे धारण करती है ?’ ॥२॥

इत्युक्तं वचनं श्रुत्वा राघवस्यामितौजसः।
हर्षयन् श्लक्ष्णया वाचा सलक्ष्मणमरिंदमम्॥३॥
विश्वामित्रोऽब्रवीद् वाक्यं शृणु येन बलोत्कटा।
वरदानकृतं वीर्यं धारयत्यबला बलम्॥४॥

अमित तेजस्वी श्रीरघुनाथ के कहे हुए इस वचन को सुनकर विश्वामित्र जी अपनी मधुर वाणीद् वारा लक्ष्मण सहित शत्रुदमन श्रीराम को हर्ष प्रदान करते हुए बोले—’रघुनन्दन! जिस कारण से ताटका अधिक बलशालिनी हो गयी है, वह बताता हूँ, सुनो। उसमें वरदानजनित बल का उदय हुआ है; अतः वह अबला होकर भी बल धारण करती है (सबला हो गयी है)। ३-४॥

पूर्वमासीन्महायक्षः सुकेतुर्नाम वीर्यवान्।
अनपत्यः शुभाचारः स च तेपे महत्तपः॥५॥

‘पूर्व काल की बात है, सुकेतु नाम से प्रसिद्ध एक महान् यक्ष थे। वे बड़े पराक्रमी और सदाचारी थे परंतु उन्हें कोई संतान नहीं थी; इसलिये उन्होंने बड़ी भारी तपस्या की॥ ५॥

पितामहस्तु सुप्रीतस्तस्य यक्षपतेस्तदा।
कन्यारत्नं ददौ राम ताटकां नाम नामतः॥६॥

‘श्रीराम! यक्षराज सुकेतु की उस तपस्या से ब्रह्माजी को बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने सुकेतु को एक कन्यारत्न प्रदान किया, जिसका नाम ताटका था।

ददौ नागसहस्रस्य बलं चास्याः पितामहः।
न त्वेव पुत्रं यक्षाय ददौ चासौ महायशाः॥७॥

ब्रह्माजी ने ही उस कन्या को एक हजार हाथियों के समान बल दे दिया; परंतु उन महायशस्वी पितामह ने उस यक्ष को पुत्र नहीं ही दिया (उसके संकल्प के अनुसार पुत्र प्राप्त हो जाने पर उसके द्वारा जनता का अत्यधिक उत्पीड़न होता, यही सोचकर ब्रह्माजी ने पुत्र नहीं दिया) ॥ ७॥

तां तु बालां विवर्धन्तीं रूपयौवनशालिनीम्।
जम्भपुत्राय सुन्दाय ददौ भार्यां यशस्विनीम्॥ ८॥

‘धीरे-धीरे वह यक्ष-बालिका बढ़ने लगी और बढ़कर रूप-यौवन से सुशोभित होने लगी। उस अवस्था में सुकेतु ने अपनी उस यशस्विनी कन्या को जम्भपुत्र सुन्द के हाथ में उसकी पत्नी के रूप में दे दिया॥ ८॥

कस्यचित्त्वथ कालस्य यक्षी पुत्रं व्यजायत।
मारीचं नाम दुर्धर्षं यः शापाद् राक्षसोऽभवत्॥ ९॥

‘कुछ काल के बाद उस यक्षी ताटका ने मारीच नाम से प्रसिद्ध एक दुर्जय पुत्र को जन्म दिया, जो अगस्त्य मुनि के शाप से राक्षस हो गया॥९॥

सुन्दे तु निहते राम अगस्त्यमृषिसत्तमम्।
ताटका सहपुत्रेण प्रधर्षयितुमिच्छति॥१०॥

‘श्रीराम! अगस्त्य ने ही शाप देकर ताटका पति सुन्द को भी मार डाला। उसके मारे जाने पर ताटका पुत्र सहित जाकर मुनिवर अगस्त्य को भी मौत के घाट उतार देने की इच्छा करने लगी॥१०॥

भक्षार्थं जातसंरम्भा गर्जन्ती साभ्यधावत।
आपतन्तीं तु तां दृष्ट्वा अगस्त्यो भगवानृषिः॥ ११॥
राक्षसत्वं भजस्वेति मारीचं व्याजहार सः।

‘वह कुपित हो मुनि को खा जानेके लिये गर्जना करती हुई दौड़ी। उसे आती देख भगवान् अगस्त्य मुनि ने मारीच से कहा—’तू देवयोनि-रूप का परित्याग करके राक्षस भाव को प्राप्त हो जा’॥ ११ १/२॥

अगस्त्यः परमामर्षस्ताटकामपि शप्तवान्॥१२॥
पुरुषादी महायक्षी विकृता विकृतानना।
इदं रूपं विहायाशु दारुणं रूपमस्तु ते॥१३॥

‘फिर अत्यन्त अमर्ष में भरे हुए ऋषि ने ताटका को भी शाप दे दिया—’तू विकराल मुखवाली नरभक्षिणी राक्षसी हो जा। तू है तो महायक्षी; परंतु अब शीघ्र ही इस रूप को त्याग कर तेरा भयङ्कर रूप हो जाय’। १२-१३॥

सैषा शापकृतामर्षा ताटका क्रोधमर्च्छिता।
देशमुत्सादयत्येनमगस्त्याचरितं शुभम्॥१४॥

‘इस प्रकार शाप मिलने के कारण ताटका का अमर्ष और भी बढ़ गया। वह क्रोध से मूर्च्छित हो उठी और उन दिनों अगस्त्य जी जहाँ रहते थे, उस सुन्दर देश को उजाड़ने लगी॥१४॥

एनां राघव दुर्वृत्तां यक्षीं परमदारुणाम्।
गोब्राह्मणहितार्थाय जहि दुष्टपराक्रमाम्॥१५॥

‘रघुनन्दन! तुम गौओं और ब्राह्मणों का हित करनेके लिये दुष्ट पराक्रम वाली इस परम भयङ्कर दुराचारिणी यक्षी का वध कर डालो॥ १५ ॥

नह्येनां शापसंसृष्टां कश्चिदुत्सहते पुमान्।
निहन्तुं त्रिषु लोकेषु त्वामृते रघुनन्दन॥१६॥

‘रघुकुल को आनन्दित करनेवाले वीर! इस शापग्रस्त ताटका को मारने के लिये तीनों लोकों में तुम्हारे सिवा दूसरा कोई पुरुष समर्थ नहीं है॥ १६॥

नहि ते स्त्रीवधकृते घृणा कार्या नरोत्तम।
चातुर्वर्ण्यहितार्थं हि कर्तव्यं राजसूनुना॥ १७॥

‘नरश्रेष्ठ! तुम स्त्री-हत्या का विचार करके इसके प्रति दया न दिखाना। एक राजपुत्र को चारों वर्गों के हितके लिये स्त्रीहत्या भी करनी पड़े तो उससे मुँह नहीं मोड़ना चाहिये॥ १७॥

नृशंसमनृशंसं वा प्रजारक्षणकारणात्।
पातकं वा सदोषं वा कर्तव्यं रक्षता सदा॥१८॥

‘प्रजापालक नरेश को प्रजाजनों की रक्षाके लिये क्रूरतापूर्ण या क्रूरतारहित, पातकयुक्त अथवा सदोष कर्म भी करना पड़े तो कर लेना चाहिये। यह बात उसे सदा ही ध्यान में रखनी चाहिये॥१८॥

राज्यभारनियुक्तानामेष धर्मः सनातनः।
अध` जहि काकुत्स्थ धर्मो ह्यस्यां न विद्यते॥ १९॥

‘जिनके ऊपर राज्य के पालनका भार है, उनका तो यह सनातन धर्म है। ककुत्स्थकुलनन्दन! ताटका महापापिनी है। उसमें धर्म का लेशमात्र भी नहीं है; अतः उसे मार डालो॥ १९॥

श्रूयते हि पुरा शक्रो विरोचनसुतां नृप।
पृथिवीं हन्तुमिच्छन्ती मन्थरामभ्यसूदयत्॥ २०॥

‘नरेश्वर! सुना जाता है कि पूर्वकाल में विरोचन की पुत्री मन्थरा सारी पृथ्वी का नाश कर डालना चाहती थी। उसके इस विचार को जानकर इन्द्र ने उसका वध कर डाला ॥ २०॥

विष्णुना च पुरा राम भृगुपत्नी पतिव्रता।
अनिन्द्रं लोकमिच्छन्ती काव्यमाता निषूदिता॥ २१॥

‘श्रीराम! प्राचीन काल में शुक्राचार्य की माता तथा भृगुकी पतिव्रता पत्नी त्रिभुवन को इन्द्र से शून्य कर देना चाहती थीं। यह जानकर भगवान् विष्णु ने उनको मार डाला॥

एतैश्चान्यैश्च बहुभी राजपुत्रैर्महात्मभिः।
अधर्मसहिता नार्यो हताः पुरुषसत्तमैः।
तस्मादेनां घृणां त्यक्त्वा जहि मच्छासनान्नृप। २२॥

‘इन्होंने तथा अन्य बहुत-से महामनस्वी पुरुषप्रवर राजकुमारों ने पापचारिणी स्त्रियों का वध किया है। नरेश्वर! अतः तुम भी मेरी आज्ञा से दया अथवा घृणा को त्यागकर इस राक्षसी को मार डालो’ ॥ २२ ॥

सर्ग २६ 

मुनेर्वचनमक्लीबं श्रुत्वा नरवरात्मजः।
राघवः प्राञ्जलिभूत्वा प्रत्युवाच दृढव्रतः॥१॥

मुनि के ये उत्साह भरे वचन सुनकर दृढ़तापूर्वक उत्तम व्रत का पालन करने वाले राजकुमार श्रीराम ने हाथ जोड़कर उत्तर दिया- ॥१॥

पितुर्वचननिर्देशात् पितुर्वचनगौरवात्।
वचनं कौशिकस्येति कर्तव्यमविशङ्कया॥२॥
अनुशिष्टोऽस्म्ययोध्यायां गुरुमध्ये महात्मना।
पित्रा दशरथेनाहं नावज्ञेयं हि तद्वचः॥३॥

‘भगवन्! अयोध्या में मेरे पिता महामना महाराजदशरथ ने अन्य गुरुजनों के बीच मुझे यह उपदेश दिया था कि ‘बेटा! तुम पिता के कहने से पिता के वचनों का गौरव रखने के लिये कुशिकनन्दन विश्वामित्र की आज्ञा का निःशङ्क होकर पालन करना कभी भी उनकी बात की अवहेलना न करना’।

सोऽहं पितुर्वचः श्रुत्वा शासनाद् ब्रह्मवादिनः।
करिष्यामि न संदेहस्ताटकावधमुत्तमम्॥४॥

‘अतः मैं पिताजी के उस उपदेश को सुनकर आप ब्रह्मवादी महात्मा की आज्ञा से ताटका वध सम्बन्धी कार्य को उत्तम मानकर करूँगा—इसमें संदेह नहीं है॥ ४॥

गोब्राह्मणहितार्थाय देशस्य च हिताय च।
तव चैवाप्रमेयस्य वचनं कर्तुमुद्यतः॥५॥

‘गौ, ब्राह्मण तथा समूचे देश का हित करने के लिये मैं आप-जैसे अनुपम प्रभावशाली महात्मा के आदेश का पालन करने को सब प्रकार से तैयार हूँ’।

एवमुक्त्वा धनुर्मध्ये बद्ध्वा मुष्टिमरिंदमः।
ज्याघोषमकरोत् तीव्र दिशः शब्देन नादयन्॥ ६॥

ऐसा कहकर शत्रुदमन श्रीराम ने धनुष के मध्यभाग में मुट्ठी बाँधकर उसे जोर से पकड़ा और उसकी प्रत्यञ्चा पर तीव्र टङ्कार दी। उसकी आवाज से सम्पूर्ण दिशाएँ गूंज उठीं॥६॥

तेन शब्देन वित्रस्तास्ताटकावनवासिनः।
ताटका च सुसंक्रुद्धा तेन शब्देन मोहिता॥७॥

उस शब्द से ताटका वन में रहने वाले समस्त प्राणी थर्रा उठे। ताटका भी उस टङ्कार-घोष से पहले तो किंकर्तव्यविमूढ़ हो उठी; परंतु फिर कुछ सोचकर अत्यन्त क्रोध में भर गयी॥७॥

तं शब्दमभिनिध्याय राक्षसी क्रोधमूर्च्छिता।
श्रुत्वा चाभ्यद्रवत् क्रुद्धा यत्र शब्दो विनिःसृतः॥ ८॥

उस शब्दको सुनकर वह राक्षसी क्रोध से अचेत-सी हो गयी थी। उसे सुनते ही वह जहाँ से आवाज आयी थी, उसी दिशाकी ओर रोषपूर्वक दौड़ी॥८॥

तां दृष्ट्वा राघवः क्रुद्धां विकृतां विकृताननाम्।
प्रमाणेनातिवृद्धां च लक्ष्मणं सोऽभ्यभाषत॥९॥

उसके शरीर की ऊँचाई बहुत अधिक थी। उसकी मुखाकृति विकृत दिखायी देती थी। क्रोध में भरी हुई उस विकराल राक्षसी की ओर दृष्टिपात करके श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा— ॥९॥

पश्य लक्ष्मण यक्षिण्या भैरवं दारुणं वपुः।
भिद्येरन् दर्शनादस्या भीरूणां हृदयानि च॥ १०॥

‘लक्ष्मण! देखो तो सही, इस यक्षिणी का शरीर कैसा दारुण एवं भयङ्कर है! इसके दर्शन मात्र से भीरु पुरुषों के हृदय विदीर्ण हो सकते हैं ॥ १० ॥

एतां पश्य दुराधर्षां मायाबलसमन्विताम्।
विनिवृत्तां करोम्यद्य हृतकर्णाग्रनासिकाम्॥११॥

‘मायाबलसे सम्पन्न होने के कारण यह अत्यन्त दुर्जय हो रही है। देखो, मैं अभी इसके कान और नाक काटकर इसे पीछे लौटने को विवश किये देता हूँ॥ ११॥

न ह्येनामुत्सहे हन्तुं स्त्रीस्वभावेन रक्षिताम्।
वीर्यं चास्या गतिं चैव हन्यामिति हि मे मतिः॥ १२॥

‘यह अपने स्त्री स्वभाव के कारण रक्षित है; अतः मुझे इसे मारने में उत्साह नहीं है। मेरा विचार यह है कि मैं इसके बल-पराक्रम तथा गमन शक्ति को नष्ट कर दूँ (अर्थात् इसके हाथ-पैर काट डालूँ) ‘ ॥ १२॥

एवं ब्रुवाणे रामे तु ताटका क्रोधमूर्च्छिता।
उद्यम्य बाहं गर्जन्ती राममेवाभ्यधावत॥१३॥

श्रीराम इस प्रकार कह ही रहे थे कि क्रोध से अचेत हुई ताटका वहाँ आ पहुँची और एक बाँह उठाकर गर्जना करती हुई उन्हीं की ओर झपटी॥ १३॥

विश्वामित्रस्तु ब्रह्मर्षिहुँकारेणाभिभत्र्य ताम्।
स्वस्ति राघवयोरस्तु जयं चैवाभ्यभाषत ॥१४॥

यह देख ब्रह्मर्षि विश्वामित्र ने अपने हुंकार के द्वारा उसे डाँटकर कहा–’रघुकुल के इन दोनों राजकुमारों का कल्याण हो इनकी विजय हो’ ॥ १४ ॥

उद्धन्वाना रजो घोरं ताटका राघवावुभौ।
रजोमेघेन महता मुहूर्तं सा व्यमोहयत्॥१५॥

तब ताटका ने उन दोनों रघुवंशी वीरों पर भयङ्कर धूल उड़ाना आरम्भ किया। वहाँ धूल का विशाल बादल-सा छा गया। उसके द्वारा उसने श्रीराम और लक्ष्मण को दो घड़ी तक मोह में डाल दिया॥ १५ ॥

ततो मायां समास्थाय शिलावर्षेण राघवौ।
अवाकिरत् सुमहता ततश्चुक्रोध राघवः॥१६॥

तत्पश्चात् माया का आश्रय लेकर वह उन दोनों भाइयों पर पत्थरों की बड़ी भारी वर्षा करने लगी। यह देख रघुनाथ जी उसपर कुपित हो उठे॥ १६॥

शिलावर्षं महत् तस्याः शरवर्षेण राघवः।
प्रतिवार्योपधावन्त्याः करौ चिच्छेद पत्रिभिः॥ १७॥

रघुवीर ने अपनी बाण वर्षा के द्वारा उसकी बड़ी भारी शिलावृष्टि को रोककर अपनी ओर आती हुई उस निशाचरी के दोनों हाथ तीखे सायकों से काट डाले॥ १७॥

ततश्छिन्नभुजां श्रान्तामभ्याशे परिगर्जतीम्।
सौमित्रिरकरोत् क्रोधाद्धृतकर्णाग्रनासिकाम्॥ १८॥

दोनों भुजाएँ कट जानेसे थकी हुई ताटका उनके निकट खड़ी होकर जोर-जोरसे गर्जना करने लगी। यह देख सुमित्राकुमार लक्ष्मणने क्रोधमें भरकर उसके नाक-कान काट लिये॥ १८ ॥

कामरूपधरा सा तु कृत्वा रूपाण्यनेकशः।
अन्तर्धानं गता यक्षी मोहयन्ती स्वमायया॥१९॥

परंतु वह तो इच्छानुसार रूप धारण करने वाली यक्षिणी थी; अतः अनेक प्रकार के रूप बनाकर अपनी माया से श्रीराम और लक्ष्मण को मोह में डालती हुई अदृश्य हो गयी॥ १९॥

अश्मवर्षं विमुञ्चन्ती भैरवं विचचार सा।
ततस्तावश्मवर्षेण कीर्यमाणौ समन्ततः॥२०॥
दृष्ट्वा गाधिसुतः श्रीमानिदं वचनमब्रवीत्।
अलं ते घृणया राम पापैषा दुष्टचारिणी॥२१॥
यज्ञविघ्नकरी यक्षी पुरा वर्धेत मायया।
वध्यतां तावदेवैषा पुरा संध्या प्रवर्तते॥२२॥
रक्षांसि संध्याकाले तु दुर्धर्षाणि भवन्ति हि।

अब वह पत्थरों की भयङ्कर वर्षा करती हुई आकाश में विचरने लगी। श्रीराम और लक्ष्मण पर चारों ओर से प्रस्तरों की वृष्टि होती देख तेजस्वी गाधिनन्दन विश्वामित्र ने इस प्रकार कहा—’श्रीराम! इसके ऊपर तुम्हारा दया करना व्यर्थ है। यह बड़ी पापिनी और दुराचारिणी है। सदा यज्ञों में विघ्न डाला करती है। यह अपनी मायासे पुनः प्रबल हो उठे, इसके पहले ही इसे मार डालो। अभी संध्याकाल आना चाहता है, इसके पहले ही यह कार्य हो जाना चाहिये; क्योंकि संध्याके समय राक्षस दुर्जय हो जाते हैं’। २०–२२ १/२॥

इत्युक्तः स तु तां यक्षीमश्मवृष्टयाभिवर्षिणीम्॥ २३॥
दर्शयन् शब्दवेधित्वं तां रुरोध स सायकैः।

विश्वामित्रजी के ऐसा कहने पर श्रीराम ने शब्दवेधी बाण चलाने की शक्ति का परिचय देते हुए बाण मारकर प्रस्तरों की वर्षा करने वाली उस यक्षिणी को सब ओर से अवरुद्ध कर दिया। २३ १/२॥

सा रुद्वा बाणजालेन मायाबलसमन्विता ॥ २४॥
अभिदुद्राव काकुत्स्थं लक्ष्मणं च विनेदुषी।
तामापतन्तीं वेगेन विक्रान्तामशनीमिव॥ २५॥
शरेणोरसि विव्याध सा पपात ममार च।

उनके बाण-समूह से घिर जानेपर मायाबल से युक्त वह यक्षिणी जोर-जोरसे गर्जना करती हुई श्रीराम और लक्ष्मण के ऊपर टूट पड़ी। उसे चलाये हुए इन्द्रके वज्र की भाँति वेग से आती देख श्रीराम ने एक बाण मारकर उसकी छाती चीर डाली तब ताटका पृथ्वी पर गिरी और मर गयी॥ २४-२५ १/२ ।।

तां हतां भीमसंकाशां दृष्ट्वा सुरपतिस्तदा ॥२६॥
साधु साध्विति काकुत्स्थं सुराश्चाप्यभिपूजयन्।

उस भयङ्कर राक्षसी को मारी गयी देख देवराज इन्द्र तथा देवताओं ने श्रीराम को साधुवाद देते हुए उनकी सराहना की॥ २६ १/२॥

उवाच परमप्रीतः सहस्राक्षः पुरन्दरः॥ २७॥
सुराश्च सर्वे संहृष्टा विश्वामित्रमथाब्रुवन्।

उस समय सहस्रलोचन इन्द्र तथा समस्त देवताओं ने अत्यन्त प्रसन्न एवं हर्षोत्फुल्ल होकर विश्वामित्रजीसे कहा- ॥ २७ १/२॥

मुने कौशिक भद्रं ते सेन्द्राः सर्वे मरुद्गणाः॥ २८॥
तोषिताः कर्मणानेन स्नेहं दर्शय राघवे।

‘मुने! कुशिकनन्दन! आपका कल्याण हो,आपने इस कार्य से इन्द्र सहित सम्पूर्ण देवताओं को संतुष्ट किया है। अब रघुकुलतिलक श्रीरामपर आप अपना स्नेह प्रकट कीजिये॥ २८ १/२॥

प्रजापतेः कृशाश्वस्य पुत्रान् सत्यपराक्रमान्॥ २९॥
तपोबलभृतो ब्रह्मन् राघवाय निवेदय।

‘ब्रह्मन्! प्रजापति कृशाश्व के अस्त्र-रूपधारी पत्रोंको, जो सत्यपराक्रमी तथा तपोबल से सम्पन्न हैं, श्रीरामको समर्पित कीजिये॥ २९ १/२ ॥

पात्रभूतश्च ते ब्रह्मस्तवानुगमने रतः॥३०॥
कर्तव्यं सुमहत् कर्म सुराणां राजसूनुना।

‘विप्रवर! ये आपके अस्त्रदान के सुयोग्य पात्र हैं तथा आपके अनुसरण (सेवा-शुश्रूषा) में तत्पर रहते हैं। राजकुमार श्रीराम के द्वारा देवताओं का महान् कार्य सम्पन्न होनेवाला है’ ॥ ३० १/२ ॥

एवमुक्त्वा सुराः सर्वे जग्मुर्हृष्टा विहायसम्॥ ३१॥
विश्वामित्रं पूजयन्तस्ततः संध्या प्रवर्तते।

ऐसा कहकर सभी देवता विश्वामित्रजीकी प्रशंसा करते हुए प्रसन्नतापूर्वक आकाश मार्ग से चले गये तत्पश्चात् संध्या हो गयी॥ ३१ १/२ ॥

ततो मुनिवरः प्रीतस्ताटकावधतोषितः॥३२॥
मूर्ध्नि राममुपाघ्राय इदं वचनमब्रवीत्।

तदनन्तर ताटकावधसे संतुष्ट हुए मुनिवर विश्वामित्रने श्रीरामचन्द्रजीका मस्तक सूंघकर उनसे यह बात कही— ॥ ३२ १/२॥

इहाद्य रजनीं राम वसाम शुभदर्शन॥३३॥
श्वः प्रभाते गमिष्यामस्तदाश्रमपदं मम।

‘शुभदर्शन राम! आजकी रात में हम लोग यहीं निवास करें कल सबेरे अपने आश्रम पर चलेंगे’। ३३ १/२॥

विश्वामित्रवचः श्रुत्वा हृष्टो दशरथात्मजः॥ ३४॥
उवास रजनीं तत्र ताटकाया वने सुखम्।

विश्वामित्रजी की यह बात सुनकर दशरथकुमार श्रीराम बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने ताटका वन में रहकर वह रात्रि बड़े सुख से व्यतीत की॥ ३४ १/२॥

मुक्तशापं वनं तच्च तस्मिन्नेव तदाहनि।
रमणीयं विबभ्राज यथा चैत्ररथं वनम्॥३५॥

उसी दिन वह वन शापमुक्त होकर रमणीय शोभा से सम्पन्न हो गया और चैत्ररथ वनकी भाँति अपनी मनोहर छटा दिखाने लगा॥ ३५ ॥

निहत्य तां यक्षसुतां स रामः प्रशस्यमानः सुरसिद्धसंघैः।
उवास तस्मिन् मुनिना सहैव प्रभातवेलां प्रतिबोध्यमानः॥३६॥

यक्षकन्या ताटका का वध करके श्रीरामचन्द्र जी देवताओं तथा सिद्ध समूहों की प्रशंसाके पात्र बन गये। उन्होंने प्रातःकाल की प्रतीक्षा करते हुए विश्वामित्रजी के साथ ताटका वन में निवास किया। ३६॥

सर्ग २७

दान अथ तां रजनीमुष्य विश्वामित्रो महायशाः।
प्रहस्य राघवं वाक्यमुवाच मधुरस्वरम्॥१॥

ताटका वन में वह रात बिताकर महायशस्वी विश्वामित्र हँसते हुए मीठे स्वर में श्रीरामचन्द्रजी से बोले- ॥१॥

परितुष्टोऽस्मि भद्रं ते राजपुत्र महायशः।
प्रीत्या परमया युक्तो ददाम्यस्त्राणि सर्वशः॥२॥

‘महायशस्वी राजकुमार! तुम्हारा कल्याण हो। ताटका वध के कारण मैं तुम पर बहुत संतुष्ट हूँ; अतःबड़ी प्रसन्नता के साथ तुम्हें सब प्रकार के अस्त्र दे रहा हूँ॥

देवासुरगणान् वापि सगन्धर्वोरगान् भुवि।
यैरमित्रान् प्रसह्याजौ वशीकृत्य जयिष्यसि॥३॥

‘इनके प्रभाव से तुम अपने शत्रुओं को–चाहे वे देवता, असुर, गन्धर्व अथवा नाग ही क्यों न हों, “रणभूमि में बलपूर्वक अपने अधीन करके उनपर विजय पा जाओगे॥३॥

तानि दिव्यानि भद्रं ते ददाम्यस्त्राणि सर्वशः।
दण्डचक्रं महद दिव्यं तव दास्यामि राघव॥४॥
धमर्चक्रं ततो वीर कालचक्रं तथैव च।
विष्णुचक्रं तथात्युग्रमैन्द्रं चक्रं तथैव च॥५॥

‘रघुनन्दन! तुम्हारा कल्याण हो,आज मैं तुम्हें वे सभी दिव्यास्त्र दे रहा हूँ। वीर ! मैं तुमको दिव्य एवं महान् दण्डचक्र, धर्मचक्र, कालचक्र, विष्णुचक्र तथा अत्यन्त भयंकर ऐन्द्रचक्र दूंगा॥ ४-५॥

वज्रमस्त्रं नरश्रेष्ठ शैवं शूलवरं तथा।
अस्त्रं ब्रह्मशिरश्चैव ऐषीकमपि राघव॥६॥
ददामि ते महाबाहो ब्राह्ममस्त्रमनुत्तमम्।

‘नरश्रेष्ठ राघव! इन्द्रका वज्रास्त्र, शिवका श्रेष्ठ त्रिशूल तथा ब्रह्माजी का ब्रह्मशिर नामक अस्त्र भी दूंगा। महाबाहो! साथ ही तुम्हें ऐषीकास्त्र तथा परम उत्तम ब्रह्मास्त्र भी प्रदान करता हूँ॥६॥

गदे द्वे चैव काकुत्स्थ मोदकीशिखरी शुभे॥७॥
प्रदीप्ते नरशार्दूल प्रयच्छामि नृपात्मज।
धर्मपाशमहं राम कालपाशं तथैव च॥८॥
वारुणं पाशमस्त्रं च ददाम्यहमनुत्तमम्।

‘ककुत्स्थकुलभूषण! इनके सिवा दो अत्यन्त उज्ज्वल और सुन्दर गदाएँ, जिनके नाम मोद की और शिखरी हैं, मैं तुम्हें अर्पण करता हूँ। पुरुषसिंह राजकुमार राम! धर्मपाश, कालपाश और वरुणपाश भी बड़े उत्तम अस्त्र हैं,इन्हें भी आज तुम्हें अर्पित करता हूँ॥ ७-८॥

अशनी द्वे प्रयच्छामि शुष्कार्टे रघुनन्दन॥९॥
ददामि चास्त्रं पैनाकमस्त्रं नारायणं तथा।

‘रघुनन्दन ! सूखी और गीली दो प्रकार की अशनि तथा पिनाक एवं नारायणास्त्र भी तुम्हें दे रहा हूँ॥९॥

आग्नेयमस्त्रं दयितं शिखरं नाम नामतः॥१०॥
वायव्यं प्रथमं नाम ददामि तव चानघ।

‘अग्निका प्रिय आग्नेय-अस्त्र, जो शिखरास्त्रके नामसे भी प्रसिद्ध है, तुम्हें अर्पण करता हूँ। अनघ! अस्त्रों में प्रधान जो वायव्यास्त्र है, वह भी तुम्हें दे रहा हूँ॥१० १/२॥

अस्त्रं हयशिरो नाम क्रौञ्चमस्त्रं तथैव च॥११॥
शक्तिद्वयं च काकुत्स्थ ददामि तव राघव।

‘ककुत्स्थ कुलभूषण राघव! हयशिरा नामक अस्त्र, क्रौञ्च-अस्त्र तथा दो शक्तियों को भी तुम्हें देता हूँ॥

कङ्कालं मुसलं घोरं कापालमथ किङ्किणीम्॥ १२॥
वधार्थं रक्षसां यानि ददाम्येतानि सर्वशः

‘कङ्काल, घोर मूसल, कपाल तथा किङ्किणी आदि सब अस्त्र, जो राक्षसों के वध में उपयोगी होते हैं, तुम्हें दे रहा हूँ॥ १२ १/२॥

वैद्याधरं महास्त्रं च नन्दनं नाम नामतः॥१३॥
असिरत्नं महाबाहो ददामि नृवरात्मज।

‘महाबाहु राजकुमार! नन्दन नाम से प्रसिद्ध विद्याधरों का महान् अस्त्र तथा उत्तम खड्ग भी तुम्हें अर्पित करता हूँ॥ १३ १/२॥

गान्धर्वमस्त्रं दयितं मोहनं नाम नामतः॥१४॥
प्रस्वापनं प्रशमनं दद्मि सौम्यं च राघव।

‘रघुनन्दन ! गन्धर्वो का प्रिय सम्मोहन नामक अस्त्र, प्रस्वापन, प्रशमन तथा सौम्य-अस्त्र भी देता हूँ॥ १४१/२॥

वर्षणं शोषणं चैव संतापनविलापने॥१५॥
मादनं चैव दुर्धर्षं कन्दर्पदयितं तथा।
गान्धर्वमस्त्रं दयितं मानवं नाम नामतः॥१६॥
पैशाचमस्त्रं दयितं मोहनं नाम नामतः।
प्रतीच्छ नरशार्दूल राजपुत्र महायशः॥१७॥

‘महायशस्वी पुरुषसिंह राजकुमार! वर्षण, शोषण, संतापन, विलापन तथा कामदेव का प्रिय दुर्जय अस्त्र मादन, गन्धर्वो का प्रिय मानवास्त्र तथा पिशाचों का प्रिय मोहनास्त्र भी मुझसे ग्रहण करो। १५–१७॥

तामसं नरशार्दूल सौमनं च महाबलम्।
संवर्तं चैव दुर्धर्षं मौसलं च नृपात्मज॥१८॥
सत्यमस्त्रं महाबाहो तथा मायामयं परम्।
सौरं तेजःप्रभं नाम परतेजोऽपकर्षणम्॥१९॥

‘नरश्रेष्ठ राजपुत्र महाबाहु राम! तामस, महाबली सौमन, संवर्त, दुर्जय, मौसल, सत्य और मायामय उत्तम अस्त्र भी तुम्हें अर्पण करता हूँ। सूर्यदेवता का तेजःप्रभ नामक अस्त्र, जो शत्रु के तेज का नाश करने वाला है, तुम्हें अर्पित करता हूँ॥ १८-१९ ॥

सोमास्त्रं शिशिरं नाम त्वाष्ट्रमस्त्रं सुदारुणम्।
दारुणं च भगस्यापि शीतेषुमथ मानवम्॥२०॥

‘सोम देवता का शिशिर नामक अस्त्र, त्वष्टा (विश्वकर्मा) का अत्यन्त दारुण अस्त्र, भगदेवता का भी भयंकर अस्त्र तथा मनु का शीतेषु नामक अस्त्र भी तुम्हें देता हूँ॥ २० ॥

एतान् राम महाबाहो कामरूपान् महाबलान्।
गृहाण परमोदारान् क्षिप्रमेव नृपात्मज॥२१॥

‘महाबाहु राजकुमार श्रीराम! ये सभी अस्त्र इच्छानुसार रूप धारण करने वाले, महान् बल से सम्पन्न तथा परम उदार हैं,तुम शीघ्र ही इन्हें ग्रहण करो’ ॥ २१॥

स्थितस्तु प्राङ्मुखो भूत्वा शुचिर्मुनिवरस्तदा।
ददौ रामाय सुप्रीतो मन्त्रग्राममनुत्तमम्॥२२॥

ऐसा कहकर मुनिवर विश्वामित्रजी उस समय स्नान आदिसे शुद्ध हो पूर्वाभिमुख होकर बैठ गये और अत्यन्त प्रसन्नताके साथ उन्होंने श्रीरामचन्द्रजीको उन सभी उत्तम अस्त्रोंका उपदेश दिया॥ २२॥

सर्वसंग्रहणं येषां दैवतैरपि दुर्लभम्।
तान्यस्त्राणि तदा विप्रो राघवाय न्यवेदयत्॥ २३॥

जिन अस्त्रों का पूर्ण रूप से संग्रह करना देवताओं के लिये भी दुर्लभ है, उन सब को विप्रवर विश्वामित्रजी नेश्रीरामचन्द्रजी को समर्पित कर दिया॥ २३ ॥

जपतस्तु मुनेस्तस्य विश्वामित्रस्य धीमतः।
उपतस्थुर्महार्हाणि सर्वाण्यस्त्राणि राघवम्॥ २४॥
ऊचुश्च मुदिता रामं सर्वे प्राञ्जलयस्तदा।
इमे च परमोदार किंकरास्तव राघव॥ २५॥
यद्यदिच्छसि भद्रं ते तत्सर्वं करवाम वै।

बुद्धिमान् विश्वामित्रजी ने ज्यों ही जप आरम्भ किया त्यों ही वे सभी परम पूज्य दिव्यास्त्र स्वतः आकर श्रीरघुनाथजी के पास उपस्थित हो गये और अत्यन्त हर्ष में भरकर उस समय श्रीरामचन्द्रजी से हाथ जोड़कर कहने लगे—’परम उदार रघुनन्दन ! आपका कल्याण हो। हम सब आपके किङ्कर हैं। आप हमसे जो-जो सेवा लेना चाहेंगे, वह सब हम करनेको तैयार रहेंगे’। २४-२५ १/२ ॥

ततो रामः प्रसन्नात्मा तैरित्युक्तो महाबलैः॥२६॥
प्रतिगृह्य च काकुत्स्थः समालभ्य च पाणिना।
मानसा मे भविष्यध्वमिति तान्यभ्यचोदयत्॥ २७॥

उन महान् प्रभावशाली अस्त्रों के इस प्रकार कहने पर श्रीरामचन्द्र जी मन-ही-मन बहुत प्रसन्न हुए और उन्हें ग्रहण करने के पश्चात् हाथ से उनका स्पर्श करके बोले—’आप सब मेरे मन में निवास करें’। २६-२७॥

ततः प्रीतमना रामो विश्वामित्रं महामुनिम्।
अभिवाद्य महातेजा गमनायोपचक्रमे ॥२८॥

तदनन्तर महातेजस्वी श्रीराम ने प्रसन्नचित्त होकर महामुनि विश्वामित्र को प्रणाम किया और आगे की यात्रा आरम्भ की॥

सर्ग २८ 

प्रतिगृह्य ततोऽस्त्राणि प्रहृष्टवदनः शुचिः।
गच्छन्नेव च काकुत्स्थो विश्वामित्रमथाब्रवीत्॥१॥

उन अस्त्रों को ग्रहण करके परम पवित्र श्रीराम का मुख प्रसन्नता से खिल उठा था। वे चलते-चलते ही विश्वामित् रसे बोले- ॥१॥

गृहीतास्त्रोऽस्मि भगवन् दुराधर्षः सुरैरपि।
अस्त्राणां त्वहमिच्छामि संहारान् मुनिपुंगव॥२॥

‘भगवन्! आपकी कृपा से इन अस्त्रों को ग्रहण करके मैं देवताओं के लिये भी दुर्जय हो गया हूँ। । मुनिश्रेष्ठ! अब मैं अस्त्रों की संहार विधि जानना चाहता हूँ’॥२॥

एवं ब्रुवति काकुत्स्थे विश्वामित्रो महातपाः।
संहारान् व्याजहाराथ धृतिमान् सुव्रतः शुचिः॥ ३॥

ककुत्स्थकुलतिलक श्रीराम के ऐसा कहने पर महातपस्वी, धैर्यवान्, उत्तम व्रतधारी और पवित्र विश्वामित्र मुनि ने उन्हें अस्त्रों की संहार विधि का उपदेश दिया॥३॥

सत्यवन्तं सत्यकीर्तिं धृष्टं रभसमेव च।
प्रतिहारतरं नाम पराङ्मुखमवाङ्मुखम्॥४॥
लक्ष्यालक्ष्याविमौ चैव दृढनाभसुनाभको।
दशाक्षशतवक्त्रौ च दशशीर्षशतोदरौ॥५॥
पद्मनाभमहानाभौ दुन्दुनाभस्वनाभको।
ज्योतिषं शकुनं चैव नैरास्यविमलावुभौ॥६॥
यौगंधरविनिद्रौ च दैत्यप्रमथनौ तथा।
शुचिबाहुर्महाबाहुनिष्कलिर्विरुचस्तथा।
सार्चिमाली धृतिर्माली वृत्तिमान् रुचिरस्तथा॥ ७॥
पित्र्यः सौमनसश्चैव विधूतमकरावुभौ।
परवीरं रतिं चैव धनधान्यौ च राघव॥८॥
कामरूपं कामरुचिं मोहमावरणं तथा।
जृम्भकं सर्पनाथं च पन्थानवरुणौ तथा॥९॥
कृशाश्वतनयान् राम भास्वरान् कामरूपिणः।
प्रतीच्छ मम भद्रं ते पात्रभूतोऽसि राघव॥१०॥

तदनन्तर वे बोले—’रघुकुलनन्दन राम! तुम्हारा कल्याण हो! तुम अस्त्र विद्या के सुयोग्य पात्र हो; अतः निम्नाङ्कित अस्त्रों को भी ग्रहण करो—सत्यवान्, सत्यकीर्ति, धृष्ट, रभस, प्रतिहारतर, प्रामख, अवाङ्मख, लक्ष्य, अलक्ष्य, दृढ़नाभ, सुनाभ, दशाक्ष, शतवक्त्र, दशशीर्ष, शतोदर, पद्मनाभ, महानाभ, दुन्दुनाभ, स्वनाभ, ज्योतिष, शकुन, नैरास्य, विमल, दैत्यनाशक यौगंधर और विनिद्र, शुचिबाहु, महाबाहु, निष्कलि, विरुच, सार्चिमाली, धृतिर्माली, वृत्तिमान्, रुचिर, पित्र्य, सौमनस, विधूत, मकर, परवीर, रति, धन, धान्य, कामरूप, कामरुचि, मोह, आवरण, जृम्भक, सर्पनाथ, पन्थान और वरुण—ये सभी प्रजापति कृशाश्व के पुत्र हैं। ये इच्छानुसार रूप धारण करने वाले तथा परम तेजस्वी हैं तुम इन्हें ग्रहण करो’ ॥ ४–१०॥

बाढमित्येव काकुत्स्थः प्रहृष्टेनान्तरात्मना।
दिव्यभास्वरदेहाश्च मूर्तिमन्तः सुखप्रदाः॥११॥

तब ‘बहुत अच्छा’ कहकर श्रीरामचन्द्रजी ने प्रसन्न मन से उन अस्त्रों को ग्रहण किया। उन मूर्तिमान् अस्त्रों के शरीर दिव्य तेज से उद्भासित हो रहे थे। वे अस्त्र जगत् को सुख देनेवाले थे॥ ११ ॥

केचिदंगारसदृशाः केचिद् धूमोपमास्तथा।
चन्द्रार्कसदृशाः केचित् प्रह्वाञ्जलिपुटास्तथा॥ १२॥

उनमें से कितने ही अंगारों के समान तेजस्वी थे। कितने ही धूम के समान काले प्रतीत होते थे तथा कुछ अस्त्र सूर्य और चन्द्रमा के समान प्रकाशमान थे। वे सब-के-सब हाथ जोड़कर श्रीरामके समक्ष खड़े हुए॥ १२॥

रामं प्राञ्जलयो भूत्वाब्रुवन् मधुरभाषिणः।
इमे स्म नरशार्दूल शाधि किं करवाम ते॥१३॥

उन्होंने अञ्जलि बाँधे मधुर वाणी में श्रीराम से इस प्रकार कहा–’पुरुषसिंह! हम लोग आपके दास हैं। आज्ञा कीजिये, हम आपकी क्या सेवा करें?’ ।। १३॥

गम्यतामिति तानाह यथेष्टं रघुनन्दनः।
मानसाः कार्यकालेषु साहाय्यं मे करिष्यथ॥ १४॥

तब रघुकुलनन्दन राम ने उनसे कहा—’इस समय तो आप लोग अपने अभीष्ट स्थान को जायँ; परंतु आवश्यकता के समय मेरे मन में स्थित होकर सदा मेरी सहायता करते रहें’ ।। १४॥

अथ ते राममामन्त्र्य कृत्वा चापि प्रदक्षिणम्।
एवमस्त्विति काकुत्स्थमुक्त्वा जग्मुर्यथागतम्॥ १५॥

तत्पश्चात् वे श्रीराम की परिक्रमा करके उनसे विदा ले उनकी आज्ञा के अनुसार कार्य करने की प्रतिज्ञा करके जैसे आये थे, वैसे चले गये॥ १५ ॥

स च तान् राघवो ज्ञात्वा विश्वामित्रं महामुनिम्।
गच्छन्नेवाथ मधुरं श्लक्ष्णं वचनमब्रवीत्॥१६॥
किमेतन्मेघसंकाशं पर्वतस्याविदूरतः।
वृक्षखण्डमितो भाति परं कौतूहलं हि मे॥१७॥

इस प्रकार उन अस्त्रों का ज्ञान प्राप्त करके श्रीरघुनाथजी ने चलते-चलते ही महामुनि विश्वामित्र से मधुर वाणी में पूछा—’भगवन्! सामने वाले पर्वत के पास ही जो यह मेघों की घटा के समान सघन वृक्षों से भरा स्थान दिखायी देता है, क्या है ? उसके विषय में जानने के लिये मेरे मन में बड़ी उत्कण्ठा हो रही है। १६-१७॥

दर्शनीयं मृगाकीर्णं मनोहरमतीव च।
नानाप्रकारैः शकुनैवल्गुभाषैरलंकृतम्॥१८॥

‘यह दर्शनीय स्थान मृगों के झुंड से भरा हुआ होने के कारण अत्यन्त मनोहर प्रतीत होता है। नाना प्रकार के पक्षी अपनी मधुर शब्दावली से इस स्थान की शोभा बढ़ाते हैं॥ १८॥

निःसृताःस्मो मुनिश्रेष्ठ कान्ताराद् रोमहर्षणात्।
अनया त्ववगच्छामि देशस्य सुखवत्तया॥१९॥

‘मुनिश्रेष्ठ ! इस प्रदेशकी इस सुखमयी स्थिति से यह जान पड़ता है कि अब हम लोग उस रोमाञ्चकारी दुर्गम ताटका वन से बाहर निकल आये हैं॥ १९॥

सर्वं मे शंस भगवन् कस्याश्रमपदं त्विदम्।
सम्प्राप्ता यत्र ते पापा ब्रह्मघ्ना दुष्टचारिणः॥ २०॥
तव यज्ञस्य विघ्नाय दुरात्मानो महामुने।
भगवंस्तस्य को देशः सा यत्र तव याज्ञिकी॥ २१॥
रक्षितव्या क्रिया ब्रह्मन् मया वध्याश्च राक्षसाः।
एतत् सर्वं मुनिश्रेष्ठ श्रोतुमिच्छाम्यहं प्रभो॥२२॥

‘भगवन्! मुझे सब कुछ बताइये यह किसका आश्रम है? भगवन्! महामुने! जहाँ आपकी यज्ञक्रिया हो रही है, जहाँ वे पापी, दुराचारी, ब्रह्महत्यारे, दुरात्मा राक्षस आपके यज्ञ में विघ्न डालने के लिये आया करते हैं और जहाँ मुझे यज्ञ की रक्षा तथा राक्षसों के वध का कार्य करना है, उस आपके आश्रमका कौन-सा देश है ? ब्रह्मन् ! मुनिश्रेष्ठ प्रभो! यह सब मैं सुनना चाहता हूँ’। २०–२२॥

सर्ग २९

अथ तस्याप्रमेयस्य वचनं परिपृच्छतः।
विश्वामित्रो महातेजा व्याख्यातुमुपचक्रमे॥१॥

अपरिमित प्रभावशाली भगवान् श्रीराम का वचन सुनकर महातेजस्वी विश्वामित्र ने उनके प्रश्नका उत्तर देना आरम्भ किया— ॥१॥

इह राम महाबाहो विष्णुर्देवनमस्कृतः।
वर्षाणि सुबहूनीह तथा युगशतानि च॥२॥
तपश्चरणयोगार्थमुवास सुमहातपाः।
एष पूर्वाश्रमो राम वामनस्य महात्मनः॥३॥

‘महाबाहु श्रीराम! पूर्वकाल में यहाँ देववन्दित भगवान् विष्णु ने बहुत वर्षों एवं सौ युगों तक तपस्या के लिये निवास किया था। उन्होंने यहाँ बहुत बड़ी तपस्या की थी। यह स्थान महात्मा वामन का वामन अवतार धारण करने को उद्यत हुए श्री विष्णुका अवतार ग्रहण से पूर्व आश्रम था॥२-३॥

सिद्धाश्रम इति ख्यातः सिद्धो ह्यत्र महातपाः।
एतस्मिन्नेव काले तु राजा वैरोचनिर्बलिः॥४॥
निर्जित्य दैवतगणान् सेन्द्रान् सहमरुद्गणान्।
कारयामास तद्राज्यं त्रिषु लोकेषु विश्रुतः॥५॥

‘इसकी सिद्धाश्रम के नाम से प्रसिद्धि थी; क्योंकि यहाँ महातपस्वी विष्णु को सिद्धि प्राप्त हुई थी। जब वे तपस्या करते थे, उसी समय विरोचन कुमार राजा बलि ने इन्द्र और मरुद्गणों सहित समस्त देवताओं को पराजित करके उनका राज्य अपने अधिकार में कर लिया था। वे तीनों लोकों में विख्यात हो गये थे। ४-५॥

यज्ञं चकार सुमहानसुरेन्द्रो महाबलः।
बलेस्तु यजमानस्य देवाः साग्निपुरोगमाः।
समागम्य स्वयं चैव विष्णुमूचुरिहाश्रमे॥६॥

‘उन महाबली महान् असुरराज ने एक यज् ञका आयोजन किया। उधर बलि यज्ञ में लगे हुए थे, इधर अग्नि आदि देवता स्वयं इस आश्रम में पधार कर भगवान् विष्णु से बोले—॥

बलिर्वैरोचनिर्विष्णो यजते यज्ञमुत्तमम्।
असमाप्तव्रते तस्मिन् स्वकार्यमभिपद्यताम्॥७॥

“सर्वव्यापी परमेश्वर! विरोचन कुमार बलि एक उत्तम यज्ञ का अनुष्ठान कर रहे हैं। उनका वह यज्ञ सम्बन्धी नियम पूर्ण होने से पहले ही हमें अपना कार्य सिद्ध कर लेना चाहिये॥७॥

ये चैनमभिवर्तन्ते याचितार इतस्ततः।
यच्च यत्र यथावच्च सर्वं तेभ्यः प्रयच्छति॥८॥

“इस समय जो भी याचक इधर-उधर से आकर उनके यहाँ याचना के लिये उपस्थित होते हैं, वे गो, भूमि और सुवर्ण आदि सम्पत्तियों में से जिस वस्तु को भी लेना चाहते हैं, उनको वे सारी वस्तुएँ राजा बलि यथावत्-रूप से अर्पित करते हैं॥८॥

स त्वं सुरहितार्थाय मायायोगमुपाश्रितः।
वामनत्वं गतो विष्णो कुरु कल्याणमुत्तमम्॥९॥

“अतः विष्णो! आप देवताओं के हित के लिये अपनी योगमाया का आश्रय ले वामनरूप धारण करके उस यज्ञ में जाइये और हमारा उत्तम कल्याण साधन कीजिये’ ॥ ९॥

एतस्मिन्नन्तरे राम कश्यपोऽग्निसमप्रभः।
अदित्या सहितो राम दीप्यमान इवौजसा॥१०॥
देवीसहायो भगवान् दिव्यं वर्षसहस्रकम्।
व्रतं समाप्य वरदं तुष्टाव मधुसूदनम्॥११॥

‘श्रीराम! इसी समय अग्नि के समान तेजस्वी महर्षि कश्यप धर्मपत्नी अदिति के साथ अपने तेज से प्रकाशित होते हुए वहाँ आये। वे एक सहस्र दिव्य वर्षों तक चालू रहनेवाले महान् व्रत को अदिति देवी के साथ ही समाप्त करके आये थे। उन्होंने वरदायक भगवान् मधुसूदन की इस प्रकार स्तुति की— ॥ १० ११॥

तपोमयं तपोराशिं तपोमूर्तिं तपात्मकम्।
तपसा त्वां सुतप्तेन पश्यामि पुरुषोत्तमम्॥१२॥

“भगवन्! आप तपोमय हैं,तपस्या की राशि हैं, तप आपका स्वरूप है, आप ज्ञानस्वरूप हैं मैं भलीभाँति तपस्या करके उसके प्रभाव से आप पुरुषोत्तम का दर्शन कर रहा हूँ॥१२॥

शरीरे तव पश्यामि जगत् सर्वमिदं प्रभो।
त्वमनादिरनिर्देश्यस्त्वामहं शरणं गतः॥१३॥

“प्रभो! मैं इस सारे जगत् को आपके शरीर में स्थित देखता हूँ। आप अनादि हैं। देश, काल और वस्तु की सीमा से परे होने के कारण आपका – इदमित्थंरूप से निर्देश नहीं किया जा सकता, मैं आपकी शरण में आया हूँ’॥ १३॥

तमुवाच हरिः प्रीतः कश्यपं गतकल्मषम्।
वरं वरय भद्रं ते वरार्होऽसि मतो मम॥१४॥

‘कश्यप जी के सारे पाप धुल गये थे। भगवान् श्रीहरि ने अत्यन्त प्रसन्न होकर उनसे कहा—’महर्षे! तुम्हारा कल्याण हो। तुम अपनी इच्छा के अनुसार कोई वर माँगो; क्योंकि तुम मेरे विचार से वर पाने के योग्य हो’॥ १४॥

तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य मारीचः कश्यपोऽब्रवीत्।
अदित्या देवतानां च मम चैवानुयाचितम्॥ १५॥
वरं वरद सुप्रीतो दातुमर्हसि सुव्रत।
पुत्रत्वं गच्छ भगवन्नदित्या मम चानघ॥१६॥

‘भगवान् का यह वचन सुनकर मरीचिनन्दन कश्यप ने कहा-‘उत्तम व्रत का पालन करने वाले वरदायक परमेश्वर! सम्पूर्ण देवताओं की, अदिति की तथा मेरी भी आपसे एक ही बातके लिये बारम्बार याचना है। आप अत्यन्त प्रसन्न होकर मुझे वह एक ही वर प्रदान करें। भगवन् ! निष्पाप नारायणदेव! आप मेरे और अदिति के पुत्र हो जायँ॥ १५-१६ ॥

भ्राता भव यवीयांस्त्वं शक्रस्यासुरसूदन।
शोकार्तानां तु देवानां साहाय्यं कर्तुमर्हसि ॥१७॥

“असुरसूदन! आप इन्द्र के छोटे भाई हों और शोक से पीड़ित हुए इन देवताओं की सहायता करें। १७॥

अयं सिद्धाश्रमो नाम प्रसादात् ते भविष्यति।
सिद्धे कर्मणि देवेश उत्तिष्ठ भगवन्नितः॥१८॥

“देवेश्वर! भगवन्! आपकी कृपा से यह स्थान सिद्धाश्रम के नाम से विख्यात होगा। अब आपका तपरूप कार्य सिद्ध हो गया है,अतः यहाँ से उठिये’। १८॥

अथ विष्णुर्महातेजा अदित्यां समजायत।
वामनं रूपमास्थाय वैरोचनिमुपागमत्॥१९॥

‘तदनन्तर महातेजस्वी भगवान् विष्णु अदिति देवी के गर्भ से प्रकट हुए और वामनरूप धारण करके विरोचन कुमार बलि के पास गये॥ १९॥

त्रीन् पदानथ भिक्षित्वा प्रतिगृह्य च मेदिनीम्।
आक्रम्य लोकाँल्लोकार्थी सर्वलोकहिते रतः॥ २०॥
महेन्द्राय पुनः प्रादान्नियम्य बलिमोजसा।
त्रैलोक्यं स महातेजाश्चक्रे शक्रवशं पुनः॥ २१॥

‘सम्पूर्ण लोकों के हित में तत्पर रहने वाले भगवान् विष्णु बलि के अधिकार से त्रिलोकी का राज्य ले लेना चाहते थे; अतः उन्होंने तीन पग भूमि के लिये याचना करके उनसे भूमिदान ग्रहण किया और तीनों लोकों को आक्रान्त करके उन्हें पुनः देवराज इन्द्र को लौटा दिया। महातेजस्वी श्रीहरि ने अपनी शक्ति से बलि का निग्रह करके त्रिलोकी को पुनः इन्द्र के अधीन कर दिया॥ २०-२१॥

तेनैव पूर्वमाक्रान्त आश्रमः श्रमनाशनः।
मयापि भक्त्या तस्यैव वामनस्योपभुज्यते॥२२॥

‘उन्हीं भगवान् ने पूर्वकाल में यहाँ निवास किया था; इसलिये यह आश्रम सब प्रकार के श्रम (दुःखशोक) का नाश करनेवाला है। उन्हीं भगवान् वामन में भक्ति होने के कारण मैं भी इस स्थान को अपने उपयोग में लाता हूँ॥ २२॥

एनमाश्रममायान्ति राक्षसा विघ्नकारिणः।
अत्र ते पुरुषव्याघ्र हन्तव्या दुष्टचारिणः ॥२३॥

‘इसी आश्रमपर मेरे यज्ञ में विघ्न डालने वाले राक्षस आते हैं। पुरुषसिंह! यहीं तुम्हें उन दुराचारियों का वध करना है॥२३॥

अद्य गच्छामहे राम सिद्धाश्रममनुत्तमम्।
तदाश्रमपदं तात तवाप्येतद् यथा मम॥२४॥

‘श्रीराम ! अब हम लोग उस परम उत्तम सिद्धाश्रम में पहुँच रहे हैं। तात! वह आश्रम जैसे मेरा है, वैसे ही तुम्हारा भी है’ ॥ २४ ॥

इत्युक्त्वा परमप्रीतो गृह्य रामं सलक्ष्मणम्।
प्रविशन्नाश्रमपदं व्यरोचत महामुनिः।
शशीव गतनीहारः पुनर्वसुसमन्वितः॥ २५॥

ऐसा कहकर महामुनि ने बड़े प्रेम से श्रीराम और लक्ष्मण के हाथ पकड़ लिये और उन दोनों के साथ आश्रम में प्रवेश किया। उस समय पुनर्वसु नामक दो नक्षत्रों के बीचमें स्थित तुषाररहित चन्द्रमाकी भाँति उनकी शोभा हुई॥ २५ ॥

तं दृष्ट्वा मुनयः सर्वे सिद्धाश्रमनिवासिनः।
उत्पत्योत्पत्य सहसा विश्वामित्रमपूजयन्॥२६॥
यथार्ह चक्रिरे पूजां विश्वामित्राय धीमते।
तथैव राजपुत्राभ्यामकुर्वन्नतिथिक्रियाम्॥ २७॥

विश्वामित्रजी को आया देख सिद्धाश्रम में रहने वाले सभी तपस्वी उछलते-कूदते हुए सहसा उनके पास आये और सबने मिलकर उन बुद्धिमान् विश्वामित्रजी की यथोचित पूजा की। इसी प्रकार उन्होंने उन दोनों राजकुमारों का भी अतिथि- सत्कार किया॥ २६-२७॥

मुहूर्तमथ विश्रान्तौ राजपुत्रावरिंदमौ।
प्राञ्जली मुनिशार्दूलमूचतू रघुनन्दनौ ॥२८॥

दो घड़ी तक विश्राम करने के बाद रघुकुल को आनन्द देने वाले शत्रुदमन राजकुमार श्रीराम और लक्ष्मण हाथ जोड़कर मुनिवर विश्वामित्र से बोले-॥ २८॥

अद्यैव दीक्षां प्रविश भद्रं ते मुनिपुंगव।
सिद्धाश्रमोऽयं सिद्धः स्यात् सत्यमस्तु वचस्तव॥ २९॥

‘मुनिश्रेष्ठ ! आप आज ही यज्ञ की दीक्षा ग्रहण करें,आपका कल्याण हो। यह सिद्धाश्रम वास्तव में यथानाम तथागुण सिद्ध हो और राक्षसों के वध के विषयमें आपकी कही हुई बात सच्ची हो’ ॥ २९॥

एवमुक्तो महातेजा विश्वामित्रो महानृषिः।
प्रविवेश तदा दीक्षा नियतो नियतेन्द्रियः॥३०॥
कुमारावपि तां रात्रिमुषित्वा सुसमाहितौ।
प्रभातकाले चोत्थाय पूर्वां संध्यामुपास्य च॥ ३१॥
प्रशुची परमं जाप्यं समाप्य नियमेन च।
हताग्निहोत्रमासीनं विश्वामित्रमवन्दताम्॥३२॥

उनके ऐसा कहने पर महातेजस्वी महर्षि विश्वामित्र जितेन्द्रिय भाव से नियमपूर्वक यज्ञ की दीक्षा में प्रविष्ट हुए। वे दोनों राजकुमार भी सावधानी के साथ रात व्यतीत करके सबेरे उठे और स्नान आदि से शुद्ध हो प्रातःकाल की संध्योपासना तथा नियमपूर्वक सर्वश्रेष्ठ गायत्री मन्त्र का जप करने लगे। जप पूरा होने पर उन्होंने अग्निहोत्र करके बैठे हुए विश्वामित्रजी के चरणों में वन्दना की॥ ३०–३२॥

सर्ग ३०

अथ तौ देशकालज्ञौ राजपुत्रावरिंदमौ।
देशे काले च वाक्यज्ञावब्रूतां कौशिकं वचः॥

तदनन्तर देश और काल को जानने वाले शत्रुदमन राजकुमार श्रीराम और लक्ष्मण जो देश और काल के अनुसार बोलने योग्य वचन के मर्मज्ञ थे, कौशिक मुनि से इस प्रकार बोले ॥१॥

भगवञ्छ्रोतुमिच्छावो यस्मिन् काले निशाचरौ।
संरक्षणीयौ तौ ब्रूहि नातिवर्तेत तत्क्षणम्॥२॥

‘भगवन् ! अब हम दोनों यह सुनना चाहते हैं कि किस समय उन दोनों निशाचरों का आक्रमण होता है? जब कि हमें उन दोनों को यज्ञ भूमि में आने से रोकना है,कहीं ऐसा न हो, असावधानी में ही वह समय हाथ से निकल जाय; अतः उसे बता दीजिये’॥२॥।

एवं ब्रुवाणौ काकुत्स्थौ त्वरमाणौ युयुत्सया।
सर्वे ते मुनयः प्रीताः प्रशशंसुर्नृपात्मजौ॥३॥

ऐसी बात कहकर युद्ध की इच्छा से उतावले हुए उन दोनों ककुत्स्थवंशी राजकुमारों की ओर देखकर वे सब मुनि बड़े प्रसन्न हुए और उन दोनों बन्धुओं की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे॥३॥

अद्यप्रभृति षड्रानं रक्षतां राघवौ युवाम्।
दीक्षां गतो ह्येष मुनिौनित्वं च गमिष्यति॥४॥

वे बोले—’ये मुनिवर विश्वामित्रजी यज्ञ की दीक्षा ले चुके हैं; अतः अब मौन रहेंगे आप दोनों रघुवंशी वीर सावधान होकर आज से छः रातों तक इनके यज्ञ की रक्षा करते रहें’॥४॥

तौ तु तद्वचनं श्रुत्वा राजपुत्रौ यशस्विनौ।
अनिद्रं षडहोरात्रं तपोवनमरक्षताम्॥५॥

मुनियोंका यह वचन सुनकर वे दोनों यशस्वी राजकुमार लगातार छः दिन और छः रात तक उस तपोवन की रक्षा करते रहे; इस बीच में उन्होंने नींद भी नहीं ली।॥ ५॥

उपासांचक्रतुर्वीरौ यत्तौ परमधन्विनौ।
ररक्षतुर्मुनिवरं विश्वामित्रमरिंदमौ॥६॥

शत्रुओं का दमन करने वाले वे परम धनुर्धर वीर सतत सावधान रहकर मुनिवर विश्वामित्र के पास खड़े हो उनकी (और उनके यज्ञ की) रक्षा में लगे रहे॥६॥

अथ काले गते तस्मिन् षष्ठेऽहनि तदागते।
सौमित्रिमब्रवीद् रामो यत्तो भव समाहितः॥७॥

इस प्रकार कुछ काल बीत जाने पर जब छठा दिन आया, तब श्रीराम ने सुमित्राकुमार लक्ष्मण से कहा —’सुमित्रानन्दन! तुम अपने चित्त को एकाग्र करके सावधान हो जाओ’ ॥७॥

रामस्यैवं ब्रुवाणस्य त्वरितस्य युयुत्सया।
प्रजज्वाल ततो वेदिः सोपाध्यायपुरोहिता॥८॥

युद्ध की इच्छा से शीघ्रता करते हुए श्रीराम इस प्रकार कह ही रहे थे कि उपाध्याय (ब्रह्मा), पुरोहित (उपद्रष्टा) तथा अन्यान्य ऋत्विजों से घिरी हुई यज्ञ की वेदी सहसा प्रज्वलित हो उठी (वेदी का यह जलना राक्षसों के आगमन का सूचक उत्पात था) ॥ ८॥

सदर्भचमसमुक्का ससमित्कुसुमोच्चया।
विश्वामित्रेण सहिता वेदिर्जज्वाल सर्विजा॥९॥

इसके बाद कुश, चमस, मुक्, समिधा और फूलों के ढेरसे सुशोभित होनेवाली विश्वामित्र तथा ऋत्विजों सहित जो यज्ञ की वेदी थी, उसपर आहवनीय अग्नि प्रज्वलित हुई (अग्नि का यह प्रज्वलन यज्ञ के उद्देश्य से हुआ था)॥९॥

मन्त्रवच्च यथान्यायं यज्ञोऽसौ सम्प्रवर्तते।
आकाशे च महान् शब्दः प्रादुरासीद् भयानकः॥ १०॥

फिर तो शास्त्रीय विधि के अनुसार वेद-मन्त्रों के उच्चारणपूर्वक उस यज्ञ का कार्य आरम्भ हुआ। इसी समय आकाश में बड़े जोर का शब्द हुआ, जो बड़ा ही भयानक था॥ १०॥

आवार्य गगनं मेघो यथा प्रावृषि दृश्यते।
तथा मायां विकुर्वाणौ राक्षसावभ्यधावताम्॥ ११॥
मारीचश्च सुबाहुश्च तयोरनुचरास्तथा।
आगम्य भीमसंकाशा रुधिरौघानवासृजन्॥१२॥

जैसे वर्षाकाल में मेघों की घटा सारे आकाश को घेरकर छायी हुई दिखायी देती है, उसी प्रकार मारीच और सुबाहु नामक राक्षस सब ओर अपनी माया फैलाते हुए यज्ञमण्डप की ओर दौड़े आ रहे थे। उनके अनुचर भी साथ थे। उन भयंकर राक्षसों ने वहाँ आकर रक्त की धाराएँ बरसाना आरम्भ कर दिया। ११-१२॥

तां तेन रुधिरौघेण वेदी वीक्ष्य समुक्षिताम्।
सहसाभिद्रुतो रामस्तानपश्यत् ततो दिवि॥१३॥
तावापतन्तौ सहसा दृष्ट्वा राजीवलोचनः।
लक्ष्मणं त्वभिसम्प्रेक्ष्य रामो वचनमब्रवीत्॥१४॥

रक्त के उस प्रवाह से यज्ञ-वेदी के आस-पास की भूमि को भीगी हुई देख श्रीरामचन्द्र जी सहसा दौड़े और इधर-उधर दृष्टि डालने पर उन्होंने उन राक्षसों को आकाश में स्थित देखा। मारीच और सुबाहुको सहसा आते देख कमलनयन श्रीराम ने लक्ष्मण की ओर देखकर कहा- ॥ १३-१४॥

पश्य लक्ष्मण दुर्वृत्तान् राक्षसान् पिशिताशनान्।
मानवास्त्रसमाधूताननिलेन यथा घनान्॥१५॥
करिष्यामि न संदेहो नोत्सहे हन्तुमीदृशान्।

‘लक्ष्मण! वह देखो, मांस भक्षण करने वाले दुराचारी राक्षस आ पहुँचे, मैं मानवास्त्रसे इन सबको उसी प्रकार मार भगाऊँगा, जैसे वायु के वेग से बादल छिन्न-भिन्न हो जाते हैं। मेरे इस कथनमें तनिक भी संदेह नहीं है,ऐसे कायरों को मैं मारना नहीं चाहता’। १५ १/२॥

इत्युक्त्वा वचनं रामश्चापे संधाय वेगवान्॥ १६॥
मानवं परमोदारमस्त्रं परमभास्वरम्।
चिक्षेप परमक्रुद्धो मारीचोरसि राघवः॥१७॥

ऐसा कहकर वेगशाली श्रीराम ने अपने धनुष पर परम उदार मानवास्त्रका संधान किया। वह अस्त्र अत्यन्त तेजस्वी था। श्रीरामने बड़े रोष में भरकर मारीच की छाती में उस बाण का प्रहार किया। १६-१७॥

स तेन परमास्त्रेण मानवेन समाहतः।
सम्पूर्ण योजनशतं क्षिप्तः सागरसम्प्लवे॥१८॥

उस उत्तम मानवास्त्र का गहरा आघात लगने से मारीच पूरे सौ योजन की दूरी पर समुद्र के जल में जा गिरा॥ १८॥

विचेतनं विघूर्णन्तं शीतेषुबलपीडितम्।
निरस्तं दृश्य मारीचं रामो लक्ष्मणमब्रवीत्॥ १९॥

शीतेषु नामक मानवास्त्र से पीड़ित हो मारीच अचेत-सा होकर चक्कर काटता हुआ दूर चला जा रहा है यह देख श्रीरामने लक्ष्मणसे कहा- ॥१९॥

पश्य लक्ष्मण शीतेषु मानवं मनुसंहितम्।
मोहयित्वा नयत्येनं न च प्राणैर्वियुज्यते॥२०॥

‘लक्ष्मण! देखो, मनु के द्वारा प्रयुक्त शीतेषु नामक मानवास्त्र इस राक्षस को मूर्छित करके दूर लिये जा रहा है, किंतु उसके प्राण नहीं ले रहा है।॥ २० ॥

इमानपि वधिष्यामि निघृणान् दुष्टचारिणः।
राक्षसान् पापकर्मस्थान् यज्ञघ्नान् रुधिराशनान्॥ २१॥

‘अब यज्ञ में विघ्न डालने वाले इन दूसरे निर्दय, दुराचारी, पापकर्मी एवं रक्तभोजी राक्षसों को भी मार गिराता हूँ’॥ २१॥

इत्युक्त्वा लक्ष्मणं चाशु लाघवं दर्शयन्निव।
विगृह्य सुमहच्चास्त्रमाग्नेयं रघुनन्दनः॥२२॥
सुबाहूरसि चिक्षेप स विद्धः प्रापतद् भुवि।
शेषान् वायव्यमादाय निजघान महायशाः।
राघवः परमोदारो मुनीनां मुदमावहन्॥ २३॥

लक्ष्मण से ऐसा कहकर रघुनन्दन श्रीराम ने अपने हाथ की फुर्ती दिखाते हुए-से शीघ्र ही महान् आग्नेयास्त्र का संधान करके उसे सुबाहु की छाती पर चलाया । उसकी चोट लगते ही वह मरकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। फिर महायशस्वी परम उदार रघुवीर ने वायव्यास्त्र लेकर शेष निशाचरों का भी संहार कर डाला और मुनियों को परम आनन्द प्रदान किया। २३॥

स हत्वा राक्षसान् सर्वान् यज्ञघ्नान् रघुनन्दनः।
ऋषिभिः पूजितस्तत्र यथेन्द्रो विजये पुरा॥२४॥

इस प्रकार रघुकुलनन्दन श्रीराम यज्ञ में विघ्न डालने वाले समस्त राक्षसों का वध करके वहाँ ऋषियों द्वारा उसी प्रकार सम्मानित हुए जैसे पूर्वकाल में देवराज इन्द्र असुरों पर विजय पाकर महर्षियों द्वारा पूजित हुए थे॥ २४॥

अथ यज्ञे समाप्ते तु विश्वामित्रो महामुनिः।
निरीतिका दिशो दृष्ट्वा काकुत्स्थमिदमब्रवीत्॥ २५॥

यज्ञ समाप्त होने पर महामुनि विश्वामित्र ने सम्पूर्ण दिशाओं को विघ्न-बाधाओं से रहित देख श्रीरामचन्द्रजीसे कहा- ॥ २५ ॥

कृतार्थोऽस्मि महाबाहो कृतं गुरुवचस्त्वया।
सिद्धाश्रममिदं सत्यं कृतं वीर महायशः।
स हि रामं प्रशस्यैवं ताभ्यां संध्यामुपागमत्॥ २६॥

‘महाबाहो! मैं तुम्हें पाकर कृतार्थ हो गया। तुमने गुरु की आज्ञा का पूर्णरूप से पालन किया। महायशस्वी वीर! तुमने इस सिद्धाश्रम का नाम सार्थक कर दिया।’ इस प्रकार श्रीरामचन्द्रजी की प्रशंसा करके मुनि ने उन दोनों भाइयों के साथ संध्योपासना की॥२६॥

सर्ग ३१

अथ तां रजनीं तत्र कृतार्थौ रामलक्ष्मणौ।
ऊषतुर्मुदितौ वीरौ प्रहृष्टेनान्तरात्मना॥१॥

तदनन्तर (विश्वामित्र के यज्ञ की रक्षा करके) कृतकृत्य हुए श्रीराम और लक्ष्मण ने उस यज्ञशाला में ही वह रात बितायी। उस समय वे दोनों वीर बड़े प्रसन्न थे। उनका हृदय हर्षोल्लाससे परिपूर्ण था॥ १॥

प्रभातायां तु शर्वर्यां कृतपौर्वाणिकक्रियौ।
विश्वामित्रमृषींश्चान्यान् सहितावभिजग्मतुः॥ २ ॥

रात बीतने पर जब प्रातःकाल आया, तब वे दोनों भाई पूर्वाण काल के नित्य-नियम से निवृत्त हो विश्वामित्र मुनि तथा अन्य ऋषियों के पास साथ-साथ गये॥२॥

अभिवाद्य मुनिश्रेष्ठं ज्वलन्तमिव पावकम्।
ऊचतुः परमोदारं वाक्यं मधुरभाषिणौ ॥३॥

वहाँ जाकर उन्होंने प्रज्वलित अग्नि के समान तेजस्वी मुनिश्रेष्ठ! विश्वामित्र को प्रणाम किया और मधुर भाषा में यह परम उदार वचन कहा- ॥३॥

इमौ स्म मुनिशार्दूल किंकरौ समुपागतौ।
आज्ञापय मुनिश्रेष्ठ शासनं करवाव किम्॥४॥

‘मुनिप्रवर! हम दोनों किङ्कर आपकी सेवा में उपस्थित हैं। मुनिश्रेष्ठ! आज्ञा दीजिये, हम क्या सेवा करें?’ ॥ ४॥

एवमुक्ते तयोर्वाक्ये सर्व एव महर्षयः।
विश्वामित्रं पुरस्कृत्य रामं वचनमब्रुवन्॥५॥

उन दोनों के ऐसा कहने पर वे सभी महर्षि विश्वामित्र को आगे करके श्रीरामचन्द्रजी से बोले-॥ ५॥

मैथिलस्य नरश्रेष्ठ जनकस्य भविष्यति।
यज्ञः परमधर्मिष्ठस्तत्र यास्यामहे वयम्॥६॥

‘नरश्रेष्ठ! मिथिला के राजा जनक का परम धर्ममय यज्ञ प्रारम्भ होने वाला है उसमें हम सब लोग जायँगे॥६॥

त्वं चैव नरशार्दूल सहास्माभिर्गमिष्यसि।
अद्भुतं च धनूरत्नं तत्र त्वं द्रष्टुमर्हसि ॥७॥

‘पुरुषसिंह! तुम्हें भी हमारे साथ वहाँ चलना है। वहाँ एक बड़ा ही अद्भुत धनुषरत्न है, तुम्हें उसे देखना चाहिये॥७॥

तद्धि पूर्वं नरश्रेष्ठ दत्तं सदसि दैवतैः।
अप्रमेयबलं घोरं मखे परमभास्वरम्॥८॥

‘पुरुषप्रवर! पहले कभी यज्ञ में पधारे हुए देवताओं ने जनक के किसी पूर्वपुरुष को वह धनुष दिया था। वह कितना प्रबल और भारी है, इसका कोई माप-तोल नहीं है। वह बहुत ही प्रकाशमान एवं भयंकर है॥ ८॥

नास्य देवा न गन्धर्वा नासुरा न च राक्षसाः।
कर्तुमारोपणं शक्ता न कथंचन मानुषाः॥९॥

‘मनुष्यों की तो बात ही क्या है देवता, गन्धर्व, असुर तथा राक्षस भी किसी तरह उसकी प्रत्यञ्चा नहीं चढ़ा पाते॥९॥

धनुषस्तस्य वीर्यं हि जिज्ञासन्तो महीक्षितः।
न शेकुरारोपयितुं राजपुत्रा महाबलाः॥१०॥

‘उस धनुष की शक्ति का पता लगाने के लिये कितने ही महाबली राजा और राजकुमार आये; किंतु कोई भी उसे चढ़ा न सके॥१०॥

तद्धनुर्नरशार्दूल मैथिलस्य महात्मनः।
तत्र द्रक्ष्यसि काकुत्स्थ यज्ञं च परमाद्भुतम्॥ ११॥

‘ककुत्स्थकुलनन्दन पुरुषसिंह राम! वहाँ चलने से तुम महामना मिथिलानरेश के उस धनुष को तथा उनके परम अद्भुत यज्ञ को भी देख सकोगे॥११॥

तद्धि यज्ञफलं तेन मैथिलेनोत्तमं धनुः ।
याचितं नरशार्दूल सुनाभं सर्वदैवतैः॥१२॥

‘नरश्रेष्ठ! मिथिलानरेश ने अपने यज्ञ के फलरूप में उस उत्तम धनुषको माँगा था; अतः सम्पूर्ण देवताओं तथा भगवान् शङ्कर ने उन्हें वह धनुष प्रदान किया था। उस धनुषका मध्यभाग जिसे मुट्ठीसे पकड़ा जाता है, बहुत ही सुन्दर है॥ १२॥

आयागभूतं नृपतेस्तस्य वेश्मनि राघव।
अर्चितं विविधैर्गन्धैधूपैश्चागुरुगन्धिभिः॥१३॥

‘रघुनन्दन! राजा जनक के महल में वह धनुष पूजनीय देवता की भाँति प्रतिष्ठित है और नाना प्रकार के गन्ध, धूप तथा अगुरु आदि सुगन्धित पदार्थों से उसकी पूजा होती है’॥ १३॥

एवमुक्त्वा मुनिवरः प्रस्थानमकरोत् तदा।
सर्षिसङ्घः सकाकुत्स्थ आमन्त्र्य वनदेवताः॥ १४॥

ऐसा कहकर मुनिवर विश्वामित्रजी ने वनदेवताओं से आज्ञा ली और ऋषिमण्डली तथा राम लक्ष्मणके साथ वहाँ से प्रस्थान किया।। १४॥

स्वस्ति वोऽस्तु गमिष्यामि सिद्धः सिद्धाश्रमादहम्। ।
उत्तरे जाह्नवीतीरे हिमवन्तं शिलोच्चयम्॥१५॥

चलते समय उन्होंने वनदेवताओं से कहा—’मैं अपना यज्ञकार्य सिद्ध करके इस सिद्धाश्रम से जा रहा हूँ। गंगा के उत्तर तट पर होता हुआ हिमालय पर्वतकी उपत्यका में जाऊँगा आप लोगोंका कल्याण हो’॥ १५॥

इत्युक्त्वा मुनिशार्दूलः कौशिकः स तपोधनः।
उत्तरां दिशमुद्दिश्य प्रस्थातुमुपचक्रमे॥१६॥

ऐसा कहकर तपस्या के धनी मुनिश्रेष्ठ कौशिक ने उत्तर दिशा की ओर प्रस्थान आरम्भ किया॥१६॥

तं व्रजन्तं मुनिवरमन्वगादनुसारिणाम्।
शकटीशतमात्रं तु प्रयाणे ब्रह्मवादिनाम्॥१७॥

उस समय—प्रस्थान के समय यात्रा करते हुए मुनिवर विश्वामित्र के पीछे उनके साथ जाने वाले ब्रह्मवादी महर्षियों की सौ गाड़ियाँ चलीं॥ १७॥

मृगपक्षिगणाश्चैव सिद्धाश्रमनिवासिनः।
अनुजग्मुर्महात्मानं विश्वामित्रं तपोधनम्॥१८॥

सिद्धाश्रममें निवास करने वाले मृग और पक्षी भी तपोधन विश्वामित्र के पीछे-पीछे जाने लगे॥ १८ ॥

निवर्तयामास ततः सर्षिसङ्घः स पक्षिणः।
ते गत्वा दूरमध्वानं लम्बमाने दिवाकरे॥१९॥
वासं चक्रुर्मुनिगणाः शोणाकूले समाहिताः।
तेऽस्तं गते दिनकरे स्नात्वा हुतहुताशनाः॥२०॥

कुछ दूर जानेपर ऋषिमण्डली सहित विश्वामित्र ने उन पशु-पक्षियों को लौटा दिया फिर दूर तक का मार्ग तय कर लेने के बाद जब सूर्य अस्ताचल को जाने लगे, तब उन ऋषियों ने पूर्ण सावधान रहकर शोणभद्र के तट पर पड़ाव डाला। जब सूर्यदेव अस्त हो गये, तब स्नान करके उन सबने अग्निहोत्र का कार्य पूर्ण किया॥

विश्वामित्रं पुरस्कृत्य निषेदुरमितौजसः।
रामोऽपि सहसौमित्रिर्मुनीस्तानभिपूज्य च॥२१॥
अग्रतो निषसादाथ विश्वामित्रस्य धीमतः।

इसके बाद वे सभी अमिततेजस्वी ऋषि मुनिवर विश्वामित्र को आगे करके बैठे; फिर लक्ष्मणसहित श्रीराम भी उन ऋषियोंका आदर करते हुए बुद्धिमान् विश्वामित्रजीके सामने बैठ गये॥ २१ १/२ ।।

अथ रामो महातेजा विश्वामित्रं तपोधनम्॥२२॥
पप्रच्छ मुनिशार्दूलं कौतूहलसमन्वितम्।

तत्पश्चात् महातेजस्वी श्रीराम ने तपस्या के धनी मुनिश्रेष्ठ विश्वामित्र से कौतूहलपूर्वक पूछा- ॥ २२ १/२॥

भगवन् को न्वयं देशः समृद्धवनशोभितः॥२३॥
श्रोतुमिच्छामि भद्रं ते वक्तुमर्हसि तत्त्वतः।

भगवन् ! यह हरे-भरे समृद्धिशाली वन से सुशोभित देश कौन-सा है? मैं इसका परिचय सुनना चाहता हूँ। आपका कल्याण हो आप मुझे ठीक-ठीक इसका रहस्य बताइये’ ।।२३ १/२ ।।

नोदितो रामवाक्येन कथयामास सुव्रतः।
तस्य देशस्य निखिलमृषिमध्ये महातपाः॥२४॥

श्रीरामचन्द्रजी के इस प्रश्न से प्रेरित होकर उत्तम व्रत का पालन करने वाले महातपस्वी विश्वामित्र ने ऋषिमण्डली के बीच उस देशका पूर्णरूप से परिचय देना प्रारम्भ किया॥ २४ ॥

सर्ग ३२ 

ब्रह्मयोनिमहानासीत् कुशो नाम महातपाः।
अक्लिष्टव्रतधर्मज्ञः सज्जनप्रतिपूजकः॥१॥

(विश्वामित्रजी कहते हैं-) श्रीराम! पूर्वकाल में कुश नाम से प्रसिद्ध एक महातपस्वी राजा हो गये हैं। वे साक्षात् ब्रह्माजी के पुत्र थे। उनका प्रत्येक व्रत एवं संकल्प बिना किसी क्लेश या कठिनाई के ही पूर्ण होता था। वे धर्मके ज्ञाता, सत्पुरुषों का आदर करने वाले और महान् थे॥१॥

स महात्मा कुलीनायां युक्तायां सुमहाबलान्।
वैदर्थ्यां जनयामास चतुरः सदृशान् सुतान्॥२॥

उत्तम कुल में उत्पन्न विदर्भदेश की राजकुमारी उनकी पत्नी थी। उसके गर्भ से उन महात्मा नरेश ने चार पुत्र उत्पन्न किये, जो उन्हीं के समान थे॥२॥

कुशाम्बं कुशनाभं च असूर्तरजसं वसुम्।
दीप्तियुक्तान् महोत्साहान् क्षत्रधर्मचिकीर्षया॥ ३॥
तानुवाच कुशः पुत्रान् धर्मिष्ठान् सत्यवादिनः।
क्रियतां पालनं पुत्रा धर्मं प्राप्स्यथ पुष्कलम्॥४॥

उनके नाम इस प्रकार हैं-कुशाम्ब, कुशनाभ, असूर्तरजस’ तथा वसु, ये सब-के-सब तेजस्वी तथा महान् उत्साही थे। राजा कुशने ‘प्रजारक्षणरूप’ क्षत्रिय-धर्मके पालन की इच्छा से अपने उन धर्मिष्ठ तथा सत्यवादी पुत्रों से कहा—’पुत्रो! प्रजाका पालन करो, इससे तुम्हें धर्म का पूरा-पूरा फल प्राप्त होगा’। ३-४॥

धर्मारण्यमें पितृ-पूजनकी महत्ता बतायी गयी है।
कुशस्य वचनं श्रुत्वा चत्वारो लोकसत्तमाः।
निवेशं चक्रिरे सर्वे पुराणां नृवरास्तदा॥५॥

अपने पिता महाराज कुश की यह बात सुनकर उन चारों लोकशिरोमणि नरश्रेष्ठ राजकुमारों ने उस समय अपने-अपने लिये पृथक्-पृथक् नगर निर्माण कराया। ५॥

कुशाम्बस्तु महातेजाः कौशाम्बीमकरोत् पुरीम्।
कुशनाभस्तु धर्मात्मा पुरं चक्रे महोदयम्॥६॥

महातेजस्वी कुशाम्ब ने ‘कौशाम्बी’ पुरी बसायी (जिसे आजकल ‘कोसम’ कहते हैं)। धर्मात्मा कुशनाभने ‘महोदय’ नामक नगरका निर्माण कराया। ६॥

असूर्तरजसो नाम धर्मारण्यं महामतिः।
चक्रे पुरवरं राजा वसुनाम गिरिव्रजम्॥७॥

परम बुद्धिमान् असूर्तरजस ने ‘धर्मारण्य’ नामक एक श्रेष्ठ नगर बसाया तथा राजा वसुने ‘गिरिव्रज’ नगर की स्थापना की॥७॥

एषा वसुमती नाम वसोस्तस्य महात्मनः ।
एते शैलवराः पञ्च प्रकाशन्ते समन्ततः॥८॥

महात्मा वसु की यह ‘गिरिव्रज’ नामक राजधानी वसुमती के नामसे प्रसिद्ध हुई। इसके चारों ओर ये पाँच श्रेष्ठ पर्वत सुशोभित होते हैं ॥ ८॥ 

सुमागधी नदी रम्या मागधान् विश्रुताऽऽययौ।
पञ्चानां शैलमुख्यानां मध्ये मालेव शोभते॥९॥

यह रमणीय (सोन) नदी दक्षिण-पश्चिम की ओर से बहती हुई मगध देश में आयी है, इसलिये यहाँ ‘सुमागधी’ नाम से विख्यात हुई है। यह इन पाँच श्रेष्ठ पर्वतों के बीच में मालाकी भाँति सुशोभित हो रही है। ९॥

सैषा हि मागधी राम वसोस्तस्य महात्मनः।
पूर्वाभिचरिता राम सुक्षेत्रा सस्यमालिनी॥१०॥

श्रीराम ! इस प्रकार ‘मागधी’ नाम से प्रसिद्ध हुई यह सोन नदी पूर्वोक्त महात्मा वसु से सम्बन्ध रखती है। रघुनन्दन! यह दक्षिण-पश्चिम से आकर पूर्वोत्तर दिशा की ओर प्रवाहित हुई है। इसके दोनों तटों पर सुन्दर क्षेत्र (उपजाऊ खेत) हैं, अतः यह सदासस्य-मालाओं से अलंकृत (हरी-भरी खेती से सुशोभित) रहती है॥ १०॥

कुशनाभस्तु राजर्षिः कन्याशतमनुत्तमम्।
जनयामास धर्मात्मा घृताच्यां रघुनन्दन॥११॥

रघुकुल को आनन्दित करने वाले श्रीराम! धर्मात्मा राजर्षि कुशनाभ ने घृताची अप्सरा के गर्भ से परम उत्तम सौ कन्याओं को जन्म दिया॥११॥

तास्तु यौवनशालिन्यो रूपवत्यः स्वलंकृताः।
उद्यानभूमिमागम्य प्रावृषीव शतहदाः॥१२॥
गायन्त्यो नृत्यमानाश्च वादयन्त्यस्तु राघव।
आमोदं परमं जग्मुर्वराभरणभूषिताः॥१३॥

वे सब-की-सब सुन्दर रूप-लावण्य से सुशोभित थीं। धीरे-धीरे युवावस्था ने आकर उनके सौन्दर्य को और भी बढ़ा दिया। रघुवीर! एक दिन वस्त्र और आभूषणों से विभूषित हो वे सभी राजकन्याएँ उद्यानभूमि में आकर वर्षाऋतु में प्रकाशित होने वाली विद्युन्मालाओं की भाँति शोभा पाने लगीं। सुन्दर अलंकारों से अलंकृत हुई वे अंगनाएँ गाती, बजाती और नृत्य करती हुई वहाँ परम आमोद-प्रमोद में मग्न हो गयीं॥ १२-१३॥

अथ ताश्चारुसर्वाङ्यो रूपेणाप्रतिमा भुवि।
उद्यानभूमिमागम्य तारा इव घनान्तरे॥१४॥

उनके सभी अंग बड़े मनोहर थे। इस भूतल पर उनके रूप-सौन्दर्य की कहीं भी तुलना नहीं थी। उस उद्यान में आकर वे बादलों के ओट में कुछ-कुछ छिपी हुई तारिकाओं के समान शोभा पा रही थीं॥१४ ॥

ताः सर्वा गुणसम्पन्ना रूपयौवनसंयुताः।
दृष्ट्वा सर्वात्मको वायुरिदं वचनमब्रवीत्॥१५॥

उस समय उत्तम गुणों से सम्पन्न तथा रूप और यौवन से सुशोभित उन सब राजकन्याओं को देखकर सर्वस्वरूप वायु देवता ने उनसे इस प्रकार कहा-॥

अहं वः कामये सर्वा भार्या मम भविष्यथ।
मानुषस्त्यज्यतां भावो दीर्घमायुरवाप्स्यथ॥१६॥

‘सुन्दरियो! मैं तुम सबको अपनी प्रेयसी के रूप में प्राप्त करना चाहता हूँ, तुम सब मेरी भार्याएँ बनोगी। अब मनुष्य भाव का त्याग करो और मुझे अंगीकार करके देवांगनाओं की भाँति दीर्घ आयु प्राप्त कर लो।

चलं हि यौवनं नित्यं मानुषेषु विशेषतः।
अक्षयं यौवनं प्राप्ता अमर्यश्च भविष्यथ ॥१७॥

‘विशेषतः मानव-शरीर में जवानी कभी स्थिर नहीं रहती–प्रतिक्षण क्षीण होती जाती है। मेरे साथ सम्बन्ध हो जाने पर तुम लोग अक्षय यौवन प्राप्त करके अमर हो जाओगी’ ॥१७॥

तस्य तद् वचनं श्रुत्वा वायोरक्लिष्टकर्मणः।
अपहास्य ततो वाक्यं कन्याशतमथाब्रवीत्॥ १८॥

अनायास ही महान् कर्म करने वाले वायुदेव का यह कथन सुनकर वे सौ कन्याएँ अवहेलनापूर्वक हँसकर बोलीं- ॥१८॥

अन्तश्चरसि भूतानां सर्वेषां सुरसत्तम।
प्रभावज्ञाश्च ते सर्वाः किमर्थमवमन्यसे॥१९॥

‘सुरश्रेष्ठ! आप प्राणवायु के रूप में समस्त प्राणियों के भीतर विचरते हैं (अतः सबके मनकी बातें जानते हैं; आपको यह मालूम होगा कि हमारे । मन में आपके प्रति कोई आकर्षण नहीं है)। हम सब बहिनें आपके अनुपम प्रभाव को भी जानती हैं (तो भी हमारा आपके प्रति अनुराग नहीं है); ऐसी दशामें यह अनुचित प्रस्ताव करके आप हमारा अपमान किसलिये कर रहे हैं? ॥ १९॥

कुशनाभसुता देव समस्ताः सुरसत्तम।
स्थानाच्च्यावयितुं देवं रक्षामस्तु तपो वयम्॥ २०॥

‘देव! देवशिरोमणे! हम सब-की-सब राजर्षि कुशनाभ की कन्याएँ हैं। देवता होने पर भी आपको शाप देकर वायुपद से भ्रष्ट कर सकती हैं, किंतु ऐसा करना नहीं चाहतीं; क्योंकि हम अपने तप को सुरक्षित रखती हैं॥२०॥

मा भूत् स कालो दुर्मेधः पितरं सत्यवादिनम्।
अवमन्य स्वधर्मेण स्वयंवरमुपास्महे ॥२१॥

‘दुर्मते! वह समय कभी न आवे, जब कि हम अपने सत्यवादी पिता की अवहेलना करके कामवश या अत्यन्त अधर्मपूर्वक स्वयं ही वर ढूँढ़ने लगें। २१॥

पिता हि प्रभुरस्माकं दैवतं परमं च सः।
यस्य नो दास्यति पिता स नो भर्ता भविष्यति॥ २२॥

‘हम लोगों पर हमारे पिताजी का प्रभुत्व है, वे हमारे लिये सर्वश्रेष्ठ देवता हैं। पिताजी हमें जिसके हाथ में दे देंगे, वही हमारा पति होगा’ ॥ २२ ॥

तासां तु वचनं श्रुत्वा हरिः परमकोपनः।
प्रविश्य सर्वगात्राणि बभञ्ज भगवान् प्रभुः॥ २३॥
अरनिमात्राकृतयो भग्नगात्रा भयार्दिताः।

उनकी यह बात सुनकर वायुदेव अत्यन्त कुपित हो उठे। उन ऐश्वर्यशाली प्रभु ने उनके भीतर प्रविष्ट हो सब अंगों को मोड़कर टेढ़ा कर दिया। शरीर मुड़ जानेके कारण वे कुबड़ी हो गयीं। उनकी आकृति मुट्ठी बँधे हुए एक हाथ के बराबर हो गयी वे भयसे व्याकुल हो उठीं। २३ १/२॥

ताः कन्या वायुना भग्ना विविशुनृपतेर्गृहम्।
प्रविश्य च सुसम्भ्रान्ताः सलज्जाः सास्रलोचनाः॥ २४॥

वायुदेव के द्वारा कुबड़ी की हुई उन कन्याओं ने राजभवन में प्रवेश किया। प्रवेश करके वे लज्जित और उद्विग्न हो गयीं। उनके नेत्रों से आँसुओं की धाराएँ बहने लगीं॥ २४॥

स च ता दयिता भग्नाः कन्याः परमशोभनाः।
दृष्ट्वा दीनास्तदा राजा सम्भ्रान्त इदमब्रवीत्॥ २५॥

अपनी परम सुन्दरी प्यारी पुत्रियों को कुब्जता के कारण अत्यन्त दयनीय दशा में पड़ी देख राजा कुशनाभ घबरा गये और इस प्रकार बोले- ॥२५॥

किमिदं कथ्यतां पुत्र्यः को धर्ममवमन्यते।
कुब्जाः केन कृताः सर्वाश्चेष्टन्त्यो नाभिभाषथ।
एवं राजा विनिःश्वस्य समाधिं संदधे ततः॥ २६॥

‘पुत्रियो! यह क्या हुआ? बताओ कौन प्राणी धर्म की अवहेलना करता है? किसने तुम्हें कुबड़ी बना दिया, जिससे तुम तड़प रही हो, किंतु कुछ बताती नहीं हो।’ यों कहकर राजा ने लंबी साँस खींची और उनका उत्तर सुनने के लिये वे सावधान होकर बैठ गये॥२६॥

सर्ग ३३

तस्य तद् वचनं श्रुत्वा कुशनाभस्य धीमतः।
शिरोभिश्चरणौ स्पृष्ट्वा कन्याशतमभाषत॥१॥

बुद्धिमान् महाराज कुशनाभ का वह वचन सुनकर उन सौ कन्याओंने पिता के चरणों में सिर रखकर प्रणाम किया और इस प्रकार कहा- ॥१॥

वायुः सर्वात्मको राजन् प्रधर्षयितुमिच्छति।
अशुभं मार्गमास्थाय न धर्मं प्रत्यवेक्षते॥२॥

राजन्! सर्वत्र संचार करने वाले वायुदेव अशुभ मार्गका अवलम्बन करके हमपर बलात्कार करना चाहते थे धर्मपर उनकी दृष्टि नहीं थी॥२॥

पितृमत्यः स्म भद्रं ते स्वच्छन्दे न वयं स्थिताः।
पितरं नो वृणीष्व त्वं यदि नो दास्यते तव॥३॥

हमने उनसे कहा—’देव! आपका कल्याण हो, हमारे पिता विद्यमान हैं; हम स्वच्छन्द नहीं हैं। आप पिताजी के पास जाकर हमारा वरण कीजिये यदि वे हमें आपको सौंप देंगे तो हम आपकी हो जायँगी’।३॥

तेन पापानुबन्धेन वचनं न प्रतीच्छता।
एवं ब्रुवन्त्यः सर्वाः स्म वायुनाभिहता भृशम्॥ ४॥

परंतु उनका मन तो पापसे बँधा हुआ था उन्होंने हमारी बात नहीं मानी। हम सब बहिनें ये ही धर्मसंगत बातें कह रही थीं, तो भी उन्होंने हमें गहरी चोट पहुँचायी—बिना अपराध के ही हमें पीडा दी॥ ४॥

तासां तु वचनं श्रुत्वा राजा परमधार्मिकः।
प्रत्युवाच महातेजाः कन्याशतमनुत्तमम्॥५॥

उनकी बात सुनकर परम धर्मात्मा महातेजस्वी राजाने उन अपनी परम उत्तम सौ कन्याओंको इस प्रकार उत्तर दिया- ॥ ५॥

क्षान्तं क्षमावतां पुत्र्यः कर्तव्यं सुमहत् कृतम्।
ऐकमत्यमुपागम्य कुलं चावेक्षितं मम॥६॥

‘पुत्रियो! क्षमाशील महापुरुष ही जिसे कर सकते हैं, वही क्षमा तुमने भी की है। यह तुमलोगोंके द्वारा महान् कार्य सम्पन्न हुआ है। तुम सबने एकमत होकर जो मेरे कुलकी मर्यादा पर ही दृष्टि रखी है कामभाव को अपने मन में स्थान नहीं दिया है—यह भी तुमने बहुत बड़ा काम किया है॥६॥

अलंकारो हि नारीणां क्षमा तु पुरुषस्य वा।
दुष्करं तच्च वै क्षान्तं त्रिदशेषु विशेषतः॥७॥
यादृशी वः क्षमा पुत्र्यः सर्वासामविशेषतः।

‘स्त्री हो या पुरुष, उसके लिये क्षमा ही आभूषण है। पुत्रियो! तुम सब लोगों में समानरूप से जैसी क्षमा या सहिष्णुता है, वह विशेषतः देवताओंके लिये भी दुष्कर ही है॥ ७ १/२॥

क्षमा दानं क्षमा सत्यं क्षमा यज्ञाश्च पुत्रिकाः॥ ८॥
क्षमा यशः क्षमा धर्मः क्षमायां विष्ठितं जगत्।

‘पुत्रियो! क्षमा दान है, क्षमा सत्य है, क्षमा यज्ञ है, क्षमा यश है और क्षमा धर्म है, क्षमा पर भी यह सम्पूर्ण जगत् टिका हुआ है’ ।। ८ १/२॥

विसृज्य कन्याः काकुत्स्थ राजा त्रिदशविक्रमः॥ ९॥
मन्त्रज्ञो मन्त्रयामास प्रदानं सह मन्त्रिभिः।
देशे काले च कर्तव्यं सदृशे प्रतिपादनम्॥१०॥

ककुत्स्थकुलनन्दन श्रीराम! देवतुल्य पराक्रमी राजा कुशनाभ ने कन्याओं से ऐसा कहकर उन्हें अन्तःपुर में जाने की आज्ञा दे दी और मन्त्रणा के तत्त्व को जानने वाले उन नरेश ने स्वयं मन्त्रियों के साथ बैठकर कन्याओं के विवाह के विषय में विचार आरम्भ किया। विचारणीय विषय यह था कि ‘किस देशमें किस समय और किस सुयोग्य वरके साथ उनका विवाह किया जाय?’ ॥९-१०॥

एतस्मिन्नेव काले तु चूली नाम महाद्युतिः।
ऊर्ध्वरेताः शुभाचारो ब्राह्म तप उपागमत्॥११॥

उन्हीं दिनों चूली नाम से प्रसिद्ध एक महातेजस्वी, सदाचारी एवं ऊर्ध्वरेता (नैष्ठिक ब्रह्मचारी) मुनि वेदोक्त तपका अनुष्ठान कर रहे थे (अथवा ब्रह्मचिन्तनरूप तपस्यामें संलग्न थे) ॥ ११॥

तपस्यन्तमृषिं तत्र गन्धर्वी पर्युपासते।
सोमदा नाम भद्रं ते ऊर्मिलातनया तदा॥१२॥

श्रीराम! तुम्हारा भला हो, उस समय एक गन्धर्वकुमारी वहाँ रहकर उन तपस्वी मुनि की उपासना (अनुग्रहकी इच्छा से सेवा) करती थी। उसका नाम था सोमदा, वह ऊर्मिला की पुत्री थी॥ १२॥

सा च तं प्रणता भूत्वा शुश्रूषणपरायणा।
उवास काले धर्मिष्ठा तस्यास्तुष्टोऽभवद् गुरुः॥ १३॥

वह प्रतिदिन मुनि को प्रणाम करके उनकी सेवा में लगी रहती थी तथा धर्म में स्थित रहकर समय-समय पर सेवा के लिये उपस्थित होती थी; इससे उसके ऊपर वे गौरवशाली मुनि बहुत संतुष्ट हुए। १३॥

स च तां कालयोगेन प्रोवाच रघुनन्दन।
परितुष्टोऽस्मि भद्रं ते किं करोमि तव प्रियम्॥ १४॥

रघुनन्दन! शुभ समय आने पर चूली ने उस गन्धर्व कन्या से कहा—’शुभे! तुम्हारा कल्याण हो, मैं तुम पर बहुत संतुष्ट हूँ बोलो, तुम्हारा कौन-सा प्रिय कार्य सिद्ध करूँ’॥ १४ ॥

परितुष्टं मुनिं ज्ञात्वा गन्धर्वी मधुरस्वरम्।
उवाच परमप्रीता वाक्यज्ञा वाक्यकोविदम्॥ १५॥

मुनि को संतुष्ट जानकर गन्धर्व-कन्या बहुत प्रसन्न हुई वह बोलने की कला जानती थी; उसने वाणी के मर्मज्ञ मुनि से मधुर स्वर में इस प्रकार कहा- ॥ १५ ॥

लक्ष्म्या समुदितो ब्राह्मया ब्रह्मभूतो महातपाः।
ब्राह्मण तपसा युक्तं पुत्रमिच्छामि धार्मिकम्॥ १६॥

‘महर्षे! आप ब्राह्मी सम्पत्ति (ब्रह्मतेज) से सम्पन्न होकर ब्रह्मस्वरूप हो गये हैं, अतएव आप महान् तपस्वी हैं मैं आपसे ब्राह्म तप (ब्रह्म-ज्ञान एवं वेदोक्त तप) से युक्त धर्मात्मा पुत्र प्राप्त करना चाहती हूँ॥१६॥

अपतिश्चास्मि भद्रं ते भार्या चास्मि न कस्यचित्
ब्राह्मणोपगतायाश्च दातुमर्हसि मे सुतम्॥१७॥

‘मुने! आपका भला हो मेरे कोई पति नहीं है मैं न तो किसी की पत्नी हुई हूँ और न आगे होऊँगी, आपकी सेवामें आयी हूँ; आप अपने ब्राह्म बल (तपःशक्ति) से मुझे पुत्र प्रदान करें’॥ १७॥ ।

तस्याः प्रसन्नो ब्रह्मर्षिर्ददौ ब्राह्ममनुत्तमम्।
ब्रह्मदत्त इति ख्यातं मानसं चूलिनः सुतम्॥१८॥

उस गन्धर्व कन्या की सेवा से संतुष्ट हुए ब्रह्मर्षि चूली ने उसे परम उत्तम ब्राह्म तप से सम्पन्न पुत्र प्रदान किया। वह उनके मानसिक संकल्पसे प्रकट हुआ मानस पुत्र था। उसका नाम ‘ब्रह्मदत्त’ हुआ॥१८॥

स राजा ब्रह्मदत्तस्तु पुरीमध्यवसत् तदा।
काम्पिल्यां परया लक्षया देवराजो यथा दिवम्॥ १९॥

(कुशनाभके यहाँ जब कन्याओंके विवाहका विचार चल रहा था) उस समय राजा ब्रह्मदत्त उत्तम लक्ष्मीसे सम्पन्न हो ‘काम्पिल्या’ नामक नगरी में उसी तरह निवास करते थे, जैसे स्वर्ग की अमरावतीपुरी में देवराज इन्द्र॥ १९॥

स बुद्धिं कृतवान् राजा कुशनाभः सुधार्मिकः।
ब्रह्मदत्ताय काकुत्स्थ दातुं कन्याशतं तदा ॥२०॥

ककुत्स्थकुलभूषण श्रीराम! तब परम धर्मात्मा राजा कुशनाभ ने ब्रह्मदत्त के साथ अपनी सौ कन्याओं को ब्याह देनेका निश्चय किया॥ २० ॥

तमाहय महातेजा ब्रह्मदत्तं महीपतिः।
ददौ कन्याशतं राजा सुप्रीतेनान्तरात्मना॥२१॥

महातेजस्वी भूपाल राजा कुशनाभ ने ब्रह्मदत्त को बुलाकर अत्यन्त प्रसन्न चित्त से उन्हें अपनी सौ कन्याएँ सौंप दीं ॥ २१॥

यथाक्रमं तदा पाणिं जग्राह रघुनन्दन।
ब्रह्मदत्तो महीपालस्तासां देवपतिर्यथा॥२२॥

रघुनन्दन! उस समय देवराज इन्द्र के समान तेजस्वी पृथ्वीपति ब्रह्मदत्त ने क्रमशः उन सभी कन्याओं का पाणिग्रहण किया॥ २२॥

स्पृष्टमात्रे तदा पाणौ विकुब्जा विगतज्वराः।
युक्तं परमया लक्ष्म्या बभौ कन्याशतं तदा॥ २३॥

विवाहकाल में उन कन्याओं के हाथों का ब्रह्मदत्त के हाथ से स्पर्श होते ही वे सब-की-सब कन्याएँ कुब्जत्वदोषसे रहित, नीरोग तथा उत्तम शोभा से सम्पन्न प्रतीत होने लगीं॥ २३॥

स दृष्ट्वा वायुना मुक्ताः कुशनाभो महीपतिः।
बभूव परमप्रीतो हर्षं लेभे पुनः पुनः॥२४॥

वातरोग के रूपमें आये हुए वायुदेव ने उन कन्याओं को छोड़ दिया—यह देख पृथ्वीपति राजा कुशनाभ बड़े प्रसन्न हुए और बारम्बार हर्ष का अनुभव करने लगे॥२४॥

कृतोद्वाहं तु राजानं ब्रह्मदत्तं महीपतिम्।
सदारं प्रेषयामास सोपाध्यायगणं तदा ॥२५॥

भूपाल राजा ब्रह्मदत्त का विवाह-कार्य सम्पन्न हो जाने पर महाराज कुशनाभ ने उन्हें पत्नियों तथा पुरोहितों सहित आदरपूर्वक विदा किया।। २५ ॥

सोमदापि सुतं दृष्ट्वा पुत्रस्य सदृशीं क्रियाम्।
यथान्यायं च गन्धर्वी स्नुषास्ताः प्रत्यनन्दत।
स्पृष्ट्वा स्पृष्ट्वा च ताः कन्याः कुशनाभं प्रशस्य च॥२६॥

गन्धर्वी सोमदाने अपने पुत्र को तथा उसके योग्य विवाह-सम्बन्ध को देखकर अपनी उन पुत्रवधुओं का यथोचितरूप से अभिनन्दन किया। उसने एक-एक करके उन सभी राजकन्याओं को हृदयसे लगाया और महाराज कुशनाभ की सराहना करके वहाँ से प्रस्थान किया॥२६॥

सर्ग ३४

कृतोद्धाहे गते तस्मिन् ब्रह्मदत्ते च राघव।
अपुत्रः पुत्रलाभाय पौत्रीमिष्टिमकल्पयत्॥१॥

रघुनन्दन ! विवाह करके जब राजा ब्रह्मदत्त चले गये, तब पुत्रहीन महाराज कुशनाभ ने श्रेष्ठ पुत्र की प्राप्तिके लिये पुत्रेष्टि यज्ञका अनुष्ठान किया॥१॥

इष्टयां तु वर्तमानायां कुशनाभं महीपतिम्।
उवाच परमोदारः कुशो ब्रह्मसुतस्तदा ॥२॥

उस यज्ञ के होते समय परम उदार ब्रह्मकुमार महाराज कुशने भूपाल कुशनाभ से कहा- ॥२॥

पुत्रस्ते सदृशः पुत्र भविष्यति सुधार्मिकः।
गाधि प्राप्स्यसि तेन त्वं कीर्तिं लोके च शाश्वतीम्॥३॥

‘बेटा! तुम्हें अपने समान ही परम धर्मात्मा पुत्र प्राप्त होगा। तुम ‘गाधि’ नामक पुत्र प्राप्त करोगे और उसके द्वारा तुम्हें संसार में अक्षय कीर्ति उपलब्ध होगी’ ॥३॥

एवमुक्त्वा कुशो राम कुशनाभं महीपतिम्।
जगामाकाशमाविश्य ब्रह्मलोकं सनातनम्॥४॥

श्रीराम! पृथ्वीपति कुशनाभ से ऐसा कहकर राजर्षि कुश आकाश में प्रविष्ट हो सनातन ब्रह्मलोक को चले गये॥ ४॥

कस्यचित् त्वथ कालस्य कुशनाभस्य धीमतः।
जज्ञे परमधर्मिष्ठो गाधिरित्येव नामतः॥५॥

कुछ काल के पश्चात् बुद्धिमान् राजा कुशनाभके यहाँ परम धर्मात्मा ‘गाधि’ नामक पुत्र का जन्म हुआ॥ ५॥

स पिता मम काकुत्स्थ गाधिः परमधार्मिकः।
कुशवंशप्रसूतोऽस्मि कौशिको रघुनन्दन॥६॥

ककुत्स्थकुलभूषण रघुनन्दन! वे परम धर्मात्मा राजा गाधि मेरे पिता थे मैं कुशके कुल में उत्पन्न होनेके कारण ‘कौशिक’ कहलाता हूँ॥६॥

पूर्वजा भगिनी चापि मम राघव सुव्रता।
नाम्ना सत्यवती नाम ऋचीके प्रतिपादिता॥७॥

राघव! मेरे एक ज्येष्ठ बहिन भी थी, जो उत्तम व्रत का पालन करने वाली थी उसका नाम सत्यवती था वह ऋचीक मुनि को ब्याही गयी थी॥ ७॥

सशरीरा गता स्वर्गं भर्तारमनुवर्तिनी।
कौशिकी परमोदारा प्रवृत्ता च महानदी॥८॥

अपने पति का अनुसरण करने वाली सत्यवती शरीर सहित स्वर्गलोक को चली गयी थी। वही परम उदार महानदी कौशिकी के रूप में भी प्रकट होकर इस भूतल पर प्रवाहित होती है॥ ८॥

दिव्या पुण्योदका रम्या हिमवन्तमुपाश्रिता।
लोकस्य हितकार्यार्थं प्रवृत्ता भगिनी मम॥९॥

मेरी वह बहिन जगत् के हित के लिये हिमालय का आश्रय लेकर नदी रूप में प्रवाहित हुई। वह पुण्यसलिला दिव्य नदी बड़ी रमणीय है ॥ ९॥

ततोऽहं हिमवत्पार्वे वसामि नियतः सुखम्।
भगिन्यां स्नेहसंयुक्तः कौशिक्यां रघुनन्दन॥ १०॥

रघुनन्दन! मेरा अपनी बहिन कौशिकी के प्रति बहुत स्नेह है; अतः मैं हिमालय के निकट उसी के ” तटपर नियमपूर्वक बड़े सुख से निवास करता हूँ। १०॥

सा तु सत्यवती पुण्या सत्ये धर्मे प्रतिष्ठिता।
पतिव्रता महाभागा कौशिकी सरितां वरा॥११॥

पुण्यमयी सत्यवती सत्य धर्म में प्रतिष्ठित है। वह परम सौभाग्यशालिनी पतिव्रता देवी यहाँ सरिताओं में श्रेष्ठ कौशिकी के रूप में विद्यमान है॥ ११ ॥

अहं हि नियमाद् राम हित्वा तां समुपागतः।
सिद्धाश्रममनुप्राप्तः सिद्धोऽस्मि तव तेजसा॥ १२॥

श्रीराम ! मैं यज्ञ सम्बन्धी नियमकी सिद्धि के लिये ही अपनी बहिनका सांनिध्य छोड़कर सिद्धाश्रम (बक्सर) में आया था। अब तुम्हारे तेज से मुझे वह सिद्धि प्राप्त हो गयी है॥ १२॥

एषा राम ममोत्पत्तिः स्वस्य वंशस्य कीर्तिता।
देशस्य हि महाबाहो यन्मां त्वं परिपृच्छसि॥ १३॥

महाबाहु श्रीराम! तुमने मुझसे जो पूछा था, उसके उत्तरमें मैंने तुम्हें शोणभद्रतटवर्ती देशका परिचय देते हुए यह अपनी तथा अपने कुलकी उत्पत्ति बतायी है।

गतोऽर्धरात्रः काकुत्स्थ कथाः कथयतो मम।
निद्रामभ्येहि भद्रं ते मा भूद् विघ्नोऽध्वनीह नः॥ १४॥

काकुत्स्थ! मेरे कथा कहते-कहते आधी रात बीत गयी। अब थोड़ी देर नींद ले लो तुम्हारा कल्याण हो। मैं चाहता हूँ कि अधिक जागरणके कारण हमारी यात्रा में विघ्न न पड़े॥१४॥

निष्पन्दास्तरवः सर्वे निलीना मृगपक्षिणः।
नैशेन तमसा व्याप्ता दिशश्च रघुनन्दन॥१५॥

सारे वृक्ष निष्कम्प जान पड़ते हैं—इनका एक पत्ता भी नहीं हिलता है। पशु-पक्षी अपने-अपने वासस्थान में छिपकर बसेरे लेते हैं। रघुनन्दन ! रात्रि के अन्धकार से सम्पूर्ण दिशाएँ व्याप्त हो रही हैं॥ १५ ॥

शनैर्विसृज्यते संध्या नभो नेत्ररिवावृतम्।
नक्षत्रतारागहनं ज्योतिर्भिरवभासते॥१६॥

धीरे-धीरे संध्या दूर चली गयी नक्षत्रों तथा ताराओं से भरा हुआ आकाश (सहस्राक्ष इन्द्रकी भाँति) सहस्रों ज्योतिर्मय नेत्रों से व्याप्त-सा होकर प्रकाशित हो रहा है।॥ १६ ॥

उत्तिष्ठते च शीतांशुः शशी लोकतमोनुदः।
ह्लादयन् प्राणिनां लोके मनांसि प्रभया स्वया॥ १७॥

सम्पूर्ण लोकका अन्धकार दूर करनेवाले शीतरश्मि चन्द्रमा अपनी प्रभासे जगत् के प्राणियों के मन को आह्लाद प्रदान करते हुए उदित हो रहे हैं ॥ १७॥

नैशानि सर्वभूतानि प्रचरन्ति ततस्ततः।
यक्षराक्षससङ्घाश्च रौद्राश्च पिशिताशनाः॥ १८॥

रातमें विचरने वाले समस्त प्राणी-यक्ष-राक्षसों के समुदाय तथा भयंकर पिशाच इधर-उधर विचर रहे हैं॥

एवमुक्त्वा महातेजा विरराम महामुनिः।
साधुसाध्विति ते सर्वे मुनयो ह्यभ्यपूजयन्॥१९॥

ऐसा कहकर महातेजस्वी महामुनि विश्वामित्र चुप हो गये। उस समय सभी मुनियों ने साधुवाद देकर विश्वामित्रजी की भूरि-भूरि प्रशंसा की— ॥१९॥

कुशिकानामयं वंशो महान् धर्मपरः सदा।
ब्रह्मोपमा महात्मानः कुशवंश्या नरोत्तमाः॥ २०॥

‘कुशपुत्रोंका यह वंश सदा ही महान् धर्मपरायण रहा है। कुशवंशी महात्मा श्रेष्ठ मानव ब्रह्माजी के समान तेजस्वी हुए हैं।॥ २० ॥

विशेषेण भवानेव विश्वामित्र महायशः।
कौशिकी सरितां श्रेष्ठा कुलोद्योतकरी तव॥ २१॥

‘महायशस्वी विश्वामित्रजी! अपने वंश में सबसे बड़े महात्मा आप ही हैं तथा सरिताओं में श्रेष्ठ कौशिकी भी आपके कुल की कीर्ति को प्रकाशित करने वाली है॥

मुदितैर्मुनिशार्दूलैः प्रशस्तः कुशिकात्मजः।
निद्रामुपागमच्छ्रीमानस्तंगत इवांशुमान्॥ २२॥

इस प्रकार आनन्दमग्न हुए उन मुनिवरोंद्वारा प्रशंसित श्रीमान् कौशिक मुनि अस्त हुए सूर्य की भाँति नींद लेने लगे॥ २२॥

रामोऽपि सहसौमित्रिः किंचिदागतविस्मयः।
प्रशस्य मुनिशार्दूलं निद्रां समुपसेवते॥२३॥

वह कथा सुनकर लक्ष्मण सहित श्रीरामको भी कुछ विस्मय हो आया वे भी मुनिश्रेष्ठ विश्वामित्रकी सराहना करके नींद लेने लगे॥ २३॥

सर्ग ३५

उपास्य रात्रिशेषं तु शोणाकूले महर्षिभिः।
निशायां सुप्रभातायां विश्वामित्रोऽभ्यभाषत।

महर्षियों सहित विश्वामित्र ने रात्रि के शेषभाग में शोणभद्रके तटपर शयन किया। जब रात बीती और प्रभात हुआ, तब वे श्रीरामचन्द्र जी से इस प्रकार बोले – ॥१॥

सुप्रभाता निशा राम पूर्वा संध्या प्रवर्तते।
उत्तिष्ठोत्तिष्ठ भद्रं ते गमनायाभिरोचय॥२॥

‘श्रीराम! रात बीत गयी। सबेरा हो गया। तुम्हारा कल्याण हो, उठो, उठो और चलनेकी तैयारी करो’। २॥

तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य कृतपूर्वाणिकक्रियः।
गमनं रोचयामास वाक्यं चेदमुवाच ह॥३॥

मुनिकी बात सुनकर पूर्वाह्णकालका नित्यनियम पूर्ण करके श्रीराम चलनेको तैयार हो गये और इस प्रकार बोले-॥३॥

अयं शोणः शुभजलोऽगाधः पुलिनमण्डितः।
कतरेण पथा ब्रह्मन् संतरिष्यामहे वयम्॥४॥

‘ब्रह्मन्! शुभ जल से परिपूर्ण तथा अपने तटों से सुशोभित होने वाला यह शोणभद्र तो अथाह जान पड़ता है हमलोग किस मार्ग से चलकर इसे पार करेंगें?’ ॥४॥ ।

एवमुक्तस्तु रामेण विश्वामित्रोऽब्रवीदिदम्।
एष पन्था मयोद्दिष्टो येन यान्ति महर्षयः॥५॥

श्रीराम के ऐसा कहने पर विश्वामित्र बोले—’जिस मार्ग से महर्षिगण शोणभद्रको पार करते हैं, उसका मैंने पहले से ही निश्चय कर रखा है, वह मार्ग यह है’॥५॥

एवमुक्ता महर्षयो विश्वामित्रेण धीमता।
पश्यन्तस्ते प्रयाता वै वनानि विविधानि च॥६॥

बुद्धिमान् विश्वामित्र के ऐसा कहनेपर वे महर्षि नाना प्रकार के वनों की शोभा देखते हुए वहाँ से प्रस्थित हुए॥६॥

ते गत्वा दूरमध्वानं गतेऽर्धदिवसे तदा।
जाह्नवीं सरितां श्रेष्ठां ददृशुर्मुनिसेविताम्॥७॥

बहुत दूर का मार्ग तै कर लेनेपर दोपहर होते-होते उन सब लोगोंने मुनिजनसेवित, सरिताओंमें श्रेष्ठ गंगाजी के तटपर पहुँचकर उनका दर्शन किया। ७॥

तां दृष्ट्वा पुण्यसलिलां हंससारससेविताम्।
बभूवुर्मुनयः सर्वे मुदिताः सहराघवाः॥८॥

हंसों तथा सारसों से सेवित पुण्यसलिला भागीरथी का दर्शन करके श्रीरामचन्द्र जी के साथ समस्त मुनि बहुत प्रसन्न हुए॥८॥

तस्यास्तीरे तदा सर्वे चक्रुर्वासपरिग्रहम्।
ततः स्नात्वा यथान्यायं संतर्ण्य पितृदेवताः॥९॥
हुत्वा चैवाग्निहोत्राणि प्राश्य चामृतवद्धविः।
विविशुर्जाह्नवीतीरे शुभा मुदितमानसाः॥१०॥
विश्वामित्रं महात्मानं परिवार्य समन्ततः।

उस समय सबने गंगाजीके तट पर डेरा डाला फिर विधिवत् स्नान करके देवताओं और पितरोंका तर्पण किया। उसके बाद अग्निहोत्र करके अमृत के समान मीठे हविष्य का भोजन किया तदनन्तर वे सभी कल्याणकारी महर्षि प्रसन्नचित्त हो महात्मा विश्वामित्र को चारों ओरसे घेरकर गंगाजीके तटपर बैठ गये॥९-१० १/२॥

विष्ठिताश्च यथान्यायं राघवौ च यथार्हतः।
सम्प्रहृष्टमना रामो विश्वामित्रमथाब्रवीत्॥११॥

जब वे सब मुनि स्थिरभावसे विराजमान हो गये और श्रीराम तथा लक्ष्मण भी यथायोग्य स्थानपर बैठ गये, तब श्रीरामने प्रसन्नचित्त होकर विश्वामित्रजीसे पूछा- ॥११॥

भगवन् श्रोतुमिच्छामि गंगां त्रिपथगां नदीम्।
त्रैलोक्यं कथमाक्रम्य गता नदनदीपतिम्॥१२॥

‘भगवन् ! मैं यह सुनना चाहता हूँ कि तीन मार्गों से प्रवाहित होने वाली नदी ये गंगा जी किस प्रकार तीनों लोकों में घूमकर नदों और नदियों के स्वामी समुद्र में जा मिली हैं?’ ॥ १२॥

चोदितो रामवाक्येन विश्वामित्रो महामुनिः।
वृद्धिं जन्म गंगाया वक्तुमेवोपचक्रमे॥१३॥

श्रीराम के इस प्रश्न द्वारा प्रेरित हो महामुनि विश्वामित्र ने गंगाजी की उत्पत्ति और वृद्धि की कथा कहना आरम्भ किया— ॥१३॥

शैलेन्द्रो हिमवान् राम धातूनामाकरो महान्।
तस्य कन्याद्वयं राम रूपेणाप्रतिमं भुवि॥१४॥

‘श्रीराम! हिमवान् नामक एक पर्वत है, जो समस्त पर्वतों का राजा तथा सब प्रकार के धातुओंका बहुत बड़ा खजाना है। हिमवान् की दो कन्याएँ हैं, जिनके सुन्दर रूप की इस भूतलपर कहीं तुलना नहीं है। १४॥

या मेरुदुहिता राम तयोर्माता सुमध्यमा।
नाम्ना मेना मनोज्ञा वै पत्नी हिमवतः प्रिया॥ १५॥

‘मेरु पर्वतकी मनोहारिणी पुत्री मेना हिमवान की प्यारी पत्नी है । सुन्दर कटिप्रदेशवाली मेना ही उन दोनों कन्याओंकी जननी हैं॥ १५ ॥

तस्यां गंगेयमभवज्ज्येष्ठा हिमवतः सुता।
उमा नाम द्वितीयाभूत् कन्या तस्यैव राघव॥ १६॥

” ‘रघुनन्दन ! मेनाके गर्भसे जो पहली कन्या उत्पन्न हुई, वही ये गंगाजी हैं । ये हिमवान्की ज्येष्ठ पुत्री हैं । हिमवानकी ही दूसरी कन्या, जो मेना के गर्भसे उत्पन्न हुईं, उमा नामसे प्रसिद्ध हैं ॥ १६॥

अथ ज्येष्ठां सुराः सर्वे देवकार्यचिकीर्षया।
शैलेन्द्रं वरयामासुरींगां त्रिपथगां नदीम्॥१७॥

कुछ काल के पश्चात् सब देवताओं ने देवकार्य की सिद्धिके लिये ज्येष्ठ कन्या गंगाजी को, जो आगे चलकर स्वर्ग से त्रिपथगा नदीके रूप में अवतीर्ण हुईं, गिरिराज हिमालय से माँगा ॥ १७॥

ददौ धर्मेण हिमवांस्तनयां लोकपावनीम्।
स्वच्छन्दपथगां गंगां त्रैलोक्यहितकाम्यया॥ १८॥

‘हिमवान्ने त्रिभुवन का हित करनेकी इच्छासे स्वच्छन्द पथ पर विचरने वाली अपनी लोक पावनी पुत्री गंगा को धर्म पूर्वक उन्हें दे दिया॥१८॥

प्रतिगृह्य त्रिलोकार्थं त्रिलोकहितकांक्षिणः।
गंगामादाय तेऽगच्छन् कृतार्थेनान्तरात्मना ॥१९॥

‘तीनों लोकों के हितकी इच्छा वाले देवता त्रिभुवनकी भलाई के लिये ही गंगाजी को लेकर मन ही-मन कृतार्थता का अनुभव करते हुए चले गये। १९॥

या चान्या शैलदुहिता कन्याऽऽसीद्रघुनन्दन।
उग्रं सुव्रतमास्थाय तपस्तेपे तपोधना॥२०॥

‘रघुनन्दन! गिरिराजकी जो दूसरी कन्या उमा थीं, वे उत्तम एवं कठोर व्रत का पालन करती हुई घोर तपस्यामें लग गयीं उन्होंने तपोमय धनका संचय किया॥ २०॥

उग्रेण तपसा युक्तां ददौ शैलवरः सुताम्।
रुद्रायाप्रतिरूपाय उमां लोकनमस्कृताम्॥२१॥

‘गिरिराजने उग्र तपस्यामें संलग्न हुई अपनी वह विश्ववन्दिता पुत्री उमा अनुपम प्रभावशाली भगवान् रुद्र को ब्याह दी॥ २१॥

एते ते शैलराजस्य सुते लोकनमस्कृते।
गंगा च सरितां श्रेष्ठा उमादेवी च राघव॥२२॥

‘रघुनन्दन! इस प्रकार सरिताओंमें श्रेष्ठ गंगा तथा भगवती उमा—ये दोनों गिरिराज हिमालयकी कन्याएँ हैं। सारा संसार इनके चरणों में मस्तक झुकाता है। २२॥

एतत् ते सर्वमाख्यातं यथा त्रिपथगामिनी।
खं गता प्रथमं तात गतिं गतिमतां वर ॥२३॥
सैषा सुरनदी रम्या शैलेन्द्रतनया तदा।
सुरलोकं समारूढा विपापा जलवाहिनी॥२४॥

‘गतिशीलों में श्रेष्ठ तात श्रीराम! गंगाजी की उत्पत्ति के विषय में ये सारी बातें मैंने तुम्हें बता दीं, ये त्रिपथगामिनी कैसे हुईं ? यह भी सुन लो, पहले तो ये आकाश मार्ग में गयी थीं तत्पश्चात् ये गिरिराजकुमारी गंगा रमणीया देवनदी के रूपमें देवलोक में आरूढ़ हुई थीं। फिर जलरूपमें प्रवाहित हो लोगों के पाप दूर करती हुई रसातल में पहुंची थीं’ ॥ २३-२४॥

सर्ग ३६

उक्तवाक्ये मुनौ तस्मिन्नुभौ राघवलक्ष्मणौ।
प्रतिनन्द्य कथां वीरावूचतुर्मुनिपुंगवम्॥१॥

विश्वामित्र जी की बात समाप्त होने पर श्रीराम और लक्ष्मण दोनों वीरों ने उनकी कही हुई कथा का अभिनन्दन करके मुनिवर विश्वामित्र से इस प्रकार कहा- ॥१॥

धर्मयुक्तमिदं ब्रह्मन् कथितं परमं त्वया।
दुहितुः शैलराजस्य ज्येष्ठाया वक्तुमर्हसि।
विस्तरं विस्तरज्ञोऽसि दिव्यमानुषसम्भवम्॥२॥

‘ब्रह्मन्! आपने यह बड़ी उत्तम धर्मयुक्त कथा सुनायी। अब आप गिरिराज हिमवान् की ज्येष्ठ पुत्री गंगा के दिव्यलोक तथा मनुष्यलोक से सम्बन्ध होने का वृत्तान्त विस्तार के साथ सुनाइये; क्योंकि आप विस्तृत वृत्तान्त के ज्ञाता हैं ॥२॥

त्रीन् पथो हेतुना केन प्लावयेल्लोकपावनी।
कथं गंगा त्रिपथगा विश्रुता सरिदुत्तमा॥३॥

‘लोक को पवित्र करने वाली गंगा किस कारण से तीन मार्गों में प्रवाहित होती हैं? सरिताओं में श्रेष्ठ गंगाकी ‘त्रिपथगा’ नाम से प्रसिद्धि क्यों हुई? ॥ ३॥

त्रिषु लोकेषु धर्मज्ञ कर्मभिः कैः समन्विता।
तथा ब्रुवति काकुत्स्थे विश्वामित्रस्तपोधनः॥४॥
निखिलेन कथां सर्वामृषिमध्ये न्यवेदयत्।

‘धर्मज्ञ महर्षे! तीनों लोकों में वे अपनी तीन धाराओं के द्वारा कौन-कौन-से कार्य करती हैं?’ श्रीरामचन्द्रजी के इस प्रकार पूछने पर तपोधन विश्वामित्र ने मुनिमण्डली के बीच गंगाजी से सम्बन्ध रखनेवाली सारी बातें पूर्णरूप से कह सुनायीं- ॥ ४ १/२॥

पुरा राम कृतोद्वाहः शितिकण्ठो महातपाः॥५॥
दृष्ट्वा च भगवान् देवीं मैथुनायोपचक्रमे।

‘श्रीराम! पूर्वकाल में महातपस्वी भगवान् नीलकण्ठ ने उमादेवी के साथ विवाह करके उनको नववधूके रूपमें अपने निकट आयी देख उनके साथ रति-क्रीडा आरम्भ की॥ ५ १/२॥

तस्य संक्रीडमानस्य महादेवस्य धीमतः।
शितिकण्ठस्य देवस्य दिव्यं वर्षशतं गतम्॥६॥

‘परम बुद्धिमान् महान् देवता भगवान् नीलकण्ठ के उमादेवी के साथ क्रीडा-विहार करते सौ दिव्य वर्ष बीत गये॥६॥

न चापि तनयो राम तस्यामासीत् परंतप।
सर्वे देवाः समुद्युक्ताः पितामहपुरोगमाः॥७॥

‘शत्रुओं को संताप देने वाले श्रीराम! इतने वर्षोंतक विहार के बाद भी महादेवजी के उमा देवी के गर्भ से कोई पुत्र नहीं हुआ। यह देख ब्रह्मा आदि सभी देवता उन्हें रोकने का उद्योग करने लगे॥७॥

यदिहोत्पद्यते भूतं कस्तत् प्रतिसहिष्यति।
अभिगम्य सुराः सर्वे प्रणिपत्येदमब्रुवन्॥८॥

“उन्होंने सोचा-इतने दीर्घकाल के पश्चात् यदि रुद्र के तेजसे उमादेवी के गर् भसे कोई महान् प्राणी प्रकट हो भी जाय तो कौन उसके तेज को सहन करेगा? यह विचारकर सब देवता भगवान् शिवके पास जा उन्हें प्रणाम करके यों बोले- ॥८॥

देवदेव महादेव लोकस्यास्य हिते रत।
सुराणां प्रणिपातेन प्रसादं कर्तुमर्हसि॥९॥

‘इस लोक के हितमें तत्पर रहनेवाले देव देव महादेव! देवता आपके चरणोंमें मस्तक झुकाते हैं। इससे प्रसन्न होकर आप इन देवताओंपर कृपा करें॥९॥

न लोका धारयिष्यन्ति तव तेजः सुरोत्तम।
ब्राह्मण तपसा युक्तो देव्या सह तपश्चर॥१०॥

‘सुरश्रेष्ठ! ये लोक आपके तेज को नहीं धारण कर सकेंगे; अतः आप क्रीडा से निवृत्त हो वेद बोधित तपस्या से युक्त होकर उमादेवी के साथ तप कीजिये॥ १०॥

त्रैलोक्यहितकामार्थं तेजस्तेजसि धारय।
रक्ष सर्वानिमाल्लोकान् नालोकं कर्तुमर्हसि ॥ ११॥

‘तीनों लोकोंके हितकी कामनासे अपने तेज (वीर्य) को तेजःस्वरूप अपने-आप में ही धारण कीजिये। इन सब लोकों की रक्षा कीजिये लोकोंका विनाश न कर डालिये’ ॥ ११॥

देवतानां वचः श्रुत्वा सर्वलोकमहेश्वरः।
बाढमित्यब्रवीत् सर्वान् पुनश्चेदमुवाच ह॥१२॥

‘देवताओंकी यह बात सुनकर सर्वलोकमहेश्वर शिवने ‘बहुत अच्छा’ कहकर उनका अनुरोध स्वीकार कर लिया; फिर उनसे इस प्रकार कहा-॥ १२॥

धारयिष्याम्यहं तेजस्तेजसैव सहोमया।
त्रिदशाः पृथिवी चैव निर्वाणमधिगच्छतु॥१३॥

“देवताओ! उमा सहित मैं अर्थात् हम दोनों अपने तेज से ही तेज को धारण कर लेंगे। पृथ्वी आदि सभी लोकों के निवासी शान्ति लाभ करें॥ १३ ॥

यदिदं क्षुभितं स्थानान्मम तेजो ह्यनुत्तमम्।
धारयिष्यति कस्तन्मे ब्रुवन्तु सुरसत्तमाः॥१४॥

‘किंतु सुरश्रेष्ठगण! यदि मेरा यह सर्वोत्तम तेज (वीर्य) क्षुब्ध होकर अपने स्थान से स्खलित हो जाय तो उसे कौन धारण करेगा?—यह मुझे बताओ’। १४॥

एवमुक्तास्ततो देवाः प्रत्यूचुर्वृषभध्वजम्।
यत्तेजः क्षुभितं ह्यद्य तद्धरा धारयिष्यति॥१५॥

उनके ऐसा कहने पर देवताओं ने वृषभध्वज भगवान् शिव से कहा—’भगवन् ! आज आपका जो तेज क्षुब्ध होकर गिरेगा, उसे यह पृथ्वी देवी धारण करेगी’। १५॥

एवमुक्तः सुरपतिः प्रमुमोच महाबलः।
तेजसा पृथिवी येन व्याप्ता सगिरिकानना॥१६॥

‘देवताओंका यह कथन सुनकर महाबली देवेश्वर शिव ने अपना तेज छोड़ा, जिससे पर्वत और वनों सहित यह सारी पृथ्वी व्याप्त हो गयी॥ १६ ॥

ततो देवाः पुनरिदमूचुश्चापि हुताशनम्।
आविश त्वं महातेजो रौद्रं वायुसमन्वितः॥१७॥

‘तब देवताओंने अग्नि देव से कहा—’अग्ने! तुम वायु के सहयोग से भगवान् शिवके इस महान् तेज को अपने भीतर रख लो’ ॥ १७॥

तदग्निना पुनर्व्याप्तं संजातं श्वेतपर्वतम्।
दिव्यं शरवणं चैव पावकादित्यसंनिभम्॥१८॥

‘अग्नि से व्याप्त होने पर वह तेज श्वेत पर्वत के रूप में परिणत हो गया। साथ ही वहाँ दिव्य सरकंडों का वन भी प्रकट हुआ, जो अग्नि और सूर् यके समान तेजस्वी प्रतीत होता था॥ १८॥

यत्र जातो महातेजाः कार्तिकेयोऽग्निसम्भवः ।
अथोमां च शिवं चैव देवाः सर्षिगणास्तथा॥ १९॥
पूजयामासुरत्यर्थं सुप्रीतमनसस्तदा।

‘उसी वनमें अग्निजनित महातेजस्वी कार्तिकेयका प्रादुर्भाव हुआ। तदनन्तर ऋषियों सहित देवताओं ने अत्यन्त प्रसन्नचित्त होकर देवी उमा और भगवान् शिवका बड़े भक्तिभावसे पूजन किया। १९ १/२॥

अथ शैलसुता राम त्रिदशानिदमब्रवीत्॥२०॥
समन्युरशपत् सर्वान् क्रोधसंरक्तलोचना।

‘श्रीराम! इसके बाद गिरिराजनन्दिनी उमा के नेत्र क्रोध से लाल हो गये। उन्होंने समस्त देवताओं को रोषपूर्वक शाप दे दिया। वे बोलीं- ॥२० १/२॥

यस्मान्निवारिता चाहं संगता पुत्रकाम्यया॥२१॥
अपत्यं स्वेषु दारेषु नोत्पादयितुमर्हथ।
अद्यप्रभृति युष्माकमप्रजाः सन्तु पत्नयः॥ २२॥

‘देवताओ ! मैंने पुत्र-प्राप्तिकी इच्छा से पति के साथ समागम किया था, परंतु तुमने मुझे रोक दिया अतः अब तुम लोग भी अपनी पत्नियों से संतान उत्पन्न करने योग्य नहीं रह जाओगे। आज से तुम्हारी पत्नियाँ संतानोत्पादन नहीं कर सकेंगी संतानहीन हो जायँगी’ ॥ २१-२२॥

एवमुक्त्वा सुरान् सर्वान् शशाप पृथिवीमपि।
अवने नैकरूपा त्वं बहभार्या भविष्यसि ॥२३॥

‘सब देवताओं से ऐसा कहकर उमादेवी ने पृथिवी को भी शाप दिया—’भूमे! तेरा एक रूप नहीं रह जायगा तू बहुतों की भार्या होगी॥ २३॥

न च पुत्रकृतां प्रीतिं मत्क्रोधकलुषीकृता।
प्राप्स्यसि त्वं सुदुर्मेधो मम पुत्रमनिच्छती॥ २४॥

‘खोटी बुद्धिवाली पृथ्वी! तू चाहती थी कि मेरे पुत्र न हो अतः मेरे क्रोध से कलुषित होकर तू भी पुत्रजनित सुख या प्रसन्नता का अनुभव न कर सकेगी’ ॥ २४॥

तान् सर्वान् पीडितान् दृष्ट्वा सुरान् सुरपतिस्तदा।
गमनायोपचक्राम दिशं वरुणपालिताम्॥ २५॥

‘उन सब देवताओंको उमादेवी के शाप से पीडित देख देवेश्वर भगवान् शिव ने उस समय पश्चिम दिशा की ओर प्रस्थान कर दिया॥ २५ ॥

स गत्वा तप आतिष्ठत् पार्श्वे तस्योत्तरे गिरेः।
हिमवत्प्रभवे श्रृंगे सह देव्या महेश्वरः॥२६॥

‘वहाँ से जाकर हिमालय पर्वत के उत्तर भाग में उसी के एक शिखरपर उमादेवी के साथ भगवान् महेश्वर तप करने लगे॥ २६॥

एष ते विस्तरो राम शैलपुत्र्या निवेदितः।
गंगायाः प्रभवं चैव शृणु मे सहलक्ष्मण ॥२७॥

‘लक्ष्मण सहित श्रीराम! यह मैंने तुम्हें गिरिराज हिमवान् की छोटी पुत्री उमादेवी का विस्तृत वृत्तान्त बताया है अब मुझसे गंगा के प्रादुर्भाव की कथा सुनो’ ।। २७॥

सर्ग ३७

तप्यमाने तदा देवे सेन्द्राः साग्निपुरोगमाः।
सेनापतिमभीप्सन्तः पितामहमुपागमन्॥१॥

जब महादेवजी तपस्या कर रहे थे, उस समय इन्द्र और अग्नि आदि सम्पूर्ण देवता अपने लिये सेनापति की इच्छा लेकर ब्रह्माजी के पास आये॥१॥

ततोऽब्रुवन् सुराः सर्वे भगवन्तं पितामहम्।
प्रणिपत्य सुराराम सेन्द्राः साग्निपुरोगमाः॥२॥

देवताओं को आराम देनेवाले श्रीराम! इन्द्र और अग्निसहित समस्त देवताओं ने भगवान् ब्रह्मा को प्रणाम करके इस प्रकार कहा— ॥२॥

येन सेनापतिर्देव दत्तो भगवता पुरा।
स तपः परमास्थाय तप्यते स्म सहोमया॥३॥

‘प्रभो! पूर्वकाल में जिन भगवान् महेश्वरने हमें (बीजरूपसे) सेनापति प्रदान किया था, वे उमादेवी के साथ उत्तम तप का आश्रय लेकर तपस्या करते हैं ॥ ३॥

यदत्रानन्तरं कार्यं लोकानां हितकाम्यया।
संविधत्स्व विधानज्ञ त्वं हि नः परमा गतिः॥४॥

‘विधि-विधान के ज्ञाता पितामह ! अब लोकहित के लिये जो कर्तव्य प्राप्त हो, उसको पूर्ण कीजिये; क्योंकि आप ही हमारे परम आश्रय हैं’॥ ४॥

देवतानां वचः श्रुत्वा सर्वलोकपितामहः।
सान्त्वयन् मधुरैर्वाक्यैस्त्रिदशानिदमब्रवीत्॥५॥

देवताओं की यह बात सुनकर सम्पूर्ण लोकों के पितामह ब्रह्माजी ने मधुर वचनों द्वारा उन्हें सान्त्वना देते हुए कहा— ॥५॥

शैलपुत्र्या यदुक्तं तन्न प्रजाः स्वासु पत्निषु।
तस्या वचनमक्लिष्टं सत्यमेव न संशयः॥६॥

‘देवताओ! गिरिराजकुमारी पार्वती ने जो शाप दिया है, उसके अनुसार तुम्हें अपनी पत्नियों के गर्भ से अब कोई संतान नहीं होगी। उमादेवी की वाणी अमोघ है; अतः वह सत्य होकर ही रहेगी,इसमें संशय नहीं है।

इयमाकाशगंगा च यस्यां पुत्रं हुताशनः।
जनयिष्यति देवानां सेनापतिमरिंदमम्॥७॥

‘ये हैं उमा की बड़ी बहिन आकाशगंगा, जिनके गर्भ में शङ्करजी के उस तेज को स्थापित करके अग्निदेव एक ऐसे पुत्र को जन्म देंगे जो देवताओं के शत्रुओं का दमन करने में समर्थ सेनापति होगा॥७॥

ज्येष्ठा शैलेन्द्रदुहिता मानयिष्यति तं सुतम्।
उमायास्तबहुमतं भविष्यति न संशयः॥८॥

‘ये गंगा गिरिराज की ज्येष्ठ पुत्री हैं, अतः अपनी छोटी बहिन के उस पुत्र को अपने ही पुत्र के समान मानेंगी। उमा को भी यह बहुत प्रिय लगेगा इसमें संशय नहीं है’।

तच्छ्रत्वा वचनं तस्य कृतार्था रघुनन्दन।
प्रणिपत्य सुराः सर्वे पितामहमपूजयन्॥९॥

रघुनन्दन! ब्रह्माजीका यह वचन सुनकर सब देवता कृतकृत्य हो गये। उन्होंने ब्रह्माजी को प्रणाम करके उनका पूजन किया॥९॥

ते गत्वा परमं राम कैलासं धातुमण्डितम्।
अग्निं नियोजयामासुः पुत्रार्थं सर्वदेवताः॥१०॥

श्रीराम! विविध धातुओं से अलंकृत उत्तम कैलास पर्वत पर जाकर उन सम्पूर्ण देवताओं ने अग्निदेव को पुत्र उत्पन्न करने के कार्य में नियुक्त किया॥ १० ॥

देवकार्यमिदं देव समाधत्स्व हुताशन।
शैलपुत्र्यां महातेजो गंगायां तेज उत्सृज॥११॥

वे बोले—’देव! हुताशन! यह देवताओं का कार्य है, इसे सिद्ध कीजिये। भगवान् रुद्र के उस महान् तेज को अब आप गंगाजी में स्थापित कर दीजिये’। ११॥

देवतानां प्रतिज्ञाय गंगामभ्येत्य पावकः।
गर्भ धारय वै देवि देवतानामिदं प्रियम्॥१२॥

तब देवताओं से ‘बहुत अच्छा’ कहकर अग्निदेव गंगाजी के निकट आये और बोले—’देवि! आप इस गर्भ को धारण करें यह देवताओं का प्रिय कार्य है’। १२॥

इत्येतद् वचनं श्रुत्वा दिव्यं रूपमधारयत्।
स तस्या महिमां दृष्ट्वा समन्तादवशीर्यत॥१३॥

अग्निदेव की यह बात सुनकर गंगादेवी ने दिव्यरूप धारण कर लिया। उनकी यह महिमा—यह रूप वैभव देखकर अग्निदेव ने उस रुद्र-तेज को उनके सब ओर बिखेर दिया॥१३॥

समन्ततस्तदा देवीमभ्यषिञ्चत पावकः।
सर्वस्रोतांसि पूर्णानि गंगाया रघुनन्दन॥१४॥

रघुनन्दन ! अग्निदेव ने जब गंगादेवी को सब ओर से उस रुद्र-तेजद्वारा अभिषिक्त कर दिया, तब गंगाजी के सारे स्रोत उससे परिपूर्ण हो गये॥ १४ ॥

तमुवाच ततो गंगा सर्वदेवपुरोगमम्।
अशक्ता धारणे देव तेजस्तव समुद्धतम्॥१५॥
दह्यमानाग्निना तेन सम्प्रव्यथितचेतना।

तब गंगा ने समस्त देवताओं के अग्रगामी अग्निदेव से इस प्रकार कहा—’देव! आपके द्वारा स्थापित किये गये इस बढ़े हुए तेजको धारण करने में मैं असमर्थ हूँ। इसकी आँच से जल रही हूँ और मेरी चेतना व्यथित हो गयी है’ ॥ १५ १/२॥

अथाब्रवीदिदं गंगां सर्वदेवहुताशनः ॥१६॥
इह हैमवते पार्वे गर्भोऽयं संनिवेश्यताम्।

तब सम्पूर्ण देवताओं के हविष्य को भोग लगाने वाले अग्निदेव ने गंगादेवी से कहा—’देवि! हिमालय पर्वत के पार्श्वभाग में इस गर्भ को स्थापित कर दीजिये’ ॥ १६ १/२ ॥

श्रुत्वा त्वग्निवचो गंगा तं गर्भमतिभास्वरम्॥ १७॥
उत्ससर्ज महातेजाः स्रोतोभ्यो हि तदानघ।

निष्पाप रघुनन्दन! अग्नि की यह बात सुनकर महातेजस्विनी गंगा ने उस अत्यन्त प्रकाशमान गर्भ को अपने स्रोतों से निकालकर यथोचित स्थान में रख दिया॥

यदस्या निर्गतं तस्मात् तप्तजाम्बूनदप्रभम्॥१८॥
काञ्चनं धरणी प्राप्तं हिरण्यमतुलप्रभम्।
तानं काष्र्णायसं चैव तैक्ष्ण्यादेवाभिजायत॥ १९॥

गंगा के गर्भसे जो तेज निकला, वह तपाये हुए जाम्बूनद नामक सुवर्ण के समान कान्तिमान् दिखायी देने लगा (गंगा सुवर्णमय मेरुगिरि से प्रकट हुई हैं;अतः उनका बालक भी वैसे ही रूप-रंग का हुआ)। पृथ्वीपर जहाँ वह तेजस्वी गर्भ स्थापित हुआ,वहाँ की भूमि तथा प्रत्येक वस्तु सुवर्णमयी हो गयी। उसके आस-पास का स्थान अनुपम प्रभा से प्रकाशित होने वाला रजत हो गया। उस तेज की तीक्ष्णता से ही दूरवर्ती भूभाग की वस्तुएँ ताँबे और लोहे के रूप में परिणत हो गयीं॥ १८-१९॥

मलं तस्याभवत् तत्र त्रपु सीसकमेव च।
तदेतद्धरणीं प्राप्य नानाधातुरवर्धत ॥२०॥

उस तेजस्वी गर्भ का जो मल था, वही वहाँ राँगा और सीसा हुआ। इस प्रकार पृथ्वी पर पड़कर वहतेज नाना प्रकार के धातुओं के रूप में वृद्धि को प्राप्त हुआ॥ २०॥

निक्षिप्तमात्रे गर्भे तु तेजोभिरभिरञ्जितम्।
सर्वं पर्वतसंनद्धं सौवर्णमभवद् वनम्॥२१॥

पृथ्वी पर उस गर् भके रखे जाते ही उसके तेज से व्याप्त होकर पूर्वोक्त श्वेतपर्वत और उससे सम्बन्ध रखने वाला सारा वन सुवर्णमय होकर जगमगाने लगा॥ २१॥

जातरूपमिति ख्यातं तदाप्रभृति राघव।
सुवर्णं पुरुषव्याघ्र हुताशनसमप्रभम्।
तृणवृक्षलतागुल्मं सर्वं भवति काञ्चनम् ॥ २२॥

पुरुषसिंह रघुनन्दन! तभी से अग्नि के समान प्रकाशित होने वाले सुवर्ण का नाम जातरूप हो गया; क्योंकि उसी समय सुवर्ण का तेजस्वी रूप प्रकट हुआ था। उस गर्भ के सम्पर्क से वहाँ का तृण, वृक्ष, लता और गुल्म-सब कुछ सोने का हो गया॥ २२॥

तं कुमारं ततो जातं सेन्द्राः सह मरुद्गणाः।
क्षीरसम्भावनार्थाय कृत्तिकाः समयोजयन्॥ २३॥

तदनन्तर इन्द्र और मरुद्गणों सहित सम्पूर्ण देवताओं ने वहाँ उत्पन्न हए कमार को दूध पिलाने के लिये छहों कृत्तिकाओं को नियुक्त किया॥ २३॥ ।

ताः क्षीरं जातमात्रस्य कृत्वा समयमुत्तमम्।
ददुः पुत्रोऽयमस्माकं सर्वासामिति निश्चिताः॥ २४॥

तब उन कृत्तिकाओं ने ‘यह हम सबका पुत्र हो’ ऐसी उत्तम शर्त रखकर और इस बात का निश्चित विश्वास लेकर उस नवजात बालक को अपना दूध प्रदान किया।॥ २४॥

ततस्तु देवताः सर्वाः कार्तिकेय इति ब्रुवन्।
पुत्रस्त्रैलोक्यविख्यातो भविष्यति न संशयः॥ २५॥

उस समय सब देवता बोले—’यह बालक कार्तिकेय कहलायेगा और तुमलोगोंका त्रिभुवनविख्यात पुत्र होगा—इसमें संशय नहीं है’। २५॥

तेषां तद् वचनं श्रुत्वा स्कन्नं गर्भपरिस्रवे।
स्नापयन् परया लक्ष्या दीप्यमानं यथानलम्॥२६॥

देवताओं का यह अनुकूल वचन सुनकर शिव और पार्वती से स्कन्दित (स्खलित) तथा गंगा द्वारा गर्भस्राव होने पर प्रकट हुए अग्नि के समान उत्तम प्रभा से प्रकाशित होने वाले उस बालक को कृत्तिकाओं ने नहलाया।

स्कन्द इत्यब्रुवन् देवाः स्कन्नं गर्भपरिस्रवे।
कार्तिकेयं महाबाहुं काकुत्स्थ ज्वलनोपमम्॥२७॥

ककुत्स्थकुलभूषण श्रीराम! अग्नितुल्य तेजस्वी महाबाहु कार्तिकेय गर्भस्रावकाल में स्कन्दित हुए थे; इसलिये देवताओं ने उन्हें स्कन्द कहकर पुकारा॥ २७॥

प्रादुर्भूतं ततः क्षीरं कृत्तिकानामनुत्तमम्।
षण्णां षडाननो भूत्वा जग्राह स्तनजं पयः॥२८॥

तदनन्तर कृत्तिकाओं के स्तनों में परम उत्तम दूध प्रकट हुआ। उस समय स्कन्दने अपने छः मुख प्रकट करके उन छहों का एक साथ ही स्तनपान किया॥२८॥

गृहीत्वा क्षीरमेकाना सुकुमारवपुस्तदा।
अजयत् स्वेन वीर्येण दैत्यसैन्यगणान् विभुः॥ २९॥

एक ही दिन दूध पीकर उस सुकुमार शरीर वाले शक्तिशाली कुमार ने अपने पराक्रम से दैत्यों की सारी सेनाओं पर विजय प्राप्त की॥ २९॥

सुरसेनागणपतिमभ्यषिञ्चन्महाद्युतिम्।
ततस्तममराः सर्वे समेत्याग्निपुरोगमाः॥३०॥

तत्पश्चात् अग्नि आदि सब देवताओं ने मिलकर उन महातेजस्वी स्कन्दका देवसेनापति के पदपर अभिषेक किया॥ ३०॥

एष ते राम गंगाया विस्तरोऽभिहितो मया।
कुमारसम्भवश्चैव धन्यः पुण्यस्तथैव च॥३१॥

श्रीराम! यह मैंने तुम्हें गंगाजी के चरित्र को विस्तारपूर्वक बताया है। साथ ही कुमार कार्तिकेय के जन्म का भी प्रसंग सुनाया है, जो श्रोता को धन्य एवं पुण्यात्मा बनाने वाला है॥ ३१॥

भक्तश्च यः कार्तिकेये काकुत्स्थ भुवि मानवः।
आयुष्मान् पुत्रपौत्रैश्च स्कन्दसालोक्यतां व्रजेत्॥ ३२॥

काकुत्स्थ! इस पृथ्वी पर जो मनुष्य कार्तिकेय में भक्तिभाव रखता है, वह इस लोक में दीर्घायु तथा पुत्र-पौत्रों से सम्पन्न हो मृत्यु के पश्चात् स्कन्द के लोक में जाता है।

सर्ग ३८

तां कथां कौशिको रामे निवेद्य मधुराक्षराम्।
पुनरेवापरं वाक्यं काकुत्स्थमिदमब्रवीत्॥१॥

विश्वामित्रजी ने मधुर अक्षरों से युक्त वह कथा श्रीराम को सुनाकर फिर उनसे दूसरा प्रसंग इस प्रकार कहा— ॥१॥

अयोध्याधिपतिर्वीर पूर्वमासीन्नराधिपः।
सगरो नाम धर्मात्मा प्रजाकामः स चाप्रजः॥२॥

‘वीर! पहले की बात है, अयोध्या सगर नाम से प्रसिद्ध एक धर्मात्मा राजा राज्य करते थे। उन्हें कोई पुत्र नहीं था; अतः वे पुत्र-प्राप्ति के लिये सदा उत्सुक रहा करते थे॥२॥

वैदर्भदुहिता राम केशिनी नाम नामतः।
ज्येष्ठा सगरपत्नी सा धर्मिष्ठा सत्यवादिनी॥३॥

‘श्रीराम! विदर्भराजकुमारी केशिनी राजा सगर की ज्येष्ठ पत्नी थी। वह बड़ी धर्मात्मा और सत्यवादिनी थी॥३॥

अरिष्टनेमेर्दुहिता सुपर्णभगिनी तु सा।
द्वितीया सगरस्यासीत् पत्नी सुमतिसंज्ञिता॥४॥

‘सगर की दूसरी पत्नी का नाम सुमति था। वह अरिष्टनेमि कश्यप की पुत्री तथा गरुड की बहिन थी॥ ४॥

ताभ्यां सह महाराजः पत्नीभ्यां तप्तवांस्तपः।
हिमवन्तं समासाद्य भृगुप्रस्रवणे गिरौ॥५॥

‘महाराज सगर अपनी उन दोनों पत्नियों के साथ हिमालय पर्वतपर जाकर भृगुप्रस्रवण नामक शिखर पर तपस्या करने लगे।॥ ५॥

अथ वर्षशते पूर्णे तपसाऽऽराधितो मुनिः।
सगराय वरं प्रादाद् भृगुः सत्यवतां वरः॥६॥

‘सौ वर्ष पूर्ण होने पर उनकी तपस्या द्वारा प्रसन्न हुए सत्यवादियों में श्रेष्ठ महर्षि भृगुने राजा सगर को वर दिया॥६॥

अपत्यलाभः सुमहान् भविष्यति तवानघ।
कीर्तिं चाप्रतिमां लोके प्राप्स्यसे पुरुषर्षभ॥७॥

‘निष्पाप नरेश! तुम्हें बहुत-से पुत्रों की प्राप्ति होगी। । पुरुषप्रवर! तुम इस संसार में अनुपम कीर्ति प्राप्त करोगे॥७॥

एका जनयिता तात पुत्रं वंशकरं तव।
षष्टिं पुत्रसहस्राणि अपरा जनयिष्यति॥८॥

‘तात! तुम्हारी एक पत्नी तो एक ही पुत्रको जन्म देगी, जो अपनी वंशपरम्पराका विस्तार करनेवाला होगा तथा दूसरी पत्नी साठ हजार पुत्रोंकी जननी होगी॥८॥

भाषमाणं महात्मानं राजपुत्र्यौ प्रसाद्य तम्।
ऊचतुः परमप्रीते कृताञ्जलिपुटे तदा॥९॥

‘महात्मा भृगु जब इस प्रकार कह रहे थे, उस समय उन दोनों राजकुमारियों (रानियों)-ने उन्हें प्रसन्न करके स्वयं भी अत्यन्त आनन्दित हो दोनों हाथ जोड़कर पूछा- ॥९॥

एकः कस्याः सुतो ब्रह्मन् का बहूञ्जनयिष्यति।
श्रोतुमिच्छावहे ब्रह्मन् सत्यमस्तु वचस्तव॥१०॥

‘ब्रह्मन् ! किस रानी के एक पुत्र होगा और कौन बहुत-से पुत्रों की जननी होगी? हम दोनों यह सुनना चाहती हैं आपकी वाणी सत्य हो’ ।। १० ।।

तयोस्तद् वचनं श्रुत्वा भृगुः परमधार्मिकः।
उवाच परमां वाणी स्वच्छन्दोऽत्र विधीयताम्॥ ११॥
एको वंशकरो वास्तु बहवो वा महाबलाः।
कीर्तिमन्तो महोत्साहाः का वा कं वरमिच्छति॥ १२॥

“उन दोनों की यह बात सुनकर परम धर्मात्मा भृगुने उत्तम वाणी में कहा—’देवियो! तुम लोग यहाँ अपनी इच्छा प्रकट करो। तुम्हें वंश चलाने वाला एक ही पुत्र प्राप्त हो अथवा महान् बलवान्, यशस्वी एवं अत्यन्त उत्साही बहुत-से पुत्र? इन दो वरों में से किस वर को कौन-सी रानी ग्रहण करना चाहती है ?’ ।। ११-१२ ॥

मुनेस्तु वचनं श्रुत्वा केशिनी रघुनन्दन।
पुत्रं वंशकरं राम जग्राह नृपसंनिधौ॥१३॥

‘रघुकुलनन्दन श्रीराम! मुनि का यह वचन सुनकर केशिनी ने राजा सगर के समीप वंश चलाने वाले एक ही पुत्र का वर ग्रहण किया॥१३॥

षष्टिं पुत्रसहस्राणि सुपर्णभगिनी तदा।
महोत्साहान् कीर्तिमतो जग्राह सुमतिः सुतान्॥ १४॥

‘तब गरुड़ की बहिन सुमति ने महान् उत्साही और यशस्वी साठ हजार पुत्रों को जन्म देने का वर प्राप्त किया॥ १४॥

प्रदक्षिणमृषिं कृत्वा शिरसाभिप्रणम्य तम्।
जगाम स्वपुरं राजा सभार्यो रघुनन्दन॥१५॥

‘रघुनन्दन! तदनन्तर रानियों सहित राजा सगर ने महर्षि की परिक्रमा करके उनके चरणों में मस्तक झुकाया और अपने नगर को प्रस्थान किया।॥ १५ ॥

अथ काले गते तस्य ज्येष्ठा पुत्रं व्यजायत।
असमञ्ज इति ख्यातं केशिनी सगरात्मजम्॥ १६॥

‘कुछ काल व्यतीत होने पर बड़ी रानी केशिनी ने सगर के औरस पुत्र ‘असमञ्ज’ को जन्म दिया। १६॥

सुमतिस्तु नरव्याघ्र गर्भतुम्बं व्यजायत।
षष्टिः पुत्रसहस्राणि तुम्बभेदाद् विनिःसृताः॥ १७॥

‘पुरुषसिंह! (छोटी रानी) सुमति ने तूंबी के आकार का एक गर्भपिण्ड उत्पन्न किया। उसको फोड़ने से साठ हजार बालक निकले॥ १७॥

घृतपूर्णेषु कुम्भेषु धात्र्यस्तान् समवर्धयन्।
कालेन महता सर्वे यौवनं प्रतिपेदिरे॥१८॥

“उन्हें घी से भरे हुए घड़ों में रखकर धाइयाँ उनका पालन-पोषण करने लगीं। धीरे-धीरे जब बहुत दिन बीत गये, तब वे सभी बालक युवावस्था को प्राप्त हुए॥

अथ दीर्पण कालेन रूपयौवनशालिनः।
षष्टिः पुत्रसहस्राणि सगरस्याभवंस्तदा॥१९॥

‘इस तरह दीर्घकाल के पश्चात् राजा सगर के रूप और युवावस्था से सुशोभित होने वाले साठ हजार पुत्र तैयार हो गये॥ १९॥

स च ज्येष्ठो नरश्रेष्ठ सगरस्यात्मसम्भवः।
बालान् गृहीत्वा तु जले सरय्वा रघुनन्दन ॥२०॥
प्रक्षिप्य प्राहसन्नित्यं मज्जतस्तान् निरीक्ष्य वै।

‘नरश्रेष्ठ रघुनन्दन! सगर का ज्येष्ठ पुत्र असमञ्ज नगर के बालकों को पकड़कर सरयू के जल में फेंक देता और जब वे डूबने लगते, तब उनकी ओर देखकर हँसा करता॥ २० १/२॥

एवं पापसमाचारः सज्जनप्रतिबाधकः॥२१॥
पौराणामहिते युक्तः पित्रा निर्वासितः पुरात्।

‘इस प्रकार पापाचार में प्रवृत्त होकर जब वह सत्पुरुषों को पीडा देने और नगर-निवासियों का अहित करने लगा, तब पिता ने उसे नग रसे बाहर निकाल दिया॥ २१ १/२॥

तस्य पुत्रोंऽशुमान् नाम असमञ्जस्य वीर्यवान्॥२२॥
सम्मतः सर्वलोकस्य सर्वस्यापि प्रियंवदः।

‘असमञ्ज के पुत्र का नाम था अंशुमान्,वह बड़ा ही पराक्रमी, सबसे मधुर वचन बोलनेवाला तथा सब लोगों को प्रिय था॥ २२ १/२॥

ततः कालेन महता मतिः समभिजायत॥२३॥
सगरस्य नरश्रेष्ठ यजेयमिति निश्चिता।

‘नरश्रेष्ठ! कुछ काल के अनन्तर महाराज सगर के मन में यह निश्चित विचार हुआ कि ‘मैं यज्ञ करूँ’॥ २३ १/२॥

स कृत्वा निश्चयं राजा सोपाध्यायगणास्तदा।
यज्ञकर्मणि वेदज्ञो यष्टुं समुपचक्रमे ॥२४॥

‘यह दृढ़ निश्चय करके वे वेदवेत्ता नरेश अपने उपाध्यायों के साथ यज्ञ करने की तैयारी में लग गये’। २४॥

सर्ग ३९

विश्वामित्रवचः श्रुत्वा कथान्ते रघुनन्दनः।
उवाच परमप्रीतो मुनिं दीप्तमिवानलम्॥१॥

विश्वामित्रजी की कही हुई कथा सुनकर श्रीरामचन्द्र जी बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने कथा के अन्त में अग्नितुल्य तेजस्वी विश्वामित्र मुनि से कहा – ॥१॥

श्रोतुमिच्छामि भद्रं ते विस्तरेण कथामिमाम्।
पूर्वजो मे कथं ब्रह्मन् यज्ञं वै समुपाहरत्॥२॥

‘ब्रह्मन्! आपका कल्याण हो मैं इस कथा को विस्तार के साथ सुनना चाहता हूँ। मेरे पूर्वज महाराज सगर ने किस प्रकार यज्ञ किया था?’ ॥२॥

तस्य तद् वचनं श्रुत्वा कौतूहलसमन्वितः।
विश्वामित्रस्तु काकुत्स्थमुवाच प्रहसन्निव॥३॥

उनकी वह बात सुनकर विश्वामित्रजी को बड़ा कौतूहल हुआ। वे यह सोचकर कि मैं जो कुछ कहना चाहता हूँ, उसी के लिये ये प्रश्न कर रहे हैं, जोर-जोर से हँस पड़े। हँसते हुए-से ही उन्होंने श्रीराम से कहा- ॥

श्रूयतां विस्तरो राम सगरस्य महात्मनः ।
शंकरश्वशुरो नाम्ना हिमवानिति विश्रुतः॥४॥
विन्ध्यपर्वतमासाद्य निरीक्षेते परस्परम्।
तयोर्मध्ये समभवद् यज्ञः स पुरुषोत्तम॥५॥

‘राम! तुम महात्मा सगर के यज्ञ का विस्तारपूर्वक वर्णन सुनो। पुरुषोत्तम! शङ्करजी के श्वशुर हिमवान् नाम से विख्यात पर्वत विन्ध्याचल तक पहुँचकर तथा विन्ध्यपर्वत हिमवान् तक पहुँचकर दोनों एक दूसरेको देखते हैं (इन दोनों के बीच में दूसरा कोई ऐसा ऊँचा पर्वत नहीं है, जो दोनों के पारस्परिक दर्शन में बाधा उपस्थित कर सके)। इन्हीं दोनों पर्वतों के बीच आर्यावर्त की पुण्यभूमि में उस यज्ञ का अनुष्ठान हुआ था॥ ४-५॥

स हि देशो नरव्याघ्र प्रशस्तो यज्ञकर्मणि।
तस्याश्वचयाँ काकुत्स्थ दृढधन्वा महारथः॥६॥
अंशुमानकरोत् तात सगरस्य मते स्थितः।

‘पुरुषसिंह! वही देश यज्ञ करनेके लिये उत्तम माना गया है। तात ककुत्स्थनन्दन! राजा सगरकी आज्ञासे यज्ञिय अश्वकी रक्षाका भार सुदृढ़ धनुर्धर महारथी अंशुमान् ने स्वीकार किया था। ६ १/२॥

तस्य पर्वणि तं यज्ञं यजमानस्य वासवः॥७॥
राक्षसी तनुमास्थाय यज्ञियाश्वमपाहरत्।

‘परंतु पर्व के दिन यज्ञ में लगे हुए राजा सगर के यज्ञ सम्बन्धी घोड़े को इन्द्र ने राक्षस का रूप धारण करके चुरा लिया॥ ७ १/२ ॥

ह्रियमाणे तु काकुत्स्थ तस्मिन्नश्वे महात्मनः॥ ८॥
उपाध्यायगणाः सर्वे यजमानमथाब्रुवन्।
अयं पर्वणि वेगेन यज्ञियाश्वोऽपनीयते॥९॥
हर्तारं जहि काकुत्स्थ हयश्चैवोपनीयताम्।
यज्ञच्छिद्रं भवत्येतत् सर्वेषामशिवाय नः॥१०॥
तत् तथा क्रियतां राजन् यज्ञोऽच्छिद्रः कृतो भवेत्

‘काकुत्स्थ! महामना सग रके उस अश्व का अपहरण होते समय समस्त ऋत्विजों ने यजमान सगर से कहा—’ककुत्स्थनन्दन! आज पर् वके दिन कोई इस यज्ञ सम्बन्धी अश्व को चुराकर बड़े वेग से लिये जा रहा है। आप चोर को मारिये और घोड़ा वापस लाइये, नहीं तो यज्ञ में विघ्न पड़ जायगा और वह हम सब लोगों के लिये अमंगल का कारण होगा। राजन्! आप ऐसा प्रयत्न कीजिये, जिससे यह यज्ञ बिना किसी विघ्न-बाधा के परिपूर्ण हो’।

सोपाध्यायवचः श्रुत्वा तस्मिन् सदसि पार्थिवः॥ ११॥
षष्टिं पुत्रसहस्राणि वाक्यमेतदुवाच ह।
गतिं पुत्रा न पश्यामि रक्षसां पुरुषर्षभाः॥१२॥
मन्त्रपूतैर्महाभागैरास्थितो हि महाक्रतुः।

‘उस यज्ञ-सभा में बैठे हुए राजा सगर ने उपाध्यायों की बात सुनकर अपने साठ हजार पुत्रों से कहा—’पुरुषप्रवर पुत्रो! यह महान् यज्ञ वेदमन्त्रों से पवित्र अन्तःकरण वाले महाभाग महात्माओं द्वारा सम्पादित हो रहा है; अतः यहाँ राक्षसों की पहुँच हो,ऐसा मुझे नहीं दिखायी देता (अतः यह अश्व चुरानेवाला कोई देवकोटि का पुरुष होगा)।

तद् गच्छथ विचिन्वध्वं पुत्रका भद्रमस्तु वः॥ १३॥
समुद्रमालिनी सर्वां पृथिवीमनुगच्छथ।
एकैकं योजनं पुत्रा विस्तारमभिगच्छत॥१४॥
यावत् तुरगसंदर्शस्तावत् खनत मेदिनीम्।
तमेव हयहर्तारं मार्गमाणा ममाज्ञया॥१५॥

‘अतः पुत्रो! तुम लोग जाओ, घोड़े की खोज करो तुम्हारा कल्याण हो समुद्रसे घिरी हुई इस सारी पृथ्वी को छान डालो। एक-एक योजन विस्तृत भूमि को बाँटकर उसका चप्पा-चप्पा देख डालो। जब तक घोड़े का पता न लग जाय, तब तक मेरी आज्ञा से इस पृथ्वी को खोदते रहो। इस खोदने का एक ही लक्ष्य है—उस अश्व के चोर को ढूँढ़ निकालना॥ १३–१५ ॥

दीक्षितः पौत्रसहितः सोपाध्यायगणस्त्वहम्।
इह स्थास्यामि भद्रं वो यावत् तुरगदर्शनम्॥ १६॥

‘मैं यज्ञ की दीक्षा ले चुका हूँ, अतः स्वयं उसे ढूँढ़ने के लिये नहीं जा सकता; इसलिये जब तक उस” अश्व का दर्शन न हो, तब तक मैं उपाध्यायों और पौत्र अंशुमान् के साथ यहीं रहूँगा’ ॥ १६ ॥

ते सर्वे हृष्टमनसो राजपुत्रा महाबलाः।
जग्मुर्महीतलं राम पितुर्वचनयन्त्रिताः॥१७॥

‘श्रीराम! पिता के आदेशरूपी बन्धन से बँधकर वे सभी महाबली राजकुमार मन-ही-मन हर्ष का अनुभव करते हुए भूतलपर विचरने लगे॥ १७॥

गत्वा तु पृथिवीं सर्वामदृष्ट्वा तं महाबलाः।
योजनायामविस्तारमेकैको धरणीतलम्।
बिभिदुः पुरुषव्याघ्रा वज्रस्पर्शसमैर्भुजैः॥१८॥

‘सारी पृथ्वी का चक्कर लगाने के बाद भी उस अश्व को न देखकर उन महाबली पुरुषसिंह राजपुत्रों ने प्रत्येक के हिस्से में एक-एक योजन भूमि का बँटवारा करके अपनी भुजाओं द्वारा उसे खोदना आरम्भ किया। उनकी उन भुजाओं का स्पर्श वज्र के स्पर्श की भाँति दुस्सह था॥ १८॥

शूलैरशनिकल्पैश्च हलैश्चापि सुदारुणैः।
भिद्यमाना वसुमती ननाद रघुनन्दन॥१९॥

‘रघुनन्दन! उस समय वज्रतुल्य शूलों और अत्यन्त दारुण हलों द्वारा सब ओर से विदीर्ण की जाती हुई वसुधा आर्तनाद करने लगी॥ १९॥

नागानां वध्यमानानामसुराणां च राघव।
राक्षसानां दुराधर्षं सत्त्वानां निनदोऽभवत्॥२०॥

‘रघुवीर ! उन राजकुमारोंद्वारा मारे जाते हुए नागों, असुरों, राक्षसों तथा दूसरे-दूसरे प्राणियोंका भयंकर आर्तनाद गूंजने लगा॥ २०॥

योजनानां सहस्राणि षष्टिं तु रघुनन्दन।
बिभिदुर्धरणी राम रसातलमनुत्तमम्॥२१॥

‘रघुकुल को आनन्दित करने वाले श्रीराम ! उन्होंने साठ हजार योजन की भूमि खोद डाली मानो वे सर्वोत्तम रसातल का अनुसंधान कर रहे हों॥ २१॥

एवं पर्वतसम्बाधं जम्बूद्वीपं नृपात्मजाः।
खनन्तो नृपशार्दूल सर्वतः परिचक्रमुः॥२२॥

‘नृपश्रेष्ठ राम! इस प्रकार पर्वतों से युक्त जम्बूद्वीप की भूमि खोदते हुए वे राजकुमार सब ओर चक्कर लगाने लगे॥२२॥

ततो देवाः सगन्धर्वाः सासुराः सहपन्नगाः।
सम्भ्रान्तमनसः सर्वे पितामहमुपागमन्॥२३॥

‘इसी समय गन्धों , असुरों और नागोंसहित सम्पूर्ण देवता मन-ही-मन घबरा उठे और ब्रह्माजीके पास गये॥ २३॥

ते प्रसाद्य महात्मानं विषण्णवदनास्तदा।
ऊचुः परमसंत्रस्ताः पितामहमिदं वचः॥२४॥

‘उनके मुख पर विषाद छा रहा था। वे भय से अत्यन्त संत्रस्त हो गये थे। उन्होंने महात्मा ब्रह्माजी को प्रसन्न करके इस प्रकार कहा- ॥२४॥

भगवन् पृथिवी सर्वा खन्यते सगरात्मजैः।
बहवश्च महात्मानो वध्यन्ते जलचारिणः॥ २५॥

‘भगवन् ! सगर के पुत्र इस सारी पृथ्वी को खोदे डालते हैं और बहुत-से महात्माओं तथा जलचारी जीवों का वध कर रहे हैं ॥ २५॥

अयं यज्ञहरोऽस्माकमनेनाश्वोऽपनीयते।
इति ते सर्वभूतानि हिंसन्ति सगरात्मजाः॥२६॥

‘यह हमारे यज्ञ में विघ्न डालने वाला है। यह हमारा अश्व चुराकर ले जाता है’ ऐसा कहकर वे सगर के पुत्र समस्त प्राणियों की हिंसा कर रहे हैं’ ॥२६॥

सर्ग ४०

देवतानां वचः श्रुत्वा भगवान् वै पितामहः।
प्रत्युवाच सुसंत्रस्तान् कृतान्तबलमोहितान्॥१॥

देवताओं की बात सुनकर भगवान् ब्रह्माजी ने कितने ही प्राणियों का अन्त करने वाले सगरपुत्रों के बल से मोहित एवं भयभीत हुए उन देवताओं से इस प्रकार कहा- ॥१॥

यस्येयं वसुधा कृत्स्ना वासुदेवस्य धीमतः।
महिषी माधवस्यैषा स एव भगवान् प्रभुः॥२॥
कापिलं रूपमास्थाय धारयत्यनिशं धराम्।
तस्य कोपाग्निना दग्धा भविष्यन्ति नृपात्मजाः॥ ३॥

‘देवगण ! यह सारी पृथ्वी जिन भगवान् वासुदेव की वस्तु है तथा जिन भगवान् लक्ष्मीपति की यह रानी है, वे ही सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीहरि कपिल मुनि का रूप धारण करके निरन्तर इस पृथ्वी को धारण करते हैं। उनकी कोपाग्नि से ये सारे राजकुमार जलकर भस्म हो जायँगे॥ २-३॥

पृथिव्याश्चापि निर्भेदो दृष्ट एव सनातनः।
सगरस्य च पुत्राणां विनाशो दीर्घदर्शिनाम्॥४॥

‘पृथ्वीका यह भेदन सनातन है—प्रत्येक कल्प में अवश्यम्भावी है। (श्रुतियों और स्मृतियों में आये हुए सागर आदि शब्दों से यह बात सुस्पष्ट ज्ञात होती है।) इसी प्रकार दूरदर्शी पुरुषों ने सगर के पुत्रों का भावी विनाश भी देखा ही है; अतः इस विषय में शोक करना अनुचित है।

पितामहवचः श्रुत्वा त्रयस्त्रिंशदरिंदमाः।
देवाः परमसंहृष्टाः पुनर्जग्मुर्यथागतम्॥५॥

ब्रह्माजी का यह कथन सुनकर शत्रुओं का दमन करने वाले तैंतीस देवता बड़े हर्ष में भरकर जैसे आये थे, उसी तरह पुनः लौट गये॥५॥

सगरस्य च पुत्राणां प्रादुरासीन्महास्वनः ।
पृथिव्यां भिद्यमानायां निर्घातसमनिःस्वनः॥६॥

सगरपुत्रों के हाथ से जब पृथ्वी खोदी जा रही थी,उस समय उससे वज्रपात के समान बड़ा भयंकर शब्द होता था।

ततो भित्त्वा महीं सर्वां कृत्वा चापि प्रदक्षिणम्।
सहिताः सागराः सर्वे पितरं वाक्यमब्रुवन्॥७॥

इस तरह सारी पृथ्वी खोदकर तथा उसकी परिक्रमा करके वे सभी सगरपुत्र पिता के पास खाली हाथ लौट आये और बोले- ॥७॥

परिक्रान्ता मही सर्वा सत्त्ववन्तश्च सूदिताः।
देवदानवरक्षांसि पिशाचोरगपन्नगाः॥८॥
न च पश्यामहेऽश्वं ते अश्वहर्तारमेव च।
किं करिष्याम भद्रं ते बुद्धिरत्र विचार्यताम्॥९॥

‘पिताजी! हमने सारी पृथ्वी छान डाली। देवता, दानव, राक्षस, पिशाच और नाग आदि बड़े-बड़े बलवान् प्राणियों को मार डाला। फिर भी हमें न तो कहीं घोड़ा दिखायी दिया और न घोड़े का चुराने वाला ही। आपका भला हो अब हम क्या करें? इस विषय में आप ही कोई उपाय सोचिये ॥ ८-९॥

तेषां तद् वचनं श्रुत्वा पुत्राणां राजसत्तमः ।
समन्युरब्रवीद् वाक्यं सगरो रघुनन्दन॥१०॥

‘रघुनन्दन! पुत्रों का यह वचन सुनकर राजाओं में श्रेष्ठ सगर ने उनसे कुपित होकर कहा- ॥ १० ॥

भूयः खनत भद्रं वो विभेद्य वसुधातलम्।
अश्वहर्तारमासाद्य कृतार्थाश्च निवर्तत॥११॥

‘जाओ, फिर से सारी पृथ्वी खोदो और इसे विदीर्ण करके घोड़े के चोर का पता लगाओ। चोर तक पहुँचकर काम पूरा होने पर ही लौटना’ ॥ ११॥

पितुर्वचनमासाद्य सगरस्य महात्मनः।
षष्टिः पुत्रसहस्राणि रसातलमभिद्रवन्॥१२॥

अपने महात्मा पिता सगर की यह आज्ञा शिरोधार्य करके वे साठ हजार राजकुमार रसातल की ओर बढ़े (और रोष में भरकर पृथ्वी खोदने लगे) ॥ १२॥

खन्यमाने ततस्तस्मिन् ददृशुः पर्वतोपमम्।
दिशागजं विरूपाक्षं धारयन्तं महीतलम्॥१३॥

उस खुदाई के समय ही उन्हें एक पर्वताकार दिग्गज दिखायी दिया, जिसका नाम विरूपाक्ष है वह इस भूतलको धारण किये हुए था॥ १३॥

सपर्वतवनां कृत्स्नां पृथिवीं रघुनन्दन।
धारयामास शिरसा विरूपाक्षो महागजः॥१४॥

रघुनन्दन! महान् गजराज विरूपाक्ष ने पर्वत और वनोंसहित इस सम्पूर्ण पृथ्वी को अपने मस्तक पर धारण कर रखा था॥ १४ ॥

यदा पर्वणि काकुत्स्थ विश्रमार्थं महागजः। १५॥

काकुत्स्थ! वह महान् दिग्गज जिस समय थककर विश्राम के लिये अपने मस्तक को इधर-उधर हटाता था, उस समय भूकम्प होने लगता था॥ १५ ॥

ते तं प्रदक्षिणं कृत्वा दिशापालं महागजम्।
मानयन्तो हि ते राम जग्मुर्भित्त्वा रसातलम्॥ १६॥

श्रीराम! पूर्व दिशा की रक्षा करने वाले विशाल गजराज विरूपाक्ष की परिक्रमा करके उसका सम्मान करते हुए वे सगरपुत्र रसातल का भेदन करके आगे बढ़ गये॥ १६॥

ततः पूर्वां दिशं भित्त्वा दक्षिणां बिभिदुः पुनः।
दक्षिणस्यामपि दिशि ददृशुस्ते महागजम्॥१७॥

पूर्व दिशा का भेदन करने के पश्चात् वे पुनः दक्षिण दिशा की भूमिको खोदने लगे। दक्षिण दिशा में भी उन्हें एक महान् दिग्गज दिखायी दिया॥१७॥

महापद्मं महात्मानं सुमहत्पर्वतोपमम्।
शिरसा धारयन्तं गां विस्मयं जग्मुरुत्तमम्॥१८॥

उसका नाम था महापद्म महान् पर्वत के समान ऊँचा वह विशालकाय गजराज अपने मस्तक पर पृथ्वी को धारण करता था उसे देखकर उन राजकुमारों को बड़ा विस्मय हुआ॥ १८॥

ते तं प्रदक्षिणं कृत्वा सगरस्य महात्मनः।
षष्टिः पुत्रसहस्राणि पश्चिमां बिभिदुर्दिशम्॥ १९॥

महात्मा सगर के वे साठ हजार पुत्र उस दिग्गज की परिक्रमा करके पश्चिम दिशाकी भूमिका भेदन करने लगे॥ १९॥

पश्चिमायामपि दिशि महान्तमचलोपमम्।
दिशागजं सौमनसं ददृशुस्ते महाबलाः॥२०॥

पश्चिम दिशा में भी उन महाबली सगरपुत्रों ने महान् पर्वताकार दिग्गज सौमनस का दर्शन किया॥ २० ॥

ते तं प्रदक्षिणं कृत्वा पृष्ट्वा चापि निरामयम्।
खनन्तः समुपाक्रान्ता दिशं सोमवतीं तदा ॥२१॥

उसकी भी परिक्रमा करके उसका कुशल-समाचार पूछकर वे सभी राजकुमार भूमि खोदते हुए उत्तर दिशा में जा पहुँचे॥ २१॥

उत्तरस्यां रघुश्रेष्ठ ददृशुर्हिमपाण्डुरम्।
भद्रं भद्रेण वपुषा धारयन्तं महीमिमाम्॥ २२॥

रघुश्रेष्ठ! उत्तर दिशा में उन्हें हिमके समान श्वेतभद्र नामक दिग्गज दिखायी दिया, जो अपने कल्याणमय शरीर से इस पृथ्वी को धारण किये हुए था॥ २२ ॥

समालभ्य ततः सर्वे कृत्वा चैनं प्रदक्षिणम्।
षष्टिः पुत्रसहस्राणि बिभिदुर्वसुधातलम्॥२३॥

उसका कुशल-समाचार पूछकर राजा सगर के वे सभी साठ हजार पुत्र उसकी परिक्रमा करने के पश्चात् भूमि खोदने के काम में जुट गये॥२३॥

ततः प्रागुत्तरां गत्वा सागराः प्रथितां दिशम्।
रोषादभ्यखनन् सर्वे पृथिवीं सगरात्मजाः॥२४॥

तदनन्तर सुविख्यात पूर्वोत्तर दिशा में जाकर उन सगरकुमारों ने एक साथ होकर रोषपूर्वक पृथ्वी को खोदना आरम्भ किया॥२४॥

ते तु सर्वे महात्मानो भीमवेगा महाबलाः।
ददृशुः कपिलं तत्र वासुदेवं सनातनम्॥ २५॥

” इस बार उन सभी महामना, महाबली एवं भयानक वेगशाली राजकुमारों ने वहाँ सनातन वासुदेवस्वरूप भगवान् कपिल को देखा॥ २५ ॥

हयं च तस्य देवस्य चरन्तमविदूरतः।
प्रहर्षमतुलं प्राप्ताः सर्वे ते रघुनन्दन ॥२६॥

राजा सगर के यज्ञ का वह घोड़ा भी भगवान् कपिल के पास ही चर रहा था। रघुनन्दन! उसे देखकर उन सबको अनुपम हर्ष प्राप्त हुआ॥ २६॥

ते तं यज्ञहनं ज्ञात्वा क्रोधपर्याकुलेक्षणाः।
खनित्रलांगलधरा नानावृक्षशिलाधराः॥२७॥

भगवान् कपिल को अपने यज्ञ में विघ्न डालने वाला जानकर उनकी आँखें क्रोध से लाल हो गयीं। उन्होंने अपने हाथों में खंती, हल और नाना प्रकार के वृक्ष एवं पत्थरों के टुकड़े ले रखे थे॥२७॥

अभ्यधावन्त संक्रुद्धास्तिष्ठ तिष्ठति चाब्रुवन्।।
अस्माकं त्वं हि तुरगं यज्ञियं हृतवानसि॥२८॥
दुर्मेधस्त्वं हि सम्प्राप्तान् विद्धि नः सगरात्मजान्।

वे अत्यन्त रोष में भरकर उनकी ओर दौड़े और बोले- ‘अरे! खड़ा रह, खड़ा रह। तू ही हमारे यज्ञ के घोड़े को यहाँ चुरा लाया है। दुर्बुद्धे ! अब हम आ गये। तू समझ ले, हम महाराज सगर के पुत्र हैं’। २८ १/२॥

श्रुत्वा तद् वचनं तेषां कपिलो रघुनन्दन॥२९॥
रोषेण महताविष्टो हुङ्कारमकरोत् तदा।

रघुनन्दन! उनकी बात सुनकर भगवान् कपिल को बड़ा रोष हुआ और उस रोष के आवेश में ही उनके मुँह से एक हुंकार निकल पड़ा॥२९ १/२॥

ततस्तेनाप्रमेयेण कपिलेन महात्मना।
भस्मराशीकृताः सर्वे काकुत्स्थ सगरात्मजाः॥ ३०॥

श्रीराम! उस हुंकार के साथ ही उन अनन्त प्रभावशाली महात्मा कपिल ने उन सभी सगरपुत्रों को जलाकर राखका ढेर कर दिया॥३०॥

सर्ग ४१

पुत्रांश्चिरगतान् ज्ञात्वा सगरो रघुनन्दन।
नप्तारमब्रवीद राजा दीप्यमानं स्वतेजसा॥१॥

रघुनन्दन ! ‘पुत्रों को गये बहुत दिन हो गये’—ऐसा जानकर राजा सगरने अपने पौत्र अंशुमान् से, जो अपने तेज से देदीप्यमान हो रहा था, इस प्रकार कहा – ॥१॥

शूरश्च कृतविद्यश्च पूर्वैस्तुल्योऽसि तेजसा।
पितॄणां गतिमन्विच्छ येन चाश्वोऽपवाहितः॥ २॥

‘वत्स! तुम शूरवीर, विद्वान् तथा अपने पूर्वजों के तुल्य तेजस्वी हो तुम भी अपने चाचाओं के पथ का अनुसरण करो और उस चोर का पता लगाओ, जिसने मेरे यज्ञ-सम्बन्धी अश्व का अपहरण कर लिया है।२॥

अन्तीमानि सत्त्वानि वीर्यवन्ति महान्ति च।
तेषां तु प्रतिघातार्थं सासिं गृह्णीष्व कार्मुकम्॥ ३॥

‘देखो, पृथ्वी के भीतर बड़े-बड़े बलवान् जीव रहते हैं; अतः उनसे टक्कर लेने के लिये तुम तलवार और धनुष भी लेते जाओ॥३॥

अभिवाद्याभिवाद्यांस्त्वं हत्वा विघ्नकरानपि।
सिद्धार्थः संनिवर्तस्व मम यज्ञस्य पारगः ॥ ४॥

‘जो वन्दनीय पुरुष हों, उन्हें प्रणाम करना और जो तुम्हारे मार्ग में विघ्न डालने वाले हों, उनको मार डालना ऐसा करते हुए सफल मनोरथ होकर लौटो और मेरे इस यज्ञ को पूर्ण कराओ’ ॥ ४॥

एवमुक्तोंऽशुमान् सम्यक् सगरेण महात्मना।
धनुरादाय खड्गं च जगाम लघुविक्रमः॥५॥

महात्मा सगर के ऐसा कहनेपर शीघ्रतापूर्वक पराक्रम कर दिखाने वाला वीरवर अंशुमान् धनुष और तलवार लेकर चल दिया॥५॥

स खातं पितृभिर्मार्गमन्तभॊमं महात्मभिः।
रापद्यत नरश्रेष्ठ तेन राज्ञाभिचोदितः॥६॥

नरश्रेष्ठ! उसके महामनस्वी चाचाओं ने पृथ्वी के भीतर जो मार्ग बना दिया था, उसी पर वह राजा सगर से प्रेरित होकर गया॥६॥

देवदानवरक्षोभिः पिशाचपतगोरगैः।
पूज्यमानं महातेजा दिशागजमपश्यत॥७॥

वहाँ उस महातेजस्वी वीर ने एक दिग्गज को देखा, जिसकी देवता, दानव, राक्षस, पिशाच, पक्षी और नाग–सभी पूजा कर रहे थे॥७॥

स तं प्रदक्षिणं कृत्वा पृष्ट्वा चैव निरामयम्।
पितॄन् स परिपप्रच्छ वाजिहर्तारमेव च ॥८॥

उसकी परिक्रमा करके कुशल-मंगल पूछकर अंशुमान् ने उस दिग्गज से अपने चाचाओं का समाचार तथा अश्व चुराने वाले का पता पूछा॥ ८॥

दिशागजस्तु तच्छ्रुत्वा प्रत्युवाच महामतिः।
आसमञ्ज कृतार्थस्त्वं सहाश्वः शीघ्रमेष्यसि॥ ९॥

उसका प्रश्न सुनकर परम बुद्धिमान् दिग्गज ने इस प्रकार उत्तर दिया—’असमंज-कुमार! तुम अपना कार्य सिद्ध करके घोड़े सहित शीघ्र लौट आओगे’। ९॥

तस्य तद् वचनं श्रुत्वा सर्वानेव दिशागजान्।
यथाक्रमं यथान्यायं प्रष्टुं समुपचक्रमे॥१०॥

उसकी यह बात सुनकर अंशुमान्ने क्रमशः सभी दिग्गजों से न्यायानुसार उक्त प्रश्न पूछना आरम्भ किया॥१०॥

तैश्च सर्वैर्दिशापालैर्वाक्यज्ञैर्वाक्यकोविदैः।
पूजितः सहयश्चैवागन्तासीत्यभिचोदितः॥११॥

वाक्य के मर्म को समझने तथा बोलने में कुशल उन समस्त दिग्गजों ने अंशुमान् का सत्कार किया और यह शुभ कामना प्रकट की कि तुम घोड़े सहित लौट आओगे॥

तेषां तद् वचनं श्रुत्वा जगाम लघुविक्रमः।
भस्मराशीकृता यत्र पितरस्तस्य सागराः॥१२॥

उनका यह आशीर्वाद सुनकर अंशुमान् शीघ्रतापूर्वक पैर बढ़ाता हुआ उस स्थानपर जा पहुँचा, जहाँ उसके चाचा सगरपुत्र राखके ढेर हुए पड़े थे॥१२॥

स दुःखवशमापन्नस्त्वसमञ्जसुतस्तदा।
चुक्रोश परमार्तस्तु वधात् तेषां सुदुःखितः॥ १३॥

उनके वध से असमंज पुत्र अंशुमान् को बड़ा दुःख हुआ। वह शोक के वशीभूत हो अत्यन्त आर्तभाव से फूट-फूटकर रोने लगा॥ १३॥

यज्ञियं च हयं तत्र चरन्तमविदूरतः।
ददर्श पुरुषव्याघ्रो दुःखशोकसमन्वितः॥१४॥

दुःख-शोक में डूबे हुए पुरुषसिंह अंशुमान् ने अपने यज्ञ-सम्बन्धी अश्व को भी वहाँ पास ही चरते देखा॥ १४॥

स तेषां राजपुत्राणां कर्तुकामो जलक्रियाम्।
स जलार्थी महातेजा न चापश्यज्जलाशयम्॥ १५॥

महातेजस्वी अंशुमान् ने उन राजकुमारोंको जलाञ्जलि देनेके लिये जलकी इच्छा की; किंतु वहाँ कहीं भी कोई जलाशय नहीं दिखायी दिया॥ १५ ॥

विसार्य निपुणां दृष्टिं ततोऽपश्यत् खगाधिपम्।
पितृणां मातुलं राम सुपर्णमनिलोपमम्॥१६॥

श्रीराम! तब उसने दूरतक की वस्तुओं को देखने में समर्थ अपनी दृष्टि को फैलाकर देखा। उस समय उसे वायु के समान वेगशाली पक्षिराज गरुड़ दिखायी दिये, जो उसके चाचाओं (सगरपुत्रों) के मामा थे।॥ १६ ॥

स चैनमब्रवीद वाक्यं वैनतेयो महाबलः।।
मा शुचः पुरुषव्याघ्र वधोऽयं लोकसम्मतः॥ १७॥

महाबली विनतानन्दन गरुड़ ने अंशुमान् से कहा —’पुरुषसिंह! शोक न करो। इन राजकुमारों का वध सम्पूर्ण जगत् के मंगलके लिये हुआ है॥ १७॥

कपिलेनाप्रमेयेण दग्धा हीमे महाबलाः।
सलिलं नार्हसि प्राज्ञ दातुमेषां हि लौकिकम्॥ १८॥

‘विद्वन्! अनन्त प्रभावशाली महात्मा कपिलने इन महाबली राजकुमारोंको दग्ध किया है। इनके लिये तुम्हें लौकिक जलकी अञ्जलि देना उचित नहीं है। १८॥

गंगा हिमवतो ज्येष्ठा दुहिता पुरुषर्षभ।
तस्यां कुरु महाबाहो पितॄणां सलिलक्रियाम्॥ १९॥

‘नरश्रेष्ठ! महाबाहो! हिमवान् की जो ज्येष्ठ पुत्री गंगाजी हैं, उन्हीं के जल से अपने इन चाचाओं का तर्पण करो॥ १९॥

भस्मराशीकृतानेतान् प्लावयेल्लोकपावनी।
तया क्लिन्नमिदं भस्म गंगया लोककान्तया।
षष्टिं पुत्रसहस्राणि स्वर्गलोकं गमिष्यति॥२०॥

‘जिस समय लोक पावनी गंगा राख के ढेर होकर गिरे हुए उन साठ हजार राजकुमारों को अपने जल से आप्लावित करेंगी, उसी समय उन सबको स्वर्ग लोक में पहुँचा देंगी। लोककमनीया गंगा के जल से भीगी हुई यह भस्मराशि इन सबको स्वर्गलोक में भेज देगी॥ २० ॥

निर्गच्छाश्वं महाभाग संगृह्य पुरुषर्षभ।
यज्ञं पैतामहं वीर निर्वर्तयितुमर्हसि ॥२१॥

‘महाभाग! पुरुषप्रवर ! वीर! अब तुम घोड़ा लेकर जाओ और अपने पितामहका यज्ञ पूर्ण करो’ ॥ २१॥

सुपर्णवचनं श्रुत्वा सोंऽशुमानतिवीर्यवान्।
त्वरितं हयमादाय पुनरायान्महातपाः॥२२॥

गरुड़की यह बात सुनकर अत्यन्त पराक्रमी महातपस्वी अंशुमान् घोड़ा लेकर तुरंत लौट आया।

ततो राजानमासाद्य दीक्षितं रघुनन्दन।
न्यवेदयद् यथावृत्तं सुपर्णवचनं तथा ॥२३॥

रघुनन्दन ! यज्ञ में दीक्षित हुए राजा के पास आकर उसने सारा समाचार निवेदन किया और गरुड़ की बतायी हुई बात भी कह सुनायी॥ २३॥

तच्छ्रुत्वा घोरसंकाशं वाक्यमंशुमतो नृपः।
यज्ञं निवर्तयामास यथाकल्पं यथाविधि ॥ २४॥

अंशुमान् के मुख से यह भयंकर समाचार सुनकर राजा सगर ने कल्पोक्त नियम के अनुसार अपना यज्ञ विधिवत् पूर्ण किया॥२४॥

स्वपुरं त्वगमच्छ्रीमानिष्टयज्ञो महीपतिः।
गंगायाश्चागमे राजा निश्चयं नाध्यगच्छत॥ २५॥

यज्ञ समाप्त करके पृथ्वी पति महाराज सगर अपनी राजधानी को लौट आये, वहाँ आनेपर उन्होंने गंगाजी को ले आने के विषय में बहुत विचार किया; किंतु वे किसी निश्चय पर न पहुँच सके॥२५॥

अगत्वा निश्चयं राजा कालेन महता महान्।
त्रिंशद्वर्षसहस्राणि राज्यं कृत्वा दिवं गतः॥ २६॥

दीर्घकाल तक विचार करने पर भी उन्हें कोई निश्चित उपाय नहीं सूझा और तीस हजार वर्षां तक राज्य करके वे स्वर्गलोक को चले गये॥ २६ ॥

सर्ग ४२ 

कालधर्मं गते राम सगरे प्रकृतीजनाः।
राजानं रोचयामासुरंशुमन्तं सुधार्मिकम्॥१॥

श्रीराम ! सगर की मृत्यु हो जाने पर प्रजाजनों ने परम धर्मात्मा अंशुमान् को राजा बनाने की रुचि प्रकट की॥१॥

स राजा सुमहानासीदंशुमान् रघुनन्दन।
तस्य पुत्रो महानासीद् दिलीप इति विश्रुतः॥२॥

रघुनन्दन! अंशुमान् बड़े प्रतापी राजा हुए उनके पुत्र का नाम दिलीप था। वह भी एक महान् पुरुष था॥२॥

तस्मै राज्यं समादिश्य दिलीपे रघुनन्दन।
हिमवच्छिखरे रम्ये तपस्तेपे सुदारुणम्॥३॥

रघुकुल को आनन्दित करनेवाले वीर! अंशुमान् दिलीप को राज्य देकर हिमालय के रमणीय शिखर पर चले गये और वहाँ अत्यन्त कठोर तपस्या करने लगे॥३॥

द्वात्रिंशच्छतसाहस्रं वर्षाणि सुमहायशाः।
तपोवनगतो राजा स्वर्गं लेभे तपोधनः॥४॥

महान् यशस्वी राजा अंशुमान् ने उस तपोवन में जाकर बत्तीस हजार वर्षों तक तप किया तपस्या के धन से सम्पन्न हुए उस नरेश ने वहीं शरीर त्यागकर स्वर्ग लोक प्राप्त किया॥४॥

दिलीपस्तु महातेजाः श्रुत्वा पैतामहं वधम्।
दुःखोपहतया बुद्धया निश्चयं नाध्यगच्छत॥५॥

अपने पितामहों के वध का वृत्तान्त सुनकर महा तेजस्वी दिलीप भी बहुत दुःखी रहते थे। अपनी बुद्धि से बहुत सोचने-विचारने के बाद भी वे किसी निश्चय पर नहीं पहुँच सके॥५॥

कथं गंगावतरणं कथं तेषां जलक्रिया।
तारयेयं कथं चैतानिति चिन्तापरोऽभवत्॥६॥

वे सदा इसी चिन्ता में डूबे रहते थे कि किस प्रकार पृथ्वी पर गंगाजी का उतरना सम्भव होगा? कैसे गंगाजल द्वारा उन्हें जलाञ्जलि दी जायेगी और किस प्रकार मैं अपने उन पितरों का उद्धार कर सकूँगा॥

तस्य चिन्तयतो नित्यं धर्मेण विदितात्मनः।
पुत्रो भगीरथो नाम जज्ञे परमधार्मिकः॥७॥

प्रतिदिन इन्हीं सब चिन्ताओं में पड़े हुए राजा दिलीप को, जो अपने धर्माचरण से बहुत विख्यात थे, भगीरथ नामक एक परम धर्मात्मा पुत्र प्राप्त हुआ। ७॥

दिलीपस्तु महातेजा यज्ञैर्बहुभिरिष्टवान्।
त्रिंशद्वर्षसहस्राणि राजा राज्यमकारयत्॥८॥

महातेजस्वी दिलीप ने बहुत-से यज्ञों का अनुष्ठान तथा तीस हजार वर्षां तक राज्य किया॥८॥

अगत्वा निश्चयं राजा तेषामुद्धरणं प्रति।
व्याधिना नरशार्दूल कालधर्ममुपेयिवान्॥९॥

पुरुषसिंह! उन पितरों के उद्धार के विषय में किसी निश्चय को न पहुँचकर राजा दिलीप रोग से पीड़ित हो मृत्युको प्राप्त हो गये॥९॥

इन्द्रलोकं गतो राजा स्वार्जितेनैव कर्मणा।
राज्ये भगीरथं पुत्रमभिषिच्य नरर्षभः॥१०॥

पुत्र भगीरथ को राज्यपर अभिषिक्त करके नरश्रेष्ठ राजा दिलीप अपने किये हुए पुण्यकर्म के प्रभाव से इन्द्रलोक में गये॥ १०॥

भगीरथस्तु राजर्षिर्धार्मिको रघुनन्दन।
अनपत्यो महाराजः प्रजाकामः स च प्रजाः॥११॥
मन्त्रिष्वाधाय तद् राज्यं गंगावतरणे रतः।
तपो दीर्घ समातिष्ठद् गोकर्णे रघुनन्दन॥१२॥

रघुनन्दन! धर्मात्मा राजर्षि महाराज भगीरथ के कोई संतान नहीं थी। वे संतान-प्राप्ति की इच्छा रखते थे तो भी प्रजा और राज्य की रक्षा का भार मन्त्रियों पर रखकर गंगाजी को पृथ्वी पर उतारनेके प्रयत्न में लग गये और गोकर्ण तीर्थ में बड़ी भारी तपस्या करने लगे। ११-१२॥

ऊर्ध्वबाहुः पञ्चतपा मासाहारो जितेन्द्रियः।
तस्य वर्षसहस्राणि घोरे तपसि तिष्ठतः॥१३॥
अतीतानि महाबाहो तस्य राज्ञो महात्मनः।

महाबाहो! वे अपनी दोनों भुजाएँ ऊपर उठाकर पञ्चाग्निका सेवन करते और इन्द्रियों को काबू में रखकर एक-एक महीने पर आहार ग्रहण करते थे। इस प्रकार घोर तपस्या में लगे हुए महात्मा राजा भगीरथ के एक हजार वर्ष व्यतीत हो गये॥ १३ १/२ ॥

सुप्रीतो भगवान् ब्रह्मा प्रजानां प्रभुरीश्वरः॥ १४॥
ततः सुरगणैः सार्धमुपागम्य पितामहः।
भगीरथं महात्मानं तप्यमानमथाब्रवीत्॥१५॥

इससे प्रजाओं के स्वामी भगवान् ब्रह्मा जी उनपर बहुत प्रसन्न हुए। पितामह ब्रह्मा ने देवताओं के साथ वहाँ आकर तपस्या में लगे हुए महात्मा भगीरथ से इस प्रकार कहा— ॥१४-१५ ॥

भगीरथ महाराज प्रीतस्तेऽहं जनाधिप।
तपसा च सुतप्तेन वरं वरय सुव्रत॥१६॥

‘महाराज भगीरथ! तुम्हारी इस उत्तम तपस्या से मैं बहुत प्रसन्न हूँ। श्रेष्ठ व्रत का पालन करनेवाले नरेश्वर ! तुम कोई वर माँगो’ ॥ १६॥

तमुवाच महातेजाः सर्वलोकपितामहम्।
भगीरथो महाबाहुः कृताञ्जलिपुटः स्थितः॥ १७॥

तब महातेजस्वी महाबाहु भगीरथ हाथ जोड़कर उनके सामने खड़े हो गये और उन सर्वलोकपितामह रह्मासे इस प्रकार बोले- ॥१७॥

यदि मे भगवान् प्रीतो यद्यस्ति तपसःफलम्।
सगरस्यात्मजाः सर्वे मत्तः सलिलमाप्नुयुः॥१८॥

‘भगवन्! यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं और यदि इस तपस्या का कोई उत्तम फल है तो सगर के सभी पुत्रों को मेरे हाथ से गंगाजी का जल प्राप्त हो॥१८॥

गंगायाः सलिलक्लिन्ने भस्मन्येषां महात्मनाम्।
स्वर्गं गच्छेयुरत्यन्तं सर्वे च प्रपितामहाः॥१९॥

‘इन महात्माओं की भस्मराशि के गंगाजीके जल से भीग जाने पर मेरे उन सभी प्रपितामहों को अक्षय स्वर्ग लोक मिले॥१९॥

देव याचे ह संतत्यै नावसीदेत् कुलं च नः।
इक्ष्वाकूणां कुले देव एष मेऽस्तु वरः परः॥ २०॥

‘देव! मैं संतति के लिये भी आपसे प्रार्थना करता हूँ। हमारे कुल की परम्परा कभी नष्ट न हो। भगवन् ! मेरे द्वारा माँगा हुआ उत्तम वर सम्पूर्ण इक्ष्वाकुवंश के लिये लागू होना चाहिये’ ॥ २० ॥

उक्तवाक्यं तु राजानं सर्वलोकपितामहः।
प्रत्युवाच शुभां वाणी मधुरां मधुराक्षराम्॥२१॥

राजा भगीरथ के ऐसा कहनेपर सर्वलोकपितामह ब्रह्माजी ने मधुर अक्षरों वाली परम कल्याणमयी मीठी वाणी में कहा- ॥ २१॥

मनोरथो महानेष भगीरथ महारथ।
एवं भवतु भद्रं ते इक्ष्वाकुकुलवर्धन॥ २२॥

‘इक्ष्वाकुवंशकी वृद्धि करनेवाले महारथी भगीरथ! तुम्हारा कल्याण हो तुम्हारा यह महान् मनोरथ इसी रूप में पूर्ण हो ॥ २२॥

इयं हैमवती ज्येष्ठा गंगा हिमवतः सुता।
तां वै धारयितुं राजन् हरस्तत्र नियुज्यताम्॥ २३॥

‘राजन्! ये हैं हिमालय की ज्येष्ठ पुत्री हैमवती गंगाजी इनको धारण करने के लिये भगवान् शङ्कर को तैयार करो॥ २३॥

गंगायाः पतनं राजन् पृथिवी न सहिष्यते।
तां वै धारयितुं राजन् नान्यं पश्यामि शूलिनः॥ २४॥

‘महाराज! गंगाजी के गिरने का वेग यह पृथ्वी नहीं सह सकेगी। मैं त्रिशूलधारी भगवान् शङ्कर के सिवा और किसी को ऐसा नहीं देखता, जो इन्हें धारण कर सके’ ॥ २४॥

तमेवमुक्त्वा राजानं गंगां चाभाष्य लोककृत्।
जगाम त्रिदिवं देवैः सर्वैः सह मरुद्गणैः॥२५॥

राजा से ऐसा कहकर लोकस्रष्टा ब्रह्माजी ने भगवती गंगा से भी भगीरथ पर अनुग्रह करने के लिये कहा। इसके बाद वे सम्पूर्ण देवताओं तथा मरुद्गणों के साथ स्वर्गलोक को चले गये॥ २५ ॥

सर्ग ४३

देवदेवे गते तस्मिन् सोऽङ्गुष्ठाग्रनिपीडिताम्।
कृत्वा वसुमतीं राम वत्सरं समुपासत॥१॥

श्रीराम! देवाधिदेव ब्रह्माजी के चले जाने पर राजा भगीरथ पृथ्वी पर केवल अँगूठे के अग्रभाग को टिकाये हुए खड़े हो एक वर्ष तक भगवान् शङ्कर की उपासना में लगे रहे॥१॥

अथ संवत्सरे पूर्णे सर्वलोकनमस्कृतः।
उमापतिः पशुपती राजानमिदमब्रवीत्॥२॥

वर्ष पूरा होने पर सर्वलोकवन्दित उमावल्लभ भगवान् पशुपति ने प्रकट होकर राजा से इस प्रकार कहा— ॥२॥

प्रीतस्तेऽहं नरश्रेष्ठ करिष्यामि तव प्रियम्।
शिरसा धारयिष्यामि शैलराजसुतामहम्॥३॥

‘नरश्रेष्ठ! मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हूँ। तुम्हारा प्रिय कार्य अवश्य करूँगा। मैं गिरिराजकुमारी गंगा देवी को अपने मस्तक पर धारण करूँगा’ ॥ ३॥

ततो हैमवती ज्येष्ठा सर्वलोकनमस्कृता।
तदा सातिमहद्रूपं कृत्वा वेगं च दुःसहम्॥४॥
आकाशादपतद् राम शिवे शिवशिरस्युत।

श्रीराम! शङ्करजी की स्वीकृति मिल जाने पर हिमालय की ज्येष्ठ पुत्री गंगाजी, जिनके चरणों में सारा संसार मस्तक झुकाता है, बहुत बड़ा रूप धारण करके अपने वेग को दुस्सह बनाकर आकाश से भगवान् शङ्कर के शोभायमान मस्तक पर गिरीं ॥ ४ १/२॥

अचिन्तयच्च सा देवी गंगा परमदुर्धरा॥५॥
विशाम्यहं हि पातालं स्रोतसा गृह्य शङ्करम्।

उस समय परम दुर्धर गंगादेवी ने यह सोचा था कि मैं अपने प्रखर प्रवाह के साथ शङ्करजी को लिये-दिये पाताल में घुस जाऊँगी॥ ५ १/२॥

तस्यावलेपनं ज्ञात्वा क्रुद्धस्तु भगवान् हरः॥६॥
तिरोभावयितुं बुद्धिं चक्रे त्रिनयनस्तदा।

उनके इस अहंकार को जानकर त्रिनेत्रधारी भगवान् हर कुपित हो उठे और उन्होंने उस समय गंगा को अदृश्य कर देने का विचार किया॥ ६ १/२ ।।

सा तस्मिन् पतिता पुण्या पुण्ये रुद्रस्य मूर्धनि॥ ७॥
हिमवत्प्रतिमे राम जटामण्डलगह्वरे।
सा कथंचिन्महीं गन्तुं नाशक्नोद् यत्नमास्थिता॥ ८॥

पुण्यस्वरूपा गंगा भगवान् रुद्र के पवित्र मस्तक पर गिरीं। उनका वह मस्तक जटामण्डलरूपी गुफा से सुशोभित हिमालय के समान जान पड़ता था। उसपर गिरकर विशेष प्रयत्न करने पर भी किसी तरह वे पृथ्वी पर न जा सकीं॥ ७-८॥

नैव सा निर्गमं लेभे जटामण्डलमन्ततः।
तत्रैवाबभ्रमद् देवी संवत्सरगणान् बहून्॥९॥

भगवान् शिव के जटा-जाल में उलझकर किनारे आकर भी गंगादेवी वहाँ से निकलने का मार्ग न पा सकीं और बहुत वर्षों तक उस जटाजूट में ही भटकती रहीं॥९॥

तामपश्यत् पुनस्तत्र तपः परममास्थितः।
स तेन तोषितश्चासीदत्यन्तं रघुनन्दन॥१०॥

रघुनन्दन! भगीरथ ने देखा, गंगा जी भगवान् शङ्कर के जटामण्डल में अदृश्य हो गयी हैं; तब वे पुनः वहाँ भारी तपस्या में लग गये। उस तपस्या द्वारा उन्होंने भगवान् शिव को बहुत संतुष्ट कर लिया। १०॥

विससर्ज ततो गंगां हरो बिन्दुसरः प्रति।
तस्यां विसृज्यमानायां सप्त स्रोतांसि जज्ञिरे॥ ११॥

तब महादेवजी ने गंगाजी को बिन्दुसरोवर में ले जाकर छोड़ दिय, वहाँ छूटते ही उनकी सात धाराएँ हो गयीं॥११॥

लादिनी पावनी चैव नलिनी च तथैव च।
तिस्रः प्राची दिशं जग्मुर्गङ्गाः शिवजलाः शुभाः॥ १२॥

ह्लादिनी, पावनी और नलिनी—ये कल्याणमय जल से सुशोभित गंगा की तीन मंगलमयी धाराएँ पूर्व दिशा की ओर चली गयीं॥ १२ ॥

सुचक्षुश्चैव सीता च सिन्धुश्चैव महानदी।
तिस्रश्चैता दिशं जग्मुः प्रतीची तु दिशं शुभाः॥ १३॥

सुचक्षु, सीता और महानदी सिन्धु–ये तीन शुभ धाराएँ पश्चिम दिशा की ओर प्रवाहित हुईं। १३॥

सप्तमी चान्वगात् तासां भगीरथरथं तदा।
भगीरथोऽपि राजर्षिर्दिव्यं स्यन्दनमास्थितः॥ १४॥
प्रायादग्रे महातेजा गंगा तं चाप्यनुव्रजत्।
गगनाच्छंकरशिरस्ततो धरणिमागता॥१५॥

उनकी अपेक्षा जो सातवीं धारा थी, वह महाराज भगीरथ के रथ के पीछे-पीछे चलने लगी। महातेजस्वी राजर्षि भगीरथ भी दिव्य रथपर आरूढ़ हो आगे-आगे चले और गंगा उन्हीं के पथ का अनुसरण करने लगीं। इस प्रकार वे आकाश से भगवान् शङ्कर के मस्तक पर और वहाँ से इस पृथ्वी पर आयी थीं॥ १४-१५ ॥

असर्पत जलं तत्र तीव्रशब्दपुरस्कृतम्।
मत्स्यकच्छपसङ्घश्च शिंशुमारगणैस्तथा॥१६॥
पतद्भिः पतितैश्चैव व्यरोचत वसुंधरा।

गंगाजी की वह जलराशि महान् कलकल नाद के साथ तीव्र गति से प्रवाहित हुई। मत्स्य, कच्छप औरशिंशुमार (सूंस) झुंड-के-झुंड उसमें गिरने लगे। उन गिरे हुए जलजन्तुओं से वसुन्धरा की बड़ी शोभा हो रही थी॥ १६ १/२॥

ततो देवर्षिगन्धर्वा यक्षसिद्धगणास्तथा॥१७॥
व्यलोकयन्त ते तत्र गगनाद् गां गतां तदा।
विमानैर्नगराकारैर्हयैर्गजवरैस्तदा ॥१८॥

तदनन्तर देवता, ऋषि, गन्धर्व, यक्ष और सिद्धगण नगर के समान आकार वाले विमानों, घोड़ों तथा गजराजों पर बैठकर आकाश से पृथ्वी पर गयी हुई गंगाजी की शोभा निहारने लगे॥१७-१८॥

पारिप्लवगताश्चापि देवतास्तत्र विष्ठिताः।
तदद्भुतमिमं लोके गंगावतरमुत्तमम्॥१९॥
दिदृक्षवो देवगणाः समीयुरमितौजसः।

देवता लोग आश्चर्यचकित होकर वहाँ खड़े थे। जगत् में गंगावतरण के इस अद्भुत एवं उत्तम दृश्य को देखने की इच्छा से अमित तेजस्वी देवताओं का समूह वहाँ जुटा हुआ था। १९ १/२॥

सम्पतद्भिः सुरगणैस्तेषां चाभरणौजसा॥२०॥
शतादित्यमिवाभाति गगनं गततोयदम्।

तीव्र गति से आते हुए देवताओं तथा उनके दिव्य आभूषणों के प्रकाश से वहाँ का मेघरहित निर्मल आकाश इस तरह प्रकाशित हो रहा था, मानो उसमें सैकड़ों सूर्य उदित हो गये हों॥ २० १/२॥

शिंशुमारोरगगणैर्मीनैरपि च चञ्चलैः ॥२१॥
विद्युद्भिरिव विक्षिप्तैराकाशमभवत् तदा।

शिंशुमार, सर्प तथा चञ्चल मत्स्यसमूहों के उछलने से गंगाजी के जल से ऊपर का आकाश ऐसा जान पड़ता था, मानो वहाँ चञ्चल चपलाओं का प्रकाश सब ओर व्याप्त हो रहा हो। २१ १/२॥

पाण्डुरैः सलिलोत्पीडैः कीर्यमाणैः सहस्रधा॥ २२॥
शारदाभ्रेरिवाकीर्णं गगनं हंससम्प्लवैः।

वायु आदि से सहस्रों टुकड़ों में बँटे हुए फेन आकाश में सब ओर फैल रहे थे मानो शरद् ऋतु के श्वेत बादल अथवा हंस उड़ रहे हों॥ २२ १/२ ॥

क्वचिद् द्रुततरं याति कुटिलं क्वचिदायतम्॥ २३॥
विनतं क्वचिदुद्भूतं क्वचिद् याति शनैः शनैः ।
सलिलेनैव सलिलं क्वचिदभ्याहतं पुनः॥ २४॥

गंगा जी की वह धारा कहीं तेज, कहीं टेढ़ी और कहीं चौड़ी होकर बहती थी। कहीं बिलकुल नीचे की ओर गिरती और कहीं ऊँचे की ओर उठी हुई थी। कहीं समतल भूमिपर वह धीरे-धीरे बहती थी और कहीं-कहीं अपने ही जल से उसके जल में बारम्बार टक्करें लगती रहती थीं। २३-२४॥

मुहुरूर्ध्वपथं गत्वा पपात वसुधां पुनः।
तच्छंकरशिरोभ्रष्टं भ्रष्टं भूमितले पुनः॥२५॥
व्यरोचत तदा तोयं निर्मलं गतकल्मषम्।

गंगा का वह जल बार-बार ऊँचे मार्गपर उठता और पुनः नीची भूमि पर गिरता था। आकाश से भगवान्शङ्कर के मस्तक पर तथा वहाँ से फिर पृथ्वी पर गिरा हुआ वह निर्मल एवं पवित्र गंगाजल उस समय बड़ी शोभा पा रहा था॥

तत्रर्षिगणगन्धर्वा वसुधातलवासिनः॥२६॥
भवांगपतितं तोयं पवित्रमिति पस्पृशुः।

उस समय भूतलनिवासी ऋषि और गन्धर्व यह सोचकर कि भगवान् शङ्कर के मस्तक से गिरा हुआ यह जल बहुत पवित्र है, उसमें आचमन करने लगे। २६ १/२॥

शापात् प्रपतिता ये च गगनाद् वसुधातलम्॥ २७॥
कृत्वा तत्राभिषेकं ते बभूवुर्गतकल्मषाः।
धूतपापाः पुनस्तेन तोयेनाथ शुभान्विताः॥२८॥
पुनराकाशमाविश्य स्वाँल्लोकान् प्रतिपेदिरे।

जो शापभ्रष्ट होकर आकाश से पृथ्वीपर आ गये थे, वे गंगा के जल में स्नान करके निष्पाप हो गये तथा उस जल से पाप धुल जाने के कारण पुनः शुभ पुण्य से संयुक्त हो आकाश में पहुँचकर अपने लोकों को पा गये॥

मुमुदे मुदितो लोकस्तेन तोयेन भास्वता॥२९॥
कृताभिषेको गंगायां बभूव गतकल्मषः।

उस प्रकाशमान जल के सम्पर्क से आनन्दित हुए सम्पूर्ण जगत् को सदा के लिये बड़ी प्रसन्नता हुई। सब लोग गंगा में स्नान करके पापहीन हो गये॥ २९ १/२॥

भगीरथो हि राजर्षिदिव्यं स्यन्दनमास्थितः॥ ३०॥
प्रायादग्रे महाराजस्तं गंगा पृष्ठतोऽन्वगात्।

(हम पहले बता आये हैं कि) राजर्षि महाराज भगीरथ दिव्य रथपर आरूढ़ हो आगे-आगे चल रहे थे और गंगाजी उनके पीछे-पीछे जा रही थीं॥ ३० १/२॥

देवाः सर्षिगणाः सर्वे दैत्यदानवराक्षसाः॥३१॥
गन्धर्वयक्षप्रवराः सकिंनरमहोरगाः।
सर्पाश्चाप्सरसो राम भगीरथरथानुगाः॥३२॥
गंगामन्वगमन् प्रीताः सर्वे जलचराश्च ये।

श्रीराम! उस समय समस्त देवता, ऋषि, दैत्य, दानव, राक्षस, गन्धर्व, यक्षप्रवर, किन्नर, बड़े-बड़े नाग, सर्प तथा अप्सरा—ये सब लोग बड़ी प्रसन्नताके साथ राजा भगीरथ के रथ के पीछे गंगाजी के साथ-साथ चल रहे थे। सब प्रकार के जलजन्तु भी गंगाजी की उस जलराशि के साथ सानन्द जा रहे थे॥ ३१-३२ १/२॥

यतो भगीरथो राजा ततो गंगा यशस्विनी॥३३॥
जगाम सरितां श्रेष्ठा सर्वपापप्रणाशिनी।

जिस ओर राजा भगीरथ जाते, उसी ओर समस्त पापों का नाश करनेवाली सरिताओंमें श्रेष्ठ यशस्विनी गंगा भी जाती थीं॥ ३३ १/२ ॥

ततो हि यजमानस्य जोरद्भुतकर्मणः॥ ३४॥
गंगा सम्प्लावयामास यज्ञवाटं महात्मनः।

उस समय मार्ग में अद्भुत पराक्रमी महामना राजा जह्नु यज्ञ कर रहे थे, गंगा जी अपने जल-प्रवाह से उनके यज्ञमण्डप को बहा ले गयीं॥ ३४ १/२॥

तस्यावलेपनं ज्ञात्वा क्रुद्धो जनुश्च राघव॥ ३५॥
अपिबत् तु जलं सर्वं गंगायाः परमाद्भुतम्।

रघुनन्दन ! राजा जगु इसे गंगाजी का गर्व समझकर कुपित हो उठे; फिर तो उन्होंने गंगाजी के उस समस्त जलको पी लिया। यह संसार के लिये बड़ी अद्भुत बात हुई॥ ३५ १/२॥

ततो देवाः सगन्धर्वा ऋषयश्च सुविस्मिताः॥
पूजयन्ति महात्मानं जलुं पुरुषसत्तमम्।

तब देवता, गन्धर्व तथा ऋषि अत्यन्त विस्मित होकर पुरुषप्रवर महात्मा जलु की स्तुति करने लगे। ३६ १/२॥

गंगां चापि नयन्ति स्म दुहितृत्वे महात्मनः॥ ३७॥
ततस्तुष्टो महातेजाः श्रोत्राभ्यामसृजत् प्रभुः।
तस्माज्जनुसुता गंगा प्रोच्यते जाह्नवीति च॥ ३८॥

उन्होंने गंगाजी को उन महात्मा नरेश की कन्या बना दिया। (अर्थात् उन्हें यह विश्वास दिलाया कि गंगाजी को प्रकट करके आप इनके पिता कहलायेंगे।) इससे सामर्थ्यशाली महातेजस्वी जलु बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने अपने कानों के छिद्रोंद् वारा गंगाजी को पुनः प्रकट कर दिया, इसलिये गंगा जलु की पुत्री एवं जाह्नवी कहलाती हैं। ३७-३८॥

जगाम च पुनर्गङ्गा भगीरथरथानुगा।
सागरं चापि सम्प्राप्ता सा सरित्प्रवरा तदा ॥ ३९॥
रसातलमुपागच्छत् सिद्धयर्थं तस्य कर्मणः।

वहाँ से गंगा फिर भगीरथ के रथका अनुसरण करती हुई चलीं,उस समय सरिताओं में श्रेष्ठ जाह्नवी समुद्र तक जा पहुँची और राजा भगीरथ के पितरों के उद्धाररूपी कार्यकी सिद्धि के लिये रसातल में गयीं॥ ३९ १/२॥

भगीरथोऽपि राजर्षिर्गङ्गामादाय यत्नतः॥४०॥
पितामहान् भस्मकृतानपश्यद् गतचेतनः।

राजर्षि भगीरथ भी यत्नपूर्वक गंगाजीको साथ ले वहाँ गये। उन्होंने शापसे भस्म हए अपने पितामहोंको अचेत-सा होकर देखा॥ ४० १/२ ॥

अथ तद्भस्मनां राशिं गंगासलिलमुत्तमम्।
प्लावयत् पूतपाप्मानः स्वर्गं प्राप्ता रघूत्तम॥ ४१॥

रघुकुल के श्रेष्ठ वीर! तदनन्तर गंगा के उस उत्तम जल ने सगर-पुत्रों की उस भस्मराशि को आप्लावित कर दिया और वे सभी राजकुमार निष्पाप होकर स्वर्ग में पहुँच गये॥ ४१॥

सर्ग ४४

स गत्वा सागरं राजा गंगयानुगतस्तदा।
प्रविवेश तलं भूमेर्यत्र ते भस्मसात्कृताः॥१॥
भस्मन्यथाप्लुते राम गंगायाः सलिलेन वै।
सर्वलोकप्रभुर्ब्रह्मा राजानमिदमब्रवीत्॥२॥

श्रीराम! इस प्रकार गंगाजी को साथ लिये राजा भगीरथ ने समुद्र तक जाकर रसातल में, जहाँ उनके पूर्वज भस्म हुए थे, प्रवेश किया वह भस्मराशि जब गंगाजी के जलसे आप्लावित हो गयी, तब सम्पूर्ण लोकों के स्वामी भगवान् ब्रह्मा ने वहाँ पधार कर राजा से इस प्रकार कहा- ॥ १-२॥

तारिता नरशार्दूल दिवं याताश्च देववत्। ।
षष्टिः पुत्रसहस्राणि सगरस्य महात्मनः॥३॥

‘नरश्रेष्ठ! महात्मा राजा सगर के साठ हजार पुत्रों का तुमने उद्धार कर दिया। अब वे देवताओं की भाँति स्वर्गलोक में जा पहुँचे॥३॥

सागरस्य जलं लोके यावत्स्थास्यति पार्थिव।
सगरस्यात्मजाः सर्वे दिवि स्थास्यन्ति देववत्॥ ४॥

‘भूपाल! इस संसा रमें जब तक सागर का जल मौजूद रहेगा; तब तक सगर के सभी पुत्र देवताओं की भाँति स्वर्गलोक में प्रतिष्ठित रहेंगे॥४॥

इयं च दुहिता ज्येष्ठा तव गंगा भविष्यति।
त्वत्कृतेन च नाम्नाथ लोके स्थास्यति विश्रुता॥

‘ये गंगा तुम्हारी भी ज्येष्ठ पुत्री होकर रहेंगी और तुम्हारे नाम पर रखे हुए भागीरथी नाम से इस जगत् में विख्यात होंगी॥५॥

गंगा त्रिपथगा नाम दिव्या भागीरथीति च।
त्रीन् पथो भावयन्तीति तस्मात् त्रिपथगा स्मृता॥ ६॥

‘त्रिपथगा, दिव्या और भागीरथी—इन तीनों नामों से गंगाकी प्रसिद्धि होगी। ये आकाश, पृथ्वी और गंगा को यहाँ लाने की इच्छा की; परंतु वे इस पृथ्वी पर उन्हें लाने की प्रतिज्ञा पूरी न कर सके॥९-१० ॥

दिलीपेन महाभाग तव पित्रातितेजसा।
पुनर्न शकिता नेतुं गंगां प्रार्थयतानघ॥११॥

‘निष्पाप महाभाग! तुम्हारे अत्यन्त तेजस्वी पिता दिलीप भी गंगाको यहाँ लानेकी इच्छा करके भी इस कार्यमें सफल न हो सके॥११॥

सा त्वया समतिक्रान्ता प्रतिज्ञा पुरुषर्षभ।
प्राप्तोऽसि परमं लोके यशः परमसम्मतम्॥१२॥

‘पुरुषप्रवर! तुमने गंगा को भूतलपर लाने की वह प्रतिज्ञा पूर्ण कर ली इससे संसार में तुम्हें परम उत्तम एवं महान् यश की प्राप्ति हुई है॥ १२ ॥

तच्च गंगावतरणं त्वया कृतमरिंदम।
अनेन च भवान् प्राप्तो धर्मस्यायतनं महत्॥ १३॥

शत्रुदमन! तुमने जो गंगाजी को पृथ्वी पर उतारने का कार्य पूरा किया है, इससे उस महान् ब्रह्मलोक पर अधिकार प्राप्त कर लिया है, जो धर्म का आश्रय है।

प्लावयस्व त्वमात्मानं नरोत्तम सदोचिते।
सलिले पुरुषश्रेष्ठ शुचिः पुण्यफलो भव॥१४॥

‘नरश्रेष्ठ! पुरुषप्रवर! गंगा जी का जल सदा ही स्नान के योग्य है तुम स्वयं भी इसमें स्नान करो और पवित्र होकर पुण्य का फल प्राप्त करो॥१४॥

पितामहानां सर्वेषां कुरुष्व सलिलक्रियाम्।
स्वस्ति तेऽस्तु गमिष्यामि स्वं लोकं गम्यतां नृप॥ १५॥

‘नरेश्वर ! तुम अपने सभी पितामहों का तर्पण करो तुम्हारा कल्याण हो अब मैं अपने लोक को जाऊँगा तुम भी अपनी राजधानीको लौट जाओ’ ॥ १५ ॥

इत्येवमुक्त्वा देवेशः सर्वलोकपितामहः।
यथागतं तथागच्छद देवलोकं महायशाः॥१६॥

ऐसा कहकर सर्वलोकपितामह महायशस्वी देवेश्वर ब्रह्माजी जैसे आये थे, वैसे ही देवलोक को लौट गये॥१६॥

भगीरथस्तु राजर्षिः कृत्वा सलिलमुत्तमम्।
यथाक्रमं यथान्यायं सागराणां महायशाः॥१७॥
कृतोदकः शुची राजा स्वरं प्रविवेश ह।
समृद्धार्थो नरश्रेष्ठ स्वराज्यं प्रशशास ह॥१८॥

नरश्रेष्ठ! महायशस्वी राजर्षि राजा भगीरथ भी गंगाजीके उत्तम जल से क्रमशः सभी सगर-पुत्रों का विधिवत् तर्पण करके पवित्र हो अपने नग रको चले गये। इस प्रकार सफल मनोरथ होकर वे अपने राज्य का शासन करने लगे॥ १७-१८॥

प्रमुमोद च लोकस्तं नृपमासाद्य राघव।
नष्टशोकः समृद्धार्थो बभूव विगतज्वरः॥१९॥

रघुनन्दन! अपने राजाको पुनः सामने पाकर प्रजावर्गको बड़ी प्रसन्नता हुई। सबका शोक जाता रहा। सबके मनोरथ पूर्ण हुए और चिन्ता दूर हो गयी॥ १९॥

एष ते राम गंगाया विस्तरोऽभिहितो मया।
स्वस्ति प्राप्नुहि भद्रं ते संध्याकालोऽतिवर्तते॥२०॥

श्रीराम! यह गंगाजी की कथा मैंने तुम्हें विस्तार के साथ कह सुनायी तुम्हारा कल्याण हो अब जाओ, मंगलमय संध्यावन्दन आदिका सम्पादन करो। देखो, संध्याकाल बीता जा रहा है॥ २० ॥

धन्यं यशस्यमायुष्यं पत्र्यं स्वर्ग्यमथापि च।
यः श्रावयति विप्रेषु क्षत्रियेष्वितरेषु च ॥ २१॥
प्रीयन्ते पितरस्तस्य प्रीयन्ते दैवतानि च।
इदमाख्यानमायुष्यं गंगावतरणं शुभम्॥२२॥

यह गंगावतरण का मंगलमय उपाख्यान आयु बढ़ाने वाला है। धन, यश, आयु, पुत्र और स्वर्ग की प्राप्ति कराने वाला है। जो ब्राह्मणों, क्षत्रियों तथा दूसरे वर्ण के लोगों को भी यह कथा सुनाता है, उसके ऊपर देवता और पितर प्रसन्न होते हैं । २१-२२॥

यः शृणोति च काकुत्स्थ सर्वान् कामानवाप्नुयात्।
सर्वे पापाः प्रणश्यन्ति आयुः कीर्तिश्च वर्धते॥ २३॥

ककुत्स्थकुलभूषण! जो इसका श्रवण करता है, वह सम्पूर्ण कामनाओं को प्राप्त कर लेता है उसके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं और आयु की वृद्धि एवं कीर्ति का विस्तार होता है॥ २३॥

सर्ग ४५

विश्वामित्रवचः श्रुत्वा राघवः सहलक्ष्मणः।
विस्मयं परमं गत्वा विश्वामित्रमथाब्रवीत्॥१॥

विश्वामित्रजी की बातें सुनकर लक्ष्मण सहित श्रीरामचन्द्रजी को बड़ा विस्मय हुआ वे मुनि से इस प्रकार बोले- ॥१॥

अत्यद्भुतमिदं ब्रह्मन् कथितं परमं त्वया।
गंगावतरणं पुण्यं सागरस्यापि पूरणम्॥२॥

‘ब्रह्मन्! आपने गंगाजी के स्वर्ग से उतरने और समुद्र के भरने की यह बड़ी उत्तम और अत्यन्त अद्भुत कथा सुनायी॥२॥

क्षणभूतेव नौरात्रिः संवृत्तेयं परंतप।
इमां चिन्तयतोः सर्वां निखिलेन कथां तव॥३॥

‘काम-क्रोधादि शत्रुओं को संताप देने वाले महर्षे! आपकी कही हुई इस सम्पूर्ण कथा पर पूर्ण रूप से विचार करते हुए हम दोनों भाइयों की यह रात्रि एक क्षण के समान बीत गयी है॥३॥

तस्य सा शर्वरी सर्वा मम सौमित्रिणा सह।
जगाम चिन्तयानस्य विश्वामित्र कथां शुभाम्॥ ४॥

‘विश्वामित्र जी! लक्ष्मण के साथ इस शुभ कथा पर विचार करते हुए ही मेरी यह सारी रात बीती है’। ४॥

ततः प्रभाते विमले विश्वामित्रं तपोधनम्।
उवाच राघवो वाक्यं कृताह्निकमरिंदमः॥५॥

तत्पश्चात् निर्मल प्रभातकाल उपस्थित होने पर तपोधन विश्वामित्र जी जब नित्य कर्म से निवृत्त हो चुके, तब शत्रुदमन श्रीरामचन्द्रजी ने उनके पास जाकर कहा- ॥५॥

गता भगवती रात्रिः श्रोतव्यं परमं श्रुतम्।
तराम सरितां श्रेष्ठां पुण्यां त्रिपथगां नदीम्॥६॥

‘मुने! यह पूजनीया रात्रि चली गयी सुनने योग्य सर्वोत्तम कथा मैंने सुन ली,अब हम लोग सरिताओं में श्रेष्ठ पुण्यसलिला त्रिपथगामिनी नदी गंगाजी के उस पार चलें॥६॥

नौरेषा हि सुखास्तीर्णा ऋषीणां पुण्यकर्मणाम्।
भगवन्तमिह प्राप्तं ज्ञात्वा त्वरितमागता॥७॥

‘सदा पुण्यकर्म में तत्पर रहने वाले ऋषियों की यह नाव उपस्थित है। इस पर सुखद आसन बिछा है। आप परमपूज्य महर्षि को यहाँ उपस्थित जानकर ऋषियों की भेजी हुई यह नाव बड़ी तीव्र गति से यहाँ आयी है’ ॥ ७॥

तस्य तद् वचनं श्रुत्वा राघवस्य महात्मनः।
संतारं कारयामास सर्षिसङ्घस्य कौशिकः॥८॥

महात्मा रघुनन्दन का यह वचन सुनकर विश्वामित्र जी ने पहले ऋषियों सहित श्रीराम-लक्ष्मण को पार कराया॥ ८॥

उत्तरं तीरमासाद्य सम्पूज्यर्षिगणं ततः।
गंगाकूले निविष्टास्ते विशालां ददृशुः पुरीम्॥९॥

तत्पश्चात् स्वयं भी उत्तर तट पर पहुँचकर उन्होंने वहाँ रहने वाले ऋषियों का सत्कार किया। फिर सब लोग गंगाजी के किनारे ठहरकर विशाला नामक पुरी की शोभा देखने लगे॥९॥

ततो मुनिवरस्तूर्णं जगाम सहराघवः।
विशाला नगरी रम्यां दिव्यां स्वर्गोपमां तदा॥ १०॥

तदनन्तर श्रीराम-लक्ष्मण को साथ ले मुनिवर विश्वामित्र तुरंत उस दिव्य एवं रमणीय नगरी विशालाकी ओर चल दिये, जो अपनी सुन्दर शोभा से स्वर्ग के समान जान पड़ती थी॥ १०॥

अथ रामो महाप्राज्ञो विश्वामित्रं महामुनिम्।
पप्रच्छ प्राञ्जलिर्भूत्वा विशालामुत्तमां पुरीम्॥ ११॥

उस समय परम बुद्धिमान् श्रीराम ने हाथ जोड़कर उस उत्तम विशाला पुरी के विषय में महामुनि विश्वामित्र से पूछा- ॥११॥

कतमो राजवंशोऽयं विशालायां महामुने।
श्रोतुमिच्छामि भद्रं ते परं कौतूहलं हि मे ॥१२॥

‘महामुने! आपका कल्याण हो मैं यह सुनना चाहता हूँ कि विशाला में कौन-सा राजवंश राज्य कर रहा है ? इसके लिये मुझे बड़ी उत्कण्ठा है’ ॥ १२॥

तस्य तद् वचनं श्रुत्वा रामस्य मुनिपुंगवः।
आख्यातुं तत्समारेभे विशालायाः पुरातनम्॥ १३॥

श्रीराम का यह वचन सुनकर मुनिश्रेष्ठ विश्वामित्र ने विशाला पुरी के प्राचीन इतिहासका वर्णन आरम्भ किया— ॥ १३॥

श्रूयतां राम शक्रस्य कथां कथयतः श्रुताम्।
अस्मिन् देशे हि यद् वृत्तं शृणु तत्त्वेन राघव॥ १४॥

“रघुकुलनन्दन श्रीराम! मैंने इन्द्र के मुखसे विशाला-पुरी के वैभव का प्रतिपादन करने वाली जो कथा सुनी है, उसे बता रहा हूँ, सुनो। इस देश में जो वृत्तान्त घटित हुआ है, उसे यथार्थ रूप से श्रवण करो॥ १४॥

पूर्वं कृतयुगे राम दितेः पुत्रा महाबलाः।
अदितेश्च महाभागा वीर्यवन्तः सुधार्मिकाः॥ १५॥

‘श्रीराम! पहले सत्ययुग में दिति के पुत्र दैत्य बड़े बलवान् थे और अदिति के परम धर्मात्मा पुत्र महाभाग देवता भी बड़े शक्तिशाली थे॥ १५ ॥

ततस्तेषां नरव्याघ्र बुद्धिरासीन्महात्मनाम्।
अमरा विजराश्चैव कथं स्यामो निरामयाः॥ १६॥

‘पुरुषसिंह! उन महामना दैत्यों और देवताओं के मनमें यह विचार हुआ कि हम कैसे अजर-अमर और नीरोग हों? ॥ १६॥

तेषां चिन्तयतां तत्र बुद्धिरासीद विपश्चिताम्।
क्षीरोदमथनं कृत्वा रसं प्राप्स्याम तत्र वै॥१७॥

‘इस प्रकार चिन्तन करते हुए उन विचारशील देवताओं और दैत्यों की बुद्धि में यह बात आयी कि हमलोग यदि क्षीर सागर का मन्थन करें तो उसमें निश्चय ही अमृतमय रस प्राप्त कर लेंगे॥१७॥

ततो निश्चित्य मथनं योक्त्रं कृत्वा च वासुकिम्।
मन्थानं मन्दरं कृत्वा ममन्थुरमितौजसः॥१८॥

‘समुद्रमन्थन का निश्चय करके उन अमिततेजस्वी देवताओं और दैत्यों ने वासुकि नाग को रस्सी और मन्दराचल को मथानी बनाकर क्षीर-सागर को मथना आरम्भ कया॥१८॥

अथ वर्षसहस्रेण योकत्रसर्पशिरांसि च। ।
वमन्तोऽतिविषं तत्र ददंशुर्दशनैः शिलाः॥१९॥

‘तदनन्तर एक हजार वर्ष बीतने पर रस्सी बने हुए सर्प के बहुसंख्यक मुख अत्यन्त विष उगलते हुए वहाँ मन्दराचल की शिलाओं को अपने दाँतों से डंसने लगे॥ १९॥

उत्पपाताग्निसंकाशं हालाहलमहाविषम्।
तेन दग्धं जगत् सर्वं सदेवासुरमानुषम्॥२०॥

‘अतः उस समय वहाँ अग्नि के समान दाहक हालाहल नामक महाभयंकर विष ऊपर को उठा। उसने देवता, असुर और मनुष्यों सहित सम्पूर्ण जगत् को दग्ध करना आरम्भ किया॥ २०॥

अथ देवा महादेवं शङ्करं शरणार्थिनः।
जग्मुः पशुपतिं रुद्रं त्राहि त्राहीति तुष्टवुः ॥२१॥

‘यह देख देवता लोग शरणार्थी होकर सबका कल्याण करने वाले महान् देवता पशुपति रुद्र की शरण में गये और त्राहि-त्राहि की पुकार लगाकर उनकी स्तुति करने लगे॥ २१॥

एवमुक्तस्ततो देवैर्देवदेवेश्वरः प्रभुः।
प्रादुरासीत् ततोऽत्रैव शङ्खचक्रधरो हरिः॥ २२॥

‘देवताओं के इस प्रकार पुकारने पर देवदेवेश्वर भगवान् शिव वहाँ प्रकट हुए फिर वहीं शङ्ख चक्रधारी भगवान् श्रीहरि भी उपस्थित हो गये॥ २२ ॥

उवाचैनं स्मितं कृत्वा रुद्रं शूलधरं हरिः।
दैवतैर्मथ्यमाने तु यत्पूर्वं समुपस्थितम्॥२३॥
तत् त्वदीयं सुरश्रेष्ठ सुराणामग्रतो हि यत्।
अग्रपूजामिह स्थित्वा गृहाणेदं विषं प्रभो॥२४॥

‘श्रीहरिने त्रिशूलधारी भगवान् रुद्र से मुसकराकर कहा—’सुरश्रेष्ठ ! देवताओं के समुद्रमन्थन करने पर जो वस्तु सबसे पहले प्राप्त हुई है, वह आपका भाग है; क्योंकि आप सब देवताओं में अग्रगण्य हैं। प्रभो! अग्रपूजा के रूप में प्राप्त हुए इस विष को आप यहीं खड़े होकर ग्रहण करें’॥ २३-२४ ॥

इत्युक्त्वा च सुरश्रेष्ठस्तत्रैवान्तरधीयत।
देवतानां भयं दृष्ट्वा श्रुत्वा वाक्यं तु शाङ्गिणः॥ २५॥
हालाहलं विषं घोरं संजग्राहामृतोपमम्।
देवान् विसृज्य देवेशो जगाम भगवान् हरः॥२६॥

‘ऐसा कहकर देवशिरोमणि विष्णु वहीं अन्तर्धान हो गये। देवताओं का भय देखकर और भगवान् विष्णु की पूर्वोक्त बात सुनकर देवेश्वर भगवान् रुद्र ने उस घोर हालाहल विष को अमृत के समान मानकर अपने कण्ठ में धारण कर लिया तथा देवताओं को विदा करके वे अपने स्थान को चले गये॥ २५-२६ ॥

ततो देवासुराः सर्वे ममन्थू रघुनन्दन।
प्रविवेशाथ पातालं मन्थानः पर्वतोत्तमः॥२७॥

‘रघुनन्दन! तत्पश्चात् देवता और असुर सब मिलकर क्षीरसागर का मन्थन करने लगे उस समय मथानी बना हुआ उत्तम पर्वत मन्दर पाताल में घुस गया॥२७॥

ततो देवाः सगन्धर्वास्तुष्टवुर्मधुसूदनम्।
त्वं गतिः सर्वभूतानां विशेषेण दिवौकसाम्॥ २८॥
पालयास्मान् महाबाहो गिरिमुद्धर्तुमर्हसि।

‘तब देवता और गन्धर्व भगवान् मधुसूदन की स्तुति करने लगे—’महाबाहो! आप ही सम्पूर्ण प्राणियों की गति हैं विशेषतः देवताओं के अवलम्बन तो आप ही हैं आप हमारी रक्षा करें और इस पर्वत को उठावें’। २८ १/२॥

इति श्रुत्वा हृषीकेशः कामठं रूपमास्थितः॥ २९॥
पर्वतं पृष्ठतः कृत्वा शिश्ये तत्रोदधौ हरिः।

‘यह सुनकर भगवान् हृषीकेश ने कच्छप का रूप धारण कर लिया और उस पर्वत को अपनी पीठ पर रखकर वे श्रीहरि वहीं समुद्र के भीतर सो गये॥ २९ १/२॥

पर्वताग्रं तु लोकात्मा हस्तेनाक्रम्य केशवः॥ ३०॥
देवानां मध्यतः स्थित्वा ममन्थ पुरुषोत्तमः।

‘फिर विश्वात्मा पुरुषोत्तम भगवान् केशव उस पर्वत शिखर को हाथ से पकड़कर देवताओंके बीचमें खड़े हो स्वयं भी समुद्रका मन्थन करने लगे॥ ३० १/२॥

अथ वर्षसहस्रेण आयुर्वेदमयः पुमान्॥३१॥
उदतिष्ठत् सुधर्मात्मा सदण्डः सकमण्डलुः।
पूर्वं धन्वन्तरि म अप्सराश्च सुवर्चसः॥ ३२॥

‘तदनन्तर एक हजार वर्ष बीतने पर उस क्षीरसागर से एक आयुर्वेदमय धर्मात्मा पुरुष प्रकट हुए, जिनके एक हाथ में दण्ड और दूसरे में कमण्डलु था। उनका नाम धन्वन्तरि था। उनके प्राकट्य के बाद सागर से सुन्दर कान्तिवाली बहुत-सी अप्सराएँ प्रकट हुईं। ३१-३२॥

अप्सु निर्मथनादेव रसात् तस्माद् वरस्त्रियः।
उत्पेतुर्मनुजश्रेष्ठ तस्मादप्सरसोऽभवन्॥ ३३॥

‘नरश्रेष्ठ! मन्थन करने से ही अप् (जल) में उसके रस से वे सुन्दरी स्त्रियाँ उत्पन्न हुई थीं, इसलिये अप्सरा कहलायीं॥ ३३॥

षष्टिः कोट्योऽभवंस्तासामप्सराणां सुवर्चसाम्।
असंख्येयास्तु काकुत्स्थ यास्तासां परिचारिकाः॥ ३४॥

‘काकुत्स्थ! उन सुन्दर कान्तिवाली अप्सराओं की संख्या साठ करोड़ थी और जो उनकी परिचारिकाएँ थीं, उनकी गणना नहीं की जा सकती। वे सब असंख्य थीं॥ ३४॥

न ताः स्म प्रतिगृह्णन्ति सर्वे ते देवदानवाः।
अप्रतिग्रहणादेव ता वै साधारणाः स्मृताः॥ ३५॥

‘उन अप्सराओं को समस्त देवता और दानव कोई भी अपनी पत्नी’ रूप से ग्रहण न कर सके, इसलिये वे साधारणा (सामान्या) मानी गयीं॥ ३५॥

वरुणस्य ततः कन्या वारुणी रघुनन्दन।
उत्पपात महाभागा मार्गमाणा परिग्रहम्॥३६॥

‘रघुनन्दन! तदनन्तर वरुण की कन्या वारुणी, जो सुरा की अभिमानिनी देवी थी, प्रकट हुई और अपने को स्वीकार करने वाले पुरुषकी खोज करने लगी॥ ३६॥

दितेः पुत्रा न तां राम जगृहुर्वरुणात्मजाम्।
अदितेस्तु सुता वीर जगृहुस्तामनिन्दिताम्॥ ३७॥

‘वीर श्रीराम! दैत्योंने उस वरुण कन्या सुरा को नहीं ग्रहण किया, परंतु अदिति के पुत्रों ने इस अनिन्द्यसुन्दरी को ग्रहण कर लिया॥३७॥

असुरास्तेन दैतेयाः सुरास्तेनादितेः सुताः।
हृष्टाः प्रमुदिताश्चासन् वारुणीग्रहणात् सुराः॥ ३८॥

‘सुरा से रहित हो नेके कारण ही दैत्य ‘असुर’ कहलाये और सुरा-सेवन के कारण ही अदिति के पुत्रों की ‘सुर’ संज्ञा हुई। वारुणी को ग्रहण करने से देवता लोग हर्ष से उत्फुल्ल एवं आनन्दमग्न हो गये। ३८॥

उच्चैःश्रवा हयश्रेष्ठो मणिरत्नं च कौस्तुभम्।
उदतिष्ठन्नरश्रेष्ठ तथैवामृतमुत्तमम्॥ ३९॥

‘नरश्रेष्ठ! तदनन्तर घोड़ों में उत्तम उच्चैःश्रवा, मणिरत्न कौस्तुभ तथा परम उत्तम अमृत का प्राकट्य हुआ॥ ३९॥

अथ तस्य कृते राम महानासीत् कुलक्षयः।
अदितेस्तु ततः पुत्रा दितिपुत्रानयोधयन्॥४०॥

‘श्रीराम! उस अमृत के लिये देवताओं और असुरों के कुल का महान् संहार हुआ। अदिति के पुत्र दिति के पुत्रों के साथ युद्ध करने लगे॥ ४० ॥

एकतामगमन् सर्वे असुरा राक्षसैः सह।
युद्धमासीन्महाघोरं वीर त्रैलोक्यमोहनम्॥४१॥

समस्त असुर राक्षसों के साथ मिलकर एक हो गये। वीर! देवताओं के साथ उनका महाघोर संग्राम होने लगा, जो तीनों लोकों को मोह में डालने वाला था॥४१॥

यदा क्षयं गतं सर्वं तदा विष्णुर्महाबलः।
अमृतं सोऽहरत् तूर्णं मायामास्थाय मोहिनीम्॥ ४२॥

‘जब देवताओं और असुरों का वह सारा समूह क्षीण हो चला, तब महाबली भगवान् विष्णु ने मोहिनी माया का आश्रय लेकर तुरंत ही अमृत का अपहरण कर लिया॥ ४२॥

ये गताभिमुखं विष्णुमक्षरं पुरुषोत्तमम्।
सम्पिष्टास्ते तदा युद्धे विष्णुना प्रभविष्णुना॥ ४३॥

‘जो दैत्य बलपूर्वक अमृत छीन लाने के लिये अविनाशी पुरुषोत्तम भगवान् विष्णु के सामने गये, उन्हें प्रभावशाली भगवान् विष्णु ने उस समय युद्ध में पीस डाला॥ ४३॥

अदितेरात्मजा वीरा दितेः पुत्रान् निजजिरे।
अस्मिन् घोरे महायुद्धे दैतेयादित्ययो शम्॥ ४४॥

‘देवताओं और दैत्यों के उस घोर महायुद्ध में अदिति के वीर पुत्रों ने दिति के पुत्रों का विशेष संहार किया॥४४॥

निहत्य दितिपुत्रांस्तु राज्यं प्राप्य पुरंदरः।
शशास मुदितो लोकान् सर्षिसङ्घान् सचारणान्॥ ४५॥

‘दैत्यों का वध करने के पश्चात् त्रिलोकी का राज्य पाकर देवराज इन्द्र बड़े प्रसन्न हुए और ऋषियों तथा चारणों सहित समस्त लोकों का शासन करने लगे’। ४५॥

सर्ग ४६

हतेषु तेषु पुत्रेषु दितिः परमदुःखिता।
मारीचं कश्यपं नाम भर्तारमिदमब्रवीत्॥१॥

अपने उन पुत्रों के मारे जाने पर दिति को बड़ा दुःख हुआ,वे अपने पति मरीचिनन्दन कश्यप के पास जाकर बोलीं- ॥१॥

हतपुत्रास्मि भगवंस्तव पुत्रौर्महाबलैः।
शक्रहन्तारमिच्छामि पुत्रं दीर्घतपोर्जितम्॥२॥

‘भगवन्! आपके महाबली पुत्र देवताओं ने मेरे पुत्रों को मार डाला; अतः मैं दीर्घकाल की तपस्या से उपार्जित एक ऐसा पुत्र चाहती हूँ जो इन्द्र का वध करने में समर्थ हो॥२॥

साहं तपश्चरिष्यामि गर्भं मे दातुमर्हसि।
ईश्वरं शक्रहन्तारं त्वमनुज्ञातुमर्हसि॥३॥

‘मैं तपस्या करूँगी, आप इसके लिये मुझे आज्ञा दें और मेरे गर्भ में ऐसा पुत्र प्रदान करें जो सब कुछ करने में समर्थ तथा इन्द्र का वध करने वाला हो’ ॥ ३॥

तस्यास्तद वचनं श्रुत्वा मारीचः कश्यपस्तदा।
प्रत्युवाच महातेजा दितिं परमदुःखिताम्॥४॥

उसकी यह बात सुनकर महातेजस्वी मरीचनन्दन कश्यप ने उस परम दुःखिनी दिति को इस प्रकार उत्तर दिया- ॥४॥

एवं भवतु भद्रं ते शुचिर्भव तपोधने।
जनयिष्यसि पुत्रं त्वं शक्रहन्तारमाहवे॥५॥

‘तपोधने! ऐसा ही हो तुम शौचाचार का पालन करो तुम्हारा भला हो तुम ऐसे पुत्र को जन्म दोगी, जो युद्ध में इन्द्र को मार सके॥५॥

पूर्णे वर्षसहस्रे तु शुचिर्यदि भविष्यसि।
पुत्रं त्रैलोक्यहन्तारं मत्तस्त्वं जनयिष्यसि॥६॥

‘यदि पूरे एक सहस्र वर्ष तक पवित्रतापूर्वक रह सकोगी तो तुम मुझसे त्रिलोकीनाथ इन्द्र का वधकरने में समर्थ पुत्र प्राप्त कर लोगी’ ॥ ६॥

एवमुक्त्वा महातेजाः पाणिना सम्ममार्ज ताम्।
तामालभ्य ततः स्वस्ति इत्युक्त्वा तपसे ययौ॥ ७॥

ऐसा कहकर महातेजस्वी कश्यप ने दिति के शरीरपर हाथ फेरा फिर उनका स्पर्श करके कहा —’तुम्हारा कल्याण हो।’ ऐसा कहकर वे तपस्याके लिये चले गये॥७॥

गते तस्मिन् नरश्रेष्ठ दितिः परमहर्षिता।
कुशप्लवं समासाद्य तपस्तेपे सुदारुणम्॥८॥

नरश्रेष्ठ ! उनके चले जाने पर दिति अत्यन्त हर्ष और उत्साह में भरकर कुशप्लव नामक तपोवन में आयीं और अत्यन्त कठोर तपस्या करने लगीं॥ ८॥

तपस्तस्यां हि कुर्वत्यां परिचर्यां चकार ह।
सहस्राक्षो नरश्रेष्ठ परया गुणसम्पदा॥९॥

पुरुषप्रवर श्रीराम! दिति के तपस्या करते समय सहस्रलोचन इन्द्र विनय आदि उत्तम गुणसम्पत्ति से युक्त हो उनकी सेवा-टहल करने लगे॥९॥

अग्निं कुशान् काष्ठमपः फलं मूलं तथैव च।
न्यवेदयत् सहस्राक्षो यच्चान्यदपि कांक्षितम्॥

सहस्राक्ष इन्द्र अपनी मौसी दिति के लिये अग्नि, कुशा, काष्ठ, जल, फल, मूल तथा अन्यान्य अभिलषित वस्तुओं को ला-लाकर देते थे॥ १०॥

गात्रसंवाहनैश्चैव श्रमापनयनैस्तथा।
शक्रः सर्वेषु कालेषु दितिं परिचचार ह॥११॥

इन्द्र मौसी की शारीरिक सेवाएँ करते, उनके पैर दबाकर उनकी थकावट मिटाते तथा ऐसी ही अन्य आवश्यक सेवाओं द्वारा वे हर समय दिति की परिचर्या करते थे॥११॥

पूर्णे वर्षसहस्रे सा दशोने रघुनन्दन।
दितिः परमसंहृष्टा सहस्राक्षमथाब्रवीत्॥१२॥

रघुनन्दन! जब सहस्र वर्ष पूर्ण होने में कुल दस वर्ष बाकी रह गये, तब एक दिन दितिने अत्यन्त हर्षमें भरकर सहस्रलोचन इन्द्रसे कहा- ॥ १२ ॥

तपश्चरन्त्या वर्षाणि दश वीर्यवतां वर।
अवशिष्टानि भद्रं ते भ्रातरं द्रक्ष्यसे ततः॥१३॥

‘बलवानों में श्रेष्ठ वीर! अब मेरी तपस्याके केवल दस वर्ष और शेष रह गये हैं तुम्हारा भला हो दस वर्ष बाद तुम अपने होने वाले भाई को देख सकोगे॥ १३॥

यमहं त्वत्कृते पुत्र तमाधास्ये जयोत्सुकम्।
त्रैलोक्यविजयं पुत्र सह भोक्ष्यसि विज्वर ॥१४॥

‘बेटा! मैंने तुम्हारे विनाश के लिये जिस पुत्र की याचना की थी, वह जब तुम्हें जीतने के लिये उत्सुक होगा, उस समय मैं उसे शान्त कर दूंगी-तुम्हारे प्रति उसे वैर-भाव से रहित तथा भ्रातृ-स्नेह से युक्त बना दूंगी फिर तुम उसके साथ रहकर उसी के द्वारा की हुई त्रिभुवन-विजय का सुख निश्चिन्त होकर भोगना॥ १४॥

याचितेन सुरश्रेष्ठ पित्रा तव महात्मना।
वरो वर्षसहस्रान्ते मम दत्तः सुतं प्रति॥१५॥

‘सुरश्रेष्ठ! मेरे प्रार्थना करने पर तुम्हारे महात्मा पिता ने एक हजार वर्ष के बाद पुत्र होने का मुझे वर दिया है’ ॥ १५॥

इत्युक्त्वा च दितिस्तत्र प्राप्ते मध्यं दिनेश्वरे।
निद्रयापहृता देवी पादौ कृत्वाथ शीर्षतः ॥१६॥

ऐसा कहकर दिति नींद से अचेत हो गयीं। उस समय सूर्यदेव आकाश के मध्य भाग में आ गये थे दोपहरका समय हो गया था,देवी दिति आसनपर बैठी-बैठी झपकी लेने लगीं। सिर झुक गया और केश पैरों से जा लगे,इस प्रकार निद्रावस्था में उन्होंने पैरों को सिर से लगा लिया॥ १६ ॥

दृष्ट्वा तामशुचिं शक्रः पादयोः कृतमूर्धजाम्।
शिरःस्थाने कृतौ पादौ जहास च मुमोद च॥ १७॥

उन्होंने अपने केशों को पैरों पर डाल रखा था सिरको टिकाने के लिये दोनों पैरों को ही आधार बना लिया था। यह देख दिति को अपवित्र हुई जान इन्द्र हँसे और बड़े प्रसन्न हुए॥ १७॥

तस्याः शरीरविवरं प्रविवेश पुरंदरः।
गर्भं च सप्तधा राम चिच्छेद परमात्मवान्॥१८॥

श्रीराम! फिर तो सतत सावधान रहने वाले इन्द्र माता दिति के उदर में प्रविष्ट हो गये और उसमें स्थित हुए गर्भ के उन्होंने सात टुकड़े कर डाले॥ १८ ॥

भिद्यमानस्ततो गर्भो वज्रेण शतपर्वणा।
रुरोद सुस्वरं राम ततो दितिरबुध्यत॥१९॥

श्रीराम! उनके द्वारा सौ पर्वोवाले वज्र से विदीर्ण किये जाते समय वह गर्भस्थ बालक जोर-जोर से रोने लगा इससे दिति की निद्रा टूट गयी–वे जागकर उठ बैठीं॥ १९॥

मा रुदो मा रुदश्चेति गर्भं शक्रोऽभ्यभाषत।
बिभेद च महातेजा रुदन्तमपि वासवः॥२०॥

तब इन्द्र ने उस रोते हुए गर्भ से कहा—’भाई! मत रो, मत रो’ परंतु महातेजस्वी इन्द्र ने रोते रहने पर भी उस गर्भ के टुकड़े कर ही डाले॥२०॥

न हन्तव्यं न हन्तव्यमित्येव दितिरब्रवीत्।
निष्पपात ततः शक्रो मातुर्वचनगौरवात्॥२१॥

उस समय दिति ने कहा—’इन्द्र ! बच्चे को न मारो, न मारो।’ माता के वचन का गौरव मानकर इन्द्र सहसा उदर से निकल आये॥२१॥

प्राञ्जलिर्वज्रसहितो दितिं शक्रोऽभ्यभाषत।
अशुचिर्देवि सुप्तासि पादयोः कृतमूर्धजा॥ २२॥
तदन्तरमहं लब्ध्वा शक्रहन्तारमाहवे।
अभिन्दं सप्तधा देवि तन्मे त्वं क्षन्तुमर्हसि ॥२३॥

फिर वज्र सहित इन्द्र ने हाथ जोड़कर दिति से कहा —’देवि! तुम्हारे सिरके बाल पैरों से लगे थे इस प्रकार तुम अपवित्र अवस्था में सोयी थीं,यही छिद्र पाकर मैंने इस ‘इन्द्रहन्ता’ बालक के सात टुकड़े कर डाले हैं इसलिये माँ! तुम मेरे इस अपराध को क्षमा करो’ ।। २२-२३॥

सर्ग ४७

सप्तधा तु कृते गर्भे दितिः परमदुःखिता।
सहस्राक्षं दुराधर्षं वाक्यं सानुनयाब्रवीत्॥१॥

इन्द्र द्वारा अपने गर्भ के सात टुकड़े कर दिये जाने पर देवी दिति को बड़ा दुःख हुआ वे दुर्द्धर्ष वीर सहस्राक्ष इन्द्र से अनुनयपूर्वक बोलीं- ॥ १॥

ममापराधाद् गर्भोऽयं सप्तधा शकलीकृतः।
नापराधो हि देवेश तवात्र बलसूदन॥२॥

‘देवेश! बलसूदन! मेरे ही अपराध से इस गर्भ के सात टुकड़े हुए हैं इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है। २॥

प्रियं त्वत्कृतमिच्छामि मम गर्भविपर्यये।
मरुतां सप्त सप्तानां स्थानपाला भवन्तु ते॥३॥

‘इस गर्भ को नष्ट करनेके निमित्त तुमने जो क्रूरतापूर्ण कर्म किया है, वह तुम्हारे और मेरे लिये भी जिस तरह प्रिय हो जाय—जैसे भी उसका परिणाम तुम्हारे और मेरे लिये सुखद हो जाय, वैसा उपाय मैं करना चाहती हूँ। मेरे गर्भ के वे सातों खण्ड सात व्यक्ति होकर सातों मरुद्गणों के स्थानों का पालन करने वाले हो जायँ॥ ३॥

वातस्कन्धा इमे सप्त चरन्तु दिवि पुत्रक।
मारुता इति विख्याता दिव्यरूपा ममात्मजाः॥ ४॥

‘बेटा! ये मेरे दिव्य रूपधारी पुत्र ‘मारुत’ नाम से प्रसिद्ध होकर आकाश में जो सुविख्यात सात वातस्कन्ध हैं, उनमें विचरें॥४॥

ब्रह्मलोकं चरत्वेक इन्द्रलोकं तथापरः।
दिव्यवायुरिति ख्यातस्तृतीयोऽपि महायशाः॥

(ऊपर जो सात मरुत् बताये गये हैं, वे सातसात के गण हैं, इस प्रकार उनचास मरुत् समझने चाहिये )इनमें से जो प्रथम गण है, वह ब्रह्मलोक में विचरे, दूसरा इन्द्रलोक में विचरण करे तथा तीसरा महायशस्वी मरुद्गण दिव्य वायु के नामसे विख्यात हो अन्तरिक्ष में बहा करे॥५॥

चत्वारस्तु सुरश्रेष्ठ दिशो वै तव शासनात्।
संचरिष्यन्ति भद्रं ते कालेन हि ममात्मजाः॥६॥
त्वत्कृतेनैव नाम्ना वै मारुता इति विश्रुताः।

‘सुरश्रेष्ठ! तुम्हारा कल्याण हो मेरे शेष चार पुत्रों के गण तुम्हारी आज्ञा से समयानुसार सम्पूर्ण दिशाओं में संचार करेंगे तुम्हारे ही रखे हुए नाम से (तुमने जो ‘मा रुदः’ कहकर उन्हें रोने से मना किया था, उसी ‘मा रुदः’ इस वाक्य से) वे सब-के-सब मारुत कहलायेंगे। मारुत नाम से ही उनकी प्रसिद्धि होगी’ ॥ ६ १/२॥

तस्यास्तद् वचनं श्रुत्वा सहस्राक्षः पुरंदरः॥७॥
उवाच प्राञ्जलिर्वाक्यमतीदं बलसूदनः।

दिति का वह वचन सुनकर बल दैत्य को मारने वाले सहस्राक्ष इन्द्र ने हाथ जोड़कर यह बात कही— ॥ ७ १/२॥

सर्वमेतद यथोक्तं ते भविष्यति न संशयः॥८॥
विचरिष्यन्ति भद्रं ते देवरूपास्तवात्मजाः।

‘मा ! तुम्हारा कल्याण हो तुमने जैसा कहा है, वह सब वैसा ही होगा; इसमें संशय नहीं है। तुम्हारे ये पुत्र देवरूप होकर विचरेंगे’॥ ८ १/२ ॥

एवं तौ निश्चयं कृत्वा मातापुत्रौ तपोवने॥९॥
जग्मतुस्त्रिदिवं राम कृतार्थाविति नः श्रुतम्।

श्रीराम ! उस तपोवन में ऐसा निश्चय करके वे दोनों माता-पुत्र—दिति और इन्द्र कृतकृत्य हो स्वर्गलोक को चले गये—ऐसा हमने सुन रखा है॥९ १/२॥

एष देशः स काकुत्स्थ महेन्द्राध्युषितः पुरा॥ १०॥
दितिं यत्र तपःसिद्धामेवं परिचचार सः।

काकुत्स्थ! यही वह देश है, जहाँ पूर्वकाल में रहकर देवराज इन्द्र ने तपःसिद्ध दिति की परिचर्या की थी॥ १० १/२॥

इक्ष्वाकोस्तु नरव्याघ्र पुत्रः परमधार्मिकः॥११॥
अलम्बुषायामुत्पन्नो विशाल इति विश्रुतः।
तेन चासीदिह स्थाने विशालेति पुरी कृता॥ १२॥

पुरुषसिंह! पूर्वकाल में महाराज इक्ष्वाकु के एक परम धर्मात्मा पुत्र थे, जो विशाल नाम से प्रसिद्ध हुए। उनका जन्म अलम्बुषा के गर्भ से हुआ था। उन्होंने इस स्थान पर विशाला नाम की पुरी बसायी थी॥ ११-१२॥

विशालस्य सुतो राम हेमचन्द्रो महाबलः।
सुचन्द्र इति विख्यातो हेमचन्द्रादनन्तरः॥१३॥

श्रीराम! विशाल के पुत्रका नाम था हेमचन्द्र, जो बड़े बलवान् थे। हेमचन्द्र के पुत्र सुचन्द्र नाम से विख्यात हुए॥ १३॥

सुचन्द्रतनयो राम धूम्राश्व इति विश्रुतः।
धूम्राश्वतनयश्चापि सृञ्जयः समपद्यत॥१४॥

श्रीरामचन्द्र! सुचन्द्र के पुत्र धूम्राश्व और धूम्राश्व के पुत्र संजय हुए॥ १४॥

सृञ्जयस्य सुतः श्रीमान् सहदेवः प्रतापवान्।
कुशाश्वः सहदेवस्य पुत्रः परमधार्मिकः॥१५॥

संजय के प्रतापी पुत्र श्रीमान् सहदेव हुए। सहदेव के परम धर्मात्मा पुत्र का नाम कुशाश्व था॥ १५ ॥

कुशाश्वस्य महातेजाः सोमदत्तः प्रतापवान्।
सोमदत्तस्य पुत्रस्तु काकुत्स्थ इति विश्रुतः॥ १६॥

कुशाश्वके महातेजस्वी पुत्र प्रतापी सोमदत्त हुए और सोमदत्तके पुत्र काकुत्स्थ नामसे विख्यात हुए।१६॥

तस्य पुत्रो महातेजाः सम्प्रत्येष पुरीमिमाम्।
आवसत् परमप्रख्यः सुमति म दुर्जयः॥१७॥

काकुत्स्थ के महातेजस्वी पुत्र सुमति नाम से प्रसिद्ध हैं; जो परम कान्तिमान् एवं दुर्जय वीर हैं वे ही इस समय इस पुरी में निवास करते हैं।॥ १७॥

इक्ष्वाकोस्तु प्रसादेन सर्वे वैशालिका नृपाः।
दीर्घायुषो महात्मानो वीर्यवन्तः सुधार्मिकाः॥ १८॥

महाराज इक्ष्वाकु के प्रसाद से विशाला के सभी नरेश दीर्घायु, महात्मा, पराक्रमी और परम धार्मिक होते आये हैं॥ १८॥

इहाद्य रजनीमेकां सुखं स्वप्स्यामहे वयम्।
श्वः प्रभाते नरश्रेष्ठ जनकं द्रष्टुमर्हसि ॥१९॥

नरश्रेष्ठ! आज एक रात हम लोग यहीं सुखपूर्वक शयनरेंगे; फिर कल प्रातःकाल यहाँ से चलकर तुम मिथिला में राजा जनक का दर्शन करोगे॥ १९॥

सुमतिस्तु महातेजा विश्वामित्रमुपागतम्।
श्रुत्वा नरवर श्रेष्ठः प्रत्यागच्छन्महायशाः॥२०॥

नरेशों में श्रेष्ठ, महातेजस्वी, महायशस्वी राजा सुमति विश्वामित्रजी को पुरी के समीप आया हुआ सुनकर उनकी अगवानी के लिये स्वयं आये॥ २० ॥

पूजां च परमां कृत्वा सोपाध्यायः सबान्धवः।
प्राञ्जलिः कुशलं पृष्ट्वा विश्वामित्रमथाब्रवीत्॥ २१॥

अपने पुरोहित और बन्धु-बान्धवों के साथ राजा ने विश्वामित्रजी की उत्तम पूजा करके हाथ जोड़ उनका कुशल-समाचार पूछा और उनसे इस प्रकार कहा -॥

धन्योऽस्म्यनगृहीतोऽस्मि यस्य मे विषयं मने।
सम्प्राप्तो दर्शनं चैव नास्ति धन्यतरो मम॥२२॥

‘मुने! मैं धन्य हूँ। आपका मुझ पर बड़ा अनुग्रह है; क्योंकि आपने स्वयं मेरे राज्य में पधारकर मुझे दर्शन दिया। इस समय मुझसे बढ़कर धन्य पुरुष दूसरा कोई नहीं है’ ॥ २२॥

सर्ग ४८

पृष्ट्वा तु कुशलं तत्र परस्परसमागमे।
कथान्ते सुमतिर्वाक्यं व्याजहार महामुनिम्॥१॥

वहाँ परस्पर समागम के समय एक-दूसरे का कुशल-मंगल पूछकर बातचीत के अन्त में राजा सुमति ने महामुनि विश्वामित्र से कहा- ॥१॥

इमौ कुमारौ भद्रं ते देवतुल्यपराक्रमौ।
गजसिंहगती वीरौ शार्दूलवृषभोपमौ॥२॥

‘ब्रह्मन्! आपका कल्याण हो ये दोनों कुमारदेवताओं के तुल्य पराक्रमी जान पड़ते हैं। इनकी चाल-ढाल हाथी और सिंह की गति के समान है। ये दोनों वीर सिंह और साँड़ के समान प्रतीत होते हैं।२॥

पद्मपत्रविशालाक्षौ खड्गतूणधनुर्धरौ।
अश्विनाविव रूपेण समुपस्थितयौवनौ॥३॥

इनके बड़े-बड़े नेत्र विकसित कमलदल के समान शोभा पाते हैं। ये दोनों तलवार, तरकस और धनुषधारण किये हुए हैं। अपने सुन्दर रूप के द्वारा दोनों अश्विनीकुमारों को लज्जित करते हैं तथा युवावस्था के निकट आ पहुँचे हैं॥

यदृच्छयैव गां प्राप्तौ देवलोकादिवामरौ।
कथं पद्भ्यामिह प्राप्तौ किमर्थं कस्य वा मुने॥ ४॥

‘इन्हें देखकर ऐसा जान पड़ता है, मानो दो देवकुमार दैवेच्छावश देवलोक से पृथ्वी पर आ गये हों। मुने! ये दोनों किसके पुत्र हैं और कैसे, किसलिये यहाँ पैदल ही आये हैं ? ॥ ४॥

भूषयन्ताविमं देशं चन्द्रसूर्याविवाम्बरम्।
परस्परेण सदृशौ प्रमाणेङ्गितचेष्टितैः ॥५॥

‘जैसे चन्द्रमा और सूर्य आकाश की शोभा बढ़ाते । हैं, उसी प्रकार ये दोनों कुमार इस देश को सुशोभित कर रहे हैं। शरीरकी ऊँचाई, मनोभावसूचक संकेत तथा चेष्टा (बोलचाल) में ये दोनों एक-दूसरे के समान हैं॥५॥

किमर्थं च नरश्रेष्ठौ सम्प्राप्तौ दुर्गमे पथि।
वरायुधधरौ वीरौ श्रोतुमिच्छामि तत्त्वतः॥६॥

‘श्रेष्ठ आयुध धारण करने वाले ये दोनों नरश्रेष्ठ वीर इस दुर्गम मार्ग में किसलिये आये हैं? यह मैं यथार्थरूप से सुनना चाहता हूँ’॥६॥

तस्य तद् वचनं श्रुत्वा यथावृत्तं न्यवेदयत्।
सिद्धाश्रमनिवासं च राक्षसानां वधं यथा।
विश्वामित्रवचः श्रुत्वा राजा परमविस्मितः॥७॥

सुमति का यह वचन सुनकर विश्वामित्रजी ने उन्हें सब वृत्तान्त यथार्थ रूप से निवेदन किया। सिद्धाश्रम में निवास और राक्षसों के वध का प्रसंग भी यथावत् रूपसे कह सुनाया। विश्वामित्रजी की बात सुनकर राजा सुमति को बड़ा विस्मय हुआ॥७॥

अतिथी परमं प्राप्तौ पुत्रौ दशरथस्य तौ।
पूजयामास विधिवत् सत्काराहौँ महाबलौ॥८॥ 

उन्होंने परम आदरणीय अतिथि के रूप में आये हुए उन दोनों महाबली दशरथ-पुत्रों का विधि पूर्वक आतिथ्य-सत्कार किया॥ ८॥

ततः परमसत्कारं सुमतेः प्राप्य राघवौ।
उष्य तत्र निशामेकां जग्मतुर्मिथिलां ततः॥९॥

सुमति से उत्तम आदर-सत्कार पाकर वे दोनों रघुवंशी कुमार वहाँ एक रात रहे और सबेरे उठकर मिथिला की ओर चल दिये॥९॥

तां दृष्ट्वा मुनयः सर्वे जनकस्य पुरीं शुभाम्।
साधु साध्विति शंसन्तो मिथिलां समपूजयन्॥ १०॥

मिथिला में पहुँचकर जनकपुरी की सुन्दर शोभा देख सभी महर्षि साधु-साधु कहकर उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे॥ १० ॥

मिथिलोपवने तत्र आश्रमं दृश्य राघवः।
पुराणं निर्जनं रम्यं पप्रच्छ मुनिपुंगवम्॥११॥

मिथिला के उपवनमें एक पुराना आश्रम था, जो अत्यन्त रमणीय होकर भी सूनसान दिखायी देता था। उसे देखकर श्रीरामचन्द्रजी ने मुनिवर विश्वामित्रजी से पूछा- ॥११॥

इदमाश्रमसंकाशं किं न्विदं मुनिवर्जितम्।
श्रोतुमिच्छामि भगवन् कस्यायं पूर्व आश्रमः॥१२॥

‘भगवन्! यह कैसा स्थान है, जो देखने में तो आश्रम-जैसा है; किंतु एक भी मुनि यहाँ दृष्टिगोचर नहीं होते हैं। मैं यह सुनना चाहता हूँ कि पहले यह आश्रम किसका था?’ ॥ १२ ॥

तच्छ्रुत्वा राघवेणोक्तं वाक्यं वाक्यविशारदः।
प्रत्युवाच महातेजा विश्वामित्रो महामुनिः॥१३॥

श्रीरामचन्द्रजी का यह प्रश्न सुनकर प्रवचन कुशल महातेजस्वी महामुनि विश्वामित्र ने इस प्रकार उत्तर दिया— ॥१३॥

हन्त ते कथयिष्यामि शृणु तत्त्वेन राघव।
यस्यैतदाश्रमपदं शप्तं कोपान्महात्मनः॥१४॥

‘रघुनन्दन! पूर्वकाल में यह जिस महात्मा का आश्रम था और जिन्होंने क्रोधपूर्वक इसे शाप दे दिया था, उनका तथा उनके इस आश्रम का सब वृत्तान्त तुम से कहता हूँ तुम यथार्थ रूप से इसको सुनो। १४॥

गौतमस्य नरश्रेष्ठ पूर्वमासीन्महात्मनः।
आश्रमो दिव्यसंकाशः सुरैरपि सुपूजितः ॥१५॥

‘नरश्रेष्ठ! पूर्वकाल में यह स्थान महात्मा गौतम का आश्रम था। उस समय यह आश्रम बड़ा ही दिव्य जान पड़ता था। देवता भी इसकी पूजा एवं प्रशंसा किया करते थे॥१५॥

स चात्र तप आतिष्ठदहल्यासहितः पुरा।
वर्षपूगान्यनेकानि राजपुत्र महायशः॥१६॥

‘महायशस्वी राजपुत्र! पूर्वकाल में महर्षि गौतम अपनी पत्नी अहल्या के साथ रहकर यहाँ तपस्या करते थे। उन्होंने बहुत वर्षों तक यहाँ तप किया था। १६॥

तस्यान्तरं विदित्वा च सहस्राक्षः शचीपतिः।
मुनिवेषधरो भूत्वा अहल्यामिदमब्रवीत्॥१७॥

‘एक दिन जब महर्षि गौतम आश्रम पर नहीं थे, उपयुक्त अवसर समझकर शचीपति इन्द्र गौतम मुनि का वेष धारण किये वहाँ आये और अहल्या से इस प्रकार बोले- ॥ १७॥

ऋतुकालं प्रतीक्षन्ते नार्थिनः सुसमाहिते।
संगमं त्वहमिच्छामि त्वया सह सुमध्यमे॥१८॥

“सदा सावधान रहने वाली सुन्दरी! रति की इच्छा रखने वाले प्रार्थी पुरुष ऋतुकाल की प्रतीक्षा नहीं करते हैं सुन्दर कटिप्रदेशवाली सुन्दरी ! मैं (इन्द्र) तुम्हारे साथ समागम करना चाहता हूँ’॥ १८ ॥

मुनिवेषं सहस्राक्षं विज्ञाय रघुनन्दन।
मतिं चकार दुर्मेधा देवराजकुतूहलात्॥१९॥

‘रघुनन्दन ! महर्षि गौतम का वेष धारण करके आये हुए इन्द्र को पहचानकर भी उस दुर्बुद्धि नारी ने ‘अहो! देवराज इन्द्र मुझे चाहते हैं’ इस कौतूहल वश उनके साथ समागम का निश्चय करके वह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया॥

अथाब्रवीत् सुरश्रेष्ठं कृतार्थेनान्तरात्मना।
कृतार्थास्मि सुरश्रेष्ठ गच्छ शीघ्रमितः प्रभो॥ २०॥
आत्मानं मां च देवेश सर्वथा रक्ष गौतमात्।

‘रति के पश्चात् उसने देवराज इन्द्र से संतुष्टचित्त होकर कहा–’सुरश्रेष्ठ! मैं आपके समागम से कृतार्थ हो गयी। प्रभो! अब आप शीघ्र यहाँ से चले जाइये। देवेश्वर! महर्षि गौतम के कोप से आप अपनी और मेरी भी सब प्रकार से रक्षा कीजिये’ ।। २० १/२॥

इन्द्रस्तु प्रहसन् वाक्यमहल्यामिदमब्रवीत्॥२१॥
सुश्रोणि परितुष्टोऽस्मि गमिष्यामि यथागतम्।

‘तब इन्द्र ने अहल्या से हँसते हुए कहा—’सुन्दरी ! मैं भी संतुष्ट हो गया अब जैसे आया था, उसी तरह चला जाऊँगा’ ॥ २१ १/२ ॥

एवं संगम्य तु तदा निश्चक्रामोटजात् ततः॥ २२॥
स सम्भ्रमात् त्वरन् राम शङ्कितो गौतमं प्रति।

‘श्रीराम! इस प्रकार अहल्या से समागम करके इन्द्र जब उस कुटी से बाहर निकले, तब गौतम के आ जाने की आशङ्का से बड़ी उतावली के साथ वेगपूर्वक भागने का प्रयत्न करने लगे। २२ १/२॥

गौतमं स ददर्शाथ प्रविशन्तं महामुनिम्॥२३॥
देवदानवदुर्धर्षं तपोबलसमन्वितम्।
तीर्थोदकपरिक्लिन्नं दीप्यमानमिवानलम्॥२४॥
गृहीतसमिधं तत्र सकुशं मुनिपुंगवम्।

‘इतने ही में उन्होंने देखा, देवताओं और दानवों के लिये भी दुर्धर्ष, तपोबलसम्पन्न महामुनि गौतम हाथ में समिधा लिये आश्रम में प्रवेश कर रहे हैं। उनका शरीर तीर्थ के जल से भीगा हुआ है और वे प्रज्वलित अग्नि के समान उद्दीप्त हो रहे हैं। २३-२४ १/२ ॥

दृष्ट्वा सुरपतिस्त्रस्तो विषण्णवदनोऽभवत्॥२५॥
अथ दृष्ट्वा सहस्राक्षं मुनिवेषधरं मुनिः।
दुर्वृत्तं वृत्तसम्पन्नो रोषाद् वचनमब्रवीत्॥२६॥

‘उनपर दृष्टि पड़ते ही देवराज इन्द्र भय से थर्रा उठे। उनके मुखपर विषाद छा गया। दुराचारी इन्द्र को मुनि का वेष धारण किये देख सदाचारसम्पन्न मुनिवर गौतमजी ने रोष भरकर कहा- ॥ २५-२६ ॥

मम रूपं समास्थाय कृतवानसि दुर्मते।
अकर्तव्यमिदं यस्माद विफलस्त्वं भविष्यसि॥ २७॥

“दुर्मते! तूने मेरा रूप धारण करके यह न करने योग्य पापकर्म किया है, इसलिये तू विफल (अण्डकोषों से रहित) हो जायगा’ ॥ २७॥

गौतमेनैवमुक्तस्य सुरोषेण महात्मना।
पेततुर्वृषणी भूमौ सहस्राक्षस्य तत्क्षणात्॥ २८॥

‘रोष में भरे हुए महात्मा गौतम के ऐसा कहते ही सहस्राक्ष इन्द्र के दोनों अण्डकोष उसी क्षण पृथ्वीपर गिर पड़े॥२८॥

तथा शप्त्वा च वै शक्रं भार्यामपि च शप्तवान्।
इह वर्षसहस्राणि बहूनि निवसिष्यसि ॥ २९॥
वातभक्षा निराहारा तप्यन्ती भस्मशायिनी।
अदृश्या सर्वभूतानामाश्रमेऽस्मिन् वसिष्यसि॥ ३०॥

इन्द्र को इस प्रकार शाप देकर गौतम ने अपनी पत्नी को भी शाप दिया—’दुराचारिणी! तू भी यहाँ कई हजार वर्षों तक केवल हवा पीकर या उपवास करके कष्ट उठाती हुई राख में पड़ी रहेगी। समस्त प्राणियों से अदृश्य रहकर इस आश्रम में निवास करेगी।

यदा त्वेतद् वनं घोरं रामो दशरथात्मजः।
आगमिष्यति दुर्धर्षस्तदा पूता भविष्यसि॥३१॥
तस्यातिथ्येन दुर्वृत्ते लोभमोहविवर्जिता।।
मत्सकाशं मुदा युक्ता स्वं वपुर्धारयिष्यसि॥३२॥

जब दुर्धर्ष दशरथ-कुमार राम इस घोर वन में पदार्पण करेंगे, उस समय तू पवित्र होगी। उनका आतिथ्य-सत्कार करने से तेरे लोभ-मोह आदि दोष दूर हो जायँगे और तू प्रसन्नतापूर्वक मेरे पास पहुँचकर अपना पूर्व शरीर धारण कर लेगी’ ॥ २९३२॥

एवमुक्त्वा महातेजा गौतमो दुष्टचारिणीम्।
इममाश्रममुत्सृज्य सिद्धचारणसेविते।
हिमवच्छिखरे रम्ये तपस्तेपे महातपाः ॥ ३३॥

‘अपनी दुराचारिणी पत्नी से ऐसा कहकर महातेजस्वी, महातपस्वी गौतम इस आश्रम को छोड़कर चले गये और सिद्धों तथा चारणों से सेवित हिमालयके रमणीय शिखर पर रहकर तपस्या करने लगे’ ॥ ३३॥

सर्ग ४९

अफलस्तु ततः शक्रो देवानग्निपुरोगमान्।
अब्रवीत् त्रस्तनयनः सिद्धगन्धर्वचारणान्॥१॥

तदनन्तर इन्द्र अण्डकोष से रहित होकर बहुत डर गये। उनके नेत्रों में त्रास छा गया। वे अग्नि आदि देवताओं, सिद्धों, गन्धर्वो और चारणों से इस प्रकार बोले- ॥१॥

कुर्वता तपसो विनं गौतमस्य महात्मनः।
क्रोधमुत्पाद्य हि मया सुरकार्यमिदं कृतम्॥ २॥

‘देवताओ! महात्मा गौतम की तपस्या में विघ्न डालने के लिये मैंने उन्हें क्रोध दिलाया है। ऐसा करके मैंने यह देवताओं का कार्य ही सिद्ध किया है। २॥

अफलोऽस्मि कृतस्तेन क्रोधात् सा च निराकृता।
शापमोक्षेण महता तपोऽस्यापहृतं मया॥३॥

‘मनि ने क्रोधपूर्वक भारी शाप देकर मुझे अण्डकोष से रहित कर दिया और अपनी पत्नी का भी परित्याग कर दिया। इससे मेरे द्वारा उनकी तपस्या का अपहरण हुआ है॥

तन्मां सुरवराः सर्वे सर्षिसङ्गाः सचारणाः।
सरकार्यकरं यूयं सफलं कर्तुमर्हथ॥४॥

‘यदि मैं उनकी तपस्या में विघ्न नहीं डालता तो वे देवताओं का राज्य ही छीन लेते अतः ऐसा करके मैंने देवताओं का ही कार्य सिद्ध किया है। इसलिये श्रेष्ठ देवताओ! तुम सब लोग, ऋषिसमुदाय और चारणगण मिलकर मुझे अण्डकोष से युक्त करने का प्रयत्न करो’ ॥ ४॥

शतक्रतोर्वचः श्रुत्वा देवाः साग्निपुरोगमाः।
पितृदेवानुपेत्याहुः सर्वे सह मरुद्गणैः॥५॥

इन्द्रका यह वचन सुनकर मरुद्गणों सहित अग्नि आदि समस्त देवता कव्यवाहन आदि पितृदेवताओं के पास जाकर बोले- ॥ ५॥

अयं मेषः सवृषणः शक्रो ह्यवृषणः कृतः।
मेषस्य वृषणौ गृह्य शक्रायाशु प्रयच्छत॥६॥

‘पितृगण ! यह आपका भेड़ा अण्डकोष से युक्त है और इन्द्र अण्डकोष रहित कर दिये गये हैं। अतः इस भेड़े के दोनों अण्डकोषों को लेकर आप शीघ्र ही इन्द्र को अर्पित कर दें॥६॥

अफलस्तु कृतो मेषः परां तुष्टिं प्रदास्यति।
भवतां हर्षणार्थं च ये च दास्यन्ति मानवाः।
अक्षयं हि फलं तेषां यूयं दास्यथ पुष्कलम्॥७॥

‘अण्डकोष से रहित किया हुआ यह भेड़ा इसी स्थान में आप लोगों को परम संतोष प्रदान करेगा। अतः जो मनुष्य आपलोगों की प्रसन्नता के लिये अण्डकोषरहित भेड़ा दान करेंगे, उन्हें आप लोग उस दान का उत्तम एवं पूर्ण फल प्रदान करेंगे’ ॥ ७॥

अग्नेस्तु वचनं श्रुत्वा पितृदेवाः समागताः।
उत्पाट्य मेषवृषणौ सहस्राक्षे न्यवेशयन्॥८॥

अग्नि की यह बात सुनकर पितृदेवताओं ने एकत्र हो भेड़े के अण्डकोषों को उखाड़कर इन्द्र के शरीर में उचित स्थान पर जोड़ दिया॥ ८॥

तदाप्रभृति काकुत्स्थ पितृदेवाः समागताः।
अफलान् भुञ्जते मेषान् फलैस्तेषामयोजयन्॥

ककुत्स्थनन्दन श्रीराम! तभी से वहाँ आये हए समस्त पितृ-देवता अण्डकोषरहित भेड़ों को ही उपयोग में लाते हैं और दाताओं को उनके दान जनित फलों के भागी बनाते हैं॥९॥

इन्द्रस्तु मेषवृषणस्तदाप्रभृति राघव।
गौतमस्य प्रभावेण तपसा च महात्मनः॥१०॥

रघुनन्दन! उसी समय से महात्मा गौतम के तपस्याजनित प्रभाव से इन्द्र को भेड़ों के अण्डकोष धारण करने पड़े॥१०॥

तदागच्छ महातेज आश्रमं पुण्यकर्मणः।
तारयैनां महाभागामहल्यां देवरूपिणीम्॥११॥

महातेजस्वी श्रीराम! अब तुम पुण्यकर्मा महर्षि गौतम के इस आश्रम पर चलो और इन देवरूपिणी महाभागा अहल्या का उद्धार करो॥ ११॥

विश्वामित्रवचः श्रुत्वा राघवः सहलक्ष्मणः।
विश्वामित्रं पुरस्कृत्य आश्रमं प्रविवेश ह॥१२॥

विश्वामित्रजी का यह वचन सुनकर लक्ष्मणसहित श्रीराम ने उन महर्षि को आगे करके उस आश्रम में प्रवेश किया॥ १२॥

ददर्श च महाभागां तपसा द्योतितप्रभाम्।
लोकैरपि समागम्य दुर्निरीक्ष्यां सुरासुरैः ॥ १३॥

वहाँ जाकर उन्होंने देखा—महासौभाग्यशालिनी अहल्या अपनी तपस्या से देदीप्यमान हो रही हैं। इस लोक के मनुष्य तथा सम्पूर्ण देवता और असुर भी वहाँ आकर उन्हें देख नहीं सकते थे॥१३॥

प्रयत्नान्निर्मितां धात्रा दिव्यां मायामयीमिव।
धूमेनाभिपरीतांगी दीप्तामग्निशिखामिव॥१४॥
सतुषारावृतां साभ्रां पूर्णचन्द्रप्रभामिव।
मध्येऽम्भसो दुराधर्षां दीप्ता सूर्यप्रभामिव॥१५॥

उनका स्वरूप दिव्य था। विधाता ने बड़े प्रयत्न से उनके अंगों का निर्माण किया था। वे मायामयी-सी प्रतीत होती थीं। धूम से घिरी हुई प्रज्वलित अग्निशिखा-सी जान पड़ती थीं। ओले और बादलों से ढकी हुई पूर्ण चन्द्रमा की प्रभा-सी दिखायी देती थीं तथा जल के भीतर उद्भासित होने वाली सूर्य की दुर्धर्ष प्रभा के समान दृष्टिगोचर होती थीं॥ १४-१५ ॥

सा हि गौतमवाक्येन दुर्निरीक्ष्या बभूव ह।
त्रयाणामपि लोकानां यावद् रामस्य दर्शनम्।
शापस्यान्तमुपागम्य तेषां दर्शनमागता॥१६॥

गौतम के शापवश श्रीरामचन्द्रजी का दर्शन होने से पहले तीनों लोकों के किसी भी प्राणी के लिये उनका दर्शन होना कठिन था। श्रीराम का दर्शन मिल जाने से जब उनके शाप का अन्त हो गया, तब वे उन सबको दिखायी देने लगीं।

राघवौ तु तदा तस्याः पादौ जगृहतुर्मुदा।
स्मरन्ती गौतमवचः प्रतिजग्राह सा हि तौ॥१७॥
पाद्यमर्थ्य तथाऽऽतिथ्यं चकार सुसमाहिता।
प्रतिजग्राह काकुत्स्थो विधिदृष्टेन कर्मणा॥१८॥

उस समय श्रीराम और लक्ष्मण ने बड़ी प्रसन्नता के साथ अहल्या के दोनों चरणोंका स्पर्श किया। महर्षिगौतम के वचनों का स्मरण करके अहल्या ने बड़ी सावधानी के साथ उन दोनों भाइयों को आदरणीय अतिथि के रूपमें अपनाया और पाद्य, अर्घ्य आदि अर्पित करके उनका आतिथ्य-सत्कार किया। श्रीरामचन्द्रजी ने शास्त्रीय विधि के अनुसार अहल्या का वह आतिथ्य ग्रहण किया॥ १७-१८ ॥

पुष्पवृष्टिर्महत्यासीद् देवदुन्दुभिनिःस्वनैः।
गन्धर्वाप्सरसां चैव महानासीत् समुत्सवः ॥१९॥

उस समय देवताओं की दुन्दुभि बज उठी। साथ ही आकाश से फूलों की बड़ी भारी वर्षा होने लगी। गन्धर्वो और अप्सराओं द्वारा महान् उत्सव मनाया जाने लगा॥ १९॥

साधु साध्विति देवास्तामहल्यां समपूजयन्।
तपोबलविशुद्धांगी गौतमस्य वशानुगाम्॥२०॥

महर्षि गौतम के अधीन रहने वाली अहल्या अपनी तपःशक्ति से विशुद्ध स्वरूप को प्राप्त हुईं—यह देख सम्पूर्ण देवता उन्हें साधुवाद देते हुए उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे॥ २०॥

गौतमोऽपि महातेजा अहल्यासहितः सुखी।
रामं सम्पूज्य विधिवत् तपस्तेपे महातपाः॥२१॥

महातेजस्वी, महातपस्वी गौतम भी अहल्या को अपने साथ पाकर सुखी हो गये। उन्होंने श्रीराम की विधिवत् पूजा करके तपस्या आरम्भ की॥ २१॥

रामोऽपि परमां पूजां गौतमस्य महामुनेः।
सकाशाद् विधिवत् प्राप्य जगाम मिथिलां ततः॥२२॥

महामुनि गौतम की ओर से विधिपूर्वक उत्तम पूजा -आदर-सत्कार पाकर श्रीराम भी मुनिवर विश्वामित्रजी के साथ मिथिलापुरी को चले गये॥ २२ ॥

सर्ग ५०

ततः प्रागुत्तरां गत्वा रामः सौमित्रिणा सह।
विश्वामित्रं पुरस्कृत्य यज्ञवाटमुपागमत्॥१॥

तदनन्तर लक्ष्मण सहित श्रीराम विश्वामित्रजी को – आगे करके महर्षि गौतम के आश्रम से ईशान कोण की ओर चले और मिथिला नरेश के यज्ञमण्डप में जा पहुँचे॥१॥

रामस्तु मुनिशार्दूलमुवाच सहलक्ष्मणः।
साध्वी यज्ञसमृद्धिर्हि जनकस्य महात्मनः ॥ २॥

वहाँ लक्ष्मण सहित श्रीरामने मुनिश्रेष्ठ विश्वामित्र से कहा—’महाभाग! महात्मा जनक के यज्ञका समारोह तो बड़ा सुन्दर दिखायी दे रहा है।

बहूनीह सहस्राणि नानादेशनिवासिनाम्।
ब्राह्मणानां महाभाग वेदाध्ययनशालिनाम्॥३॥

यहाँ नाना देशोंके निवासी सहस्रों ब्राह्मण जुटे हुए हैं, जो वेदोंके स्वाध्यायसे शोभा पा रहे हैं॥२-३॥

ऋषिवाटाश्च दृश्यन्ते शकटीशतसंकुलाः।
देशो विधीयतां ब्रह्मन् यत्र वत्स्यामहे वयम्॥४॥

‘ऋषियों के बाड़े सैकड़ों छकड़ों से भरे दिखायी दे रहे हैं। ब्रह्मन्! अब ऐसा कोई स्थान निश्चित कीजिये, जहाँ हम लोग भी ठहरें’॥ ४॥

रामस्य वचनं श्रुत्वा विश्वामित्रो महामुनिः।
निवासमकरोद देशे विविक्ते सलिलान्विते॥५॥

श्रीरामचन्द्रजी का यह वचन सुनकर महामुनि विश्वामित्र ने एकान्त स्थान में डेरा डाला, जहाँ पानी का सुभीता था॥५॥

विश्वामित्रमनुप्राप्तं श्रुत्वा नृपवरस्तदा।
शतानन्दं पुरस्कृत्य पुरोहितमनिन्दितः॥६॥

अनिन्द्य (उत्तम) आचार-विचार वाले नृपश्रेष्ठ महाराज जनक ने जब सुना कि विश्वामित्रजी पधारे हैं, तब वे तुरंत अपने पुरोहित शतानन्द को आगे करके [अर्घ्य लिये विनीत भाव से उनका स्वागत करने को चल दिये]॥

ऋत्विजोऽपि महात्मानस्त्वय॑मादाय सत्वरम्।
प्रत्युज्जगाम सहसा विनयेन समन्वितः॥७॥
विश्वामित्राय धर्मेण ददौ धर्मपुरस्कृतम्।

उनके साथ अर्घ्य लिये महात्मा ऋत्विज भी शीघ्रतापूर्वक चले। राजा ने विनीत भाव से सहसा आगे बढ़कर महर्षिकी अगवानी की तथा धर्मशास्त्र के अनुसार विश्वामित्र को धर्मयुक्त अर्घ्य समर्पित किया॥७ १/२॥

प्रतिगृह्य तु तां पूजां जनकस्य महात्मनः॥८॥
पप्रच्छ कुशलं राज्ञो यज्ञस्य च निरामयम्।

महात्मा राजा जनक की वह पूजा ग्रहण करके मुनि ने उनका कुशल-समाचार पूछा तथा उनके यज्ञ की निर्बाध स्थिति के विषय में जिज्ञासा की॥ ८ १/२॥

स तांश्चाथ मुनीन् पृष्ट्वा सोपाध्यायपुरोधसः॥९॥
यथार्हमृषिभिः सर्वैः समागच्छत् प्रहृष्टवत्।

राजा के साथ जो मुनि, उपाध्याय और पुरोहित आये थे, उनसे भी कुशल-मंगल पूछकर विश्वामित्र जी बड़े हर्ष के साथ उन सभी महर्षियों से यथा योग्य मिले॥ ९ १/२॥

अथ राजा मुनिश्रेष्ठं कृताञ्जलिरभाषत॥१०॥
आसने भगवानास्तां सहैभिर्मुनिपुंगवैः।

इसके बाद राजा जनक ने मुनिवर विश्वामित्र से हाथ जोड़कर कहा—’भगवन्! आप इन मुनीश्वरों के साथ आसन पर विराजमान होइये’ ॥ १० १/२॥

जनकस्य वचः श्रुत्वा निषसाद महामुनिः॥११॥
पुरोधा ऋत्विजश्चैव राजा च सहमन्त्रिभिः।
आसनेषु यथान्यायमुपविष्टाः समन्ततः॥१२॥

यह बात सुनकर महामुनि विश्वामित्र आसन पर बैठ गये। फिर पुरोहित, ऋत्विज् तथा मन्त्रियों सहित राजा भी सब ओर यथायोग्य आसनों पर विराजमान हो गये।

दृष्ट्वा स नृपतिस्तत्र विश्वामित्रमथाब्रवीत्।
अद्य यज्ञसमृद्धिर्मे सफला दैवतैः कृता॥१३॥

तत्पश्चात् राजा जनक ने विश्वामित्रजी की ओर देखकर कहा—’भगवन्! आज देवताओं ने मेरे यज्ञ की आयोजना सफल कर दी।। १३ ।।

अद्य यज्ञफलं प्राप्तं भगवदर्शनान्मया।
धन्योऽस्म्यनुगृहीतोऽस्मि यस्य मे मुनिपुंगवः॥१४॥
यज्ञोपसदनं ब्रह्मन् प्राप्तोऽसि मुनिभिः सह।

‘आज पूज्य चरणों के दर्शन से मैंने यज्ञ का फल पा लिया। ब्रह्मन्! आप मुनियों में श्रेष्ठ हैं आपने इतने महर्षियों के साथ मेरे यज्ञमण्डप में पदार्पण किया, – इससे मैं धन्य हो गया। यह मेरे ऊपर आपका बहुत बड़ा अनुग्रह है॥ १४ १/२॥

द्वादशाहं तु ब्रह्मर्षे दीक्षामाहुर्मनीषिणः॥ १५॥
ततो भागार्थिनो देवान् द्रष्टमर्हसि कौशिक।

‘ब्रह्मर्षे! मनीषी ऋत्विजों का कहना है कि ‘मेरी यज्ञ दीक्षा के बारह दिन ही शेष रह गये हैं,अतः कुशिकनन्दन! बारह दिनों के बाद यहाँ भाग ग्रहण करने के लिये आये हुए देवताओं का दर्शन कीजियेगा’।

इत्युक्त्वा मुनिशार्दूलं प्रहृष्टवदनस्तदा ॥१६॥
पुनस्तं परिपप्रच्छ प्राञ्जलिः प्रयतो नृपः।

मुनिवर विश्वामित्र से ऐसा कहकर उस समय प्रसन्नमुख हुए जितेन्द्रिय राजा जनक ने पुनः उनसे हाथ जोड़कर पूछा— ॥ १६ १/२ ॥

इमौ कुमारौ भद्रं ते देवतुल्यपराक्रमौ॥१७॥
गजतुल्यगती वीरौ शार्दूलवृषभोपमौ।
पद्मपत्रविशालाक्षौ खड्गतूणीधनुर्धरौ।
अश्विनाविव रूपेण समुपस्थितयौवनौ॥१८॥

‘महामुने! आपका कल्याण हो देवताके समान पराक्रमी और सुन्दर आयुध धारण करने वाले ये दोनों वीर राजकुमार जो हाथी के समान मन्दगति से चलते हैं, सिंह और साँड़ के समान जान पड़ते हैं, प्रफुल्ल कमल दल के समान सुशोभित हैं, तलवार, तरकस और धनुष धारण किये हुए हैं, अपने मनोहर रूप से अश्विनीकुमारों को भी लज्जित कर रहे हैं, जिन्होंने अभी-अभी यौवनावस्था में प्रवेश किया है तथा

यदृच्छयेव गां प्राप्तौ देवलोकादिवामरौ।
कथं पद्भ्यामिह प्राप्तौ किमर्थं कस्य वा मुने॥ १९॥
वरायुधधरौ वीरौ कस्य पुत्रौ महामुने।
भूषयन्ताविमं देशं चन्द्रसूर्याविवाम्बरम्॥२०॥
परस्परस्य सदृशौ प्रमाणेङ्गितचेष्टितैः।
काकपक्षधरौ वीरौ श्रोतुमिच्छामि तत्त्वतः ॥ २१॥

जो स्वेच्छानुसार देवलोक से उतरकर पृथ्वी पर आये हुए दो देवताओं के समान जान पड़ते हैं, किसके पुत्र हैं? और यहाँ कैसे, किसलिये अथवा किस उद्देश्य से पैदल ही पधारे हैं? जैसे चन्द्रमा और सूर्य आकाश की शोभा बढ़ाते हैं, उसी प्रकार ये अपनी उपस्थिति से इस देश को विभूषित कर रहे हैं। ये दोनों एक-दूसरे से बहुत मिलते-जुलते हैं। इनके शरीर की ऊँचाई, संकेत और चेष्टाएँ प्रायः एक-सी हैं। मैं इन दोनों काकपक्षधारी वीरों का परिचय एवं वृत्तान्त यथार्थरूप से सुनना चाहता हूँ’॥ १७–२१॥

तस्य तद् वचनं श्रुत्वा जनकस्य महात्मनः।
न्यवेदयदमेयात्मा पुत्रौ दशरथस्य तौ॥२२॥

महात्मा जनक का यह प्रश्न सुनकर अमित आत्मबल से सम्पन्न विश्वामित्रजी ने कहा—’राजन् ! ये दोनों महाराज दशरथ के पुत्र हैं’ ॥ २२ ॥

सिद्धाश्रमनिवासं च राक्षसानां वधं तथा।
तत्रागमनमव्यग्रं विशालायाश्च दर्शनम्॥२३॥
अहल्यादर्शनं चैव गौतमेन समागमम्।
महाधनुषि जिज्ञासां कर्तुमागमनं तथा॥२४॥

इसके बाद उन्होंने उन दोनों के सिद्धाश्रम में निवास, राक्षसों के वध, बिना किसी घबराहट के मिथिला तक आगमन, विशालापुरी के दर्शन, अहल्या के साक्षात्कार तथा महर्षि गौतम के साथ समागम आदि का विस्तारपूर्वक वर्णन किया। फिर अन्त में यह भी बताया कि ‘ये आपके यहाँ रखे हुए महान् धनुष के सम्बन्ध में कुछ जानने की इच्छा से यहाँ तक आये हैं’। २३-२४॥

एतत् सर्वं महातेजा जनकाय महात्मने।
निवेद्य विररामाथ विश्वामित्रो महामुनिः॥२५॥

महात्मा राजा जनक से ये सब बातें निवेदन करके महातेजस्वी महामुनि विश्वामित्र चुप हो गये॥ २५ ॥

सर्ग ५१ 

तस्य तद् वचनं श्रुत्वा विश्वामित्रस्य धीमतः।
हृष्टरोमा महातेजाः शतानन्दो महातपाः॥१॥

परम बुद्धिमान् विश्वामित्रजी की वह बात सुनकर महातेजस्वी महातपस्वी शतानन्दजी के शरीर में रोमाञ्च हो आया॥१॥

गौतमस्य सुतो ज्येष्ठस्तपसा द्योतितप्रभः।
रामसंदर्शनादेव परं विस्मयमागतः॥२॥

वे गौतम के ज्येष्ठ पुत्र थे तपस्या से उनकी कान्ति प्रकाशित हो रही थी वे श्रीरामचन्द्रजी के दर्शन मात्र से ही बड़े विस्मित हुए॥२॥

एतौ निषण्णौ सम्प्रेक्ष्य शतानन्दो नृपात्मजौ।
सुखासीनौ मुनिश्रेष्ठं विश्वामित्रमथाब्रवीत्॥३॥

उन दोनों राजकुमारों को सुखपूर्वक बैठे देख शतानन्दने मुनिश्रेष्ठ विश्वामित्रजी से पूछा- ॥ ३॥

अपि ते मुनिशार्दूल मम माता यशस्विनी।
दर्शिता राजपुत्राय तपोदीर्घमुपागता॥४॥

‘मुनिप्रवर! मेरी यशस्विनी माता अहल्या बहुत दिनों से तपस्या कर रही थीं। क्या आपने राजकुमार श्रीराम को उनका दर्शन कराया? ॥ ४॥

अपि रामे महातेजा मम माता यशस्विनी।
वन्यैरुपाहरत् पूजां पूजार्हे सर्वदेहिनाम्॥५॥

‘क्या मेरी महातेजस्विनी एवं यशस्विनी माता अहल्याने वन में होने वाले फल-फूल आदि से समस्त देहधारियों के लिये पूजनीय श्रीरामचन्द्रजी का पूजन (आदर-सत्कार) किया था? ॥ ५ ॥

अपि रामाय कथितं यद् वृत्तं तत् पुरातनम्।
मम मातुर्महातेजो देवेन दुरनुष्ठितम्॥६॥

‘महातेजस्वी मुने! क्या आपने श्रीराम से वह प्राचीन वृत्तान्त कहा था, जो मेरी माता के प्रति देवराज इन्द्र द्वारा किये गये छल-कपट एवं दुराचार द्वारा घटित हुआ था?॥

अपि कौशिक भद्रं ते गुरुणा मम संगता।
मम माता मुनिश्रेष्ठ रामसंदर्शनादितः॥७॥

‘मुनिश्रेष्ठ कौशिक! आपका कल्याण हो क्या श्रीरामचन्द्रजी के दर्शन आदि के प्रभाव से मेरी माता शापमुक्त हो पिताजी से जा मिलीं? ॥ ७॥

अपि मे गुरुणा रामः पूजितः कुशिकात्मज।
इहागतो महातेजाः पूजां प्राप्य महात्मनः॥८॥

‘कुशिकनन्दन! क्या मेरे पिता ने श्रीराम का पूजन किया था? क्या उन महात्मा की पूजा ग्रहण करके ये महातेजस्वी श्रीराम यहाँ पधारे हैं? ॥ ८ ॥

अपि शान्तेन मनसा गुरुर्मे कुशिकात्मज।
इहागतेन रामेण पूजितेनाभिवादितः॥९॥

‘विश्वामित्रजी! क्या यहाँ आकर मेरे माता पिता द्वारा सम्मानित हुए श्रीराम ने मेरे पूज्य पिता का शान्त चित्त से अभिवादन किया था?’ ॥९॥

तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य विश्वामित्रो महामुनिः।
प्रत्युवाच शतानन्दं वाक्यज्ञो वाक्यकोविदम्॥ १०॥

शतानन्द का यह प्रश्न सुनकर बोलने की कला जानने वाले महामुनि विश्वामित्र ने बातचीत करने में कुशल शतानन्द को इस प्रकार उत्तर दिया- ॥ १० ॥

नातिक्रान्तं मुनिश्रेष्ठ यत्कर्तव्यं कृतं मया।
संगता मुनिना पत्नी भार्गवेणेव रेणुका॥११॥

‘मुनिश्रेष्ठ! मैंने कुछ उठा नहीं रखा है मेरा जो कर्तव्य था, उसे मैंने पूरा किया। महर्षि गौतम से उनकी पत्नी अहल्या उसी प्रकार जा मिली हैं, जैसे भृगुवंशी जमदग्नि से रेणुका मिली है’ ॥ ११ ॥

तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य विश्वामित्रस्य धीमतः।
शतानन्दो महातेजा रामं वचनमब्रवीत्॥१२॥

बुद्धिमान् विश्वामित्र की यह बात सुनकर महातेजस्वी शतानन्द ने श्रीरामचन्द्रजी से यह बात कही – ॥१२॥

स्वागतं ते नरश्रेष्ठ दिष्ट्या प्राप्तोऽसि राघव।
विश्वामित्रं पुरस्कृत्य महर्षिमपराजितम्॥१३॥

‘नरश्रेष्ठ! आपका स्वागत है। रघुनन्दन! मेरा अहोभाग्य जो आपने किसी से पराजित न होनेवाले महर्षि विश्वामित्र को आगे करके यहाँ तक पधारने का कष्ट उठाया॥ १३॥

अचिन्त्यकर्मा तपसा ब्रह्मर्षिरमितप्रभः।
विश्वामित्रो महातेजा वेम्येनं परमां गतिम्॥ १४॥

‘महर्षि विश्वामित्र के कर्म अचिन्त्य हैं। ये तपस्या से ब्रह्मर्षिपद को प्राप्त हुए हैं। इनकी कान्ति असीम है और ये महातेजस्वी हैं। मैं इनको जानता हूँ। ये जगत् के परम आश्रय (हितैषी) हैं॥१४॥

नास्ति धन्यतरो राम त्वत्तोऽन्यो भुवि कश्चन।
गोप्ता कुशिकपुत्रस्ते येन तप्तं महत्तपः॥१५॥

‘श्रीराम! इस पृथ्वी पर आपसे बढ़कर धन्यातिधन्य पुरुष दूसरा कोई नहीं है; क्योंकि कुशिकनन्दन विश्वामित्र आपके रक्षक हैं, जिन्होंने बड़ी भारी तपस्या की है।

श्रूयतां चाभिधास्यामि कौशिकस्य महात्मनः।
यथाबलं यथातत्त्वं तन्मे निगदतः शृणु॥१६॥

‘मैं महात्मा कौशिकके बल और स्वरूपका यथार्थ वर्णन करता हूँ। आप ध्यान देकर मुझसे यह सब सुनिये॥१६॥

राजाऽऽसीदेष धर्मात्मा दीर्घकालमरिंदमः।
धर्मज्ञः कृतविद्यश्च प्रजानां च हिते रतः॥१७॥

‘ये विश्वामित्र पहले एक धर्मात्मा राजा थे,इन्होंने शत्रुओं के दमनपूर्वक दीर्घकाल तक राज्य किया था ये धर्मज्ञ और विद्वान् होने के साथ ही प्रजावर्ग के हित साधन में तत्पर रहते थे॥ १७॥

प्रजापतिसुतस्त्वासीत् कुशो नाम महीपतिः।
कुशस्य पुत्रो बलवान् कुशनाभः सुधार्मिकः॥ १८॥

‘प्राचीनकाल में कुश नाम से प्रसिद्ध एक राजा हो गये हैं। वे प्रजापति के पुत्र थे। कुश के बलवान् पुत् रका नाम कुशनाभ हुआ। वह बड़ा ही धर्मात्मा था॥ १८ ॥

कुशनाभसुतस्त्वासीद् गाधिरित्येव विश्रुतः।
गाधेः पुत्रो महातेजा विश्वामित्रो महामुनिः॥

‘कुशनाभ के पुत्र गाधि नाम से विख्यात थे। उन्हीं गाधि के महातेजस्वी पुत्र ये महामुनि विश्वामित्र हैं। १९॥

विश्वामित्रो महातेजाः पालयामास मेदिनीम्।
बहवर्षसहस्राणि राजा राज्यमकारयत्॥२०॥

‘महातेजस्वी राजा विश्वामित्र ने कई हजार वर्षां तक इस पृथ्वी का पालन तथा राज्य का शासन किया। २०॥

कदाचित् तु महातेजा योजयित्वा वरूथिनीम्।
अक्षौहिणीपरिवृतः परिचक्राम मेदिनीम्॥२१॥

‘एक समयकी बात है महातेजस्वी राजा विश्वामित्र सेना एकत्र करके एक अक्षौहिणी सेनाके साथ पृथ्वीपर विचरने लगे॥२१॥

नगराणि च राष्ट्राणि सरितश्च महागिरीन्।
आश्रमान् क्रमशो राजा विचरन्नाजगाम ह॥२२॥
वसिष्ठस्याश्रमपदं नानापुष्पलताद्रुमम्।
नानामृगगणाकीर्णं सिद्धचारणसेवितम्॥२३॥

‘वे अनेकानेक नगरों, राष्ट्रों, नदियों, बड़े-बड़े पर्वतों और आश्रमों में क्रमशः विचरते हुए महर्षिवसिष्ठ के आश्रम पर आ पहुँचे, जो नाना प्रकार के फूलों, लताओं और वृक्षों से शोभा पा रहा था। नाना प्रकार के मृग (वन्यपशु) वहाँ सब ओर फैले हुए थे तथा सिद्ध और चारण उस आश्रम में निवास करते थे॥ २२-२३॥

देवदानवगन्धर्वैः किंनरैरुपशोभितम्।
प्रशान्तहरिणाकीर्णं द्विजसङ्घनिषेवितम्॥२४॥
ब्रह्मर्षिगणसंकीर्णं देवर्षिगणसेवितम्।

‘देवता, दानव, गन्धर्व और किन्नर उसकी शोभा बढाते थे। शान्त मृग वहाँ भरे रहते थे। बहत-से ब्राह्मणों, ब्रह्मर्षियों और देवर्षियोंके समुदाय उसका सेवन करते थे॥ २४ १/२॥

तपश्चरणसंसिद्धैरग्निकल्पैर्महात्मभिः॥ २५॥
सततं संकुलं श्रीमद्ब्रह्मकल्पैर्महात्मभिः ।
अब्भक्षैर्वायुभक्षैश्च शीर्णपर्णाशनैस्तथा॥२६॥
फलमूलाशनैर्दान्तैर्जितदोषैर्जितेन्द्रियैः।
ऋषिभिर्वालखिल्यैश्च जपहोमपरायणैः॥२७॥
अन्यैर्वैखानसैश्चैव समन्तादुपशोभितम्।
वसिष्ठस्याश्रमपदं ब्रह्मलोकमिवापरम्।
ददर्श जयतां श्रेष्ठो विश्वामित्रो महाबलः॥ २८॥

‘तपस्या से सिद्ध हुए अग्नि के समान तेजस्वी महात्मा तथा ब्रह्मा के समान महामहिम महात्मा सदा उस आश्रम में भरे रहते थे। उनमें से कोई जल पीकर रहता था तो कोई हवा पीकर। कितने ही महात्मा फल-मूल खाकर अथवा सूखे पत्ते चबाकर रहते थे। राग आदि दोषों को जीतकर मन और इन्द्रियों पर काबू रखने वाले बहुत-से ऋषि जप-होम में लगे रहते थे। वालखिल्य मुनिगण तथा अन्यान्य वैखानस महात्मासब ओर से उस आश्रम की शोभा बढ़ाते थे। इन सब विशेषताओं के कारण महर्षि वसिष्ठ का वह आश्रम दूसरे ब्रह्मलोक के समान जान पड़ता था। विजयी वीरों में श्रेष्ठ महाबली विश्वामित्र ने उसका दर्शन किया’ ॥ २५–२८॥

सर्ग ५२

तं दृष्ट्वा परमप्रीतो विश्वामित्रो महाबलः।
प्रणतो विनयाद वीरो वसिष्ठं जपतां वरम्॥१॥

‘जप करनेवालों में श्रेष्ठ वसिष्ठ का दर्शन करके महाबली वीर विश्वामित्र बड़े प्रसन्न हुए और विनयपूर्वक उन्होंने उनके चरणों में प्रणाम किया॥१॥

स्वागतं तव चेत्युक्तो वसिष्ठेन महात्मना।
आसनं चास्य भगवान् वसिष्ठो व्यादिदेश ह॥ २॥

‘तब महात्मा वसिष्ठ ने कहा—’राजन्! तुम्हारा स्वागत है।’ ऐसा कहकर भगवान् वसिष्ठ ने उन्हें बैठने के लिये आसन दिया॥२॥

उपविष्टाय च तदा विश्वामित्राय धीमते।
यथान्यायं मुनिवरः फलमूलमुपाहरत्॥३॥

‘जब बुद्धिमान् विश्वामित्र आसन पर विराजमान हुए, तब मुनिवर वसिष्ठ ने उन्हें विधिपूर्वक फलमूल का उपहार अर्पित किया॥३॥

प्रतिगृह्य तु तां पूजां वसिष्ठाद् राजसत्तमः।
तपोऽग्निहोत्रशिष्येषु कुशलं पर्यपृच्छत॥४॥
विश्वामित्रो महातेजा वनस्पतिगणे तदा।
सर्वत्र कुशलं प्राह वसिष्ठो राजसत्तमम्॥५॥

‘वसिष्ठजी से वह आतिथ्य-सत्कार ग्रहण करके राजशिरोमणि महातेजस्वी विश्वामित्र ने उनके तप, अग्निहोत्र, शिष्यवर्ग और लता-वृक्ष आदिका कुशल समाचार पूछा, फिर वसिष्ठजी ने उन नृपश्रेष्ठ से सबके सकुशल होने की बात बतायी॥ ४-५॥

सुखोपविष्टं राजानं विश्वामित्रं महातपाः।
पप्रच्छ जपतां श्रेष्ठो वसिष्ठो ब्रह्मणः सुतः॥६॥

‘फिर जप करनेवालोंमें श्रेष्ठ ब्रह्मकुमार महातपस्वी वसिष्ठने वहाँ सुखपूर्वक बैठे हुए राजा विश्वामित्रसे इस प्रकार पूछा- ॥६॥

कच्चित्ते कुशलं राजन् कच्चिद् धर्मेण रञ्जयन्।
प्रजाः पालयसे राजन् राजवृत्तेन धार्मिक॥७॥

‘राजन् ! तुम सकुशल तो हो न? धर्मात्मा नरेश! क्या तुम धर्मपूर्वक प्रजा को प्रसन्न रखते हुए राजोचित रीति-नीति से प्रजावर्ग का पालन करते हो?॥७॥

कच्चित्ते सम्भृता भृत्याः कच्चित् तिष्ठन्ति शासने।
कच्चित्ते विजिताः सर्वे रिपवो रिपुसूदन॥८॥

‘शत्रुसूदन! क्या तुमने अपने भृत्यों का अच्छी तरह भरण-पोषण किया है? क्या वे तुम्हारी आज्ञा के अधीन रहते हैं? क्या तुमने समस्त शत्रुओं पर विजय पा ली है?॥

कच्चिद् बलेषु कोशेषु मित्रेषु च परंतप।
कुशलं ते नरव्याघ्र पुत्रपौत्रे तथानघ॥९॥

‘शत्रुओं को संताप देने वाले पुरुषसिंह निष्पाप नरेश! क्या तुम्हारी सेना, कोश, मित्रवर्ग तथा पुत्रपौत्र आदि सब सकुशल हैं ?’ ॥९॥

सर्वत्र कुशलं राजा वसिष्ठं प्रत्युदाहरत्।
विश्वामित्रो महातेजा वसिष्ठं विनयान्वितम्॥ १०॥

‘तब महातेजस्वी राजा विश्वामित्र ने विनयशील महर्षि वसिष्ठ को उत्तर दिया—’हाँ भगवन् ! मेरे यहाँ सर्वत्र कुशल है?’ ॥ १०॥

कृत्वा तौ सुचिरं कालं धर्मिष्ठौ ताः कथास्तदा।
मुदा परमया युक्तौ प्रीयेतां तौ परस्परम्॥११॥

‘तत्पश्चात् वे दोनों धर्मात्मा पुरुष बड़ी प्रसन्नताके साथ बहुत देरतक परस्पर वार्तालाप करते रहे। उस समय एकका दूसरेके साथ बड़ा प्रेम हो गया॥ ११ ॥

ततो वसिष्ठो भगवान् कथान्ते रघुनन्दन।
विश्वामित्रमिदं वाक्यमुवाच प्रहसन्निव॥१२॥

‘रघुनन्दन! बातचीत करने के पश्चात् भगवान् वसिष्ठ ने विश्वामित्र से हँसते हुए-से इस प्रकार कहा – ॥१२॥
आतिथ्यं कर्तुमिच्छामि बलस्यास्य महाबल।

तव चैवाप्रमेयस्य यथार्ह सम्प्रतीच्छ मे॥१३॥

‘महाबली नरेश! तुम्हारा प्रभाव असीम है मैं तुम्हारा और तुम्हारी इस सेना का यथा योग्य आतिथ्यसत्कार करना चाहता हूँ तुम मेरे इस अनुरोध को स्वीकार करो॥ १३॥

सत्क्रियां हि भवानेतां प्रतीच्छतु मया कृताम्।
राजंस्त्वमतिथिश्रेष्ठः पूजनीयः प्रयत्नतः॥१४॥

‘राजन्! तुम अतिथियों में श्रेष्ठ हो, इसलिये यत्नपूर्वक तुम्हारा सत्कार करना मेरा कर्तव्य है अतः मेरे द्वारा किये गये इस सत्कार को तुम ग्रहण करो’ ॥ १४॥

एवमुक्तो वसिष्ठेन विश्वामित्रो महामतिः।
कृतमित्यब्रवीद् राजा पूजावाक्येन मे त्वया॥ १५॥

‘वसिष्ठ के ऐसा कहने पर महाबुद्धिमान् राजा विश्वामित्र ने कहा—’मुने! आपके सत्कारपूर्ण वचनों से ही मेरा पूर्ण सत्कार हो गया॥ १५ ॥

फलमूलेन भगवन् विद्यते यत् तवाश्रमे।
पाद्येनाचमनीयेन भगवदर्शनेन च ॥१६॥

‘भगवन् ! आपके आश्रम पर जो विद्यमान हैं, उन फल-मूल, पाद्य और आचमनीय आदि वस्तुओं से मेरा भलीभाँति आदर-सत्कार हुआ है। सबसे बढ़कर जो आपका दर्शन हुआ, इसी से मेरी पूजा हो गयी।१६॥
सर्वथा च महाप्राज्ञ पूजाहेण सुपूजितः।

नमस्तेऽस्तु गमिष्यामि मैत्रेणेक्षस्व चक्षुषा॥१७॥

‘महाज्ञानी महर्षे! आप सर्वथा मेरे पूजनीय हैं तो भी आपने मेरा भलीभाँति पूजन किया आपको नमस्कार है अब मैं यहाँ से जाऊँगा। आप मैत्रीपूर्ण दृष्टि से मेरी ओर देखिये’ ॥ १७॥

एवं ब्रुवन्तं राजानं वसिष्ठं पुनरेव हि।
न्यमन्त्रयत धर्मात्मा पुनः पुनरुदारधीः॥१८॥

ऐसा कहते हुए राजा विश्वामित्र से उदारचेता धर्मात्मा वसिष्ठ ने निमन्त्रण स्वीकार करने के लिये बारम्बार आग्रह किया॥ १८ ॥

बाढमित्येव गाधेयो वसिष्ठं प्रत्युवाच ह।
यथाप्रियं भगवतस्तथास्तु मुनिपुंगव॥१९॥

तब गाधिनन्दन विश्वामित्र ने उन्हें उत्तर देते हुए कहा—’बहुत अच्छा,मुझे आपकी आज्ञा स्वीकार है। मुनिप्रवर! आप मेरे पूज्य हैं आपकी जैसी रुचि हो—आपको जो प्रिय लगे, वही हो’ ॥ १९॥

एवमुक्तस्तथा तेन वसिष्ठो जपतां वरः।
आजुहाव ततः प्रीतः कल्माषीं धूतकल्मषाम्॥ २०॥

‘राजा के ऐसा कहने पर जप करने वालों में श्रेष्ठ मुनिवर वसिष्ठ बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने अपनी उस चितकबरी होम-धेनु को बुलाया, जिसके पाप (अथवा मैल) धुल गये थे (वह कामधेनु थी) ॥ २० ॥

एह्येहि शबले क्षिप्रं शृणु चापि वचो मम।
सबलस्यास्य राजर्षेः कर्तुं व्यवसितोऽस्म्यहम्।
भोजनेन महार्हेण सत्कारं संविधत्स्व मे॥२१॥

(उसे बुलाकर ऋषिने कहा-) शबले! शीघ्र आओ, आओ और मेरी यह बात सुनो—मैंने सेनासहित इन राजर्षि का महाराजाओं के योग्य उत्तम भोजन आदिके द्वारा आतिथ्य-सत्कार करने का निश्चय किया है तुम मेरे इस मनोरथ को सफल करो॥ २१॥

यस्य यस्य यथाकामं षड्रसेष्वभिपूजितम्।
तत् सर्वं कामधुग् दिव्ये अभिवर्ष कृते मम॥ २२॥

‘षड्रस भोजनों मेंसे जिसको जो-जो पसंद हो, उसके लिये वह सब प्रस्तुत कर दो। दिव्य कामधेनो! आज मेरे कहने से इन अतिथियों के लिये अभीष्ट वस्तुओं की वर्षा करो॥ २२॥

रसेनान्नेन पानेन लेह्यचोष्येण संयुतम्।
अन्नानां निचयं सर्वं सृजस्व शबले त्वर ॥२३॥

‘शबले! सरस पदार्थ, अन्न, पान, लेह्य (चटनी आदि) और चोष्य (चूसने की वस्तु) से युक्त भाँतिभाँति के अन्नों की ढेरी लगा दो। सभी आवश्यक वस्तुओं की सृष्टि कर दो,शीघ्रता करो—विलम्ब न होने पावे’ ॥ २३॥

सर्ग ५३

एवमुक्ता वसिष्ठेन शबला शत्रुसूदन।
विदधे कामधुक् कामान् यस्य यस्येप्सितं यथा॥

‘शत्रुसूदन! महर्षि वसिष्ठ के ऐसा कहनेपर चितकबरे रंग की उस कामधेनु ने जिसकी जैसी इच्छा थी, उसके लिये वैसी ही सामग्री जुटा दी॥१॥

इथून् मधूंस्तथा लाजान् मैरेयांश्च वरासवान्।
पानानि च महार्हाणि भक्ष्यांश्चोच्चावचानपि॥ २॥

‘ईख, मधु, लावा, मैरेय, श्रेष्ठ आसव, पानक रस आदि नाना प्रकार के बहुमूल्य भक्ष्य-पदार्थ प्रस्तुत कर दिये॥२॥
उष्णाढ्यस्यौदनस्यात्र राशयः पर्वतोपमाः।

मृष्टान्यन्नानि सूपांश्च दधिकुल्यास्तथैव च ॥३॥

‘गरम-गरम भात के पर्वत के सदृश ढेर लग गये मिष्टान्न (खीर) और दाल भी तैयार हो गयी। दूध, दही और घीकी तो नहरें बह चलीं॥३॥

नानास्वादुरसानां च खाण्डवानां तथैव च।
भोजनानि सुपूर्णानि गौडानि च सहस्रशः॥४॥

‘भाँति-भाँति के सुस्वादु रस, खाण्डव तथा नाना प्रकार के भोजनों से भरी हुई चाँदी की सहस्रों थालियाँ सज गयीं॥ ४॥

सर्वमासीत् सुसंतुष्टं हृष्टपुष्टजनायुतम्।
विश्वामित्रबलं राम वसिष्ठेन सुतर्पितम्॥५॥

‘श्रीराम! महर्षि वसिष्ठ ने विश्वामित्रजी की सारी सेना के लोगों को भलीभाँति तृप्त किया। उस सेना में बहुत-से हृष्ट-पुष्ट सैनिक थे। उन सबको वह दिव्य भोजन पाकर बड़ा संतोष हुआ॥५॥

विश्वामित्रो हि राजर्षिर्हृष्टपुष्टस्तदाभवत्।
सान्तःपुरवरो राजा सब्राह्मणपुरोहितः॥६॥

‘राजर्षि विश्वामित्र भी उस समय अन्तःपुर की रानियों, ब्राह्मणों और पुरोहितों के साथ बहुत ही हृष्टपुष्ट हो गये॥६॥
सामात्यो मन्त्रिसहितः सभृत्यः पूजितस्तदा।

युक्तः परमहर्षेण वसिष्ठमिदमब्रवीत्॥७॥

‘अमात्य, मन्त्री और भृत्योंसहित पूजित हो वे बहुत प्रसन्न हुए और वसिष्ठजी से इस प्रकार बोले - ॥७॥

पूजितोऽहं त्वया ब्रह्मन् पूजाहेण सुसत्कृतः।
श्रूयतामभिधास्यामि वाक्यं वाक्यविशारद॥८॥

‘ब्रह्मन् ! आप स्वयं मेरे पूजनीय हैं तो भी आपने मेरा पूजन किया, भलीभाँति स्वागत-सत्कार किया, बातचीत करने में कुशल महर्षे ! अब मैं एक बात कहता हूँ, उसे सुनिये॥८॥

गवां शतसहस्रेण दीयतां शबला मम।
रत्नं हि भगवन्नेतद रत्नहारी च पार्थिवः॥९॥
तस्मान्मे शबलां देहि ममैषा धर्मतो द्विज।

‘भगवन्! आप मुझसे एक लाख गौएँ लेकर यह चितकबरी गाय मुझे दे दीजिये; क्योंकि यह गौ रत्नरूप है और रत्न लेने का अधिकारी राजा होता है। ब्रह्मन् ! मेरे इस कथनपर ध्यान देकर मुझे यह शबला गौ दे दीजिये; क्योंकि यह धर्मतः मेरी ही वस्तु है’। ९१/२॥

एवमुक्तस्तु भगवान् वसिष्ठो मुनिपुंगवः ॥१०॥
विश्वामित्रेण धर्मात्मा प्रत्युवाच महीपतिम्।

‘विश्वामित्र के ऐसा कहने पर धर्मात्मा मुनिवर भगवान् वसिष्ठ राजा को उत्तर देते हुए बोले- ॥ १० १/२॥

नाहं शतसहस्रेण नापि कोटिशतैर्गवाम्॥११॥
राजन् दास्यामि शबलां राशिभी रजतस्य वा।
न परित्यागमयं मत्सकाशादरिंदम॥१२॥

‘शत्रुओं का दमन करने वाले नरेश्वर! मैं एक लाख या सौ करोड़ अथवा चाँदी के ढेर लेकर भी बदले में इस शबला गौ को नहीं दूंगा। यह मेरे पास से अलग होने योग्य नहीं है॥ १२॥

शाश्वती शबला मह्यं कीर्तिरात्मवतो यथा।
अस्यां हव्यं च कव्यं च प्राणयात्रा तथैव च॥१३॥

‘जैसे मनस्वी पुरुष की अक्षय कीर्ति कभी उससे अलग नहीं रह सकती, उसी प्रकार यह सदा मेरे साथ सम्बन्ध रखने वाली शबला गौ मुझसे पृथक् नहीं रह सकती। मेरा हव्य-कव्य और जीवन-निर्वाह इसी पर निर्भर है॥ १३॥
आयत्तमग्निहोत्रं च बलि.मस्तथैव च।

स्वाहाकारवषट्कारौ विद्याश्च विविधास्तथा॥ १४॥

‘मेरे अग्निहोत्र, बलि, होम, स्वाहा, वषट्कार और भाँति-भाँति की विद्याएँ इस कामधेनु के ही अधीन हैं। १४॥

आयत्तमत्र राजर्षे सर्वमेतन्न संशयः।
सर्वस्वमेतत् सत्येन मम तुष्टिकरी तथा॥१५॥
कारणैर्बहभी राजन् न दास्ये शबलां तव।

‘राजर्षे ! मेरा यह सब कुछ इस गौके ही अधीन है, इसमें संशय नहीं है, मैं सच कहता हूँ—यह गौ ही मेरा सर्वस्व है और यही मुझे सब प्रकार से संतुष्ट करने वाली है। राजन् ! बहुत-से ऐसे कारण हैं, जिनसे बाध्य होकर मैं यह शबला गौ आपको नहीं दे सकता’ ॥ १५ १/२॥

वसिष्ठेनैवमुक्तस्तु विश्वामित्रोऽब्रवीत् तदा॥ १६॥
संरब्धतरमत्यर्थं वाक्यं वाक्यविशारदः।

‘वसिष्ठजी के ऐसा कहने पर बोलने में कुशल विश्वामित्र अत्यन्त क्रोधपूर्वक इस प्रकार बोले—॥ १६ १/२॥

हैरण्यकक्षप्रैवेयान् सुवर्णाङ्कशभूषितान्॥१७॥
ददामि कुञ्जराणां ते सहस्राणि चतुर्दश।

‘मुने! मैं आपको चौदह हजार ऐसे हाथी दे रहा हूँ, जिनके कसने वाले रस्से, गले के आभूषण और अंकुश भी सोने के बने होंगे और उन सबसे वे हाथी विभूषित होंगे॥ १७ १/२॥

हैरण्यानां रथानां च श्वेताश्वानां चतुर्युजाम्॥ १८॥
ददामि ते शतान्यष्टौ किंकिणीकविभूषितान्।
हयानां देशजातानां कुलजानां महौजसाम्।
सहस्रमेकं दश च ददामि तव सुव्रत॥१९॥
नानावर्णविभक्तानां वयःस्थानां तथैव च।
ददाम्येकां गवां कोटिं शबला दीयतां मम॥ २०॥

‘उत्तम व्रत का पालन करने वाले मुनीश्वर! इनके सिवा मैं आठ सौ सुवर्णमय रथ प्रदान करूँगा; जिनमें शोभा के लिये सोने के घुघुरू लगे होंगे और हर एक रथ में चार-चार सफेद रंग के घोड़े जुते हुए होंगे तथा अच्छी जाति और उत्तम देश में उत्पन्न महातेजस्वी ग्यारह हजार घोड़े भी आपकी सेवा में अर्पित करूँगा। इतना ही नहीं, नाना प्रकार के रंगवाली नयी अवस्था की एक करोड़ गौएँ भी दूंगा, परंतु यह शबला गौ मुझे दे दीजिये॥ १८-२०॥

यावदिच्छसि रत्नानि हिरण्यं वा द्विजोत्तम।
तावद् ददामि ते सर्वं दीयतां शबला मम॥२१॥

‘द्विजश्रेष्ठ! इनके अतिरिक्त भी आप जितने रत्न या सुवर्ण लेना चाहें, वह सब आपको देनेके लिये मैं तैयार हूँ; किंतु यह चितकबरी गाय मुझे दे दीजिये’।२१॥

एवमुक्तस्तु भगवान् विश्वामित्रेण धीमता।
न दास्यामीति शबलां प्राह राजन् कथंचन॥ २२॥

‘बुद्धिमान् विश्वामित्र के ऐसा कहने पर भगवान् वसिष्ठ बोले—’राजन्! मैं यह चितकबरी गाय तुम्हें किसी तरह भी नहीं दूंगा॥ २२ ॥

एतदेव हि मे रत्नमेतदेव हि मे धनम्।
एतदेव हि सर्वस्वमेतदेव हि जीवितम्॥२३॥

‘यही मेरा रत्न है, यही मेरा धन है, यही मेरा सर्वस्व है और यही मेरा जीवन है॥ २३ ॥

दर्शश्च पौर्णमासश्च यज्ञाश्चैवाप्तदक्षिणाः।
एतदेव हि मे राजन् विविधाश्च क्रियास्तथा॥ २४॥

‘राजन् ! मेरे दर्श, पौर्णमास, प्रचुर दक्षिणावाले यज्ञ तथा भाँति-भाँति के पुण्यकर्म—यह गौ ही है। इसी पर ही मेरा सब कुछ निर्भर है॥ २४ ॥

अतोमूलाः क्रियाः सर्वा मम राजन् न संशयः।
बहुना किं प्रलापेन न दास्ये कामदोहिनीम्॥ २५॥

‘नरेश्वर ! मेरे सारे शुभ कर्मों का मूल यही है, इसमें संशय नहीं है, बहुत व्यर्थ बात करने से क्या लाभ मैं इस कामधेनु को कदापि नहीं दूंगा’ ॥ २५

सर्ग ५४

कामधेनुं वसिष्ठोऽपि यदा न त्यजते मुनिः।
तदास्य शबलां राम विश्वामित्रोऽन्वकर्षत॥१॥

‘श्रीराम! जब वसिष्ठ मुनि किसी तरह भी उस कामधेनु गौको देने के लिये तैयार न हुए, तब राजा विश्वामित्र उस चितकबरे रंग की धेनु को बलपूर्वक घसीट ले चले॥१॥

नीयमाना तु शबला राम राज्ञा महात्मना।
दुःखिता चिन्तयामास रुदन्ती शोककर्शिता॥ २॥

‘रघुनन्दन! महामनस्वी राजा विश्वामित्र के द्वारा इस प्रकार ले जायी जाती हुई वह गौ शोकाकुल हो मन-ही-मन रो पड़ी और अत्यन्त दुःखित हो विचार करने लगी- ॥२॥

परित्यक्ता वसिष्ठेन किमहं सुमहात्मना।
याहं राजभृतैर्दीना ह्रियेय भृशदुःखिता॥३॥

‘अहो! क्या महात्मा वसिष्ठ ने मुझे त्याग दिया है, जो ये राजा के सिपाही मुझ दीन और अत्यन्तदुःखिया गौ को इस तरह बलपूर्वक लिये जा रहे हैं? ॥३॥

किं मयापकृतं तस्य महर्षे वितात्मनः।
यन्मामनागसं दृष्ट्वा भक्तां त्यजति धार्मिकः॥४॥

‘पवित्र अन्तःकरण वाले उन महर्षि का मैंने क्या अपराध किया है कि वे धर्मात्मा मुनि मुझे निरपराध और अपना भक्त जानकर भी त्याग रहे हैं?’ ॥ ४॥

इति संचिन्तयित्वा तु निःश्वस्य च पुनः पुनः।
जगाम वेगेन तदा वसिष्ठं परमौजसम्॥५॥
निर्धूय तांस्तदा भृत्यान् शतशः शत्रुसूदन।

‘शत्रुसूदन! यह सोचकर वह गौ बारम्बार लंब साँस लेने लगी और राजा के उन सैकड़ों सेवकों को झटककर उस समय महातेजस्वी वसिष्ठ मुनि के पास बड़े वेग से जा पहुँची॥ ५ १/२ ॥

जगामानिलवेगेन पादमूलं महात्मनः॥६॥
शबला सा रुदन्ती च क्रोशन्ती चेदमब्रवीत्।
वसिष्ठस्याग्रतः स्थित्वा रुदन्ती मेघनिःस्वना॥ ७॥

‘वह शबला गौ वायु के समान वेग से उन महात्मा के चरणों के समीप गयी और उनके सामने खड़ी हो मेघ के समान गम्भीर स्वर से रोती-चीत्कार करती हुई उनसे इस प्रकार बोली- ॥६-७॥

भगवन् किं परित्यक्ता त्वयाहं ब्रह्मणः सुत।
यस्माद् राजभटा मां हि नयन्ते त्वत्सकाशतः॥ ८॥

‘भगवन् ! ब्रह्मकुमार! क्या आपने मुझे त्याग दिया,जो ये राजा के सैनिक मुझे आपके पास से दूर लिये जा रहे हैं?’ ॥ ८॥

एवमुक्तस्तु ब्रह्मर्षिरिदं वचनमब्रवीत्।
शोकसंतप्तहृदयां स्वसारमिव दुःखिताम्॥९॥

‘उसके ऐसा कहने पर ब्रह्मर्षि वसिष्ठ शोक से संतप्त हृदयवाली दुःखिया बहिन के समान उस गौ से इस प्रकार बोले- ॥९॥

न त्वां त्यजामि शबले नापि मेऽपकृतं त्वया।
एष त्वां नयते राजा बलान्मत्तो महाबलः॥१०॥

‘शबले! मैं तुम्हारा त्याग नहीं करता तुमने मेरा कोई अपराध नहीं किया है,ये महाबली राजा अपने बल से मतवाले होकर तुमको मुझसे छीनकर ले जा रहे हैं॥ १०॥

नहि तुल्यं बलं मह्यं राजा त्वद्य विशेषतः।
बली राजा क्षत्रियश्च पृथिव्याः पतिरेव च॥ ११॥

‘मेरा बल इनके समान नहीं है विशेषतःआजकल ये राजा के पदपर प्रतिष्ठित हैं। राजा, क्षत्रिय तथा इस पृथ्वी के पालक होने के कारण ये बलवान् हैं।॥ ११॥

इयमक्षौहिणी पूर्णा गजवाजिरथाकुला।
हस्तिध्वजसमाकीर्णा तेनासौ बलवत्तरः॥१२॥

‘इनके पास हाथी, घोड़े और रथों से भरी हुई यह अक्षौहिणी सेना है, जिसमें हाथियों के हौदों पर लगे हुए ध्वज सब ओर फहरा रहे हैं। इस सेना के कारण भी ये मुझसे प्रबल हैं’ ॥ १२॥

एवमुक्ता वसिष्ठेन प्रत्युवाच विनीतवत्।
वचनं वचनज्ञा सा ब्रह्मर्षिमतुलप्रभम्॥१३॥

‘वसिष्ठजी के ऐसा कहने पर बातचीत के मर्म को समझने वाली उस कामधेनु ने उन अनुपम तेजस्वी ब्रह्मर्षि से यह विनययुक्त बात कही- ॥१३॥

न बलं क्षत्रियस्याहुर्ब्राह्मणा बलवत्तराः।
ब्रह्मन् ब्रह्मबलं दिव्यं क्षात्राच्च बलवत्तरम्॥ १४॥

“ब्रह्मन् ! क्षत्रिय का बल कोई बल नहीं है ब्राह्मण ही क्षत्रिय आदि से अधिक बलवान् होते हैं। ब्राह्मणका बल दिव्य है। वह क्षत्रिय-बल से अधिक प्रबल होता है।

अप्रमेयं बलं तुभ्यं न त्वया बलवत्तरः।
विश्वामित्रो महावीर्यस्तेजस्तव दुरासदम्॥१५॥

“आपका बल अप्रमेय है। महापराक्रमी विश्वामित्र आपसे अधिक बलवान् नहीं हैं। आपका तेज दुर्धर्ष है॥ १५ ॥

नियुक्ष्व मां महातेजस्त्वं ब्रह्मबलसम्भृताम्।
तस्य दर्पं बलं यत्नं नाशयामि दुरात्मनः॥१६॥

“महातेजस्वी महर्षे! मैं आपके ब्रह्मबल से परिपुष्ट हुई हूँ अतः आप केवल मुझे आज्ञा दे दीजिये। मैं इस दुरात्मा राजा के बल, प्रयत्न और अभिमान को अभी चूर्ण किये देती हूँ’॥ १६ ॥

इत्युक्तस्तु तया राम वसिष्ठस्तु महायशाः।
सृजस्वेति तदोवाच बलं परबलार्दनम्॥१७॥

‘श्रीराम! कामधेनु के ऐसा कहने पर महायशस्वी वसिष्ठ ने कहा—’इस शत्रु-सेना को नष्ट करने वाले सैनिकों की सृष्टि करो’ ॥ १७॥

तस्य तद् वचनं श्रुत्वा सुरभिः सासृजत् तदा।
तस्या हुंभारवोत्सृष्टाः पहलवाः शतशो नृप। १८॥

‘राजकुमार ! उनका वह आदेश सुनकर उस गौने उस समय वैसा ही किया। उसके हुंकार करते ही सैकड़ों पह्नव जाति के वीर पैदा हो गये॥१८॥

नाशयन्ति बलं सर्वं विश्वामित्रस्य पश्यतः।
स राजा परमक्रुद्धः क्रोधविस्फारितेक्षणः॥१९॥

वे सब विश्वामित्र के देखते-देखते उनकी सारी सेना का नाश करने लगे। इससे राजा विश्वामित्र को बड़ा क्रोध हुआ वे रोष से आँखें फाड़-फाड़कर देखने लगे॥ १९॥

पहलवान् नाशयामास शस्त्रैरुच्चावचैरपि।
विश्वामित्रार्दितान् दृष्ट्वा पलवान् शतशस्तदा॥ २०॥
भूय एवासृजद् घोरान् शकान् यवनमिश्रितान्।
तैरासीत् संवृता भूमिः शकैर्यवनमिश्रितैः॥२१॥

‘उन्होंने छोटे-बड़े कई तरह के अस्त्रों का प्रयोग करके उन पहलवों का संहार कर डाला विश्वामित्र द्वारा उन सैकड़ों पहलवों को पीड़ित एवं नष्ट हुआ देख उस समय उस शबला गौ ने पुनः यवन मिश्रित शक जाति के भयंकर वीरों को उत्पन्न किया उन यवन मिश्रित शकों से वहाँ की सारी पृथ्वी भर गयी॥ २०-२१॥

प्रभावद्भिर्महावीहेमकिंजल्कसंनिभैः।
तीक्ष्णासिपट्टिशधरैर्हेमवर्णाम्बरावृतैः॥२२॥
निर्दग्धं तबलं सर्वं प्रदीप्तैरिव पावकैः।
ततोऽस्त्राणि महातेजा विश्वामित्रो मुमोच ह।
तैस्ते यवनकाम्बोजा बर्बराश्चाकुलीकृताः॥ २३॥

‘वे वीर महापराक्रमी और तेजस्वी थे। उनके शरीरकी कान्ति सुवर्ण तथा केसर के समान थी। वे सुनहरे वस्त्रों से अपने शरीर को ढंके हुए थे। उन्होंने हाथों में तीखे खड्ग और पट्टिश ले रखे थे। प्रज्वलित अग्नि के समान उद्भासित होने वाले उन वीरों ने विश्वामित्र की सारी सेना को भस्म करना आरम्भ किया, तब महातेजस्वी विश्वामित्र ने उन पर बहुत-से अस्त्र छोड़े उन अस्त्रों की चोट खाकर वे यवन, काम्बोज और बर्बर जाति के योद्धा व्याकुल हो उठे’ ।। २२-२३॥

सर्ग ५५

ततस्तानाकुलान् दृष्ट्वा विश्वामित्रास्त्रमोहितान्।
वसिष्ठश्चोदयामास कामधुक् सृज योगतः॥१॥

‘विश्वामित्र के अस्त्रों से घायल होकर उन्हें व्याकुल हुआ देख वसिष्ठजी ने फिर आज्ञा दी—’कामधेनो! अब योग बल से दूसरे सैनिकों की सृष्टि करो’ ॥ १॥

तस्या हुंकारतो जाताः काम्बोजा रविसंनिभाः।
ऊधसश्चाथ सम्भूता बर्बराः शस्त्रपाणयः॥२॥

‘तब उस गौ ने फिर हुंकार किया उसके हुंकार से सूर्य के समान तेजस्वी काम्बोज उत्पन्न हुए थन से शस्त्रधारी बर्बर प्रकट हुए॥२॥

योनिदेशाच्च यवनाः शकृद्देशाच्छकाः स्मृताः।
रोमकूपेषु म्लेच्छाश्च हारीताः सकिरातकाः॥ ३॥

‘योनि देश से यवन और शकृद्देश (गोबर के स्थान) से शक उत्पन्न हुए। रोमकूपों से म्लेच्छ, हारीत और किरात प्रकट हुए॥३॥

तैस्तन्निषूदितं सर्वं विश्वामित्रस्य तत्क्षणात्।
सपदातिगजं साश्वं सरथं रघुनन्दन॥४॥

‘रघुनन्दन! उन सब वीरों ने पैदल, हाथी, घोड़े और रथसहित विश्वामित्र की सारी सेना का तत्काल संहार कर डाला॥४॥

दृष्ट्वा निषूदितं सैन्यं वसिष्ठेन महात्मना।
विश्वामित्रसुतानां तु शतं नानाविधायुधम्॥५॥
अभ्यधावत् सुसंक्रुद्धं वसिष्ठं जपतां वरम्।
हंकारेणैव तान् सर्वान् निर्ददाह महानृषिः॥६॥

‘महात्मा वसिष्ठ द्वारा अपनी सेना का संहार हुआ देख विश्वामित्र के सौ पुत्र अत्यन्त क्रोध में भर गये और नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्र लेकर जप करने वालों में श्रेष्ठ वसिष्ठमुनि पर टूट पड़े,तब उन महर्षि ने हुंकार मात्र से उन सबको जलाकर भस्म कर डाला॥ ५-६॥

ते साश्वरथपादाता वसिष्ठेन महात्मना।
भस्मीकृता मुहूर्तेन विश्वामित्रसुतास्तथा॥७॥

‘महात्मा वसिष्ठ द्वारा विश्वामित्र के वे सभी पुत्र दो ही घड़ी में घोड़े, रथ और पैदल सैनिकों सहित जलाकर भस्म कर डाले गये॥७॥

दृष्टा विनाशितान् सर्वान् बलं च सुमहायशाः।
सव्रीडं चिन्तयाविष्टो विश्वामित्रोऽभवत् तदा॥ ८॥

‘अपने समस्त पुत्रों तथा सारी सेना का विनाश हुआ देख महायशस्वी विश्वामित्र लज्जित हो बड़ी चिन्ता में पड़ गये॥ ८॥

समुद्र इव निर्वेगो भग्नद्रष्ट्र इवोरगः।
उपरक्त इवादित्यः सद्यो निष्प्रभतां गतः॥९॥

‘समुद्र के समान उनका सारा वेग शान्त हो गया जिसके दाँत तोड़ लिये गये हों उस सर्प के समान तथा राहुग्रस्त सूर्य की भाँति वे तत्काल ही निस्तेज हो गये॥

हतपुत्रबलो दीनो लूनपक्ष इव द्विजः।
हतसर्वबलोत्साहो निर्वेदं समपद्यत॥१०॥

‘पुत्र और सेना दोनों के मारे जाने से वे पंख कटे हुए पक्षी के समान दीन हो गये। उनका सारा बल और उत्साह नष्ट हो गया। वे मन-ही-मन बहुत खिन्न हो उठे॥ १० ॥

स पुत्रमेकं राज्याय पालयेति नियुज्य च।
पृथिवीं क्षत्रधर्मेण वनमेवाभ्यपद्यत॥११॥

‘उनके एक ही पुत्र बचा था, उसको उन्होंने राजा के पदपर अभिषिक्त करके राज्य की रक्षा के लिये नियुक्त कर दिया और क्षत्रिय-धर्म के अनुसार पृथ्वी के पालन की आज्ञा देकर वे वन में चले गये॥ ११ ॥

स गत्वा हिमवत्पार्वे किंनरोरगसेवितम्।
महादेवप्रसादार्थं तपस्तेपे महातपाः॥१२॥

‘हिमालयके पार्श्वभाग में, जो किन्नरों और नागों से सेवित प्रदेश है, वहाँ जाकर महादेवजी की प्रसन्नता के लिये महान् तपस्या का आश्रय ले वे तपमें ही संलग्न हो गये॥ १२॥

केनचित् त्वथ कालेन देवेशो वृषभध्वजः।
दर्शयामास वरदो विश्वामित्रं महामुनिम्॥ १३॥

‘कुछ काल के पश्चात् वरदायक देवेश्वर भगवान् वृषभध्वज (शिव) ने महामुनि विश्वामित्र को दर्शन दिया और कहा- ॥ १३॥

किमर्थं तप्यसे राजन् ब्रूहि यत् ते विवक्षितम्।
वरदोऽस्मि वरो यस्ते कांक्षितः सोऽभिधीयताम्॥ १४॥

“राजन् ! किसलिये तप करते हो? बताओ क्या कहना चाहते हो? मैं तुम्हें वर देने के लिये आया हूँ तुम्हें जो वर पाना अभीष्ट हो, उसे कहो’ ॥ १४॥

एवमुक्तस्तु देवेन विश्वामित्रो महातपाः।
प्रणिपत्य महादेवं विश्वामित्रोऽब्रवीदिदम्॥

‘महादेवजी के ऐसा कहने पर महातपस्वी विश्वामित्र ने उन्हें प्रणाम करके इस प्रकार कहा-॥ १५॥

यदि तुष्टो महादेव धनुर्वेदो ममानघ।
सांगोपांगोपनिषदः सरहस्यः प्रदीयताम्॥१६॥

“निष्पाप महादेव! यदि आप संतुष्ट हों तो अंग, उपांग, उपनिषद् और रहस्यों सहित धनुर्वेद मुझे प्रदान कीजिये॥

यानि देवेषु चास्त्राणि दानवेषु महर्षिषु।
गन्धर्वयक्षरक्षःसु प्रतिभान्तु ममानघ॥१७॥
तव प्रसादाद् भवतु देवदेव ममेप्सितम्।

“अनघ! देवताओं, दानवों, महर्षियों, गन्धर्वो, यक्षों तथा राक्षसों के पास जो-जो अस्त्र हों, वे सब आपकी कृपा से मेरे हृदय में स्फुरित हो जायँ। देवदेव! यही मेरा मनोरथ है, जो मुझे प्राप्त होना चाहिये। १७ १/२॥

एवमस्त्विति देवेशो वाक्यमुक्त्वा गतस्तदा। १८॥
प्राप्य चास्त्राणि देवेशाद् विश्वामित्रो महाबलः।
दर्पण महता युक्तो दर्पपूर्णोऽभवत् तदा॥१९॥

‘तब ‘एवमस्तु’ कहकर देवेश्वर भगवान् शङ्कर वहाँ से चले गये। देवेश्वर महादेव से वे अस्त्र पाकर महाबली विश्वामित्र को बड़ा घमंड हो गया वे अभिमान में भर गये॥ १८-१९॥

विवर्धमानो वीर्येण समुद्र इव पर्वणि।
हतं मेने तदा राम वसिष्ठमृषिसत्तमम्॥२०॥

‘जैसे पूर्णिमा को समुद्र बढ़ने लगता है, उसी प्रकार वे पराक्रम द्वारा अपने को बहुत बढ़ा-चढ़ा मानने लगे। श्रीराम! उन्होंने मुनिश्रेष्ठ वसिष्ठ को उस समय मरा हुआ ही समझा ॥ २० ॥

ततो गत्वाऽऽश्रमपदं मुमोचास्त्राणि पार्थिवः।
यैस्तत् तपोवनं नाम निर्दग्धं चास्त्रतेजसा॥२१॥

फिर तो वे पृथ्वीपति विश्वामित्र वसिष्ठ के आश्रम पर जाकर भाँति-भाँति के अस्त्रों का प्रयोग करने लगे। जिनके तेज से वह सारा तपोवन दग्ध होने लगा॥ २१॥

उदीर्यमाणमस्त्रं तद् विश्वामित्रस्य धीमतः।
दृष्ट्वा विप्रद्रुता भीता मुनयः शतशो दिशः॥ २२॥

‘बुद्धिमान् विश्वामित्र के उस बढ़ते हुए अस्त्रतेज को देखकर वहाँ रहने वाले सैकड़ों मुनि भयभीत हो सम्पूर्ण दिशाओं में भाग चले॥ २२ ॥

वसिष्ठस्य च ये शिष्या ये च वै मृगपक्षिणः।
विद्रवन्ति भयाद भीता नानादिग्भ्यः सहस्रशः॥ २३॥

‘वसिष्ठजी के जो शिष्य थे, जो वहाँ के पशु और पक्षी थे, वे सहस्रों प्राणी भयभीत हो नाना दिशाओं की ओर भाग गये॥२३॥

वसिष्ठस्याश्रमपदं शून्यमासीन्महात्मनः।
मुहूर्तमिव निःशब्दमासीदीरिणसंनिभम्॥ २४॥

‘महात्मा वसिष्ठ का वह आश्रम सूना हो गया। दो ही घड़ी में ऊसर भूमि के समान उस स्थान पर सन्नाटा छा गया॥२४॥

वदतो वै वसिष्ठस्य मा भैरिति मुहर्महः।
नाशयाम्यद्य गाधेयं नीहारमिव भास्करः॥२५॥

‘वसिष्ठजी बार-बार कहने लगे—’डरो मत, मैं अभी इस गाधिपुत्र को नष्ट किये देता हूँ ठीक उसी तरह, जैसे सूर्य कुहासे को मिटा देता है’ ॥ २५ ॥

एवमुक्त्वा महातेजा वसिष्ठो जपतां वरः।
विश्वामित्रं तदा वाक्यं सरोषमिदमब्रवीत्॥२६॥

‘जपनेवालों में श्रेष्ठ महातेजस्वी वसिष्ठ ऐसा कहकर उस समय विश्वामित्रजी से रोषपूर्वक बोले

आश्रमं चिरसंवृद्धं यद् विनाशितवानसि।
दुराचारो हि यन्मूढस्तस्मात् त्वं न भविष्यसि॥ २७॥

“अरे! तूने चिरकाल से पाले-पोसे तथा हरे-भरे किये हुए इस आश्रम को नष्ट कर दिया-उजाड़ डाला, इसलिये तू दुराचारी और विवेकशून्य है और इस पाप के कारण तू कुशल से नहीं रह सकता’। २७॥

इत्युक्त्वा परमक्रुद्धो दण्डमुद्यम्य सत्वरः।
विधूम इव कालाग्निर्यमदण्डमिवापरम्॥२८॥

‘ऐसा कहकर वे अत्यन्त क्रुद्ध हो धूमरहित कालाग्नि के समान उद्दीप्त हो उठे और दूसरे यमदण्ड के समान भयंकर डंडा हाथ में उठाकर तुरंत उनका सामना करने के लिये तैयार हो गये’ ॥ २८॥

सर्ग ५६ 

एवमुक्तो वसिष्ठेन विश्वामित्रो महाबलः।
आग्नेयमस्त्रमुद्दिश्य तिष्ठ तिष्ठति चाब्रवीत्॥१॥

वसिष्ठजी के ऐसा कहने पर महाबली विश्वामित्र आग्नेयास्त्र लेकर बोले-‘अरे खड़ा रह, खड़ा रह’॥१॥

ब्रह्मदण्डं समुद्यम्य कालदण्डमिवापरम्।
वसिष्ठो भगवान् क्रोधादिदं वचनमब्रवीत्॥२॥

उस समय द्वितीय कालदण्ड के समान ब्रह्मदण्ड को उठाकर भगवान् वसिष्ठ ने क्रोधपूर्वक इस प्रकार कहा -२॥
क्षत्रबन्धो स्थितोऽस्म्येष यद् बलं तद् विदर्शय।

नाशयाम्यद्य ते दर्प शस्त्रस्य तव गाधिज॥३॥

‘क्षत्रियाधम! ले, यह मैं खड़ा हूँ तेरे पास जो बल हो, उसे दिखा। गाधिपुत्र! आज तेरे अस्त्रशस्त्रों के ज्ञान का घमंड मैं अभी धूल में मिला दूंगा। ३॥

क्व च ते क्षत्रियबलं क्व च ब्रह्मबलं महत्।
पश्य ब्रह्मबलं दिव्यं मम क्षत्रियपांसन॥४॥

‘क्षत्रियकुलकलङ्क ! कहाँ तेरा क्षात्रबल और कहाँ महान् ब्रह्मबल। मेरे दिव्य ब्रह्मबल को देख ले’ ॥ ४ ॥

तस्यास्त्रं गाधिपुत्रस्य घोरमाग्नेयमुत्तमम्।
ब्रह्मदण्डेन तच्छान्तमग्नेर्वेग इवाम्भसा॥५॥

गाधिपुत्र विश्वामित्र का वह उत्तम एवं भयंकर आग्नेयास्त्र वसिष्ठजी के ब्रह्मदण्ड से उसी प्रकार शान्त हो गया, जैसे पानी पड़ने से जलती हुई आग का वेग॥

वारुणं चैव रौद्रं च ऐन्द्रं पाशुपतं तथा।
ऐषीकं चापि चिक्षेप कुपितो गाधिनन्दनः॥६॥

तब गाधिपुत्र विश्वामित्र ने कुपित होकर वारुण, रौद्र, ऐन्द्र, पाशुपत और ऐषीक नामक अस्त्रों का प्रयोग किया।

मानवं मोहनं चैव गान्धर्वं स्वापनं तथा।
जृम्भणं मादनं चैव संतापनविलापने॥७॥
शोषणं दारणं चैव वज्रमस्त्रं सुदुर्जयम्।
ब्रह्मपाशं कालपाशं वारुणं पाशमेव च॥८॥
पिनाकमस्त्रं दयितं शुष्काइँ अशनी तथा।
दण्डास्त्रमथ पैशाचं क्रौञ्चमस्त्रं तथैव च॥९॥
धर्मचक्रं कालचक्रं विष्णुचक्रं तथैव च।
वायव्यं मथनं चैव अस्त्रं हयशिरस्तथा ॥१०॥
शक्तिद्वयं च चिक्षेप कङ्कालं मुसलं तथा।
वैद्याधरं महास्त्रं च कालास्त्रमथ दारुणम्॥ ११॥
त्रिशूलमस्त्रं घोरं च कापालमथ कङ्कणम्।
एतान्यस्त्राणि चिक्षेप सर्वाणि रघुनन्दन ॥१२॥

रघुनन्दन! उसके पश्चात् क्रमशः मानव, मोहन, गान्धर्व, स्वापन, जृम्भण, मादन, संतापन, विलापन, शोषण, विदारण, सुदुर्जय वज्रास्त्र, ब्रह्मपाश, कालपाश, वारुणपाश, परमप्रिय पिनाकास्त्र, सूखी गीली दो प्रकारकी अशनि, दण्डास्त्र, पैशाचास्त्र, क्रौञ्चास्त्र, धर्मचक्र, कालचक्र, विष्णुचक्र, वायव्यास्त्र, मन्थनास्त्र, हयशिरा, दो प्रकार की शक्ति, कङ्काल, मूसल, महान् वैद्याधरास्त्र, दारुण कालास्त्र, भयंकर त्रिशूलास्त्र, कापालास्त्र और कङ्कणास्त्र—ये सभी अस्त्र उन्होंने वसिष्ठजी के ऊपर चलाये। ७– १२॥

वसिष्ठे जपतां श्रेष्ठे तदद्भुतमिवाभवत्।
तानि सर्वाणि दण्डेन ग्रसते ब्रह्मणः सुतः॥१३॥

जपने वालों में श्रेष्ठ महर्षि वसिष्ठ पर इतने अस्त्रों का प्रहार वह एक अद्भुत-सी घटना थी, परंतु ब्रह्मा के पुत्र वसिष्ठजी ने उन सभी अस्त्रों को केवल अपने डंडे से ही नष्ट कर दिया॥१३॥

तेषु शान्तेषु ब्रह्मास्त्रं क्षिप्तवान् गाधिनन्दनः।
तदस्त्रमुद्यतं दृष्ट्वा देवाः साग्निपुरोगमाः॥१४॥
देवर्षयश्च सम्भ्रान्ता गन्धर्वाः समहोरगाः।
त्रैलोक्यमासीत् संत्रस्तं ब्रह्मास्त्रे समुदीरिते॥ १५॥

उन सब अस्त्रों के शान्त हो जाने पर गाधिनन्दन विश्वामित्र ने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया ब्रह्मास्त्र को उद्यत देख अग्नि आदि देवता, देवर्षि, गन्धर्व और बड़े-बड़े नाग भी दहल गये, ब्रह्मास्त्र के ऊपर उठते ही तीनों लोकों के प्राणी थर्रा उठे॥१४-१५॥

तदप्यस्त्रं महाघोरं ब्राह्मं ब्राह्मण तेजसा।
वसिष्ठो ग्रसते सर्वं ब्रह्मदण्डेन राघव॥१६॥

राघव! वसिष्ठजी ने अपने ब्रह्म तेज के प्रभाव से उस महाभयंकर ब्रह्मास्त्र को भी ब्रह्मदण्ड के द्वारा ही शान्त कर दिया॥१६॥

ब्रह्मास्त्रं ग्रसमानस्य वसिष्ठस्य महात्मनः।
त्रैलोक्यमोहनं रौद्रं रूपमासीत् सुदारुणम्॥१७॥

उस ब्रह्मास्त्र को शान्त करते समय महात्मा वसिष्ठ का वह रौद्ररूप तीनों लोकों को मोह में डालने वाला और अत्यन्त भयंकर जान पड़ता था। १७॥

रोमकूपेषु सर्वेषु वसिष्ठस्य महात्मनः ।
मरीच्य इव निष्पेतुरग्ने माकुलार्चिषः॥१८॥

महात्मा वसिष्ठ के समस्त रोमकूपों में से किरणों की भाँति धूमयुक्त आग की लपटें निकलने लगीं॥ १८॥

प्राज्वलद् ब्रह्मदण्डश्च वसिष्ठस्य करोद्यतः।
विधूम इव कालाग्नेर्यमदण्ड इवापरः॥१९॥

वसिष्ठजी के हाथ में उठा हुआ द्वितीय यमदण्ड के समान वह ब्रह्मदण्ड धूमरहित कालाग्नि के समान प्रज्वलित हो रहा था॥ १९ ॥

ततोऽस्तुवन् मुनिगणा वसिष्ठं जपतां वरम्।
अमोघं ते बलं ब्रह्मस्तेजो धारय तेजसा॥२०॥

उस समय समस्त मुनिगण मन्त्र जपने वालों में श्रेष्ठ वसिष्ठ मुनि की स्तुति करते हुए बोले—’ब्रह्मन् ! आपका बल अमोघ है। आप अपने तेज को अपनी ही शक्ति से समेट लीजिये॥ २० ॥

निगृहीतस्त्वया ब्रह्मन् विश्वामित्रो महाबलः।
अमोघं ते बलं श्रेष्ठ लोकाः सन्तु गतव्यथाः॥ २१॥

‘महाबली विश्वामित्र आपसे पराजित हो गये। मुनिश्रेष्ठ! आपका बल अमोघ है। अब आप शान्त हो जाइये, जिससे लोगोंकी व्यथा दूर हो’ ॥ २१॥

एवमुक्तो महातेजाः शमं चक्रे महाबलः।
विश्वामित्रो विनिकृतो विनिःश्वस्येदमब्रवीत्॥ २२॥

महर्षियों के ऐसा कहने पर महातेजस्वी महाबली वसिष्ठजी शान्त हो गये और पराजित विश्वामित्र लम्बी साँस खींचकर यों बोले- ॥ २२ ॥

धिग् बलं क्षत्रियबलं ब्रह्मतेजोबलं बलम्।
एकेन ब्रह्मदण्डेन सर्वास्त्राणि हतानि मे ॥२३॥

‘क्षत्रिय के बल को धिक्कार है। ब्रह्मतेज से प्राप्त होने वाला बल ही वास्तव में बल है; क्योंकि आज एक ब्रह्मदण्ड ने मेरे सभी अस्त्र नष्ट कर दिये॥२३॥

तदेतत् प्रसमीक्ष्याहं प्रसन्नेन्द्रियमानसः।
तपो महत् समास्थास्ये यद् वै ब्रह्मत्वकारणम्॥ २४॥

‘इस घटना को प्रत्यक्ष देखकर अब मैं अपने मन और इन्द्रियों को निर्मल करके उस महान् तप का अनुष्ठान करूँगा, जो मेरे लिये ब्राह्मणत्व की प्राप्ति का कारण होगा’ ॥ २४॥

सर्ग ५७

ततः संतप्तहृदयः स्मरन्निग्रहमात्मनः।
विनिःश्वस्य विनिःश्वस्य कृतवैरो महात्मना॥१॥
स दक्षिणां दिशं गत्वा महिष्या सह राघव।
तताप परमं घोरं विश्वामित्रो महातपाः॥२॥

श्रीराम! तदनन्तर विश्वामित्र अपनी पराजय को याद करके मन-ही-मन संतप्त होने लगे। महात्मा वसिष्ठ के साथ वैर बाँधकर महातपस्वी विश्वामित्र बारम्बार लम्बी साँस खींचते हुए अपनी रानी के साथ दक्षिण दिशा में जाकर अत्यन्त उत्कृष्ट एवं भयंकर तपस्या करने लगे॥ १-२॥

फलमूलाशनो दान्तश्चचार परमं तपः।
अथास्य जज्ञिरे पुत्राः सत्यधर्मपरायणाः॥३॥
हविष्पन्दो मधुष्पन्दो दृढनेत्रो महारथः।

वहाँ मन और इन्द्रियों को वश में करके वे फलमूल का आहार करते तथा उत्तम तपस्या में लगे रहते थे। वहीं उनके हविष्पन्द, मधुष्पन्द, दृढनेत्र और महारथ नामक चार पुत्र उत्पन्न हुए, जो सत्य और धर्म में तत्पर रहने वाले थे॥ ३ १/२ ॥

पूर्णे वर्षसहस्रे तु ब्रह्मा लोकपितामहः॥४॥
अब्रवीन्मधुरं वाक्यं विश्वामित्रं तपोधनम्।
जिता राजर्षिलोकास्ते तपसा कुशिकात्मज॥५॥
अनेन तपसा त्वां हि राजर्षिरिति विद्महे।

एक हजार वर्ष पूरे हो जानेपर लोकपितामह ब्रह्माजी ने तपस्या के धनी विश्वामित्र को दर्शन देकर मधुर वाणी में कहा—’कुशिकनन्दन! तुमने तपस्या के द्वारा राजर्षियों के लोकों पर विजय पायी है। इस तपस्या के प्रभाव से हम तुम्हें सच्चा राजर्षि समझते हैं’॥ ४-५ १/२॥

एवमुक्त्वा महातेजा जगाम सह दैवतैः॥६॥
त्रिविष्टपं ब्रह्मलोकं लोकानां परमेश्वरः।

यह कहकर सम्पूर्ण लोकों के स्वामी ब्रह्माजी देवताओं के साथ स्वर्गलोक होते हुए ब्रह्मलोक को चले गये॥ ६ १/२॥
विश्वामित्रोऽपि तच्छत्वा ह्रिया किंचिदवाङ्मखः॥ ७॥

दुःखेन महताविष्टः समन्युरिदमब्रवीत्।
तपश्च सुमहत् तप्तं राजर्षिरिति मां विदुः ॥८॥
देवाः सर्षिगणाः सर्वे नास्ति मन्ये तपः फलम्।

उनकी बात सुनकर विश्वामित्र का मुख लज्जा से कुछ झुक गया। वे बड़े दुःख से व्यथित हो दीनतापूर्वक मन-ही-मन यों कहने लगे—’अहो! मैंने इतना बड़ा तप किया तो भी ऋषियों सहित सम्पूर्ण देवता मुझे राजर्षि ही समझते हैं मालूम होता है, इस तपस्या का कोई फल नहीं हुआ’। ७-८ १/२॥

एवं निश्चित्य मनसा भूय एव महातपाः॥९॥
तपश्चचार धर्मात्मा काकुत्स्थ परमात्मवान्।

श्रीराम! मन में ऐसा सोचकर अपने मन को वश में रखने वाले महातपस्वी धर्मात्मा विश्वामित्र पुनः भारी तपस्या में लग गये॥९ १/२॥

एतस्मिन्नेव काले तु सत्यवादी जितेन्द्रियः॥ १०॥
त्रिशङ्करिति विख्यात इक्ष्वाकुकुलवर्धनः।

इसी समय इक्ष्वाकुकुलकी कीर्ति बढ़ानेवाले एक सत्यवादी और जितेन्द्रिय राजा राज्य करते थे। उनका नाम था त्रिशंकु ॥ १० १/२ ॥

तस्य बुद्धिः समुत्पन्ना यजेयमिति राघव॥११॥
गच्छेयं स्वशरीरेण देवतानां परां गतिम्।

रघुनन्दन! उनके मन में यह विचार हुआ कि ‘मैं ऐसा कोई यज्ञ करूँ, जिससे अपने इस शरीर के साथ ही देवताओं की परम गति—स्वर्गलोक को जा पहुँचूँ’ ॥

वसिष्ठं स समाहृय कथयामास चिन्तितम्॥१२॥
अशक्यमिति चाप्युक्तो वसिष्ठेन महात्मना।

तब उन्होंने वसिष्ठजी को बुलाकर अपना यह विचार उन्हें कह सुनाया। महात्मा वसिष्ठ ने उन्हें बताया कि ‘ऐसा होना असम्भव है’ ॥ १२ १/२॥

प्रत्याख्यातो वसिष्ठेन स ययौ दक्षिणां दिशम्॥ १३॥
ततस्तत्कर्मसिद्ध्यर्थं पुत्रांस्तस्य गतो नृपः।

जब वसिष्ठ ने उन्हें कोरा उत्तर दे दिया, तब वे राजा उस कर्म की सिद्धि के लिये दक्षिण दिशा में उन्हीं के पुत्रों के पास चले गये ॥ १३ १/२ ॥

वासिष्ठा दीर्घतपसस्तपो यत्र हि तेपिरे॥१४॥
त्रिशङ्कस्तु महातेजाः शतं परमभास्वरम्॥
वसिष्ठपुत्रान् ददृशे तप्यमानान् मनस्विनः॥१५॥

वसिष्ठजी के वे पुत्र जहाँ दीर्घकाल से तपस्या में प्रवृत्त होकर तप करते थे, उस स्थानपर पहुँचकर महातेजस्वी त्रिशंकु ने देखा कि मन को वश में रखने वाले वे सौ परमतेजस्वी वसिष्ठकुमार तपस्या में संलग्न हैं॥

सोऽभिगम्य महात्मानः सर्वानेव गुरोः सुतान्।
अभिवाद्यानुपूर्वेण ह्रिया किंचिदवाङ्मुखः॥१६॥
अब्रवीत् स महात्मानः सर्वानेव कृताञ्जलिः।

उन सभी महात्मा गुरुपुत्रों के पास जाकर उन्होंने क्रमशः उन्हें प्रणाम किया और लज्जा से अपने मुख को कुछ नीचा किये हाथ जोड़कर उन सब महात्माओं से कहा- ॥ १६ १/२ ॥

शरणं वः प्रपन्नोऽहं शरण्यान् शरणं गतः॥ १७॥
प्रत्याख्यातो हि भद्रं वो वसिष्ठेन महात्मना।
यष्टकामो महायज्ञं तदनुज्ञातुमर्हथ॥१८॥

‘गुरुपुत्रो! आप शरणागतवत्सल हैं। मैं आप लोगों की शरण में आया हूँ, आपका कल्याण हो। महात्मा वसिष्ठ ने मेरा यज्ञ कराना अस्वीकार कर दिया है। मैं एक महान् यज्ञ करना चाहता हूँ। आप लोग उसके लिये आज्ञा दें॥१७-१८॥
गुरुपुत्रानहं सर्वान् नमस्कृत्य प्रसादये।

शिरसा प्रणतो याचे ब्राह्मणांस्तपसि स्थितान्॥ १९॥
ते मां भवन्तः सिद्ध्यर्थं याजयन्तु समाहिताः।
सशरीरो यथाहं वै देवलोकमवाप्नुयाम्॥२०॥

‘मैं समस्त गुरुपुत्रों को नमस्कार करके प्रसन्न करना चाहता हूँ। आप लोग तपस्या में संलग्न रहने वाले ब्राह्मण हैं। मैं आपके चरणों में मस्तक रखकर यह याचना करता हूँ कि आप लोग एकाग्रचित्त हो मुझसे मेरी अभीष्टसिद्धि के लिये ऐसा कोई यज्ञ करावें, जिससे मैं इस शरीर के साथ ही देवलोक में जा सकूँ॥ १९-२०॥

प्रत्याख्यातो वसिष्ठेन गतिमन्यां तपोधनाः।
गुरुपुत्रानृते सर्वान् नाहं पश्यामि कांचन॥२१॥

‘तपोधनो! महात्मा वसिष्ठ के अस्वीकार कर देने पर अब मैं अपने लिये समस्त गुरुपुत्रों की शरण में जाने के सिवा दूसरी कोई गति नहीं देखता॥ २१ ॥

इक्ष्वाकूणां हि सर्वेषां पुरोधाः परमा गतिः।
तस्मादनन्तरं सर्वे भवन्तो दैवतं मम॥२२॥

‘समस्त इक्ष्वाकुवंशियों के लिये पुरोहित वसिष्ठजी ही परमगति हैं। उनके बाद आप सब लोग ही मेरे परम देवता हैं’॥ २२॥

सर्ग ५८

ततस्त्रिशङ्कोर्वचनं श्रुत्वा क्रोधसमन्वितम्।
ऋषिपुत्रशतं राम राजानमिदमब्रवीत्॥१॥
प्रत्याख्यातोऽसि दुर्मेधो गुरुणा सत्यवादिना।
तं कथं समतिक्रम्य शाखान्तरमुपेयिवान्॥२॥

रघुनन्दन! राजा त्रिशंकु का यह वचन सुनकर वसिष्ठ मुनि के वे सौ पुत्र कुपित हो उनसे इस प्रकार बोले- ‘दुर्बुद्धे ! तुम्हारे सत्यवादी गुरु ने जब तुम्हें मना कर दिया है, तब तुमने उनका उल्लङ्घन करके दूसरी शाखा का आश्रय कैसे लिया? ॥ १-२॥

न चातिक्रमितुं शक्यं वचनं सत्यवादिनः॥३॥

‘समस्त इक्ष्वाकुवंशी क्षत्रियों के लिये पुरोहित वसिष्ठजी ही परमगति हैं। उन सत्यवादी महात्मा की बात को कोई अन्यथा नहीं कर सकता॥३॥

अशक्यमिति सोवाच वसिष्ठो भगवानृषिः।
तं वयं वै समाहर्तुं क्रतुं शक्ताः कथंचन॥४॥

‘जिस यज्ञ कर्म को उन भगवान् वसिष्ठमुनि ने असम्भव बताया है, उसे हम लोग कैसे कर सकते हैं॥४॥

बालिशस्त्वं नरश्रेष्ठ गम्यतां स्वपुरं पुनः।
याजने भगवान् शक्तस्त्रैलोक्यस्यापि पार्थिव॥
अवमानं कथं कर्तुं तस्य शक्ष्यामहे वयम्।

‘नरश्रेष्ठ ! तुम अभी नादान हो, अपने नगर को लौट जाओ। पृथ्वीनाथ! भगवान् वसिष्ठ तीनों लोकों का यज्ञ कराने में समर्थ हैं, हम लोग उनका अपमान कैसे कर सकेंगे’॥ ५ १/२॥

तेषां तद् वचनं श्रुत्वा क्रोधपर्याकुलाक्षरम्॥६॥
स राजा पुनरेवैतानिदं वचनमब्रवीत्।
प्रत्याख्यातो भगवता गुरुपुत्रैस्तथैव हि ॥७॥
अन्यां गतिं गमिष्यामि स्वस्ति वोऽस्तु तपोधनाः।

गुरुपुत्रों का वह क्रोधयुक्त वचन सुनकर राजा त्रिशंकु ने पुनः उनसे इस प्रकार कहा—’तपोधनो! भगवान् वसिष्ठ ने तो मुझे ठुकरा ही दिया था, आप गुरुपुत्र गण भी मेरी प्रार्थना नहीं स्वीकार कर रहे हैं; अतः आपका कल्याण हो, अब मैं दूसरे किसी की शरण में जाऊँगा’॥

ऋषिपुत्रास्तु तच्छ्रुत्वा वाक्यं घोराभिसंहितम्॥ ८ ॥
शेपुः परमसंक्रुद्धाश्चण्डालत्वं गमिष्यसि।
इत्युक्त्वा ते महात्मानो विविशुः स्वं स्वमाश्रमम्॥ ९॥

त्रिशंकु का यह घोर अभिसंधिपूर्ण वचन सुनकर महर्षि के पुत्रों ने अत्यन्त कुपित हो उन्हें शाप दे दिया —’अरे! जा तू चाण्डाल हो जायगा।’ ऐसा कहकर वे महात्मा अपने-अपने आश्रम में प्रविष्ट हो गये॥ ८-९॥

अथ रात्र्यां व्यतीतायां राजा चण्डालतां गतः।
नीलवस्त्रधरो नीलः पुरुषो ध्वस्तमूर्धजः॥१०॥
चित्यमाल्यांगरागश्च आयसाभरणोऽभवत्।

तदनन्तर रात व्यतीत होते ही राजा त्रिशंकु चाण्डाल हो गये। उनके शरीर का रंग नीला हो गया। कपड़े भी नीले हो गये। प्रत्येक अंग में रुक्षता आ गयी। सिर के बाल छोटे-छोटे हो गये। सारे शरीर में चिता की राख-सी लिपट गयी। विभिन्न अंगों में यथास्थान लोहे के गहने पड़ गये॥ १० १/२ ॥

तं दृष्ट्वा मन्त्रिणः सर्वे त्यज्य चण्डालरूपिणम्॥ ११॥
प्राद्रवन सहिता राम पौरा येऽस्यानुगामिनः।
एको हि राजा काकुत्स्थ जगाम परमात्मवान्॥ १२॥
दह्यमानो दिवारानं विश्वामित्रं तपोधनम्।

श्रीराम! अपने राजा को चाण्डाल के रूप में देखकर सब मन्त्री और पुरवासी जो उनके साथ आये थे, उन्हें छोड़कर भाग गये। ककुत्स्थनन्दन! वे धीरस्वभाव नरेश दिन-रात चिन्ता की आग में जलने लगे और अकेले ही तपोधन विश्वामित्र की शरण में गये॥११-१२ १/२॥

विश्वामित्रस्तु तं दृष्ट्वा राजानं विफलीकृतम्॥ १३॥
चण्डालरूपिणं राम मुनिः कारुण्यमागतः।
कारुण्यात् स महातेजा वाक्यं परमधार्मिकः॥ १४॥
इदं जगाद भद्रं ते राजानं घोरदर्शनम्।
किमागमनकार्यं ते राजपुत्र महाबल॥१५॥
अयोध्याधिपते वीर शापाच्चण्डालतां गतः।

श्रीराम ! विश्वामित्र ने देखा राजा का जीवन निष्फल हो गया है। उन्हें चाण्डाल के रूपमें देखकर उन महातेजस्वी परम धर्मात्मा मुनि के हृदय में करुणा भर आयी। वे दया से द्रवित होकर भयंकर दिखायी देने वाले राजा त्रिशंकु से इस प्रकार बोले—’महाबली राजकुमार! तुम्हारा भला हो, यहाँ किस काम से तुम्हारा आना हुआ है। वीर अयोध्यानरेश! जान पड़ता है तुम शाप से चाण्डाल भाव को प्राप्त हुए हो’॥ १३–१५ १/२॥

अथ तदाक्यमाकर्ण्य राजा चण्डालतां गतः॥ १६॥
अब्रवीत् प्राञ्जलिर्वाक्यं वाक्यज्ञो वाक्यकोविदम्।

विश्वामित्र की बात सुनकर चाण्डालभाव को प्राप्त हुए और वाणी के तात्पर्य को समझने वाले राजा त्रिशंकु ने हाथ जोड़कर वाक्यार्थ कोविद विश्वामित्र मुनि से इस प्रकार कहा— ॥ १६ १/२ ॥

प्रत्याख्यातोऽस्मि गुरुणा गुरुपुत्रैस्तथैव च॥ १७॥
अनवाप्यैव तं कामं मया प्राप्तो विपर्ययः।

‘महर्षे! मुझे गुरु तथा गुरुपुत्रों ने ठुकरा दिया। मैं जिस मनोऽभीष्ट वस्तु को पाना चाहता था, उसे न पाकर इच्छा के विपरीत अनर्थ का भागी हो गया। १७ १/२॥

सशरीरो दिवं यायामिति मे सौम्यदर्शन॥१८॥
मया चेष्टं क्रतुशतं तच्च नावाप्यते फलम्।

‘सौम्यदर्शन मुनीश्वर! मैं चाहता था कि इसी शरीर से स्वर्ग को जाऊँ, परंतु यह इच्छा पूर्ण न हो सकी। मैंने सैकड़ों यज्ञ किये हैं; किंतु उनका भी कोई फल नहीं मिल रहा है॥ १८ १/२॥

अनृतं नोक्तपूर्वं मे न च वक्ष्ये कदाचन ॥१९॥
कृच्छ्रेष्वपि गतः सौम्य क्षत्रधर्मेण ते शपे।

‘सौम्य! मैं क्षत्रिय धर्म की शपथ खाकर आपसे कहता हूँ कि बड़े-से-बड़े सङ्कट में पड़ने पर भी न तो पहले कभी मैंने मिथ्या भाषण किया है और न भविष्य में ही कभी करूँगा। १९ १/२॥

यज्ञैर्बहुविधैरिष्टं प्रजा धर्मेण पालिताः॥२०॥
गुरवश्च महात्मानः शीलवृत्तेन तोषिताः।
धर्मे प्रयतमानस्य यज्ञं चाहर्तुमिच्छतः॥ २१॥
परितोषं न गच्छन्ति गुरवो मुनिपुंगव।
दैवमेव परं मन्ये पौरुषं तु निरर्थकम्॥२२॥

‘मैंने नाना प्रकार के यज्ञों का अनुष्ठान किया, प्रजाजनों की धर्मपूर्वक रक्षा की और शील एवं सदाचार के द्वारा महात्माओं तथा गुरुजनों को संतुष्ट रखने का प्रयास किया। इस समय भी मैं यज्ञ करना चाहता था; अतः मेरा यह प्रयत्न धर्म के लिये ही था। मुनिप्रवर! तो भी मेरे गुरुजन मुझ पर संतुष्ट न हो सके। यह देखकर मैं दैव को ही बड़ा मानता हूँ पुरुषार्थ तो निरर्थक जान पड़ता है। २०–२२ ॥

दैवेनाक्रम्यते सर्वं दैवं हि परमा गतिः।
तस्य मे परमार्तस्य प्रसादमभिकांक्षतः।
कर्तुमर्हसि भद्रं ते दैवोपहतकर्मणः॥२३॥

‘दैव सबपर आक्रमण करता है। दैव ही सबकी परमगति है। मुने! मैं अत्यन्त आर्त होकर आपकी कृपा चाहता हूँ। दैव ने मेरे पुरुषार्थ को दबा दिया है। आपका भला हो। आप मुझपर अवश्य कृपा करें।२३॥

नान्यां गतिं गमिष्यामि नान्यच्छरणमस्ति मे।
दैवं पुरुषकारेण निवर्तयितुमर्हसि ॥२४॥

‘अब मैं आपके सिवा दूसरे किसी की शरण में नहीं जाऊँगा। दूसरा कोई मुझे शरण देने वाला है भी नहीं। आप ही अपने पुरुषार्थ से मेरे दुर्दैव को पलट सकते हैं ॥२४॥

सर्ग ५९

उक्तवाक्यं तु राजानं कृपया कुशिकात्मजः।
अब्रवीन्मधुरं वाक्यं साक्षाच्चण्डालतां गतम्॥

[शतानन्दजी कहते हैं- श्रीराम!] साक्षात् चाण्डाल के स्वरूप को प्राप्त हुए राजा त्रिशंकु के पूर्वोक्त वचन को सुनकर कुशिकनन्दन विश्वामित्रजी ने दया से द्रवित होकर उनसे मधुर वाणीमें कहा— ॥१॥

इक्ष्वाको स्वागतं वत्स जानामि त्वां सुधार्मिकम्।
शरणं ते प्रदास्यामि मा भैषीनूपपुंगव॥२॥

‘वत्स! इक्ष्वाकुकुलनन्दन! तुम्हारा स्वागत है, मैं जानता हूँ, तुम बड़े धर्मात्मा हो। नृपप्रवर! डरो मत, मैं तुम्हें शरण दूंगा॥२॥

अहमामन्त्रये सर्वान् महर्षीन् पुण्यकर्मणः।
यज्ञसाह्यकरान् राजंस्ततो यक्ष्यसि निर्वृतः॥३॥

‘राजन्! तुम्हारे यज्ञ में सहायता करने वाले समस्त पुण्यकर्मा महर्षियों को मैं आमन्त्रित करता हूँ फिर तुम आनन्दपूर्वक यज्ञ करना॥३॥

गुरुशापकृतं रूपं यदिदं त्वयि वर्तते।
अनेन सह रूपेण सशरीरो गमिष्यसि॥४॥
हस्तप्राप्तमहं मन्ये स्वर्गं तव नराधिप।
यस्त्वं कौशिकमागम्य शरण्यं शरणागतः॥५॥

‘गुरु के शाप से तुम्हें जो यह नवीन रूप प्राप्त हुआ है इसके साथ ही तुम सदेह स्वर्गलोक को जाओगे। नरेश्वर! तुम जो शरणागतवत्सल विश्वामित्र की शरण में आ गये, इससे मैं यह समझता हूँ कि स्वर्गलोक तुम्हारे हाथ में आ गया है’॥ ४-५॥

एवमुक्त्वा महातेजाः पुत्रान् परमधार्मिकान्।
व्यादिदेश महाप्राज्ञान् यज्ञसम्भारकारणात्॥६॥

ऐसा कहकर महातेजस्वी विश्वामित्र ने अपने परम धर्मपरायण महाज्ञानी पुत्रों को यज्ञ की सामग्री जुटाने की आज्ञा दी॥६॥

सर्वान् शिष्यान् समाहूय वाक्यमेतदुवाच ह।
सर्वानृषीन् सवासिष्ठानानयध्वं ममाज्ञया॥७॥
सशिष्यान् सुहृदश्चैव सर्विजः सुबहुश्रुतान्।

तत्पश्चात् समस्त शिष्यों को बुलाकर उनसे यह बात कही—’तुम लोग मेरी आज्ञा से अनेक विषयों के ज्ञाता समस्त ऋषि-मुनियों को, जिनमें वसिष्ठ के पुत्र भी सम्मिलित हैं, उनके शिष्यों, सुहृदों तथा ऋत्विजों सहित बुला लाओ॥ ७ १/२॥

यदन्यो वचनं ब्रूयान्मवाक्यबलचोदितः॥८॥
तत् सर्वमखिलेनोक्तं ममाख्येयमनादृतम्।

‘जिसे मेरा संदेश देकर बुलाया गया हो वह अथवा दूसरा कोई यदि इस यज्ञ के विषय में कोई अवहेलनापूर्ण बात कहे तो तुम लोग वह सब पूरा-पूरा मुझसे आकर कहना’ ॥ ८ १/२॥

तस्य तद् वचनं श्रुत्वा दिशो जग्मुस्तदाज्ञया॥
आजग्मुरथ देशेभ्यः सर्वेभ्यो ब्रह्मवादिनः।
ते च शिष्याः समागम्य मुनिं ज्वलिततेजसम्॥ १०॥
ऊचुश्च वचनं सर्वं सर्वेषां ब्रह्मवादिनाम्।

उनकी आज्ञा मानकर सभी शिष्य चारों दिशाओं में चले गये। फिर तो सब देशों से ब्रह्मवादी मुनि आने लगे। विश्वामित्र के वे शिष्य उन प्रज्वलित तेज वाले महर्षि के पास सबसे पहले लौट आये और समस्त ब्रह्मवादियों ने जो बातें कही थीं, उन्हें सबने विश्वामित्रजी से कह सुनाया।

श्रुत्वा ते वचनं सर्वे समायान्ति द्विजातयः॥११॥
सर्वदेशेषु चागच्छन् वर्जयित्वा महोदयम्।

वे बोले—’गुरुदेव! आपका आदेश या संदेश सुनकर प्रायः सम्पूर्ण देशों में रहने वाले सभी ब्राह्मण आ रहे हैं। केवल महोदय नामक ऋषि तथा वसिष्ठपुत्रों को छोड़कर सभी महर्षि यहाँ आने के लिये प्रस्थान कर चुके हैं। ११ १/२॥
वासिष्ठं यच्छतं सर्वं क्रोधपर्याकुलाक्षरम्॥१२॥

यथाह वचनं सर्वं शृणु त्वं मुनिपुंगव।

‘मुनिश्रेष्ठ! वसिष्ठ के जो सौ पुत्र हैं, उन सबने क्रोधभरी वाणी में जो कुछ कहा है, वह सब आप सुनिये॥ १२ १/२॥

क्षत्रियो याजको यस्य चण्डालस्य विशेषतः॥ १३॥
कथं सदसि भोक्तारो हविस्तस्य सुरर्षयः।
ब्राह्मणा वा महात्मानो भुक्त्वा चाण्डालभोजनम्॥१४॥
कथं स्वर्गं गमिष्यन्ति विश्वामित्रेण पालिताः।

‘वे कहते हैं—जो विशेषतः चण्डाल है और जिसका यज्ञ कराने वाला आचार्य क्षत्रिय है, उसके यज्ञ में देवर्षि अथवा महात्मा ब्राह्मण हविष्य का भोजन कैसे कर सकते हैं? अथवा चण्डाल का अन्न खाकर विश्वामित्र से पालित हुए ब्राह्मण स्वर्ग में कैसे जा सकेंगे?’ ॥ १३-१४ १/२ ॥

एतद् वचननैष्ठर्यमूचुः संरक्तलोचनाः॥१५॥
वासिष्ठा मुनिशार्दूल सर्वे सहमहोदयाः।

‘मुनिप्रवर! महोदय के साथ वसिष्ठ के सभी पुत्रों ने क्रोध से लाल आँखें करके ये उपर्युक्त निष्ठुरतापूर्ण बातें कही थीं’॥ १५ १/२ ॥

तेषां तद् वचनं श्रुत्वा सर्वेषां मुनिपुंगवः ॥१६॥
क्रोधसंरक्तनयनः सरोषमिदमब्रवीत्।

उन सबकी वह बात सुनकर मुनिवर विश्वामित्र के दोनों नेत्र क्रोध से लाल हो गये और वे रोषपूर्वक इस प्रकार बोले- ॥ १६ १/२॥

यद् दूषयन्त्यदुष्टं मां तप उग्रं समास्थितम्॥१७॥
भस्मीभूता दुरात्मानो भविष्यन्ति न संशयः।

‘मैं उग्र तपस्या में लगा हूँ और दोष या दुर्भावना से रहित हूँ तो भी जो मुझ पर दोषारोपण करते हैं, वे दुरात्मा भस्मीभूत हो जायँगे, इसमें संशय नहीं है। १७ १/२॥

अद्य ते कालपाशेन नीता वैवस्वतक्षयम्॥१८॥
सप्तजातिशतान्येव मृतपाः सम्भवन्तु ते।
श्वमांसनियताहारा मुष्टिका नाम निघृणाः॥१९॥

‘आज कालपाश से बँधकर वे यमलोक में पहँचा दिये गये। अब ये सात सौ जन्मोंतक मुर्दो की रखवाली करने वाली, निश्चितरूप से कुत्ते का मांस खाने वाली मुष्टिक नामक प्रसिद्ध निर्दय चण्डालजाति में जन्म ग्रहण करें॥ १८-१९॥

विकृताश्च विरूपाश्च लोकाननुचरन्त्विमान्।
महोदयश्च दुर्बुद्धिर्मामदूष्यं ह्यदूषयत्॥२०॥
दूषितः सर्वलोकेषु निषादत्वं गमिष्यति।
प्राणातिपातनिरतो निरनुक्रोशतां गतः॥ २१॥
दीर्घकालं मम क्रोधाद् दुर्गतिं वर्तयिष्यति।

‘वे लोग विकृत एवं विरूप होकर इन लोकों में विचरें, साथ ही दुर्बुद्धि महोदय भी, जिसने मुझ दोषहीन को भी दूषित किया है, मेरे क्रोध से दीर्घकाल तक सब लोगों में निन्दित, दूसरे प्राणियों की हिंसा में तत्पर और दयाशून्य निषादयोनि को प्राप्त करके दुर्गति भोगेगा’। २०-२१ १/२॥

एतावदुक्त्वा वचनं विश्वामित्रो महातपाः।
विरराम महातेजा ऋषिमध्ये महामुनिः॥ २२॥

ऋषियों के बीच में ऐसा कहकर महातपस्वी, महातेजस्वी एवं महामुनि विश्वामित्र चुप हो गये। २२॥

सर्ग ६०

तपोबलहतान् ज्ञात्वा वासिष्ठान् समहोदयान्।
ऋषिमध्ये महातेजा विश्वामित्रोऽभ्यभाषत॥१॥

[शतानन्दजी कहते हैं- श्रीराम!] महोदयसहित वसिष्ठ के पुत्रों को अपने तपोबल से नष्ट हुआ जानमहातेजस्वी विश्वामित्र ने ऋषियों के बीच में इस प्रकार कहा- ॥१॥

अयमिक्ष्वाकुदायादस्त्रिशङ्करिति विश्रुतः।
धर्मिष्ठश्च वदान्यश्च मां चैव शरणं गतः॥२॥

‘मुनिवरो! ये इक्ष्वाकुवंश में उत्पन्न राजा त्रिशंकु हैं। ये विख्यात नरेश बड़े ही धर्मात्मा और दानी रहे हैं तथा इस समय मेरी शरण में आये हैं॥२॥

स्वेनानेन शरीरेण देवलोकजिगीषया।
यथायं स्वशरीरेण देवलोकं गमिष्यति॥३॥
तथा प्रवर्त्यतां यज्ञो भवद्भिश्च मया सह।

‘इनकी इच्छा है कि मैं अपने इसी शरीर से देवलोक पर अधिकार प्राप्त करूँ। अतः आपलोग मेरे साथ रहकर ऐसे यज्ञ का अनुष्ठान करें, जिससे इन्हें इस शरीर से ही देवलोक की प्राप्ति हो सके’॥ ३ १/२॥

विश्वामित्रवचः श्रुत्वा सर्व एव महर्षयः॥४॥
ऊचुः समेताः सहसा धर्मज्ञा धर्मसंहितम्।
अयं कुशिकदायादो मुनिः परमकोपनः॥५॥
यदाह वचनं सम्यगेतत् कार्यं न संशयः।

विश्वामित्रजी की यह बात सुनकर धर्म को जानने वाले सभी महर्षियों ने सहसा एकत्र होकर आपस में धर्मयुक्त परामर्श किया—’ब्राह्मणो! कुशिक के पुत्र विश्वामित्र मुनि बड़े क्रोधी हैं ये जो बात कह रहे हैं, उसका ठीक तरह से पालन करना चाहिये, इसमें संशय नहीं है॥ ४-५ १/२॥

अग्निकल्पो हि भगवान् शापं दास्यति रोषतः॥
तस्मात् प्रवर्त्यतां यज्ञः सशरीरो यथा दिवि।
गच्छेदिक्ष्वाकुदायादो विश्वामित्रस्य तेजसा॥ ७॥

‘ये भगवान् विश्वामित्र अग्नि के समान तेजस्वी हैं। यदि इनकी बात नहीं मानी गयी तो ये रोषपूर्वक शाप दे देंगे। इसलिये ऐसे यज्ञ का आरम्भ करना चाहिये, जिससे विश्वामित्र के तेज से ये इक्ष्वाकुनन्दन त्रिशंकु सशरीर स्वर्गलोक में जा सकें’॥६-७॥

ततः प्रवर्त्यतां यज्ञः सर्वे समधितिष्ठत।
एवमुक्त्वा महर्षयः संजह्वस्ताः क्रियास्तदा ॥८॥

इस तरह विचार करके उन्होंने सर्वसम्मति से यह निश्चय किया कि ‘यज्ञ आरम्भ किया जाय।’ ऐसा निश्चय करके महर्षियों ने उस समय अपना-अपना कार्य आरम्भ किया॥ ८॥

याजकश्च महातेजा विश्वामित्रोऽभवत् क्रतौ।
ऋत्विजश्चानुपूर्येण मन्त्रवन्मन्त्रकोविदाः॥९॥
चक्रुः सर्वाणि कर्माणि यथाकल्पं यथाविधि।

महातेजस्वी विश्वामित्र स्वयं ही उस यज्ञमें याजक (अध्वर्यु) हुए। फिर क्रमशः अनेक मन्त्रवेत्ता ब्राह्मण ऋत्विज् हुए; जिन्होंने कल्पशास्त्रके अनुसार विधि एवं मन्त्रोच्चारणपूर्वक सारे कार्य सम्पन्न किये॥९ १/२॥

ततः कालेन महता विश्वामित्रो महातपाः॥१०॥
चकारावाहनं तत्र भागार्थं सर्वदेवताः।
नाभ्यागमंस्तदा तत्र भागार्थं सर्वदेवताः॥११॥

तदनन्तर बहुत समयतक यत्नपूर्वक मन्त्रपाठ करके महातपस्वी विश्वामित्र ने अपना-अपना भाग ग्रहण करने के लिये सम्पूर्ण देवताओं का आवाहन किया; परंतु उस समय वहाँ भाग लेने के लिये वे सब देवता नहीं आये॥१०-११॥
ततः कोपसमाविष्टो विश्वामित्रो महामुनिः।

स्रुवमुद्यम्य सक्रोधस्त्रिशङ्कमिदमब्रवीत्॥१२॥

इससे महामुनि विश्वामित्र को बड़ा क्रोध आया और उन्होंने स्रुवा उठाकर रोष के साथ राजा त्रिशंकु से इस प्रकार कहा- ॥ १२॥

पश्य मे तपसो वीर्यं स्वार्जितस्य नरेश्वर।
एष त्वां स्वशरीरेण नयामि स्वर्गमोजसा ॥१३॥

‘नरेश्वर! अब तुम मेरे द्वारा उपार्जित तपस्या का बल देखो। मैं अभी तुम्हें अपनी शक्ति से सशरीर स्वर्गलोक में पहुँचाता हूँ॥ १३॥

दुष्प्रापं स्वशरीरेण स्वर्गं गच्छ नरेश्वर।
स्वार्जितं किंचिदप्यस्ति मया हि तपसः फलम्॥ १४॥
राजंस्त्वं तेजसा तस्य सशरीरो दिवं व्रज।

‘राजन्! आज तुम अपने इस शरीर के साथ ही दुर्लभ स्वर्गलोक को जाओ। नरेश्वर! यदि मैंने तपस्या का कुछ भी फल प्राप्त किया है तो उसके प्रभाव से तुम सशरीर स्वर्गलोक को जाओ’॥ १४ १/२॥

क्तवाक्ये मुनौ तस्मिन् सशरीरो नरेश्वरः॥ १५॥
दिवं जगाम काकुत्स्थ मुनीनां पश्यतां तदा।

श्रीराम ! विश्वामित्र मुनि के इतना कहते ही राजा त्रिशंकु सब मुनियों के देखते-देखते उस समय अपने शरीर के साथ ही स्वर्गलोक को चले गये॥ १५ १/२॥

स्वर्गलोकं गतं दृष्ट्वा त्रिशङ्कं पाकशासनः॥१६॥
सह सर्वैः सुरगणैरिदं वचनमब्रवीत्।

त्रिशंकु को स्वर्गलोक में पहुँचा हुआ देख समस्त देवताओं के साथ पाकशासन इन्द्र ने उनसे इस प्रकार कहा- ॥ १६ १/२॥

त्रिशङ्को गच्छ भूयस्त्वं नासि स्वर्गकृतालयः॥ १७॥
गुरुशापहतो मूढ पत भूमिमवाक्शिराः।

‘मूर्ख त्रिशंकु ! तू फिर यहाँ से लौट जा, तेरे लिये स्वर्ग में स्थान नहीं है। तू गुरु के शाप से नष्ट हो चुका है, अतः नीचे मुँह किये पुनः पृथ्वी पर गिर जा’ ॥ १७ १/२॥

एवमुक्तो महेन्द्रेण त्रिशङ्करपतत् पुनः॥१८॥
विक्रोशमानस्त्राहीति विश्वामित्रं तपोधनम्।

इन्द्र के इतना कहते ही राजा त्रिशंकु तपोधन विश्वामित्र को पुकार कर ‘त्राहि-त्राहि’ की रट लगाते हुए पुनः स्वर्ग से नीचे गिरे॥ १८ १/२॥

तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य क्रोशमानस्य कौशिकः॥ १९॥
रोषमाहारयत् तीव्र तिष्ठ तिष्ठति चाब्रवीत्।

चीखते-चिल्लाते हुए त्रिशंकु की वह करुण पुकार सुनकर कौशिक मुनि को बड़ा क्रोध हुआ। वे त्रिशंकु से बोले– ‘राजन् ! वहीं ठहर जा, वहीं ठहरजा’ (उनके ऐसा कहने पर त्रिशंकु बीच में ही लटके रह गये) ॥ १९ १/२॥

ऋषिमध्ये स तेजस्वी प्रजापतिरिवापरः॥२०॥
सृजन् दक्षिणमार्गस्थान् सप्तर्षीनपरान् पुनः।
नक्षत्रवंशमपरमसृजत् क्रोधमूर्च्छितः॥२१॥

तत्पश्चात् तेजस्वी विश्वामित्र ने ऋषिमण्डली के बीच दूसरे प्रजापति के समान दक्षिण मार्ग के लिये नये सप्तर्षियों की सृष्टि की तथा क्रोध से भरकर उन्होंने नवीन नक्षत्रों का भी निर्माण कर डाला॥ २०-२१॥

दक्षिणां दिशमास्थाय ऋषिमध्ये महायशाः।
सृष्ट्वा नक्षत्रवंशं च क्रोधेन कलुषीकृतः॥२२॥
अन्यमिन्द्रं करिष्यामि लोको वा स्यादनिन्द्रकः।
दैवतान्यपि स क्रोधात् स्रष्टं समुपचक्रमे॥२३॥

वे महायशस्वी मुनि क्रोध से कलुषित हो दक्षिण दिशा में ऋषिमण्डली के बीच नूतन नक्षत्रमालाओं की सृष्टि करके यह विचार करने लगे कि ‘मैं दूसरे इन्द्र की सृष्टि करूँगा अथवा मेरे द्वारा रचित स्वर्गलोक बिना इन्द्र के ही रहेगा।’ ऐसा निश्चय करके उन्होंने क्रोधपूर्वक नूतन देवताओं की सृष्टि प्रारम्भ की॥ २२-२३॥

ततः परमसम्भ्रान्ताः सर्षिसङ्गाः सुरासुराः।
विश्वामित्रं महात्मानमूचुः सानुनयं वचः॥२४॥

इससे समस्त देवता, असुर और ऋषि-समुदाय बहुत घबराये और सभी वहाँ आकर महात्मा विश्वामित्र से विनयपूर्वक बोले- ॥२४॥

अयं राजा महाभाग गुरुशापपरिक्षतः।
सशरीरो दिवं यातुं नार्हत्येव तपोधन॥ २५॥

‘महाभाग! ये राजा त्रिशंकु गुरु के शाप से अपना पुण्य नष्ट करके चाण्डाल हो गये हैं; अतः तपोधन ! ये सशरीर स्वर्ग में जाने के कदापि अधिकारी नहीं हैं’।

तेषां तद् वचनं श्रुत्वा देवानां मुनिपुंगवः।
अब्रवीत् सुमहद् वाक्यं कौशिकः सर्वदेवताः॥ २६॥

उन देवताओं की यह बात सुनकर मुनिवर कौशिक ने सम्पूर्ण देवताओं से परमोत्कृष्ट वचन कहा –॥ २६॥

सशरीरस्य भद्रं वस्त्रिशङ्कोरस्य भूपतेः।
आरोहणं प्रतिज्ञातं नानृतं कर्तुमुत्सहे॥ २७॥

‘देवगण! आपका कल्याण हो मैंने राजा त्रिशंक को सदेह स्वर्ग भेजनेकी प्रतिज्ञा कर ली है। अतः उसे मैं झूठी नहीं कर सकता॥ २७॥

स्वर्गोऽस्तु सशरीरस्य त्रिशङ्कोरस्य शाश्वतः।
नक्षत्राणि च सर्वाणि मामकानि ध्रुवाण्यथ॥ २८॥
यावल्लोका धरिष्यन्ति तिष्ठन्त्वेतानि सर्वशः।
यत् कृतानि सुराः सर्वे तदनुज्ञातुमर्हथ॥२९॥

‘इन महाराज त्रिशंकु को सदा स्वर्गलोक का सुख प्राप्त होता रहे। मैंने जिन नक्षत्रों का निर्माण किया है, वे सब सदा मौजूद रहें। जब तक संसार रहे, तब तक ये सभी वस्तुएँ, जिनकी मेरे द्वारा सृष्टि हुई है, सदा बनी रहें। देवताओ! आप सब लोग इन बातों का अनुमोदन करें’॥

एवमुक्ताः सुराः सर्वे प्रत्यूचुर्मुनिपुंगवम्।
एवं भवतु भद्रं ते तिष्ठन्त्वेतानि सर्वशः॥ ३०॥
गगने तान्यनेकानि वैश्वानरपथाद बहिः।
नक्षत्राणि मुनिश्रेष्ठ तेषु ज्योतिःषु जाज्वलन्॥ ३१॥
अवाक्शिरास्त्रिशङ्कुश्च तिष्ठत्वमरसंनिभः ।
अनुयास्यन्ति चैतानि ज्योतींषि नृपसत्तमम्॥
कृतार्थं कीर्तिमन्तं च स्वर्गलोकगतं यथा।

उनके ऐसा कहने पर सब देवता मुनिवर विश्वामित्र से बोले—’महर्षे! ऐसा ही हो ये सभी वस्तुएँ बनी रहें और आपका कल्याण हो। मुनिश्रेष्ठ ! आपके रचे हुए अनेक नक्षत्र आकाश में वैश्वानर पथ से बाहर प्रकाशित होंगे और उन्हीं ज्योतिर्मय नक्षत्रों के बीच में सिर नीचा किये त्रिशंक भी प्रकाशमान रहेंगे। वहाँ इनकी स्थिति देवताओं के समान होगी और ये सभी नक्षत्र इन कृतार्थ एवं यशस्वी नृपश्रेष्ठ का स्वर्गीय पुरुष की भाँति अनुसरण करते रहेंगे’।

विश्वामित्रस्तु धर्मात्मा सर्वदेवैरभिष्टतः॥३३॥
ऋषिमध्ये महातेजा बाढमित्येव देवताः।

इसके बाद सम्पूर्ण देवताओं ने ऋषियों के बीचमें ही महातेजस्वी धर्मात्मा विश्वामित्र मुनि की स्तुति की, इससे प्रसन्न होकर उन्होंने ‘बहुत अच्छा’ कहकर देवताओं का अनुरोध स्वीकार कर लिया॥३३ १/२॥

ततो देवा महात्मानो ऋषयश्च तपोधनाः।
जग्मुर्यथागतं सर्वे यज्ञस्यान्ते नरोत्तम ॥ ३४॥

नरश्रेष्ठ श्रीराम! तदनन्तर यज्ञ समाप्त होने पर सब देवता और तपोधन महर्षि जैसे आये थे, उसी प्रकार अपने-अपने स्थान को लौट गये॥३४॥

सर्ग ६१

विश्वामित्रो महातेजाः प्रस्थितान् वीक्ष्य तानृषीन्।
अब्रवीन्नरशार्दूल सर्वांस्तान् वनवासिनः॥१॥

[शतानन्दजी कहते हैं-] पुरुषसिंह श्रीराम ! यज्ञ में आये हुए उन सब वनवासी ऋषियों को वहाँ से जाते देख महातेजस्वी विश्वामित्र ने उनसे कहा-॥ १॥

महाविघ्नः प्रवृत्तोऽयं दक्षिणामास्थितो दिशम्।
दिशमन्यां प्रपत्स्यामस्तत्र तप्स्यामहे तपः॥२॥

‘महर्षियो! इस दक्षिण दिशामें रहने से हमारी तपस्या में महान् विघ्न आ पड़ा है; अतः अब हम दूसरी दिशा में चले जायँगे और वहीं रहकर तपस्या करेंगे॥२॥

पश्चिमायां विशालायां पुष्करेषु महात्मनः।
सुखं तपश्चरिष्यामः सुखं तद्धि तपोवनम्॥३॥

‘विशाल पश्चिम दिशा में जो महात्मा ब्रह्माजी के तीन पुष्कर हैं, उन्हीं के पास रहकर हम सुखपूर्वक तपस्या करेंगे; क्योंकि वह तपोवन बहुत ही सुखद है’॥३॥

एवमुक्त्वा महातेजाः पुष्करेषु महामुनिः।
तप उग्रं दुराधर्षं तेपे मूलफलाशनः॥४॥

ऐसा कहकर वे महातेजस्वी महामुनि पुष्कर में चले गये और वहाँ फल-मूल का भोजन करके उग्र एवं दुर्जय तपस्या करने लगे॥ ४॥

एतस्मिन्नेव काले तु अयोध्याधिपतिर्महान्।
अम्बरीष इति ख्यातो यष्टुं समुपचक्रमे ॥५॥

इन्हीं दिनों अयोध्या के महाराज अम्बरीष एक यज्ञ की तैयारी करने लगे॥ ५ ॥

तस्य वै यजमानस्य पशुमिन्द्रो जहार ह।
प्रणष्टे तु पशौ विप्रो राजानमिदमब्रवीत्॥६॥

जब वे यज्ञ में लगे हुए थे, उस समय इन्द्र ने उनके यज्ञपशु को चुरा लिया। पशु के खो जाने पर पुरोहितजी ने राजा से कहा- ॥६॥

पशुरभ्याहृतो राजन् प्रणष्टस्तव दुर्नयात्।
अरक्षितारं राजानं जन्ति दोषा नरेश्वर ॥७॥

‘राजन् ! जो पशु यहाँ लाया गया था, वह आपकी दुर्नीतिके कारण खो गया। नरेश्वर! जो राजा यज्ञपशु की रक्षा नहीं करता, उसे अनेक प्रकार के दोष नष्ट कर डालते हैं॥ ७॥

प्रायश्चित्तं महद्ध्येतन्नरं वा पुरुषर्षभ।
आनयस्व पशुं शीघ्रं यावत् कर्म प्रवर्तते॥८॥

‘पुरुषप्रवर! जबतक कर्म का आरम्भ होता है,उसके पहले ही खोये हुए पशु की खोज कराकर उसे शीघ्र यहाँ ले आओ अथवा उसके प्रतिनिधि रूप से किसी पुरुष पशु को खरीद लाओ। यही इस पाप का महान् प्रायश्चित्त है’।

उपाध्यायवचः श्रुत्वा स राजा पुरुषर्षभः।
अन्वियेष महाबुद्धिः पशं गोभिः सहस्रशः॥९॥

पुरोहित की यह बात सुनकर महाबुद्धिमान् पुरुषश्रेष्ठ राजा अम्बरीष ने हजारों गौओं के मूल्यपर खरीदने के लिये एक पुरुष का अन्वेषण किया॥९॥

देशाञ्जनपदांस्तांस्तान् नगराणि वनानि च।
आश्रमाणि च पुण्यानि मार्गमाणो महीपतिः॥ १०॥
स पुत्रसहितं तात सभार्यं रघुनन्दन।
भृगुतुंगे समासीनमृचीकं संददर्श ह॥११॥

तात रघुनन्दन! विभिन्न देशों, जनपदों, नगरों, वनों तथा पवित्र आश्रमों में खोज करते हुए राजा अम्बरीषभृगुतुंग पर्वत पर पहुँचे और वहाँ उन्होंने पत्नी तथा पुत्रों के साथ बैठे हुए ऋचीक मुनि का दर्शन किया। १०-११॥

तमुवाच महातेजाः प्रणम्याभिप्रसाद्य च।
महर्षिं तपसा दीप्तं राजर्षिरमितप्रभः॥१२॥

अमित कान्तिमान् एवं महातेजस्वी राजर्षि अम्बरीष ने तपस्या से उद्दीप्त होनेवाले महर्षि ऋचीक को प्रणाम किया और उन्हें प्रसन्न करके कहा॥१२॥

पृष्ट्वा सर्वत्र कुशलम्चीकं तमिदं वचः।
गवां शतसहस्रेण विक्रीणीषे सुतं यदि॥१३॥
पशोरर्थे महाभाग कृतकृत्योऽस्मि भार्गव।

पहले तो उन्होंने ऋचीक मुनि से उनकी सभी वस्तुओं के विषय में कुशल-समाचार पूछा, उसके बाद इस प्रकार कहा—’महाभाग भृगुनन्दन! यदि आप एक लाख गौएँ लेकर अपने एक पुत्र को पशु बनाने के लिये बेचें तो मैं कृतकृत्य हो जाऊँगा॥ १३ १/२॥

सर्वे परिगता देशा यज्ञियं न लभे पशुम्॥१४॥
दातुमर्हसि मूल्येन सतमेकमितो मम।

‘मैं सारे देशों में घूम आया; परंतु कहीं भी यज्ञोपयोगी पशु नहीं पा सका अतः आप उचितमूल्य लेकर यहाँ मुझे अपने एक पुत्र को दे दीजिये’। १४ १/२॥

एवमुक्तो महातेजा ऋचीकस्त्वब्रवीद् वचः॥१५॥
नाहं ज्येष्ठं नरश्रेष्ठ विक्रीणीयां कथंचन।

उनके ऐसा कहने पर महातेजस्वी ऋचीक बोले —’नरश्रेष्ठ! मैं अपने ज्येष्ठ पुत्र को तो किसी तरह नहीं बेचूँगा’ ॥ १५ १/२ ॥

ऋचीकस्य वचः श्रुत्वा तेषां माता महात्मनाम्॥ १६॥
उवाच नरशार्दूलमम्बरीषमिदं वचः।

ऋचीक मुनि की बात सुनकर उन महात्मा पुत्रों की माता ने पुरुषसिंह अम्बरीष से इस प्रकार कहा- ॥१६१/२॥

अविक्रेयं सुतं ज्येष्ठं भगवानाह भार्गवः॥१७॥
ममापि दयितं विद्धि कनिष्ठं शुनकं प्रभो।
तस्मात् कनीयसं पुत्रं न दास्ये तव पार्थिव॥ १८॥

‘प्रभो! भगवान् भार्गव कहते हैं कि ज्येष्ठ पुत्र कदापि बेचने योग्य नहीं है; परंतु आपको मालूम होना चाहिये जो सबसे छोटा पुत्र शुनक है, वह मुझे भी बहुत ही प्रिय है अतःपृथ्वीनाथ! मैं अपना छोटा पुत्र आपको कदापि नहीं दूंगी॥ १७-१८॥

प्रायेण हि नरश्रेष्ठ ज्येष्ठाः पितृषु वल्लभाः।
मातॄणां च कनीयांसस्तस्माद् रक्ष्ये कनीयसम्॥ १९॥

‘नरश्रेष्ठ! प्रायः जेठे पुत्र पिताओं को प्रिय होते हैंऔर छोटे पुत्र माताओं को, अतः मैं अपने कनिष्ठ पुत्र की अवश्य रक्षा करूँगी’ ॥ १९॥

उक्तवाक्ये मुनौ तस्मिन् मुनिपल्यां तथैव च।
शुनःशेपः स्वयं राम मध्यमो वाक्यमब्रवीत्॥ २०॥

श्रीराम! मुनि और उनकी पत्नी के ऐसा कहनेप र मझले पुत्र शुनःशेप ने स्वयं कहा- ॥ २० ॥

पिता ज्येष्ठमविक्रेयं माता चाह कनीयसम्।
विक्रेयं मध्यमं मन्ये राजपुत्र नयस्व माम्॥२१॥

‘राजपुत्र! पिता ने ज्येष्ठ को और माता ने कनिष्ठ पुत्र को बेचने के लिये अयोग्य बतलाया है, अतः मैं समझता हूँ इन दोनों की दृष्टि में मझला पुत्र ही बेचने के योग्य है, इसलिये तुम मुझे ही ले चलो’ ॥ २१॥

अथ राजा महाबाहो वाक्यान्ते ब्रह्मवादिनः।
हिरण्यस्य सुवर्णस्य कोटिभी रत्नराशिभिः॥ २२॥
गवां शतसहस्रेण शुनःशेपं नरेश्वरः।
गृहीत्वा परमप्रीतो जगाम रघुनन्दन॥२३॥

महाबाहु रघुनन्दन! ब्रह्मवादी मझले पुत्र के ऐसा कहने पर राजा अम्बरीष बड़े प्रसन्न हुए और एक करोड़ स्वर्णमुद्रा, रत्नों के ढेर तथा एक लाख गौओं के बदले शुनःशेप को लेकर वे घर की ओर चले॥ २२-२३॥

अम्बरीषस्तु राजर्षी रथमारोप्य सत्वरः।
शुनःशेपं महातेजा जगामाशु महायशाः ॥ २४॥

महातेजस्वी महायशस्वी राजर्षि अम्बरीष शुनःशेप को रथपर बिठाकर बड़ी उतावली के साथ तीव्र गति से चले॥

सर्ग ६२

शुनःशेपं नरश्रेष्ठ गृहीत्वा तु महायशाः।
व्यश्रमत् पुष्करे राजा मध्याह्ने रघुनन्दन॥१॥

[ शतानन्दजी बोले-] नरश्रेष्ठ रघुनन्दन ! महायशस्वी राजा अम्बरीष शुनःशेप को साथ लेकर दोपहर के समय पुष्कर तीर्थ में आये और वहाँ विश्राम करने लगे॥१॥

तस्य विश्रममाणस्य शुनःशेपो महायशाः।
पुष्करं ज्येष्ठमागम्य विश्वामित्रं ददर्श ह॥२॥
तप्यन्तमृषिभिः सार्धं मातुलं परमातुरः।
विषण्णवदनो दीनस्तृष्णया च श्रमेण च॥३॥
पपाताड़े मुने राम वाक्यं चेदमुवाच ह।

श्रीराम! जब वे विश्राम करने लगे, उस समय महायशस्वी शुनःशेप ज्येष्ठ पुष्कर में आकर ऋषियों के साथ तपस्या करते हुए अपने मामा विश्वामित्र से मिला। वह अत्यन्त आतुर एवं दीन हो रहा था। उसके मुख पर विषाद छा गया था। वह भूख-प्यास और परिश्रम से दीन हो मुनि की गोद में गिर पड़ा और इस प्रकार बोला- ॥ २-३ १/२॥

न मेऽस्ति माता न पिता ज्ञातयो बान्धवाः कुतः॥ ४॥
त्रातुमर्हसि मां सौम्य धर्मेण मुनिपुंगव।

‘सौम्य! मुनिपुंगव! न मेरे माता हैं, न पिता, फिर भाई-बन्धु कहाँ से हो सकते हैं। (मैं असहाय हूँ अतः) आप ही धर्म के द्वारा मेरी रक्षा कीजिये॥ ४ १/२॥

त्राता त्वं हि नरश्रेष्ठ सर्वेषां त्वं हि भावनः॥५॥
राजा च कृतकार्यः स्यादहं दीर्घायुरव्ययः।।
स्वर्गलोकमुपाश्नीयां तपस्तप्त्वा ह्यनुत्तमम्॥६॥

‘नरश्रेष्ठ! आप सबके रक्षक तथा अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति कराने वाले हैं। ये राजा अम्बरीष कृतार्थ हो जायँ और मैं भी विकार रहित दीर्घायु होकर सर्वोत्तम तपस्या करके स्वर्गलोक प्राप्त कर लूँ—ऐसी कृपा कीजिये॥५-६॥

स मे नाथो ह्यनाथस्य भव भव्येन चेतसा।
पितेव पुत्रं धर्मात्मंस्त्रातुमर्हसि किल्बिषात्॥७॥

‘धर्मात्मन् ! आप अपने निर्मलचित्त से मुझ अनाथ के नाथ (असहाय के संरक्षक) हो जायँ। जैसे पिता अपने पुत्र की रक्षा करता है, उसी प्रकार आप मुझे इस पापमूलक विपत्ति से बचाइये’ ॥ ७॥

तस्य तद् वचनं श्रुत्वा विश्वामित्रो महातपाः।
सान्त्वयित्वा बहविधं पुत्रानिदमुवाच ह॥८॥

शुनःशेप की वह बात सुनकर महातपस्वी विश्वामित्र उसे नाना प्रकार से सान्त्वना दे अपने पुत्रों से इस प्रकार बोले- ॥८॥

यत्कृते पितरः पुत्राञ्जनयन्ति शुभार्थिनः।
परलोकहितार्थाय तस्य कालोऽयमागतः॥९॥

‘बच्चो! शुभकी अभिलाषा रखने वाले पिता जिस पारलौकिक हित के उद्देश्य से पुत्रों को जन्म देते हैं, उसकी पूर्ति का यह समय आ गया है॥९॥

अयं मुनिसुतो बालो मत्तः शरणमिच्छति।
अस्य जीवितमात्रेण प्रियं कुरुत पुत्रकाः॥१०॥

‘पुत्रो! यह बालक मुनिकुमार मुझसे अपनी रक्षा चाहता है, तुम लोग अपना जीवनमात्र देकर इसका प्रिय करो॥

सर्वे सुकृतकर्माणः सर्वे धर्मपरायणाः।
पशुभूता नरेन्द्रस्य तृप्तिमग्नेः प्रयच्छत॥११॥

‘तुम सब-के-सब पुण्यात्मा और धर्मपरायण हो, अतः राजा के यज्ञ में पशु बनकर अग्निदेव को तृप्ति प्रदान करो॥११॥

नाथवांश्च शुनःशेपो यज्ञश्चाविघ्नतो भवेत्।
देवतास्तर्पिताश्च स्युर्मम चापि कृतं वचः॥१२॥

‘इससे शुनःशेप सनाथ होगा, राजा का यज्ञ भी बिना किसी विघ्न-बाधा के पूर्ण हो जायगा, देवता भी तृप्त होंगे और तुम्हारे द्वारा मेरी आज्ञा का पालन भी हो जायगा’ ॥ १२ ॥

मुनेस्तद् वचनं श्रुत्वा मधुच्छन्दादयः सुताः।
साभिमानं नरश्रेष्ठ सलीलमिदमब्रुवन्॥१३॥

‘नरश्रेष्ठ! विश्वामित्र मुनि का वह वचन सुनकर उनके मधुच्छन्द आदि पुत्र अभिमान और अवहेलनापूर्वक इस प्रकार बोले- ॥१३॥

कथमात्मसुतान् हित्वा त्रायसेऽन्यसुतं विभो।
अकार्यमिव पश्यामः श्वमांसमिव भोजने॥१४॥

‘प्रभो! आप अपने बहुत-से पुत्रों को त्यागकर दूसरे के एक पुत्रकी रक्षा कैसे करते हैं? जैसे पवित्र भोजन में कुत्तेका मांस पड़ जाय तो वह अग्राह्य हो जाता है, उसी प्रकार जहाँ अपने पुत्रों की रक्षा आवश्यक हो, वहाँ दूसरे के पुत्र की रक्षा के कार्य को हम अकर्त्तव्य की कोटि में ही देखते हैं’ ॥ १४ ॥

तेषां तद् वचनं श्रुत्वा पुत्राणां मुनिपुंगवः।
क्रोधसंरक्तनयनो व्याहर्तुमुपचक्रमे॥१५॥

उन पुत्रोंका वह कथन सुनकर मुनिवर विश्वामित्र के नेत्र क्रोध से लाल हो गये। वे इस प्रकार कहने लगे— ॥१५॥
निःसाध्वसमिदं प्रोक्तं धर्मादपि विगर्हितम्।

अतिक्रम्य तु मद्वाक्यं दारुणं रोमहर्षणम्॥१६॥
श्वमांसभोजिनः सर्वे वासिष्ठा इव जातिषु।
पूर्णं वर्षसहस्रं तु पृथिव्यामनुवत्स्यथ ॥१७॥

‘अरे! तुम लोगों ने निर्भय होकर ऐसी बात कही है, जो धर्म से रहित एवं निन्दित है। मेरी आज्ञा का उल्लङ्घन करके जो यह दारुण एवं रोमाञ्चकारी बात तुमने मुँह से निकाली है, इस अपराध के कारण तुम सब लोग भी वसिष्ठके पुत्रों की भाँति कुत्ते का मांस खाने वाली मुष्टिक आदि जातियों में जन्म लेकर पूरे एक हजार वर्षां तक इस पृथ्वी पर रहोगे’।१६-१७॥

कृत्वा शापसमायुक्तान् पुत्रान् मुनिवरस्तदा।
शुनःशेपमुवाचार्तं कृत्वा रक्षां निरामयाम्॥१८॥

इस प्रकार अपने पुत्रों को शाप देकर मुनिवर विश्वामित्र ने उस समय शोकार्त शुनःशेप की निर्विघ्न रक्षा करके उससे इस प्रकार कहा— ॥१८॥

पवित्रपाशैराबद्धो रक्तमाल्यानुलेपनः।
वैष्णवं यूपमासाद्य वाग्भिरग्निमुदाहर॥१९॥
इमे च गाथे दे दिव्ये गायेथा मुनिपुत्रक।
अम्बरीषस्य यज्ञेऽस्मिंस्ततः सिद्धिमवाप्स्यसि॥ २०॥

‘मुनिकुमार! अम्बरीष के इस यज्ञ में जब तुम्हें कुश आदि के पवित्र पाशों से बाँधकर लाल फूलों की माला और लाल चन्दन धारण करा दिया जाय, उस समय तुम विष्णुदेवता-सम्बन्धी यूप के पास जाकर वाणी द्वारा अग्नि की (इन्द्र और विष्णु की) स्तुति करना और इन दो दिव्य गाथाओं का गान करना। इससे तुम मनोवांछित सिद्धि प्राप्त कर लोगे’॥ १९-२०॥

शुनःशेपो गृहीत्वा ते द्वे गाथे सुसमाहितः।
त्वरया राजसिंहं तमम्बरीषमुवाच ह॥२१॥

शुनःशेप ने एकाग्रचित्त होकर उन दोनों गाथाओं को ग्रहण किया और राजसिंह अम्बरीष के पास जाकर उनसे शीघ्रतापूर्वक कहा- ॥२१॥

राजसिंह महाबुद्धे शीघ्रं गच्छावहे वयम्।
निवर्तयस्व राजेन्द्र दीक्षां च समुदाहर॥२२॥

‘राजेन्द्र! परम बुद्धिमान् राजसिंह! अब हम दोनों शीघ्र चलें। आप यज्ञ की दीक्षा लें और यज्ञकार्य सम्पन्न करें’॥ २२॥

तद् वाक्यमृषिपुत्रस्य श्रुत्वा हर्षसमन्वितः।
जगाम नृपतिः शीघ्रं यज्ञवाटमतन्द्रितः ॥२३॥

ऋषिकुमार का वह वचन सुनकर राजा अम्बरीष आलस्य छोड़ हर्ष से उत्फुल्ल हो शीघ्रतापूर्वक यज्ञशाला में गये॥ २३॥

सदस्यानुमते राजा पवित्रकृतलक्षणम्।
पशुं रक्ताम्बरं कृत्वा यूपे तं समबन्धयत्॥ २४॥

वहाँ सदस्य की अनुमति ले राजा अम्बरीष ने शुनःशेप को कुश के पवित्र पाश से बाँधकर उसे पशु के लक्षण से सम्पन्न कर दिया और यज्ञ-पशु को लाल वस्त्र पहिनाकर यूप में बाँध दिया॥ २४ ॥

स बद्धो वाग्भिरग्र्याभिरभितुष्टाव वै सुरौ।
इन्द्रमिन्द्रानुजं चैव यथावन्मुनिपुत्रकः॥ २५॥

बँधे हुए मुनिपुत्र शुनःशेप ने उत्तम वाणीद् वारा इन्द्र और उपेन्द्र इन दोनों देवताओं की यथावत् स्तुति की। २५॥

ततः प्रीतः सहस्राक्षो रहस्यस्तुतितोषितः।
दीर्घमायुस्तदा प्रादाच्छुनःशेपाय वासवः॥२६॥

उस रहस्यभूत स्तुति से संतुष्ट होकर सहस्र नेत्रधारी इन्द्र बड़े प्रसन्न हुए। उस समय उन्होंने शुनःशेप को दीर्घायु प्रदान की॥२६॥

स च राजा नरश्रेष्ठ यज्ञस्य च समाप्तवान्।
फलं बहुगुणं राम सहस्राक्षप्रसादजम्॥२७॥

नरश्रेष्ठ श्रीराम! राजा अम्बरीष ने भी देवराज इन्द्र की कृपा से उस यज्ञ का बहुगुणसम्पन्न उत्तम फल प्राप्त किया॥२७॥

विश्वामित्रोऽपि धर्मात्मा भूयस्तेपे महातपाः।
पुष्करेषु नरश्रेष्ठ दशवर्षशतानि च ॥२८॥

पुरुषप्रवर! इसके बाद महातपस्वी धर्मात्मा विश्वामित्र ने भी पुष्कर तीर्थ में पुनः एक हजार वर्षों तक तीव्र तपस्या की॥२८॥

सर्ग ६३

पूर्णे वर्षसहस्रे तु व्रतस्नातं महामुनिम्।
अभ्यगच्छन् सुराः सर्वे तपः फलचिकीर्षवः॥ १ ॥

[शतानन्दजी कहते हैं- श्रीराम!] जब एक हजार वर्ष पूरे हो गये, तब उन्होंने व्रत की समाप्ति का स्नान किया। स्नान कर लेने पर महामुनि विश्वामित्र के पास सम्पूर्ण देवता उन्हें तपस्या का फल देने की इच्छा से आये॥

अब्रवीत् सुमहातेजा ब्रह्मा सुरुचिरं वचः।
ऋषिस्त्वमसि भद्रं ते स्वार्जितैः कर्मभिः शुभैः॥ २॥

उस समय महातेजस्वी ब्रह्माजी ने मधुर वाणीमें कहा- ‘मुने! तुम्हारा कल्याण हो। अब तुम अपने द्वारा उपार्जित शुभ कर्मों के प्रभाव से ऋषि हो गये’। २॥

तमेवमुक्त्वा देवेशस्त्रिदिवं पुनरभ्यगात्।
विश्वामित्रो महातेजा भूयस्तेपे महत् तपः॥३॥

उनसे ऐसा कहकर देवेश्वर ब्रह्माजी पुनः स्वर्ग को चले गये। इधर महातेजस्वी विश्वामित्र पुनः बड़ी भारी तपस्या में लग गये॥३॥

ततः कालेन महता मेनका परमाप्सराः।
पुष्करेषु नरश्रेष्ठ स्नातुं समुपचक्रमे ॥४॥

नरश्रेष्ठ! तदनन्तर बहुत समय व्यतीत होने पर परम सुन्दरी अप्सरा मेनका पुष्कर में आयी और वहाँ स्नान की तैयारी करने लगी॥४॥

तां ददर्श महातेजा मेनकां कुशिकात्मजः।
रूपेणाप्रतिमां तत्र विद्युतं जलदे यथा॥५॥

महातेजस्वी कुशिकनन्दन विश्वामित्र ने वहाँ उस मेनका को देखा। उसके रूप और लावण्य की कहीं तुलना नहीं थी। जैसे बादल में बिजली चमकती हो, उसी प्रकार वह पुष्कर के जल में शोभा पा रही थी॥

कन्दर्पदर्पवशगो मुनिस्तामिदमब्रवीत्।
अप्सरः स्वागतं तेऽस्तु वस चेह ममाश्रमे॥६॥

उसे देखकर विश्वामित्र मुनि काम के अधीन हो गये और उससे इस प्रकार बोले—’अप्सरा! तेरा स्वागत है, तू मेरे इस आश्रम में निवास कर॥६॥

अनुगृह्णीष्व भद्रं ते मदनेन विमोहितम्।।
इत्युक्ता सा वरारोहा तत्र वासमथाकरोत्॥७॥

‘तेरा भला हो, मैं काम से मोहित हो रहा हूँ। मुझ पर कृपा कर ‘ उनके ऐसा कहने पर सुन्दर कटिप्रदेश वाली मेनका वहाँ निवास करने लगी॥ ७॥

तपसो हि महाविघ्नो विश्वामित्रमुपागमत्।
तस्यां वसन्त्यां वर्षाणि पञ्च पञ्च च राघव॥ ८॥
विश्वामित्राश्रमे सौम्ये सुखेन व्यतिचक्रमः।

इस प्रकार तपस्या का बहुत बड़ा विघ्न विश्वामित्रजी के पास स्वयं उपस्थित हो गया। रघुनन्दन! मेनका को विश्वामित्रजी के उस सौम्य आश्रम पर रहते हुए दस वर्ष बड़े सुख से बीते॥ ८ १/२॥

अथ काले गते तस्मिन् विश्वामित्रो महामुनिः॥ ९॥
सव्रीड इव संवृत्तश्चिन्ताशोकपरायणः।

इतना समय बीत जाने पर महामुनि विश्वामित्र लज्जित-से हो गये, चिन्ता और शोक में डूब गये॥९ १/२॥

बुद्धिर्मुनेः समुत्पन्ना सामर्षा रघुनन्दन॥१०॥
सर्वं सुराणां कर्मैतत् तपोऽपहरणं महत्।

रघुनन्दन! मुनि के मन में रोषपूर्वक यह विचार उत्पन्न हुआ कि ‘यह सब देवताओं की करतूत है। उन्होंने हमारी तपस्या का अपहरण करने के लिये यह महान् प्रयास किया है। १० १/२ ॥

अहोरात्रापदेशेन गताः संवत्सरा दश॥११॥
काममोहाभिभूतस्य विनोऽयं प्रत्युपस्थितः।

‘मैं कामजनित मोह से ऐसा आक्रान्त हो गया कि मेरे दस वर्ष एक दिन-रात के समान बीत गये। यह मेरी तपस्या में बहुत बड़ा विघ्न उपस्थित हो गया’ । । ११ १/२॥

स निःश्वसन् मुनिवरः पश्चात्तापेन दुःखितः॥ १२॥

ऐसा विचारकर मुनिवर विश्वामित्र लम्बी साँस खींचते हुए पश्चात्ताप से दुःखित हो गये॥ १२ ॥

भीतामप्सरसं दृष्ट्वा वेपन्तीं प्राञ्जलिं स्थिताम्।
मेनकां मधुरैर्वाक्यैर्विसृज्य कुशिकात्मजः॥१३॥
उत्तरं पर्वतं राम विश्वामित्रो जगाम ह।

उस समय मेनका अप्सरा भयभीत हो थर-थर काँपती हुई हाथ जोड़कर उनके सामने खड़ी हो गयी। उसकी ओर देखकर कुशिकनन्दन विश्वामित्र ने मधुर वचनों द्वारा उसे विदा कर दिया और स्वयं वे उत्तर पर्वत (हिमवान्) पर चले गये। १३ १/२॥

स कृत्वा नैष्ठिकी बुद्धिं जेतुकामो महायशाः॥ १४॥
कौशिकीतीरमासाद्य तपस्तेपे दुरासदम्।

वहाँ उन महायशस्वी मुनि ने निश्चयात्मक बुद्धि का आश्रय ले कामदेव को जीतने के लिये कौशिकी-तट पर जाकर दुर्जय तपस्या आरम्भ की॥ १४ १/२ ॥

तस्य वर्षसहस्राणि घोरं तप उपासतः॥१५॥
उत्तरे पर्वते राम देवतानामभूद् भयम्।

श्रीराम! वहाँ उत्तर पर्वत पर एक हजार वर्षांतक घोर तपस्या में लगे हुए विश्वामित्र से देवताओं को बड़ा भय हुआ॥ १५ १/२॥

आमन्त्रयन् समागम्य सर्वे सर्षिगणाः सुराः॥ १६॥
महर्षिशब्दं लभतां साध्वयं कुशिकात्मजः।

सब देवता और ऋषि परस्पर मिलकर सलाह करने लगे—’ये कुशिकनन्दन विश्वामित्र महर्षिकी पदवी प्राप्त करें, यही इनके लिये उत्तम बात होगी’। १६ १/२॥

देवतानां वचः श्रुत्वा सर्वलोकपितामहः ॥१७॥
महर्षे स्वागतं वत्स तपसोग्रेण तोषितः॥१८॥
महत्त्वमृषिमुख्यत्वं ददामि तव कौशिक।

देवताओं की बात सुनकर सर्वलोकपितामह ब्रह्माजी तपोधन विश्वामित्र के पास जा मधुर वाणी में बोले —’महर्षे! तुम्हारा स्वागत है वत्स कौशिक! मैं तुम्हारी उग्र तपस्या से बहुत संतुष्ट हूँ और तुम्हें महत्ता एवं ऋषियों में श्रेष्ठता प्रदान करता हूँ’॥ १७-१८ १/२॥

ब्रह्मणस्तु वचः श्रुत्वा विश्वामित्रस्तपोधनः॥ १९॥
प्राञ्जलिः प्रणतो भूत्वा प्रत्युवाच पितामहम्।
ब्रह्मर्षिशब्दमतुलं स्वार्जितैः कर्मभिः शुभैः॥ २०॥
यदि मे भगवन्नाह ततोऽहं विजितेन्द्रियः।

ब्रह्माजी का यह वचन सुनकर तपोधन विश्वामित्र हाथ जोड़ प्रणाम करके उनसे बोले-‘भगवन् ! यदि अपने द्वारा उपार्जित शुभ कर्मो के फल से मुझे आप ब्रह्मर्षि का अनुपम पद प्रदान कर सकें तो मैं अपने को जितेन्द्रिय समशृंगा’ ॥ १९-२० १/२ ॥

तमुवाच ततो ब्रह्मा न तावत् त्वं जितेन्द्रियः॥ २१॥
यतस्व मुनिशार्दूल इत्युक्त्वा त्रिदिवं गतः।

तब ब्रह्माजी ने उनसे कहा—’मुनिश्रेष्ठ! अभी तुम जितेन्द्रिय नहीं हुए हो इसके लिये प्रयत्न करो।’ ऐसा कहकर वे स्वर्गलोकको चले गये। २१ १/२ ॥

विप्रस्थितेषु देवेषु विश्वामित्रो महामुनिः॥२२॥
ऊर्ध्वबाहुर्निरालम्बो वायुभक्षस्तपश्चरन्।

देवताओं के चले जाने पर महामुनि विश्वामित्र ने पुनः घोर तपस्या आरम्भ की वे दोनों भुजाएँ ऊपर उठाये बिना किसी आधार के खड़े होकर केवल वायु पीकर रहते हुए तप में संलग्न हो गये। २२ १/२ ॥

घर्मे पञ्चतपा भूत्वा वर्षास्वाकाशसंश्रयः॥२३॥
शिशिरे सलिलेशायी रात्र्यहानि तपोधनः।
एवं वर्षसहस्रं हि तपो घोरमुपागमत्॥२४॥

गर्मी के दिनों में पञ्चाग्नि का सेवन करते, वर्षाकाल में खुले आकाश के नीचे रहते और जाड़े के समय रात-दिन पानी में खड़े रहते थे। इस प्रकार उन तपोधन ने एक हजार वर्षां तक घोर तपस्या की॥ २३-२४॥

तस्मिन् संतप्यमाने तु विश्वामित्रे महामुनौ।
संतापः सुमहानासीत् सुराणां वासवस्य च॥ २५॥

महामुनि विश्वामित्र के इस प्रकार तपस्या करते समय देवताओं और इन्द्र के मन में बड़ा भारी संताप हुआ॥

रम्भामप्सरसं शक्रः सर्वैः सह मरुद्गणैः।
उवाचात्महितं वाक्यमहितं कौशिकस्य च॥ २६॥

समस्त मरुद्गणों सहित इन्द्र ने उस समय रम्भा अप्सरा से ऐसी बात कही, जो अपने लिये हितकर और विश्वामित्र के लिये अहितकर थी॥ २६ ॥

सर्ग ६४

सुरकार्यमिदं रम्भे कर्तव्यं सुमहत् त्वया।
लोभनं कौशिकस्येह काममोहसमन्वितम्॥१॥

(इन्द्र बोले-) रम्भे! देवताओं का एक बहुत बड़ा कार्य उपस्थित हुआ है। इसे तुम्हें ही पूरा करना है। तू महर्षि विश्वामित्र को इस प्रकार लुभा, जिससे वे काम और मोह के वशीभूत हो जायँ ॥ १॥

तथोक्ता साप्सरा राम सहस्राक्षेण धीमता।
वीडिता प्राञ्जलिर्वाक्यं प्रत्युवाच सुरेश्वरम्॥ २॥

श्रीराम! बुद्धिमान् इन्द्र के ऐसा कहनेपर वह अप्सरा लज्जित हो हाथ जोड़कर देवेश्वर इन्द्र से बोली- ॥२॥

अयं सुरपते घोरो विश्वामित्रो महामुनिः।
क्रोधमत्स्रक्ष्यते घोरं मयि देव न संशयः॥३॥

‘सुरपते! ये महामुनि विश्वामित्र बड़े भयंकर हैं। देव! इसमें संदेह नहीं कि ये मुझपर भयानक क्रोध का प्रयोग करेंगे॥ ३॥

ततो हि मे भयं देव प्रसादं कर्तुमर्हसि।
एवमुक्तस्तया राम सभयं भीतया तदा॥४॥
तामुवाच सहस्राक्षो वेपमानां कृताञ्जलिम्।
मा भैषी रम्भे भद्रं ते कुरुष्व मम शासनम्॥५॥

‘अतः देवेश्वर! मुझे उनसे बड़ा डर लगता है,आप मुझपर कृपा करें।’ श्रीराम! डरी हुई रम्भा के इस प्रकार भयपूर्वक कहने पर सहस्र नेत्रधारी इन्द्र हाथ जोड़कर खड़ी और थर-थर काँपती हुई रम्भा से इस प्रकार बोले—’रम्भे! तू भय न कर, तेरा भला हो, तू मेरी आज्ञा मान ले॥४-५॥

कोकिलो हृदयग्राही माधवे रुचिरद्रुमे।
अहं कन्दर्पसहितः स्थास्यामि तव पार्श्वतः॥६॥

‘वैशाख मास में जब कि प्रत्येक वृक्ष नवपल्लवों से परम सुन्दर शोभा धारण कर लेता है, अपनी मधुर काकली से सबके हृदय को खींचने वाले कोकिल और कामदेव के साथ मैं भी तेरे पास रहूँगा॥६॥

त्वं हि रूपं बहुगुणं कृत्वा परमभास्वरम्।
तमृर्षि कौशिकं भद्रे भेदयस्व तपस्विनम्॥७॥

‘भद्रे ! तू अपने परम कान्तिमान् रूप को हाव-भाव आदि विविध गुणों से सम्पन्न करके उसके द्वारा विश्वामित्र मुनि को तपस्या से विचलित कर दे’ ॥ ७॥

सा श्रुत्वा वचनं तस्य कृत्वा रूपमनुत्तमम्।
लोभयामास ललिता विश्वामित्रं शुचिस्मिता॥ ८॥

देवराज का यह वचन सुनकर उस मधुर मुसकान वाली सुन्दरी अप्सरा ने परम उत्तम रूप बनाकर विश्वामित्र को लुभाना आरम्भ किया॥ ८॥

कोकिलस्य तु शुश्राव वल्गु व्याहरतः स्वनम्।
सम्प्रहृष्टेन मनसा स चैनामन्ववैक्षत॥९॥

विश्वामित्र ने मीठी बोली बोलने वाले कोकिल की मधुर काकली सुनी। उन्होंने प्रसन्नचित्त होकर जब उस ओर दृष्टिपात किया, तब सामने रम्भा खड़ी दिखायी दी॥९॥

अथ तस्य च शब्देन गीतेनाप्रतिमेन च।
दर्शनेन च रम्भाया मुनिः संदेहमागतः॥१०॥

कोकिल के कलरव, रम्भा के अनुपम गीत और अप्रत्याशित दर्शन से मुनि के मन में संदेह हो गया। १०॥

सहस्राक्षस्य तत्सर्वं विज्ञाय मुनिपुंगवः।
रम्भां क्रोधसमाविष्टः शशाप कुशिकात्मजः॥ ११॥

देवराज का वह सारा कुचक्र उनकी समझ में आ गया। फिर तो मुनिवर विश्वामित्र ने क्रोध में भरकर रम्भा को शाप देते हुए कहा- ॥ ११॥

यन्मां लोभयसे रम्भे कामक्रोधजयैषिणम्।
दशवर्षसहस्राणि शैली स्थास्यसि दुर्भगे॥१२॥

‘दुर्भगे रम्भे! मैं काम और क्रोध पर विजय पाना चाहता हूँ और तू आकर मुझे लुभाती है। अतः इस अपराध के कारण तू दस हजार वर्षां तक पत्थर की प्रतिमा बनकर खड़ी रहेगी॥ १२॥

ब्राह्मणः सुमहातेजास्तपोबलसमन्वितः।
उद्धरिष्यति रम्भे त्वां मत्क्रोधकलुषीकृताम्॥ १३॥

‘रम्भे! शाप का समय पूरा हो जाने के बाद एक महान् तेजस्वी और तपोबलसम्पन्न ब्राह्मण (ब्रह्माजी के पुत्र वसिष्ठ) मेरे क्रोध से कलुषित तेरा उद्धार करेंगे’।

एवमुक्त्वा महातेजा विश्वामित्रो महामुनिः।
अशक्नुवन् धारयितुं कोपं संतापमात्मनः॥१४॥

ऐसा कहकर महातेजस्वी महामुनि विश्वामित्र अपना क्रोध न रोक सकने के कारण मन-ही-मन संतप्त हो उठे॥ १४॥

तस्य शापेन महता रम्भा शैली तदाभवत्।
वचः श्रुत्वा च कन्दर्पो महर्षेः स च निर्गतः॥

मुनि के उस महाशाप से रम्भा तत्काल पत्थर की प्रतिमा बन गयी। महर्षि का वह शापयुक्त वचन सुनकर कन्दर्प और इन्द्र वहाँ से खिसक गये॥ १५ ॥

कोपेन च महातेजास्तपोऽपहरणे कृते।
इन्द्रियैरजितै राम न लेभे शान्तिमात्मनः॥१६॥

श्रीराम! क्रोध से तपस्या का क्षय हो गया और इन्द्रियाँ अभी तक काबू में न आ सकीं, यह विचारकर उन महातेजस्वी मुनि के चित्त को शान्ति नहीं मिलती थी॥ १६॥

बभूवास्य मनश्चिन्ता तपोऽपहरणे कृते।
नैवं क्रोधं गमिष्यामि न च वक्ष्ये कथंचन॥१७॥

तपस्या का अपहरण हो जाने पर उनके मन में यह विचार उत्पन्न हुआ कि ‘अब से न तो क्रोध करूँगा और न किसी भी अवस्था में मुँह से कुछ बोलूँगा। १७॥

अथवा नोच्छ्वसिष्यामि संवत्सरशतान्यपि।
अहं हि शोषयिष्यामि आत्मानं विजितेन्द्रियः॥ १८॥

‘अथवा सौ वर्षों तक मैं श्वास भी न लूँगा। इन्द्रियों को जीतकर इस शरीर को सुखा डालूँगा॥१८॥

तावद् यावद्धि मे प्राप्तं ब्राह्मण्यं तपसार्जितम्।
अनुच्छ्वसन्नभुजानस्तिष्ठेयं शाश्वतीः समाः॥ १९॥

‘जब तक अपनी तपस्या से उपार्जित ब्राह्मणत्व मुझे प्राप्त न होगा, तब तक चाहे अनन्त वर्ष बीत जायँ, मैं बिना खाये-पीये खड़ा रहूँगा और साँस तक न लूँगा। १९॥

नहि मे तप्यमानस्य क्षयं यास्यन्ति मूर्तयः।
एवं वर्षसहस्रस्य दीक्षां स मुनिपुंगवः।
चकाराप्रतिमां लोके प्रतिज्ञां रघुनन्दन॥२०॥

‘तपस्या करते समय मेरे शरीर के अवयव कदापि नष्ट नहीं होंगे।’ रघुनन्दन! ऐसा निश्चय करके मुनिवर विश्वामित्र ने पुनः एक हजार वर्षां तक तपस्या करने के लिये दीक्षा ग्रहण की। उन्होंने जो प्रतिज्ञा की थी, उसकी संसार में कहीं तुलना नहीं है।॥ २०॥

सर्ग ६५

अथ हैमवतीं राम दिशं त्यक्त्वा महामुनिः।
पूर्वां दिशमनुप्राप्य तपस्तेपे सुदारुणम्॥१॥

(शतानन्दजी कहते हैं-)श्रीराम! पूर्वोक्त प्रतिज्ञा के अनन्तर महामुनि विश्वामित्र उत्तर दिशा को त्यागकर पूर्व दिशा में चले गये और वहीं रहकर अत्यन्त कठोर तपस्या करने लगे॥१॥

मौनं वर्षसहस्रस्य कृत्वा व्रतमनुत्तमम्।
चकाराप्रतिमं राम तपः परमदुष्करम्॥२॥

रघुनन्दन ! एक सहस्र वर्षों तक परम उत्तम मौनव्रत धारण करके वे परम दुष्कर तपस्या में लगे रहे। उनके उस तप की कहीं तुलना न थी॥२॥

पूर्णे वर्षसहस्रे तु काष्ठभूतं महामुनिम्।
विनर्बहुभिराधूतं क्रोधो नान्तरमाविशत्॥३॥

एक हजार वर्ष पूर्ण होने तक वे महामुनि काष्ठ की भाँति निश्चेष्ट बने रहे। बीच-बीच में उन पर बहुत-से विघ्नों का आक्रमण हुआ, परंतु क्रोध उनके भीतर नहीं घुसने पाया॥३॥

स कृत्वा निश्चयं राम तप आतिष्ठताव्ययम्।
तस्य वर्षसहस्रस्य व्रते पूर्णे महाव्रतः॥४॥
भोक्तुमारब्धवानन्नं तस्मिन् काले रघूत्तम।
इन्द्रो द्विजातिर्भूत्वा तं सिद्धमन्नमयाचत॥५॥

श्रीराम! अपने निश्चय पर अटल रहकर उन्होंने अक्षय तप का अनुष्ठान किया। उनका एक सहस्र वर्षों का व्रत पूर्ण होने पर वे महान् व्रतधारी महर्षि व्रत समाप्त करके अन्न ग्रहण करने को उद्यत हुए। रघुकुलभूषण! इसी समय इन्द्र ने ब्राह्मण के वेष में आकर उनसे तैयार अन्न की याचना की॥ ४-५॥

तस्मै दत्त्वा तदा सिद्धं सर्वं विप्राय निश्चितः।
निःशेषितेऽन्ने भगवानभुक्त्वैव महातपाः॥६॥

तब उन्होंने वह सारा तैयार किया हुआ भोजन उस ब्राह्मण को देनेका निश्चय करके दे डाला। उस । अन्न में से कुछ भी शेष नहीं बचा। इसलिये वे महातपस्वी भगवान् विश्वामित्र बिना खाये-पीये ही रह गये॥६॥

न किंचिदवदद् विप्रं मौनव्रतमुपास्थितः।
तथैवासीत् पुनर्मोनमनुच्छ्वासं चकार ह॥७॥

फिर भी उन्होंने उस ब्राह्मण से कुछ कहा नहीं। अपने मौन-व्रत का यथार्थ रूप से पालन किया। इसके बाद पुनः पहले की ही भाँति श्वासोच्छ्वास से रहित मौन-व्रत का अनुष्ठान आरम्भ किया॥७॥

अथ वर्षसहस्रं च नोच्छ्वसन् मुनिपुंगवः।
तस्यानुच्छ्वसमानस्य मूर्ध्नि धूमो व्यजायत॥८॥

पूरे एक हजार वर्षां तक उन मुनिश्रेष्ठ ने साँस तक नहीं ली। इस तरह साँस न लेने के कारण उनके मस्तक से धुआँ उठने लगा॥८॥

त्रैलोक्यं येन सम्भ्रान्तमातापितमिवाभवत्।
ततो देवर्षिगन्धर्वाः पन्नगोरगराक्षसाः॥९॥
मोहितास्तपसा तस्य तेजसा मन्दरश्मयः।
कश्मलोपहताः सर्वे पितामहमथाब्रुवन्॥१०॥

उससे तीनों लोकों के प्राणी घबरा उठे, सभी संतप्त-से होने लगे। उस समय देवता, ऋषि, गन्धर्व, नाग, सर्प और राक्षस सब मुनि की तपस्या से मोहित हो गये। उनके तेज से सब की कान्ति फीकी पड़ गयी। वे सब-के-सब दुःख से व्याकुल हो पितामह ब्रह्माजी से बोले- ॥ ९-१० ॥

बहुभिः कारणैर्देव विश्वामित्रो महामुनिः।
लोभितः क्रोधितश्चैव तपसा चाभिवर्धते॥११॥

‘देव! अनेक प्रकार के निमित्तों द्वारा महामुनि विश्वामित्र को लोभ और क्रोध दिलाने की चेष्टा की गयी; किंतु वे अपनी तपस्या के प्रभाव से निरन्तर आगे बढ़ते जा रहे हैं ॥ ११॥

नह्यस्य वृजिनं किंचिद् दृश्यते सूक्ष्ममप्युत।
न दीयते यदि त्वस्य मनसा यदभीप्सितम्॥१२॥
विनाशयति त्रैलोक्यं तपसा सचराचरम्।
व्याकुलाश्च दिशः सर्वा न च किंचित् प्रकाशते॥१३॥

‘हमें उनमें कोई छोटा-सा भी दोष नहीं दिखायी देता। यदि इन्हें इनकी मनचाही वस्तु नहीं दी गयी तो ये अपनी तपस्या से चराचर प्राणियोंसहित तीनोंलोकों का नाश कर डालेंगे। इस समय सारी दिशाएँ धूम से आच्छादित हो गयी हैं, कहीं कुछ भी सूझता नहीं है।

सागराः क्षुभिताः सर्वे विशीर्यन्ते च पर्वताः। 
प्रकम्पते च वसुधा वायुर्वातीह संकुलः॥१४॥

‘समुद्र क्षुब्ध हो उठे हैं, सारे पर्वत विदीर्ण हुए जाते हैं, धरती डगमग हो रही है और प्रचण्ड आँधी चलने लगी है॥ १४॥

ब्रह्मन् न प्रतिजानीमो नास्तिको जायते जनः।
सम्मूढमिव त्रैलोक्यं सम्प्रक्षुभितमानसम्॥१५॥

‘ब्रह्मन् ! हमें इस उपद्रव के निवारण का कोई उपाय नहीं समझमें आता है। सब लोग नास्तिक की भाँति कर्मानुष्ठान से शून्य हो रहे हैं। तीनों लोकों के प्राणियों का मन क्षुब्ध हो गया है। सभी किंकर्तव्यविमूढ़-से हो रहे हैं।॥ १५ ॥
भास्करो निष्प्रभश्चैव महर्षेस्तस्य तेजसा।

बुद्धिं न कुरुते यावन्नाशे देव महामुनिः॥१६॥
तावत् प्रसादो भगवन्नग्निरूपो महाद्युतिः।

‘महर्षि विश्वामित्र के तेज से सूर्य की प्रभा फीकी पड़ गयी है। भगवन्! ये महाकान्तिमान् मुनि अग्निस्वरूप हो रहे हैं देव! महामुनि विश्वामित्र जबतक जगत् के विनाश का विचार नहीं करते तब तक ही इन्हें प्रसन्न कर लेना चाहिये। १६ १/२ ॥

कालाग्निना यथा पूर्वं त्रैलोक्यं दह्यतेऽखिलम्॥ १७॥
देवराज्यं चिकीर्षत दीयतामस्य यन्मनः।

‘जैसे पूर्वकाल में प्रलयकालिक अग्नि ने सम्पूर्ण त्रिलोकी को दग्ध कर डाला था, उसी प्रकार ये भी सबको जलाकर भस्म कर देंगे। यदि ये देवताओं का राज्य प्राप्त करना चाहें तो वह भी इन्हें दे दिया जाय इनके मन में जो भी अभिलाषा हो, उसे पूर्ण किया जाय॥

ततः सुरगणाः सर्वे पितामहपुरोगमाः॥१८॥
विश्वामित्रं महात्मानं वाक्यं मधुरमब्रुवन्।

तदनन्तर ब्रह्मा आदि सब देवता महात्मा विश्वामित्र के पास जाकर मधुर वाणी में बोले- ॥ १८ १/२॥

ब्रह्मर्षे स्वागतं तेऽस्तु तपसा स्म सुतोषिताः॥ १९॥
ब्राह्मण्यं तपसोग्रेण प्राप्तवानसि कौशिक।

‘ब्रह्मर्षे! तुम्हारा स्वागत है, हम तुम्हारी तपस्या से बहुत संतुष्ट हुए हैं। कुशिकनन्दन! तुमने अपनी उग्र तपस्या से ब्राह्मणत्व प्राप्त कर लिया। १९ १/२ ॥

दीर्घमायुश्च ते ब्रह्मन् ददामि समरुद्गणः॥ २०॥
स्वस्ति प्राप्नुहि भद्रं ते गच्छ सौम्य यथासुखम्।

‘ब्रह्मन्! मरुद्गणों सहित मैं तुम्हें दीर्घायु प्रदान करता हूँ। तुम्हारा कल्याण हो सौम्य! तुम मंगल के भागी बनो और तुम्हारी जहाँ इच्छा हो वहाँ सुखपूर्वक जाओ’ ॥ २० १/२॥

पितामहवचः श्रुत्वा सर्वेषां त्रिदिवौकसाम्॥ २१॥
कृत्वा प्रणामं मुदितो व्याजहार महामुनिः।

पितामह ब्रह्माजी की यह बात सुनकर महामुनि विश्वामित्र ने अत्यन्त प्रसन्न होकर सम्पूर्ण देवताओं को प्रणाम किया और कहा— ॥ २१ १/२ ॥

ब्राह्मण्यं यदि मे प्राप्तं दीर्घमायुस्तथैव च ॥ २२॥
ॐकारोऽथ वषट्कारो वेदाश्च वरयन्तु माम्।
क्षत्रवेदविदां श्रेष्ठो ब्रह्मवेदविदामपि॥२३॥
ब्रह्मपुत्रो वसिष्ठो मामेवं वदतु देवताः।
यद्येवं परमः कामः कृतो यान्तु सुरर्षभाः॥२४॥

‘देवगण! यदि मुझे (आपकी कृपा से) ब्राह्मणत्व मिल गया और दीर्घ आयु की भी प्राप्ति हो गयी तो ॐकार, वषट्कार और चारों वेद स्वयं आकर मेरा वरण करें। इसके सिवा जो क्षत्रिय-वेद (धनुर्वेद आदि) तथा ब्रह्मवेद (ऋक् आदि चारों वेद) के ज्ञाताओं में भी सबसे श्रेष्ठ हैं, वे ब्रह्मपुत्र वसिष्ठ स्वयं आकर मुझसे ऐसा कहें (कि तुम ब्राह्मण हो गये), यदि ऐसा हो जाय तो मैं समझूगा कि मेरा उत्तम मनोरथ पूर्ण हो गया। उस अवस्था में आप सभी श्रेष्ठ देवगण यहाँ से जा सकते हैं ॥ २२–२४॥

ततः प्रसादितो देवैर्वसिष्ठो जपतां वरः।
सख्यं चकार ब्रह्मर्षिरेवमस्त्विति चाब्रवीत्॥

तब देवताओं ने मन्त्रजप करने वालों में श्रेष्ठ वसिष्ठ मुनि को प्रसन्न किया। इसके बाद ब्रह्मर्षि वसिष्ठने ‘एवमस्तु’ कहकर विश्वामित्र का ब्रह्मर्षि होना स्वीकार कर लिया और उनके साथ मित्रता स्थापित कर ली॥ २५॥

ब्रह्मर्षिस्त्वं न संदेहः सर्वं सम्पद्यते तव।
इत्युक्त्वा देवताश्चापि सर्वा जग्मुर्यथागतम्॥ २६॥

‘मुने! तुम ब्रह्मर्षि हो गये, इसमें संदेह नहीं है। तुम्हारा सब ब्राह्मणोचित संस्कार सम्पन्न हो गया।’ ऐसा कहकर सम्पूर्ण देवता जैसे आये थे वैसे लौट गये॥ २६॥

विश्वामित्रोऽपि धर्मात्मा लब्ध्वा ब्राह्मण्यमुत्तमम्।
पूजयामास ब्रह्मर्षि वसिष्ठं जपतां वरम्॥२७॥

इस प्रकार उत्तम ब्राह्मणत्व प्राप्त करके धर्मात्मा विश्वामित्रजी ने भी मन्त्र-जप करने वालों में श्रेष्ठ ब्रह्मर्षि वसिष्ठ का पूजन किया॥२७॥

कृतकामो महीं सर्वां चचार तपसि स्थितः।
एवं त्वनेन ब्राह्मण्यं प्राप्तं राम महात्मना॥२८॥

इस तरह अपना मनोरथ सफल करके तपस्या में लगे रहकर ही ये सम्पूर्ण पृथ्वी पर विचरने लगे। श्रीराम! इस प्रकार कठोर तपस्या करके इन महात्मा ने ब्राह्मणत्व प्राप्त किया॥२८॥

एष राम मुनिश्रेष्ठ एष विग्रहवांस्तपः।
एष धर्मः परो नित्यं वीर्यस्यैष परायणम्॥२९॥

रघुनन्दन! ये विश्वामित्रजी समस्त मुनियों में श्रेष्ठ । हैं, ये तपस्या के मूर्तिमान् स्वरूप हैं, उत्तम धर्म के साक्षात् विग्रह हैं और पराक्रम की परम निधि हैं। २९॥

एवमुक्त्वा महातेजा विरराम द्विजोत्तमः।
शतानन्दवचः श्रुत्वा रामलक्ष्मणसंनिधौ॥३०॥
जनकः प्राञ्जलिर्वाक्यमुवाच कुशिकात्मजम्।

ऐसा कहकर महातेजस्वी विप्रवर शतानन्दजी चुप हो गये। शतानन्दजी के मुख से यह कथा सुनकर महाराज जनक ने श्रीराम और लक्ष्मण के समीप विश्वामित्रजी से हाथ जोड़कर कहा- ॥ ३० १/२॥

धन्योऽस्म्यनुगृहीतोऽस्मि यस्य मे मुनिपुंगव॥ ३१॥
यज्ञं काकुत्स्थसहितः प्राप्तवानसि कौशिक।
पावितोऽहं त्वया ब्रह्मन् दर्शनेन महामुने॥३२॥

‘मुनिप्रवर कौशिक! आप ककुत्स्थकुलनन्दन श्रीराम और लक्ष्मण के साथ मेरे यज्ञ में पधारे, इससे मैं धन्य हो गया। आपने मुझपर बड़ी कृपा की महामुने! ब्रह्मन् ! आपने दर्शन देकर मुझे पवित्र कर दिया॥

गुणा बहुविधाः प्राप्तास्तव संदर्शनान्मया।
विस्तरेण च वै ब्रह्मन् कीर्त्यमानं महत्तपः॥ ३३॥
श्रुतं मया महातेजो रामेण च महात्मना।
सदस्यैः प्राप्य च सदः श्रुतास्ते बहवो गुणाः॥ ३४॥

‘आपके दर्शन से मुझे बड़ा लाभ हुआ, अनेक प्रकार के गुण उपलब्ध हुए। ब्रह्मन् ! आज इस सभा में आकर मैंने महात्मा राम तथा अन्य सदस्यों के साथ आपके महान् तेज (प्रभाव) का वर्णन सुना है, बहुत-से गुण सुने हैं ब्रह्मन्! शतानन्दजी ने आपके महान् तप का वृत्तान्त विस्तारपूर्वक बताया है। ३३-३४॥

अप्रमेयं तपस्तुभ्यमप्रमेयं च ते बलम्।
अप्रमेया गुणाश्चैव नित्यं ते कुशिकात्मज॥ ३५॥

‘कुशिकनन्दन! आपकी तपस्या अप्रमेय है, आपका बल अनन्त है तथा आपके गुण भी सदा ही माप और संख्यासे परे हैं॥ ३५ ॥

तृप्तिराश्चर्यभूतानां कथानां नास्ति मे विभो।
कर्मकालो मनिश्रेष्ठ लम्बते रविमण्डलम्॥३६॥

‘प्रभो! आपकी आश्चर्यमयी कथाओं के श्रवण से मुझे तृप्ति नहीं होती है; किंतु मुनिश्रेष्ठ! यज्ञ का समय हो गया है, सूर्यदेव ढलने लगे हैं। ३६ ॥

श्वः प्रभाते महातेजो द्रष्टुमर्हसि मां पुनः।
स्वागतं जपतां श्रेष्ठ मामनुज्ञातुमर्हसि ॥ ३७॥

‘जप करने वालों में श्रेष्ठ महातेजस्वी मुने! आपका स्वागत है, कल प्रातःकाल फिर मुझे दर्शन दें, इस समय मुझे जाने की आज्ञा प्रदान करें’॥ ३७॥

एवमुक्तो मुनिवरः प्रशस्य पुरुषर्षभम्।
विससर्जाशु जनकं प्रीतं प्रीतमनास्तदा॥३८॥

राजा के ऐसा कहने पर मुनिवर विश्वामित्रजी मनही-मन बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने प्रीतियुक्त नरश्रेष्ठ राजा जनक की प्रशंसा करके शीघ्र ही उन्हें विदा कर दिया॥ ३८॥

एवमुक्त्वा मुनिश्रेष्ठं वैदेहो मिथिलाधिपः।
प्रदक्षिणं चकाराशु सोपाध्यायः सबान्धवः॥ ३९॥

उस समय मिथिलापति विदेहराज जनक ने मुनिश्रेष्ठ विश्वामित्र से पूर्वोक्त बात कहकर अपने उपाध्याय और बन्धु-बान्धवों के साथ उनकी शीघ्र ही परिक्रमा की फिर वहाँ से वे चल दिये॥ ३९ ॥

विश्वामित्रोऽपि धर्मात्मा सहरामः सलक्ष्मणः।
स्ववासमभिचक्राम पूज्यमानो महात्मभिः॥४०॥

तत्पश्चात् धर्मात्मा विश्वामित्र भी महात्माओं से पूजित होकर श्रीराम और लक्ष्मण के साथ अपने विश्राम-स्थान पर लौट आये॥ ४०॥

सर्ग ६६

ततः प्रभाते विमले कृतकर्मा नराधिपः।
विश्वामित्रं महात्मानमाजुहाव सराघवम्॥१॥
तमर्चयित्वा धर्मात्मा शास्त्रदृष्टेन कर्मणा।
राघवौ च महात्मानौ तदा वाक्यमुवाच ह॥२॥

तदनन्तर दूसरे दिन निर्मल प्रभातकाल आने पर धर्मात्मा राजा जनक ने अपना नित्य नियम पूरा करके श्रीराम और लक्ष्मण सहित महात्मा विश्वामित्रजी को बुलाया और शास्त्रीय विधि के अनुसार मुनि तथा उन दोनों महामनस्वी राजकुमारों का पूजन करके इस प्रकार कहा- ॥ १-२॥

भगवन् स्वागतं तेऽस्तु किं करोमि तवानघ। ।
भवानाज्ञापयतु मामाज्ञाप्यो भवता ह्यहम्॥३॥

‘भगवन् ! आपका स्वागत है निष्पाप महर्षे! आप मुझे आज्ञा दीजिये, मैं आपकी क्या सेवा करूँ; क्योंकि मैं आपका आज्ञापालक हूँ’॥३॥

एवमुक्तः स धर्मात्मा जनकेन महात्मना।
प्रत्युवाच मुनिश्रेष्ठो वाक्यं वाक्यविशारदः॥४॥

महात्मा जनक के ऐसा कहनेपर बोलने में कुशल धर्मात्मा मुनिश्रेष्ठ विश्वामित्र ने उनसे यह बात कही – ॥ ४॥

पुत्रौ दशरथस्येमौ क्षत्रियौ लोकविश्रुतौ।
द्रष्टुकामौ धनुःश्रेष्ठं यदेतत्त्वयि तिष्ठति ॥५॥

‘महाराज! राजा दशरथ के ये दोनों पत्र विश्वविख्यात क्षत्रिय वीर हैं और आपके यहाँ जो यह श्रेष्ठ धनुष रखा है, उसे देखनेकी इच्छा रखते हैं।

एतद् दर्शय भद्रं ते कृतकामौ नृपात्मजौ।
दर्शनादस्य धनुषो यथेष्टं प्रतियास्यतः॥६॥

‘आपका कल्याण हो, वह धनुष इन्हें दिखा दीजिये। इससे इनकी इच्छा पूरी हो जायगी फिर ये दोनों राजकुमार उस धनुष के दर्शन मात्र से संतुष्ट हो इच्छानुसार अपनी राजधानी को लौट जायँगे’ ॥६॥

एवमुक्तस्तु जनकः प्रत्युवाच महामुनिम्।
श्रूयतामस्य धनुषो यदर्थमिह तिष्ठति॥७॥

मुनिके ऐसा कहने पर राजा जनक महामुनि विश्वामित्र से बोले—’मुनिवर! इस धनुष का वृत्तान्त सुनिये। जिस उद्देश्य से यह धनुष यहाँ रखा गया, वह सब बताता हूँ॥ ७॥

देवरात इति ख्यातो निमेज्येष्ठो महीपतिः।
न्यासोऽयं तस्य भगवन् हस्ते दत्तो महात्मनः॥८॥

‘भगवन् ! निमि के ज्येष्ठ पुत्र राजा देवरात के नाम से विख्यात थे। उन्हीं महात्मा के हाथ में यह धनुष धरोहर के रूपमें दिया गया था॥८॥

दक्षयज्ञवधे पूर्वं धनुरायम्य वीर्यवान्।
विध्वंस्य त्रिदशान् रोषात् सलीलमिदमब्रवीत्॥
यस्माद् भागार्थिनो भागं नाकल्पयत मे सुराः।
वरांगानि महार्हाणि धनुषा शातयामि वः॥१०॥

‘कहते हैं, पूर्वकाल में दक्षयज्ञ-विध्वंस के समय परम पराक्रमी भगवान् शङ्कर ने खेल-खेल में ही रोष पूर्वक इस धनुष को उठाकर यज्ञ-विध्वंस के पश्चात् देवताओं से कहा—’देवगण ! मैं यज्ञ में भाग प्राप्त करना चाहता था, किंतु तुम लोगों ने नहीं दिया। इसलिये इस धनुष से मैं तुम सब लोगों के परम पूजनीय श्रेष्ठ अंग-मस्तक काट डालूँगा’ ॥ ९-१० ॥

ततो विमनसः सर्वे देवा वै मुनिपुंगव।
प्रसादयन्त देवेशं तेषां प्रीतोऽभवद् भवः॥११॥

‘मुनिश्रेष्ठ ! यह सुनकर सम्पूर्ण देवता उदास हो गये और स्तुतिके द्वारा देवाधिदेव महादेवजीको प्रसन्न करने लगे। अन्तमें उनपर भगवान् शिव प्रसन्न हो गये॥ ११॥

प्रीतियुक्तस्तु सर्वेषां ददौ तेषां महात्मनाम्।
तदेतद् देवदेवस्य धनूरत्नं महात्मनः॥१२॥
न्यासभूतं तदा न्यस्तमस्माकं पूर्वजे विभौ।

‘प्रसन्न होकर उन्होंने उन सब महामनस्वी देवताओं को यह धनुष अर्पण कर दिया। वही यह देवाधिदेव महात्मा भगवान् शङ्कर का धनुष-रत्न है, जो मेरे पूर्वज महाराज देवरात के पास धरोहर के रूपमें रखा गया था॥ १२ १/२॥
अथ मे कृषतः क्षेत्रं लांगलादुत्थिता ततः॥१३॥

क्षेत्रं शोधयता लब्धा नाम्ना सीतेति विश्रुता।
भूतलादुत्थिता सा तु व्यवर्धत ममात्मजा॥१४॥

‘एक दिन मैं यज्ञ के लिये भूमिशोधन करते समय खेत में हल चला रहा था। उसी समय हल के अग्रभागसे जोती गयी भूमि (हराई या सीता) से एक कन्या प्रकट हुई। सीता (हलद्वारा खींची गयी रेखा) से उत्पन्न होने के कारण उसका नाम सीता रखा गया। पृथ्वी से प्रकट हुई वह मेरी कन्या क्रमशः बढ़कर सयानी हुई ॥ १३-१४ ॥

वीर्यशल्केति मे कन्या स्थापितेयमयोनिजा।
भूतलादुत्थितां तां तु वर्धमानां ममात्मजाम्॥ १५॥
वरयामासुरागत्य राजानो मुनिपुंगव।

‘अपनी इस अयोनिजा कन्या के विषय में मैंने यह निश्चय किया कि जो अपने पराक्रम से इस धनुष को चढ़ा देगा, उसी के साथ मैं इसका ब्याह करूँगा। इस तरह इसे वीर्यशुल्का (पराक्रमरूप शुल्कवाली) बनाकर अपने घर में रख छोड़ा है। मुनिश्रेष्ठ! भूतल से प्रकट होकर दिनों-दिन बढ़ने वाली मेरी पुत्री सीता को कई राजाओं ने यहाँ आकर माँगा॥ १५ १/२॥

तेषां वरयतां कन्यां सर्वेषां पृथिवीक्षिताम्॥१६॥
वीर्यशुल्केति भगवन् न ददामि सुतामहम्।

‘परंतु भगवन् ! कन्या का वरण करने वाले उन सभी राजाओं को मैंने यह बता दिया कि मेरी कन्या वीर्यशुल्का है। (उचित पराक्रम प्रकट करने पर ही कोई पुरुष उसके साथ विवाह करने का अधिकारी हो सकता है।) यही कारण है कि मैंने आजतक किसी को अपनी कन्या नहीं दी॥ १६ १/२ ॥

ततः सर्वे नृपतयः समेत्य मुनिपुंगव॥१७॥
मिथिलामप्युपागम्य वीर्यं जिज्ञासवस्तदा।

‘मुनिपुंगव! तब सभी राजा मिलकर मिथिला में आये और पूछने लगे कि राजकुमारी सीता को प्राप्त करने के लिये कौन-सा पराक्रम निश्चित किया गया ॥

तेषां जिज्ञासमानानां शैवं धनुरुपाहृतम्॥१८॥
न शेकुर्ग्रहणे तस्य धनुषस्तोलनेऽपि वा ।

‘मैंने पराक्रम की जिज्ञासा करने वाले उन राजाओं के सामने यह शिवजी का धनुष रख दिया; परंतु वे लोग इसे उठाने या हिलाने में भी समर्थ न हो सके॥ १८ १/२॥

तेषां वीर्यवतां वीर्यमल्पं ज्ञात्वा महामुने॥१९॥
प्रत्याख्याता नृपतयस्तन्निबोध तपोधन।

‘महामुने! उन पराक्रमी नरेशों की शक्ति बहुत थोड़ी जानकर मैंने उन्हें कन्या देने से इनकार कर दिया। तपोधन! इसके बाद जो घटना घटी, उसे भी आप सुन लीजिये॥ १९ १/२ ॥

ततः परमकोपेन राजानो मुनिपुंगव॥२०॥
अरुन्धन मिथिलां सर्वे वीर्यसंदेहमागताः।

‘मुनिप्रवर! मेरे इनकार करने पर ये सब राजा अत्यन्त कुपित हो उठे और अपने पराक्रम के विषय में संशयापन्न हो मिथिला को चारों ओर से घेरकर खड़े हो गये॥ २० १/२॥

आत्मानमवधूतं मे विज्ञाय नृपपुंगवाः॥२१॥
रोषेण महताविष्टाः पीडयन् मिथिलां पुरीम्।

‘मेरे द्वारा अपना तिरस्कार हुआ मानकर उन श्रेष्ठ नरेशों ने अत्यन्त रुष्ट हो मिथिलापुरी को सब ओर से पीड़ा देना प्रारम्भ कर दिया॥ २१ १/२॥

ततः संवत्सरे पूर्णे क्षयं यातानि सर्वशः॥२२॥
साधनानि मुनिश्रेष्ठ ततोऽहं भृशदुःखितः।

‘मुनिश्रेष्ठ! पूरे एक वर्षतक वे घेरा डाले रहे। इस बीच में युद्ध के सारे साधन क्षीण हो गये इससे मुझेबड़ा दुःख हुआ। २२ १/२ ॥

ततो देवगणान् सर्वांस्तपसाहं प्रसादयम्॥२३॥
ददुश्च परमप्रीताश्चतुरंगबलं सुराः।

‘तब मैंने तपस्या के द्वारा समस्त देवताओं को प्रसन्न करने की चेष्टा की। देवता बहुत प्रसन्न हुएऔर उन्होंने मुझे चतुरंगिणी सेना प्रदान की॥ २३ १/२॥

ततो भग्ना नृपतयो हन्यमाना दिशो ययुः ॥२४॥
अवीर्या वीर्यसंदिग्धाः सामात्याः पापकारिणः।

‘फिर तो हमारे सैनिकों की मार खाकर वे सभी पापाचारी राजा, जो बलहीन थे अथवा जिनके बलवान् होने में संदेह था, मन्त्रियों सहित भागकर विभिन्न दिशाओं में चले गये॥ २४ १/२॥

तदेतन्मुनिशार्दूल धनुः परमभास्वरम्॥२५॥
रामलक्ष्मणयोश्चापि दर्शयिष्यामि सुव्रत।

‘मुनिश्रेष्ठ! यही वह परम प्रकाशमान धनुष है। उत्तम व्रत का पालन करने वाले महर्षे! मैं उसे श्रीराम और लक्ष्मण को भी दिखाऊँगा॥ २५ १/२ ॥

यद्यस्य धनुषो रामः कुर्यादारोपणं मुने।
सुतामयोनिजां सीतां दद्यां दाशरथेरहम्॥ २६॥

‘मुने! यदि श्रीराम इस धनुष की प्रत्यञ्चा चढ़ा दें तो मैं अपनी अयोनिजा कन्या सीता को इन दशरथ कुमार के हाथमें दे दूँ’ ॥२६॥

सर्ग ६७

जनकस्य वचः श्रुत्वा विश्वामित्रो महामुनिः।
धनुर्दर्शय रामाय इति होवाच पार्थिवम्॥१॥

जनक की यह बात सुनकर महामुनि विश्वामित्र बोले—’राजन्! आप श्रीराम को अपना धनुष दिखाइये॥
ततः स राजा जनकः सचिवान् व्यादिदेश ह।

धनुरानीयतां दिव्यं गन्धमाल्यानुलेपितम्॥२॥

तब राजा जनक ने मन्त्रियों को आज्ञा दी—’चन्दन और मालाओं से सुशोभित वह दिव्य धनुष यहाँ ले आओ’ ॥२॥

जनकेन समादिष्टाः सचिवाः प्राविशन् पुरम्।
तद्धनुः पुरतः कृत्वा निर्जग्मुरमितौजसः॥३॥

राजा जनक की आज्ञा पाकर वे अमित तेजस्वी मन्त्री नगर में गये और उस धनुष को आगे करके पुरी से बाहर निकले॥३॥

नृणां शतानि पञ्चाशद् व्यायतानां महात्मनाम्।
मञ्जूषामष्टचक्रां तां समूहस्ते कथंचन॥४॥

वह धनुष आठ पहियों वाली लोहे की बहुत बड़ी संदूक में रखा गया था। उसे मोटे-ताजे पाँच हजार महामनस्वी वीर किसी तरह ठेलकर वहाँ तक ला सके॥४॥

तामादाय सुमञ्जूषामायसी यत्र तद्धनुः।
सुरोपमं ते जनकमूचुर्नृपतिमन्त्रिणः॥५॥

लोहे की वह संदूक, जिसमें धनुष रखा गया था, लाकर उन मन्त्रियों ने देवोपम राजा जनक से कहा - ॥

इदं धनुर्वरं राजन् पूजितं सर्वराजभिः।
मिथिलाधिप राजेन्द्र दर्शनीयं यदीच्छसि॥६॥

‘राजन्! मिथिलापते! राजेन्द्र! यह समस्त राजाओं द्वारा सम्मानित श्रेष्ठ धनुष है,यदि आप इन दोनों राजकुमारों को दिखाना चाहते हैं तो दिखाइये’।

तेषां नृपो वचः श्रुत्वा कृताञ्जलिरभाषत।
विश्वामित्रं महात्मानं तावुभौ रामलक्ष्मणौ॥७॥

उनकी बात सुनकर राजा जनक ने हाथ जोड़कर महात्मा विश्वामित्र तथा दोनों भाई श्रीराम और लक्ष्मण से कहा- ॥७॥

इदं धनुर्वरं ब्रह्मञ्जनकैरभिपूजितम्।
राजभिश्च महावीरशक्तैः पूरितं तदा॥८॥

‘ब्रह्मन्! यही वह श्रेष्ठ धनुष है, जिसका जनकवंशी नरेशों ने सदा ही पूजन किया है तथा जो इसे उठाने में समर्थ न हो सके, उन महापराक्रमी नरेशों ने भी इसका पूर्वकाल में सम्मान किया है॥८॥

नैतत् सुरगणाः सर्वे सासुरा न च राक्षसाः।
गन्धर्वयक्षप्रवराः सकिन्नरमहोरगाः॥९॥

‘इसे समस्त देवता, असुर, राक्षस, गन्धर्व, बड़े बड़े यक्ष, किन्नर और महानाग भी नहीं चढ़ा सके हैं॥९॥

क्व गतिर्मानुषाणां च धनुषोऽस्य प्रपूरणे।
आरोपणे समायोगे वेपने तोलने तथा॥१०॥

‘फिर इस धनुष को खींचने, चढ़ाने, इसपर बाण संधान करने, इसकी प्रत्यञ्चापर टङ्कार देने तथा इसे उठाकर इधर-उधर हिलाने में मनुष्यों की कहाँ शक्ति है? ॥ १०॥

तदेतद् धनुषां श्रेष्ठमानीतं मुनिपुंगव।
दर्शयैतन्महाभाग अनयो राजपुत्रयोः॥११॥

‘मुनिप्रवर! यह श्रेष्ठ धनुष यहाँ लाया गया है। महाभाग! आप इसे इन दोनों राजकुमारों को दिखाइये॥

विश्वामित्रः सरामस्तु श्रुत्वा जनकभाषितम्।
वत्स राम धनुः पश्य इति राघवमब्रवीत्॥१२॥

श्रीरामसहित विश्वामित्र ने जनकका वह कथन सुनकर रघुनन्दन से कहा—’वत्स राम! इस धनुष को देखो’ ॥ १२॥

महर्षेर्वचनाद् रामो यत्र तिष्ठति तद्धनुः ।
मञ्जूषां तामपावृत्य दृष्टा धनुरथाब्रवीत्॥१३॥

महर्षि की आज्ञा से श्रीरामने जिसमें वह धनुष था उस संदूक को खोलकर उस धनुष को देखा और कहा – ॥ १३॥

इदं धनुर्वरं दिव्यं संस्पृशामीह पाणिना।
यत्नवांश्च भविष्यामि तोलने पूरणेऽपि वा। १४॥

‘अच्छा अब मैं इस दिव्य एवं श्रेष्ठ धनुष में हाथ लगाता हूँ मैं इसे उठाने और चढ़ाने का भी प्रयत्न करूँगा’॥ १४॥

बाढमित्यब्रवीद् राजा मुनिश्च समभाषत।
लीलया स धनुर्मध्ये जग्राह वचनान्मुनेः॥ १५॥
पश्यतां नृसहस्राणां बहूनां रघुनन्दनः।
आरोपयत् स धर्मात्मा सलीलमिव तद्धनुः॥१६॥

तब राजा और मुनि ने एक स्वर से कहा—’हाँ, ऐसा ही करो।’ मुनि की आज्ञा से रघुकुलनन्दन धर्मात्मा श्रीराम ने उस धनुष को बीच से पकड़कर लीलापूर्वक उठा लिया और खेल-सा करते हुए उसपर प्रत्यञ्चा चढ़ा दी। उस समय कई हजार मनुष्यों की दृष्टि उनपर लगी थी॥ १५-१६॥

आरोपयित्वा मौर्वी च पूरयामास तद्धनुः।
तद् बभञ्ज धनुर्मध्ये नरश्रेष्ठो महायशाः॥१७॥

प्रत्यञ्चा चढ़ाकर महायशस्वी नरश्रेष्ठ श्रीराम ने ज्यों ही उस धनुष को कान तक खींचा त्यों ही वह बीच से ही टूट गया॥१७॥

तस्य शब्दो महानासीन्निर्घातसमनिःस्वनः।
भूमिकम्पश्च सुमहान् पर्वतस्येव दीर्यतः॥ १८॥

टूटते समय उससे वज्रपात के समान बड़ी भारी आवाज हुई। ऐसा जान पड़ा मानो पर्वत फट पड़ा हो। उस समय महान् भूकम्प आ गया॥ १८ ॥

निपेतुश्च नराः सर्वे तेन शब्देन मोहिताः।
वर्जयित्वा मुनिवरं राजानं तौ च राघवौ॥१९॥

मुनिवर विश्वामित्र, राजा जनक तथा रघुकुलभूषण दोनों भाई श्रीराम और लक्ष्मण को छोड़कर शेष जितने लोग वहाँ खड़े थे, वे सब धनुष टूटने के उस भयंकर शब्द से मूर्च्छित होकर गिर पड़े॥ १९ ॥

प्रत्याश्वस्ते जने तस्मिन् राजा विगतसाध्वसः।
उवाच प्राञ्जलिर्वाक्यं वाक्यज्ञो मुनिपुंगवम्॥ २०॥

थोड़ी देर में जब सबको चेत हुआ, तब निर्भय हुए राजा जनक ने, जो बोलने में कुशल और वाक्य के मर्म को समझने वाले थे, हाथ जोड़कर मुनिवर विश्वामित्र से कहा- ॥२०॥

भगवन् दृष्टवीर्यो मे रामो दशरथात्मजः।
अत्यद्भुतमचिन्त्यं च अतर्कितमिदं मया॥२१॥

‘भगवन्! मैंने दशरथनन्दन श्रीराम का पराक्रम आज अपनी आँखों देख लिया महादेवजी के धनुष को चढ़ाना—यह अत्यन्त अद्भुत, अचिन्त्य और अतर्कित घटना है॥

जनकानां कुले कीर्तिमाहरिष्यति मे सुता।
सीता भर्तारमासाद्य रामं दशरथात्मजम्॥२२॥

‘मेरी पुत्री सीता दशरथकुमार श्रीराम को पतिरूपमें प्राप्त करके जनकवंश की कीर्ति का विस्तार करेगी॥२२॥

मम सत्या प्रतिज्ञा सा वीर्यशुल्केति कौशिक।
सीता प्राणैर्बहमता देया रामाय मे सुता॥२३॥

‘कुशिकनन्दन! मैंने सीता को वीर्यशुल्का (पराक्रमरूपी शुल्कसे ही प्राप्त होनेवाली) बताकर जो प्रतिज्ञा की थी, वह आज सत्य एवं सफल हो गयी। सीता मेरे लिये प्राणों से भी बढ़कर है। अपनी यह पुत्री मैं श्रीराम को समर्पित करूँगा॥ २३ ॥

भवतोऽनुमते ब्रह्मन् शीघ्रं गच्छन्तु मन्त्रिणः।
मम कौशिक भद्रं ते अयोध्यां त्वरिता रथैः॥ २४॥
राजानं प्रश्रितैर्वाक्यैरानयन्तु पुरं मम।
प्रदानं वीर्यशुल्कायाः कथयन्तु च सर्वशः॥ २५॥

ब्रह्मन् ! कुशिकनन्दन! आपका कल्याण हो यदि आपकी आज्ञा हो तो मेरे मन्त्री रथ पर सवार होकर बड़ी उतावली के साथ शीघ्र ही अयोध्या को जायँ और विनय युक्त वचनोंद् वारा महाराज दशरथ को मेरे नगर में लिवा लायें। साथ ही यहाँ का सब समाचार बताकर यह निवेदन करें कि जिसके लिये पराक्रमका ही शुल्क नियत किया गया था, उस जनककुमारी सीता का विवाह श्रीरामचन्द्रजी के साथ होने जा रहा है ॥ २४-२५ ॥

मुनिगुप्तौ च काकुत्स्थौ कथयन्तु नृपाय वै।
प्रीतियुक्तं तु राजानमानयन्तु सुशीघ्रगाः॥२६॥

‘ये लोग महाराज दशरथ से यह भी कह दें कि आपके दोनों पुत्र श्रीराम और लक्ष्मण विश्वामित्रजी के द्वारा सुरक्षित हो मिथिला में पहुँच गये हैं। इस प्रकार प्रीतियुक्त हुए राजा दशरथ को ये शीघ्रगामी सचिव जल्दी यहाँ बुला लायें’॥ २६॥ ।

कौशिकस्तु तथेत्याह राजा चाभाष्य मन्त्रिणः।
अयोध्यां प्रेषयामास धर्मात्मा कृतशासनान्।
यथावृत्तं समाख्यातुमानेतुं च नृपं तथा॥२७॥

विश्वामित्र ने ‘तथास्तु’ कहकर राजा की बात का समर्थन किया तब धर्मात्मा राजा जनक ने अपनी आज्ञा का पालन करने वाले मन्त्रियों को समझा बुझाकर यहाँ का ठीक-ठीक समाचार महाराज दशरथ को बताने और उन्हें मिथिलापुरी में ले आने के लिये भेज दिया॥ २७॥

सर्ग ६८

जनकेन समादिष्टा दूतास्ते क्लान्तवाहनाः।
त्रिरात्रमुषिता मार्गे तेऽयोध्यां प्राविशन् पुरीम्॥

राजा जनक की आज्ञा पाकर उनके दूत अयोध्या के लिये प्रस्थित हुए। रास्ते में वाहनों के थक जाने के कारण तीन रात विश्राम करके चौथे दिन वे अयोध्यापुरी में जा पहुँचे॥१॥

ते राजवचनाद् गत्वा राजवेश्म प्रवेशिताः।
ददृशुर्देवसंकाशं वृद्धं दशरथं नृपम्॥२॥

राजा की आज्ञा से उनका राजमहल में प्रवेश हुआ,वहाँ जाकर उन्होंने देवतुल्य तेजस्वी बूढ़े महाराज दशरथ का दर्शन किया॥२॥

बद्धाञ्जलिपुटाः सर्वे दूता विगतसाध्वसाः।
राजानं प्रश्रितं वाक्यमब्रुवन् मधुराक्षरम्॥३॥
मैथिलो जनको राजा साग्निहोत्रपुरस्कृतः।
मुहुर्मुहुर्मधुरया स्नेहसंरक्तया गिरा॥४॥
कुशलं चाव्ययं चैव सोपाध्यायपुरोहितम्।
जनकस्त्वां महाराज पृच्छते सपुरःसरम्॥५॥

उन सभी दूतों ने दोनों हाथ जोड़ निर्भय हो राजा से मधुर वाणी में यह विनययुक्त बात कही—’महाराज! मिथिलापति राजा जनक ने अग्निहोत्र की अग्नि को सामने रखकर स्नेहयुक्त मधुर वाणी में सेवकों सहित आपका तथा आपके उपाध्याय और पुरोहितों का बारम्बार कुशल-मंगल पूछा है॥ ३–५॥

पृष्ट्वा कुशलमव्यग्रं वैदेहो मिथिलाधिपः।
कौशिकानुमते वाक्यं भवन्तमिदमब्रवीत्॥६॥

‘इस प्रकार व्यग्रतारहित कुशल पूछकर मिथिलापति विदेहराजने महर्षि विश्वामित्रकी आज्ञासे आपको यह संदेश दिया है॥६॥

पूर्वं प्रतिज्ञा विदिता वीर्यशुल्का ममात्मजा।
राजानश्च कृतामर्षा निर्वीर्या विमुखीकृताः॥७॥

‘राजन् ! आपको मेरी पहले की हुई प्रतिज्ञाका हाल मालूम होगा। मैंने अपनी पुत्री के विवाह के लिये पराक्रम का ही शुल्क नियत किया था। उसे सुनकर कितने ही राजा अमर्ष में भरे हुए आये; किंतु यहाँ पराक्रमहीन सिद्ध हुए और विमुख होकर घर लौट गये॥७॥

सेयं मम सुता राजन् विश्वामित्रपुरस्कृतैः।
यदृच्छयागतै राजन् निर्जिता तव पुत्रकैः॥८॥

‘नरेश्वर! मेरी इस कन्या को विश्वामित्रजी के साथ अकस्मात् घूमते-फिरते आये हुए आपके पुत्र श्रीराम ने अपने पराक्रम से जीत लिया है॥८॥

तच्च रत्नं धनुर्दिव्यं मध्ये भग्नं महात्मना।
रामेण हि महाबाहो महत्यां जनसंसदि॥९॥

‘महाबाहो! महात्मा श्रीराम ने महान् जनसमुदाय के मध्य मेरे यहाँ रखे हुए रत्नस्वरूप दिव्य धनुष को बीच से तोड़ डाला है॥९॥

अस्मै देया मया सीता वीर्यशुल्का महात्मने।
प्रतिज्ञां तर्तुमिच्छामि तदनुज्ञातुमर्हसि॥१०॥

‘अतः मैं इन महात्मा श्रीरामचन्द्रजी को अपनी वीर्यशुल्का कन्या सीता प्रदान करूँगा। ऐसा करके मैं अपनी प्रतिज्ञा से पार होना चाहता हूँ। आप इसके लिये मुझे आज्ञा देने की कृपा करें॥ १० ॥

सोपाध्यायो महाराज पुरोहितपुरस्कृतः।
शीघ्रमागच्छ भद्रं ते द्रष्टुमर्हसि राघवौ॥११॥

‘महाराज! आप अपने गुरु एवं पुरोहित के साथ यहाँ शीघ्र पधारें और अपने दोनों पुत्र रघुकुलभूषण श्रीराम और लक्ष्मण को देखें। आपका भला हो॥ ११॥

प्रतिज्ञां मम राजेन्द्र निर्वर्तयितुमर्हसि।
पुत्रयोरुभयोरेव प्रीतिं त्वमुपलप्स्यसे॥१२॥

‘राजेन्द्र ! यहाँ पधार कर आप मेरी प्रतिज्ञा पूर्ण करें। यहाँ आने से आपको अपने दोनों पुत्रों के विवाहजनित आनन्द की प्राप्ति होगी॥ १२ ॥

एवं विदेहाधिपतिर्मधुरं वाक्यमब्रवीत्।
विश्वामित्राभ्यनुज्ञातः शतानन्दमते स्थितः॥१३॥

‘राजन्! इस तरह विदेहराज ने आपके पास यह मधुर संदेश भेजा था। इसके लिये उन्हें विश्वामित्रजी की आज्ञा और शतानन्दजी की सम्मति भी प्राप्त हुई थी’ ॥ १३॥

दूतवाक्यं तु तच्छ्रुत्वा राजा परमहर्षितः।
वसिष्ठं वामदेवं च मन्त्रिणश्चैवमब्रवीत्॥१४॥

संदेशवाहक मन्त्रियों का यह वचन सुनकर राजा दशरथ बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने महर्षि वसिष्ठ, वामदेव तथा अन्य मन्त्रियों से कहा- ॥१४॥

गुप्तः कुशिकपुत्रेण कौसल्यानन्दवर्धनः।
लक्ष्मणेन सह भ्रात्रा विदेहेषु वसत्यसौ॥ १५॥

‘कुशिकनन्दन विश्वामित्र से सुरक्षित हो कौसल्या का आनन्दवर्धन करने वाले श्रीराम अपने छोटे भाई लक्ष्मण के साथ विदेह देश में निवास करते हैं।॥ १५॥

दृष्टवीर्यस्तु काकुत्स्थो जनकेन महात्मना।
सम्प्रदानं सुतायास्तु राघवे कर्तुमिच्छति॥१६॥

‘वहाँ महात्मा राजा जनकने ककुत्स्थकुलभूषण श्रीरामके पराक्रमको प्रत्यक्ष देखा है। इसलिये वे अपनी पुत्री सीताका विवाह रघुकुलरत्न रामके साथ करना चाहते हैं॥ १६॥

यदि वो रोचते वृत्तं जनकस्य महात्मनः।
पुरी गच्छामहे शीघ्रं मा भूत् कालस्य पर्ययः॥१७॥

‘यदि आप लोगों की रुचि एवं सम्मति हो तो हमलोग शीघ्र ही महात्मा जनक की मिथिलापुरी को चलें इसमें विलम्ब न हो’ ॥ १७ ॥

मन्त्रिणो बाढमित्याहुः सह सर्वैर्महर्षिभिः।
सुप्रीतश्चाब्रवीद् राजा श्वो यात्रेति च मन्त्रिणः॥ १८॥

यह सुनकर समस्त महर्षियों सहित मन्त्रियों ने ‘बहुत अच्छा’ कहकर एक स्वर से चलने की सम्मति दी। राजा बड़े प्रसन्न हुए और मन्त्रियों से बोले—’कल सबेरे ही यात्रा कर देनी चाहिये’ ॥ १८ ॥

मन्त्रिणस्तु नरेन्द्रस्य रात्रिं परमसत्कृताः।
ऊषुः प्रमुदिताः सर्वे गुणैः सर्वैः समन्विताः॥ १९॥

महाराज दशरथ के सभी मन्त्री समस्त सद्गुणों से सम्पन्न थे। राजा ने उनका बड़ा सत्कार किया। अतः बारात चलने की बात सुनकर उन्होंने बड़े आनन्द से वह रात्रि व्यतीत की॥ १९॥

सर्ग ६९

ततो रात्र्यां व्यतीतायां सोपाध्यायः सबान्धवः।
राजा दशरथो हृष्टः सुमन्त्रमिदमब्रवीत्॥१॥

तदनन्तर रात्रि व्यतीत होने पर उपाध्याय और बन्धुबान्धवों सहित राजा दशरथ हर्ष में भरकर सुमन्त्र से इस प्रकार बोले- ॥१॥

अद्य सर्वे धनाध्यक्षा धनमादाय पुष्कलम्।
व्रजन्त्वग्रे सुविहिता नानारत्नसमन्विताः॥२॥

‘आज हमारे सभी धनाध्यक्ष (खजांची) बहुत-सा धन लेकर नाना प्रकार के रत्नों से सम्पन्न हो सबसे आगे चलें। उनकी रक्षाके लिये हर तरह की सुव्यवस्था होनी चाहिये॥२॥

चतुरंगबलं चापि शीघ्रं निर्यातु सर्वशः।
ममाज्ञासमकालं च यानं युग्यमनुत्तमम्॥३॥

‘सारी चतुरंगिणी सेना भी यहाँ से शीघ्र ही कूचकर दे। अभी मेरी आज्ञा सुनते ही सुन्दर-सुन्दर पालकियाँ और अच्छे-अच्छे घोड़े आदि वाहन तैयार होकर चल दें॥

वसिष्ठो वामदेवश्च जाबालिरथ कश्यपः।
मार्कण्डेयस्तु दीर्घायुर्ऋषिः कात्यायनस्तथा ॥४॥
एते द्विजाः प्रयान्त्वग्रे स्यन्दनं योजयस्व मे।
यथा कालात्ययो न स्याद् दूता हि त्वरयन्ति माम्॥५॥

‘वसिष्ठ, वामदेव, जाबालि, कश्यप, दीर्घजीवी मार्कण्डेय मुनि तथा कात्यायन—ये सभी ब्रह्मर्षि आगे-आगे चलें। मेरा रथ भी तैयार करो देर नहीं होनी चाहिये। राजा जनक के दूत मुझे जल्दी करने के लिये प्रेरित कर रहे हैं’॥ ४-५॥

वचनाच्च नरेन्द्रस्य सेना च चतुरंगिणी।
राजानमृषिभिः सार्धं व्रजन्तं पृष्ठतोऽन्वयात्॥६॥

राजा की इस आज्ञा के अनुसार चतुरंगिणी सेना तैयार हो गयी और ऋषियों के साथ यात्रा करते हुए महाराज दशरथ के पीछे-पीछे चली॥६॥

गत्वा चतुरहं मार्गं विदेहानभ्युपेयिवान्।
राजा च जनकः श्रीमान् श्रुत्वा पूजामकल्पयत्॥ ७॥

चार दिन का मार्ग तय करके वे सब लोग विदेहदेश में जा पहुँचे। उनके आगमन का समाचार सुनकर श्रीमान् राजा जनक ने स्वागत-सत्कार की तैयारी की।

ततो राजानमासाद्य वृद्धं दशरथं नृपम्।
मुदितो जनको राजा प्रहर्षं परमं ययौ॥८॥

तत्पश्चात् आनन्दमग्न हुए राजा जनक बूढ़े महाराज दशरथ के पास पहुँचे उनसे मिलकर उन्हें बड़ा हर्ष हुआ॥

उवाच वचनं श्रेष्ठो नरश्रेष्ठं मुदान्वितम्।
स्वागतं ते नरश्रेष्ठ दिष्ट्या प्राप्तोऽसि राघव॥९॥

राजाओं में श्रेष्ठ मिथिलानरेश ने आनन्दमग्न हुए पुरुषप्रवर राजा दशरथ से कहा—’नरश्रेष्ठ रघुनन्दन ! आपका स्वागत है,मेरे बड़े भाग्य, जो आप यहाँ पधारे॥९॥

पुत्रयोरुभयोः प्रीतिं लप्स्यसे वीर्यनिर्जिताम्।
दिष्ट्या प्राप्तो महातेजा वसिष्ठो भगवानृषिः॥ १०॥
सह सर्वैर्द्धिजश्रेष्ठैर्देवैरिव शतक्रतुः।

‘आप यहाँ अपने दोनों पुत्रों की प्रीति प्राप्त करेंगे, जो उन्होंने अपने पराक्रम से जीतकर पायी है। महातेजस्वी भगवान् वसिष्ठ मुनि ने भी हमारे सौभाग्य से ही यहाँ पदार्पण किया है। ये इन सभी श्रेष्ठ ब्राह्मणों के साथ वैसी ही शोभा पा रहे हैं, जैसे देवताओं के साथ इन्द्र सुशोभित होते हैं। १० १/२॥

दिष्ट्या मे निर्जिता विघ्ना दिष्ट्या मे पूजितं कुलम्॥११॥
राघवैः सह सम्बन्धाद् वीर्यश्रेष्ठैर्महाबलैः।

‘सौभाग्यसे मेरी सारी विघ्न-बाधाएँ पराजित हो गयीं। रघुकुल के महापुरुष महान् बल से सम्पन्न और पराक्रम में सबसे श्रेष्ठ होते हैं। इस कुल के साथ सम्बन्ध होने के कारण आज मेरे कुल का सम्मान बढ़ गया॥ ११ १/२॥

श्वः प्रभाते नरेन्द्र त्वं संवर्तयितुमर्हसि॥१२॥
यज्ञस्यान्ते नरश्रेष्ठ विवाहमृषिसत्तमैः।

‘नरश्रेष्ठ नरेन्द्र! कल सबेरे इन सभी महर्षियों के साथ उपस्थित हो मेरे यज्ञ की समाप्ति के बाद आप श्रीराम के विवाह का शुभकार्य सम्पन्न करें’॥ १२ १/२॥

तस्य तद् वचनं श्रुत्वा ऋषिमध्ये नराधिपः॥ १३॥
वाक्यं वाक्यविदां श्रेष्ठः प्रत्युवाच महीपतिम्।

ऋषियों की मण्डली में राजा जनक की यह बात सुनकर बोलने की कला जानने वाले विद्वानों में श्रेष्ठ एवं वाक्यमर्मज्ञ महाराज दशरथ ने मिथिलानरेश को इस प्रकार उत्तर दिया- ॥ १३ १/२॥

प्रतिग्रहो दातृवशः श्रुतमेतन्मया पुरा॥१४॥
यथा वक्ष्यसि धर्मज्ञ तत् करिष्यामहे वयम्।

‘धर्मज्ञ! मैंने पहले से यह सुन रखा है कि प्रतिग्रह दाता के अधीन होता है अतः आप जैसा कहेंगे, हम वैसा ही करेंगे’। १४ १/२ ॥

तद् धर्मिष्ठं यशस्यं च वचनं सत्यवादिनः॥१५॥
श्रुत्वा विदेहाधिपतिः परं विस्मयमागतः।

सत्यवादी राजा दशरथ का वह धर्मानुकूल तथा यशोवर्धक वचन सुनकर विदेहराज जनक को बड़ा विस्मय हुआ॥ १५ १/२ ॥

ततः सर्वे मुनिगणाः परस्परसमागमे॥१६॥
हर्षेण महता युक्तास्तां रात्रिमवसन् सुखम्।

तदनन्तर सभी महर्षि एक-दूसरे से मिलकर बहुत प्रसन्न हुए और सबने बड़े सुख से वह रात बितायी। १६ १/२॥

अथ रामो महातेजा लक्ष्मणेन समं ययौ॥ १७॥
विश्वामित्रं पुरस्कृत्य पितुः पादावुपस्पृशन्।

इधर महातेजस्वी श्रीराम विश्वामित्रजी को आगे करके लक्ष्मण के साथ पिताजी के पास गये और उनके चरणों का स्पर्श किया। १७ १/२ ॥

राजा च राघवौ पुत्रौ निशाम्य परिहर्षितः॥१८॥
उवास परमप्रीतो जनकेनाभिपूजितः।

राजा दशरथ ने भी जनक के द्वारा आदर-सत्कार पाकर बड़ी प्रसन्नता का अनुभव किया तथा अपने दोनों रघुकुल-रत्न पुत्रों को सकुशल देखकर उन्हें अपार हर्ष हुआ। वे रात में बड़े सुख से वहाँ रहे॥ १८ १/२॥

जनकोऽपि महातेजाः क्रिया धर्मेण तत्त्ववित्।
यज्ञस्य च सुताभ्यां च कृत्वा रात्रिमुवास ह॥ १९॥

महातेजस्वी तत्त्वज्ञ राजा जनक ने भी धर्म के अनुसार यज्ञ कार्य सम्पन्न किया तथा अपनी दोनों कन्याओं के लिये मंगलाचार का सम्पादन करके सुख से वह रात्रि व्यतीत की॥१९॥

सर्ग ७१

ततः प्रभाते जनकः कृतकर्मा महर्षिभिः ।
उवाच वाक्यं वाक्यज्ञः शतानन्दं पुरोहितम्॥१॥

तदनन्तर जब सबेरा हुआ और राजा जनक महर्षियों के सहयोग से अपना यज्ञ-कार्य सम्पन्न कर चुके, तब वे वाक्यमर्मज्ञ नरेश अपने पुरोहित शतानन्दजी से इस प्रकार बोले- ॥१॥ 

भ्राता मम महातेजा वीर्यवानतिधार्मिकः।
कुशध्वज इति ख्यातः पुरीमध्यवसच्छुभाम्॥२॥
वार्याफलकपर्यन्तां पिबन्निक्षुमती नदीम्।
सांकाश्यां पुण्यसंकाशां विमानमिव पुष्पकम्॥ ३॥

‘ब्रह्मन्! मेरे महातेजस्वी और पराक्रमी भाई कुशध्वज जो अत्यन्त धर्मात्मा हैं, इस समय इक्षुमती नदी का जल पीते हुए उसके किनारे बसी हुई कल्याणमयी सांकाश्या नगरी में निवास करते हैं। उसके चारों ओर के परकोटों की रक्षा के लिये शत्रुओं के निवारण में समर्थ बड़े-बड़े यन्त्र लगाये गये हैं। वह पुरी पुष्पक विमान के समान विस्तृत तथा पुण्य से उपलब्ध होने वाले स्वर्गलोक के सदृश सुन्दर है॥२-३॥

तमहं द्रष्टुमिच्छामि यज्ञगोप्ता स मे मतः।
प्रीतिं सोऽपि महातेजा इमां भोक्ता मया सह॥ ४॥

‘वहाँ रहने वाले अपने भाई को इस शुभ अवसरपर मैं यहाँ उपस्थित देखना चाहता हूँ; क्योंकि मेरी दृष्टि में वे मेरे इस यज्ञ के संरक्षक हैं। महातेजस्वी कुशध्वज भी मेरे साथ श्रीसीताराम के विवाह सम्बन्धी इस मंगल समारोह का सुख उठावेंगे’॥ ४॥

एवमुक्ते तु वचने शतानन्दस्य संनिधौ।
आगताः केचिदव्यग्रा जनकस्तान् समादिशत्॥

राजा के इस प्रकार कहने पर शतानन्दजी के समीप कुछ धीर स्वभाव के पुरुष आये और राजा जनक ने उन्हें पूर्वोक्त आदेश सुनाया॥५॥

शासनात् तु नरेन्द्रस्य प्रययुः शीघ्रवाजिभिः।
समानेतुं नरव्याघ्रं विष्णुमिन्द्राज्ञया यथा॥६॥

राजा की आज्ञा से वे श्रेष्ठ दूत तेज चलने वाले घोड़ों पर सवार हो पुरुषसिंह कुशध्वज को बुला लाने के लिये चल दिये। मानो इन्द्र की आज्ञा से उनके दूत भगवान् विष्णु को बुलाने जा रहे हों॥६॥

सांकाश्यां ते समागम्य ददृशुश्च कुशध्वजम्।
न्यवेदयन् यथावृत्तं जनकस्य च चिन्तितम्॥७॥

सांकाश्यामें पहुँचकर उन्होंने कुशध्वजसे भेंट की और मिथिलाका यथार्थ समाचार एवं जनकका अभिप्राय भी निवेदन किया॥७॥

तवृत्तं नृपतिः श्रुत्वा दूतश्रेष्ठैर्महाजवैः।
आज्ञया तु नरेन्द्रस्य आजगाम कुशध्वजः॥८॥

उन महावेगशाली श्रेष्ठ दूतों के मुख से मिथिला का सारा वृत्तान्त सुनकर राजा कुशध्वज महाराज जनक की आज्ञा के अनुसार मिथिला में आये॥८॥

स ददर्श महात्मानं जनकं धर्मवत्सलम्।
सोऽभिवाद्य शतानन्दं जनकं चातिधार्मिकम्॥
राजाहँ परमं दिव्यमासनं सोऽध्यरोहत।

वहाँ उन्होंने धर्मवत्सल महात्मा जनक का दर्शन किया फिर शतानन्दजी तथा अत्यन्त धार्मिक जनक को प्रणाम करके वे राजा के योग्य परम दिव्य सिंहासन पर विराजमान हुए ॥ ९ १/२ ॥

उपविष्टावुभौ तौ तु भ्रातरावमितद्युती॥१०॥
प्रेषयामासतुर्वीरौ मन्त्रि श्रेष्ठं सुदामनम्।।
गच्छ मन्त्रिपते शीघ्रमिक्ष्वाकुममितप्रभम्॥११॥
आत्मजैः सह दुर्धर्षमानयस्व समन्त्रिणम्।

सिंहासन पर बैठे हुए उन दोनों अमिततेजस्वी वीरबन्धुओं ने मन्त्रिप्रवर सुदामन को भेजा और कहा —’मन्त्रिवर! आप शीघ्र ही अमिततेजस्वी इक्ष्वाकु कुलभूषण महाराज दशरथ के पास जाइये और पुत्रों तथा मन्त्रियों सहित उन दुर्जय नरेश को यहाँ बुला लाइये’ ॥ १०-११ १/२॥

औपकार्यां स गत्वा तु रघूणां कुलवर्धनम्॥ १२॥
ददर्श शिरसा चैनमभिवाद्येदमब्रवीत्।

आज्ञा पाकर मन्त्री सुदामन महाराज दशरथ के खेमे में जाकर रघुकुलकी कीर्ति बढ़ाने वाले उननरेश से मिले और मस्तक झुकाकर उन्हें प्रणाम करने के पश्चात् इस प्रकार बोले- ॥ १२ १/२॥

अयोध्याधिपते वीर वैदेहो मिथिलाधिपः॥१३॥
स त्वां द्रष्टं व्यवसितः सोपाध्यायपुरोहितम्।

‘वीर अयोध्यानरेश! मिथिलापति विदेहराज जनक इस समय उपाध्याय और पुरोहित सहित आपका दर्शन करना चाहते हैं ॥ १३ १/२ ॥

मन्त्रि श्रेष्ठवचः श्रुत्वा राजा सर्षिगणस्तथा॥१४॥
सबन्धुरगमत् तत्र जनको यत्र वर्तते।

मन्त्रिवर सुदामन की बात सुनकर राजा दशरथ ऋषियों और बन्धु-बान्धवों के साथ उस स्थानपर गये जहाँ राजा जनक विद्यमान थे॥ १४ १/२॥

राजा च मन्त्रिसहितः सोपाध्यायः सबान्धवः॥ १५॥
वाक्यं वाक्यविदां श्रेष्ठो वैदेहमिदमब्रवीत्।

मन्त्री, उपाध्याय और भाई-बन्धुओं सहित राजा दशरथ, जो बोलने की कला जानने वाले विद्वानों में श्रेष्ठथे, विदेहराज जनक से इस प्रकार बोले- ॥ १५ १/२॥

विदितं ते महाराज इक्ष्वाकुकुलदैवतम्॥१६॥
वक्ता सर्वेषु कृत्येषु वसिष्ठो भगवानृषिः।

‘महाराज! आपको तो विदित ही होगा कि इक्ष्वाकुकुल के देवता ये महर्षि वसिष्ठजी हैं। हमारे यहाँ सभी कार्यों में ये भगवान् वसिष्ठ मुनि ही कर्तव्य का उपदेश करते हैं और इन्हीं की आज्ञा का पालन किया जाता है ॥ १६ १/२ ॥

विश्वामित्राभ्यनुज्ञातः सह सर्वैर्महर्षिभिः॥१७॥
एष वक्ष्यति धर्मात्मा वसिष्ठो मे यथाक्रमम्।

‘यदि सम्पूर्ण महर्षियों सहित विश्वामित्रजी की आज्ञा हो तो ये धर्मात्मा वसिष्ठ ही पहले मेरी कुल परम्परा का क्रमशः परिचय देंगे’ ।। १७ १/२॥

तूष्णीभूते दशरथे वसिष्ठो भगवानृषिः॥१८॥
उवाच वाक्यं वाक्यज्ञो वैदेहं सपुरोधसम्।

यों कहकर जब राजा दशरथ चुप हो गये, तब वाक्यवेत्ता भगवान् वसिष्ठ मुनि पुरोहित सहित विदेहराज से इस प्रकार बोले- ॥ १८ १/२॥

अव्यक्तप्रभवो ब्रह्मा शाश्वतो नित्य अव्ययः॥
तस्मान्मरीचिः संजज्ञे मरीचेः कश्यपः सुतः।
विवस्वान् कश्यपाज्जज्ञे मनुर्वैवस्वतः स्मृतः॥ २०॥

‘ब्रह्माजी की उत्पत्ति का कारण अव्यक्त है—ये स्वयम्भू हैं, नित्य, शाश्वत और अविनाशी हैं। उनसे मरीचि की उत्पत्ति हुई मरीचि के पुत्र कश्यप हैं, कश्यप से विवस्वान् का और विवस्वान् से वैवस्वत मनु का जन्म हुआ॥ १९-२० ॥

मनुः प्रजापतिः पूर्वमिक्ष्वाकुश्च मनोः सुतः।
तमिक्ष्वाकुमयोध्यायां राजानं विद्धि पूर्वकम्॥ २१॥

‘मनु पहले प्रजापति थे, उनसे इक्ष्वाकु नामक पुत्र हुआ। उन इक्ष्वाकु को ही आप अयोध्याके प्रथम राजा समझें॥ २१॥

इक्ष्वाकोस्तु सुतः श्रीमान् कुक्षिरित्येव विश्रुतः।
कुक्षेरथात्मजः श्रीमान् विकक्षिरुदपद्यत॥२२॥

‘इक्ष्वाकु के पुत्र का नाम कुक्षि था। वे बड़े तेजस्वी थे। कुक्षि से विकुक्षि नामक कान्तिमान् पुत्र का जन्म हुआ॥ २२॥

विकुक्षेस्तु महातेजा बाणः पुत्रः प्रतापवान्।
बाणस्य तु महातेजा अनरण्यः प्रतापवान्॥२३॥

‘विकुक्षि के पुत्र महातेजस्वी और प्रतापी बाण हुए। बाण के पुत्र का नाम अनरण्य था। वे भी बड़े तेजस्वी और प्रतापी थे॥ २३॥

अनरण्यात् पृथुर्जज्ञे त्रिशङ्कस्तु पृथोरपि।
त्रिशङ्कोरभवत् पुत्रो धुन्धुमारो महायशाः॥२४॥

‘अनरण्यसे पृथु और पृथुसे त्रिशंकुका जन्म हुआ। त्रिशंकुके पुत्र महायशस्वी धुन्धुमार थे॥२४॥

धुन्धुमारान्महातेजा युवनाश्वो महारथः।
युवनाश्वसुतश्चासीन्मान्धाता पृथिवीपतिः॥ २५॥

‘धुन्धुमार से महातेजस्वी महारथी युवनाश्व का जन्म हुआ। युवनाश्व के पुत्र मान्धाता हुए, जो समस्त भूमण्डल के स्वामी थे॥ २५ ॥

मान्धातुस्तु सुतः श्रीमान् सुसन्धिरुदपद्यत।
सुसन्धेरपि पुत्रौ द्वौ ध्रुवसन्धिः प्रसेनजित्॥२६॥

‘मान्धाता से सुसन्धि नामक कान्तिमान् पुत्र का जन्म हुआ। सुसन्धि के भी दो पुत्र हुए-ध्रुवसन्धि और प्रसेनजित्॥ २६॥

यशस्वी ध्रुवसन्धेस्तु भरतो नाम नामतः।
भरतात् तु महातेजा असितो नाम जायत॥२७॥

‘ध्रुवसन्धि से भरत नामक यशस्वी पुत्र का जन्म हुआ। भरत से महातेजस्वी असित की उत्पत्ति हुई। २७॥

यस्यैते प्रतिराजान उदपद्यन्त शत्रवः।
हैहयास्तालजङ्घाश्च शूराश्च शशबिन्दवः॥ २८॥

‘राजा असित के साथ हैहय, तालजङ्घ और शशबिन्दु-इन तीन राजवंशों के लोग शत्रुता रखने लगे थे॥२८॥

तांश्च स प्रतियुध्यन् वै युद्धे राजा प्रवासितः।
हिमवन्तमुपागम्य भार्याभ्यां सहितस्तदा ॥२९॥

‘युद्ध में इन तीनों शत्रुओं का सामना करते हुए राजा असित प्रवासी हो गये। वे अपनी दो रानियों के साथ हिमालय पर आकर रहने लगे॥ २९ ॥

असितोऽल्पबलो राजा कालधर्ममुपेयिवान्।
ढे चास्य भार्ये गर्भिण्यौ बभूवतुरिति श्रुतिः॥ ३०॥

‘राजा असित के पास बहुत थोड़ी सेना शेष रह गयी थी। वे हिमालय पर ही मृत्यु को प्राप्त हो गये। उस समय उनकी दोनों रानियाँ गर्भवती थीं, ऐसा सुना गया है॥ ३०॥

एका गर्भविनाशार्थं सपत्न्यै सगरं ददौ।

‘उनमें से एक रानी ने अपनी सौत का गर्भ नष्ट करने के लिये उसे विष युक्त भोजन दे दिया। ३० १/२॥

ततः शैलवरे रम्ये बभूवाभिरतो मुनिः॥३१॥
भार्गवश्च्यवनो नाम हिमवन्तमुपाश्रितः।
तत्र चैका महाभागा भार्गवं देववर्चसम्॥ ३२॥
ववन्दे पद्मपत्राक्षी कांक्षन्ती सुतमुत्तमम्।
तमृषिं साभ्युपागम्य कालिन्दी चाभ्यवादयत्॥

‘उस समय उस रमणीय एवं श्रेष्ठ पर्वत पर भृगुकुल में उत्पन्न हुए महामुनि च्यवन तपस्या में लगे हुए थे। हिमालय पर ही उनका आश्रम था। उन दोनों रानियों में से एक (जिसे जहर दिया गया था) कालिन्दी नाम से प्रसिद्ध थी। विकसित कमलदल के समान नेत्रों वाली महाभागा कालिन्दी एक उत्तम पुत्र पाने की इच्छा रखती थी। उसने देवतुल्य तेजस्वी भृगुनन्दन च्यवन के पास जाकर उन्हें प्रणाम किया। ३१-३३॥

स तामभ्यवदद् विप्रः पुत्रेप्सुं पुत्रजन्मनि।
तव कुक्षौ महाभागे सुपुत्रः सुमहाबलः॥३४॥
महावीर्यो महातेजा अचिरात् संजनिष्यति।
गरेण सहितः श्रीमान् मा शुचः कमलेक्षणे॥ ३५॥

‘उस समय ब्रह्मर्षि च्यवन ने पुत्रकी अभिलाषा रखने वाली कालिन्दी से पुत्र-जन्म के विषयमें कहा’महाभागे! तुम्हारे उदर में एक महान् बलवान्, महातेजस्वी और महापराक्रमी उत्तम पुत्र है, वह कान्तिमान् बालक थोड़े ही दिनों में गर (जहर) के साथ उत्पन्न होगा। अतः कमललोचने! तुम पुत्र के लिये चिन्ता न करो’॥

च्यवनं च नमस्कृत्य राजपुत्री पतिव्रता।
पत्या विरहिता तस्मात् पुत्रं देवी व्यजायत॥३६॥

‘वह विधवा राजकुमारी कालिन्दी बड़ी पतिव्रता थी। महर्षि च्यवन को नमस्कार करके वह देवी अपने आश्रम पर लौट आयी। फिर समय आने पर उसने एक पुत्र को जन्म दिया॥ ३६॥

सपत्न्या तु गरस्तस्यै दत्तो गर्भजिघांसया।
सह तेन गरेणैव संजातः सगरोऽभवत्॥३७॥

‘उसकी सौत ने उसके गर्भ को नष्ट कर देने के लिये जो गर (विष) दिया था, उसके साथ ही उत्पन्न होने के कारण वह राजकुमार ‘सगर’ नाम से विख्यात हुआ॥ ३७॥

सगरस्यासमञ्जस्तु असमञ्जादथांशुमान्।
दिलीपोंऽशुमतः पुत्रो दिलीपस्य भगीरथः॥ ३८॥

‘सगर के पुत्र असमंज और असमंज के पुत्र अंशुमान् हुए। अंशुमान् के पुत्र दिलीप और दिलीप के पुत्र भगीरथ हुए॥ ३८॥

भगीरथात् ककुत्स्थश्च ककुत्स्थाच्च रघुस्तथा।
रघोस्तु पुत्रस्तेजस्वी प्रवृद्धः पुरुषादकः॥३९॥

‘भगीरथ से ककुत्स्थ और ककुत्स्थ से रघु का जन्म हुआ। रघु के तेजस्वी पुत्र प्रवृद्ध हुए, जो शाप से राक्षस हो गये थे॥ ३९॥

कल्माषपादोऽप्यभवत् तस्माज्जातस्तु शङ्खणः।
सुदर्शनः शङ्खणस्य अग्निवर्णः सुदर्शनात्॥ ४०॥

‘वे ही कल्माषपाद नाम से भी प्रसिद्ध हुए थे। उनसे शङ्खण नामक पुत्र का जन्म हुआ था। शङ्खण के पुत्र सुदर्शन और सुदर्शन के अग्निवर्ण हुए॥ ४०॥

शीघ्रगस्त्वग्निवर्णस्य शीघ्रगस्य मरुः सुतः।
मरोः प्रशुश्रुकस्त्वासीदम्बरीषः प्रशुश्रुकात्॥ ४१॥

‘अग्निवर्ण के शीघ्रग और शीघ्रग के पुत्र मरु थे। मरु से प्रशुश्रुक और प्रशुश्रुक से अम्बरीष की उत्पत्ति हुई॥

अम्बरीषस्य पुत्रोऽभून्नहुषश्च महीपतिः।
नहुषस्य ययातिस्तु नाभागस्तु ययातिजः॥४२॥
नाभागस्य बभूवाज अजाद् दशरथोऽभवत्।
अस्माद् दशरथाज्जातौ भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ॥ ४३॥

‘अम्बरीष के पुत्र राजा नहुष हुए। नहुष के ययाति और ययाति के पुत्र नाभाग थे। नाभाग के अज हुए,अज से दशरथका जन्म हुआ। इन्हीं महाराज दशरथ से ये दोनों भाई श्रीराम और लक्ष्मण उत्पन्न हुए हैं। ४२-४३॥
आदिवंशविशुद्धानां राज्ञां परमधर्मिणाम्।

इक्ष्वाकुकुलजातानां वीराणां सत्यवादिनाम्॥ ४४॥

‘इक्ष्वाकुकुल में उत्पन्न हुए राजाओं का वंश आदि काल से ही शुद्ध रहा है। ये सब-के-सब परम धर्मात्मा, वीर और सत्यवादी होते आये हैं। ४४ ॥

रामलक्ष्मणयोरर्थे त्वत्सुते वरये नृप।
सदृशाभ्यां नरश्रेष्ठ सदृशे दातुमर्हसि ॥४५॥

‘नरश्रेष्ठ ! नरेश्वर ! इसी इक्ष्वाकुकुल में उत्पन्न हुए श्रीराम और लक्ष्मण के लिये मैं आपकी दो कन्याओं का वरण करता हूँ। ये आपकी कन्याओं के योग्य हैं और आपकी कन्याएँ इनके योग्य। अतः आप इन्हें कन्यादान करें’॥ ४५ ॥

सर्ग ७१

एवं ब्रुवाणं जनकः प्रत्युवाच कृताञ्जलिः।
श्रोतुमर्हसि भद्रं ते कुलं नः परिकीर्तितम्॥१॥
प्रदाने हि मुनिश्रेष्ठ कुलं निरवशेषतः।
वक्तव्यं कुलजातेन तन्निबोध महामते॥२॥

महर्षि वसिष्ठ जब इस प्रकार इक्ष्वाकुवंश का परिचय दे चुके, तब राजा जनक ने हाथ जोड़कर उनसे कहा—’मुनिश्रेष्ठ! आपका भला हो। अब हम भी अपने कुल का परिचय दे रहे हैं, सुनिये। महामते! कुलीन पुरुष के लिये कन्यादान के समय अपने कुल का पूर्ण रूपेण परिचय देना आवश्यक है; अतः आप सुनने की कृपा करें॥ १-२॥

राजाभूत् त्रिषु लोकेषु विश्रुतः स्वेन कर्मणा।
निमिः परमधर्मात्मा सर्वसत्त्ववतां वरः॥३॥

‘प्राचीन काल में निमि नामक एक परम धर्मात्मा राजा हुए हैं, जो सम्पूर्ण धैर्यशाली महापुरुषों में श्रेष्ठ तथा अपने पराक्रम से तीनों लोकों में विख्यात थे॥३॥

तस्य पुत्रो मिथिर्नाम जनको मिथिपुत्रकः।
प्रथमो जनको राजा जनकादप्युदावसुः॥४॥

‘उनके मिथि नामक एक पुत्र हुआ। मिथि के पुत्र का नाम जनक हुआ। ये ही हमारे कुल में पहले जनक हुए हैं (इन्हीं के नाम पर हमारे वंश का प्रत्येक राजा ‘जनक’ कहलाता है)। जनक से उदावसु का जन्म हुआ॥४॥

उदावसोस्तु धर्मात्मा जातो वै नन्दिवर्धनः।
नन्दिवर्धसुतः शूरः सुकेतुर्नाम नामतः॥५॥
‘उदावसुसे धर्मात्मा नन्दिवर्धन उत्पन्न हुए।
नन्दिवर्धनके शूरवीर पुत्रका नाम सुकेतु हुआ॥ ५॥
सुकेतोरपि धर्मात्मा देवरातो महाबलः।
देवरातस्य राजर्षे—हद्रथ इति स्मृतः॥६॥

‘सुकेतु के भी देवरात नामक पुत्र हुआ। देवरात महान् बलवान् और धर्मात्मा थे। राजर्षि देवरात के बृहद्रथ नाम से प्रसिद्ध एक पुत्र हुआ॥६॥

बृहद्रथस्य शूरोऽभून्महावीरः प्रतापवान्।
महावीरस्य धृतिमान् सुधृतिः सत्यविक्रमः॥७॥

‘बृहद्रथके पुत्र महावीर हुए, जो शूर और प्रतापी थे। महावीर के सुधृति हुए, जो धैर्यवान् और सत्यपराक्रमी थे॥७॥

सुधृतेरपि धर्मात्मा धृष्टकेतुः सुधार्मिकः।
धृष्टकेतोश्च राजर्षेर्हर्यश्व इति विश्रुतः॥८॥

‘सुधृति के भी धर्मात्मा धृष्टकेतु हुए, जो परम धार्मिक थे।राजर्षि धृष्टकेतु का पुत्र हर्यश्व नाम से विख्यात हुआ॥ ८॥

हर्यश्वस्य मरुः पुत्रो मरोः पुत्रः प्रतीन्धकः।
प्रतीन्धकस्य धर्मात्मा राजा कीर्तिरथः सुतः॥९॥

‘हर्यश्व के पुत्र मरु, मरु के पुत्र प्रतीन्धक तथा प्रतीन्धक के पुत्र धर्मात्मा राजा कीर्तिरथ हुए॥९॥

पुत्रः कीर्तिरथस्यापि देवमीढ इति स्मृतः।
देवमीढस्य विबुधो विबुधस्य महीध्रकः॥१०॥

‘कीर्तिरथ के पुत्र देवमीढ नाम से विख्यात हुए। देवमीढ के विबुध और विबुध के पुत्र महीध्रक हुए॥ १०॥

महीध्रकसुतो राजा कीर्तिरातो महाबलः।
कीर्तिरातस्य राजर्षेर्महारोमा व्यजायत॥११॥

‘महीध्रक के पुत्र महाबली राजा कीर्तिरात हुए। राजर्षि कीर्तिरात के महारोमा नामक पुत्र उत्पन्न हुआ॥

महारोम्णस्तु धर्मात्मा स्वर्णरोमा व्यजायत।
स्वर्णरोम्णस्तु राजर्षेईस्वरोमा व्यजायत॥१२॥

‘महारोमा से धर्मात्मा स्वर्णरोमा का जन्म हुआ। राजर्षि स्वर्णरोमा से ह्रस्वरोमा उत्पन्न हुए॥ १२ ॥

तस्य पुत्रद्वयं राज्ञो धर्मज्ञस्य महात्मनः।
ज्येष्ठोऽहमनुजो भ्राता मम वीरः कुशध्वजः॥ १३॥

‘धर्मज्ञ महात्मा राजा ह्रस्वरोमा के दो पुत्र उत्पन्न हए, जिनमें ज्येष्ठ तो मैं ही हूँ और कनिष्ठ मेरा छोटा भाई वीर कुशध्वज है॥१३॥

मां तु ज्येष्ठं पिता राज्ये सोऽभिषिच्य पिता मम।
कुशध्वजं समावेश्य भारं मयि वनं गतः॥१४॥

‘मेरे पिता मुझ ज्येष्ठ पुत्र को राज्य पर अभिषिक्त करके कुशध्वज का सारा भार मुझे सौंपकर वन में चले गये॥

वृद्धे पितरि स्वर्याते धर्मेण धुरमावहम्।
भ्रातरं देवसंकाशं स्नेहात् पश्यन् कुशध्वजम्॥

‘वृद्ध पिता के स्वर्गगामी हो जानेपर अपने देवतुल्य भाई कुशध्वज को स्नेह-दृष्टि से देखता हुआ मैं इस राज्यका भार धर्म के अनुसार वहन करने लगा॥ १५ ॥

कस्यचित्त्वथ कालस्य सांकाश्यादागतः पुरात्।
सुधन्वा वीर्यवान् राजा मिथिलामवरोधकः॥

‘कुछ काल के अनन्तर पराक्रमी राजा सुधन्वा ने सांकाश्य नगर से आकर मिथिला को चारों ओर से घेर लिया॥१६॥

स च मे प्रेषयामास शैवं धनुरनुत्तमम्।
सीता च कन्या पद्माक्षी मह्यं वै दीयतामिति॥ १७॥

‘उसने मेरे पास दूत भेजकर कहलाया कि ‘तुम शिवजी के परम उत्तम धनुष तथा अपनी कमलनयनी कन्या सीता को मेरे हवाले कर दो’ ॥ १७ ॥

तस्याप्रदानान्महर्षे युद्धमासीन्मया सह।
स हतोऽभिमुखो राजा सुधन्वा तु मया रणे॥ १८॥

‘महर्षे! मैंने उसकी माँग पूरी नहीं की इसलिये मेरे साथ उसका युद्ध हुआ। उस संग्राम में सम्मुखयुद्ध करता हुआ राजा सुधन्वा मेरे हाथ से मारा गया। १८॥

निहत्य तं मुनिश्रेष्ठ सुधन्वानं नराधिपम्।
सांकाश्ये भ्रातरं शूरमभ्यषिञ्चं कुशध्वजम्॥

‘मुनिश्रेष्ठ! राजा सुधन्वा का वध करके मैंने सांकाश्य नगर के राज्य पर अपने शूरवीर भ्राता कुशध्वज को अभिषिक्त कर दिया। १९॥

कनीयानेष मे भ्राता अहं ज्येष्ठो महामुने।
ददामि परमप्रीतो वध्वौ ते मुनिपुंगव॥२०॥

‘महामुने! ये मेरे छोटे भाई कुशध्वज हैं और मैं इनका बड़ा भाई हूँ। मुनिवर! मैं बड़ी प्रसन्नता के साथ आपको दो बहुएँ प्रदान करता हूँ॥ २० ॥

सीतां रामाय भद्रं ते ऊर्मिलां लक्ष्मणाय वै।
वीर्यशुल्कां मम सुतां सीतां सुरसुतोपमाम्॥२१॥
द्वितीयामूर्मिलां चैव त्रिर्वदामि न संशयः।
ददामि परमप्रीतो वध्वौ ते मुनिपुंगव॥ २२॥

‘आपका भला हो ! मैं सीता को श्रीराम के लिये और ऊर्मिला को लक्ष्मणके लिये समर्पित करता हूँ। पराक्रम ही जिसको पाने का शुल्क (शर्त) था, उस देवकन्या के समान सुन्दरी अपनी प्रथम पुत्री सीता को श्रीराम के लिये तथा दूसरी पुत्री ऊर्मिला को लक्ष्मण के लिये दे रहा हूँ। मैं इस बात को तीन बार दुहराता हूँ, इसमें संशय नहीं है। मुनिप्रवर ! मैं परम प्रसन्न होकर आपको दो बहुएँ दे रहा हूँ’ ॥ २१-२२ ॥

रामलक्ष्मणयो राजन् गोदानं कारयस्व ह।
पितृकार्यं च भद्रं ते ततो वैवाहिकं कुरु॥२३॥

(वसिष्ठजीसे ऐसा कहकर राजा जनक ने महाराज दशरथ से कहा-) ‘राजन्! अब आप श्रीराम और लक्ष्मण के मंगल के लिये इनसे गोदान करवाइये, आपका कल्याण हो। नान्दीमुख श्राद्ध का कार्य भी सम्पन्न कीजिये। इसके बाद विवाह का कार्य आरम्भ कीजियेगा॥ २३॥

मघा ह्यद्य महाबाहो तृतीयदिवसे प्रभो।
फल्गुन्यामुत्तरे राजेस्तस्मिन् वैवाहिकं कुरु।
रामलक्ष्मणयोरर्थे दानं कार्यं सुखोदयम्॥२४॥

‘महाबाहो! प्रभो! आज मघा नक्षत्र है राजन् ! आज के तीसरे दिन उत्तरा-फाल्गुनी नक्षत्र में वैवाहिक कार्य कीजियेगा। आज श्रीराम और लक्ष्मण के अभ्युदय के लिये (गो, भूमि, तिल और सुवर्ण आदि का) दान कराना चाहिये; क्योंकि वह भविष्य में सुख देने वाला होता है’ ॥ २४॥

सर्ग ७२

तमुक्तवन्तं वैदेहं विश्वामित्रो महामुनिः।
उवाच वचनं वीरं वसिष्ठसहितो नृपम्॥१॥

विदेहराज जनक जब अपनी बात समाप्त कर चुके, तब वसिष्ठ सहित महामुनि विश्वामित्र उन वीर नरेश से इस प्रकार बोले- ॥१॥

अचिन्त्यान्यप्रमेयाणि कुलानि नरपुंगव।
इक्ष्वाकूणां विदेहानां नैषां तुल्योऽस्ति कश्चन॥ २॥

‘नरश्रेष्ठ ! इक्ष्वाकु और विदेह दोनों ही राजाओं के वंश अचिन्तनीय हैं। दोनों के ही प्रभाव की कोई सीमा नहीं है। इन दोनों की समानता करने वाला दूसरा कोई राजवंश नहीं है॥२॥

सदृशो धर्मसम्बन्धः सदृशो रूपसम्पदा।
रामलक्ष्मणयो राजन् सीता चोर्मिलया सह॥३॥

‘राजन्! इन दोनों कुलों में जो यह धर्म-सम्बन्ध स्थापित होने जा रहा है, सर्वथा एक-दूसरे के योग्य है। रूप-वैभव की दृष्टि से भी समान योग्यता का है; क्योंकि ऊर्मिला सहित सीता श्रीराम और लक्ष्मण के अनुरूप है॥३॥

वक्तव्यं च नरश्रेष्ठ श्रूयतां वचनं मम।
भ्राता यवीयान् धर्मज्ञ एष राजा कुशध्वजः॥४॥
अस्य धर्मात्मनो राजन् रूपेणाप्रतिमं भुवि।
सुताद्वयं नरश्रेष्ठ पत्न्यर्थं वरयामहे ॥५॥
भरतस्य कुमारस्य शत्रुघ्नस्य च धीमतः।
वरये ते सुते राजंस्तयोरर्थे महात्मनोः॥६॥

‘नरश्रेष्ठ! इसके बाद मुझे भी कुछ कहना है; आप मेरी बात सुनिये। राजन्! आपके छोटे भाई जो ये धर्मज्ञ राजा कुशध्वज बैठे हैं, इन धर्मात्मा नरेश के भी दो कन्याएँ हैं, जो इस भूमण्डल में अनुपम सुन्दरी हैं। नरश्रेष्ठ! भूपाल! मैं आपकी उन दोनों कन्याओं का कुमार भरत और बुद्धिमान् शत्रुघ्न इन दोनों महामनस्वी राजकुमारों के लिये इनकी धर्मपत्नी बनाने के उद्देश्य से वरण करता हूँ॥ ४–६॥

पुत्रा दशरथस्येमे रूपयौवनशालिनः।
लोकपालसमाः सर्वे देवतुल्यपराक्रमाः॥७॥

‘राजा दशरथ के ये सभी पुत्र रूप और यौवन से सुशोभित, लोकपालों के समान तेजस्वी तथा देवताओं के तुल्य पराक्रमी हैं।॥ ७॥

उभयोरपि राजेन्द्र सम्बन्धेनानुबध्यताम्।
इक्ष्वाकुकुलमव्यग्रं भवतः पुण्यकर्मणः॥८॥

‘राजेन्द्र ! इन दोनों भाइयों (भरत और शत्रुघ्न) को भी कन्यादान करके आप इस समस्त इक्ष्वाकुकुल को अपने सम्बन्ध से बाँध लीजिये। आप पुण्यकर्मा पुरुष हैं; आपके चित्त में व्यग्रता नहीं आनी चाहिये (अर्थात् आप यह सोचकर व्यग्र न हों कि ऐसे महान् सम्राट् के साथ मैं एक ही समय चार वैवाहिक सम्बन्धों का निर्वाह कैसे कर सकता हूँ।)’ ॥ ८॥

विश्वामित्रवचः श्रुत्वा वसिष्ठस्य मते तदा।
जनकः प्राञ्जलिर्वाक्यमुवाच मुनिपुंगवौ॥९॥

वसिष्ठजी की सम्मति के अनुसार विश्वामित्रजी का यह वचन सुनकर उस समय राजा जनक ने हाथ जोड़कर उन दोनों मुनिवरों से कहा- ॥९॥

कुलं धन्यमिदं मन्ये येषां तौ मुनिपुंगवौ।
सदृशं कुलसम्बन्धं यदाज्ञापयतः स्वयम्॥१०॥

‘मुनिपुंगवो! मैं अपने इस कुल को धन्य मानता हूँ, जिसे आप दोनों इक्ष्वाकुवंश के योग्य समझकर इसके साथ सम्बन्ध जोड़ने के लिये स्वयं आज्ञा दे रहे हैं।

एवं भवतु भद्रं वः कुशध्वजसुते इमे।
पत्न्यौ भजेतां सहितौ शत्रुघ्नभरतावुभौ ॥११॥

‘आपका कल्याण हो आप जैसा कहते हैं, ऐसा ही हो ये सदा साथ रहने वाले दोनों भाई भरत और शत्रुघ्न कुशध्वजकी इन दोनों कन्याओं (में से एकएक) को अपनी-अपनी धर्मपत्नी के रूपमें ग्रहण करें॥११॥

एकाला राजपुत्रीणां चतसृणां महामुने।
पाणीन् गृह्णन्तु चत्वारो राजपुत्रा महाबलाः॥ १२॥

‘महामुने! ये चारों महाबली राजकुमार एक ही दिन हमारी चारों राजकुमारियों का पाणिग्रहण करें। १२॥

उत्तरे दिवसे ब्रह्मन् फल्गुनीभ्यां मनीषिणः।
वैवाहिकं प्रशंसन्ति भगो यत्र प्रजापतिः॥१३॥

‘ब्रह्मन्! अगले दो दिन फाल्गुनी नामक नक्षत्रों से युक्त हैं। इनमें (पहले दिन तो पूर्वा फाल्गुनी है और) दूसरे दिन (अर्थात् परसों) उत्तरा फाल्गुनी नामक नक्षत्र होगा, जिसके देवता प्रजापति भग (तथा अर्यमा) हैं। मनीषी पुरुष उस नक्षत्र में वैवाहिक कार्य करना बहुत उत्तम बताते हैं ॥ १३॥

एवमुक्त्वा वचः सौम्यं प्रत्युत्थाय कृताञ्जलिः।
उभौ मुनिवरौ राजा जनको वाक्यमब्रवीत्॥ १४॥

इस प्रकार सौम्य (मनोहर) वचन कहकर राजा जनक उठकर खड़े हो गये और उन दोनों मुनिवरों से हाथ जोड़कर बोले- ॥ १४ ॥

परो धर्मः कृतो मह्यं शिष्योऽस्मि भवतोस्तथा।
इमान्यासनमुख्यानि आस्यतां मुनिपुंगवौ॥ १५॥

‘आपलोगोंने कन्याओं का विवाह निश्चित करके मेरे लिये महान् धर्मका सम्पादन कर दिया; मैं आप दोनों का शिष्य हूँ। मुनिवरो! इन श्रेष्ठ आसनों पर आप दोनों विराजमान हों॥ १५॥

यथा दशरथस्येयं तथायोध्या पुरी मम।
प्रभुत्वे नास्ति संदेहो यथार्ह कर्तुमर्हथ॥१६॥

‘आपके लिये जैसी राजा दशरथ की अयोध्या है, वैसी ही यह मेरी मिथिलापुरी भी है। आपका इस पर पूरा अधिकार है, इसमें संदेह नहीं; अतः आप हमें यथायोग्य आज्ञा प्रदान करते रहें’॥१६॥

तथा ब्रुवति वैदेहे जनके रघुनन्दनः।
राजा दशरथो हृष्टः प्रत्युवाच महीपतिम्॥१७॥

विदेहराज जनक के ऐसा कहने पर रघुकुल का आनन्द बढ़ाने वाले राजा दशरथ ने प्रसन्न होकर उन मिथिला नरेश को इस प्रकार उत्तर दिया- ॥ १७ ॥

युवामसंख्येयगुणौ भ्रातरौ मिथिलेश्वरौ।
ऋषयो राजसङ्घाश्च भवद्भयामभिपूजिताः॥१८॥

‘मिथिलेश्वर! आप दोनों भाइयों के गुण असंख्य हैं; आप लोगों ने ऋषियों तथा राज समूहों का भलीभाँति सत्कार किया है॥ १८॥

स्वस्ति प्राप्नुहि भद्रं ते गमिष्यामः स्वमालयम्।
श्राद्धकर्माणि विधिवद्विधास्य इति चाब्रवीत्॥ १९॥

‘आपका कल्याण हो, आप मंगल के भागी हों अब हम अपने विश्रामस्थान को जायँगे। वहाँ जाकर मैं विधिपूर्वक नान्दीमुखश्राद्ध का कार्य सम्पन्न करूँगा।’ यह बात भी राजा दशरथ ने कही॥ १९ ॥

तमापृष्ट्वा नरपतिं राजा दशरथस्तदा।
मुनीन्द्रौ तौ पुरस्कृत्य जगामाशु महायशाः॥ २०॥

तदनन्तर मिथिला नरेश की अनुमति ले महायशस्वी राजा दशरथ मुनिश्रेष्ठ विश्वामित्र और वसिष्ठ को आगे करके तुरंत अपने आवास स्थान पर चले गये॥ २० ॥

स गत्वा निलयं राजा श्राद्धं कृत्वा विधानतः।
प्रभाते काल्यमुत्थाय चक्रे गोदानमुत्तमम्॥ २१॥

डेरे पर जाकर राजा दशरथ ने (अपराह्नकालमें) विधिपूर्वक आभ्युदयिक श्राद्ध सम्पन्न किया। तत्पश्चात् (रात बीतने पर) प्रातःकाल उठकर राजा ने तत्कालोचित उत्तम गोदान-कर्म किया॥ २१॥

गवां शतसहस्रं च ब्राह्मणेभ्यो नराधिपः।
एकैकशो ददौ राजा पुत्रानुद्दिश्य धर्मतः॥ २२॥

राजा दशरथ ने अपने एक-एक पुत्र के मंगल के लिये धर्मानुसार एक-एक लाख गौएँ ब्राह्मणों को दान की॥ २२॥

सुवर्णशृङ्ग्यः सम्पन्नाः सवत्साः कांस्यदोहनाः।
गवां शतसहस्राणि चत्वारि पुरुषर्षभः॥२३॥
वित्तमन्यच्च सुबहु द्विजेभ्यो रघुनन्दनः।
ददौ गोदानमुद्दिश्य पुत्राणां पुत्रवत्सलः॥२४॥

उन सबके सींग सोने से मढ़े हुए थे। उन सबके साथ बछड़े और काँसे के दुग्धपात्र थे। इस प्रकार पुत्रवत्सल रघुकुलनन्दन पुरुषशिरोमणि राजा दशरथ ने चार लाख गौओं का दान किया तथा और भी बहुत-सा धन पुत्रों के लिये गोदान के उद्देश्य से ब्राह्मणों को दिया॥ २३-२४॥

स सुतैः कृतगोदानैर्वृतः सन्नृपतिस्तदा।
लोकपालैरिवाभाति वृतः सौम्यः प्रजापतिः॥ २५॥

गोदान-कर्म सम्पन्न करके आये हुए पुत्रों से घिरे हुए राजा दशरथ उस समय लोकपालों से घिरकर बैठे हुए शान्तस्वभाव प्रजापति ब्रह्मा के समान शोभा पा रहे थे॥ २५ ॥

सर्ग ७३

यस्मिंस्तु दिवसे राजा चक्रे गोदानमुत्तमम्।
तस्मिंस्तु दिवसे वीरो युधाजित् समुपेयिवान्॥ १॥
पुत्रः केकयराजस्य साक्षाद्भरतमातुलः।
दृष्ट्वा पृष्ट्वा च कुशलं राजानमिदमब्रवीत्॥२॥

राजा दशरथ ने जिस दिन अपने पुत्रों के विवाह के निमित्त उत्तम गोदान किया, उसी दिन भरत के सगे मामा केकय राजकुमार वीर युधाजित् वहाँ आ पहुँचे। उन्होंने महाराज का दर्शन करके कुशल-मंगल पूछा और इस प्रकार कहा- ॥ १-२॥

केकयाधिपती राजा स्नेहात् कुशलमब्रवीत्।
येषां कुशलकामोऽसि तेषां सम्प्रत्यनामयम्॥३॥
स्वस्रीयं मम राजेन्द्र द्रष्टकामो महीपतिः।
तदर्थमुपयातोऽहमयोध्यां रघुनन्दन॥४॥

‘रघुनन्दन! केकयदेश के महाराज ने बड़े स्नेह के साथ आपका कुशल-समाचार पूछा है और आप भी हमारे यहाँ के जिन-जिन लोगों की कुशलवार्ता जानना चाहते होंगे, वे सब इस समय स्वस्थ और सानन्द हैं। राजेन्द्र! केकयनरेश मेरे भान्जे भरत को देखना चाहते हैं अतः इन्हें लेने के लिये ही मैं अयोध्या आया था।

श्रुत्वा त्वहमयोध्यायां विवाहार्थं तवात्मजान्।
मिथिलामुपयातांस्तु त्वया सह महीपते॥५॥
त्वरयाभ्युपयातोऽहं द्रष्टुकामः स्वसुः सुतम्।

‘परंतु पृथ्वीनाथ! अयोध्या में यह सुनकर कि “आपके सभी पुत्र विवाह के लिये आपके साथ मिथिला पधारे हैं, मैं तुरंत यहाँ चला आया; क्योंकि मेरे मन में अपनी बहिन के बेटे को देखने की बड़ी लालसा थी’॥ ५ १/२॥

अथ राजा दशरथः प्रियातिथिमुपस्थितम्॥६॥
दृष्ट्वा परमसत्कारैः पूजनार्हमपूजयत्।

महाराज दशरथ ने अपने प्रिय अतिथि को उपस्थित देख बड़े सत्कार के साथ उनकी आवभगत की; क्योंकि वे सम्मान पाने के ही योग्य थे॥ ६ १/२॥

ततस्तामुषितो रात्रिं सह पुत्रैर्महात्मभिः॥७॥
प्रभाते पुनरुत्थाय कृत्वा कर्माणि तत्त्ववित् ।
ऋषींस्तदा पुरस्कृत्य यज्ञवाटमुपागमत्॥८॥

तदनन्तर अपने महामनस्वी पुत्रों के साथ वह रात व्यतीत करके वे तत्त्वज्ञ नरेश प्रातःकाल उठे और नित्यकर्म करके ऋषियों को आगे किये जनक की यज्ञशाला में जा पहुँचे॥ ७-८॥

युक्ते मुहूर्ते विजये सर्वाभरणभूषितैः।
भ्रातृभिः सहितो रामः कृतकौतुकमंगलः॥९॥
वसिष्ठं पुरतः कृत्वा महर्षीनपरानपि।
वसिष्ठो भगवानेत्य वैदेहमिदमब्रवीत्॥१०॥

तत्पश्चात् विवाह के योग्य विजय नामक मुहूर्त आने पर दूल्हे के अनुरूप समस्त वेश-भूषा से अलंकृत हुए भाइयों के साथ श्रीरामचन्द्रजी भी वहाँ आये। वे विवाहकालोचित मंगलाचार पूर्ण कर चुके थे तथा वसिष्ठ मुनि एवं अन्यान्य महर्षियों को आगे करके उस मण्डप में पधारे थे। उस समय भगवान् वसिष्ठ ने विदेहराज जनक के पास जाकर इस प्रकार कहा- ॥ ९-१०॥

राजा दशरथो राजन् कृतकौतुकमंगलैः।
पुत्रैर्नरवर श्रेष्ठो दातारमभिकाङ्क्षते॥११॥

‘राजन्! नरेशों में श्रेष्ठ महाराज दशरथ अपने पुत्रों का वैवाहिक सूत्र-बन्धन रूप मंगलाचार सम्पन्न करके उन सबके साथ पधारे हैं और भीतर आने के लिये दाता के आदेश की प्रतीक्षा कर रहे हैं ॥ ११॥

दातृप्रतिग्रहीतृभ्यां सर्वार्थाः सम्भवन्ति हि।
स्वधर्मं प्रतिपद्यस्व कृत्वा वैवाह्यमुत्तमम्॥१२॥

‘क्योंकि दाता और प्रतिग्रहीता (दान ग्रहण करने वाले) का संयोग होने पर ही समस्त दानधर्मो का सम्पादन सम्भव होता है; अतः आप विवाह कालोपयोगी शुभ कर्मों का अनुष्ठान करके उन्हें बुलाइये और कन्यादान रूप स्वधर्म का पालन कीजिये’ ॥ १२॥

इत्युक्तः परमोदारो वसिष्ठेन महात्मना।
प्रत्युवाच महातेजा वाक्यं परमधर्मवित्॥१३॥

महात्मा वसिष्ठ के ऐसा कहने पर परम उदार, परम धर्मज्ञ और महातेजस्वी राजा जनक ने इस प्रकार उत्तर दिया- ॥१३॥

कः स्थितः प्रतिहारो मे कस्याज्ञां सम्प्रतीक्षते।
स्वगृहे को विचारोऽस्ति यथा राज्यमिदं तव॥ १४॥
कृतकौतुकसर्वस्वा वेदिमूलमुपागताः।
मम कन्या मुनिश्रेष्ठ दीप्ता बढेरिवार्चिषः॥ १५॥

‘मुनिश्रेष्ठ! महाराज के लिये मेरे यहाँ कौन-सा पहरेदार खड़ा है। वे किसके आदेश की प्रतीक्षा करते हैं। अपने घर में आने के लिये कैसा सोच-विचार है? यह जैसे मेरा राज्य है, वैसे ही आपका है। मेरी कन्याओं का वैवाहिक सूत्र-बन्धन रूप मंगलकृत्य सम्पन्न हो चुका है। अब वे यज्ञवेदी के पास आकर बैठी हैं और अग्नि की प्रज्वलित शिखाओं के समान प्रकाशित हो रही हैं॥ १४-१५॥

सद्योऽहं त्वत्प्रतीक्षोऽस्मि वेद्यामस्यां प्रतिष्ठितः ।
अविनं क्रियतां सर्वं किमर्थं हि विलम्ब्यते॥ १६॥

‘इस समय तो मैं आपकी ही प्रतीक्षामें वेदीपर बैठा । हूँ। आप निर्विघ्नतापूर्वक सब कार्य पूर्ण कीजिये। विलम्ब किसलिये करते हैं?’ ॥ १६ ॥

तद् वाक्यं जनकेनोक्तं श्रुत्वा दशरथस्तदा।
प्रवेशयामास सुतान् सर्वानृषिगणानपि॥१७॥

वसिष्ठजी के मुख से राजा जनक की कही हुई बात सुनकर महाराज दशरथ उस समय अपने पुत्रों और सम्पूर्ण महर्षियों को महल के भीतर ले आये॥१७॥

ततो राजा विदेहानां वसिष्ठमिदमब्रवीत्।
कारयस्व ऋषे सर्वामृषिभिः सह धार्मिक॥१८॥
रामस्य लोकरामस्य क्रियां वैवाहिकी प्रभो।

तदनन्तर विदेहराज ने वसिष्ठजी से इस प्रकार कहा —’धर्मात्मा महर्षे! प्रभो! आप ऋषियों को साथ लेकर लोकाभिराम श्रीराम के विवाह की सम्पूर्ण क्रिया कराइये’॥ १८ १/२॥

तथेत्युक्त्वा तु जनकं वसिष्ठो भगवानृषिः॥१९॥
विश्वामित्रं पुरस्कृत्य शतानन्दं च धार्मिकम्।
प्रपामध्ये तु विधिवद् वेदिं कृत्वा महातपाः॥२०॥
अलंचकार तां वेदिं गन्धपुष्पैः समन्ततः।
सुवर्णपालिकाभिश्च चित्रकुम्भैश्च साङ्करैः॥ २१॥
अङ्कराढ्यैः शरावैश्च धूपपात्रैः सधूपकैः।
शङ्खपात्रैः सुवैः स्रग्भिः पात्रैरादिपूजितैः॥२२॥
लाजपूर्णैश्च पात्रीभिरक्षतैरपि संस्कृतैः।
दर्भै: समैः समास्तीर्य विधिवन्मन्त्रपूर्वकम्॥ २३॥
अग्निमाधाय तं वेद्यां विधिमन्त्रपुरस्कृतम्।
जुहावाग्नौ महातेजा वसिष्ठो मुनिपुंगवः॥२४॥

तब जनकजी से ‘बहुत अच्छा’ कहकर महातपस्वी भगवान् वसिष्ठ मुनि ने विश्वामित्र और धर्मात्मा शतानन्दजी को आगे करके विवाह-मण्डप के मध्यभाग में विधिपूर्वक वेदी बनायी और गन्ध तथा फूलों के द्वारा उसे चारों ओर से सुन्दर रूप में सजाया। साथ ही बहुत-सी सुवर्ण-पालिकाएँ, यवके अंकुरों से युक्त चित्रितकलश, अंकुर जमाये हुए सकोरे, धूपयुक्त धूपपात्र, शङ्खपात्र, सुवा, मुक्, अर्घ्य आदि पूजनपात्र, लावा (खीलों) से भरे हुए पात्र तथा धोये हुए अक्षत आदि समस्त सामग्रियों को भी यथास्थान रख दिया। तत्पश्चात् महातेजस्वी मुनिवर वसिष्ठजी ने बराबर-बराबर कुशों को वेदी के चारों ओर बिछाकर मन्त्रोच्चारण करते हुए विधिपूर्वक अग्नि-स्थापन किया और विधि को प्रधानता देते हुए मन्त्रपाठपूर्वक प्रज्वलित अग्नि में हवन किया। १९–२४ ॥

ततः सीतां समानीय सर्वाभरणभूषिताम्।
समक्षमग्नेः संस्थाप्य राघवाभिमुखे तदा ॥२५॥
अब्रवीज्जनको राजा कौसल्यानन्दवर्धनम्।
इयं सीता मम सुता सहधर्मचरी तव॥२६॥
प्रतीच्छ चैनां भद्रं ते पाणिं गृह्णीष्व पाणिना।
पतिव्रता महाभागा छायेवानुगता सदा॥२७॥

तदनन्तर राजा जनक ने सब प्रकार के आभूषणों से विभूषित सीता को ले आकर अग्नि के समक्ष श्रीरामचन्द्रजी के सामने बिठा दिया और माता कौसल्या का आनन्द बढ़ाने वाले उन श्रीराम से कहा —’रघुनन्दन! तुम्हारा कल्याण हो। यह मेरी पुत्री सीता तुम्हारी सहधर्मिणी के रूप में उपस्थित है; इसे स्वीकार करो और इसका हाथ अपने हाथ में लो। यह परम पतिव्रता, महान् सौभाग्यवती और छाया की भाँति सदा तुम्हारे पीछे चलनेवाली होगी’। २५– २७॥

इत्युक्त्वा प्राक्षिपद् राजा मन्त्रपूतं जलं तदा।
साधुसाध्विति देवानामृषीणां वदतां तदा ॥२८॥

यह कहकर राजा ने श्रीराम के हाथ में मन्त्र से पवित्र हुआ संकल्प का जल छोड़ दिया। उस समय देवताओं और ऋषियों के मुख से जनक के लिये साधुवाद सुनायी देने लगा॥ २८॥

देवदुन्दुभिनिर्घोषः पुष्पवर्षो महानभूत्।
एवं दत्त्वा सुतां सीतां मन्त्रोदकपुरस्कृताम्॥ २९॥
अब्रवीज्जनको राजा हर्षेणाभिपरिप्लुतः।
लक्ष्मणागच्छ भद्रं ते ऊर्मिलामुद्यतां मया॥३०॥
प्रतीच्छ पाणिं गृह्णीष्व मा भूत् कालस्य पर्ययः।

देवताओं के नगाड़े बजने लगे और आकाश से फूलों की बड़ी भारी वर्षा हुई। इस प्रकार मन्त्र और संकल्प के जल के साथ अपनी पुत्री सीता का दान करके हर्षमग्न हुए राजा जनक ने लक्ष्मण से कहा —’लक्ष्मण! तुम्हारा कल्याण हो, आओ, मैं ऊर्मिला को तुम्हारी सेवा में दे रहा हूँ। इसे स्वीकार करो इसका हाथ अपने हाथ में लो इसमें विलम्ब नहीं होना चाहिये’ ॥ २९-३० १/२॥

तमेवमुक्त्वा जनको भरतं चाभ्यभाषत ॥३१॥
गृहाण पाणिं माण्डव्याः पाणिना रघुनन्दन।

लक्ष्मण से ऐसा कहकर जनक ने भरत से कहा”रघुनन्दन! माण्डवी का हाथ अपने हाथ में लो’ ॥ ३१ १/२॥

शत्रुघ्नं चापि धर्मात्मा अब्रवीन्मिथिलेश्वरः॥ ३२॥
श्रुतकीर्तेर्महाबाहो पाणिं गृह्णीष्व पाणिना।
सर्वे भवन्तः सौम्याश्च सर्वे सुचरितव्रताः॥३३॥
पत्नीभिः सन्तु काकुत्स्था मा भूत् कालस्य पर्ययः।

फिर धर्मात्मा मिथिलेश ने शत्रुघ्न को सम्बोधित करके कहा—’महाबाहो! तुम अपने हाथ से श्रुतकीर्ति का पाणिग्रहण करो। तुम चारों भाई शान्तस्वभाव हो, तुम सबने उत्तम व्रत का भलीभाँति आचरण किया है। ककुत्स्थकुल के भूषणरूप तुम चारों भाई पत्नी से संयुक्त हो जाओ, इस कार्य में विलम्ब नहीं होना चाहिये’ ॥ ३२-३३ १/२॥

जनकस्य वचः श्रुत्वा पाणीन् पाणिभिरस्पृशन्॥ ३४॥
चत्वारस्ते चतसृणां वसिष्ठस्य मते स्थिताः।
अग्निं प्रदक्षिणं कृत्वा वेदिं राजानमेव च ॥ ३५॥
ऋषींश्चापि महात्मानः सहभार्या रघूद्रहाः।
यथोक्तेन ततश्चक्रुर्विवाहं विधिपूर्वकम्॥३६॥

” राजा जनक का यह वचन सुनकर उन चारों राजकुमारों ने चारों राजकुमारियों के हाथ अपने हाथ में लिये। फिर वसिष्ठजी की सम्मति से उन रघुकुलरत्न महामनस्वी राजकुमारों ने अपनी-अपनी पत्नी के साथ अग्नि, वेदी, राजा दशरथ तथा ऋषि-मुनियों की परिक्रमा की और वेदोक्त विधि के अनुसार वैवाहिक कार्य पूर्ण किया॥३४-३६॥

पुष्पवृष्टिर्महत्यासीदन्तरिक्षात् सुभास्वरा।
दिव्यदुन्दुभिनिर्घोषैर्गीतवादित्रनिःस्वनैः॥ ३७॥
ननृतुश्चाप्सरःसङ्घा गन्धर्वाश्च जगुः कलम्।
विवाहे रघुमुख्यानां तदद्भुतमदृश्यत॥३८॥

उस समय आकाश से फूलों की बड़ी भारी वर्षा हुई, जो सुहावनी लगती थी, दिव्य दुन्दुभियों की गम्भीर ध्वनि, दिव्य गीतों के मनोहर शब्द और दिव्य वाद्यों के मधुर घोष के साथ झुंड-की-झुंड अप्सराएँ नृत्य करने लगीं और गन्धर्व मधुर गीत गाने लगे। उन रघुवंशशिरोमणि राजकुमारों के विवाह में वह अद्भुत दृश्य दिखायी दिया॥ ३७-३८॥

ईदृशे वर्तमाने तु तूर्योद्युष्टनिनादिते।
त्रिरग्निं ते परिक्रम्य ऊहुर्भार्या महौजसः॥३९॥

शहनाई आदि बाजों के मधुर घोष से गूंजते हुए उस वर्तमान विवाहोत्सव में उन महातेजस्वी राजकुमारों ने अग्नि की तीन बार परिक्रमा करके पत्नियों को स्वीकार करते हुए विवाह कर्म सम्पन्न किया॥ ३९ ॥

अथोपकार्यं जग्मुस्ते सभार्या रघुनन्दनाः।
राजाप्यनुययौ पश्यन् सर्षिसङ्गः सबान्धवः॥ ४०॥

तदनन्तर रघुकुल को आनन्द प्रदान करने वाले वे चारों भाई अपनी पत्नियों के साथ जनवासे में चले गये। राजा दशरथ भी ऋषियों और बन्धु-बान्धवों के साथ पुत्रों और पुत्र-वधुओं को देखते हुए उनके पीछे पीछे गये॥ ४०॥

सर्ग ७४

अथ रात्र्यां व्यतीतायां विश्वामित्रो महामुनिः।
आपृष्ट्वा तौ च राजानौ जगामोत्तरपर्वतम्॥१॥

तदनन्तर जब रात बीती और सबेरा हुआ, तब महामुनि विश्वामित्र राजा जनक और महाराज दशरथ दोनों राजाओं से पूछकर उनकी स्वीकृति ले उत्तरपर्वतपर (हिमालय की शाखाभूत पर्वतपर, जहाँ कौशिकी के तटपर उनका आश्रम था, वहाँ) चले गये॥१॥

विश्वामित्रे गते राजा वैदेहं मिथिलाधिपम्।
आपृष्ट्वैव जगामाशु राजा दशरथः पुरीम्॥२॥

विश्वामित्रजी के चले जाने पर महाराज दशरथ भी विदेहराज मिथिला नरेश से अनुमति लेकर ही शीघ्र अपनी पुरी अयोध्या को जाने के लिये तैयार हो गये। २॥

अथ राजा विदेहानां ददौ कन्याधनं बहु।
गवां शतसहस्राणि बहूनि मिथिलेश्वरः॥३॥
कम्बलानां च मुख्यानां क्षौमान् कोट्यम्बराणि च।
हस्त्यश्वरथपादातं दिव्यरूपं स्वलंकृतम्॥४॥

उस समय विदेहराज जनक ने अपनी कन्याओं के निमित्त दहेज में बहुत अधिक धन दिया। उन मिथिला-नरेश ने कई लाख गौएँ, कितनी ही अच्छी अच्छी कालीने तथा करोड़ों की संख्या में रेशमी और सूती वस्त्र दिये, भाँति-भाँति के गहनों से सजे हुए बहुत-से दिव्य हाथी, घोड़े, रथ और पैदल सैनिक भेंट किये॥३-४॥

ददौ कन्याशतं तासां दासीदासमनुत्तमम्।
हिरण्यस्य सुवर्णस्य मुक्तानां विद्रुमस्य च॥५॥

अपनी पुत्रियों के लिये सहेली के रूप में उन्होंने सौ सौ कन्याएँ तथा उत्तम दास-दासियाँ अर्पित की। इन सबके अतिरिक्त राजा ने उन सबके लिये एक करोड़ स्वर्णमुद्रा, रजतमुद्रा, मोती तथा मूंगे भी दिये॥५॥

ददौ राजा सुसंहृष्टः कन्याधनमनुत्तमम्।
दत्त्वा बहुविधं राजा समनुज्ञाप्य पार्थिवम्॥६॥
प्रविवेश स्वनिलयं मिथिलां मिथिलेश्वरः।
राजाप्ययोध्याधिपतिः सह पुत्रैर्महात्मभिः॥७॥
ऋषीन् सर्वान् पुरस्कृत्य जगाम सबलानुगः।

इस प्रकार मिथिलापति राजा जनक ने बड़े हर्ष के साथ उत्तमोत्तम कन्याधन (दहेज) दिया। नाना प्रकार की वस्तुएँ दहेज में देकर महाराज दशरथ की आज्ञा ले वे पुनः मिथिलानगर के भीतर अपने महल में लौट आये। उधर अयोध्यानरेश राजा दशरथ भी सम्पूर्ण महर्षियों को आगे करके अपने महात्मा पुत्रों, सैनिकों तथा सेवकों के साथ अपनी राजधानी की ओर प्रस्थित हुए॥६-७ १/२॥

गच्छन्तं तु नरव्याघ्रं सर्षिसङ्गं सराघवम्॥८॥
घोरास्त पक्षिणो वाचो व्याहरन्ति समन्ततः।
भौमाश्चैव मृगाः सर्वे गच्छन्ति स्म प्रदक्षिणम्॥

उस समय ऋषि-समूह तथा श्रीरामचन्द्रजी के साथ यात्रा करते हुए पुरुषसिंह महाराज दशरथके चारों ओर भयंकर बोली बोलने वाले पक्षी चहचहाने लगे और भूमिपर विचरने वाले समस्त मृग उन्हें दाहिने रखकर जाने लगे॥ ८-९॥

तान् दृष्ट्वा राजशार्दूलो वसिष्ठं पर्यपृच्छत।
असौम्याः पक्षिणो घोरा मृगाश्चापि प्रदक्षिणाः॥ १०॥
किमिदं हृदयोत्कम्पि मनो मम विषीदति।

उन सबको देखकर राजसिंह दशरथने वसिष्ठजी से पूछा-‘मुनिवर ! एक ओर तो ये भयंकर पक्षी घोर शब्द कर रहे हैं और दूसरी ओर ये मृग हमें दाहिनी ओर करके जा रहे हैं; यह अशुभ और शुभ दो प्रकार का शकुन कैसा? यह मेरे हृदय को कम्पित किये देता है मेरा मन विषाद में डूबा जाता है’ ॥ १० १/२॥

राज्ञो दशरथस्यैतच्छ्रुत्वा वाक्यं महानृषिः॥११॥
उवाच मधुरां वाणीं श्रूयतामस्य यत् फलम्।
उपस्थितं भयं घोरं दिव्यं पक्षिमुखाच्च्युतम्॥ १२॥
मृगाः प्रशमयन्त्येते संतापस्त्यज्यतामयम्।

राजा दशरथ का यह वचन सुनकर महर्षि वसिष्ठ ने । मधुर वाणी में कहा—’राजन्! इस शकुन का जो फल है, उसे सुनिये-आकाश में पक्षियों के मुख से जो बात निकल रही है, वह बताती है कि इस समय कोई घोर भय उपस्थित होने वाला है, परंतु हमें दाहिने रखकर जाने वाले ये मृग उस भय के शान्त हो जाने की सूचना दे रहे हैं; इसलिये आप यह चिन्ता छोड़िये’ ॥ ११-१२ १/२॥

तेषां संवदतां तत्र वायुः प्रादुर्बभूव ह॥१३॥
कम्पयन् मेदिनी सर्वां पातयंश्च महाद्रुमान्।
तमसा संवृतः सूर्यः सर्वे नावेदिषुर्दिशः॥१४॥
भस्मना चावृतं सर्वं सम्मूढमिव तबलम्।

इन लोगों में इस प्रकार बातें हो ही रही थीं कि वहाँ बड़े जोरों की आँधी उठी, वह सारी पृथ्वी को कँपाती हुई बड़े-बड़े वृक्षों को धराशायी करने लगी,सूर्य अन्धकार से आच्छन्न हो गये। किसी को दिशाओं का भान न रहा धूल से ढक जाने के कारण वह सारी सेना मूर्च्छित-सी हो गयी॥ १३-१४ १/२ ॥

वसिष्ठ ऋषयश्चान्ये राजा च ससुतस्तदा ॥ १५॥
ससंज्ञा इव तत्रासन् सर्वमन्यद्विचेतनम्।
तस्मिंस्तमसि घोरे तु भस्मच्छन्नेव सा चमूः॥ १६॥

उस समय केवल वसिष्ठ मुनि, अन्यान्य ऋषियों तथा पुत्रों सहित राजा दशरथ को ही चेत रह गया था, शेष सभी लोग अचेत हो गये थे। उस घोर अन्धकार में राजा की वह सेना धूल से आच्छादित-सी हो गयी थी॥ १५-१६॥

ददर्श भीमसंकाशं जटामण्डलधारिणम्।
भार्गवं जामदग्नयेयं राजा राजविमर्दनम्॥१७॥
कैलासमिव दुर्धर्षं कालाग्निमिव दुःसहम्।
ज्वलन्तमिव तेजोभिर्दुर्निरीक्ष्यं पृथग्जनैः॥ १८॥
स्कन्धे चासज्ज्य परशुं धनुर्विद्युद्गणोपमम्।
प्रगृह्य शरमुग्रं च त्रिपुरनं यथा शिवम्॥१९॥

उस समय राजा दशरथ ने देखा क्षत्रिय राजाओं का मान-मर्दन करने वाले भृगुकुलनन्दन जमदग्नि कुमार परशुराम सामने से आ रहे हैं। वे बडे भयानक-से दिखायी देते थे। उन्होंने मस्तक पर बड़ी बड़ी जटाएँ धारण कर रखी थीं। वे कैलास के समान दुर्जय और कालाग्नि के समान दुःसह प्रतीत होते थे। तेजोमण्डल द्वारा जाज्वल्यमान-से हो रहे थे। साधारण लोगों के लिये उनकी ओर देखना भी कठिन था। वे कंधे पर फरसा रखे और हाथ में विद्युद्गणों के समान दीप्तिमान् धनुष एवं भयंकर बाण लिये त्रिपुरविनाशक भगवान् शिव के समान जान पड़ते थे॥ १७–१९॥

तं दृष्ट्वा भीमसंकाशं ज्वलन्तमिव पावकम्।
वसिष्ठप्रमुखा विप्रा जपहोमपरायणाः॥२०॥
संगता मुनयः सर्वे संजजल्पुरथो मिथः।

प्रज्वलित अग्नि के समान भयानक-से प्रतीत होने वाले परशुराम को उपस्थित देख जप और होम में तत्पर रहने वाले वसिष्ठ आदि सभी ब्रह्मर्षि एकत्र हो परस्पर इस प्रकार बातें करने लगे— ॥ २० १/२॥

कच्चित् पितृवधामर्षी क्षत्रं नोत्सादयिष्यति॥ २१॥
पूर्वं क्षत्रवधं कृत्वा गतमन्युर्गतज्वरः।
क्षत्रस्योत्सादनं भूयो न खल्वस्य चिकीर्षितम्॥ २२॥

‘क्या अपने पिता के वध से अमर्ष के वशीभूत हो ये क्षत्रियों का संहार नहीं कर डालेंगे? पूर्वकाल में क्षत्रियों का वध करके इन्होंने अपना क्रोध उतार लिया है, अब इनकी बदला लेने की चिन्ता दूर हो चुकी है। अतः फिर क्षत्रियों का संहार करना इनके लिये अभीष्ट नहीं है, यह निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है’। २१-२२॥

एवमुक्त्वाय॑मादाय भार्गवं भीमदर्शनम्।
ऋषयो राम रामेति मधुरं वाक्यमब्रुवन्॥२३॥

ऐसा कहकर ऋषियों ने भयंकर दिखायी देने वाले भृगुनन्दन परशुराम को अर्घ्य लेकर दिया और ‘राम! राम!’ कहकर उनसे मधुर वाणी में बातचीत की। २३॥

प्रतिगृह्य तु तां पूजामृषिदत्तां प्रतापवान्।
रामं दाशरथिं रामो जामदग्नयोऽभ्यभाषत। २४॥

ऋषियों की दी हुई उस पूजा को स्वीकार करके प्रतापी जमदग्निपुत्र परशुरामने दशरथनन्दन श्रीराम से इस प्रकार कहा॥२४॥

सर्ग ७५

राम दाशरथे वीर वीर्यं ते श्रूयतेऽद्भुतम्।
धनुषो भेदनं चैव निखिलेन मया श्रुतम्॥१॥

‘दशरथनन्दन श्रीराम! वीर! सुना जाता है कि तुम्हारा पराक्रम अद्भुत है। तुम्हारे द्वारा शिव-धनुष के तोड़े जाने का सारा समाचार भी मेरे कानों में पड़ चुका है।

तदद्भुतमचिन्त्यं च भेदनं धनुषस्तथा।
तच्छ्रत्वाहमनुप्राप्तो धनुर्गृह्यापरं शुभम्॥२॥

‘उस धनुष का तोड़ना अद्भुत और अचिन्त्य है; उसके टूटने की बात सुनकर मैं एक दूसरा उत्तम धनुष लेकर आया हूँ॥२॥

तदिदं घोरसंकाशं जामदग्न्यं महद्धनुः।
पूरयस्व शरेणैव स्वबलं दर्शयस्व च॥३॥

‘यह है वह जमदग्निकुमार परशुराम का भयंकर और विशाल धनुष, तुम इसे खींचकर इसके ऊपर बाण चढ़ाओ और अपना बल दिखाओ॥३॥

तदहं ते बलं दृष्ट्वा धनुषोऽप्यस्य पूरणे।
द्वन्द्वयुद्धं प्रदास्यामि वीर्यश्लाघ्यमहं तव॥४॥

‘इस धनुष के चढ़ाने में भी तुम्हारा बल कैसा है ? यह देखकर मैं तुम्हें ऐसा द्वन्द्वयुद्ध प्रदान करूँगा, जो तुम्हारे पराक्रम के लिये स्पृहणीय होगा’ ॥ ४॥

तस्य तद् वचनं श्रुत्वा राजा दशरथस्तदा।
विषण्णवदनो दीनः प्राञ्जलिर्वाक्यमब्रवीत्॥

परशुरामजी का वह वचन सुनकर उस समय राजा दशरथ के मुखपर विषाद छा गया, वे दीनभाव से हाथ जोड़कर बोले- ॥५॥

क्षत्ररोषात् प्रशान्तस्त्वं ब्राह्मणश्च महातपाः।
बालानां मम पुत्राणामभयं दातुमर्हसि॥६॥
भार्गवाणां कुले जातः स्वाध्यायव्रतशालिनाम्।
सहस्राक्षे प्रतिज्ञाय शस्त्रं प्रक्षिप्तवानसि॥७॥

‘ब्रह्मन् ! आप स्वाध्याय और व्रत से शोभा पाने वाले भृगुवंशी ब्राह्मणों के कुल में उत्पन्न हुए हैं और स्वयं भी महान् तपस्वी और ब्रह्मज्ञानी हैं; क्षत्रियों पर अपना रोष प्रकट करके अब शान्त हो चुके हैं; इसलिये मेरे बालक पुत्रों को आप अभयदान देने की कृपा करें; क्योंकि आपने इन्द्र के समीप प्रतिज्ञा करके शस्त्र का परित्याग कर दिया है।

स त्वं धर्मपरो भूत्वा कश्यपाय वसुंधराम्।
दत्त्वा वनमुपागम्य महेन्द्रकृतकेतनः॥८॥

‘इस तरह आप धर्म में तत्पर हो कश्यपजी को पृथ्वी का दान करके वन में आकर महेन्द्र पर्वत पर आश्रम बनाकर रहते हैं॥८॥

मम सर्वविनाशाय सम्प्राप्तस्त्वं महामुने।
न चैकस्मिन् हते रामे सर्वे जीवामहे वयम्॥९॥

‘महामुने! (इस प्रकार शस्त्रत्यागकी प्रतिज्ञा करके भी) आप मेरा सर्वनाश करने के लिये कैसे आ गये? (यदि कहें—मेरा रोष तो केवल रामपर है तो) एकमात्र राम के मारे जाने पर ही हम सब लोग अपने जीवन का परित्याग कर देंगे’ ॥९॥

ब्रुवत्येवं दशरथे जामदग्न्यः प्रतापवान्।
अनादृत्य तु तद्वाक्यं राममेवाभ्यभाषत॥१०॥

राजा दशरथ इस प्रकार कहते ही रह गये; परंतु प्रतापी परशुराम ने उनके उन वचनों की अवहेलना करके राम से ही बातचीत जारी रखी॥ १० ॥

इमे द्वे धनुषी श्रेष्ठे दिव्ये लोकाभिपूजिते।
दृढे बलवती मुख्ये सुकृते विश्वकर्मणा ॥११॥

वे बोले—’रघुनन्दन! ये दो धनुष सबसे श्रेष्ठ और दिव्य थे। सारा संसार इन्हें सम्मान की दृष्टिसे देखता था। साक्षात् विश्वकर्मा ने इन्हें बनाया था, ये बड़े प्रबल और दृढ़ थे॥ ११॥

अनुसृष्टं सुरैरेकं त्र्यम्बकाय युयुत्सवे।
त्रिपुरगं नरश्रेष्ठ भग्नं काकुत्स्थ यत्त्वया॥१२॥

‘नरश्रेष्ठ! इनमें से एक को देवताओं ने त्रिपुरासुर से युद्ध करने के लिये भगवान् शङ्कर को दे दिया था। ककुत्स्थनन्दन ! जिससे त्रिपुर का नाश हुआ था, वह वही धनुष था; जिसे तुमने तोड़ डाला है॥ १२॥

इदं द्वितीयं दुर्धर्षं विष्णोर्दत्तं सुरोत्तमैः ।
तदिदं वैष्णवं राम धनुः परपुरंजयम्॥१३॥

‘और दूसरा दुर्धर्ष धनुष यह है, जो मेरे हाथमें है। इसे श्रेष्ठ देवताओं ने भगवान् विष्णु को दिया था। श्रीराम! शत्रुनगरी पर विजय पाने वाला वही यह वैष्णव धनुष है॥१३॥

समानसारं काकुत्स्थ रौद्रेण धनुषा त्विदम्।
तदा तु देवताः सर्वाः पृच्छन्ति स्म पितामहम्॥ १४॥
शितिकण्ठस्य विष्णोश्च बलाबलनिरीक्षया।

‘ककुत्स्थनन्दन! यह भी शिवजी के धनुष के समान ही प्रबल है। उन दिनों समस्त देवताओं ने भगवान् शिव और विष्णु के बलाबल की परीक्षा के लिये पितामह ब्रह्माजी से पूछा था कि ‘इन दोनों देवताओं में कौन अधिक बलशाली है’ ॥ १४ १/२॥

अभिप्रायं तु विज्ञाय देवतानां पितामहः॥१५॥
विरोधं जनयामास तयोः सत्यवतां वरः।

‘देवताओं के इस अभिप्राय को जानकर सत्यवादियों में श्रेष्ठ पितामह ब्रह्माजी ने उन दोनों देवताओं (शिव और विष्णु) में विरोध उत्पन्न कर दिया॥ १५ १/२॥

विरोधे तु महद् युद्धमभवद् रोमहर्षणम्॥१६॥
शितिकण्ठस्य विष्णोश्च परस्परजयैषिणोः।

‘विरोध पैदा होने पर एक-दूसरे को जीतने की इच्छावाले शिव और विष्णु में बड़ा भारी युद्ध हुआ,जो रोंगटे खड़े कर देनेवाला था॥ १६ १/२॥

तदा तु जृम्भितं शैवं धनुर्भीमपराक्रमम्॥१७॥
हुंकारेण महादेवः स्तम्भितोऽथ त्रिलोचनः।

‘उस समय भगवान् विष्णुने हुङ्कार मात्र से शिवजीके भयंकर बलशाली धनुष को शिथिल तथा त्रिनेत्रधारी महादेवजी को भी स्तम्भित कर दिया। १७ १/२ ॥

देवैस्तदा समागम्य सर्षिसङ्गः सचारणैः॥१८॥
याचितौ प्रशमं तत्र जग्मतुस्तौ सुरोत्तमौ।

‘तब ऋषिसमूहों तथा चारणों सहित देवताओं ने आकर उन दोनों श्रेष्ठ देवताओं से शान्ति के लिये याचना की; फिर वे दोनों वहाँ शान्त हो गये॥ १८ १/२॥

जृम्भितं तद् धनुर्दृष्ट्वा शैवं विष्णुपराक्रमैः॥ १९॥
अधिकं मेनिरे विष्णुं देवाः सर्षिगणास्तथा।

‘भगवान् विष्णु के पराक्रम से शिवजी के उस धनुष को शिथिल हुआ देख ऋषियों सहित देवताओं ने भगवान् विष्णु को श्रेष्ठ माना॥ १९ १/२ ॥

धनू रुद्रस्तु संक्रुद्धो विदेहेषु महायशाः॥२०॥
देवरातस्य राजर्षेर्ददौ हस्ते ससायकम्।

‘तदनन्तर कुपित हुए महायशस्वी रुद्र ने बाण सहित अपना धनुष विदेह देश के राजर्षि देवरात के हाथ में दे दिया॥ २० १/२॥

इदं च वैष्णवं राम धनुः परपुरंजयम्॥ २१॥
ऋचीके भार्गवे प्रादाद् विष्णुः स न्यासमुत्तमम्।

‘श्रीराम! शत्रुनगरी पर विजय पाने वाले इस वैष्णव धनुष को भगवान् विष्णु ने भृगुवंशी ऋचीक मुनि को उत्तम धरोहर के रूप में दिया था॥ २१ १/२ ॥

ऋचीकस्तु महातेजाः पुत्रस्याप्रतिकर्मणः॥२२॥
पितर्मम ददौ दिव्यं जमदग्नेर्महात्मनः।

‘फिर महातेजस्वी ऋचीक ने प्रतीकार (प्रतिशोध)की भावना से रहित अपने पुत्र एवं मेरे पिता महात्मा जमदग्नि के अधिकार में यह दिव्य धनुष दे दिया॥ २२ १/२॥

न्यस्तशस्त्रे पितरि मे तपोबलसमन्विते॥२३॥
अर्जुनो विदधे मृत्युं प्राकृतां बुद्धिमास्थितः।

‘तपोबल से सम्पन्न मेरे पिता जमदग्नि अस्त्र शस्त्रों का परित्याग करके जब ध्यानस्थ होकर बैठे थे, उस समय प्राकृत बुद्धि का आश्रय लेने वाले कृतवीर्यकुमार अर्जुन ने उनको मार डाला॥ २३ १/२॥

वधमप्रतिरूपं तु पितुः श्रुत्वा सुदारुणम्।
क्षत्रमुत्सादयं रोषाज्जातं जातमनेकशः॥२४॥

‘पिता के इस अत्यन्त भयंकर वधका, जो उनके योग्य नहीं था, समाचार सुनकर मैंने रोषपूर्वक बारंबार उत्पन्न हुए क्षत्रियों का अनेक बार संहार किया ॥२४॥

पृथिवीं चाखिलां प्राप्य कश्यपाय महात्मने।
यज्ञस्यान्तेऽददं राम दक्षिणां पुण्यकर्मणे॥२५॥

‘श्रीराम ! फिर सारी पृथ्वीपर अधिकार करके मैंने एक यज्ञ किया और उस यज्ञके समाप्त होने पर पुण्यकर्मा महात्मा कश्यप को दक्षिणा रूप से यह सारी पृथ्वी दे डाली॥ २५॥

दत्त्वा महेन्द्रनिलयस्तपोबलसमन्वितः।
श्रुत्वा तु धनुषो भेदं ततोऽहं द्रुतमागतः ॥ २६॥

‘पृथ्वी का दान करके मैं महेन्द्र पर्वत पर रहने लगा और वहाँ तपस्या करके तपोबल से सम्पन्न हुआ। वहाँ से शिवजी के धनुष के तोड़े जाने का समाचार सुनकर मैं शीघ्रतापूर्वक यहाँ आया हूँ॥ २६ ॥

तदेवं वैष्णवं राम पितृपैतामहं महत्।
क्षत्रधर्मं पुरस्कृत्य गृह्णीष्व धनुरुत्तमम्॥ २७॥
योजयस्व धनुःश्रेष्ठे शरं परपुरंजयम्।
यदि शक्तोऽसि काकुत्स्थ द्वन्द्वं दास्यामि ते ततः॥ २८॥

‘श्रीराम! इस प्रकार यह महान् वैष्णव धनुष मेरे पिता-पितामहों के अधिकार में रहता चला आया है; अब तुम क्षत्रिय धर्म को सामने रखकर यह उत्तम धनुष हाथ में लो और इस श्रेष्ठ धनुष पर एक ऐसा बाण चढ़ाओ, जो शत्रु नगरी पर विजय पाने में समर्थ हो; यदि तुम ऐसा कर सके तो मैं तुम्हें द्वन्द्व-युद्ध का अवसर दूंगा॥ २७-२८॥

सर्ग ७६

श्रुत्वा तु जामदग्न्यस्य वाक्यं दाशरथिस्तदा।
गौरवाद्यन्त्रितकथः पितू राममथाब्रवीत्॥१॥

दशरथनन्दन श्रीरामचन्द्र जी अपने पिता के गौरव का ध्यान रखकर संकोचवश वहाँ कुछ बोल नहीं रहे थे, परंतु जमदग्निकुमार परशुरामजी की उपर्युक्त बात सुनकर उस समय वे मौन न रह सके। उन्होंने परशुरामजी से कहा

कृतवानसि यत् कर्म श्रुतवानस्मि भार्गव।
अनुरुध्यामहे ब्रह्मन् पितुरानृण्यमास्थितः॥२॥

‘भृगुनन्दन! ब्रह्मन्! आपने पिता के ऋण से ऊऋण होने की—पिता के मारने वाले का वध करके वैर का बदला चुकाने की भावना लेकर जो क्षत्रिय-संहाररूपी कर्म किया है, उसे मैंने सुना है और हमलोग आपके उस कर्म का अनुमोदन भी करते हैं (क्योंकि वीर पुरुष वैर का प्रतिशोध लेते ही हैं) ॥२॥

वीर्यहीनमिवाशक्तं क्षत्रधर्मेण भार्गव।
अवजानासि मे तेजः पश्य मेऽद्य पराक्रमम्॥३॥

‘भार्गव! मैं क्षत्रियधर्म से युक्त हूँ (इसीलिये आप ब्राह्मण-देवता के समक्ष विनीत रहकर कुछ बोल नहीं रहा हूँ) तो भी आप मुझे पराक्रमहीन और असमर्थसा मानकर मेरा तिरस्कार कर रहे हैं। अच्छा, अब मेरा तेज और पराक्रम देखिये’॥३॥

इत्युक्त्वा राघवः क्रुद्धो भार्गवस्य वरायुधम्।
शरं च प्रतिजग्राह हस्ताल्लघुपराक्रमः॥४॥

ऐसा कहकर शीघ्र पराक्रम करनेवाले श्रीरामचन्द्रजीने कुपित हो परशुरामजीके हाथसे वह उत्तम धनुष और बाण ले लिया (साथ ही उनसे अपनी वैष्णवी शक्तिको भी वापस ले लिया) ॥ ४॥

आरोप्य स धनू रामः शरं सज्यं चकार ह।
जामदग्न्यं ततो रामं रामः क्रुद्धोऽब्रवीदिदम्॥

उस धनुषको चढ़ाकर श्रीरामने उसकी प्रत्यञ्चापर बाण रखा, फिर कुपित होकर उन्होंने जमदग्निकुमारपरशुरामजी से इस प्रकार कहा- ॥५॥

ब्राह्मणोऽसीति पूज्यो मे विश्वामित्रकृतेन च।
तस्माच्छक्तो न ते राम मोक्तुं प्राणहरं शरम्॥६॥

‘(भृगुनन्दन) राम! आप ब्राह्मण होने के नाते मेरे पूज्य हैं तथा विश्वामित्रजी के साथ भी आपका सम्बन्ध है—इन सब कारणों से मैं इस प्राण-संहारक बाण को आपके शरीर पर नहीं छोड़ सकता॥६॥

इमां वा त्वद्गतिं राम तपोबलसमर्जितान्।
लोकानप्रतिमान् वापि हनिष्यामीति मे मतिः॥ ७॥
न ह्ययं वैष्णवो दिव्यः शरः परपुरंजयः।
मोघः पतति वीर्येण बलदर्पविनाशनः॥८॥

‘राम! मेरा विचार है कि आपको जो सर्वत्र शीघ्रतापूर्वक आने-जाने की शक्ति प्राप्त हुई है उसे अथवा आपने अपने तपोबल से जिन अनुपम पुण्यलोकों को प्राप्त किया है उन्हीं को नष्ट कर डालूँ; क्योंकि अपने पराक्रम से विपक्षी के बलके घमंड को चूर कर देनेवाला यह दिव्य वैष्णव बाण, जो शत्रुओं की नगरी पर विजय दिलाने वाला है, कभी निष्फल नहीं जाता है’ ।। ७-८॥

वरायुधधरं रामं द्रष्टुं सर्षिगणाः सुराः।
पितामहं पुरस्कृत्य समेतास्तत्र सर्वशः॥९॥

उस समय उस उत्तम धनुष और बाण को धारण करके खड़े हुए श्रीरामचन्द्रजी को देखने के लिये सम्पूर्ण देवता और ऋषि ब्रह्माजी को आगे करके वहाँ एकत्र हो गये॥९॥

गन्धर्वाप्सरसश्चैव सिद्धचारणकिन्नराः।
यक्षराक्षसनागाश्च तद् द्रष्टुं महदद्भुतम्॥१०॥

गन्धर्व, अप्सराएँ, सिद्ध, चारण, किन्नर, यक्ष, राक्षस और नाग भी उस अत्यन्त अद्भुत दृश्य को देखने के लिये वहाँ आ पहुँचे॥ १० ॥

जडीकृते तदा लोके रामे वरधनुर्धरे।
निर्वीर्यो जामदग्न्योऽसौ रामो राममुदैक्षत॥११॥

जब श्रीरामचन्द्रजी ने वह श्रेष्ठ धनुष हाथ में ले लिया, उस समय सब लोग आश्चर्य से जडवत् हो गये। (परशुरामजी का वैष्णव तेज निकलकर श्रीरामचन्द्रजी में मिल गया इसलिये) वीर्यहीन हुए जमदग्निकुमार राम ने दशरथनन्दन श्रीराम की ओर देखा॥११॥

तेजोभिर्गतवीर्यत्वाज्जामदग्न्यो जडीकृतः।
रामं कमलपत्राक्षं मन्दं मन्दमुवाच ह॥१२॥

तेज निकल जाने से वीर्यहीन हो जाने के कारण जडवत् बने हुए जमदग्निकुमार परशुराम ने कमलनयन श्रीराम से धीरे-धीरे कहा- ॥ १२॥

काश्यपाय मया दत्ता यदा पूर्वं वसुंधरा।
विषये मे न वस्तव्यमिति मां काश्यपोऽब्रवीत्॥ १३॥

‘रघुनन्दन! पूर्वकाल में मैंने कश्यपजी को जब यह पृथिवी दान की थी, तब उन्होंने मुझसे कहा था कि ‘तुम्हें मेरे राज्य में नहीं रहना चाहिये’॥ १३॥

सोऽहं गुरुवचः कुर्वन् पृथिव्यां न वसे निशाम्।
तदाप्रभृति काकुत्स्थ कृता मे काश्यपस्य ह॥ १४॥

‘ककुत्स्थकुलनन्दन! तभी से अपने गुरु कश्यपजी की इस आज्ञा का पालन करता हुआ मैं कभी रात में पृथिवी पर नहीं निवास करता हूँ; क्योंकि यह बात सर्वविदित है कि मैंने कश्यप के सामने रात को पृथिवी पर न रहने की प्रतिज्ञा कर रखी है। १४॥

तामिमां मद्गतिं वीर हन्तुं नार्हसि राघव।
मनोजवं गमिष्यामि महेन्द्रं पर्वतोत्तमम्॥१५॥

‘इसलिये वीर राघव! आप मेरी इस गमनशक्ति को नष्ट न करें मैं मनके समान वेग से अभी महेन्द्र नाम क श्रेष्ठ पर्वत पर चला जाऊँगा॥ १५ ॥

लोकास्त्वप्रतिमा राम निर्जितास्तपसा मया।
जहि ताञ्छरमुख्येन मा भूत् कालस्य पर्ययः॥ १६॥

‘परंतु श्रीराम! मैंने अपनी तपस्या से जिन अनुपम लोकों पर विजय पायी है, उन्हीं को आप इस श्रेष्ठ बाण से नष्ट कर दें; अब इसमें विलम्ब नहीं होना चाहिये॥१६॥

अक्षय्यं मधुहन्तारं जानामि त्वां सुरेश्वरम्।
धनुषोऽस्य परामर्शात् स्वस्ति तेऽस्तु परंतप॥ १७॥

‘शत्रुओं को संताप देने वाले वीर! आपने जो इस धनुष को चढ़ा दिया, इससे मुझे निश्चितरूप से ज्ञात हो गया कि आप मधु दैत्य को मारने वाले अविनाशी देवेश्वर विष्णु हैं। आपका कल्याण हो॥१७॥

एते सुरगणाः सर्वे निरीक्षन्ते समागताः।
त्वामप्रतिमकर्माणमप्रतिद्वन्द्वमाहवे॥१८॥

‘ये सब देवता एकत्र होकर आपकी ओर देख रहे हैं। आपके कर्म अनुपम हैं; युद्धमें आपका सामना करने वाला दूसरा कोई नहीं है॥ १८॥

न चेयं मम काकुत्स्थ व्रीडा भवितुमर्हति।
त्वया त्रैलोक्यनाथेन यदहं विमुखीकृतः॥१९॥

‘ककुत्स्थकुलभूषण! आपके सामने जो मेरी असमर्थता प्रकट हुई—यह मेरे लिये लज्जाजनक नहीं हो सकती; क्योंकि आप त्रिलोकीनाथ श्रीहरि ने मुझे पराजित किया है॥ १९॥

शरमप्रतिमं राम मोक्तुमर्हसि सुव्रत।
शरमोक्षे गमिष्यामि महेन्द्रं पर्वतोत्तमम्॥२०॥

‘उत्तम व्रत का पालन करने वाले श्रीराम ! अब आप अपना अनुपम बाण छोड़िये; इसके छूटने के बाद ही मैं श्रेष्ठ महेन्द्र पर्वत पर जाऊँगा’॥ २०॥

तथा ब्रुवति रामे तु जामदग्न्ये प्रतापवान्।
रामो दाशरथिः श्रीमांश्चिक्षेप शरमुत्तमम्॥२१॥

जमदग्निनन्दन परशुरामजी के ऐसा कहने पर प्रतापी दशरथनन्दन श्रीमान् रामचन्द्रजी ने वह उत्तम बाण छोड़ दिया॥ २१॥

स हतान् दृश्य रामेण स्वाँल्लोकांस्तपसार्जितान्।
जामदग्न्यो जगामाशु महेन्द्रं पर्वतोत्तमम्॥ २२॥

अपनी तपस्या द्वारा उपार्जित किये हुए पुण्यलोकों को श्रीरामचन्द्रजी के चलाये हुए उस बाण से नष्ट हुआ देखकर परशुरामजी शीघ्र ही उत्तम महेन्द्र पर्वत पर चले गये॥ २२ ॥

ततो वितिमिराः सर्वा दिशश्चोपदिशस्तथा।
सुराः सर्षिगणा रामं प्रशशंसुरुदायुधम्॥२३॥

उनके जाते ही समस्त दिशाओं तथा उपदिशाओं का अन्धकार दूर हो गया। उस समय ऋषियों सहित देवता उत्तम आयुधधारी श्रीराम की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे।

रामं दाशरथिं रामो जामदग्न्यः प्रपूजितः।
ततः प्रदक्षिणीकृत्य जगामात्मगतिं प्रभुः॥ २४॥

तदनन्तर दशरथनन्दन श्रीराम ने जमदग्निकुमार परशुराम का पूजन किया। उनसे पूजित हो प्रभावशाली परशुराम दशरथकुमार श्रीराम की परिक्रमा करके अपने स्थान को चले गये॥२४॥

सर्ग ७७

गते रामे प्रशान्तात्मा रामो दाशरथिर्धनुः ।
वरुणायाप्रमेयाय ददौ हस्ते महायशाः॥१॥

जमदग्निकुमार परशुरामजी के चले जाने पर महायशस्वी दशरथनन्दन श्रीराम ने शान्तचित्त होकर अपार शक्तिशाली वरुण के हाथ में वह धनुष दे दिया।१॥

अभिवाद्य ततो रामो वसिष्ठप्रमुखानुषीन्।
पितरं विकलं दृष्ट्वा प्रोवाच रघुनन्दनः॥२॥

तत्पश्चात् वसिष्ठ आदि ऋषियों को प्रणाम करके रघुनन्दन श्रीराम ने अपने पिता को विकल देखकर उनसे कहा- ॥२॥

जामदग्न्यो गतो रामः प्रयातु चतुरंगिणी।
अयोध्याभिमुखी सेना त्वया नाथेन पालिता॥

‘पिताजी! जमदग्निकुमार परशुराम जी चले गये।अब आपके अधिनायकत्व में सुरक्षित यह चतुरंगिणी सेना अयोध्या की ओर प्रस्थान करे’ ॥३॥

रामस्य वचनं श्रुत्वा राजा दशरथः सुतम्।
बाहुभ्यां सम्परिष्वज्य मूर्युपाघ्राय राघवम्॥ ४॥
गतो राम इति श्रुत्वा हृष्टः प्रमुदितो नृपः।
पुनर्जातं तदा मेने पुत्रमात्मानमेव च ॥५॥

श्रीराम का यह वचन सुनकर राजा दशरथ ने अपने पुत्र रघुनाथजी को दोनों भुजाओं से खींचकर छाती से लगा लिया और उनका मस्तक सूंघा। ‘परशुरामजी चले गये’ यह सुनकर राजा दशरथ को बड़ा हर्ष हुआ, वे आनन्दमग्न हो गये। उस समय उन्होंने अपना और अपने पुत्र का पुनर्जन्म हुआ माना॥४-५॥

चोदयामास तां सेनां जगामाशु ततः पुरीम्।
पताकाध्वजिनीं रम्यां तूर्योद्घष्टनिनादिताम्॥६॥

तदनन्तर उन्होंने सेना को नगर की ओर कूच करने की आज्ञा दी और वहाँ से चलकर बड़ी शीघ्रता के साथ वे अयोध्यापुरी में जा पहुँचे। उस समय उस पुरी में सब ओर ध्वजा-पताकाएँ फहरा रही थीं। सजावट से नगर की रमणीयता बढ़ गयी थी और भाँति-भाँति के वाद्यों की ध्वनि से सारी अयोध्या गूंज उठी थी॥६॥

सिक्तराजपथारम्यां प्रकीर्णकुसुमोत्कराम्।
राजप्रवेशसुमुखैः पौरैर्मङ्गलपाणिभिः॥७॥
सम्पूर्णां प्राविशद् राजा जनौधैः समलंकृताम्।
पौरैः प्रत्युद्गतो दूरं द्विजैश्च पुरवासिभिः॥८॥

सड़कों पर जलका छिड़काव हुआ था, जिससे पुरी की सुरम्य शोभा बढ़ गयी थी। यत्र-तत्र ढेर-के ढेर फूल बिखेरे गये थे। पुरवासी मनुष्य हाथों में मांगलिक वस्तुएँ लेकर राजा के प्रवेश मार्ग पर प्रसन्नमुख होकर खड़े थे। इन सबसे भरी-पूरी तथा भारी जनसमुदाय से अलंकृत हुई अयोध्यापुरी में राजा ने प्रवेश किया। नागरिकों तथा पुरवासी ब्राह्मणों ने दूर तक आगे जाकर महाराज की अगवानी की थी॥ ७-८॥

पुत्रैरनुगतः श्रीमान् श्रीमद्भिश्च महायशाः।
प्रविवेश गृहं राजा हिमवत्सदृशं प्रियम्॥९॥

अपने कान्तिमान् पुत्रों के साथ महायशस्वी श्रीमान् राजा दशरथ ने अपने प्रिय राजभवन में, जो हिमालय के समान सुन्दर एवं गगनचुम्बी था, प्रवेश किया॥९॥

ननन्द स्वजनै राजा गृहे कामैः सुपूजितः।
कौसल्या च सुमित्रा च कैकेयी च सुमध्यमा॥ १०॥
वधप्रतिग्रहे युक्ता याश्चान्या राजयोषितः।

राजमहल में स्वजनों द्वारा मनोवाञ्छित वस्तुओं से परम पूजित हो राजा दशरथ ने बड़े आनन्द का अनुभव किया। महारानी कौसल्या, सुमित्रा, सुन्दर कटिप्रदेश वाली कैकेयी तथा जो अन्य राजपत्नियाँ थीं, वे सब बहुओं को उतारने के कार्य में जुट गयीं। १० १/२॥

ततः सीतां महाभागामूर्मिलां च यशस्विनीम्॥११॥
कुशध्वजसुते चोभे जगृहुर्नुपयोषितः।
मंगलालापनैर्हो मैः शोभिताः क्षौमवाससः॥१२॥

तदनन्तर राजपरिवार की उन स्त्रियों ने परम सौभाग्यवती सीता, यशस्विनी ऊर्मिला तथा कुशध्वजकी दोनों कन्याओं—माण्डवी और श्रुतकीर्ति को सवारी से उतारा और मंगल गीत गाती हुई सब वधुओं को घरमें ले गयीं। वे प्रवेशकालिक होमकर्म से सुशोभित तथा रेशमी साड़ियों से अलंकृत थीं॥ ११-१२॥

देवतायतनान्याशु सर्वास्ताः प्रत्यपूजयन्।
अभिवाद्याभिवाद्यांश्च सर्वा राजसुतास्तदा॥ १३॥
रेमिरे मुदिताः सर्वा भर्तृभिर्मुदिता रहः।

उन सबने देवमन्दिरों में ले जाकर उन बहुओं से देवताओं का पूजन करवाया। तदनन्तर नव-वधूरूप में आयी हुई उन सभी राजकुमारियों ने वन्दनीय सास ससुर आदि के चरणों में प्रणाम किया और अपने अपने पति के साथ एकान्त में रहकर वे सब-की-सब बड़े आनन्द से समय व्यतीत करने लगीं। १३ १/२॥

कृतदाराः कृतास्त्राश्च सधनाः ससुहृज्जनाः॥ १४॥
शुश्रूषमाणाः पितरं वर्तयन्ति नरर्षभाः।
कस्यचित्त्वथ कालस्य राजा दशरथः सुतम्॥
भरतं कैकयीपुत्रमब्रवीद् रघुनन्दनः।

श्रीराम आदि पुरुषश्रेष्ठ चारों भाई अस्त्रविद्या में निपुण और विवाहित होकर धन और मित्रों के साथ रहते हुए पिताकी सेवा करने लगे। कुछ काल के बाद रघुकुलनन्दन राजा दशरथ ने अपने पुत्र कैकेयीकुमार भरत से कहा— ॥१४-१५ १/२ ॥

अयं केकयराजस्य पुत्रो वसति पुत्रक॥१६॥
त्वां नेतुमागतो वीरो युधाजिन्मातुलस्तव।

‘बेटा! ये तुम्हारे मामा केकयराजकुमार वीर युधाजित् तुम्हें लेने के लिये आये हैं और कई दिनों से यहाँ ठहरे हुए हैं ॥ १६ १/२॥

श्रुत्वा दशरथस्यैतद् भरतः कैकयीसुतः॥१७॥
गमनायाभिचक्राम शत्रुघ्नसहितस्तदा।

दशरथजी की यह बात सुनकर कैकेयीकुमार भरत ने उस समय शत्रुघ्न के साथ मामा के यहाँ जाने का विचार किया। १७ १/२॥

आपृच्छ्य पितरं शूरो रामं चाक्लिष्टकारिणम्॥ १८॥
मातृश्चापि नरश्रेष्ठः शत्रुघ्नसहितो ययौ।

वे नरश्रेष्ठ शूरवीर भरत अपने पिता राजा दशरथ, अनायास ही महान् कर्म करनेवाले श्रीराम तथा सभी माताओं से पूछकर उनकी आज्ञा ले शत्रुघ्नसहित वहाँसे चल दिये॥ १८१/२॥

युधाजित् प्राप्य भरतं सशत्रुघ्र प्रहर्षितः॥१९॥
स्वपुरं प्राविशद् वीरः पिता तस्य तुतोष ह।

शत्रुघ्नसहित भरत को साथ लेकर वीर युधाजित् ने बड़े हर्ष के साथ अपने नगर में प्रवेश किया, इससे उनके पिताको बड़ा संतोष हुआ॥ १९ १/२॥

गते च भरते रामो लक्ष्मणश्च महाबलः॥२०॥
पितरं देवसंकाशं पूजयामासतुस्तदा।

भरत के चले जाने पर महाबली श्रीराम और लक्ष्मण उन दिनों अपने देवोपम पिताकी सेवा-पूजा में संलग्न रहने लगे॥ २० १/२॥

पितुराज्ञां पुरस्कृत्य पौरकार्याणि सर्वशः॥२१॥
चकार रामः सर्वाणि प्रियाणि च हितानि च।

पिताकी आज्ञा शिरोधार्य करके वे नगरवासियों के सब काम देखने तथा उनके समस्त प्रिय तथा हितकर कार्य करने लगे। २१ १/२ ॥

मातृभ्यो मातृकार्याणि कृत्वा परमयन्त्रितः॥ २२॥
गुरूणां गुरुकार्याणि काले कालेऽन्ववैक्षत।

वे अपने को बड़े संयम में रखते थे और समय समय पर माताओं के लिये उनके आवश्यक कार्य पूर्ण करके गुरुजनों के भारी-से-भारी कार्यों को भी सिद्ध करने का ध्यान रखते थे॥ २२ १/२॥

एवं दशरथः प्रीतो ब्राह्मणा नैगमास्तथा ॥२३॥
रामस्य शीलवृत्तेन सर्वे विषयवासिनः।

उनके इस बर्ताव से राजा दशरथ, वेदवेत्ता ब्राह्मण तथा वैश्यवर्ग बड़े प्रसन्न रहते थे; श्रीरामके उत्तम शील और सद्-व्यवहारसे उस राज्यके भीतर निवास करनेवाले सभी मनुष्य बहुत संतुष्ट रहते थे। २३१/२॥

तेषामतियशा लोके रामः सत्यपराक्रमः॥२४॥
स्वयंभूरिव भूतानां बभूव गुणवत्तरः।

राजा के उन चारों पुत्रों में सत्यपराक्रमी श्रीराम ही लोक में अत्यन्त यशस्वी तथा महान् गुणवान् हुए ठीक उसी तरह जैसे समस्त भूतों में स्वयम्भू ब्रह्मा ही अत्यन्त यशस्वी और महान् गुणवान् हैं ।। २४ १/२॥

रामश्च सीतया सार्धं विजहार बहूनृतून्॥ २५॥
मनस्वी तद्गतमनास्तस्या हृदि समर्पितः।

श्रीरामचन्द्रजी सदा सीता के हृदयमन्दिर में विराजमान रहते थे तथा मनस्वी श्रीराम का मन भी सीता में ही लगा रहता था; श्रीराम ने सीता के साथ अनेक ऋतुओं तक विहार किया। २५ १/२ ॥

प्रिया तु सीता रामस्य दाराः पितृकृता इति॥ २६॥
गुणाद्रूपगुणाच्चापि प्रीतिर्भूयोऽभिवर्धते।
तस्याश्च भर्ता द्विगुणं हृदये परिवर्तते॥२७॥

सीता श्रीराम को बहुत ही प्रिय थीं; क्योंकि वे अपने पिता राजा जनक द्वारा श्रीराम के हाथ में पत्नी-रूप से समर्पित की गयी थीं। सीता के पातिव्रत्य आदि गुण से तथा उनके सौन्दर्य गुण से भी श्रीराम का उनके प्रति अधिकाधिक प्रेम बढ़ता रहता था; इसी प्रकार सीता के हृदय में भी उनके पति श्रीराम अपने गुण और सौन्दर्य के कारण द्विगुण प्रीतिपात्र बनकर रहते थे। २६-२७॥

अन्तर्गतमपि व्यक्तमाख्याति हृदयं हृदा।
तस्य भूयो विशेषेण मैथिली जनकात्मजा।
देवताभिः समा रूपे सीता श्रीरिव रूपिणी॥ २८॥

जनकनन्दिनी मिथिलेश कुमारी सीता श्रीराम के हार्दिक अभिप्राय को भी अपने हृदय से ही और अधिकरूप से जान लेती थीं तथा स्पष्टरूप से बता भी देती थीं। वे रूप में देवांगनाओं के समान थीं और मूर्तिमती लक्ष्मी-सी प्रतीत होती थीं॥२८॥

तया स राजर्षिसुतोऽभिकामया समेयिवानुत्तमराजकन्यया।
अतीव रामः शुशुभे मुदान्वितो विभुः श्रिया विष्णुरिवामरेश्वरः॥२९॥

श्रेष्ठ राजकुमारी सीता श्रीराम की ही कामना रखती थीं और श्रीराम भी एकमात्र उन्हीं को चाहते थे; जैसे लक्ष्मी के साथ देवेश्वर भगवान् विष्णु की शोभा होती है, उसी प्रकार उन सीतादेवी के साथ राजर्षि दशरथकुमार श्रीराम परम प्रसन्न रहकर बड़ी शोभा पाने लगे॥२९॥

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मृतसञ्जीवनी स्त्रोत्र (हिंदी अर्थ सहित)

प्रजापति दक्ष की सभी पुत्रियाँ और उनके पति

परमपिता ब्रह्मा के मानस पुत्र