क्या अंगद ने रावण को अपना पैर उखाड़ने की चुनौती दी थी?

क्या अंगद ने रावण को अपना पैर उखाड़ने की चुनौती दी थी?
रामायण में अंगद द्वारा रावण को अपना पैर हिलाने की चुनौती देने वाला प्रसंग रामायण के सबसे रोचक प्रसंगों में से एक है। संक्षेप में कथा ये है कि जब श्रीराम की सेना ने समुद्र में पुल बना कर लंका में प्रवेश किया तब उस युद्ध को रोकने के अंतिम प्रयास के रूप में श्रीराम ने रावण के पास संधि प्रस्ताव भेजने का विचार किया। हालाँकि सुग्रीव उनकी इस बात से सहमत नहीं थे, फिर भी श्रीराम की आज्ञा मान कर उन्होंने अंगद को अपना दूत बना कर रावण के पास भेजा।

तब श्रीराम की आज्ञा से युवराज अंगद लंका पहुंचे और एक दूत के रूप में रावण से मिले। उन्होंने रावण को हर प्रकार से समझाने का प्रयास किया कि माता सीता को लौटा दे। उन्होंने रावण को उसकी अपने पिता के द्वारा हुई पराजय का समरण दिला कर अपमानित भी किया किन्तु फिर भी रावण ने माता सीता को नहीं लौटाया। तब अंगद ने अपना एक पैर वहीँ सभा में जमा दिया और रावण से कहा कि यदि कोई वीर उनके इस पैर को हिला दे तो वे श्रीराम की ओर से वचन देते हैं कि वानरों की सेना लौट जाएगी।

तब रावण की सभा में उपस्थित एक से एक वीरों ने अंगद के उस पैर को उखाड़ने का प्रयास किया किन्तु वे उसे तिल भर भी हिला ना सके। अपने वीरों की ये दुर्दशा देख कर अंततः रावण स्वयं अंगद के पैर को हिलाने आया किन्तु तब अंगद ने उससे कहा कि यदि पकड़ना ही है तो श्रीराम के पैर पकड़ो। ये कह कर उसने रावण के मुकुट को श्रीराम के पास फेंक दिया और फिर वापस अपने सेना में लौट आये।

अब ये जो कथा है वो बड़ी रोचक है और सदियों से हमारे बीच है किन्तु क्या वास्तव में अंगद ने रावण को अपना पैर उखाड़ने की चुनौती दी थी? तो इसका उत्तर है नहीं। मूल वालमीकि रामायण में ऐसा कोई भी वर्णन हमें नहीं मिलता है। अंगद द्वारा रावण को अपना पैर उखाड़ने की चुनौती देने वाला प्रसंग हमें केवल गोस्वामी तुलसीदास कृत श्री रामचरितमानस में ही मिलता है।

रामचरितमानस में अंगद और रावण की बात-चीत बड़ी लम्बी है। वहां पर तो ये भी कहा गया है कि रावण के महल में प्रवेश करने से पहले अंगद ने कई राक्षसों का वध कर दिया और उन्होंने रावण के एक पुत्र का वध भी कर दिया था। हालाँकि मानस में हमें रावण के उस पुत्र का कोई नाम नहीं बताया गया है। श्री रामचरितमानस के लंका कांड (मानस में युद्ध कांड को लंका कांड कहा गया है) में हमें ये वर्णन मिलता है।

लेकिन यदि मूल वाल्मीकि रामायण की बात की जाये तो ऐसा कुछ नहीं हुआ था। वाल्मीकि रामायण के युद्ध कांड के सर्ग ४१ में हमें अंगद और रावण का प्रसंग मिलता है। इसके अनुसार श्रीराम ने अंगद को बुलाकर कहा कि वे जाकर रावण को समझाएं कि यदि वो जीवित रहना चाहता है तो ये उसके पास अंतिम अवसर है। वो सम्मान सहित सीता को लौटा दे।

तब श्रीराम का सन्देश लेकर अंगद आकाश मार्ग से रावण के महल पहुंचे और एक परकोटे से उन्होंने रावण के राजभवन में प्रवेश किया। वहां उन्होंने रावण को अपने दरबारियों के साथ बैठे देखा। उन्होंने रावण को अपना परिचय दिया और जो कुछ भी श्रीराम ने कहा था उसे रावण को सुनाया। उन्होंने ना तो एक शब्द कम बोला और ना ही अपनी ओर से कुछ भी जोड़ा।

तब उसकी बातों से क्रोधित होकर रावण ने अपनी सेना से अंगद को पकड़ लेने के लिए कहा। तब रावण के कई सेनापतियों ने एक साथ अंगद को पकड़ लिया। तब अंगद ने अपना अतुल बल दिखाया। वे उन सभी राक्षसों को लेकर उछाल कर उस महल की छत पर चढ़ गए। इससे वे सभी राक्षस झटका खा कर रावण के सामने गिर पड़े।

फिर अंगद ने रावण के छत पर अपना पैर पटका जिससे वो छत टूट गयी। तब अंगद ने वहां से फिर सिंहनाद करते हुए उन्हें अपना नाम बताया और पुनः आकाश मार्ग से उड़ कर श्रीराम के पास पहुँच गए। अपने महल की छत को इस प्रकार टूटता देख कर रावण बड़ा निराश हो गया। उधर अंगद के लौटने के बाद श्रीराम की आज्ञा से १०० अक्षौहिणी सेना में एक बड़ी टुकड़ी ने वानर वीर सुषेण के नेतृत्व में लंका के द्वार को घेर लिया। यहीं से लंका युद्ध का आरम्भ हुआ।

वाल्मीकि रामायण में हमें अंगद और रावण का केवल इतना प्रसंग ही मिलता है। वाल्मीकि रामायण के सर्ग ४१ में कुल ९१ श्लोक हैं लेकिन रावण को अपना पैर उखाड़ने की चुनौती और रावण के मुकुट को श्रीराम के पास फेंकने का कोई भी वर्णन हमें वाल्मीकि रामायण में नहीं मिलता। ये वर्णन केवल रामचरितमानस में मिलता है जहाँ से ये कथा जनमानस में प्रसिद्ध हुई।

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