जब भीष्म ने पांडवों के वध की प्रतिज्ञा कर ली

महाभारत का युद्ध अपने चरम पर था। कौरवों की ओर से ११ और पांडवों की ओर से ७ अक्षौहिणी सेना आमने सामने थी। पांडवों के सेनापति जहाँ धृष्ट्द्युम्न थे वही कौरवों की सेना का सञ्चालन स्वयं गंगापुत्र भीष्म कर रहे थे। भीष्म कभी भी ये युद्ध नहीं चाहते थे और विवश होकर उन्हें कौरवों की ओर से युद्ध करना पड़ रहा था।

युद्ध के आरम्भ से लेकर ही कौरव सेना पांडवों की सेना से इक्कीस ही थी किन्तु दुर्योधन को इससे संतोष ना था। युद्ध से पहले वो सोच रहा था कि भीष्म थोड़े ही समय में पांडवों का नाश कर देंगे किन्तु सेनापति का पद सँभालने के पूर्व ही भीष्म ने साफ़ कर दिया कि वो पांडव अथवा उनके वंश के किसी भी व्यक्ति का वध नहीं करेंगे। किन्तु उन्होंने दुर्योधन को ये विश्वास भी दिलाया कि प्रतिदिन वे पांडव सेना के कम से कम १०००० रथिओं, अतिरथों एवं महारथियों का वध अवश्य करेंगे।

ये सुनकर दुर्योधन को थोड़ा संतोष हुआ किन्तु फिर भीष्म द्वारा कर्ण को युद्ध में भाग ना लेने देने से वो भड़क उठा। इसपर भीष्म ने साफ़-साफ़ कह दिया कि यदि वो कर्ण को युद्ध में भाग लेने के लिए कहेगा तो वो सेनापति का पद छोड़ देंगे। दुर्योधन तो कर्ण को ही सेनापति बनाने को तैयार था किन्तु शकुनि और स्वयं कर्ण के समझने के कारण उसने अपना हठ छोड़ दिया। इसके अतिरिक्त उसे भी ये ज्ञात था कि इस युद्ध में अगर कोई उसे विजय दिलवा सकते हैं तो वो केवल पितामह ही हैं।

भीष्म के रहने तक युद्ध में कौरवों का पड़ला ही भारी रहा। विशेषकर पहले दिन तो भीष्म ने पांडव सेना में ऐसा हाहाकार मचाया कि पांडवों ने विजय की आस ही छोड़ दी थी। श्रीकृष्ण ने उनमे उत्साह का संचार किया और वे पुनः नवीन शक्ति के साथ रणक्षेत्र में आये। किन्तु भीष्म तो फिर भीष्म थे। उनसे पार पाना आसान नहीं था। अर्जुन बड़ा प्रयत्न करके उन्हें किसी प्रकार रोके हुआ था किन्तु फिर भी वे प्रतिदिन १०००० से कहीं अधिक योद्धाओं को मार गिराते थे। उन्हें इस प्रकार भयानक युद्ध करते देख कर स्वयं कृष्ण ने एक नहीं दो बार अपनी प्रतिज्ञा तोड़ दी और उनके वध को प्रस्तुत हुए किन्तु अर्जुन ने अनुनय-विनय कर उन्हें रोक दिया। 

इधर पांडव भीष्म के कारण स्वयं को असुरक्षित महसूस कर रहे थे किन्तु दूसरी ओर दुर्योधन ये सोच रहा था कि भीष्म कदाचित अपनी पूरी शक्ति से युद्ध नहीं कर रहे हैं अन्यथा पांडवों की सेना उनके समक्ष इतने दिन कैसे टिक जाती। इसी कारण वो रोज युद्ध के पश्चात जाकर उन्हें बुरा-भला कहने लगा। आरम्भ में भीष्म ने उसकी बात को नजरअंदाज किया किन्तु रोज-रोज इस प्रकार का मिथ्या आरोप सुन कर वे भी व्यथित रहने लगे।

द्रोणाचार्य एवं कृपाचार्य ने दुर्योधन को बार-बार समझाया कि इस प्रकार अपने प्रधान सेनापति को हतोत्साहित करना और गंगापुत्र भीष्म जैसे व्यक्ति पर पक्षपात और विश्वासघात का आरोप लगाना उचित नहीं है किन्तु वो कुछ समझना ही नहीं चाहता था। वैसे ही एक दिन युद्ध के पश्चात वो भीष्म के शिविर में पहुँचा। आज के युद्ध में पांडवों का पड़ला भारी रहा था जिस कारण दुर्योधन बड़े क्रोध में था। 

उसने आते ही पितामह से कहा कि "हे पितामह! आप हमारे साथ ऐसा पक्षपात क्यों कर रहे हैं? जिस सेना में द्रोण, कृप, अश्वथामा और भगदत्त जैसे महरथी हों और जिनका नेतृत्व स्वयं परशुराम शिष्य आप कर रहे हों, उसके सामने तो देवताओं की सेना भी नहीं टिक सकती। फिर क्या कारण है कि इतने दिनों के बाद भी पांडव सेना का समूल नाश नहीं हुआ? निश्चय ही पांडव आपको मुझसे अधिक प्रिय हैं किन्तु आपको ये याद रखना चाहिए कि आप हस्तिनापुर का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं और ऐसा पक्षपात आपको शोभा नहीं देता।"

दुर्योधन को इस प्रकार बोलते देख भीष्म बड़े व्यथित हो गए। उन्होंने क्रोधित होते हुए कहा "हे पुत्र! तुमने मुझपर सदा पक्षपात का आरोप लगाया है तो सर्वथा असत्य है। मैं केवल तुम्हारी ओर से ही युद्ध कर रहा हूँ पुत्र किन्तु मैं ईश्वर नहीं। युद्ध करना मेरे वश में है किन्तु युद्ध का परिणाम मेरे वश में नहीं है। क्या तुम देख नहीं पा रहे हो कि प्रतिदिन मैं तुम्हारे लिए सहस्त्रों महारथियों का वध कर रहा हूँ? मेरे ही कारण तुम और तुम्हारे भाई अब तक युद्ध में भीमसेन से सुरक्षित बचे हुए हो। अर्जुन जैसा महान योद्धा भी तुम्हे केवल इसी कारण क्षति नहीं पहुँचा पा रहा क्यूंकि मैं तुम्हारा कवच बना हुआ हूँ। अब तुम मुझसे और क्या अपेक्षा करते हो?"

इसपर दुर्योधन ने कहा "हे पितामह! मुझे आपकी वीरता पर कोई संदेह नहीं किन्तु इस युद्ध में जब तक पांडवों का वध नहीं होगा, मैं ये युद्ध नहीं जीत सकता। आपने तो पांडवों को युद्ध से पहले ही जीवन दान दे दिया है। इसी बात को जानकर वे निर्भय होकर युद्ध कर रहे हैं। अगर आप पांडवों का वध नहीं करना चाहते तो आपको मेरे मित्र कर्ण को युद्ध करने की आज्ञा देनी होगी। आपको आपके पिता महाराज शांतनु और हस्तिनापुर की सौगंध है। आप किसी भी तरह मेरे मन की ये व्यथा दूर करें।"

इस प्रकार दुर्योधन द्वारा अपने पिता और हस्तिनापुर की सौगंध दिए जाने पर भीष्म के क्रोध का ठिकाना ना रहा। उन्होंने उसी क्षण पांच बाण लिए और उसे मन्त्रों से सिद्ध करते हुए कहा कि "हे मुर्ख! तू बार-बार मेरे पुरुषार्थ का अपमान करता है तो ले मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि कल इन्ही पांच बाणों से मैं पाँचों पांडवों का वध कर दूंगा। संसार का कोई भी दिव्यास्त्र इन पाँच बाणों को रोक नहीं पायेगा।" ऐसा कहकर वे निढाल होकर शैय्या पर बैठ गए। 

भीष्म को इस प्रकार प्रतिज्ञा करते देख दुर्योधन की प्रसन्नता का ठिकाना ना रहा। वो समझ गया कि भीष्म अपनी प्रतिज्ञा कभी नहीं तोड़ेंगे इसी कारण कल पांडवों का वध निश्चित है। किन्तु उन पाँच बाणों को भीष्म के शिविर में ही छोड़ना उसने उचित ना समझा। उसने मृदु स्वर में कहा "हे पितामह! आपकी इस प्रतिज्ञा से मेरे ह्रदय का सारा भय समाप्त हो गया किन्तु अगर आपकी आज्ञा हो तो मैं ये पाँचों बाण आज अपने साथ ले जाता हूँ। कल युद्ध के प्रारम्भ से पहले मैं ये आपको लौटा दूंगा।" भीष्म इतने दुखी थे कि कुछ कह ना सकते और दुर्योधन वो बाण लेकर चला गया।

कृष्ण को अपने गुप्तचरों से जैसे ही भीष्म की इस प्रतिज्ञा का समाचार मिला, वे चिंतित हो गए। प्रतिज्ञा और वो भी भीष्म की वो तो किसी भी मूल्य पर व्यर्थ नहीं जा सकती। उन्होंने तुरंत एक योजना बनायीं और द्रौपदी को कहा कि वो अर्धरात्रि में भीष्म का आशीर्वाद लेने चली जाये। ध्यान रखे कि वो जब उनके शिविर में प्रवेश करे तो वहाँ अंधकार रहे। दूसरी तरफ उन्होंने अर्जुन और भीम को कहा कि वे दुर्योधन के पास जाएँ और उन्हें गंधर्वों से बचाने के उपकार के बदले वो पाँच बाण माँग लाएं। कृष्ण के परामर्श अनुसार भीम और अर्जुन दुर्योधन से मिलने पहुँचे। 

अपने शत्रुओं को अपने सामने देख उसे बड़ा क्रोध आया किन्तु वो एक क्षत्रिय था इसी कारण उसने दोनों का स्वागत किया। जलपान के पश्चात उसने उन दोनों से वहाँ आने का कारण पूछा। इसपर अर्जुन ने कहा "भ्राताश्री! आपको कदाचित स्मरण होगा कि जब आपको वन में गंधर्वों ने बंधक बना लिया था तो मैंने और भीम भैया ने आपकी रक्षा की थी।" इस पर दुर्योधन ने कहा "हाँ। मुझे स्मरण है।" फिर अर्जुन ने आगे कहा "अपनी मुक्ति के बाद अपने मुझसे कहा था कि इस उपकार के बदले मैं आपसे कुछ भी माँग सकता हूँ। उस समय मैंने कुछ माँगा नहीं था किन्तु आज कुछ मांगने को इच्छुक हूँ। क्या आप मुझे वो चीज देंगे?"

इसपर दुर्योधन ने कहा "अच्छा ही हुआ कि आज तुम मुझसे उस उपकार के बदले कुछ मांगने चले आये। इससे मैं तुम्हारे उस उपकार के ऋण से उबर जाऊंगा। तुम कहो कि तुम्हे क्या चाहिए। मैं तुम्हे वचन देता हूँ कि जो भी तुम मुझसे माँगोगे अगर वो मेरे पास हुआ तो मैं तुम्हे अवश्य दूँगा।" दुर्योधन के ऐसा कहने पर अर्जुन ने उससे वो पाँचों बाण माँग लिए। दुर्योधन को दुःख तो बड़ा हुआ किन्तु वो एक क्षत्रिय था इसी लिए बिना संकोच उसने वो पाँचों बाण अर्जुन को दे दिए। वे दोनों उन पाँचों बाणों को लेकर वापस शिविर में आ गए जहाँ कृष्ण ने उन्हें नष्ट कर दिया।" 

उधर द्रौपदी आधी रात को भीष्म के शिविर पहुँची और उनके चरण स्पर्श किये। भीष्म ने समझा कि वो दुर्योधन की पत्नी भानुमति उनसे आशीर्वाद लेने आयी है इसी कारण उन्होंने उसे सौभाग्यवती रहने का आशीर्वाद दे दिया। जब शिविर में प्रकाश किया गया तो द्रौपदी ने पुनः भीष्म के चरण स्पर्श कर कहा "हे पितामह! आज अपने मुझे सौभाग्यवती रहने का वरदान दिया है अतः कल आप युद्ध में मेरे पतियों का वध किस प्रकार कर सकते हैं? कृपया कर अपना निश्चय टाल दीजिये और मुझे दिए वरदान की लाज रखिये। 

भीष्म ने द्रौपदी को आशीर्वाद तो दिया किन्तु स्वयं धर्म-संकट में पड़ गए। इसपर द्रौपदी ने उन्हें बताया कि वो पाँचों बाण अर्जुन ने दुर्योधन से दान में मांग लिए हैं। ये सुनकर भीष्म बड़े प्रसन्न हुए। इससे उनका प्रण भी ना टूटा और पांडवों की रक्षा भी हो गयी। उन्होंने द्रौपदी को पुनः अखंड सौभाग्यवती का आशीर्वाद देकर विदा किया। इस प्रकार श्रीकृष्ण ने एक बार फिर महाभारत युद्ध में पांडवों की रक्षा की। 

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