हमारे देश में एक से एक महादानी हुए हैं किन्तु आज हम जिस व्यक्ति की बात करने वाले हैं उसने दानवीरता की सारी सीमाओं को पार कर लिया। ये कथा है महाराज मोरध्वज की। कथा महाभारत की है किन्तु मूल महाभारत का भाग नहीं है। भारतीय दंतकथाओं में इसकी बड़ी प्रसिद्धि है। विशेषकर छत्तीसगढ़ में इसे बड़े चाव से सुना और सुनाया जाता है।
ये कथा महाभारत युद्ध के बाद की है। युद्ध जीतने के बाद युधिष्ठिर ने अश्वमेघ यज्ञ किया। सहस्त्रों ब्राह्मणों को इतना दान दिया गया जिसकी कोई उपमा नहीं थी। इसी कारण अर्जुन के मन में अभिमान आ गया। एक दिन उसने बात ही बात में श्रीकृष्ण ने कहा कि हे माधव! मैं भी कितना भाग्यशाली हूँ जो मुझे आपका सबसे बड़ा भक्त बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। बल में भी मेरी समता कोई और नहीं कर सकता और मेरे भ्राता युधिष्ठिर सा दानवीर भी कोई और नहीं है।
श्रीकृष्ण समझ गए कि उसके सखा को अभिमान ने छू लिया है और उसका उद्धार करना आवश्यक है। उस समय उन्होंने कुछ नहीं कहा और थोड़े दिन के बाद अर्जुन अश्वमेघ यज्ञ के दिग्विजय के लिए निकल गया। कई दिनों तक चलने के बाद वो घोडा रतनपुर राज्य की सीमा में प्रवेश कर गया। वहां के राजा हैहय वंश के मोरध्वज थे जो बहुत ही प्रतापी और न्यायप्रिय थे। उनका छह वर्ष का एक ही पुत्र थे जिसका नाम था ताम्रध्वज। इतनी कम आयु में ही वो युद्ध कला में निपुण हो चुका था।
उस अश्व को देख कर उस बालक ने कौतुहल में ही उसे पकड़ लिया। जब अर्जुन ने उसे देखा तो उसे समझाते हुए कहा कि अश्व को मुक्त कर दे। किन्तु बालक होते हुए भी ताम्रध्वज को धर्म का ज्ञान था। उसने कहा कि यदि वो अश्व चाहते हैं तो उन्हें उसे परास्त करना पड़ेगा। अर्जुन को अपनी वीरता का अभिमान तो हो ही चुका था। उसने हँसते हुए केवल एक बाण चलाया ताकि वो बालक विवश हो जाये और वे अश्व लेकर वहां से जा सकें। लेकिन उस बालक ने अद्भुत वीरता दिखाते हुए अपने छोटे से धनुष से ही उस बाण के टुकड़े कर दिए।
अर्जुन को विश्वास नहीं हुआ कि एक बालक उनका बाण काट सकता है। उन्होंने धीरे धीरे प्रहार करना आरम्भ किया पर प्रभु की माया से वो बालक उन पर भारी पड़ने लगा। अंत में एक बाण ताम्रध्वज ने ऐसा मारा कि अर्जुन मूर्छित हो गए। इसके बाद ताम्रध्वज उस अश्व को लेकर अपने राज्य में चला गया।
उधर जब अर्जुन की मूर्छा टूटी तो उन्हें विश्वास नहीं हुआ कि एक छोटे से बालक ने उन्हें परास्त कर दिया। वे समझ गए कि ये सब श्रीकृष्ण की लीला है। वे तत्काल उनके पास पहुंचे और अपने अभिमान के लिए क्षमा मांगी। तब श्रीकृष्ण ने उनसे कहा कि हे पार्थ! तुम्हे अपनी वीरता के अतिरिक्त इस बात का भी अभिमान था कि तुमसे बड़ा मेरा कोई भक्त नहीं और महाराज युधिष्ठिर से बड़ा कोई दानी नहीं। बल का अभिमान तो तुम्हारा टूट ही चुका है, आओ अब बांकी दो का भी निवारण कर दिया जाये।
ये कह कर श्रीकृष्ण और अर्जुन साधु के वेश में महाराज मोरध्वज के राज्य में पहुंचे। उन्होंने अपने साथ एक सिंह को भी रख लिया। जब राजा मोरध्वज ने दो साधुओं को देखा तो उनका सत्कार किया और पूछा कि उन्हें क्या दान चाहिए? तब श्रीकृष्ण ने कहा कि हे राजन, हमें अपने लिए कुछ नहीं चाहिए किन्तु हमारा सिंह भूखा है, इसे भोजन करा दीजिये।
तब राजा मोरध्वज ने अपने सेवकों से मांस की व्यवस्था करने को कहा तो श्रीकृष्ण ने कहा कि हमारा सिंह केवल मनुष्यों के मांस का भक्षण करता है। राजा ये सुनकर एक पल को चौंके कि इस सिंह के भोजन के लिए किसी निर्दोष मनुष्य के प्राण वे कैसे ले सकते हैं, किन्तु फिर उन्होंने सोचा कि दूसरे का नहीं तो अपने प्राण लेने का तो उन्हें अधिकार है ही। ये सोच कर उन्होंने श्रीकृष्ण से कहा - "ब्राह्मण देव! आप चिंता ना करें। मैं इसे स्वयं अपना मांस खिलाऊंगा।"
ये सुनकर अर्जुन उनकी दानवीरता से संतुष्ट हो गए किन्तु श्रीकृष्ण नहीं। उन्होंने कहा - हे राजन! मेरा सिंह केवल बालक के मांस का ही भक्षण करता है।" ये सुनकर राजा और चिंतित हो गए। फिर उन्होंने सोचा कि शास्त्रों में पुत्र को भी पिता की संपत्ति ही कहा गया है। ये सोच कर उन्होंने अपने एकलौते पुत्र ताम्रध्वज का मांस उस सिंह को खिलाने का निश्चय किया। ये सुनकर अर्जुन सन्न रह गए।
मोरध्वज ने कहा - "हे ब्राह्मण देव! वो निश्चय ही मेरा पुत्र है किन्तु उसपर केवल मेरा अधिकार नहीं है। इसीलिए मुझे एक बार उसकी माता से भी पूछ लेने दीजिये।" मोरध्वज की पत्नी रानी पद्मावती परम पतिव्रता थी। जब उसने ये बात सुनी तो उसने अपने ह्रदय पर पत्थर रख कर अपने पुत्र का बलिदान स्वीकार कर लिया। किन्तु ऐसा करने से पहले उसने श्रीकृष्ण से कहा - "हम उसके माता पिता अवश्य है किन्तु उसके प्राण पर हमारा अधिकार नहीं है। अतः एक बार हमें अपने पुत्र से भी पूछ लेने दीजिये।"
ये कहकर ताम्रध्वज को बुलाया गया। जब उस छः वर्ष के बालक ने अपने माता पिता की दुविधा सुनी तो हँसते-हँसते अपना बलिदान देने को तैयार हो गया। ये देख कर अर्जुन अपने मन में धन्य-धन्य कर उठे। उसने सोचा कि अब तो परीक्षा समाप्त हुई पर श्रीकृष्ण ने आगे भी शर्त रखी। उन्होंने कहा कि "हे महारानी! आप दोनों धन्य हैं और उससे भी धन्य है ये बालक किन्तु ये सुन लीजिये कि मेरा सिंह इस बालक का मांस केवल तभी ग्रहण करेगा जब आप दोनों स्वयं उसे काट कर उसे खिलाएं। और ध्यान रहे कि ऐसा करते हुए दोनों की आँखों में कोई आंसू ना आये।"
अब तो अर्जुन के लिए ये अति थी। किन्तु राजा मोरध्वज और रानी पद्मावती इसके लिए भी तैयार हो गए। तभी ताम्रध्वज ने अपनी माता पिता का आशीर्वाद लिया और उन्हें रुई देते हुए कहा कि वे उसे अपने कानों में ठूंस लें ताकि उसकी चीखें उनके कानों तक ना पहुँच पाए। इसके बाद ताम्रध्वज प्रन्नतापूर्वक नीचे बैठ गया और राजा और रानी ने अपने हाथ में आरी ले ली।
उस दृश्य का वर्णन करना कठिन है किन्तु इतिहास साक्षी है कि एक माता पिता ने स्वयं अपने हांथों से अपने छः वर्ष के बालक को बीच से काट डाला और धर्म की रक्षा के लिए उनकी आँखों से एक बून्द आंसू भी नहीं गिरा। उनसे भी धन्य वो बालक था जिनसे उस असहनीय पीड़ा के बाद भी पीड़ा से एक शब्द भी अपने मुख से नहीं निकाले।
इसके बाद उन्होंने अपने पुत्र के दोनों कटे भाग उस सिंह को खाने के लिए दिया। मायारुपी उस सिंह ने ताम्रध्वज के दाहिने भाग को खा लिया और बाएं भाग को छोड़ दिया। यह देख कर रानी पद्मावती की आँखों से एक बून्द आंसू गिर पड़ा। तब श्रीकृष्ण ने उनसे पूछा कि अपने पुत्र को काटते समय वो नहीं रोई तो अब क्यों रो रही है? इस पर रानी पद्मावती ने कहा - "हे देव! मैं इस लिए रो रही हूँ कि नाम जाने मेरे पुत्र के किस पाप के कारण आपके सिंह ने उसका वाम भाग छोड़ दिया।"
ऐसा दृश्य देख कर अर्जुन की आँखों से आंसू निकलने लगे। उसका सारा अभिमान उन्ही आंसुओं में बह गया। देवताओं ने आकाश से मोरध्वज और पद्मावती पर पुष्पों की वर्षा की। तब श्रीकृष्ण ने रानी पद्मावती से कहा कि वे एक बार जोर से अपने पुत्र को पुकारें। रानी को कुछ समझ नहीं आया। उसका पुत्र तो मृत्यु को प्राप्त हो चुका था। फिर भी श्रीकृष्ण की इच्छा अनुसार उन्होंने ताम्रध्वज को पुकारा। श्रीकृष्ण की माया से उसी समय ताम्रध्वज जीवित हो गया और दौड़ कर अपनी माँ का आँचल पकड़ लिया।
राजा और रानी के हर्ष का ठिकाना ना रहा। उन्होंने श्रीकृष्ण से उनका परिचय पूछा। तब श्रीकृष्ण ने अपने चतुर्भुज रूप में उन्हें दर्शन दिए। तत्पश्चात श्रीकृष्ण की आज्ञा पर राजा ने अश्वमेघ यज्ञ का घोडा लौटा दिया और श्रीकृष्ण अर्जुन के साथ हस्तिनापुर लौट गए।
चूँकि राजा मोरध्वज और रानी पद्मावती ने ताम्रध्वज का अंग आरे से चीरा था, उस दिन से रतनपुर की राजधानी का नाम "आरंग" पड़ गया। वर्तमान में ये आरंग नगरी छत्तीसगढ़ के रायपुर जिले में स्थित है। इसे मंदिरों का नगर भी कहा जाता है। धन्य है भारत भूमि जहाँ ऐसे दानवीरों ने जन्म लिया है।
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