चार वटवृक्ष जो अमर हैं

चार वटवृक्ष जो अमर हैं
हिन्दू धर्म में वटवृक्ष का क्या महत्त्व है इस विषय में कुछ बताने की आवश्यकता नहीं है। वैसे तो इस दुनिया में असंख्य वटवृक्ष हैं किन्तु उनमें से ५ ऐसे हैं जो अमर माने जाते हैं। ऐसी मान्यता है कि उनका कभी नाश नहीं होता। तीर्थदीपिका में पांच वटवृक्षों का वर्णिन मिलता है:

वृंदावने वटोवंशी प्रयागेय मनोरथा:।
गयायां अक्षयख्यातः कल्पस्तु पुरुषोत्तमे।।
निष्कुंभ खलु लंकायां मूलैकः पंचधावटः।
स्तेषु वटमूलेषु सदा तिष्ठति माधवः।।
त्रिवेणी माधवं सोमं भारद्वाजं च वासुकीम्।
वंदे अक्षयवटं शेषं प्रयाग: तीर्थ नायकम्।।
  1. अक्षयवट: यह वृक्ष उत्तर प्रदेश के प्रयागराज में संगम तट पर स्थित है। जैसा कि इस वृक्ष के नाम से ही पता चलता है, ये ऐसा वृक्ष है जिसका कभी क्षय नहीं होता। ऐसी मान्यता है कि इस वटवृक्ष में मनोकामना पूर्ण करने की शक्ति भी है इसी कारण इसे मनोरथ वृक्ष भी कहा जाता है। वैज्ञानिक शोध के अनुसार इस वृक्ष की आयु कम से कम ३२५० ईसा पूर्व की है। अर्थात आज से लगभग ५२७२ वर्ष पूर्व। यह काल युधिष्ठिर संवत के आस पास का है। इस वृक्ष का महत्त्व देखते हुए हफ्ते में केवल २ दिन कड़ी सुरक्षा के बीच केवल इसकी एक डाल के दर्शन कराये जाते हैं। इतिहास बताता है कि अत्याचारी मुग़ल सम्राट अकबर ने अपना किला बनाने के लिए आस पास के सारे मंदिरों को ध्वस्त कर दिया किन्तु अपने लाख प्रयासों के बाद भी तो उस वृक्ष को नष्ट नहीं कर पाया। जो काम अकबर नहीं कर पाया वो उसके बेटे जहांगीर ने करने की ठानी। उसने इस वृक्ष को कटवा दिया और अनेकों बार कटवाया। किन्तु ये वृक्ष बार बार पुनः उगता रहा। अंत में हार कर जहांगीर ने इस वृक्ष को वैसे ही रहने दिया। बाद में इस वृक्ष को नष्ट करने का बीड़ा औरंगजेब ने उठाया और इसे कई बार जलाने का प्रयत्न किया। यहाँ तक कि उसने इसे तेजाब से भी जलाने का प्रयत्न किया पर असफल रहा। आज भी इस वृक्ष के पास इसे जलाने के चिह्न देखे जा सकते हैं। मुगलों के अत्याचारों से बचने के लिए कई लोगों ने इस वृक्ष पर चढ़ कर गंगा में कूद कर अपने प्राण दे दिए। ऐसी भी मान्यता है कि ऐसी मान्यता थी कि यदि कोई इस वृक्ष पर चढ़ कर आत्महत्या कर ले तो वो सीधा स्वर्ग चला जाता है। इसी कारण कई लोगों ने स्वयं ही इस वृक्ष पर चढ़ कर आत्महत्या कर ली। इसका बहाना बना कर बाद में में अंग्रेजों ने इसे आदमखोर वृक्ष की संज्ञा दे दी। कहने का अर्थ ये है कि मुगलों और अंग्रेजों के लाख प्रयासों के बाद भी आज भी अक्षय वट की महत्ता जस की तस बनी हुई है। इसके जन्म के विषय में एक कथा आती है कि सृष्टि कल्याण के लिए परमपिता ब्रह्मा ने यहाँ एक यज्ञ किया था जिसमें वे पुरोहित, श्रीहरि यजमान और महादेव यज्ञ देवता बने। त्रिदेवों के अंशों से ही इस अक्षय वट की उत्पत्ति हुई मानी जाती है। एक अन्य कथा के अनुसार जब श्रीराम वनवास को आये तो उन्होंने इस वृक्ष के नीचे विश्राम करने से पहले अक्षय वट की आज्ञा ली। उन्होंने अक्षय वट से कहा कि मुझे शरण देने के कारण हो सकता है कि माता कैकयी तुम्हे नष्ट करवा दे। तब अक्षय वट ने प्रसन्नता पूर्वक उन्हें शरण दी। इससे प्रसन्न होकर श्रीराम ने इसे अमर होने का वरदान दिया।
  2. सिद्धवट: मध्यप्रदेश के उज्जैन के भैरवगढ़ के पूर्व में शिप्रा के तट पर प्रचीन सिद्धवट का स्थान है। इसे शक्तिभेद तीर्थ के नाम से जाना जाता है। पौराणिक कथा के अनुसार इसी सिद्धवट के नीचे माता पार्वती ने महादेव को पति रूप में पाने के लिए कठोर तपस्या की थी। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर ना केवल महादेव ने उन्हें अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार किया बल्कि इस वृक्ष को ये वरदान भी दिया कि जो भी इस वृक्ष पर दूध चढ़ाएगा उसे मेरा आशीर्वाद और उसके पित्तरों को मोक्ष प्राप्त होगा। अपनी माता के समान ही तारकासुर के वध से पहले भगवान कार्तिकेय ने इस वृक्ष के नीचे कठिन तप किया था। बाद में महादेव ने इसे वरदान देकर अमर बना दिया। इसी कारण आज अभी इस वृक्ष को लोग साक्षात् शिव का ही स्वरुप मान कर उसकी पूजा करते हैं। हिन्दू धर्म में तीन प्रकार की सिद्धि मानी गयी है - संतति, संपत्ति और सद्‍गति। सद्‍गति अर्थात पितरों के लिए अनुष्ठान किया जाता है। संपत्ति अर्थात लक्ष्मी कार्य के लिए वृक्ष पर रक्षा सूत्र बांधा जाता है और संतति अर्थात पुत्र की प्राप्ति के लिए उल्टा स्वस्विक बनाया जाता है। ये वृक्ष इन तीनों सिद्धियों को देने में सक्षम है, इसीलिए इसे सिद्ध वट कहते हैं। स्कन्द पुराण में इस वृक्ष के बारे में विस्तार से लिखा गया है। ये स्थान पूरे देश में कालसर्पदोष के निवारण के लिए प्रसिद्ध है।
  3. वंशीवट: उत्तर प्रदेश के मथुरा जिले में वृंदावन के यमुना के किनारे ये महान वटवृक्ष स्थित है। मान्यता है कि इसी स्थान पर द्वापर युग में श्रीकृष्ण अपने बालपल में खेला करते थे और गायों को चराते हुए विश्राम करते थे। इसी स्थान पर उन्होंने तरह-तरह की लीलाएं कीं। ये वृक्ष श्रीकृष्ण की कई लीलाओं का साक्षी रहा है। बेणु वादन, दावानल का पान, प्रलम्बासुर का वध तथा नित्य रासलीला करने के साक्षी ररहे इस वट का नाम वंशीवट इसलिए पड़ा क्योंकि इसकी शाखाओं पर बैठकर श्रीकृष्ण वंशी बजाते थे और गोपियों को रिझाते थे। ये वृक्ष राधा और श्रीकृष्ण की लीलाओं का साक्षी है। इसी वटवृक्ष के नीचे श्रीकृष्ण ने कई रास लीलाएं और महारास किया था। ऐसी मान्यता है कि इस वटवृक्ष से आज भी कान लगाकर ध्यान से सुनने पर आपको ढोल, मृदंग और वंशी की आवाज सुनाई देगी। इस वृक्ष की आयु भी लगभग ५५०० वर्ष बताई जाती है। 
  4. गया वट: चौथा अमर वटवृक्ष बिहार के गया में है जो आज बोधिवृक्ष के नाम से प्रसिद्ध है। ऐसी मान्यता है कि इसे स्वयं परमपिता ब्रह्मा ने स्वर्ग से लेकर यहाँ रोपा था। इसकी एक बड़ी प्रसिद्ध कथा रामायण की एक लोक कथा में मिलती है। जब महाराज दशरथ का निधन हुआ तो श्रीराम लक्ष्मण और माता सीता के साथ उनका पिंडदान करने गया आये। किसी कार्यवश श्रीराम और लक्ष्मण कही गए हुए थे तभी महाराज दशरथ की आत्मा प्रकट हुई और अपने पुत्रों की अनुपस्थिति में माता सीता को ही पिंडदान करने को कहा। तब माँ सीता ने फल्गु नदी, एक गाय, केतकी के फूल और वहां उपस्थित इसी गया वट को साक्षी मान कर अपने स्वसुर महाराज दशरथ का पिंडदान कर दिया। जब श्रीराम और लक्ष्मण लौटे तो माता सीता ने उन्हें सारी बात बताई पर उन्हें सहज विश्वास नहीं हुआ। ये देखकर माता सीता ने चारो को सत्य बताने को कहा। तब फल्गु नदी, गाय और केतकी के फूल ने असत्य बोल दिया कि ऐसा कुछ नहीं हुआ किन्तु गया वट ने श्रीराम को सत्य बताया। तब माता सीता ने फल्गु नदी को सूखा रहने का, गाय के मुख को अपवित्र रहने का और केतकी के पुष्प को महादेव को समर्पित ना करने का श्राप दे दिया और गया वट को अमर होने का वरदान दिया। तब श्रीराम ने भी गयातीर्थ को ये वरदान दिया कि यहाँ किया गया पिंडदान सीधा पित्तरों तक पहुंचेगा। इसी कारण गया को सम्पूर्ण विश्व में पिंडदान के लिए सर्वश्रेष्ठ स्थान माना गया है। इसी वृक्ष के नीचे बैठ कर गौतम बुद्ध ने तपस्या की थी और उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। इसी कारण हिन्दुओं के अतितिक्त बौद्धों और जैनों के लिए भी ये वृक्ष अत्यंत पवित्र है।

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