युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में किसने क्या काम किया?

ये प्रसंग महाभारत के राजसू यज्ञ का है। कृष्ण ने चतुराई से भीम के हांथों जरासंध का वध करवा दिया। एक वही था जो युधिष्ठिर के राजसू यज्ञ के लिए बाधा बन सकता था। उसके बाद पांडवों ने दिग्विजय किया और समस्त आर्यावर्त के राजाओं को अपने ध्वज तले आने को विवश कर दिया। इसके बारे में विस्तार पूर्वक आप यहाँ पढ़ सकते हैं।

जब राजसू यज्ञ हुआ तो पुरे आर्यावर्त से समस्त राजा इंद्रप्रस्थ को पधारे। दुर्योधन भी कर्ण, शकुनि एवं दुःशासन सहित वहाँ पहुँचा। अब तक उसने समझा था कि बटवारे में निर्जन खाण्डवप्रदेश पाकर पाण्डव हतोत्साहित हो जाएंगे किन्तु जब उसने वहाँ की चमक-धमक देखा तो हैरान रह गया। उसने कभी सोचा भी नहीं था कि पांडव इतनी समृद्ध नगरी का निर्माण कर सकते हैं।

उसके अंदर की ईर्ष्याग्नि और भी बढ़ गयी और साथ ही साथ उसे ये भय भी सताने लगा कि इस कारण उसे पांडवों के सामने लज्जित होना पड़ेगा। किन्तु अब प्रतीक्षा करने के अतिरिक्त चारा भी क्या था? राजसू यज्ञ के कुछ दिन पहले भीष्म भी धृतराष्ट्र, गांधारी एवं द्रोण सहित इंद्रप्रस्थ पहुँच गए। जिस दिन राजसू यज्ञ होने वाला था, युधिष्ठिर ने सभी पाण्डवों एवं कौरवों को बुलाकर कहा - "जैसा कि आप सब को पता है कि ये राजसू यज्ञ कितने बड़े स्तर पर हो रहा है। अतः ये आयोजन आप सबों के सहयोग के बिना नहीं हो सकता इसी कारण मैं आपलोगों में कुछ जिम्मेदारी बाँटना चाहता हूँ।" ये सुनकर दुर्योधन शंकित हो गया कि पता नहीं युधिष्ठिर उसे नीचा दिखने के लिए कौन सा काम दे दे।

युधिष्ठिर के कुछ कहने से पहले ही श्रीकृष्ण ने ब्राह्मणों के पैर धोने की जिम्मेदारी स्वयं ले ली, जिसे युधिष्ठिर ने स्वीकार कर लिया। उसके बाद युधिष्ठिर ने दुःशासन को भंडार, युयुत्सु को अतिथियों के शिविर एवं विकर्ण को अर्जुन के साथ सुरक्षा का उत्तरदायित्व सौंपा। विदुर एवं शकुनि को यज्ञ के प्रबंधन की जिम्मेदारी दी गयी। इसके पश्चात उन्होंने कर्ण से मृदु स्वर में कहा - "हे दानवीर! आपकी दानवीरता की चर्चा तो पूरे विश्व में है इसीलिए आप याचकों के दान देने की जिम्मदारी संभालिये। इतना महत्वपूर्ण उत्तरदायित्व मिलने पर कर्ण बड़े प्रसन्न हुए और उसे सहर्ष स्वीकार किया। फिर युधिष्ठिर ने पितामह भीष्म और गुरु द्रोण से प्रार्थना की कि वे इस पूरे आयोजन के मार्गदर्शक बनें ताकि सब कुछ सही चलता रहे। 

तब भीम ने युधिष्ठिर से कहा - "आपने अभी तक राजकीय कोष की जिम्मेदारी किसी को नहीं सौंपी है। ये उत्तरदायित्व तो सबसे बड़ा है जहाँ हमें अपने सबसे विश्वस्त व्यक्ति को नियुक्त करना चाहिए ताकि धन का दुरूपयोग ना हो। आप किसे वो दायित्व सौंप रहे हैं?" तब युधिष्ठिर ने मुस्कुराते हुए कहा - "अनुज! वो दायित्व में प्रिय भ्राता दुर्योधन के अतिरिक्त और किसे सौंपा जा सकता है? इससे अधिक विश्वस्त व्यक्ति तो मुझे कोई और नहीं दीखता।" 

युधिष्ठिर के ऐसा कहते ही भीम और दुर्योधन दोनों हैरान रह गए। भीम को दुर्योधन पर बिलकुल भी विश्वास ना था किन्तु उसने सबके सामने इस निर्णय का विरोध कर दुर्योधन का अपमान करना उचित ना समझा। दूसरी ओर दुर्योधन को विश्वास ना हुआ कि जिनके साथ उसने इतना अन्याय किया वो इतनी सहजता से पूरा राजकोष उसके भरोसे छोड़ रहे हैं।

उसकी सारी आशंका समाप्त हो गयी और उसने युधिष्ठिर का धन्यवाद करते हुए गर्व पूर्वक वो उत्तरदायित्व स्वीकार कर लिया। भीष्म और द्रोण ने युधिष्ठिर के इस निर्णय की भूरि-भूरि प्रशंसा की। जब धृतराष्ट्र और गांधारी को इसकी सूचना मिली तो उनके हर्ष का ठिकाना ना रहा और उन्होंने युधिष्ठिर को अनेकानेक आशीर्वाद दिया। उसके बाद दुर्योधन ने भी अपनी जिम्मेदारी को बखूबी निभाया और इस बात का पूर्ण ध्यान रखा कि धन का जरा भी अपव्यय ना हो। 

उस समय शायद ही किसी को ये याद रहा कि विगत समय में किसने किसके साथ अत्याचार किया या आने वाले समय में क्या हो सकता है। ये महाभारत के उन गिने-चुने प्रसंगों में है जब कौरवों और पांडवों ने आपसी मतभेद मिटा कर साथ कार्य किया। काश कि ये भाईचारा सदा के लिए रहता।

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