सती देवस्मिता

सती देवस्मिता
एक वैश्य जिसका नाम धर्मगुप्त था देवनगरी में रहता था। उसकी कन्या का नाम देवस्मिता था जो बहुत ही सुशील, सच्चरित्र कन्या थी। साथ ही साथ वो भगवान विष्णु की अनन्य भक्त थी। समय के साथ देवस्मिता के रूप और गुण की चर्चा दूर-दूर तक फ़ैल गयी और फिर धर्मगुप्त ने सही समय आने पर उसका विवाह पास ही ताम्रलिपि नगर के एक धार्मिक युवक मणिभद्र से कर दिया।

देवस्मिता पतिव्रता थी। घर का सारा काम -काज संभालने के साथ ही वह पति और सास- ससुर की खूब सेवा करती थी तथा अतिथियों का स्वागत सत्कार पूरी निष्ठा से करती थी जिससे सब लोग उससे प्रसन्न रहते थे। कुछ समय बाद उसके ससुर का देहांत हो गया जिससे सारी गृहस्थी का बोझ मणिभद्र पर आ गया और उसे देवस्मिता को छोड़ व्यापार के लिए विदेश जाना पड़ा।

वह कटाह नामक नगर में जाकर रहने लगा। दुर्भाग्यवश वहाँ कुछ ऐसे दुराचारी थे जो शराब पी कर नशे में स्त्रियों की निन्दा करते थे।मणिभद्र को यह बात नही रुची और उसने उन्हें समझाने का प्रयत्न किया। तब उनमे से एक शराबी ने कहा - "बालक! तुम्हे दुनियादारी का क्या ज्ञान। तुम भी तो अपनी स्त्री को छोड़ कर यहाँ पड़े हुए हो। क्या पता तुम्हारे पीठ पीछे वो क्या-क्या करती हो।" 

अपनी पत्नी के विषय में ऐसी बातें सुनकर मणिभद्र उनपर बहुत बिगड़ा और कहा - "जैसे कीचड में लिपटे हुए शूकर को गंदगी ही प्रिय होती है उसी तरह मदिरा के मद में धुत्त तुम पापियों को सभी स्त्रियां चरित्रहीन ही दिखती है। किन्तु मैं अपनी पत्नी को भली-भांति जनता हूँ। वो तो देवी है और ऐसी सती स्त्री के बारे में बुरी बात करना भी पाप है।"

मणिभद्र की ये बात उन दुष्टों को खल गयी और उन्होंने प्रतिशोध लेने की ठानी। उन्होंने मणिभद्र का पूरा पता ठिकाना जान लिया और ताम्रलिप्ति आकर मणिभद्र की पत्नी का सतीत्व भंग करने का निश्चय किया। वो चारों दुष्ट वहाँ आकर बौद्ध मठ में रुके और दुष्कर्म को सिद्ध करने का जाल रचने लगे। 

उसी मठ में एक बौद्ध संन्यासिन भी रहती थी जिसे धन का प्रलोभन देकर उन दुष्टों ने अपने पक्ष में कर लिया और देवस्मिता को अपने कुचक्र का शिकार बनाने के लिये घात में बैठे। वह बूढ़ी सन्यासिनी देवस्मिता के घर गयी जहाँ उसने उस वृद्धा का खूब सत्कार किया। सन्यासिनी ने धर्मोपदेश करके पहले उसके ह्रदय में अपने प्रति श्रद्धा उत्पन्न की और धीरे-धीरे उन दोनों में काफी पहचान हो गयी। सन्यासिनी ने एक दिन मौक़ा पाकर देवस्मिता के पति वियोग और यौवन की चर्चा चलायी। इससे देवस्मिता की सहानुभूति बढ़ी।

अन्त में एक दिन उस कुटनी ने देवस्मिता को अकेले पाकर कहा कि हमारे मठ में चार नौजवान व्यापारी ठहरे हैं। वे सभी तुम्हारे विरह में व्याकुल हैं एवं तुमसे भेंट करना चाहते हैं। कहो तो उन्हें भेज दूँ जिससे तुम्हारी विरह वेदना दूर हो जाये। कुटनी की ये बातें सुनकर देवस्मिता अवाक् रह गयी। उसे पता चल गया कि अब तक संयासिनी के उसके घर आने और मेल जोल बढ़ाने का उद्देश्य क्या था। उसने सोचा कि पहले उन दुष्टों को दंड देना जरूरी है इसलिये कुटनी से उसने हँसकर कहा "अच्छा, आप आज शाम को उन्हे यहाँ ले आना। मैं पूछूँगी कि वो मुझसे क्यों मिलना चाहते हैं।" 

वो कुटनी अपनी कुटिलता को सफल हुआ समझ प्रसन्नता से ये समाचार उन दुष्टों को देने चल दी। देवस्मिता ने ऐसा कह तो दिया किन्तु अब उसे इस बात की घबराहट हुई कि वो अकेली स्त्री कहीं किसी मुसीबत में ना फस जाये। किन्तु उसे अपने आराध्य श्रीहरि विष्णु पर पूर्ण विश्वास था। उसने उनसे प्रार्थना करते हुए कहा - "हे नारायण! अगर मैंने मन एवं वचन से मणिभद्र के अतिरिक्त और किसी का ध्यान ना किया हो तो मुझे शक्ति दो ताकि मैं उन दुष्टों को दंड दे सकूँ।"

अगले दिन रात्रि को एक एक करके वह वृद्धा सन्यासिनी उन चारों को ले आयी। देवस्मिता ने पहले से ही अपने विश्वस्त नौकरों को घर में छिपा रखा था और उनके हाथों में गरम किये हुए लोहे के पंजों को दे रखा था। जैसे ही उन दुष्टों ने ने घर में प्रवेश किया, अंधेरे में छुपे नौकरों ने उन्हें अपने पंजों से उन्हे दाग दिया और घर के बाहर ढकेल दिया। उनकी बडी दुर्दशा हुई और वे बिना किसी से कुछ कहे ताम्रलिप्ति से भाग खड़े हुए। उस कुटनी संयासिनी से भी कुछ कहने का उन्हे अवसर न प्राप्त हुआ। 

देवस्मिता ने उस कुटनी को खूब धिक्कारा और कहा - "क्यों री! क्या इस प्रकार लोगों को पथभ्रष्ट करने के लिये ही तूने संयासिनी का वेष धारण किया है? धिककार है तुझे ! वेष साधु का रखती है और धंधा कुटनी का करती है।" तेरे उन चारों दुष्टों को तो मैंने मज़ा चखा दिया है, अब तेरी बारी है। बोल, तेरे साथ क्या करूँ जिससे तेरे-सरीखी ढोंगी स्त्रियाँ सदा के लिये चेत जायें।" 

देवस्मिता का चंडी रूप देखकर बुढ़िया काँप उठी और उसके पैरों में गिर पड़ी। यह देख देवस्मिता की सास को दया आ गयी और वो बीच-बचाव करने लगी। परंतु देवस्मिता ने कहा - "नही माताजी! इसे तो दंड देना ही चाहिये क्योंकि दुष्टों को उचित दण्ड न देने से पाप बढ़ता है और धर्म का लोप हो जाता है।" अन्त मे संयासिनी की सारी पोल उसने मठ के पुजारी को बुलाकर खोल दी। बुढ़िया मठ से निकाल दी गयी। 

अब देवस्मिता के मन में आया कि कहीं वे दुष्ट परदेश में मेरे पति से बदला न लें। उसने अपनी सास से आज्ञा लेकर पुरुष का वेष धारण किया और कटाह नगर जाकर अपने पति की दुकान के समीप ही मकान लेकर ठाट-बाट से रहने लगी। पुरुष वेष में होने के कारण उसका मणिभद्र उसे पहचान न सका। उसने बुद्धिमानी से ये पता लगा लिया कि उन चारों दुष्टों ने मणिभद्र के मन में उसके प्रति बुरी भावना भर दी है। उसने वहाँ के राजा से ये प्रार्थना की कि उसके चार नौकर भागकर यहाँ आ गये हैं उनका पता लगा कर उन चारों को मुझे वापस दे दिया जाये। कटाह का राजा शूरसेन बड़ा धर्मात्मा और नीतिज्ञ था। परदेसी व्यापारी की पुकार सुन कर उसने पूछा कि तुम्हारे नौकरों का नाम क्या है? उन्हे पकड़ कर तुम्हारे सुपुर्द कर दिया जायेगा।

देवस्मिता ने सब के नाम बताये परन्तु ये क्या? वे सब तो उस राज्य के नगर सेठ साहूकारों के लड़कों के नाम निकले। देवस्मिता को ये सुनकर बड़ा आश्चर्य हुआ। वे चारों राजसभा में बुलाये गये तथा राजा ने पुरूषवेशधारी देवस्मिता से कहा - "देखो तुम धोखा तो नही खा रहे हो? जिन्हें अपना नौकर बता रहे हो वे तो इस राज्य के बड़े सेठ साहूकारों के पुत्र हैं। इनका अपमान करने के अपराध में कहीं फँस न जाना।" 

देवस्मिता तनिक भी विचलित नही हुई। वह बोली - "महाराज! मेरे दासों के सिर में पंजे के चिह्न रहते हैं। इन लोगों की पगड़ी उतार कर देख लीजिये, आपको पता चल जायेगा कि ये मेरे दास हैं कि नही। राजा की आज्ञा से उन चारों की पगड़ी उतारी गयी तो उनके सिर पर पंजे के चिह्न दिखायी पड़े। उसे देखकर सबको आश्चर्य हुआ। राजा ने जब चिह्नों का रहस्य पूछा तो लज्जा के मारे उनका सिर झुका रहा, मुँह से एक शब्द भी न निकला।

अब देवस्मिता अपने वास्तविक स्वरुप में आई और उन पापियों का सारा भण्डाफोड़ कर दिया। यह सुनकर राजा बहुत क्रोधित हुए और उनको कारावास भेज दिया। जब उनके माता-पिता को इसका पता चला तो उन्होंने देवस्मिता के चरणों में गिरकर क्षमा माँगी। तब उनपर दया करके उसने राजा से प्रार्थना करके उनको माफ़ी दिलवा दी। राजा देवस्मिता से बहुत प्रसन्न हुए और उनके पातिव्रत्य की भूरि-भूरि प्रशंसा की। उसने देवस्मिता का भरपूर सम्मान करके बहुमूल्य वस्त्रालंकारों से सुसज्जित करके विदा किया। 

मणिभद्र ने जब अपनी पत्नी की अद्भुत पातिव्रत्य की कहानी सुनी तो उसे बहुत प्रसन्नता हुई और उसके मन की सारी आशंकाएँ दूर हो गयी और वह भी उसके साथ अपने घर लौट गया। मणिभद्र की माँ ने जब ये समाचार सुना तो उसका ह्रदय भी गद-गद हो गया। उन्होंने अपनी पुत्रवधू को सीने से लगा लिया और जब ह्रदय का आवेग शांत हुआ तो प्रसन्न होकर कहा - "पुत्री! तू तो सचमुच देवी है। भगवान विष्णु तेरे सौभाग्य को सदा अचल रखे। तेरे जैसी देवियों से ही स्त्रीजाति गौरव से अपना सिर उन्नत करती हैं। नगर और राज्य में देवस्मिता के इस साहस,पातिव्रत्य, प्रेम,धर्मप्रियता और कुशलता की कहानी सर्वत्र फैल गयी और सब उसकी जयजयकार करने लगे। हरि ॐ। 

डॉ नीलिमा मिश्रा
ये कहानी हमें डॉ नीलिमा मिश्रा ने धार्मिक कहानी प्रतियोगिता के लिए भेजी थी। ये इलाहबाद की रहने वाली हैं और इलाहबाद विश्वविद्यालय से ही इतिहास में स्नाकोत्तर की डिग्री प्राप्त की। इसके पश्चात इन्होने बुंदेलखंड के अभिलेखों के सांस्कृतिक अध्यन पर पी.एच.डी. की। वर्तमान में ये आई.आई.आई.टी. इलाहबाद में सामाजिक विज्ञान की प्राध्यापिका एवं विभागाध्यक्ष के पद पर कार्य कर रही हैं। ये सोसाइटी आफ पिलग्रिमेज स्टडीज़ इलाहाबाद की ज्वाइंट सेक्रेटरी भी हैं और २०१९ के कुम्भ मेले में आयोजित होने वाले अंतर्राष्ट्रीय सम्मलेन की तैयारिओं में संलग्न हैं। २०१५ में बैंकाक (थाईलैंड) में देश का प्रतिनिधत्व करते हुए उन्हें अपना पत्र पढ़ने का अवसर प्राप्त हुआ। इनके लेख कई पत्रिकाओं में छप चुके हैं और ये साहित्य के प्रतिनिधित्व को माँ सरस्वती की साधना मानती हैं। धर्मसंसार में सहयोग के लिए हम इनके आभारी हैं।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

कृपया टिपण्णी में कोई स्पैम लिंक ना डालें एवं भाषा की मर्यादा बनाये रखें।