ब्रह्मा विष्णु महेश में से किनके भक्त अधिक संतुष्ट रहते हैं?

देवर्षि नारद को घुमक्कड़ ऋषि भी कहा जाता है क्यूँकि वे सदैव संसार का हाल जानने के लिए इधर-उधर घूमते रहते हैं। एक बार देवर्षि भगवान ब्रह्मा के दर्शनों को ब्रह्मलोक पहुँचे। वहाँ उन्होंने प्रभु को नमस्कार किया और उनसे कहा - "पिताश्री! पृथ्वी पर लोग बड़े सरल है। मैं अनेकानेक स्थानों पर जाता रहता हूँ किन्तु मुझे कभी कोई जटिल समस्या नहीं दिखी। आपने वास्तव में बड़े सरल सृष्टि की रचना की है।

किन्तु मुझे ये बात समझ में नहीं आती कि फिर भगवान विष्णु क्यों कहते हैं कि सृष्टि का पालन करना अत्यंत कठिन है? वे तो सर्वज्ञ हैं फिर जिस बात की जानकारी मुझे है वो उन्हें कैसे नहीं पता?" देवर्षि की बात सुनकर ब्रह्मदेव मुस्कुराये और उन्होंने उन्हें एक बार फिर पृथ्वी पर जाने की आज्ञा दी। देवर्षि को कुछ समझ में नहीं आया पर पिता की आज्ञा पाकर वे पृथ्वी पर पहुँचे।

वहाँ पहुँचते ही परमपिता ब्रह्मा की माया से उनकी भेंट एक अत्यंत दरिद्र व्यक्ति से हुई। जैसे ही उस व्यक्ति ने देवर्षि को देखा उसने तुरंत उन्हें पहचान लिया और दौड़ कर उनके पास आया। उसने रोते-रोते देवर्षि से अपना दुखड़ा रोया और कहा कि "हे देवर्षि! आपको तो सुख साधनों की कमी नहीं है लेकिन मेरे बारे में भी तो सोचिये। मुझे दो वक्त की रोटी भी नसीब नहीं होती और आप ऊपर देवताओं के साथ छप्पन भोग का मजा उठाते हैं। कृपा इस बार जब आप श्रीहरि से मिलें तो कह दें कि उनकी सृष्टि में कोई सुखी नहीं है। उनसे कहकर कृपया मेरे गुजारे का प्रबंध कर दें।"

अपने आराध्य भगवान विष्णु के बारे में ऐसा सुनकर देवर्षि को बहुत बुरा लगा किन्तु उन्होंने कुछ कहा नहीं और आगे बढे। आगे एक अत्यंत धनी व्यक्ति उन्हें मिला। उसने भी देवर्षि को पहचाना और पास आकर कहा - "मुझे भगवान ने किस जंजाल में फसा दिया है? इतना धन देने की क्या आवश्यकता थी? मैं तो परेशान हो गया। आप स्वयं तो संयासी बन फिरते हैं और मुझे इस चक्कर में फसा दिया। इस बार परमपिता ब्रह्मा से भेंट हो तो उनसे कहें कि किस प्रकार की सृष्टि रची है? धन को बनाने की आवश्यकता ही क्या थी? उनसे कहें कि मुझे इस मुसीबत से निकालें।"

नारदजी बड़े आश्चर्य में पड़ गए और आगे बढे। आगे उनकी मुलाकात साधुओं के एक झुण्ड से हुई। उन्हें देखते ही साधुओं ने उन्हें घेर लिया और कहा - "आप तो स्वर्ग में अकेले मौज करते हैं और हम यहाँ दर-दर भटक रहे हैं। भोलेनाथ भी अजीब हैं। उन्हें लगता है कि सब उन्ही की तरह बिना सुख-साधन के रह सकते हैं। अगले बार जब महादेव से मिलें तो उनसे कहें कि उनके भक्त बड़े दुखी हैं और आप जैसे ठाठ-बाठ की इच्छा रखते हैं।" घबराये नारदजी ने जैसे-तैसे उनसे पीछा छुड़ाया और सीधे ब्रह्मलोक भागे। अब पृथ्वी पर कुछ और देखने की उनकी इच्छा ना रही।

ब्रह्मलोक पहुँचकर उन्होंने परमपिता को सारी घटनाएं बताई। उन्होंने कहा - "हे पिताश्री! पृथ्वी का हाल तो बहुत बुरा है। एक व्यक्ति जिस चीज के आभाव में दुखी है, दूसरा उसी चीज की अधिकता से। और तो और सब लोग अपनी-अपनी समस्या के लिए आपको, नारायण एवं महादेव को दोष दे रहे हैं।" तब ब्रह्मदेव ने हँसते हुए कहा - "पुत्र! यही कर्म का विधान है। मैं कर्म के अनुसार ही किसी को कुछ दे सकने के लिए विवश हूँ। जिसकी कर्मठता ही समाप्त हो चुकी हो उसे मैं धनी कैसे बनाऊं?

अगली बार जब उस निर्धन से मिलना तो कहना कि परिश्रम करे और दरिद्रता से लड़े। उसकी दरिद्रता समाप्त हो जाएगी। उस धनी व्यक्ति से कहना कि धन संचय के लिए नहीं है। उसकी आवश्यकता के बाद जो कुछ भी बचता है उससे निर्धनों की सहायता करे जिससे उसे वास्तविक सुख प्राप्त होगा। और उन दुष्ट साधुओं से कहना कि साधुओं का ऊपरी दिखावा कर महादेव को दोष देने का कोई अर्थ नहीं। महादेव के जीवन से शिक्षा लें। उनके लिए क्या असंभव है किन्तु वे फिर भी याचक के रूप में रहते है। उसी प्रकार अगर बनना है तो वे वास्तविक संन्यासी बनें अन्यथा उन्हें नर्क के निकृष्टतम स्थान पर अनंतकाल तक रहना होगा।

और अंत में ये शिक्षा तुम्हारे लिए है कि संसार में इतना कुछ है जिसे जानना किसी के लिए भी संभव नहीं है। अतः बिना पूर्ण जानकारी के किसी भी निष्कर्ष पर नहीं पहुँचना चाहिए। अब तुम्हे ज्ञात हो गया होगा कि नारायण किस प्रकार सृष्टि का पालन करते हैं।" ब्रह्मदेव से इस ज्ञान को पाकर देवर्षि का भ्रम दूर हो गया। उन्होंने परमपिता का धन्यवाद किया और उनके सन्देश को सुनाने वापस पृथ्वी पर चले।

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