रंगभूमि में कर्ण और अर्जुन का सामना महाभारत के सबसे रोचक प्रसंगों में से एक है। आम तौर पर हम ये जानते हैं कि जब द्रोणाचार्य ने शिक्षा के बाद सभी राजकुमारों के कला प्रदर्शन हेतु रंगभूमि में समारोह किया तो सभी राजकुमारों ने एक से बढ़कर एक कला का प्रदर्शन किया। उन सब में से सबसे बढ़ चढ़ कर अर्जुन थे जिन्होंने ऐसे ऐसे कौशल दिखाए जिसे देख कर दर्शक हैरान रह गए।
फिर सूर्यपुत्र कर्ण ने रंगभूमि में प्रवेश किया और अपनी कला का प्रदर्शन करना चाहा, किन्तु उसके राजकुमार ना होने के कारण उसे इसका अवसर नहीं मिला। तब दुर्योधन ने कर्ण को अंग देश का राजा बना दिया ताकि वो अपनी कला का प्रदर्शन और अर्जुन से द्वन्द कर सके, किन्तु इसके बाद भी कुलगुरु कृपाचार्य ने कर्ण को ये अवसर नहीं दिया। उन्होंने उससे उसका परिचय पूछा और तब सब को पता चला कि कर्ण सूत अधिरथ का पुत्र है।
ये जो कथा है वो हम सभी ने सुनी है और इसपर ही विश्वास करते आ रहे हैं। किन्तु ये पूरा सत्य नहीं है। यदि आप व्यास महाभारत पढ़ेंगे तो आपको पता चलेगा कि रंगभूमि में कर्ण को भी अपनी कला का प्रदर्शन करने का पूरा अवसर मिला था। केवल उसी कारण दुर्योधन ने उसे अंग देश का राजा नहीं बनाया था। इसका वर्णन हमें महाभारत के आदि पर्व के अंतर्गत सम्भपर्व के अध्याय १३५ और १३६ में मिलता है।
इसके अनुसार जब अर्जुन ने अपनी कला का प्रदर्शन कर लिया तब कर्ण ने द्वार पर दस्तक दी। उसे सुनकर दर्शकों ने सोचा कि कहीं पर्वत तो नहीं फट गया? कौरव और पांडवों सहित सभी अपने स्थान पर खड़े हो गए। तब द्वारपालों ने कर्ण को भीतर जाने का मार्ग दे दिया और फिर भगवान भास्कर के अंश कर्ण ने सभा में प्रवेश किया जो रूप और तेज में उन्हें के समान था। उसे देख कर सभी ये जानने को इच्छुक हो गए कि ये वीर कौन है।
रंगभूमि में आकर कर्ण ने द्रोणाचार्य और कृपाचार्य को इस प्रकार प्रणाम किया जैसे उनके प्रति उसके मन में कोई विशेष आदर भावना ना हो। फिर कर्ण ने अर्जुन से कहा कि - "कुन्तीपुत्र! तुमने जो कार्य किया है उसपर अभिमान ना करो क्यूंकि मैं उससे भी अधिक दुष्कर कर्म करके दिखाऊंगा।" उसकी ये बात सुनकर अर्जुन क्रोध और लज्जा से और दुर्योधन प्रसन्नता से भर गए।
इसके बाद कर्ण ने द्रोणाचार्य से आज्ञा ली और जो-जो अस्त्र कौशल अर्जुन ने कर दिखाए थे, वो सभी दर्शकों को करके दिखलाया। उसका ऐसा पराक्रम देख कर दुर्योधन ने प्रसन्नता पूर्वक उसे गले लगा लिया और उसकी बड़ी प्रशंसा की। तब कर्ण ने दुर्योधन से कहा कि जो-जो कौशल अर्जुन ने किया मैंने वो सब कर दिखाया। अब मैं आपसे मित्रता और अर्जुन से द्वन्द करना चाहता हूँ। ये सुनकर दुर्योधन बहुत प्रसन्न हुआ।
उनकी बात सुनकर अर्जुन ने कर्ण से कहा कि बिना बुलाये आ जाने वाले लोग मरने के बाद जिन अधम लोकों में जाते हैं, तुम भी मेरे हाथों मरकर उन्ही लोकों में जाओंगे। तब कर्ण ने कहा कि रंगमंडप साधारण और सबके लिए खुला है, इसमें तुम्हारा क्या लगा है? आज मैं तुम्हारे गुरु के सामने ही तुम्हारा मस्तक धढ़ से अलग कर दूंगा। ये सुनकर अर्जुन युधिष्ठिर की आज्ञा लेकर और कर्ण दुर्योधन की सहमति लेकर युद्ध के लिए आमने सामने हो गए।
वहां बैठा सारा समाज उन दोनों योद्धाओं को देख कर दो गुटों में बट गया। दुर्योधन अपने भाइयों सहित कर्ण की ओर खड़ा हो गया और भीष्म, द्रोण और कृप पांडवों सहित अर्जुन की ओर। सारे दर्शक भी दो दलों में बंट गए। एक दल अर्जुन की तो दूसरा दल कर्ण की प्रशंसा करने लगे। यहाँ तक कि दोनों के पिता इंद्र और सूर्य भी आमने सामने आ गए। इंद्रदेव ने समस्त रंगभूमि को मेघों से घेर दिया जिसे देख कर सूर्यदेव ने अपनी किरणों से मेघों को छिन्न-भिन्न कर दिया।
माता कुंती जो ये जानती थी कि कर्ण भी उनके ही पुत्र हैं, अपने दोनों पुत्रों को आमने सामने देख कर मूर्छित हो गयी। विदुर ने दसियों द्वारा उन्हें संभाला और होश में लाया। तब वहां की स्थिति बिगड़ती देख कर कृपाचार्य ने कर्ण का परिचय पूछा। उन्होंने कर्ण से कहा कि तुम अपना, अपने माता पिता और अपने कुल का वर्णन दो। उसे सुनने के बाद ही अर्जुन तुमसे युद्ध करेंगे क्यूंकि धनञ्जय नीच कुल और हीन अचार-विचार वाले व्यक्ति के साथ युद्ध नहीं करते।
उनकी ऐसी बात सुनकर कर्ण ने लज्जा से सर झुका लिया। तब इस स्थिति में दुर्योधन ने सबके सामने कर्ण को अंगदेश का राजा बनाने की घोषणा कर दी और वहीँ रंगभूमि में उसका राज्याभिषेक भी कर दिया। तब कर्ण ने दुर्योधन से कहा कि आपने जो मेरा मान रखा उसके बदले में मैं आपको क्या दूँ? इस पर दुर्योधन ने उससे कभी ना समाप्त होने वाली मित्रता मांगी।
तभी कर्ण के पिता अधिरथ उस रंगभूमि में आये और कर्ण ने उन्हें प्रणाम किया। ये जानकर कि कर्ण अधिरथ का पुत्र है, भीम ने कर्ण की बड़ी निंदा की और अर्जुन से कहा कि वो धनुष रख दे क्यूंकि उससे युद्ध कर के उसका यश नहीं बढ़ सकता। इसपर दुर्योधन ने भी पांडवों को खरी-खरी सुनाई कर्ण का हाथ पकड़ कर उस रंगभूमि से बाहर चला गया। इसके बाद वो सभा समाप्त हो गयी।
महाभारत में ऐसा स्पष्ट वर्णन है कि उसी दिन से कर्ण का साथ पा कर दुर्योधन के मन से अर्जुन का भय सदा के लिए निकल गया। वहीँ युधिष्ठिर के मन में सदा के लिए कर्ण का भय समा गया। उन्हें ये विश्वास हो गया कि इस पृथ्वी पर कर्ण के समान कोई धनुर्धर नहीं है। इसी कारण पुरे महाभारत के युद्ध में युधिष्ठिर सदैव केवल कर्ण की ओर से ही चिंतित रहे।
तो इस प्रकार ये बात बिलकुल गलत है कि कर्ण को रंगभूमि में अपनी कला का प्रदर्शन करने का अवसर नहीं दिया गया था। हाँ, उस दिन कृपाचार्य के बीच बचाव के कारण रंगभूमि में कर्ण और अर्जुन के बीच द्वन्द नहीं हो पाया था। अतः जो लोग ऐसा समझते हैं कि सूतपुत्र होने के कारण कर्ण को मौका नहीं दिया गया वो गलत है क्यूंकि पांडवों और कौरवों की भांति कर्ण भी द्रोण शिष्य ही थे।
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