राजा उपरिचर वसु

राजा उपरिचर वसु
महाभारत में सत्यवती के बारे में आप लोगों ने सुना होगा। वे महाराज शांतनु की पत्नी और चित्रांगद और विचित्रवीर्य की माता थी। महर्षि व्यास का जन्म भी उन्ही के गर्भ से हुआ था। हालाँकि उनके जन्म के विषय में लोगों को अधिक जानकारी नहीं है। अधिकांश लोगो को ये पता है कि वो दाशराज की पुत्री थी किन्तु दाशराज केवल उनके पालक पिता थे। महाभारत के आदिपर्व के अंशअवतरणपर्व के ६३वें अध्याय में हमें उनके जन्म के विषय में पता चलता है जिसके अनुसार सत्यवती वास्तव में एक राज कन्या थी।

पूर्वकाल में एक राजा हुए जिनका नाम था वसु। देवराज इंद्र ने उन्हें चेदि देश का नरेश बनाया था। एक बार उन्होंने घोर तपस्या आरम्भ की। तब ये सोच कर कि वसु इन्द्रपद प्राप्त करना चाहते हैं, स्वयं देवराज इंद्र ने उन्हें दर्शन दिए और कहा कि उन्हें तपस्या छोड़ कर इस पृथ्वी का पालन करना चाहिए। जैसे स्वर्ग के शासक वे हैं, उसी प्रकार पृथ्वी पर जो भी सबसे सुन्दर प्रदेश है, उसके राजा वसु बनें।

देवराज की बात सुनकर वसु ने कहा कि अभी पृथ्वी पर चेदिदेश हर प्रकार से योग्य प्रदेश है। तब इंद्रदेव ने उन्हें वहाँ का राज्य प्रदान किया और उन्हें ये वरदान भी दिया कि संसार में जो कुछ भी घट रहा है, उस सब की जानकारी उन्हें प्राप्त होती रहेगी। उन्होंने राजा वसु को एक दिव्य विमान भी दिया जो आकाश में विचरण करता था। इसके अतिरिक्त उन्होंने उन्हें वैजयंती माला दी और ये वरदान दिया कि युद्ध में जब तक ये माला उनके गले में रहेगी, कोई उन्हें परास्त नहीं कर सकेगा।

इसके बाद देवराज इंद्र ने उन्हें एक बांस की लकड़ी भी दी जो सब प्रकार से उनकी सुरक्षा करने वाली थी। उसे वसु ने अपने राज्य में गाड़ दिया। वे प्रतिवर्ष उस लड़की को निकाल कर इंद्रोत्सव मनाते थे। चूँकि देवराज इंद्र उनके मित्र थे इसीलिए वे हविष्य ग्रहण करने स्वयं हंस के रूप में आते थे। उसी से दूसरे सभी राजा भी इंद्रोत्सव मनाने लगे और ये एक प्रथा बन गयी।

राजा वसु इंद्र के द्वारा विमान पर ही रहा करते थे जो आकाश में विचरता रहता था। सदैव भूमि के ऊपर ही रहने के कारण उनका एक नाम "उपरिचर" पड़ गया। उनकी राजधानी के पास शुक्तिमती नदी बहती थी जिसे कोलाहल नाम के पर्वत ने काम के वशीभूत होकर रोक रखा था। कोलाहल द्वारा उस नदी के गर्भ से एक पुत्र और एक पुत्री, दो जुड़वां संताने हुई।

जब राजा वसु ने देखा कि उस पर्वत ने शुक्तिमती नदी का प्रवाह रोक रखा है तो उन्होंने कोलाहल पर्वत पर अपने पैर से प्रहार किया। इससे उसमें दरार पड़ गयी और शुक्तिमती नदी मुक्त हो गयी। इससे प्रसन्न होकर उन्होंने महाराज उपरिचर को अपनी दोनों संताने अर्पित कर दी। शुक्तिमती के पुत्र को उपरिचर ने अपना सेनापति बना लिया। उसकी पुत्री, जिसका नाम गिरिका था, उसे उन्होंने अपनी पत्नी बनाया। उन्ही से उनके पांच पराक्रमी पुत्र उत्पन्न हुए।

उनके ज्येष्ठ पुत्र का नाम था बृहद्रथ जो मगध देश का राजा बना। इसी बृहद्रथ का पुत्र जरासंध था। तो इस प्रकार राजा वसु जरासंध के दादा थे। वसु के दूसरे पुत्र का नाम था प्रत्यग्रह, उनके तीसरे पुत्र थे कुशाम्ब, चौथे पुत्र का नाम था मावेल्ल और पांचवें पुत्र का नाम यदु था। इन पांचों ने आगे चल कर अपने-अपने नाम से अलग-अलग नगर बसाये।

एक बार महाराज उपरिचर से महारानी गिरिका ने काम याचना की। किन्तु उसी समय उनके पितरों ने उन्हें हिंसक पशुओं के संहार करने की प्रेरणा दी। उपरिचर उसे टाल नहीं सके और मन में गिरिका के काम की भावना को लेकर ही आखेट पर निकले। वहां उस वन की रमणीकता देख कर महाराज उपरिचर वसु का काम उनकी सीमा से बाहर हो गया और उनका तेज स्खलित हो गया।

उनका वो वीर्य व्यर्थ ना जाये इसीलिए उन्होंने उसे मन्त्रों से अभिमंत्रित किया और एक बाज के द्वारा उसे अपनी रानी के पास भेजा। वो बाज उनका वीर्य लेकर चला किन्तु मार्ग में एक दूसरे बाज से उसकी लड़ाई हो गयी जिससे वो वीर्य यमुनाजी के जल में जा गिरा। उसी जल में ब्रह्माजी के श्राप के कारण मछली के रूप में एक अप्सरा रहती थी। उसने उस वीर्य को निगल लिया।

बाद में मल्लाहों ने उस मछली को पकड़ा और जब उसका उदर चीरा गया तो उससे एक कन्या और एक बालक की उत्पत्ति हुई। उसी समय वो अप्सरा भी श्रापमुक्त हो कर अपने वास्तविक स्वरुप में आयी और स्वर्ग को चली गयी। ये अद्भुत चमत्कार देख कर मछुआरों ने उन दोनों को ले जाकर महाराज उपरिचर को दिखाया। तब महाराज वसु ने उस बालक को अपने पास रख लिया और उस कन्या को, जिसके शरीर से मछली की गंध आती थी, उसे दाशराज को सौंप दिया।

वो बालक आगे चलकर मत्स्य नाम का सच्चरित्र राजा हुआ और वही बालिका आगे चलकर मत्स्यगंधा और सत्यवती के नाम से प्रसिद्ध हुई। आगे की कथा तो हम जानते ही हैं। महर्षि पराशर के संयोग से सत्यवती के गर्भ से महर्षि व्यास का जन्म हुआ। 

महर्षि पराशर के आशीर्वाद से उसके शरीर से आने वाली मछली की गंध एक दिव्य सुगंध में बदल गयी जो एक योजन तक वातावरण को सुगन्धित करती थी। उसी से उसका एक नाम योजनगंधा भी पड़ा। आगे चल कर उनका विवाह महाराज शांतनु से हुआ। बाद में महाराज उपरिचर वसु अपने साम्राज्य को अपने पुत्र-पौत्रों में बाँट कर स्वर्ग चले गए।

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