कृपाचार्य

कृपाचार्य
महर्षि गौतम और उनकी पत्नी अहिल्या के विषय में तो हम सभी जानते ही हैं। इनका वर्णन मुख्य रूप से रामायण में किया गया है। रामायण के साथ साथ महाभारत में भी इनका वर्णन आता है। हालाँकि इन दोनों ग्रंथों में इनके अलग-अलग पुत्रों का वर्णन है। रामायण के अनुसार महर्षि गौतम के पुत्र ऋषि शतानन्द थे जो महाराज जनक के कुलगुरु थे। जब महर्षि विश्वामित्र श्रीराम और लक्ष्मण के साथ जनकपुरी पहुंचे तो वहां शतानन्द जी का विस्तृत वर्णन है।

हालाँकि महाभारत के अनुसार महर्षि गौतम के पुत्र का नाम महर्षि शरद्वान कहा गया है। महर्षि गौतम का कोई सीधा वर्णन तो महभारत में नहीं है किन्तु महर्षि शरद्वान को "गौतम पुत्र" कहकर सम्बोधित किया गया है। कई विद्वानों का मानना है कि महाभारत में वर्णित महर्षि गौतम अलग थे किन्तु आम तौर पर मान्यता ये है कि दोनों महर्षि गौतम एक ही थे।

तो महाभारत के अनुसार महर्षि गौतम के पुत्र थे महर्षि शरद्वान। ऐसा माना जाता है कि उनका जन्म बाणों के साथ ही हुआ था इसी कारण उन्हें ये नाम मिला। अपने नाम के अनुसार ही इन्हे धनुर्विद्या से अत्यंत प्रेम था। इन्होने वेदाभ्यासी बनने के बजाय धनुर्धर बनने का निश्चय किया। बाणों के साथ जन्म लेने के कारण इनमें नैसर्गिक धनुर्विद्या की प्रतिभा थी। अनेक वर्षों के अभ्यास से ये इतने महान धनुर्धर बन गए कि स्वयं देवराज इंद्र को ये शंका हो गयी कि अपनी वीरता के कारण ये स्वर्गलोक पर भी आक्रमण कर सकते हैं।

उधर ऋषि शरद्वान अन्य दिव्यास्त्रों को प्राप्त करने हेतु तप करने लगे। इससे देवराज की चिंता और बढ़ गयी। तब उन्होंने उनकी तपस्या भंग करने के लिए जानपदी नामक एक अत्यंत सुन्दर अप्सरा को उनके पास भेजा। शरद्वान कोई परम तपस्वी तो थे नहीं इसी कारण वे जानपदी के सौंदर्य पर मोहित हो गए और उसे देखते ही उनका वीर्यपात हो गया। उनका वीर्य एक सरकंडे पर गिरा जिससे उसके दो भाग हो गए। एक भाग से एक पुत्र और दूसरे भाग से एक पुत्री का जन्म हुआ।

अपना लक्ष्य प्राप्त कर जानपदी वापस स्वर्गलोक लौट गयी। शरद्वान ऋषि का लक्ष्य सदैव धनुर्वेद की तपस्या करना ही था। इस प्रकार अपनी तपस्या भंग होते देख उन्हें बड़ा दुःख हुआ। उन्होंने अपना धनुष-बाण वहीँ रखा और अपने नवजात शिशुओं को ईश्वर के सुपुर्द कर वे वहां से चले गए। कई दिनों तक वो दोनों शिशु भूखे-प्यासे उसी स्थान पर पड़े रहे।

एक दिन हस्तिनापुर नरेश शांतनु वहां आखेट को आये तो उन्होंने उन दोनों शिशुओं को देखा। उस समय तक गंगा उनके सात पुत्रों को मुक्त कर और आठवें शिशु को अपने साथ लेकर उन्हें छोड़ कर चली गयी थी। जब शांतनु ने उन दोनों को देखा तो उन्हें लेकर वे हस्तिनापुर आ गए। चूँकि वे दोनों ईश्वर की कृपा से ही जीवित बचे थे, शांतनु ने बालक का नाम कृप एवं बालिका का नाम कृपी रखा। वे राजपाठ में व्यस्त रहते थे इसी कारण उन्होंने उन दोनों बालक को अपने कुलगुरु के सुपुर्द कर दिया और उन्ही के आश्रम में वे दोनों शिक्षा ग्रहण करने लगे।

उधर शरद्वान ऋषि को ये ज्ञात हुआ कि उनके पुत्र और पुत्री को महाराज शांतनु ने गोद ले लिया है। वे हस्तिनापुर पहुंचे और महाराज शांतनु को सारी बातें बताई। फिर उन्होंने अपने पुत्र कृप को स्वयं धर्नुविद्या का ज्ञान दिया। शरद्वान के पास जो कुछ भी ज्ञान, अस्त्र एवं दिव्यास्त्र थे, उन्होंने अपने पुत्र कृप को दे दिया। इस प्रकार अपने पिता से धनुर्वेद के चारो रहस्यों का पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर कृप अपने पिता की ही भांति महान योद्धा बन गए।

युवा होने पर कृप की बहन कृपी का विवाह परशुराम शिष्य द्रोणाचार्य के साथ हुआ। उनसे उन्हें अश्वथामा नामक पुत्र की प्राप्ति हुई। इस प्रकार कृप अश्वथामा के मामा हुए। उधर शांतनु की मृत्यु के पश्चात गंगापुत्र भीष्म ने कृप को कुलगुरु के पद पर आसीन किया और तब वे कृपाचार्य कहलाये। पाण्डु की मृत्यु के पश्चात जब कुंती अपने पुत्रों को लेकर हस्तिनापुर वापस आई तब कृप ने ही कौरवों और पांडवों को अस्त्र-शस्त्रों की शिक्षा दी। इस प्रकार वे कौरवों और पांडवों के प्रथम गुरु थे। उनके अतिरिक्त उन्होंने वृष्णि और अंधक (यदुकुल) वंश के यादव कुमारों को भी शिक्षा दी।

जब द्रोण का अपमान द्रुपद ने किया तो प्रतिशोध की आग में जलते हुए द्रोण अपनी पत्नी कृपी और पुत्र अश्वथामा के साथ हस्तिनापुर आ गए और गुप्त वेश में छिपकर कृपाचार्य के साथ ही रहने लगे। जब पांडवों और कौरवों की शिक्षा समाप्त हुई तो पितामह भीष्म ने उन्हें विशेष आयुधों की शिक्षा देने के बारे में सोचा। चूँकि कृपाचार्य कुलगुरु थे इसी कारण उनके पास समय कम था। तब उन्होंने ही गुरु के रूप में द्रोणाचार्य का नाम भीष्म को सुझाया।

स्वयं भीष्म यही चाहते थे। उन्होंने अपने गुप्तचर द्रोणाचार्य को खोजने के लिए देश-विदेश में भेजे किन्तु उन्हें ये पता नहीं था कि द्रोणाचार्य वहीँ हस्तिनापुर में ही है। सही समय आने पर द्रोणाचार्य प्रकट हुए और तब भीष्म ने उन्हें कौरवो और पांडवों का आचार्य नियुक्त किया और कृपाचार्य कुलगुरु के रूप में राज्य का कार्य देखने लगे।

जब द्रोणाचार्य की शिक्षा पूर्ण हुई तो रंगभूमि में उन्होंने राजकुमारों के कौशल का आयोजन किया। तब महारथी कर्ण भी उस रणक्षेत्र में आया और उसने अर्जुन को ललकारा। उस समय किसी को समझ नहीं आया कि उस स्थिति को कैसे संभाला जाये। तब कृपाचार्य ने अपनी सूझ-बूझ से कर्ण को उस प्रतियोगिता में भाग लेने से रोक दिया। इसके बाद ही दुर्योधन ने कर्ण को अंग का राज्य प्रदान किया।

महाराज धृतराष्ट्र कृपाचार्य का बहुत सम्मान करते थे और राज-काज में सदैव उनकी सहमति लिया करते थे। जब युधिष्ठिर का राजसूय यज्ञ हुआ तो वे इंद्रप्रस्थ गए और युधिष्ठिर ने उन्हें ब्राह्मणों को दक्षिणा देने का कार्य सौंपा। चीरहरण के समय उन्होंने भी उसका विरोध किया किन्तु वे उसे रोक ना सके। विराट युद्ध में उन्होंने भी सबके साथ अर्जुन का सामना किया और बहुत कठिन युद्ध के बाद ही अर्जुन उन्हें परास्त कर पाए। बाद में उन्होंने भी भीष्म की उस बात का समर्थन किया कि पांडवों का अज्ञातवास पूर्ण हो गया था।

युद्ध के प्रारम्भ में जब भीष्म अपने सभी रथियों और महारथियों का वर्णन करते हैं तब वे दुर्योधन को द्रोण के साथ साथ कृप का भी शिष्य कहते हैं। उद्योग पर्व के १६६वें अध्याय में वे कृपाचार्य की शक्ति का वर्णन करते हैं। भीष्म कहते हैं - "हे दुर्योधन! शरद्वान के पुत्र कृप रथीपतियों के भी अधिपति हैं। वे युद्ध में अपने प्राणों का मोह त्याग कर तेरे शत्रुओं को भस्म कर डालेंगे। जैसे कुशा से उत्पन्न हुए कार्तिकेय को कोई जीत नहीं सकता, उसी प्रकार कुशा से उत्पन्न कृप को भी जीता नहीं जा सकता। हे पुत्र! ये कृपाचार्य भांति-भांति के आयुधों को धारण करने वाली शत्रु सेना में अग्नि की भांति घूम-घूम कर सबका संहार कर डालेंगे।"

महाभारत युद्ध आरम्भ होने से पहले युधिष्ठिर पितामह भीष्म और गुरु द्रोण के बाद कृपाचार्य का भी आशीर्वाद लेते हैं। कृपाचार्य उनसे कहते हैं कि वे प्रतिदिन सुबह उनकी विजय की कामना करेंगे। उस युद्ध में कृपाचार्य ने विकट पराक्रम दिखाया और अर्जुन, बृहद्क्षत्र, चेतिकान, सात्यिकी, भीम, धृष्टकेतु आदि से सीधा युद्ध किया। उन्होंने शिखंडी, युधामन्यु, सुकेतु और कलिंद के राजाओं को युद्ध में परास्त किया और अभिमन्यु के अंगरक्षकों को मार डाला।

जब कर्ण का वध हो गया तब उन्होंने दुर्योधन से पांडवों से संधि कर लेने को कहा पर दुर्योधन ने कहा कि अब इस युद्ध में लड़ते हुए मर जाने के अतिरिक्त और कोई मार्ग शेष नहीं है। दुर्योधन के पतन के पश्चात उन्होंने अश्वथामा और कृतवर्मा के साथ मिलकर बची-खुची पांडव सेना का संहार कर दिया। युद्ध के अंत में दोनों ओर से केवल १८ योद्धा जीवित बचे और कृप भी उनमें से एक थे।

युद्ध के पश्चात जब युधिष्ठिर राजा बनें तो उन्होंने पुनः कृपाचार्य को कुलगुरु के पद पर आसीन किया। अर्जुन ने इन्हे अपने पौत्र और अभिमन्यु के पुत्र परीक्षित के गुरु पद पर बिठाया। परीक्षित ने शास्त्र एवं शस्त्र विद्या कृपाचार्य से ही प्राप्त की थी। आगे चल कर ये परीक्षित के भी कुलगुरु बनें और तब तक्षक के दंश से परीक्षित की मृत्यु हुई तब इन्होने संन्यास ग्रहण किया।

कृपाचार्य को अष्टचिरंजीवियों में से एक माना जाता है। ऐसी मान्यता है कि इन्होने अमरता अपने तप से प्राप्त की।भविष्य में होने वाले कल्कि अवतार में भगवान परशुराम श्री कल्कि के गुरु बनेंगे और कृपाचार्य उनके मार्गदर्शक होंगे। अगले मन्वन्तर अर्थात सावर्णि मनु के शासन में कृपाचार्य सप्तर्षियों में से एक होंगे। सप्तर्षि पद पर आसीन होना ही उनकी योग्यता और महत्त्व को दर्शाता है।

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