नल दमयन्ती - विश्व की प्रथम प्रेम कथा

नल दमयन्ती - विश्व की प्रथम प्रेम कथा
हिंदु धर्म में प्रेम कथाओं का विशेष उल्लेख किया गया है। आज हम जो कथा आपको बताने जा रहे हैं वो संसार की पहली प्रेम कथा मानी जा सकती है। नल-दमयन्ती की कथा का वर्णन महाभारत के वनपर्व में आता है। जब युधिष्ठिर द्रौपदी को जुए में हार जाते हैं और फिर पांडव द्रौपदी सहित वनवास को जाते हैं, तब युधिष्ठिर की आत्म-ग्लानि को मिटाने के लिए महर्षि बृहदश्व ने उन्हें ये कथा सुनाई थी।

प्राचीन काल में निषादराज वीरसेन के पुत्र थे नल। वे बहुत वीर, सच्चरित्र एवं सुन्दर थे, किन्तु उन्हें जुए का व्यसन था। उस समय पृथ्वी पर नल जैसे रूप वाला कोई और पुरुष नहीं था। उसी काल में विदर्भ नरेश भीम के तीन पुत्र और एक पुत्री थी। पुत्रों का नाम था दम, दान्त एवं दमन और पुत्री का नाम था दमयन्ती। कहा जाता है कि दमयन्ती के समान रूपवती स्त्री उस समय त्रिलोक में कोई नहीं थी। उसके रूप और गुण की चर्चा पृथ्वी के साथ साथ स्वर्ग तक फैली थी।

एक बार नल उद्यान में बैठा था तभी वहां एक सुन्दर हंस आया। नल ने उसे पकड़ लिया और सदा के लिए अपने पास रखने का विचार करने लगा। तब उस हंस ने कहा कि कृपया आप मुझे छोड़ दीजिये। आपकी कृपा के बदले मैं राजकुमारी दमयन्ती के पास जाकर आपकी ऐसी प्रशंसा करूँगा कि वो आपको ही वर लेगी। नल ने भी दमयन्ती के बारे में सुना था इसीलिए उसने उस हंस को छोड़ दिया।

वचन के अनुसार वो हंस दमयन्ती के पास गया और नल की इतनी प्रशंसा की कि वो बिना देखे ही उससे प्रेम करने लगी। नल के विरह में उसकी दशा अत्यंत व्याकुल हो गयी। उसी समय उसके पिता भीमक ने उसके स्वयंवर का आयोजन किया और सभी राजाओं को निमंत्रण भेजा। नल भी उस स्वयंवर में भाग लेने के लिए विदर्भ की ओर निकला। दमयन्ती के रूप का प्रभाव ऐसा था कि स्वयं देवराज इंद्र भी अन्य देवताओं सहित स्वयंवर में भाग लेने को स्वर्ग से चले।

मार्ग में देवताओं ने कामदेव के समान नल को देखा। उन्होंने चतुराई से उसे स्वयंवर से हटाने की योजना बनाई। देवराज इंद्र को देख कर नल ने उन्हें प्रणाम किया। तब देवराज ने कहा कि मेरा एक कार्य है जिसके लिए मैं चाहता हूँ कि आप मेरे दूत बनें। ये सुनकर नल ने प्रसन्नता से कहा कि "हे देवराज! आपका दूत बन कर मैं सम्मानित होऊंगा। मैं आपको वचन देता हूँ कि मैं आपका कार्य अवश्य करूँगा। कृपया मुझे वो कार्य बताएं।" तब इंद्र ने कहा - "हे नल! आप हम देवताओं के दूत बन कर दमयन्ती के पास जाइये और उससे कहिये कि वो स्वयंवर में हम देवताओं में से किसी को चुन ले।"

ये सुनकर नल ने कहा कि वे स्वयं दमयन्ती को वरण करने की आकांक्षा लेकर विदर्भ जा रहे हैं, फिर किसी प्रकार वे उनका सन्देश उसे सुना सकते हैं? ये सुनकर इंद्र ने कहा कि आपने हमें वचन दिया है इसीलिए आपको हमारा ये कार्य तो करना ही होगा। अपने वचन की रक्षा के लिए नल रात्रि में छिप कर दमयन्ती के महल पहुंचे। वहां पर जब दोनों की भेंट हुई तो दोनों एक दूसरे को देखते ही रह गए। जब दमयन्ती के पता चला कि ये वही नल हैं जिन्हे वो अपना पति मान चुकी है तो उसे बहुत हर्ष हुआ।

तब नल ने उसे देवताओं का सन्देश दिया। इसपर दमयन्ती ने रोते हुए नल को अपने ह्रदय की बात बताई और कहा कि यदि वे उन्हें पति के रूप में ना पा सकी तो आत्महत्या कर लेगी। दमयंती ने उनसे कहा कि आप देवताओं से जाकर कहिये कि वे भी मेरे स्वयंवर में आएं। वहां मैं आपका वरण कर लुंगी जिससे आपके दूत होने की मर्यादा भी नहीं टूटेगी। नल ने उसे बहुत समझाया किन्तु अपने प्रति उसका सच्चा प्रेम देख कर नल वापस देवताओं के पास आ गए और उन्हें सारी स्थिति से अवगत कराया। देवताओं ने सोचा कि किसी और उपाय से दमयन्ती को प्राप्त किया जाये।

स्वयंवर के दिन संसार के सभी राजा विदर्भ पहुंचे किन्तु दमयन्ती की दृष्टि केवल नल को ही खोज रही थी। स्वयंवर में सभी देवताओं ने भी छल से नल का ही रूप बना लिया। जब दमयन्ती वहां पहुंची तो उसे कई नल दिखाई दिए। तब दमयन्ती समझ गयी कि ये देवताओं का छल है। तब उसने देवताओं से ही प्रार्थना की कि मैंने नल को अपना पति मान लिया है अतः मुझे स्वयं को पहचानने की दृष्टि प्रदान करें।

नल के प्रति उसकी निष्ठा देख कर इंद्र सहित सभी देवताओं ने उसे वो दृष्टि दी कि वो नल रुपी देवताओं को पहचान सके। दमयन्ती ने देखा कि देवताओं के शरीर पर यात्रा की धूल नहीं है। उनके शरीर से पसीना नहीं निकल रहा और उनकी पलके नहीं झपक रही। उनके गले में पड़ी मालाएं भी ताजा हैं। ये लक्षण देख कर दमयन्ती ने असली नल को पहचान लिया और उसके कंठ में वरमाला डाल दी।

इससे प्रसन्न होकर इंद्र, अग्नि, वरुण और यम, इन चार लोकपालों ने नल को २-२, अर्थात कुल आठ वरदान दिए। इंद्र ने वरदान दिया कि जब भी नल यज्ञ करेंगे, वे उन्हें साक्षात् दर्शन देंगे और मृत्यु के बाद उसे उत्तम लोक की प्राप्ति होगी। अग्नि ने नल को वरदान दिया कि वे जहाँ चाहेंगे वही अग्नि प्रकट हो जाएगी और अग्निदेव के दिव्य लोकों में उन्हें आने जाने की स्वतंत्रता रहेगी। यम ने वरदान दिया कि नल सदैव धर्म पर अडिग रहेंगे और उनके हाथों द्वारा बनाये गए भोजन का स्वाद अद्वितीय होगा। 

दोनों के विवाह में देवताओं ने उन्हें आशीर्वाद दिए और वापस स्वर्ग की ओर चल दिए। मार्ग में उन्हें द्वापर और कलि मिले जिन्होंने बताया कि वे दमयन्ती के स्वयंवर के लिए जा रहे हैं। तब इंद्र ने हँसते हुए कहा कि स्वयंवर तो हो गया और दमयन्ती ने नल का वरण कर लिया। ये सुनकर द्वापर तो कुछ नहीं बोले पर कलि ने क्रोध में आकर नल से प्रतिशोध लेने की प्रतिज्ञा कर ली। वो नल के राज्य में बस गया और नल का अहित करने की प्रतीक्षा करने लगा।

नल और दमयन्ती की दो संताने हुई - पुत्र इन्द्रसेन और पुत्री इन्द्रसेना। इन्द्रसेना का विवाह आगे चल कर पांचाल नरेश मुद्गल से हुआ। उधर १२ वर्षों तक कलि ऐसे अवसर की प्रतीक्षा में रहा जिससे वो नल पर अपना प्रभाव डाल सके किन्तु उसे नल में कोई दोष ना दिखा। तब एक दिन नल भूलवश लघुशंका कर बिना आचमन किये ही संध्या वंदन को बैठ गए। कलि को अवसर मिल गया और वो नल के मस्तक पर बैठ गया। साथ ही कलि नल के भाई पुष्कर के पास गया जो नल से द्वेष रखता था। कलि ने पुष्कर से कहा कि वो नल के साथ चौसर खेल कर उसका सब कुछ जीत ले।

पुष्कर ने ऐसा ही किया। दोनों चौसर खेलने बैठे किन्तु कलि के प्रभाव से नल सारी बाजी हारने लगे। दमयंती और नल के मंत्रियों ने उसे बहुत समझाया किन्तु कलि के प्रभाव में नल ने उस खेल को नहीं रोका। वो चौसर कई महीनों तक चला और अंत में नल अपना राज-पाठ और सारा धन हार गए। ये देख कर दमयन्ती ने अपने दोनों बच्चों को नल के सारथि वार्ष्णेय द्वारा अपने पिता के पास भेज दिया। उधर पुष्कर ने नल से दमयंती को दांव पर लगाने को कहा किन्तु उन्होंने मना कर दिया। 

नल सबकुछ हार कर जब नगर से बाहर निकले तो दमयन्ती भी केवल एक वस्त्र में उन के साथ चल दी। दोनों की स्थिति बड़ी दीन हो गयी। एक बार भूख प्यास से तड़पते पति पत्नी जंगल में जा रहे थे कि नल ने देखा कि दो सोने के रंग वाले पक्षी दाना चुग रहे हैं। उसने सोचा कि इन्हे पकड़ कर यदि बेचा जाये तो कुछ धन मिल जाएगा। यही सोच कर उसने अपना एक मात्र वस्त्र उनपर फेंका। किन्तु दैवयोग से वो पक्षी उस वस्त्र को ले कर उड़ गए। ये देख कर नग्न नल ने अपनी पत्नी के सामने लज्जा से सर झुका लिया। अपने पति की ऐसी दशा देख कर दमयन्ती बहुत दुखी हुई और उसे सांत्वना दी।

चलते-चलते उस रात वे दोनों एक धर्मशाला में रुके। रात्रि में जब दमयन्ती घोर निद्रा में थी तो नल ने उसे देख कर स्वयं को धिक्कारा कि मेरे ही कारण मेरी पत्नी की ये दशा हुई है। नल जानते थे कि पतिव्रता दमयन्ती किसी भी स्थिति में उनका साथ नहीं छोड़ेगी इसीलिए उन्होंने उसे छोड़ने का निश्चय किया। नल ने सोचा कि यदि मैं चला जाऊं तो दमयन्ती किसी प्रकार अपने पिता के पास पहुँच ही जाएगी। मेरे साथ रहने पर तो इसे दुःख ही मिलेगा।

किन्तु जाएँ कैसे? नल तो नग्न अवस्था में थे। तब उन्होंने दमयन्ती की आधी साड़ी फाड़ कर अपने शरीर पर लपेट ली और ह्रदय पर पत्थर रख कर दमयन्ती को उसी प्रकार सोता छोड़ कर चले गए। कुछ दूर जाने के बाद वे पुनः दमयंती के पास प्रेमवश लौट आये। तब कलि ने उन्हें फिर से जाने को प्रेरित किया। इस तरह बार-बार दमयंती के पास लौटने के बाद अंततः कलि के प्रभाव में नल वहां से चले गए। जब दमयंती उठी तो अपने पति को ना देख कर उन्हें सब जगह ढूंढने लगी। जब नल उसे नहीं मिले तो वो जोर-जोर से विलाप करने लगी। ऐसे ही भटकती हुई वो एक जंगल में पहुंच गयी।

उस जंगल में एक अजगर ने उसे अपने पाश में जकड लिया और निगलना चाहा। वही पास में एक व्याध जा रहा था। दमयन्ती की चीख सुन कर उसने अजगर को मार कर उसे बचाया। किन्तु दमयन्ती का रूप देख कर उसके मन में पाप जाग गया। उसने बहुत मीठी-मीठी बातें कर कर दमयन्ती को प्रभावित करने का प्रयत्न किया किन्तु दमयन्ती उसका भाव समझ गयी और वहाँ से जाने लगी। तब उस व्याध ने बलपूर्वक दमयन्ती को प्राप्त करना चाहा। इस पर दमयन्ती ने क्रोध में आकर कहा - "यदि मैंने महराज नल के अतिरिक्त किसी और का चिंतन ना किया हो तो ये दुष्ट भस्म हो जाये।" सती दमयन्ती के ऐसा कहते ही वो व्याध भस्म हो गया।

इस प्रकार दमयन्ती नल को ढूंढते हुए बहुत दिन तक भटकती रही। तब देवताओं उसका साहस बढ़ाने के लिए ऋषि के वेश में आये और उसे अपने पति को पुनः प्राप्त करने का आशीर्वाद दिया। इससे दमयन्ती को बड़ा सहारा मिला। किसी प्रकार वो भटकती हुई चेदि राज्य में पहुंची। वहां जब चेदिनरेश सुबाहु की माता और उनके पिता वीरबाहु की पत्नी ने उसे देखा तो उसे अपने पास बुला लिया और उसे वहीँ अपनी बहु सुनंदा के साथ रहने को कहा। तब दमयन्ती ने तीन शर्तें रखी कि वो किसी का जूठा नहीं खायेगी, किसी के पैर नहीं धोएगी और ऋषियों को छोड़ कर किसी पर-पुरुष से बात नहीं करेगी। रानी ने शर्त मान ली और दमयन्ती वही रहने लगी।

उधर जब नल दमयन्ती को छोड़ कर आगे बढे तो तो उन्हें कोई अपना नाम पुकारता दिखा। आगे जाकर देखने पर उन्होंने देखा कि वन में आग लगी है और एक विशाल नाग कुंडली बांधे पड़ा था। उस नाग ने नल से कहा - "हे महाराज! मैं महर्षि कश्यप का पुत्र कर्कोटक हूँ। नारद मुनि ने मुझे श्राप दिया था कि जब तक राजा नल तुम्हे ना उठाये, इसी स्थान पर पड़े रहो। इसीलिए आप कृपया मुझे उठा लें।" ये कह कर उसने अपना आकार छोटा कर लिया।

जब नल उसे दावानल से बाहर लाये तो कर्कोटक बोला कि तुम मुझे कुछ दूरी तक छोड़ दो। बस भूमि पर कदम गिन कर चलो किन्तु भूल कर भी अपने मुख से "दश" शब्द ना बोलना अन्यथा मैं तुम्हे डस लूंगा। तब नल अपने कदम गिनते हुए बढ़ने लगे और दसवां कदम पड़ते हुए उनके मुख से "दश" शब्द निकल गया। उसे सुनते ही कर्कोटक ने तत्काल उन्हें डस लिया। उसके विष से नल का रूप बहुत भयानक हो गया।

तब नल ने दुःख से कहा - मैंने तुम्हारे प्राणों की रक्षा की और तुमने मुझे ही डस लिया। ये सुनकर कर्कोटक बोला कि तुम इतना दुःख कलि के कारण ही भोग रहे हो। वो सदैव तुम्हे ढूंढता रहता है। मेरे विष से तुम्हारा रूप बदल गया है इसीलिए अब कलि तुम्हे नहीं पहचान पायेगा। साथ ही तुम्हारे शरीर में कलि ने जो वास कर रखा है उसे मेरे विष से बहुत कष्ट होगा। तुम अब अयोध्या नरेश ऋतुपर्ण के पास जाओ और कुछ काल तक वही रहो। समय आने पर तुम अपने रूप को पुनः प्राप्त कर लोगे और तुम्हारी पत्नी और बच्चे तुम्हे मिल जाएंगे। ये कहकर कर्कोटक ने नल कोई दो दिव्य वस्त्र दिए और अंतर्धान हो गया।

नल अयोध्या पहुंचे और वहां के नरेश ऋतुपर्ण के यहाँ बाहुक के नाम से नौकरी करने लगे। वे राज्य की अश्वशाला के प्रधान थे। नल के जिस सारथि वार्ष्णेय ने उसके बच्चों को विदर्भ छोड़ा था, वो भी अयोध्या में ही महाराज ऋतुपर्ण का सारथि बन गया था। नल के रूप के कारण उसने उन्हें पहचाना नहीं। महाराज ऋतुपर्ण ने उसे १०००० स्वर्ण मुद्राओं की वार्षिक आय पर अपने यहाँ नौकरी पर रख लिया। वहां नल ने अपना नाम बाहुक बताया। 

उधर जब दमयन्ती के पिता भीम को अपनी पुत्री और जमाता के बारे में पता चला तो वे बड़े दुखी हुए। उन्होंने सुदेव नामक एक ब्राह्मण को चेदि देश अपनी पुत्री को ढूंढने भेजा। सुदेव ने वहां दमयन्ती को ढूंढ लिया और उसे उसके पिता की स्थिति बताई। जब चेदिनरेश सुबाहु की माता ने ये जाना कि वो दमयंती है तो वो बड़ी प्रसन्न हुई क्यूंकि वो और दमयंती की माता दोनों बहन थी और दशार्णदेश के राजा सुदामा की पुत्रियां थी। इस प्रकार वो दमयंती की मौसी थी। दमयंती ने अपनी मौसी से प्रार्थना की कि उसे अपने पिता के यहाँ भेज दें। इसपर महाराज सुबाहु ने उसे सुदेव के साथ ससम्मान वापस अपने पिता के पास भेज दिया। 

अपने पिता के पास आ कर दमयन्ती ने उन्हें किसी भी प्रकार अपने पति को ढूंढने को कहा। ये सुनकर राजा ने फिर सुदेव को नल की खोज में भेजा। सुदेव सारे राज्य गया किन्तु उसे नल ना मिले। पर्णाद नामक एक ब्राह्मण से दमयंती को ये पता चला कि शायद नल अभी अयोध्या में हैं। ये सुन कर सुदेव अयोध्या नरेश राजा ऋतुपर्ण से मिले। नल ने उसे पहचान लिया किन्तु उसकी कुरूप वेश-भूषा देख कर सुदेव उसे ना पहचान पाया। तब नल ने उसे इशारों में ही अपनी और दमयंती की कथा सुनाई। वो नहीं चाहते थे कि दमयंती उसका ये भयानक रूप देखे। 

सुदेव विदर्भ लौट आये और दमयन्ती को वो कथा सुनाई। ये सुनकर दमयन्ती समझ गयी कि हो ना हो वह बाहुक ही उसके पति नल हैं। तब उसने सुदेव से पुनः अयोध्या जाने को कहा और कहा कि राजा को सूचित करें कि दमयन्ती का पुनः स्वयंवर हो रहा है। जब ऋतुपर्ण को इसकी खबर लगी तो वो उसने बाहुक को कहा कि उन्हें एक दिन में ही विदर्भ पहुँचना है क्यूंकि वहां दमयंती का स्वयंवर हो रहा है। जब नल ने ये सुना तो वे बड़े दुखी हुए।

राजा ऋतुपर्ण ने बाहुक रूपी नल से कहा कि विदर्भ यहाँ से १०० योजन दूर है और वहां पहुंचने में तो कई दिन लग जाएंगे। तब तक दमयंती किसी और को अपना वर चुन लेगी। नल सारथि विद्या में त्रिलोक में सर्वश्रेष्ठ थे। उन्होंने अश्वशाला से श्रेष्ठ अश्वों को चुना और महाराज ऋतुपर्ण और वार्ष्णेय को लेकर विदर्भ निकले। वे इतनी तेज रथ हाँक रहे थे कि एक बार जब राजा ऋतुपर्ण का उत्तरीय हवा में उड़ गया और जितनी देर में उन्होंने नल को रथ रोकने को कहा, उतनी देर में रथ चार कोस आगे पहुँच गया था। 

बाहुक का ऐसा कौशल देख कर वार्ष्णेय को भी शंका हो गयी कि हो ना हो यही उनके पूर्व स्वामी नल हैं क्यूंकि रथ का ऐसा सञ्चालन देवराज इंद्र के सारथि मातलि के अतिरिक्त केवल नल ही कर सकते हैं। मार्ग में उन्हें एक वृक्ष मिला जिसमें कितने फल और पत्ते हैं, वो ऋतुपर्ण ने उन्हें बताया। इससे नल को विश्वास नहीं हुआ और उसने रथ रोक कर उस वृक्ष को काट डाला और स्वयं उन्हें पत्तों और फलों की गणना की। उसे ये देख कर महान आश्चर्य हुआ कि उनकी संख्या उतनी ही थी जितनी ऋतुपर्ण ने बताई थी। तब ऋतुपर्ण ने उसे बताया कि वे चौसर विद्या में त्रिलोक में सर्श्रेष्ठ हैं और इसीलिए ऐसी गणना कर सकते हैं। फिर वे लोग आगे चले। 

जब महाराज ऋतुपर्ण विदर्भ पहुंचे तो उन्हें स्वयंवर जैसा कोई माहौल नहीं दिखा। उधर राजा भीम जब पता चला कि अयोध्या नरेश उनसे मिलने आये हैं तो वे अगवानी के लिए आये। भीम को दमयंती के स्वयंवर वाली बात का कोई भान नहीं था। तब वहां की स्थिति देख कर महाराज ऋतुपर्ण ने महाराज भीम से कहा कि वे केवल भ्रमण के लिए आये हैं।  उन्होंने राजा भीमक से कहा कि वे ऐसे ही भ्रमण के लिए आये हैं। 

उधर जब दमयन्ती को पता चला कि महाराज ऋतुपर्ण के सारथि बाहुक ने १०० रोजन की दूरी केवल एक ही दिन में तय की है तो वो समझ गयी कि हो ना हो बाहुक ही नल हैं क्यूंकि अश्वसंचालन का ऐसा ज्ञान पति के अतिरिक्त और किसी के पास नहीं है। उसने अपनी सखी केशनी को नल के पास भेजा। कुछ समय नल की दिनचर्या देखने के बाद केशनी ने आकर दमयंती को बताया कि बड़े आश्चर्य की बात है कि नल भोजन बनाने के लिए अग्नि और पानी की व्यवस्था नहीं करते बल्कि वो स्वयं ही प्रकट हो जाती है। केशनी ने उसे नल द्वारा बना भोजन भी खिलाया। अग्नि और पानी की बात सुनकर और उस भोजन को खा कर दमयंती को विश्वास हो गया कि बहुत की नल हैं। 

फिर भी इस बात को पक्का करने के लिए दमयंती ने अपने पुत्र और पुत्री को केशनी के साथ नल के पास भेजा। अपनी संतानों को देख कर नल ने उन्हें ह्रदय से लगा लिया और जोर जोर से रोने लगे। उन्होंने केशिनी से कहा कि वो बार-बार उनके पास ना आये नहीं तो लोगों को व्यर्थ ही उन दोनों पर शंका होगी। केशिनी ने ये बात बताई जिससे दमयंती को बाहुक के नल होने का विश्वास हो गया। 

तब अपने पिता की आज्ञा लेकर दमयंती स्वयं बाहुक के पास आयी। इस पर बाहुक ने दमयंती से रोष में कहा कि पति के होते हुए वो स्वयंवर कैसे कर सकती है? इस पर दमयंती ने उन्हें बताया कि ये केवल उनको विदर्भ बुलाने की योजना थी और उन्होंने नल के अतिरिक्त किसी और का मन से भी चिंतन नहीं किया है। तब स्वयं पवनदेव ने वहां आकर दमयंती की इस बात का समर्थन किया। इससे नल को विश्वास हो गया। 

उसके बाद कलि ने भी उनके शरीर को छोड़ दिया और उनसे क्षमा मांगी। इससे नल का रूप पूर्ववत सुन्दर हो गया और नल ने उसे क्षमा कर दिया। उधर जब महाराज ऋतुपर्ण को पता चला कि उनका सारथि बाहुक वास्तव में निषधदेश के राजा नल थे तो वे उनसे मिले और दोनों ने मित्रता की शपथ खाई। इसके बाद ऋतुपर्ण ने नल को चौसर विद्या का सारा रहस्य और ज्ञान सिखाया। बदले में नल ने भी ऋतुपर्ण को सारथ्य विद्या का सारा ज्ञान और रहस्य सिखा दिया। इसके बाद महाराज ऋतुपर्ण महाराज भीम के एक और सारथि को लेकर वापस अयोध्या लौट गए।

नल और दमयंती अंततः ४ वर्षों के बिछोह के बाद पुनः मिले। राजा भीम ने भारी उत्सव मनाया। १ महीने तक विदर्भ में ही रह कर फिर नल अपने स्वसुर से आज्ञा लेकर दमयंती को वहीँ छोड़ा और १६ हाथी, एक रथ, ५० अश्व और ६०० सैनिक लेकर निषधदेश पहुंचे और पुष्कर को चौसर का एक दांव और खेलने को कहा। उन्होंने कहा कि हम एक दांव ही खेलेंगे और अपना सर्वस्व उस दांव पर लगाएंगे। जो जीतेगा वो सबका अधिपति होगा। इसपर पुष्कर ने कहा ऐसा कैसे हो सकता है? मेरा राज्य बहुत विशाल है और तुम्हारे पास केवल कुछ हाथी-घोड़े हैं। 

पुष्कर मन ही मन दमयंती पर आसक्त था। उसने कहा कि यदि वो दमयंती को भी दांव पर लगाए तब वो एक दांव खेलने को तैयार है। नल को क्रोध तो बहुत आया किन्तु अब वे महाराज ऋतुपर्ण की कृपा से चौसर विद्या के प्रकांड पंडित बन चुके थे। वे जानते थे कि अब कोई उन्हें परास्त नहीं कर सकता इसीलिए उन्होंने इस बार दमयंती को दांव पर लगाया। पुष्कर इसका रहस्य नहीं जनता था इसीलिए वो बड़ा प्रसन्न हुआ। 

दोनों ने एक दांव खेला और नल ने पुष्कर को तुरंत ही हरा कर सब कुछ जीत लिया। बाद में उन्होंने पुष्कर को बड़ा धिक्कारा किन्तु फिर उसके अनुनय विनय करने पर उसे क्षमा कर दिया। उन्होंने पुष्कर को उसका हारा हुआ धन भी लौटा दिया और फिर उसे जाने की आज्ञा दी। इसके बाद नल ने दमयंती को विदर्भ से बुलवा लिया और दोनों ने बहुत काल सुख पूर्वक बिताये। 

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