देवगुरु बृहस्पति

देवगुरु बृहस्पति
परमपिता ब्रह्मा
के १६ मानस पुत्रों और सप्तर्षियों में से एक थे महर्षि अंगिरस। इन्होने महर्षि मरीचि की पुत्री सुरूपा से विवाह किया किन्तु बहुत काल तक उन्हें कोई संतान नहीं हुई। तब महर्षि अंगिरस ने अपने पिता ब्रह्मा से प्रार्थना की जिससे प्रसन्न होकर ब्रह्मदेव ने उन्हें पुंसवन नामक व्रत को करने का निर्देश दिया। सुरूपा ने सनत्कुमारों से इस व्रत की जानकारी ली जिससे उन्हें तीन पुत्र प्राप्त हुए - संवर्त, उतथ्य एवं जीव

जीव बचपन से ही बड़े शांत प्रकृति के और अत्यंत मेधावी थे। उन्होंने बहुत कम समय में ही सभी वेदों, शास्त्रों एवं नीतियों के प्रकांड पंडित हो गए। किन्तु उससे भी उनका मन नहीं भरा। तब उन्होंने अपने पिता से पूछा कि वे अपने जीवन को महान बनाने के लिए और क्या कर सकते हैं। इसपर महर्षि अंगिरस ने उन्हें महादेव की शरण में जाने को कहा।

अपने पिता की आज्ञा पाकर जीव प्रभास तीर्थ में जाकर महादेव की घोर तपस्या आरम्भ कर दी। वैसे तो महादेव आशुतोष हैं किन्तु उन्होंने भी जीव की कठोर परीक्षा लेने की ठान ली। किन्तु जीव भी अपने धुन के पक्के थे। उन्होंने अपनी तपस्या उग्र से उग्रतर कर दी। उनकी ऐसी घोर तपस्या से अंततः महादेव प्रसन्न हुए और उन्होंने जीव को दर्शन दिए।

जब महादेव ने बृहस्पति से वर मांगने को कहा तो उन्होंने कहा कि उनके दर्शन ही उनके लिए वर समान है। ऐसी विनम्रता से प्रसन्न होकर महादेव ने कहा - "वत्स! इस अज्ञानरूपी अंधकार में केवल ज्ञान का प्रकाश ही स्थाई है। तुम्हारे पास पहले ही ज्ञान का भंडार है। जो ज्ञान तुम्हारे पास नहीं है वो मैं तुम्हे प्रदान करता हूँ। देवताओं को एक योग्य गुरु की आवश्यकता है इसीलिए मैं तुम्हे देवगुरु का पद प्रदान करता हूँ। इसके अतिरिक्त मैं तुम्हे नवग्रहों में भी स्थान प्रदान करता हूँ। आज से तुम्हारा नाम बृहस्पति होगा। अब जाओ और उचित प्रकार से देवताओं का मार्गदर्शन करो।"

इस प्रकार जीव बृहस्पति कहलाये और देवगुरु और नवग्रह के पद पर आसीन हुए। उन्होंने प्रभास तीर्थ में जिस शिवलिंग की स्थापना की थी वो "बृहस्पतेश्वर शिवलिंग" के नाम से प्रसिद्ध है। बृहस्पति के रूप में ये पीत वर्ण के होते हैं। इनके चार हाथों में रुद्राक्ष माला, दंड, पात्र और वरमुद्रा होती है। ये सदैव देवों का मार्गदर्शन करते हैं। दैत्य सदैव देवताओं के यज्ञ में विघ्न डालते हैं। उस समय बृहस्पति रक्षोन्घ मन्त्रों का प्रयोग कर देवताओं की रक्षा करते हैं। इनका एक नाम वाचस्पति भी है। 

ये प्रत्येक राशि पर एक-एक वर्ष तक रहते हैं। इनके आवास को स्वर्ण का निर्मित बताया गया है। इनका वाहन गज है, किन्तु अधिकतर स्थानों पर इनका वाहन रथ को बताया गया है जिसे ८पीले अश्व खींचते हैं। इनके रथ की गति वायु के वेग के समान है। ये अत्यंत शक्तिशाली हैं और इनका आयुध एक स्वर्ण दंड है जिसे विश्वकर्मा ने बनाया था। स्कंदपुराण के अनुसार इन्होने स्वयं देवराज इंद्र को परास्त कर गौओं को छुड़ाया था। इनकी वीरता के कारण इनका एक नाम "तीक्षणश्रृंग" भी है।

देवगुरु बृहस्पति की तीन पत्नियां बताई गयी हैं: 
  1. शुभा: ये इनकी ज्येष्ठ पत्नी थी जिनसे इन्हें सात पुत्रियों की प्राप्ति हुई - भानुमती, राका, अर्चिष्मती, महामती, महिष्मती, सिनीवाली एवं हविष्मती। इनके अतिरिक्त इनसे बृहस्पति को एक पुत्र भी प्राप्त हुए जिनका नाम था केसरी जो वानर कुल में जन्में। इन्होने अंजना से विवाह किया और इन्ही के पुत्र महापराक्रमी हनुमान हुए।
  2. ममता: ये बृहस्पति की दूसरी पत्नी थी जिनसे उन्हें दो महान पुत्र प्राप्त हुए:
    1. भारद्वाज: ये महान ऋषि हुए जिनसे अपना गोत्र चला। महर्षि गर्ग और गुरु द्रोण इन्ही के पुत्र थे।
    2. कच: ये भी महान तपस्वी थे। बृहस्पति ने इन्हें ही शुक्राचार्य के पास मृतसंजीवनी विद्या प्राप्त करने को भेजा था। उन्होंने ये विद्या प्राप्त भी की किन्तु फिर शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी के श्राप के कारण ये उस विद्या को भूल गए।
  3. तारा: ये उनकी सबसे छोटी पत्नी थी जो अत्यंत सुन्दर थी। इनसे बृहस्पति को सात पुत्र और एक कन्या की प्राप्ति हुई। एक बार चंद्र अपने गुरु से मिलने आये जहाँ उन्होंने तारा को देखा और उसपर मुग्ध हो गए। तारा भी चंद्र पर आसक्त हो गयी। चंद्र ने तारा का अपहरण कर लिया। चूंकि चंद्र गुरुपत्नी गामी हुए, उन्हें महापातक लगा। बृहस्पति ने चंद्र से तारा को लौटाने को कहा किन्तु ने मना कर दिया। इस पर बृहस्पति चंद्र से युद्ध करने आये जिस युद्ध में इंद्र सहित अन्य देवताओं ने बृहस्पति का साथ दिया। ये देख कर चंद्र ने दैत्यगुरु शुक्राचार्य से सहायता मांगी और उनके कहने पर सभी दैत्य चंद्र की ओर से युद्ध लड़ने पहुंचे। उस भयानक युद्ध को देख कर परमपिता ब्रह्मा ने स्वयं हस्तक्षेप किया और वो युद्ध रुकवाया। बाद में उनके आदेश पर चंद्र ने तारा को बृहस्पति को लौटा दिया। कुछ समय बाद तारा ने एक बालक को जन्म दिया। बृहस्पति और चंद्र दोनों ने उससे उस बालक के पिता का नाम पूछा किन्तु तारा मौन रही। तब एक बार पुनः उस बालक के अधिकार को लेकर चंद्र और बृहस्पति में युद्ध ठन गया। ये देख कर तारा ने बृहस्पति को सत्य बताया कि वो चंद्र का पुत्र है। उसका नाम "बुध" रखा गया। इनकी पत्नी थी मनुपुत्री इला। इला और बुध के पुत्र हुए पुरुरवा जिनका विवाह उर्वशी से हुआ। पुरुरवा के पुत्र आयु हुए और आयु के नहुष। नहुष के पुत्र हुए चक्रवर्ती ययाति। यही ययाति शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी के पति थे। इनकी एक और पत्नी थी शर्मिष्ठा। ययाति के पुत्रों से ही समस्त राजकुल चले। इन्ही के बड़े पुत्र यदु (देवयानी) से यदुकुल चला जिसमें आगे चलकर श्रीकृष्ण का जन्म हुआ। इनके छोटे पुत्र पुरु (शर्मिष्ठा) से कुरुवंश चला। ययाति के अन्य तीन पुत्रों - तर्वसु (देवयानी), अनु (शर्मिष्ठा) एवं द्रुहु (शर्मिष्ठा) से भी अलग राजवंश चले किन्तु पुरु के वंश में ही सभी चक्रवर्ती सम्राटों ने जन्म लिया। ययाति और देवयानी की एक पुत्री भी हुई माधवी, जिनका जीवन ऋषि गालव के कारण व्यर्थ हो गया।

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