कीचक

कीचक
प्राचीन काल में दानवों की एक शक्तिशाली प्रजाति हुआ करती थी जिसे कालकेय कहा जाता था। दक्ष प्रजापति ने अपनी १७ पुत्रियों का विवाह महर्षि कश्यप से किया। उनमे से एक थी दनु जिनके पुत्र हुए विश्वनर। विश्वनर की चार पुत्रियां थी - कालका, पौलोमा, उपदानवी एवं हयशिरा। इनमे से कालका से ही सभी कालकेयों की उत्पत्ति हुई। कुल कालकेयों की संख्या १०६ बताई जाती है जिसमे से सबसे बड़ा था बाण

बाण और उसके अनुज अपने अतुल बल के कारण तीनों लोकों में त्राहि-त्राहि मचाने लगे। उनकी ये धृष्टता देख कर महर्षि अगस्त्य ने उन्हें मनुष्य रूप में जन्म लेने का श्राप दे दिया। उसी श्राप के कारण ये सभी कालकेय द्वापर युग में मनुष्य के रूप में जन्में और उसमे से ज्येष्ठ बाण ही महाबली कीचक के रूप में जन्मा। अन्य कालकेय उसके १०५ भाइयों के रूप में जन्में जिन्हे उपकीचक कहा जाता था।

उस काल में कैकय नामक एक उच्च कोटि के सारथि थे जो सूतों के अधिपति थे। उनकी माता एक क्षत्रिय थी किन्तु पिता सूत। इसी कारण उनकी वीरता क्षत्रियों के समान ही थी किन्तु जीविका उपार्जन के लिए वो अपने पिता का व्यवसाय किया करते थे। उनकी दो पत्नियाँ थी। बड़ी पत्नी का नाम था मालवी जिनसे कीचक और उसके १०५ भाइयों का जन्म हुआ। मालवी की छोटी बहन ही केकय की दूसरी पत्नी थी जिससे उन्हें केवल एक ही पुत्री हुई - सुदेष्णा।

कीचक और उसके भाई बहुत शक्तिशाली थे। उनमे से भी कीचक बढ़-चढ़ कर था। कहा जाता है कि कीचक में भी भीमसेन के समान ही १०००० हाथियों का बल था। इसी कारण आस पास के सभी राजा भी उन सूतों से भयभीत रहते थे। सुदेष्णा १०६ भाइयों की एकलौती छोटी बहन थी और इसी लिए सभी भाई उसपर जान छिड़कते थे। विशेषकर कीचक अपनी बहन से बहुत प्रेम करता था। कीचक ने निश्चय किया कि वो अपनी बहन का विवाह सूत कुल में नहीं अपितु किसी क्षत्रिय के साथ करेगा।

उसी प्रदेश के राजा थे विराट, जिनके नाम से ही वो प्रदेश विराटदेश के नाम से जाना जाता था। उनका विवाह कोसलदेश की राजकुमारी सुरथा से हुआ जिनसे उन्हें श्वेत नामक पुत्र की प्राप्ति हुई। किन्तु सुरथा की अकाल मृत्यु होने के कारण वे बिलकुल अकेले हो गए। श्वेत का लालन-पालन भी आवश्यक था। यही कारण था कि इन चिंताओं के कारण उनका मन राजकाज से उचट गया। इसका लाभ उठा कर शत्रुओं ने विराट देश को चारों ओर से घेर लिया और आक्रमण के सही समय की प्रतीक्षा करने लगे। 

जब विराटराज को ये पता चला तो वे और चिंतित हुए। विराट एक महाजनपद अवश्य था किन्तु उनकी सेना इतनी सक्षम नहीं थी कि उन शत्रुओं का प्रतिकार कर सके। उतनी बड़ी सेना का प्रतिकार आर्यावर्त में केवल भीष्म या जरासंध ही कर सकते थे किन्तु कुरु और मगध, दोनों से विराट की मित्रता नहीं थी। अब वे सदैव इस चिंता में डूबे रहते थे कि किस प्रकार पूर्वजों के इस महान साम्राज्य की रक्षा की जाये।

तब एक दिन उनके महामंत्री ने बताया कि उन्ही के राज्य में कीचक और उसके प्रतापी भाई रहते हैं जो उन्हें उस विपत्ति से बचा सकते हैं। तब विराटराज ने कीचक को बुलाया और उससे राज्य की रक्षा करने को कहा। तब कीचक ने उनसे कहा कि वो एक ही स्थिति में उनकी सहायता कर सकता है अगर वो उसकी छोटी बहन से विवाह कर ले। राजा स्वयं भी विधुर थे और स्वयं एक जीवन संगिनी ढूंढ रहे थे। उसपर परिस्थिति भी वैसी ही थी कि उन्हें कीचक की सहायता की आवश्यकता थी। दोनों स्थितियों में उनका ही लाभ था अतः उन्होंने भी कीचक का ये प्रस्ताव सहर्ष स्वीकार कर लिया और उनका विवाह सुदेष्णा से हो गया।

विवाह के पश्चात विराटराज ने कीचक को प्रधान सेनापति के पद पर नियुक्त किया और उसके १०५ भाई विराटराज के विशेष अंगरक्षक बने। इसके अतिरिक्त विराट नरेश ने कीचक को एक विशाल जनपद भी प्रदान किया जहाँ की व्यवस्था का दायित्व स्वतंत्र रूप से उन्होंने कीचक पर सौंप दिया। कीचक ने एकचक्रा नगरी (जहाँ पर भीमसेन ने बकासुर का वध किया था) को अपने प्रान्त की राजधानी बनाया। आज पश्चिम बंगाल के वीरभूम जिले में जो एकचक्रा गाँव है, वही कभी कीचक के राज्य की राजधानी मानी जाती थी।

प्रधान सेनापति का पद सँभालते ही कीचक ने सर्वप्रथम विराटदेश की सीमा पर आ पहुँची विभिन्न राज्य की सेनाओं से युद्ध किया। कीचक और उसके भाइयों की वीरता के आगे वो सेनाएं टिक नहीं पायी और पीछे हटने को विवश हो गयी। कीचक ने अप्रतिम वीरता दिखाते हुए मेखल, त्रिगर्त, दशार्ण, कशेरुक, मालव, यवन, पुलिन्द, काशी, कोसल, अंग, वंग, कलिंग, तंगण, परतंग, मलद, निषध, तुण्डिकेर, कोंकण, करद, निषिद्ध, शिव, दुश्छिल्लिक तथा अन्य छोटे-बड़े राज्यों की सेनाओं को खदेड़ दिया। 

कीचक के कारण विराट नरेश दसों दिशाओं से सुरक्षित हो निर्विघ्न राज्य करने लगे। उस सैन्य अभियान के कारण चारों दिशाओं में कीचक और उसके भाइयों की वीरता की चर्चा होने लगी। कीचक को अब विश्व के सर्वश्रेष्ठ योद्धाओं में स्थान प्राप्त होने लगा। उसी के कारण किसी अन्य राज्य में इतना साहस नहीं रहा कि वो पुनः विराटदेश पर आक्रमण करने का साहस कर सके।

कीचक मल्ल्युद्ध में अप्रतिम था। विश्व में केवल जरासंध, बलराम, भीम एवं दुर्योधन ही ऐसे थे जो मल्ल्युद्ध में कीचक को परास्त करने का सामर्थ्य रखते थे। मल्ल्युद्ध के अतिरिक्त कीचक गदायुद्ध एवं धनुर्विद्या में भी प्रवीण था। वो इतना शक्तिशाली था कि भीष्म, द्रोण, बलराम, जरासंध, कर्ण, भीम एवं दुर्योधन के अतिरिक्त उसका वध कोई और नहीं कर सकता था। बाहुबल में भी वो भीम और दुर्योधन के समान ही था।

अपनी इसी अतुल शक्ति के कारण शीघ्र ही कीचक निरंकुश हो गया। ये सभी को पता था कि विराट में कीचक का विरोध कोई कर नहीं सकता। पूरी विराटदेश की सेना भी उसी के नियंत्रण में थी। सेना पर उसका ऐसा प्रभाव था कि उसकी आज्ञा के बिना एक पत्ता भी नहीं हिलता था। जनता पर भी उसका ऐसा भय था कि कोई उससे दृष्टि मिलाने का साहस भी नहीं करता था। और तो और स्वयं विराटराज भी उससे भयभीत ही रहते थे। अपने इस प्रभाव के कारण वो विराटदेश में एक सामानांतर सत्ता चलाने लगा।

वर्षों बीत गए और कीचक का प्रभाव अत्यधिक बढ़ गया। उसने प्रजा पर अत्याचार करना आरम्भ कर दिया। राज्य के अतिरिक्त उसने अपना व्यक्तिगत कर भी उनपर थोप दिया। वो बिना राजाज्ञा के केवल अपनी इच्छा पर आस पास के राज्यों पर यदा-कदा आक्रमण करने लगा। इससे विराटदेश के सम्बन्ध अपने पडोसी राज्यों से बिगड़ने लगे और उसकी अर्थव्यवस्था चरमराने लगी। किन्तु विराटदेश में कीचक अब इतना शक्तिशाली था कि उसे रोकने का साहस कोई नहीं कर सकता था।

वहाँ के राजा अवश्य ही विराटराज थे किन्तु वास्तविक सत्ता कीचक के हाथों में ही थी और स्वयं विराटनरेश भी इस बात को जानते थे। पूरा मंत्रिमंडल उससे भयभीत रहता था और कोई उसके विरुद्ध नहीं जा सकता था। अगर वो चाहता तो कब का विराट नरेश को उनके पद से च्युत कर स्वयं विराटदेश का राजा बन सकता था किन्तु केवल अपनी बहन सुदेष्णा का ध्यान कर उसने ऐसा नहीं किया।

कीचक बड़ा कामुक था। विराटनगर में रहते हुए ही कीचक ने कई विवाह किये और अनेक कन्याओं का बलात हरण कर उसने अपने अंतःपुर में उन्हें कैद कर लिया। उसके १०५ अन्य भाई जो उपकीचक कहलाते थे, वे सब अपने भाई के संरक्षण में उसी की भांति निरंकुश हो गए। जिस कीचक और उनके भाइयों ने कभी विराटदेश की रक्षा की थी अब पूरा देश उन्ही के अत्याचारों से त्राहि-त्राहि कर रहा था।

धीरे-धीरे बात इतनी बढ़ गयी कि विराटनरेश कीचक से मुक्ति पाने का उपाय सोचने लगे। स्वयं उसकी बहन सुदेष्णा भी उसके इस व्यहवार से दुखी रहती थी और उसने कई बार विराटराज के कहने पर अपने बड़े भाई को समझाने का प्रयत्न भी किया था किन्तु कीचक उसकी बात हंसी में उड़ा देता था। विराटराज उस विषहीन सर्प की भांति हो गए जो अपनी रक्षा के लिए प्रहार नहीं कर सकता। किन्तु कदाचित ईश्वर भी कीचक को उसके पापों का दंड देना चाहते थे। पांडव अपने अज्ञातवास का समय पूरा करने हेतु उसी नगर में आ रहे थे।

पांडवों का वनवास समाप्त हो चुका था और वे अपने अज्ञातवास के लिए किसी उपयुक्त राज्य की खोज में थे। अंत में सभी ने ये निश्चय किया कि अज्ञातवास का आखिरी एक वर्ष वे विराट नगर में गुजारें। वे सभी विराट देश पधारे और अलग-अलग नामों से विराट नरेश के यहाँ काम करने लगे। शीघ्र ही वे सभी अपने कौशल से राजा और रानी के विश्वासपात्र बन गए। 

युधिष्ठिर कंक नाम से विराट के मंत्री बने। भीम की पाक कला अद्भुत थी और वे वल्लभ नाम से राज रसोइया बने। यदा-कदा वे विराट नगर के मल्लों को पराजित कर नरेश को प्रसन्न भी कर दिया करते थे। उर्वशी द्वारा अर्जुन को मिला श्राप यहाँ काम आया और वे बृहन्नला नामक क्लीव का रूप लेकर विराटराज की पुत्री उत्तरा को नृत्य सिखाने लगे। नकुल ग्रन्थिक के नाम से राजा की अश्वशाला के अध्यक्ष बने तो सहदेव तन्तिपाल (अरिष्टनेमि) के नाम से राजा की गौशाला सँभालने लगे। द्रौपदी सैरन्ध्री नाम से रानी सुदेष्णा की दासी के रूप में काम करने लगी।

एक बार कीचक अपनी बहन सुदेष्णा से मिलने उसके महल में आया। उसी समय उसकी नजर द्रौपदी पर पड़ी। ऐसा अप्रतिम सौंदर्य देख कर कीचक अपने होश खो बैठा। उसके महल में असंख्य स्त्रियाँ थी किन्तु किसी की भी तुलना द्रौपदी से नहीं की जा सकती थी। उसने अपनी बहन से कहा - "सुदेष्णा! तुम्हारी ये दासी तो सौंदर्य में अप्सराओं को मात करने वाली है। ये यहाँ दासी का कार्य क्यों कर रही है? तुम इसे मेरी सेवा में भेज दो।"

तब सुदेष्णा ने द्रौपदी से कहा कि वो मदिरा लेकर कीचक के भवन में जाये। इससे द्रौपदी बड़ी घबराई। उसने महारानी से कह रखा था कि उसके ५ गन्धर्व पति हैं। उसने फिर से सुदेष्णा से कहा कि वो ब्याहता स्त्री है और इस प्रकार किसी पुरुष के कक्ष में जाना उचित नहीं है। किन्तु सुदेष्णा ने उसे समझा-बुझा कर कीचक के पास जाने को कहा। द्रौपदी उस समय दासी थी और रानी की आज्ञा का उलंघन नहीं कर सकती थी अतः उसे कीचक के पास जाना पड़ा।

उसे देख कर कीचक ने उससे बड़ी मधुर बातें कर उसे अपने अनुकूल करना चाहा किन्तु द्रौपदी उसका आशय समझ गयी। वो तत्काल उसके कक्ष से भाग आयी। उधर कीचक द्रौपदी के कारण अपना सुध-बुध खो बैठा। वो किसी भी मूल्य पर उसे प्राप्त करना चाहता था। वो एक बार फिर सुदेष्णा के पास गया और उससे कहा कि वो सैरन्ध्री को अपनी पटरानी बनाना चाहता है। सुदेष्णा से सोचा कि इससे तो सैरन्ध्री का भाग्य खुल जाएगा और इसीलिए उसने एक बार पुनः द्रौपदी को कीचक के पास जाने की आज्ञा दी। द्रौपदी ने उसे बहुत समझाया किन्तु अंततः एक बार फिर उसे कीचक के पास जाना पड़ा।

इस बार कीचक अपनी सारी मर्यादा पार कर गया और द्रौपदी को बलात प्राप्त करने का प्रयास किया। द्रौपदी किसी प्रकार अपने प्राण बचा कर सीधा महाराज विराट के दरबार पहुँची और उसके पीछे-पीछे कीचक भी वहाँ पहुँचा। सभी सभासदों और विराटराज के समक्ष ही कीचक ने सैरन्ध्री के बाल पकड़ कर उसे भूमि पर गिरा दिया। युधिष्ठिर ये देख कर बड़े क्रोधित हुए किन्तु उन्होंने जल्द ही स्वयं को संभाला। उसी समय भीम भी किसी कार्यवश दरबार पहुँचे। द्रौपदी को इस स्थिति में देख कर वे कीचक के वध को बढे ही थे कि युधिष्ठिर ने उन्हें इशारे से शांत करवा दिया।

विराटराज ने कीचक से उस धृष्टता का कारण पूछा तो वो निर्लज्ज की भांति हँसते हुए बोला कि उसे सैरन्ध्री को प्राप्त करने से अब कोई नहीं रोक सकता है। विराटराज ने स्वयं को इतना दुर्बल कभी नहीं पाया था। तब कंक रुपी युधिष्ठिर ने कीचक और राजा को धर्म का ज्ञान देते हुए इस अधर्म को रोकने को कहा। उनकी बात सुनकर विराटराज ने कीचक को वहाँ से जाने की आज्ञा दी। सभी सभासदों के बीच कीचक को राजाज्ञा का उलंघन करना उचित नहीं लगा और वो वहाँ से चला गया। किन्तु जाने से पहले वो ये चेतावनी दे गया कि वो सैरन्ध्री को प्राप्त कर के ही रहेगा।

सभा से अपमानित होकर द्रौपदी अपने पांचों पतियों से मिलती है। वहाँ युधिष्ठिर सभी को समझाते हुए कहते हैं - "तुम सभी का आक्रोश मैं समझ सकता हूँ किन्तु अब अज्ञातवास को केवल १२ दिन शेष हैं और यदि हमने कोई भूल की तो शर्त के अनुसार हमें पुनः १२ वर्षों के वनवास और १ वर्ष के अज्ञातवास को जाना होगा। कीचक को उसके किये का दंड अवश्य मिलेगा किन्तु हमें पहले सावधानी पूर्वक अपना अज्ञातवास पूरा करना चाहिए।"

सभी पांडव ये सुनकर लौट जाते हैं किन्तु द्रौपदी के ह्रदय में प्रतिशोध की भावना शांत नहीं होती। वो जानती थी कि युधिष्ठिर की आज्ञा का कोई भी भाई उलंघन नहीं करेगा। सारे भाइयों में केवल भीमसेन ही ऐसे हैं जो किसी प्रकार के अंकुश को नहीं मानते। अतः वो रात्रि के समय भीम के पास गयी और भूमि पर गिर कर विलाप करने करने लगी। 

अपनी प्रिय पत्नी को इस दशा में देख कर भीमसेन को बड़ा कष्ट हुआ। उसने द्रौपदी को उठाया और उसके अश्रु पोछे। क्रोध के कारण उनका चेहरा रक्तिम हो गया था। उन्होंने कहा - "हे पांचाली! भ्राता युधिष्ठिर के भाले, मेरी गदा, अर्जुन के गांडीव और नकुल-सहदेव के खड्ग को धिक्कार है। वो पापी कीचक तुम्हारा स्पर्श कर अभी तक जीवित है ये मुझसे सहन नहीं होता। किन्तु क्या करूँ, बड़े भाई की आज्ञा ने बांध रखा है अन्यथा कीचक का तो मैं वही राजसभा में वध कर देता।"

तब द्रौपदी विलाप करते हुए कहती है - "मध्यम! मुझे क्या पता था कि साथ-साथ जो पूरी पृथ्वी को जीत सकते हैं वैसे महावीरों की पत्नी होते हुए भी मुझे ये दुःख देखना होगा। अब मुझे हित-अहित नहीं सूझ रहा। युधिष्ठिर की आज्ञा को भी मैं मूल्य नहीं देती। अगर वो दुष्ट कीचक एक क्षण भी और जीवित रह गया तो मैं सौगंध खाती हूँ कि तुम्हारे समक्ष ही मैं अपने प्राण त्याग दूंगी।"

ये देख कर भीम ने उसे समझते हुए कहा - "कल्याणी! अब अज्ञातवास समाप्त होने में थोड़ा ही समय शेष है तब भी मैं उस दुष्ट कीचक को जीवित नहीं छोडूंगा। किन्तु इस प्रकार प्रत्यक्ष में उससे युद्ध करना उचित नहीं होगा। अतः तुम कल उसे किसी भी प्रकार रात्रि को व्यायामशाला में बुला लो। मैं वचन देता हूँ कि तुम्हारे समक्ष ही मैं उस पापी का वध कर दूंगा।"

भीम के इस प्रकार समझाने पर द्रौपदी जान-बुझ कर कीचक के पास गयी और उससे कहा - "हे वीर! वास्तव में विराट नगर में तुम्हारा विरोध करने का दुस्साहस कोई नहीं कर सकता। मैं तो स्वयं तुम्हारे साथ रहना चाहती हूँ किन्तु मेरे ५ गन्धर्व पति बाधा हैं। अतः तुम आज रात्रि के अंतिम प्रहर मुझसे व्यायामशाला में आकर मिलो। वही तुम्हारी मनोकामना पूर्ण होगी।"

कीचक ने जब ये सुना तो उसकी प्रसन्नता की सीमा ना रही। वो प्रसन्नतापूर्वक मदिरापान कर रात्रि के अंतिम प्रहर में व्यायामशाला पहुँचा जो नगर से बाहर था। वहाँ भीम द्रौपदी का उत्तरीय ओढ़ कर पहले ही बैठे थे और द्रोपदी दीवार की ओट से सब देख रही थी। नशे में धुत्त कीचक ने जैसे ही भीम को छुआ, उन्होंने उसपर भीषण मुष्टि प्रहार किया जिससे कीचक दूर जा गिरा और उसका सारा नशा समाप्त हो गया।

जब कीचक ने भीम को अपने समक्ष देखा तो आश्चर्यचकित रह गया। अब दोनों में भीषण मल्ल्युद्ध छिड़ गया। दोनों समान रूप से बलशाली थे और उनके प्रहारों से व्यायामशाला टूटने-फूटने लगी। भयानक कोलाहल मच गया किन्तु वहाँ सुनने वाला कौन था? उन दोनों के बीच वो युद्ध पूरे १ प्रहर चलता रहा किन्तु अंततः कीचक भीम के बल से पार ना पा सका और उनके हाथों मारा गया। भीम के कहने पर द्रौपदी ने सबसे कह दिया कि उससे कुचेष्टा करने के कारण ही उनके गन्धर्व पतियों ने कीचक का वध किया है।

अपने भाई के मरने के कारण उसके १०५ भाई अत्यंत दुखी और क्रोधित हुए। जब वे उसके अंतिम क्रिया को जा रहे थे उन्होंने सोचा कि सैरन्ध्री के कारण ही उनका भाई मरा है इसीलिए उसे भी उसी अग्नि में झोंक देना चाहिए। ये सोचा कर वे सभी ने द्रौपदी को बलात श्मशान ले गए और कीचक की चिता पर ही लिटा कर उसे जीवित जला देने का प्रयास करने लगे। संयोग से उस समय उन १०५ भाइयों के अतिरिक्त वहाँ और कोई नहीं था।

उसी समय भीम वायुवेग से वहाँ पहुँचे और वही खड़े एक विशाल वृक्ष को उखाड़ कर उससे ही सभी उपकीचकों का वध करना आरम्भ कर दिया। उपकीचक वीर अवश्य थे किन्तु भीम तो फिर भीम ही थे। क्रोध आने पर तो स्वयं काल भी उनपर अंकुश नहीं रख सकता था फिर उन १०५ योद्धाओं की क्या बात थी। केवल आधे मुहूर्त में ही भीम ने उन सभी १०५ भाइयों की इहलीला समाप्त कर दी और द्रौपदी को वापस राजभवन भेज कर स्वयं अपनी पाकशाला में चले गए।

इस प्रकार एक दुराचारी और उसके भाइयों से भीम ने प्रजा को मुक्ति दिलवाई। अपने सभी भाइयों के मारे जाने पर रानी सुदेष्णा बड़ा भयभीत हुई और उसने द्रौपदी से कहा कि वो वहाँ से चली जाये। किन्तु द्रौपदी ने उनसे प्रार्थना करते हुए कहा कि वे उसे केवल ७ दिन और उस भवन में रहने दे, उसके बाद वो चली जाएगी। इस डर से कि उसे निकालने से उसके गन्धर्व पति उनका अहित ना कर दें, सुदेष्णा ने उसे वही रहने की आज्ञा दे दी। आगे का इतिहास तो हम सभी जानते ही हैं।

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