माता अनुसूया

परमपिता ब्रह्मा के दाहिने भाग से स्वयंभू मनु उत्पन्न हुए जिनका विवाह ब्रह्मा के वाम अंग से उत्पन्न होने वाली शतरूपा से हुआ। इन दोनो की पाँच संताने थी। दो पुत्र प्रियव्रत एवं उत्तानपाद और तीन पुत्रियाँ - आकूति, देवहूति एवं प्रसूति। आकूति का विवाह रूचि प्रजापति एवं प्रसूति का विवाह दक्ष प्रजापति के साथ हुआ। देवहुति का विवाह कर्दम ऋषि से हुआ जिनसे उन्हें एक पुत्र - कपिल मुनि और नौ कन्याएं प्राप्त हुई - कला, अनुसूया, श्रद्धा, हविर्भू, गति, क्रिया, ख्याति, अरुंधती एवं शांति

देवी अनुसूया का विवाह ब्रह्मपुत्र और सप्तर्षियों में से एक महर्षि अत्रि से हुआ। संसार की सर्वश्रेष्ठ सती एवं पतिव्रता स्त्रियों में देवी अनुसूया अग्रणी हैं। उन्होंने कहा है कि केवल अखंड पतिव्रत धर्म का पालन करके भी मोक्ष की प्राप्ति संभव है। वैसे तो भारत में एक से बढ़कर एक सती एवं पतिव्रताएँ उत्पन्न हुई हैं किन्तु देवी अनुसूया को जो सम्मान प्राप्त है वो किसी अन्य को प्राप्त नहीं। उन्हें त्रिदेवों की माता का स्थान प्राप्त हुआ जिन्होंने तीनों को दुग्धपान कराया। ये सम्मान आज तक किसी और को प्राप्त नहीं हुआ। 

एक बार देवी सरस्वती, देवी लक्ष्मी एवं देवी पार्वती में ये बहस हो गयी कि उनमें से संसार की सर्वश्रेठ पतिव्रता कौन है। तीनों स्वयं को सबसे बड़ी सती बता रही थी। जब विवाद बढ़ा तो उन्होंने इसके निर्णय के लिए त्रिदेवों के पास जाने का निश्चय किया। जब तीनों ने ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश से संसार की सबसे बड़ी पतिव्रता के बारे में पूछा तब तीनों ने एक स्वर से अनुसूया का नाम लिया। 

तब त्रिदेवियाँ बड़ी अप्रसन्न हुई और कहा कि हम देवियों के रहते एक मानव कैसे श्रेष्ठ हो सकती है? उन्होंने त्रिदेवों से प्रार्थना की कि वे अनुसूया की परीक्षा लें ताकि हम भी उनका पतिव्रत देख सकें। तब भगवान नारायण ने सबको समझाया कि अकारण किसी सती के पतिव्रत की परीक्षा लेना उचित नहीं है। किन्तु तीनों देवियों के हठ के आगे त्रिदेवों की एक ना चली। "विनाशकाले विपरीतबुद्धि" समझ कर तीनों अनुसूया की परीक्षा लेने साधु वेश में पृथ्वी पर आये। 

जब वे महर्षि अत्रि के आश्रम पहुँचे तब महर्षि कही बाहर गए हुए थे। देवी अनुसूया ने तीनों ब्राह्मणों का उचित आदर सत्कार किया और उनके लिए भोजन की व्यवस्था की। तब ब्राह्मण रूपी ब्रह्मदेव ने कहा - "हे देवी! हमारा एक नियम है कि हम तभी भोजन ग्रहण करते हैं जब कोई हमें निर्वस्त्र होकर भोजन करवाता हो।" इसपर अनुसूया ने आश्चर्यचकित होते हुए कहा - "हे ब्राह्मणदेव! मैं एक ब्याहता स्त्री हूँ फिर मैं किस प्रकार आप लोगों को निर्वस्त्र होकर भोजन करवा सकती हूँ।" इस पर त्रिदेवों ने रूठने का नाटक करते हुए कहा कि अगर वे उनके इस व्रत की रक्षा नहीं कर सकती तो वे भूखे ही उनके द्वार से लौट जाते हैं। 

अब तो माता अनुसूया बड़े धर्म संकट में पड़ गयी। अगर उन्हें निर्वस्त्र होकर भोजन करवाती हैं तो उनका पतिव्रत भंग होता है। अगर ऐसा नहीं करती हैं तो आथित्य धर्म की हानि होती है। ऐसे संकट में उन्होंने अपने पति महर्षि अत्रि का स्मरण किया। महर्षि अत्रि ने उन्हें दिव्य दृष्टि प्रदान की जिससे देवी अनुसूया को ये पता चल गया कि ये तीन ब्राह्मण वास्तव में त्रिदेव है। त्रिदेवों को अपने समक्ष देख कर उन्हें अत्यंत प्रसन्नता हुई किन्तु समस्या अभी भी वही थी कि उन्हें भोजन कैसे कराया जाये। स्वर्ग से ये दृश्य देख कर त्रिदेवियाँ अत्यंत प्रसन्न हो रही थी कि आज या तो अनुसूया का पतिव्रत धर्म भंग होगा या फिर आथित्य धर्म।

तब कुछ सोच विचार कर देवी अनुसूया ने कहा - "मैं त्रिदेवों के साक्षी मान कर ये कहती हूँ कि अगर मैंने तन, मन, प्राण एवं वचन से केवल अपने पति महर्षि अत्रि का ही चिंतन किया हो तो ये तीनों तत्काल शिशु बन जाएँ।" त्रिदेव स्वयं को की गयी प्रार्थना को कैसे ठुकराते? तीनों लीला दिखते हुए छः-छः मास के शिशुओं में परिवर्तित हो गए। उसके बाद देवी अनुसूया ने निःसंकोच निर्वस्त्र होकर तीनों को आकण्ठ दुग्धपान करवाया। त्रिदेव भी पूर्ण शिशु की भांति माता का दुग्धपान कर गहरी निद्रा में सो गए। तभी महर्षि अत्रि भी वापस आश्रम लौटे और शिशु रूप में त्रिदेवों को सोता देख उनसे आशीर्वाद लिया। 

उधर त्रिदेवियाँ घबराई। उन्होंने स्वप्न में भी नहीं सोचा था कि देवी अनुसूया इस प्रकार का हल निकलेंगी। उन्हें तत्काल समझ में आ गया कि क्यों उनके पतियों ने उन्हें सर्वश्रेठ पतिव्रता घोषित किया था। लेकिन अब त्रिदेवों के ना होने से समस्त जगत में हलचल मच गयी। देवता भयभीत हो गए। तब त्रिदेवियों ने त्रिदेवों से कहा कि उन्हें ये विश्वास हो गया है कि अनुसूया ही सर्वश्रेष्ठ सती हैं अतः अब वे वापस आ जाएँ। किन्तु कदाचित त्रिदेवों को शिषुवत्व भा गया था। उन्होंने वापस आने में अपनी असमर्थता बताई। 

महादेव ने कहा - "हे देवियों! नारायण ने तो आपसे पहले ही कहा था कि अकारण एक सती के सतीत्व की परीक्षा लेना उचित नहीं है, किन्तु आपलोग नहीं मानी। ये सच है कि त्रिलोक हम त्रिदेवों की इच्छा से चलता है किन्तु अभी तो हम अनुसूया के पुत्र के रूप में उनकी गोद में हैं। अभी वे हमारी माता हैं इसी कारण हम उनके अधीन हैं इसीलिए उनकी आज्ञा के बिना हम वापस नहीं आ सकते। अतः अगर आप सब हमें वापस चाहती हैं तो हमारी माता से ही विनती करें।" महादेव तो ये कहकर चुप हो गए। अब त्रिदेवियाँ क्या करती? विवश होकर उन्हें पृथ्वी पर महर्षि अत्रि के आश्रम में आना पड़ा।

जब महर्षि अत्रि और देवी अनुसूया ने त्रिदेवियों को अपने आश्रम में आया देखा तो दोनों ने उन्हें प्रणाम किया और उनकी अभ्यर्थना की। फिर देवी अनुसूया ने उनसे वहाँ आने का कारण पूछा। तब देवी पार्वती ने कहा - "हे देवी! तुमसे क्या छुपा है। अब तक तुम ये जान ही गयी होगी कि ये तीनों त्रिदेव हैं। तुम्हारा प्रतिव्रत धन्य है जिसके वश में ये तीनों शिशु बन तुम्हारा स्तनपान कर सोये हुए हैं। किन्तु त्रिदेवों के ना रहने से सृष्टि का संतुलन बिगड़ जायेगा। अतः अब तुम इन्हे मुक्त कर दो।" 

ये सुनकर अनुसूया ने कहा - "माता! आपकी आज्ञा शिरोधार्य है। आप सब अपने-अपने पतियों को उठा लें। आपकी गोद में आते ही ये पुनः अपने स्वरुप में आ जाएँगे।" तब तीनों उन सोते हुए शिशुओं के पास पहुँची किन्तु उनकी सूरत एवं वेशभूषा इतनी मिलती थी कि तीनों ये निर्णय ना कर पायी कि इनमे से उनके पति कौन है। लेकिन ये सोच कर कि कही अनुसूया अपनी बात से पलट ना जाये, तीनों ने जल्दी-जल्दी एक-एक शिशुओं को उठा लिया। उनके गोद में आते ही त्रिदेव अपने स्वरुप में आ गए। तब पता चला कि भूलवश सरस्वती ने महादेव, लक्ष्मी ने ब्रह्मदेव और पार्वती ने श्रीहरि को उठा लिया था। ये देख कर तीनों बड़ी लज्जित हुईं।

जानें से पहले त्रिदेवों ने अनुसूया से कहा कि वे उनकी परीक्षा में उत्तीर्ण हुई इसीलिए कोई वरदान माँगे। तब अनुसूया ने हाथ जोड़ कर कहा - "हे त्रिदेव! थोड़े ही समय के लिए ही सही किन्तु आप तीनों को अपने पुत्र के रूप में पाकर मैं धन्य हो गयी। भला मुझसा भाग्यवान और कौन होगा। किन्तु इतने थोड़े से समय में ही मुझे आप तीनों के बालरूप से मोह हो गया है। अतः अगर आप तीनों मुझे कोई आशीर्वाद देना चाहते हैं तो मैं यही माँगती हूँ कि आप तीनों मेरे पुत्रों के रूप में जन्म लें।" त्रिदेवों से "तथास्तु" कहा और अपने लोक लौट गए। समय आने पर अनुसूया के गर्भ से ब्रह्मा के अंश से चंद्र, विष्णु के अंश से दत्तात्रेय एवं शिव के अंश से दुर्वासा का जन्म हुआ। 

वनवास के समय श्रीराम लक्ष्मण और देवी सीता के साथ महर्षि अत्रि के दर्शनों को आये। वहाँ माता अनुसूया ने सीता को पतिव्रत धर्म की शिक्षा दी। साथ ही उन्होंने देवी सीता को कभी ना मैले होने वाले वस्त्र और आभूषण भी उपहार में दिए। देवी सीता ने लंका में मंदोदरी द्वारा दिए गए वस्त्रों को स्वीकार नही किया और माता अनुसूया द्वारा प्रदत्त उन दिव्य परिधानों को ही धारण किया जो कभी मैले नहीं होते थे। यही नहीं, लंका से लौटने के बाद स्वयं माता सीता ने कहा कि वनवास में माता अनुसूया द्वारा दिए गए पतिव्रत धर्म की शिक्षा के कारण ही मेरे सतीत्व की रक्षा हुई। धन्य है भारत भूमि जहाँ ऐसी महान सती ने जन्म लिया।

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