बिल्वपत्र (बेलपत्र)

एक बार देवर्षि नारद कैलाश पहुँचे, वहाँ उन्हें भगवान शंकर और माता पार्वती के दर्शन हुए। दोनों को प्रणाम करने के पश्चात देवर्षि ने महादेव से पूछा कि "हे प्रभु! पृथ्वी पर मनुष्य अत्यंत दुखी है और उनके दुखों का निवारण आपके द्वारा ही संभव है। अतः आप मुझे वो विधि बताइये जिससे मनुष्य आपको शीघ्र और सरलता से प्रसन्न कर सके। इसे जानकार मानव जाति का कल्याण होगा।"

नारद का प्रश्न सुनकर महादेव बोले - "देवर्षि! मुझे प्रसन्न करने के लिए किसी पूजा विधि की आवश्यकता नहीं है। मैं तो अपने भक्त भक्तिभाव से ही प्रसन्न हो जाता हूँ। किन्तु आपने पूछा है तो मैं बताता हूँ। मुझे बिल्वपत्र अत्यंत प्रिय है अतः जो मनुष्य भक्तिभाव से मुझे केवल जल और बिल्वपत्र अर्पण करता है, मैं उससे ही प्रसन्न हो जाता हूँ।"

नारद उनकी बात सुनकर बड़े प्रसन्न हुए और उनकी आज्ञा लेकर पृथ्वी की ओर चले। उनके जाने के पश्चात देवी पार्वती ने पूछा कि क्या कारण है कि उन्हें बिल्वपत्र इतना प्रिय है। तब भगवान शिव ने कहा "हे देवी! बिल्वपत्र स्वयं देवी लक्ष्मी का ही रूप है और उन्होंने इसी से मेरी पूजा की थी इसी कारण ये मुझे अत्यंत प्रिय है।" ये सुनकर देवी पार्वती ने वो कथा सुनाने का आग्रह किया कि क्यों देवी लक्ष्मी ने उनकी पूजा की थी।

उनका प्रश्न सुन कर महादेव ने कहा - "हे देवी! एक बार भगवान ब्रह्मा ने नारायण और अन्य देवताओं के साथ मेरे रामेश्वरम ज्योतिर्लिंग की पूजा की। उस पूजा में वाग्देवी (देवी सरस्वती) ने मेरी स्तुति इतने मधुर स्वर में की कि सभी के साथ भगवान विष्णु भी मंत्रमुग्ध हो गए। वाग्देवी का स्वर और प्रभाव देख कर श्रीहरि का मन उनके प्रति श्रद्धा से भर गया और उन्होंने उनके सम्मान में कई छंदों की रचना कर दी। वाग्देवी के प्रति इतना प्रेम देख कर देवी लक्ष्मी ईर्ष्या से भर उठी और रूठ कर वे पृथ्वीलोक चली आयी। वहाँ उनके अश्रुओं से बिल्बवृक्ष की उत्पत्ति हुई और उसी स्थान पर देवी लक्ष्मी ने १००० वर्षों तक उसके पत्रों से मेरी तपस्या की।

बिल्वपत्रों द्वारा की गयी उनकी तपस्या से मैं अतिप्रसन्न हुआ और उन्हें दर्शन देकर वर माँगने को कहा। तब उन्होंने मुझसे कहा - "हे भगवन! मेरे स्वामी के लिए अब मैं प्रिय नहीं रही और उन्हें वाग्देवी से अनुराग हो गया है। अब आप ही श्रीहरि के हृदय में पुनः मेरा वास करवा सकते हैं। अतः हे सर्वेश्वर आप मुझे यही वरदान दीजिये कि मेरे स्वामी का मन वाग्देवी से हट कर पुनः मुझमे लग जाये।" उनकी ऐसी बात सुनकर मैंने हँसते हुए कहा - "देवी! नारायण को वाग्देवी से कोई अनुराग नहीं हुआ है अपितु उनके प्रति नारायण के मन में केवल श्रद्धा का भाव है। श्रीहरि के ह्रदय में आपके अतिरिक्त और कोई नहीं है अतः आप निश्चिंत होकर वैकुण्ठ अपने स्वामी के पास जाइये।" मेरे इस प्रकार सांत्वना देने पर देवी लक्ष्मी संतुष्ट हुई और प्रसन्न मन से वापस नारायण के पास लौटी। उन्होंने सहस्त्र वर्षों तक बिल्वपत्र द्वारा मेरी पूजा की थी इसी कारण ये मुझे अत्यंत प्रिय है।
  • बिल्वपत्र को स्वयं महादेव का स्वरुप माना गया है और इसे त्रिदेव - ब्रह्मा, विष्णु और महेश का निवास माना गया है। 
  • इसके तीन पत्ते भगवान शंकर के तीन नेत्रों के सामान माने गए हैं।
  • बिल्वपत्र के तीन पत्ते ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद का प्रतिनिधित्व करते हैं। 
  • इसके तीन पत्ते मनुष्य के तीन मूल गुण - सतगुण, रजगुण और तमगुण के भी द्योतक हैं। 
  • स्कंदपुराण के अनुसार बिल्ववृक्ष की उत्पत्ति देवी पार्वती के स्वेद से हुई मानी गई है। वे इस पेड़ की जड़ में गिरिजा, तने में माहेश्वरी, शाखाओं में दक्षिणयिनी और पत्तों में पार्वती के रूप में वास करती हैं। 
  • ऐसी मान्यता है कि जो व्यक्ति तीर्थ नहीं जा सकते हैं, वे अगर केवल बिल्वपत्र और जल से भगवान शिव की पूजा कर दें तो उन्हें समस्त तीर्थों का पुण्य प्राप्त हो जाता है। 
  • स्वयं महालक्षी ने इसे महादेव की पूजा की थी अतः इससे महादेव की पूजा करने वालों पर लक्ष्मी की सदा कृपादृष्टि रहती है। 
  • सप्तर्षियों ने कहा है कि बिल्वपत्र द्वारा शिवपूजन करने से १ करोड़ कन्यादान का फल प्राप्त होता है। 
  • कम से कम तीन पत्तियों वाला बिल्वपत्र ही भगवान को अर्पण करना चाहिए। दो या एक पत्तिओं वाला बेलपत्र भगवान को चढाने योग्य नहीं होता है। साथ ही विषम संख्या वाला (३, ५, ७) बेलपत्र ही चढ़ाना चाहिए। 
  • छिद्र वाला बेलपत्र भगवान को नहीं चढ़ाना चाहिए और चढाने से पहले उसकी गांठ हो भी तोड़ देना चाहिए।
  • लिंगपुराण में बिल्वपत्र को तोड़ने के लिए चतुर्थी, अष्टमी, नवमी, चतुर्दशी, अमावस्या, संक्रांति काल एवं सोमवार को निषिद्ध माना गया है। सोमवार और दोपहर के बाद भी इसे तोडना निषिद्ध माना गया है। जिस दिन तोड़ना निषिद्ध है उस दिन चढ़ाने के लिए साधक को बेलपत्र एक दिन पूर्व ही तोड़ लेना चाहिए।
  • बेलपत्र कभी अशुद्ध नहीं होते इसीलिए एक बार उपयोग हुए बिल्वपत्र को पुनः धोकर उपयोग में लाया जा सकता है। 
  • पुराणों में कहा गया है कि १० स्वर्णमुद्राओं के दान का फल भगवान शिव को एक आक का पुष्प चढाने से, १००० आक के पुष्प का फल १ कनेर का पुष्प चढाने से और १००० कनेर के पुष्प चढाने का फल केवल एक बेलपत्र चढाने से प्राप्त हो जाता है। 
  • बेलपत्र को कभी काटना या उखाड़ना नहीं चाहिए। कहा गया है कि उसे काटने से लगने वाले पाप से केवल परमपिता ब्रह्मा ही आपकी रक्षा कर सकते हैं। 
  • भगवान शिव को बिल्वपत्र हमेशा उल्टा ही चढ़ाना चाहिए। अर्थात पत्ते का चिकना भाग शिवलिंग के ऊपर रहना चाहिए। साथ ही बेलपत्र में चक्र या वज्र का निशान नहीं होना चाहिए। 
  • रविवार और द्वादशी तिथि को बेलपत्र द्वारा की गयी पूजा का विशेष महत्त्व है। इस दिन किये गए पूजन से मनुष्य ब्रह्महत्या जैसे पाप से भी मुक्त हो जाता है। 
  • वैसे तो बिल्वपत्र कभी भी और किसी भी जल के साथ महादेव को अर्पित किया जा सकता है किन्तु श्रावण मास में गंगाजल के साथ चढ़ाये गए बेलपत्र से मनुष्य को निश्चय ही शिवलोक की प्राप्ति होती है। 
  • जिस प्रकार रुद्राक्ष कई प्रकार के होते हैं उसी प्रकार बेलपत्र में पत्तिओं के संख्या भी कई होती हैं। ३ से लेकर ११ पत्तों वाले बेलपत्र आपको साधारणतयः मिल जाते हैं। १३ और उसे अधिक पत्तों वाले बेलपत्र दुर्लभ होते हैं। बेलपत्र की संख्या (विषम संख्या में) जितनी अधिक होगी, उसका फल उतना ही बड़ा होता है।
  • बेलपत्र में चन्दन से पञ्चाक्षरी मन्त्र (ॐ नमः शिवाय) लिखकर चढाने से मनुष्य को मोक्ष की प्राप्ति होती है।

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