पुराणों में वर्णित विभिन्न विष

वैसे तो विष या जहर एक आम शब्द है किन्तु हिन्दू पुराणों में कई प्रकार के विष का वर्णन है। आम तौर पर हमने कदाचित केवल कालकूट एवं हलाहल के बारे में सुना है। कई लोगों को ये भी लगता है कि कालकूट और हलाहल एक ही हैं लेकिन ये भी सत्य नहीं है। पुराणों में ९ प्रकार के विष का वर्णन किया गया है जिन्हे "नवविष" कहा जाता है। इनकी तीव्रता अलग अलग होती है। समुन्द्र मंथन के समय सर्व प्रथम सर्वाधिक जहरीला हलाहल ही निकला था जिसे भगवान शिव ने अपने कंठ में धारण कर लिया था। यहाँ पर उन विषों को उनकी तीव्रता के आधार पर श्रेणीबद्ध किया गया है। ये विष हैं:
  1. वत्सनाभ: ये विष वैसे तो प्रारंभिक तीक्ष्णता का है किन्तु फिर भी ये इतना विषैला है कि इसे केवल सूंघने मात्र से प्राणी मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। हिमालय की तराइयों में आज भी इसी नाम की एक जहरली वनस्पति होती है जिसे मीठा विष भी कहते हैं। कई जगह इसे वत्सनाम भी कहते हैं। ये पर्वत पर तकरीबन ४०००-५००० मीटर की ऊंचाई पर मिलती है और इसके आस-पास कोई भी अन्य वनस्पति नहीं उगती। 
  2. हरिद्रिक: ये वत्सनाम से भी कही अधिक जहरीला विष होता है। आज कल कई लोग इसे "सींगिया" भी कहते हैं। ये हल्दी (हरिद्रि) के समान ही एक पौधा होता है जिसकी जड़ अत्यधिक जहरीली होती है।  
  3. सक्तुक: इसकी मारक क्षमता हरिद्रिक से कई गुणा अधिक होती है। इसे सत्तुक भी कहा जाता है।
  4. प्रदीपन: इसे प्रदीपक भी कहा जाता है। इसकी तुलना अग्नि से की गयी है। यह विष अत्यधिक उत्तेजना उत्पन्न करता है और देवताओं के लिए भी घातक है। इसकी तीव्रता सत्तुक से भी कहीं अधिक है।
  5. सौराष्ट्रिक: ये प्रदीपन से भी बहुत अधिक तीव्र होता है। ऐसी मान्यता है कि इसकी उत्पत्ति वर्तमान गुजरात के सौराष्ट्र नमक स्थान पर हुई थी।
  6. श्रृंगक: ये सौराष्ट्रिक से भी अधिक घातक विष है। 
  7. ब्रह्मपुत्र: कुछ लोग मानते हैं कि इसकी उत्पत्ति ब्रह्मपुत्र नदी के गर्भ से हुई थी तो कुछ लोग परमपिता ब्रह्मा को इसका जनक मानते हैं। ये ब्रह्माण्ड के सर्वाधिक विषैले पदार्थों में से है। 
  8. कालकूट: ये एक प्रसिद्ध विष है जिसे अधिक तीव्र केवल हलाहल ही होता है। ये इतना घातक होता है कि आम प्राणी तो क्या धातु और पत्थरों को भी क्षण भर में गला देता है। इसे स्वयं काल के समान माना गया है। ये विष आठ प्रमुख नागों जिनमे तक्षक और वासुकि भी हैं, उनके विष से भी अधिक तीक्ष्ण होता है। और तो और कई स्थानों पर इसकी तीव्रता स्वयं शेषनाग के विष से भी अधिक तीव्र मानी गयी है। पुराणों में वर्णित है कि प्रथम देवासुर संग्राम में देवों के हाथों पृथुमाली नामक एक दैत्य मारा गया। उसकी रक्त की बूंदें जहाँ भी गिरी वहाँ विषवृक्ष उग गए। उसी महान विष को सिद्ध जनों ने कालकूट नाम दिया। कई स्थानों पर समुद्र मंथन के समय कालकूट को ही समुद्र से निकला हुआ बताया गया है किन्तु अधिकतर स्थानों पर हलाहल का वर्णन है। यही कारण है कि लोग कालकूट एवं हलाहल को पर्यायवाची समझ लेते हैं किन्तु ऐसा नहीं है।
  9. हलाहल: समुद्र मंथन के समय सबसे पहले हलाहल बाहर निकला। इस विष की तुलना रूद्र के तीसरे नेत्र की ज्वाला के १००वें भाग से की गयी है। ये इतना शक्तिशाली था कि इसके केवल स्पर्श मात्र से कोई भी प्राणी भस्म हो जाता था। यही नहीं इसकी शक्ति के सामने देवताओं की अमरता भी नहीं ठहर सकती। अर्थात हलाहल की तीव्रता स्वयं अमृत की शक्ति को भी क्षीण कर सकने में सक्षम थी। जब हलाहल समुद्र के गर्भ से प्रकट हुआ तो उसके दर्शन मात्र से देवता और दानव अचेत हो गए। उसका प्रभाव ऐसा था कि संसार के समस्त प्राणी एक एक कर काल को प्राप्त होने लगे। विषैले से विषैले विषधर और नाग उसके ताप को सह ना सके और मृत्यु को प्राप्त हुए। औरों की तो क्या बात है, स्वयं मृत्यु के देवता यमराज एवं मथनी का काम कर रहे नागराज वासुकि भी उसकी तीक्ष्णता से अचेत हो गए। अपनी सृष्टि को इस प्रकार नष्ट होते देख ब्रह्मा जी व्यथित हो गए। उन्होंने भगवान विष्णु से उस विष के निदान का उपाय पूछा किन्तु भगवान विष्णु स्वयं कच्छप रूप में मंदराचल को अपने ऊपर संभाले हुए थे इसी कारण उन्होंने असमर्थता प्रकट की और कहा कि इस हलाहल को धारण करने की शक्ति केवल महादेव में ही है। ये सुनकर ब्रह्मदेव ने महादेव का आह्वान किया। सृष्टि का इस प्रकार विनाश होते देख, महादेव ने सारा हलाहल अपनी अंजुली में भर कर पी लिया किन्तु देवी पार्वती के अनुरोध पर उन्होंने उसे अपने कंठ में ही रोक लिया। उस भीषण विष के प्रभाव से महादेव का कंठ नीला पड़ गया और वे नीलकंठ कहलाये।

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