श्रीराम मंदिर का सम्पूर्ण इतिहास

श्रीराम के विषय में कौन नहीं जनता? उनके और उनके वंश के विषय में बताने की कोई आवश्यकता नहीं। ये जो वर्ष है वो बहुत ही महत्वपूर्ण है क्यूंकि इसी वर्ष अयोध्या में श्रीराम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा होने जा रही है। विगत कुछ वर्षों में हम सभी ने श्रीराम जन्मभूमि और इस मंदिर के आधुनिक इतिहास के बारे में कुछ पढ़ा और सुना है। आज इस लेख में हम इस मंदिर के प्राचीन इतिहास से लेकर वर्तमान स्थिति को जानेंगे।
  • वाल्मीकि रामायण में स्पष्ट रूप से ये लिखा है कि श्रीराम का जन्म अयोध्या में महाराज दशरथ के पुत्र के रूप में हुआ था। अयोध्या की स्थापना वैवस्वत मनु ने स्वयं की थी और उनके बाद उनके पुत्र इक्ष्वाकु ने इसे अपने साम्राज्य की राधानी बनाया। राजा दशरथ ने अयोध्या पर ६०००० वर्षों तक और श्रीराम ने ११००० वर्षों तक राज्य किया। 
  • जब श्रीराम ने निर्वाण लेने का निर्णय किया तो उन्होंने अपने अधिकार की सारी भूमि अपने पुत्रों - कुश और लव तथा अपने तीनों भाइयों के दो-दो पुत्रों के बीच बाँट दी। तत्पश्चात उन्होंने अपनी लीला समाप्त की और निर्वाण ले लिया।
  • मुख्य अयोध्या का राज्य श्रीराम के ज्येष्ठ पुत्र कुश को मिला। लव एवं श्रीराम के भाइयों के वंश बहुत अधिक समय तक नहीं चले किन्तु कुश का वंश बहुत लम्बा चला। श्रीराम के बाद के वंश के विषय में हमने एक लेख पहले ही लिखा है जिसे आप यहाँ पढ़ सकते हैं।
  • कहा जाता है कि जब श्रीराम ने निर्वाण लिया तो उनके बिना अयोध्या वीरान से हो गयी। किन्तु कुश ने इक्षवाकु कुल के शासन को बहुत अच्छे से आगे बढ़ाया। उन्होंने ही सर्वप्रथम अयोध्या में श्रीराम का मंदिर बनवाया था। तो आज हम जिस राम मंदिर की बात करते हैं उसकी नींव त्रेतायुग में श्रीराम के ज्येष्ठ पुत्र द्वारा ही रखी जा चुकी थी। 
  • कुश के पश्चात ३१ पीढ़ियों तक राजाओं ने कोसल साम्राज्य पर शासन किया और अयोध्या ही सदैव कोसल देश की राजधानी रही। हालाँकि उस समय तक सूर्यवंशियों का प्रभुत्व वैसा नहीं रहा जैसा कि श्रीराम या उनके पुत्रों के समय था, किन्तु फिर भी कोसल सदैव एक शक्तिशाली राज्य और महाजनपद के रूप में सम्मानित रहा। तब तक श्रीराम के मंदिर का अस्तित्व जस का तस बना रहा। 
  • इसके बाद कुश से ३२वीं पीढ़ी में वो राजा आये जिन्होंने एक अन्य महाकाव्य में सूर्यवंश का प्रतिनिधित्व किया। वो राजा थे बृहदबल जिहोने समस्त आर्यावर्त के राजाओं की भांति ही महाभारत के युद्ध में भाग लिया। उन्होंने कौरवों की ओर से युद्ध किया और युद्ध के १३वें दिन वो अभिमन्यु के हाथों वीरगति को प्राप्त हुए। 
  • बृहदबल के बाद उनके पुत्र बृहत्क्षण ने अयोध्या का राज्य संभाला। हालाँकि उनके बाद कोसल प्रदेश धीरे-धीरे अपना प्रभुत्व खोता रहा। किन्तु फिर भी राम मंदिर का अस्तित्व बना रहा। उसके बाद बृहदबल की २२ पीढ़ियों ने अयोध्या पर राज किया। 
  • बृहदबल की २३वीं पीढ़ी (कुश से ५५वीं) में एक ऐसे राजा ने अयोध्या का शासन संभाला जिन्होंने एक नए धर्म की ही स्थापना कर दी। इनका नाम था सिद्धार्थ जो आगे चल कर गौतम बुद्ध कहलाये। उनके संन्यास लेने के कारण उनके पुत्र राहुल ने अयोध्या का शासन संभाला। बाद में कुछ पीढ़ियों तक बौद्ध धर्म का प्रभाव इस वंश पर रहा किन्तु फिर भी उस समय के शिलालेखों से हमें श्रीराम मंदिर के अस्तित्व का पता चलता है।
  • चन्द्रगुप्त द्वितीय के शासनकाल के शिलालेखों के अनुसार उसके काल और काफी बाद तक अयोध्या ही गुप्त साम्राज्य की राजधानी भी थी। उन शिलालेखों में भी श्रीराम मंदिर के विषय में बताया गया है। 
  • ईसा से लगभग १८० वर्ष पूर्व पुष्यमित्र शुंग के शासन काल में मिले शिलालेख से हमें ये पता चलता है कि उसने भी श्रीराम मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया था। इसी मंदिर में उसके द्वारा किये गए दो अश्वमेघ यज्ञों का वर्णन भी मिलता है। 
  • महाकवि कालिदास ने भी अपने कालजयी ग्रन्थ रघुवंशम में रघुकुल का वर्णन किया है। इसमें अयोध्या का विशेष रूप से वर्णन है और सबसे विस्तृत वर्णन श्रीराम का ही है। प्रत्यक्ष रूप से तो नहीं किन्तु परोक्ष रूप से हमें इस ग्रन्थ में श्रीराम के मंदिर का वर्णन मिलता है।
  • इसके बाद ईसा से लगभग १०० वर्ष पूर्व, जब अयोध्या के राजवंश ने अपना प्रभुत्व खो दिया तब ऐसा वर्णन मिलता है कि श्रीराम का वो मंदिर बहुत जर्जर स्थिति में पहुँच गया। शिलालेखों से हमें ये पता चलता है कि उसी समय उज्जैन के राजा विक्रमादित्य अयोध्या पहुंचे और अपनी सेना सहित इसी मंदिर के निकट उन्होंने विश्राम किया। कहा जाता है कि उन्हें इस मंदिर के निकट बहुत दिव्य अनुभूति हुई और तब उन्होंने पास के ब्राह्मणों से उस स्थान के विषय में पूछा। तब उन्हें ज्ञात हुआ कि जहाँ वे ठहरे हैं वहाँ जर्जर अवस्था में किसी और का नहीं बल्कि स्वयं भगवान श्रीराम का मंदिर ही है। श्रीराम में अपनी असीम आस्था के कारण उन्होंने उस मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया और वहाँ काले पत्थर से एक भव्य मंदिर का निर्माण करवाया जो ८४ विशाल स्तम्भों पर खड़ा था।
  • ६३० ईस्वी के आस पास जब चीनी यात्री हेनत्यसांग भारत आया तो उसने लिखा कि उसने अयोध्या के आस पास लगभग २० बौद्ध मंदिर देखे जिनमें ३००० से भी अधिक बौद्ध भिक्षु रहते थे। उसने अपने लेखों में एक भव्य मंदिर का भी वर्णन किया है जहाँ सहस्त्रों हिन्दू भक्त दर्शन हेतु आते थे। ये माना जाता है कि हेनत्यसांग ने वास्तव में श्रीराम का मंदिर ही देखा था। 
  • ऐसा वर्णन मिलता है कि १२वीं शताब्दी में मोहम्मद गोरी के आक्रमण के समय जयचंद कन्नौज से यहाँ आया और उसने इस मंदिर से विक्रमादित्य का नाम निकाल कर स्वयं का प्रशस्तिपत्र लगवा दिया। 
  • इसके बाद २०० वर्षों तक भारत मुस्लिम आक्रमणकारियों का अत्याचार झेलता रहा किन्तु फिर भी लिखित प्रमाण है कि १४वीं शताब्दी तक महाराज विक्रमादित्य द्वारा जीर्णोंद्धार करवाया गया श्रीराम का वो मंदिर उसी प्रकार खड़ा रहा और मुस्लिम आक्रांता उसे कोई क्षति ना पहुंचा सके। 
  • १४वीं शताब्दी में इब्राहिम लोधी के शासनकाल तक इस मंदिर के होने के प्रमाण मिलते हैं। सन १५२६ में जब पानीपत के युद्ध में उसकी मृत्यु हुई और बाबर द्वारा मुग़ल साम्राज्य की नींव रखी गयी, तब जाकर इस मंदिर को तोड़ने के कई अभियान चलाये गए। १५२७ ने बाबर ने इस मंदिर को तोड़ने का फरमान जारी किया।
  • १५२८ में बाबर के सेनापति मीर बाकी इस मंदिर को ध्वस्त करने अयोध्या पहुंचा। उस समय मंदिर के मुख्य महंत स्वामी श्यामनन्द जी थे। उन्होंने इस मंदिर की रक्षा के लिए भीटी के महाराज महताब सिंह बद्रीनाथ से सहायता मांगी। जब तक महाराज बद्रीनाथ सहायता के लिए आते उस समय अयोध्या से लगभग १० किलोमीटर दूर सनेथू गांव के पंडित देवीनन्दन पांडेय ने स्थानीय लोगों को एकत्रित कर मंदिर को बचाने का प्रयास किया पर शत्रुओं की विशाल सेना के सामने वे सभी वीरगति को प्राप्त हुए।
  • बाद में महाराज बद्रीनाथ ने इस मंदिर की रक्षा के लिए बाबर की सेना से युद्ध किया किन्तु शत्रु की संख्या बहुत अधिक थी। लाखों रामभक्त उस युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए।
  • इसके १५ दिन के बाद हंसवर के महाराज रणविजय सिंह ने ये जानते हुए कि उनकी मृत्यु निश्चित है, केवल १००० योद्धाओं के साथ मंदिर की रक्षा का प्रयास किया किन्तु वीरगति को प्राप्त हुए। 
  • लखनऊ गजेटियर में ये लिखा हुआ है कि लगभग १७४००० हिन्दू इस मंदिर की रक्षा करते हुए शहीद हो गए। इसके बाद ही मीर बाकी इस मंदिर को तुड़वाने में सफल हो पाया।
  • मंदिर के टूटने के बाद मीर बाकी ने वहाँ पहली बार मस्जिद का ढांचा बनवाया और उसे नाम दिया गया "मस्जिद-ए-जन्मस्थान" अर्थात जन्मस्थान का मस्जिद। इसके अतिरिक्त वहाँ उसने एक सन्देश खुदवाया जिसमें लिखा गया "महान बाबर के आदेश पर दयालु मीर बाकी ने फरिश्तों की इस जगह को मुकम्मल रूप दिया।" यहाँ "फरिश्तों" का अर्थ श्रीराम से है। इस प्रकार जिस वहशी ने इस मंदिर को तुड़वाया, उसका स्वयं मानना था कि ये मस्जिद श्रीराम का जन्म स्थान है। बाद में इसी को बाबर के नाम पर बाबरी मस्जिद कहा गया।
  • बाद में महाराज रणविजय सिंह की विधवा रानी जयराज कुमारी हंसवर ने श्रीराम मंदिर को शत्रुओं से छुड़वाने के लिए ३००० वीरांगनों की सेना बनाई और लम्बे समय तक छापामार युद्ध किया। उन्होंने इस युद्ध को बाबर की मृत्यु के बाद हुंमायु के शासनकाल तक जारी रखा।
  • उसी काल में स्वामी महेश्वरानंद ने संन्यासियों की एक सेना बनाई और रानी जयराज कुमार हंसवर का युद्ध में साथ दिया। कहा जाता है कुछ समय तक उनकी और रानी की सेना ने मंदिर को मुगलों के चंगुल से छुड़ा भी लिया किन्तु बाद में हुंमायु ने इसे अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया और इस मंदिर (जो उसके लिए मस्जिद था) पर अधिकार के लिए अपनी पूरी शक्ति झोंक दी। अंततः हिन्दुओं की छोटी सेना के सभी रामभक्तों ने इस मंदिर की रक्षा के लिए अपना बलिदान दे दिया और एक बार फिर से उसपर मुगलों का कब्ज़ा हो गया। 
  • उसके बाद भी अनेकों हिन्दू वीरों ने बार बार उस मंदिर के उद्धार के प्रयत्न में अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दिया। ये क्रम अकबर के काल तक चलता रहा। उस युद्ध से अकबर इतना घबरा गया कि बीरबल और टोडरमल के कहने पर उसने खस की टाट से उस मस्जिद के चबूतरे पर ३ फ़ीट का एक छोटा सा राम मंदिर बनवा दिया। उसके पुत्र जहांगीर और पोते शाहजहाँ ने भी हिन्दू विद्रोह पुनः शुरू होने के डर से उस राम मंदिर को वहीँ रहने दिया।
  • जब औरंगजेब ने अपने पिता शाहजहां को बंदी बना कर गद्दी पर कब्ज़ा किया तो उसने फिर से राम मंदिर को तुड़वाने का प्रयास किया। अपने इस प्रयास में उस वहशी ने लगभग १० बार अयोध्या पर आक्रमण किया और अयोध्या में स्थित सैकड़ों मंदिर तोड़ डाले। 
  • औरंगजेब के समय पर ही इस मंदिर की रक्षा के लिए श्रीवैष्णवदास जी ने औरंगजेब की सेना पर लगभग ३० बार आक्रमण किया। 
  • सन १७१७ में जयपुर के राजा जय सिंह द्वितीय ने प्रयास किया कि मंदिर का स्थान वापस हिन्दुओं को दे दिया जाये। उनकी मुग़ल शासकों से अच्छी मित्रता भी थी और वे स्वयं एक प्रभावशाली व्यक्ति थे किन्तु फिर भी वे अपने प्रयास में असफल रहे क्यूंकि मुग़ल शासक फारुख सियार ने उनकी इस मांग को मानने से मना कर दिया। फिर भी अपने प्रयास से राजा जय सिंह द्वितीय ने उसी मंदिर के पास एक राम चबूतरा बनवा दिया ताकि हिन्दू वहां पर पूजा कर पाएं। 
  • फ़्रांस के एक पादरी जोसेफ टिफंटलर, जो स्वयं उस समय भारत में मौजूद थे, १७८८ में लिखे अपने एक पुस्तक में इस बात का खुलासा किया कि बाबरी मस्जिद श्रीराम मंदिर को तोड़ कर बनाई गयी है और उनकी पुस्तक में इस राम चबूतरे का भी उल्लेख है। 
  • १८१३ में हिन्दुओं ने अंग्रेजों से इस स्थान को हिन्दुओं को वापस देने के लिए कहा। उस समय की अंग्रेज सरकार उतनी सशक्त नहीं थी फिर भी उन्होंने जो जाँच की उस रिपोर्ट में उन्होंने साफ़ तौर पर मस्जिद के आस पास मंदिर वास्तुकला के होने का उल्लेख किया। 
  • सन १८२७ में अवध के नवाब नसीरुद्दीन हैदर शाह ने इस मस्जिद पर अधिकार किया। तब रामजन्मभूमि की स्वतंत्रता के लिए स्थानीय लोगों ने मिलकर एक सेना बनाई और अवध की सेना पर तीन बार आक्रमण किया। तीसरे आक्रमण के बाद उन्होंने नवाब की सेना को खदेड़ दिया और मंदिर पर हिन्दुओं का अधिपत्य हो गया। 
  • उसके कुछ समय बाद दिल्ली के सुल्तान अकबर शाह और और अवध के नवाब नसीरुद्दीन हैदर शाह की सम्मलित सेना ने अचानक ही जन्मस्थान पर आक्रमण कर हिन्दुओं का नरसंहार आरम्भ किया। स्थानीय हिन्दुओं की सेना उस विशाल सेना के सामने कुछ भी नहीं थी किन्तु फिर भी उन्होंने अपनी अंतिम श्वास तक शाही सेना का सामना किया और वीरगति को प्राप्त हुए। हजारों रामभक्तों के शव गिरने के बाद ही शाही सेना उस मंदिर पर पुनः अधिकार प्राप्त कर सकी। 
  • १८३८ में एक अंग्रेज पुरातत्ववेत्ता मोंटेगो मेरी मार्टिन ने एक जाँच की और अपनी रिपोर्ट में उन्होंने इस बात का खुलासा किया कि जिस स्तम्भों पर बाबरी मस्जिद खड़ी है वो वास्तव में मंदिर के स्तम्भ ही हैं। उनकी इस रोपोर्ट पर मुसलमानों ने बड़ा हंगामा किया। 
  • १८४८ में वाजिद अली शाह के शासन के समय हिन्दुओं ने पुनः इस स्थान को प्राप्त करने का प्रयास किया। मुग़ल सैनिकों और हिन्दुओं के बीच दो दिन तक घोर युद्ध चला और हिन्दुओं की विजय हुई। तब एक बार फिर हिन्दुओं ने औरंगजेब द्वारा तुड़वाये गए श्रीराम के छोटे मंदिर का निर्माण किया। ३ फ़ीट ऊँचे खस के टाट से बने उसे मंदिर में पुनः रामलला की मूर्ति की स्थापना की गयी। हालाँकि ये स्थिति अधिक देर नहीं रह सकी और बहादुर शाह जफ़र ने वाजिद अली शाह की सेना के साथ मिलकर पुनः इस स्थान पर अधिकार कर लिया। 
  • ५ वर्ष बाद १८५३ में इस स्थान के लिए हिन्दू और मुस्लिमों के बीच दंगा हुआ। ये पहली बार था कि बिना किसी मुग़ल राजा के समर्थन के मुसलमानों ने हिन्दुओं पर हमला किया। कई लोग इसे प्रथम हिन्दू-मुस्लिम दंगा भी मानते हैं। इसमें दोनों पक्षों की क्षति हुई। 
  • १८५५ में अंग्रेजों ने मुसलमानों को तो मस्जिद में जाने की अनुमति दी किन्तु हिन्दुओं को अंदर जाने पर रोक लगा दी गयी। तब हिन्दुओं ने वहां से १५० फ़ीट दूर बने राम चबूतरे पर पूजा करना आरम्भ किया। 
  • १८५७ की क्रांति के समय अयोध्या के महंत बाबा रामचरण दास ने फिर से राम मंदिर के जीर्णोद्धार का प्रयास किया। इस प्रयास में उन्होंने एक मौलवी आमिर अली को अपनी बात समझाई और आमिर अली ने ये माना कि ये स्थान वास्तव में श्रीराम जन्मभूमि ही है। हिन्दुओं ने उन दोनों का स्वागत किया किन्तु मुस्लिमों को एक मुस्लिम का इस प्रकार श्रीराम की भक्ति करना रास नहीं आया। उन्होंने बिना किसी कारण इसका बड़ा विरोध किया और भावी दंगे के खतरे को देखते हुए उस समय की कंपनी सरकार ने उसी मंदिर के निकट एक पेड़ पर बाबा रामचरण दास और आमिर अली को एक साथ फांसी दे दी। 
  • अंग्रजों और मुसलमानों के इस कृत्य से हिन्दू जनता भड़क उठी और शांति बहाल करने के लिए उस समय की अंग्रेजी सरकार ने १८५९ में उस विवादित स्थल पर बाड़ लगा दी और अंदर का हिस्सा मुसलमानों को और बाहर का हिस्सा हिन्दुओं को पूजा के लिए दे दिया। इससे काफी समय तक शांति बनी रही। 
  • १८८५ में निर्मोही अखाड़े के महंत श्री रघुबर दास पहली बार इस मामले को न्यायलय तक ले गए। उस समय फ़ैजाबाद न्यायलय के न्यायाधीश पंडित हरिकिशन ने इस मामले को सुना। रघुबर दास जी ने प्रार्थना की थी कि उन्हें राम चबूतरे पर छतरी लगाने दी जाये किन्तु उनकी अर्जी ठुकरा दी गयी। 
  • १९३४ में एक बार फिर वहां हिन्दू-मुस्लिम दंगे हुए जिसमें बाबरी मस्जिद की दीवार तोड़ दी गयी। अंग्रेज सरकार ने उसे फिर से बनवा तो दिया किन्तु हिन्दुओं के विरोध के कारण मुस्लिमों को वहाँ नमाज पढ़ने से मना कर दिया गया। 
  • १९४७ में जब हमें आजादी मिली तो लोगों को लगा कि अब यहाँ मंदिर बन ही जाएगा किन्तु ऐसा नहीं हुआ। तत्कालीन कांग्रेस सरकार की कार्यसूची में दूर दूर तक कहीं राम मंदिर नहीं था। सरकार ने मस्जिद के मुख्य द्वार पर ताला लगवा दिया और हिन्दुओं के एक अन्य द्वार से प्रवेश करने की अनुमति मिली। 
  • १९४९ में अचानक एक दिन मस्जिद के अंदर से घंटी की आवाज आने लगी और पता चला कि मस्जिद के अंदर श्रीराम की एक मूर्ति प्रकट हुई है। मुस्लिमों ने ये आरोप लगाया कि वो मूर्तियां हिन्दुओं ने रखी है। हिन्दू और मुस्लिम दोनों उस स्थान पर एकत्र होने लगे और ये विवाद इतना बढ़ा कि तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू तक ये बात पहुंची। जवाहरलाल नेहरू ने मुस्लिमों का पक्ष लेते हुए अयोध्या के जिलाधीश के.के. नायर से कहा कि वहां से श्रीराम की मूर्तियां हटा दी जाये किन्तु नायर ने ऐसा करने से मना कर दिया।
  • २७ दिसंबर १९४९ को जवाहरलाल नेहरू ने पुनः पत्र भेज कर के.के. नायर को श्रीराम की मूर्तियां वहां से हटाने को कहा। इस पर के.के. नायर ने अपना इस्तीफा दे दिया और कहा कि श्रीराम की मूर्तियां हटाने के स्थान पर वहां एक जालीनुमा दरवाजा लगा दिया जाये। नेहरू को ये बात पसंद आयी और उन्होंने ऐसा ही किया। 
  • १९५० में हिन्दू महासभा के अधिवक्ता गोपाल विशारद ने फ़ैजाबाद जिला न्यायलय में एक अर्जी डाली कि उस स्थान पर हिन्दुओं को पूजा करने की अनुमति दी जाये। इस पर न्यायलय ने उस दरवाजे से बाहर से ही पूजा करने की स्वीकृति दे दिया। मंदिर के अंदर केवल पुजारी को जाने का अधिकार दिया। 
  • १९८४ में संघ, विश्व हिन्दू परिषद् और बीजेपी मंदिर के उद्धार के लिए एक समिति का गठन करते हैं और सीतामढ़ी से अयोध्या तक की रथ यात्रा निकालने का निर्णय लेते हैं किन्तु उसी समय अचानक तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी की हत्या हो जाती है जिससे ये यात्रा रुक जाती है। 
  • १९८६ में जब शाहबानो ने अपने पति से गुजारा भत्ता लेने वाला केस जीता तब तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने मुस्लिमों को खुश करने के लिए संसद में प्रस्ताव लाकर न्यायलय के फैसले को पलट दिया। इससे हिन्दुओं में असंतोष फ़ैल गया। तब हिन्दुओं के संतोष के लिए सरकार ने इस मस्जिद का ताला खुलवा कर हिन्दुओं को वहां पूजा अर्चना करने की स्वीकृति दे दी। इस बाद से मुस्लिम भड़क गए और ६ फ़रवरी १९८६ को उन्होंने बाबरी मस्जिद संघर्ष समिति का गठन किया। 
  • १९८९ में संघ के नेतृत्व में विवादित स्थल के निकट ही श्रीराम मंदिर की नींव रखी गयी। उसी साल इलाहबाद उच्च न्यायालय ने आदेश दिया कि विवादित स्थल के मुख्य द्वारों को खोल दिया जाये और इसे सदा के लिए हिन्दुओं को दे देना चाहिए। 
  • १९९० में संघ और विश्व हिन्दू परिषद् के नेतृत्व में लालकृष्ण आडवाणी ने सोमनाथ से अयोध्या तक १०००० किलोमीटर की एक रथ यात्रा निकाली। इसी दौरान बिहार के तत्काल मुख्यमंत्री लालू यादव के आदेश पर समस्तीपुर में लालकृष्ण आडवाणी को गिरफ्तार कर लिया गया। 
  • आडवाणी जी की गिरफ़्तारी के बाद भी जिस दिन रथ अयोध्या पहुंचने वाला था, ३० अक्टूबर १९९० के दिन हजारों की संख्या में रामभक्तों ने पुलिस के रोकने के बाद भी अयोध्या में प्रवेश किया और बाबरी मस्जिद पर हिन्दू ध्वज फहरा दिया। 
  • ३ दिन बाद २ नवम्बर १९९० को उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने रामभक्तों पर गोली चलवाई जिसमें सैड़कों कार सेवकों ने अपने प्राणों से हाथ धोया। कहा जाता है कि उस दिन सरयू तट हिन्दुओं की लाशों से पट गया था। 
  • ६ दिसंबर १९९२ को २ लक्ष से अधिक कारसेवक अयोध्या पहुंचे। उस समय के तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने पुलिस को भीड़ पर गोली ना चलाने का निर्देश दिया। उन्होंने सोचा था कि वे भीड़ को सुरक्षा बलों द्वारा नियंत्रित कर लेंगे किन्तु ऐसा नहीं हुआ। उस बढ़ती हुई लाखों की भीड़ के सामने पुलिस की हिम्मत नहीं हुई कि कोई कार्यवाही कर सके। 
  • ६ दिसंबर १९९२ को दोपहर १:५५ पर बाबरी मस्जिद का पहला गुम्बद गिरा दिया गया। फिर डेढ़ घंटों में दोपहर ३:३० को दूसरा गुम्बद गिरा दिया गया। शाम ५ बजे तक तीसरा गुम्बद और पूरा ढांचा गिरा दिया गया। इसकी जिम्मेदारी लेते हुए मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने इस्तीफा दे दिया और उसी दिन शाम ७ बजे तक उत्तर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया।
  • इसके बाद पूरे देश में हिन्दू-मुस्लिम दंगा फ़ैल गया। अयोध्या में १००० से अधिक और बम्बई में ९०० से अधिक लोगों की जानें गयी। मेरा अपने शहर भागलपुर में गंगा का तट लाशों से पट गया था। 
  • इस घटना के १० दिनों के बाद इसकी जाँच के लिए लिब्रहान आयोग का गठन किया गया जिन्हे इसकी जाँच कर रिपोर्ट सौंपने के लिए ३ महीने का समय दिया गया। हास्यप्रद बात ये है कि इस आयोग को जाँच पूरी करने में ३ महीने नहीं बल्कि १७ वर्ष लगे गए। 
  • २००३ में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने अपनी एक विस्तृत रिपोर्ट में ये स्पष्ट रूप से लिखा कि जहाँ पर विवादित ढांचा था वो उसे मंदिर को तोड़ कर ही बनाया गया था। इस रिपोर्ट को भी लिब्रहान रिपोर्ट में शामिल किया गया। ३० जून २००९ को लिब्रहान आयोग ने ७०० पृष्ठों की अपनी अंतिम रिपोर्ट तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को सौंपी। 
  • २०१० में अपने ऐसतिहासिक फैसले में इलाहबाद उच्च न्यायालय ने विवादित जमीन को रामजन्मभूमि घोषित किया। उन्होंने ये निर्देश दिया कि श्रीराम की मूर्तियों को वहां से ना हटाया जाये। उन्होंने इस पुरे विवादित जमीन को राम जन्मभूमि ट्रस्ट, निर्मोही अखाडा और सुन्नी वक्फ बोर्ड के बीच बराबर बाँट दिया। हिन्दू और मुस्लिम पक्ष दोनों इस फैसले से सहमत नहीं हुए और उन्होंने २०११ में उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाया।
  • सुप्रीम कोर्ट ने इस विवाद से जुड़े सभी दस्तावेजों को अंग्रेजी में अनुवाद करने को कहा जिसमें बहुत अधिक समय लगा और वर्षों तक इसमें कोई सुनवाई नहीं हुई। 
  • अंततः ९ नवम्बर २०१९ में उच्चतम न्यायालय ने अपना अंतिम फैसला सुनाते हुए पूरी विवादित भूमि को राम जन्मभूमि ट्रस्ट को दे दिया। इस प्रकार ४९१ वर्षों के अथक संघर्षों के बाद राम जन्मभूमि पुनः हिन्दुओं ने प्राप्त की। 
  • फिर ५ फरवरी २०२० में ट्रस्ट का गठन होता है और मंदिर का निर्माण आरम्भ होता है। और अब से कुछ दिनों बाद २२ जनवरी २०२४ को अयोध्या में श्रीराम के भव्य मंदिर का उद्धघाटन होने जा रहा है।
हमें ये कभी यही भूलना चाहिए कि श्रीराम मंदिर का जो मंदिर हमें घर बैठे देखने का सौभाग्य प्राप्त हो रहा है उसके पीछे ४९१ वर्षों का संघर्ष और लाखों हिन्दुओं के प्राणों का बलिदान छिपा है। तो आइये हम सभी गौरव का अनुभव करें कि हमें अपने जीवन काल में श्रीराम मंदिर को देखने का सौभाग्य प्राप्त हो रहा है। जय श्रीराम। 

3 टिप्‍पणियां:

  1. अद्भुत शोधालेख, बहुत ही महत्वपूर्ण। सादर प्रणाम

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  2. अत्यंत सुंदर एवं जानकारी वाले लेख के लिए साधुवाद

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