केवल सुख को ही अपना ध्येय मानने वाले - "चार्वाक"

केवल सुख को ही अपना ध्येय मानने वाले - "चार्वाक"
काम एवैकः पुरुषार्थः

अर्थात: काम (भोग विलास) ही एकमात्र पुरुषार्थ है।

इस एक वाक्य से आपको चावार्क दर्शन की मानसिकता समझ में आ जाएगी। हिन्दू धर्म में ९ मुख्य दर्शन बताये गए हैं। उनमें से छः दर्शन आस्तिकवादी हैं और ३ नास्तिकवादी। इन ३ नास्तिकवादी दर्शनों में भी जो चावार्क दर्शन है वो घोर भौतिकवादी है। अर्थात चावार्क दर्शन के अनुसार जीवन का एकमात्र उद्देश्य केवल भोग विलास में लिप्त रहना है। किन्तु इससे पहले हम इस दर्शन को समझें, हमें चावार्क क्या है, ये जानना होगा।

अधिकतर लोग चावार्क को एक दर्शन मानते हैं, कुछ इसे समुदाय या संप्रदाय समझते हैं, कुछ इस एक विचारधारा मानते हैं तो कइयों का कहना है कि चावार्क एक व्यक्ति थे। यदि "चावार्क", इस शब्द को बात की जाये तो इसके बारे में हमें तीन सन्दर्भ मिलते हैं। पहला सन्दर्भ ये है कि चावार्क एक व्यक्ति थे और बाद में उनका अनुकरण करने वाले भी चावार्क कहलाये या चावार्क संप्रदाय का हिस्सा माने गए।

दूसरे मत के अनुसार चावार्क का अर्थ है चबाने वाला। इस अर्थ को बताने वालों के अनुसार चावार्क विचारधारा विचित्र थी जिसने समाज के नैतिक मूल्यों को चबा लिया, अर्थात समाप्त कर दिया। इसी कारण इसे चावार्क कहा गया। तीसरे मत, जो इस विचारधारा का समर्थन करता है, उनके अनुसार चावार्क का अर्थ है चारु + वाक्। अर्थात ऐसा व्यक्ति जो मधुर वाणी बोलता हो और जिससे असहमत होना कठिन हो उसे चार्वाक कहा गया।

यहाँ तक आप लोगों को लग रहा होगा कि जब हम चार्वाक की बात करते हैं तो वो मूलतः एक विचारधारा के बारे में है। आपका सोचना बिलकुल सही है। आधुनिक काल में ९९% लोग इसे एक नास्तिक विचारधारा ही मानते हैं। अब यहाँ एक प्रश्न आता है कि क्या हमारे वेदों या पुराणों में चार्वाक के विषय में कोई वर्णन है? तो उत्तर है हाँ। चार्वाक का वर्णन हमें विष्णु पुराण और महाभारत दोनों में मिलता है। लेकिन चूँकि अधिकतर लोग इसे एक विचारधारा ही मानते हैं तो पहले उसी के विषय में समझ लेते हैं और फिर हम इसकी पौराणिक मान्यताओं के विषय में बात करेंगे।

किन्तु इससे पहले मैं ये बता देना चाहता हूँ कि चार्वाक विचारधारा को जानने के बाद बहुत लोगों को इसपर अत्यधिक क्रोध आ सकता है। किन्तु यदि आपने ये समझा कि जिस प्रकार हमारी एक विचारधारा हैं उसी प्रकार चार्वाक भी एक विचारधारा है तो आप इसे बेहतर ढंग से समझ सकते हैं। यह सही और गलत की बात नहीं है, ये केवल अपने अपने विश्वास की बात है।

चार्वाक एक नास्तिक विचारधारा है। आम तौर पर नास्तिक का अर्थ लोग ये समझते हैं कि जो ईश्वर का विश्वास ना करे, किन्तु ऐसा नहीं है। मनुस्मृति के अनुसार जो व्यक्ति वेदों पर विश्वास नहीं करता उसे नास्तिक कहा गया है। इसके उलट वेदों पर विश्वास करने वाले व्यक्तियों को आस्तिक कहा गया है। तो चार्वाक विचारधारा के अनुसार वेदों में जो कुछ भी लिखा है वो पूरी तरह से गलत है।

उनका केवल एक ही सिद्धांत है कि जो भी चीज वो देख सकते हैं और अनुभव कर सकते हैं, वे केवल और केवल उन्ही पर विश्वास करते हैं। यही कारण है कि वे चार महाभूतों की बात करते हैं। उनके अनुसार, चूँकि वे आकाश को छू या उसका अनुभव नहीं कर सकते, इसी कारण वो महाभूत नहीं है। इसी प्रकार वेद केवल तीन होते हैं, ऐसा वे मानते हैं। अथर्ववेद को वे वेद मानते ही नहीं क्यूंकि वे सोचते हैं कि अथर्ववेद का बड़ा हिस्सा अन्य तीन वेदों, अर्थात ऋग्वेद, सामवेद एवं यजुर्वेद का ही संकलन है। उस पर से जो कुछ भी उन तीन वेदों (चार्वाक के अनुसार) में लिखा है वो सब मिथ्या है।

इसी तर्क के अनुसार वे ईश्वर और आत्मा पर विश्वास नहीं करते क्यूंकि वे उसे देख, छू या अनुभव नहीं कर सकते। चार्वाक मत के अनुसार मनुष्य के शरीर में कोई आत्मा नहीं बल्कि चेतना होती है। जैसा कि इनके नाम से ही पता चलता है, तर्क में इन्हे हरा पाना बहुत कठिन है क्यूंकि इनके तर्कों के पीछे कोई तथ्य नहीं होता। ये किसी भी प्रकार के कर्मकांड, पूजा, पर्व-त्यौहार को नहीं मानते।

ये हिन्दू धर्म में वर्णित जन्म और मरण के चक्र को भी नहीं मानते। इनकी मान्यता है कि मरने के बाद सब कुछ समाप्त हो जाता है। ना कोई आत्मा होती है और ना ही कोई पुनर्जन्म। चूँकि के जीवन को जन्म और मृत्यु के बीच का काल ही मानते हैं इसी कारण इनके लिए मोक्ष का कोई महत्त्व नहीं होता। मृत्यु को ही ये मोक्ष मानते हैं। इनके अनुसार आत्मा-परमात्मा, पाप-पुण्य, स्वर्ग नर्क जैसा कुछ भी नहीं होता। कुल मिला कर बात ये है कि हिन्दू धर्म में जो कुछ भी लिखा है, वे उनमें से कुछ भी नहीं मानते। उनका यही मत अन्य धर्मों के विषय में भी है।

वे घोर भौतिकवादी होते हैं। मतलब उनके अनुसार जीवन एक बार ही मिला है इसीलिए इसमें पूरी तरह से भोग विलास में लिप्त हो इसका आनंद लेना चाहिए। जीवन के परम सुख के अतिरिक्त जो कुछ भी है वो उनके लिए महत्वहीन है। 

हिन्दू धर्म में जो चार पुरुषार्थ कहे हैं गए हैं - धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष, इनमें से वे केवल काम को ही मानते हैं। इनके अनुसार अर्थ, अर्थात जितना भी धन व्यक्ति के पास हो उसे अपने सुख की प्राप्ति हेतु खर्च कर देना चाहिए। इनकी दृष्टि में बचत सबसे बड़ी मूर्खता का कार्य है। भोग का इनके जीवन में क्या महत्त्व है इसे आप चार्वाक दर्शन के इस श्लोक से समझ सकते हैं -

यावत् जीवेत सुखं जीवेत ऋणं कृत्वा घृतं पीबेत।
भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः।

अर्थात: मनुष्य जब तक जीवित रहता है उसे सुख से रहना चाहिए। यदि ऋण लेकर भी घी पीना पड़े तो ऋण लेना चाहिए। यहाँ घी पीने का अर्थ है अपने सुख और काम वासना की पूर्ति हेतु यदि ऋण भी लेना पड़े तो ले लेना चाहिए। ऐसा इसीलिए क्यूंकि एक बार भस्मीभूत (मृत्यु) होने के पश्चात ये देह कभी पुनः प्राप्त नहीं होती।

इससे आगे का श्लोक और आगे के स्तर पर जाता है जो मदिरा के प्रति इनके प्रेम को दर्शाता है -

पीत्वा पीत्वा पुनः पीत्वा, यावत् पतति भूतले।
उत्थाय च पुनः पीत्वा, पुनर्जन्म न विद्यते।

अर्थात: (मदिरा) पियो, पियो और फिर पियो। तब तक पीते रहो जब तक भूमि पर ना गिर जाओ। गिरने के पश्चात यत्न (पुरुषार्थ) कर के पुनः उठो और फिर से मदिरा पियो क्यूंकि मनुष्य का जन्म फिर नहीं मिलता।

रामायण के अयोध्या कांड के सर्ग १०८ में श्रीराम और ऋषि जाबालि का एक संवाद है जिससे जाबालि पूर्णतः चार्वाक मत के प्रतीत होते हैं। इससे हम ये समझ सकते हैं कि चार्वाक विचारधारा कोई आज की नहीं बल्कि बहुत ही प्राचीन समय से है। जाबालि महाराज दशरथ के मंत्रिमंडल के एक प्रमुख सदस्य थे। इस संवाद में जब श्रीराम वन चले जाते हैं तब भरत उन्हें मानाने वन गए। उस समय जाबालि भी उनके साथ थे और उन्होंने बिलकुल चार्वाक की भांति तर्क देकर श्रीराम से अयोध्या वापस आने को कहा। विस्तृत श्लोक आप रामायण में पढ़ सकते हैं, मैं केवल उसका सार संक्षेप में यहाँ बता देता हूँ।

जाबालि श्रीराम से कहते हैं कि प्रजा के सुख के लिए वे पुनः अयोध्या लौट जाएँ। तब श्रीराम उनसे कहते हैं कि पिता की आज्ञा के कारण वे अब अयोध्या नहीं लौट सकते। तब जाबालि कहते हैं कि जब पिता ही नहीं रहे तो फिर उनका वचन कैसा। वे आगे कहते हैं कि आप (श्रीराम) अपने पिता का श्राद्ध कर रहे हैं। मनुष्य ये सोच कर यहाँ पित्तरों को भोग लगाता है कि परलोक में उन्हें ये वस्तुएं मिलेंगी। ये तो बिलकुल अन्न की बर्बादी है।

इससे आगे भी वे व्यंग से कहते हैं कि यदि यहाँ का अन्न परलोक में मिल सकता है तब तो पृथ्वी पर किसी और स्थान पर लगाया गया भोग भी मनुष्य को प्राप्त हो सकता है। फिर क्यों नहीं वहां (अयोध्या में) दिया गया अन्न आपको यहाँ (वन में) प्राप्त हो सकता है।

तब श्रीराम ने उनसे विनम्रता से कहा कि हे विप्रवर! आपने मेरा हित सोचकर जो बातें कही है वो करने योग्य दिखाई देती है किन्तु वास्तव में कर्तव्य से बिलकुल परे है। आपने जो आचार बताया है उसे करने वाला मनुष्य श्रेष्ठ मनुष्य होगा, ऐसा लगता है किन्तु वास्तव में वो मनुष्य अनार्य ही होगा। पहले सत्यपालन की प्रतिज्ञा करके अब मैं मोह में आकर किसी भी प्रकार अपने पिता की आज्ञा का उलंघन नहीं करूँगा। आप घोर नास्तिक हैं और आपने वेद-विरुद्ध मार्ग का आश्रय ले रखा है। आपके इस स्वाभाव को जानकर भी मेरे पिता ने जो आपको अपने मंत्रिमंडल में स्थान दिया था, उसके लिए मैं उनके इस कार्य की भी निंदा करता हूँ।

तब जाबालि श्रीराम से क्षमा मांगते हुए कहते हैं कि हे रघुनन्दन! मैं ना आस्तिक हूँ और ना ही नास्तिक। परिस्थिति के अनुसार मैं आस्तिक भी बन सकता हूँ और नास्तिक भी। अभी जो मैंने नास्तिकों जैसी बातें कही वो भी परिस्थिति के अनुसार ही थी। मेरा उद्देश्य केवल आपको अयोध्या लौटा कर ले जाना था। तब श्रीराम ने उन्हें फिर उचित वचन बोल कर शांत किया। इसके बाद जाबालि तपस्या करने वहीँ वन में रुक गए और वापस अयोध्या नहीं गए।

अब अंततः आते हैं चार्वाक के पौराणिक उल्लेख पर। पुराणों के अनुसार चार्वाक विचारधारा की उत्पत्ति बृहस्पति से मानी गयी है। यहाँ एक बार जानने योग्य है कि बृहस्पति भी अनेक हुए हैं इसीलिए चार्वाक मत की रचना किस बृहस्पति ने की है उस पर भी विवाद है। अधिकतर लोग ऐसा मानते हैं कि इस विचारधारा की रचना देवगुरु बृहस्पति ने ही की थी जबकि कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि कालांतर में वात्स्यायन बृहस्पति हुए, उन्होंने ही चार्वाक मत का आरम्भ किया। अब ये वही वात्स्यायन थे जिन्होंने कामसूत्र की रचना की या कोई और, इस पर भी मतभेद है।

किन्तु अधिकतर स्थानों पर देवगुरु बृहस्पति का ही वर्णन मिलता है। इनके विषय में भी दो मान्यताएं प्रचलित हैं। पहली मान्यता के अनुसार चार्वाक वास्तव में देवगुरु बृहस्पति के शिष्य थे जिन्होंने इस विचारधारा का विस्तार किया। बाद में जो कोई भी उनके अनुयायी बनें, उन्हें उनकी के नाम पर चार्वाक कहा जाने लगा। ये मान्यता आधुनिक काल में सबसे प्रसिद्ध है।

एक अन्य कथा के अनुसार चार्वाक विचारधारा की रचना देवगुरु बृहस्पति ने जान बूझ कर असुरों के लिए की थी ताकि वे उसका अनुसरण कर धर्म से च्युत हो जाएँ ताकि देवताओं का वर्चस्व सदैव बना रहे। यही सोच कर उन्होंने इस मत का प्रचार केवल असुरों में किया किन्तु आगे चल कर कुछ मनुष्यों को भी उनके इस मत का पता चल गया और वही से चार्वाक विचारधारा मनुष्यों में भी फ़ैल गयी।

चार्वाक का एक विवरण हमें विष्णु पुराण में भी मिलता है। कथा के अनुसार एक बार असुरों ने सोचा कि हम अधर्म के पथ पर हैं इसी कारण देवताओं को जो सम्मान मिलता है वो हमें नहीं मिलता। ये सोच कर उन्होंने भी धर्मानुसार आचरण करना आरम्भ कर दिया। इससे उनकी प्रतिष्ठा बढ़ने लगी और कई स्थानों पर उन्हें देवताओं से भी अधिक सम्मान मिलने लगा। ये देख कर देवता बड़े चिंतित हुए और भगवान विष्णु के पास गए।

उनकी बातें सुन कर श्रीहरि ने हँसते हुए कहा कि ये तो अच्छी बात है। अब आपमें और उनमें कोई बैर नहीं रहेगा। तब देवताओं ने कहा कि प्रभु! ये तो ठीक है किन्तु इससे हमारी श्रेष्ठता समाप्त हो रही है। अतः कोई उपाय कीजिये। तब श्रीहरि ने हँसते हुए कहा कि अच्छा, किसी और की प्रतिष्ठा से चिंतित हैं आप लोग। ठीक से सोच कर बताएं कि क्या आप यही चाहते हैं कि असुर पहले की भांति अन्यायी हो जाएँ? इस पर देवताओं अपनी सहमति दी।

तब श्रीहरि ने अपनी छाया से एक माया पुरुष को उत्पन्न किया और उसे मृत्युलोक में भेजा। वही पुरुष वहां चार्वाक के रूप में प्रसिद्ध हुआ। जब उसने ज्ञान अर्जित किया तो देखा कि लोग बेकार ही ऐसी चीजों के पीछे श्रम कर रहे हैं जिसका अस्तित्व ही नहीं है। तब वो घूम घूम कर भौतिकवाद का प्रचार करने लगा। उसने धर्म परायण व्यक्तियों को मुर्ख कहा और ईश्वर की सत्ता को मानने से मना कर दिया।

उस समय जब पृथ्वी पर सवर्त्र धर्म व्याप्त था, एक व्यक्ति का अकेले सभी परम्पराओं के विरुद्ध खड़ा रहना कुछ लोगों को बड़े साहस का कार्य लगा। चूँकि चार्वाक केवल सुख का भोग करने को ही कहते थे इसी कारण असुरों के साथ साथ मनुष्यों को भी वो आसान लगा। यदि सुख मिल रहा हो तो भला कौन सुख को छोड़ कर कठिन तप कर ईश्वर को प्राप्त करना चाहेगा? इसी से धीरे धीरे चार्वाक की प्रसिद्धि बढ़ने लगी और उनके अनुयायियों ने उन्हें महर्षि की उपाधि दे दी।

अब तो देवता और भी चिंतित हुए और फिर नारायण के पास दौड़े आये। उन्होंने कहा कि प्रभु! आपने ये किस मनुष्य की उत्पत्ति की? उसने तो पूरे समाज को पथभ्रष्ट कर दिया है। भूलोक में हमारी जो प्रतिष्ठा थी अब उसके शिष्य उसे मानने से मना करने लगे हैं। ऐसा नास्तिक और अधर्मी व्यक्ति आपने क्यों भूलोक में भेज दिया जो पूरी परम्पराओं को चर्व (चबा) रहा है।

तब श्रीहरि ने हँसते हुए कहा - यही कारण था कि मैंने आप लोगों को सोच समझ कर निर्णय लेने को कहा था। आपकी इच्छा अनुसार ही मैंने इसका सृजन किया और देखिये इसने असुरों को पुनः धर्म के मार्ग से डिगा दिया है। किन्तु अब मनुष्य भी उसका अनुसरण करने लगे हैं तो मैं कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकता। वो आस्तिक है या नास्तिक वो उसकी अपनी विचारधारा है और देवताओं को मनुष्यों की विचारधारा में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। इसीलिए उसके चिंतन से भयभीत ना हों, इससे किसी को हानि नहीं होगी।

चार्वाक का एक वर्णन महाभारत के अनुशासन पर्व में भी मिलता है। हालाँकि यहाँ पर चार्वाक नामक एक राक्षस का वर्णन है और ये वही चार्वाक है या नहीं, इसके विषय में भी मतभेद है। कथा के अनुसार महाभरत युद्ध के पश्चात जब युधिष्ठिर राजा बनें तो पूरे आर्यावर्त से ऋषियों का समुदाय उन्हें आशीर्वाद देने हस्तिनापुर पहुंचा। वहां पर चार्वाक नामक एक राक्षस भी ऋषि का वेश बना कर पहुँच गया। 

जब युधिष्ठिर सभी ऋषियों का आशीर्वाद ले रहे थे तभी ऋषि रूपी उस राक्षस ने युधिष्ठिर की निंदा करते हुए कहा कि उसने राज्य अपने भाइयों और परिजनों को मार कर प्राप्त किया है। इससे युधिष्ठिर शोक से भर गए। तब ऋषियों ने अपनी दिव्य दृष्टि से ये जान लिया कि ये ऋषि नहीं बल्कि चार्वाक नामक राक्षस है और उन्होंने अपनी हुंकार से उसका वध कर दिया। 

अपनी इसी विचारधारा के कारण प्राचीन काल से ही चार्वाक हास्य और निंदा के पात्र बने हुए हैं। ठीक इसी प्रकार हम लोग भी उनकी दृष्टि में हास्य के पात्र हैं। एक बात और विचार करने योग्य है कि चार्वाक की मूल विचारधारा क्या थी उसका कोई भी ग्रन्थ अब उपलब्ध नहीं है। अन्य ग्रंथों में जहाँ-जहाँ उनकी विचारधारा का धर्मसम्मत खंडन किया गया है, केवल उन्ही से हमें उनके मत के विषय में पता चलता है।

जो कुछ भी हो, आज आधुनिक काल में सामान्यतः हर व्यक्ति कही ना कहीं चार्वाक की भांति ही जीवन जीना चाहता है। कलियुग में मनुष्यों का पतन होने पर इनके मत को मानने वालों की संख्या बहुत बढ़ी। आज भी ऐसे असंख्य लोग हैं जो हैं तो आस्तिक किन्तु यदि उन्हें अनुसरण करना हो तो वे चार्वाक के भोग विलास की ही पद्धति को चुनेंगे। इसी कारण आधुनिक काल में चार्वाकों को दो भागों में वर्गीकृत किया गया है -
  1. विचारवान चार्वाक: ये ऐसे लोग हैं जिनका वास्तव में चार्वाक सिद्धांन्त पर विश्वास है। वे भोग विलास में इसीलिए लिप्त रहते हैं क्यूंकि वे वास्तव में विश्वास करते हैं कि जीवन का लक्ष्य केवल यही है। हालाँकि इनकी सोच धर्म विरूद्ध ही है किन्तु फिर भी ये इनकी अपनी सोच होती है। 
  2. धूर्त चार्वाक: आधुनिक युग में इनकी संख्या बेतहाशा बढ़ी है। ये ऐसे व्यक्ति होते हैं जो बाहर से तो ऐसे दिखाते हैं कि वे आस्तिक और धर्म में आस्था रखने वाले होते हैं किन्तु इनका रहन सहन और जीवनशैली चार्वाकों की भांति ही होता है। अर्थात भले ही ये कुछ पूजा पाठ कर लें किन्तु वास्तव में इनके लिए केवल सुख का ही महत्व है। इनके लिए दिखावा ही सब कुछ होता है और उसके लिए ये अनावश्यक ऋण लेने से भी नहीं चूकते चाहे उससे इनपर या इनके परिवार पर संकट ही क्यों ना आ जाये। यदि आप अपने आस-पास देखेंगे तो धूर्त चार्वाकों की ही बहुयात पाएंगे। 
तो एक बार फिर से कहना चाहूंगा कि विचारवान चार्वाक के सन्दर्भ में यहाँ सही और गलत की बात नहीं बल्कि अपनी अपनी विचारधारा की बात है। हिन्दू धर्म में सदैव से इस बात का समर्थन किया गया है कि हरेक मनुष्य को अपने मार्ग से ईश्वर को प्राप्त करने का अधिकार है। कदाचित चार्वाक के लिए सुख ही वो ईश्वर है जिन्हे वे सदैव प्राप्त करने का प्रयत्न करते हैं।

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