कुंती

कुंती
ये पंचकन्या श्रृंखला का चौथा लेख है। इससे पहले मंदोदरी, अहिल्या एवं तारा पर लेख प्रकाशित हो चुके हैं। इस लेख में हम चौथी पंचकन्या कुंती के बारे में जानेंगे। यदुकुल में एक प्रतापी राजा हुए शूरसेन। उनकी पत्नी का नाम था मरिषा जो नाग कुल की थी। शूरसेन के एक फुफेरे भाई थे कुन्तिभोज जो कुंती प्रदेश के स्वामी थे। वे निःसंतान थे इसी कारण शूरसेन ने ये प्रतिज्ञा की कि अपनी पहली संतान को वो कुन्तिभोज को प्रदान करेंगे। शूरसेन की पहली संतान एक पुत्री हुए जिनका नाम था "पृथा"। प्रण के अनुसार शूरसेन ने पृथा को कुन्तिभोज को दे दिया। इस प्रकार पृथा कुन्तिभोज की दत्तक पुत्री कहलाई और आगे चल कर उन्ही के नाम पर उनका नाम "कुंती" पड़ा।

पृथा के बाद शूरसेन के १४ पुत्र हुए जिनमे से ज्येष्ठ थे वसुदेव। इन्ही वसुदेव के पुत्र के रूप में श्रीकृष्ण अवतरित हुए और उन्ही के नाम पर वासुदेव कहलाये। इस प्रकार कुंती श्रीकृष्ण की बुआ थी। पृथा को गोद लेने के बाद कुन्तिभोज को एक पुत्र भी प्राप्त हुआ जिसका नाम "विशारद" रखा गया। तो इस प्रकार पृथा कुन्तिभोज के लिए बहुत ही शुभ संयोग लेकर आयी। कुन्तिभोज ने भी सदैव पृथा को अपनी पुत्री ही समझा और उसमें और विशारद में लेश मात्र का भी अंतर नहीं किया। महाभारत युद्ध में विशारद ने अपनी बहन का साथ दिया और पांडवों की ओर से लड़े। युद्ध के ८वें दिन उनकी मृत्यु दुर्योधन के हाथों हो गयी।

बाल्यकाल से ही कुंती के मन में साधु महात्माओं का बड़ा सम्मान था। एक बार अत्रि पुत्र महर्षि दुर्वासा कुन्तिभोज के राज्य में पधारे और कुछ काल तक वही रुके। उस समय कुंती ने महर्षि दुर्वासा की बड़ी सेवा की। उसकी सेवा से प्रसन्न होकर महर्षि दुर्वासा ने उनसे कोई वरदान मांगने को कहा। तब कुंती ने उनसे कहा कि वो उसे कोई ऐसा वरदान दें जो उसके भविष्य में काम आये। महर्षि दुर्वासा तो त्रिकालदर्शी थे, वे जानते थे कि भविष्य में कुंती के पति संतानोत्पत्ति में सक्षम नहीं होंगे। इसी कारण उन्होंने कुंती को अथर्ववेद का एक परम गोपनीय मन्त्र प्रदान किया जिससे प्रभाव से वो किसी भी देवता का आह्वान कर उनसे पुत्र प्राप्त कर सकती थी।

कुछ समय के बाद एक दिन कुंती भगवान सूर्यनारायण को अर्ध्य दे रही थी। तभी उसके मन में ये विचार आया कि उस मन्त्र की परीक्षा करके देखते हैं कि वो वास्तव में कार्य भी करता है अथवा नहीं। यही सोच कर उन्होंने मन्त्र पढ़ कर सूर्यदेव का आह्वान किया। मन्त्र के प्रभाव से तत्काल सूर्यदेव कुंती के समक्ष प्रकट हुए और उसे पुत्र प्रदान करने को उद्धत हुए। 

अब कुंती बहुत घबराई क्यूंकि वो कुँवारी थी और उसका विवाह नहीं हुआ था। उन्होंने सूर्यदेव से कहा कि उसने केवल मन्त्र की परीक्षा के लिए उनका आह्वान किया है किन्तु सूर्यदेव महर्षि दुर्वासा के वरदान को फलीभूत किये बिना नहीं जा सकते थे। तब उन्होंने कुंती का भय कम करने के लिए उसे वरदान दिया कि उनसे पुत्र प्राप्त करने के बाद भी उसके कौमार्य में कोई अंतर नहीं पड़ेगा और वो सदैव चिरकुमारी ही रहेगी।

तब कुंती ने सूर्यदेव की कृपा से गर्भधारण किया। सूर्यदेव ने उसे ये भी आशीर्वाद दिया कि वो बालक असाधारण होगा और तीनो लोकों में ख्याति प्राप्त करेगा। गर्भ धारण करने के पश्चात कुंती बहुत भयभीत हो गयी और एकांतवास के बहाने वो अपनी एक प्रिय दासी के साथ एक अन्य महल में जाकर रहने लगी। समय आने पर वहीं उन्होंने एक अद्वितीय पुत्र को जन्म दिया जो दिव्य कवच एवं कुण्डलों के साथ ही जन्मा। पुत्र के जन्म लेते ही सूर्यदेव के वरदान के कारण कुंती पुनः कन्या बन गयी। 

किन्तु अब समस्या और गंभीर हो गयी कि इस बालक का क्या किया जाये। कुंती का विवाह नहीं हुआ था इसी कारण लोक-लाज के भय से बहुत कष्टपूर्वक कुंती ने अपने पुत्र को त्यागने का निश्चय किया। उन्होंने उस बालक को एक संदूक में बंद कर अश्व नदी में बहा दिया और सूर्यदेव से प्रार्थना की कि वो उसकी रक्षा करें। वो बालक बहते-बहते हस्तिनापुर के निकट पहुँचा जहाँ पर राज सारथि अधिरथ ने उसे देखा और अपने घर ले गए। अधिरथ और उनकी पत्नी राधा संतानहीन थे इसीलिए उन्होंने उस बालक को अपने पुत्र की भांति पाला। उस बालक के सुन्दर कान और दिव्य कर्णकुंडल देख कर उन्होंने उसका नाम "कर्ण" रखा।

उधर कुन्तिभोज ने कुंती का स्वयंवर करवाया जहाँ देश भर के राजा महाराजा पधारे। कुंती असाधारण सुंदरी थी इसी कारण सभी उसे पाना चाहते थे किन्तु कुंती ने उस स्वयंवर में हस्तिनापुर नरेश पाण्डु का वरण किया। विवाह के पश्चात हस्तिनापुर पहुँचते ही पाण्डु को सीमाओं की रक्षा हेतु जाना पड़ा और वहीं उन्होंने मद्रराज शल्य की बहन माद्री से भी विवाह किया। वापस आने के बाद तात भीष्म के परामर्श पर पाण्डु अपनी दोनों पत्नियों के साथ एकांतवास को वन चले गए। उस वन में भूलवश पाण्डु के हाथों एक हिरण के जोड़े के रूप में मैथुन कर रहे किंदम ऋषि और उनकी पत्नी की हत्या हो गयी। प्राण त्यागने से पहले किंदम ऋषि ने पाण्डु को श्राप दे दिया कि जब भी वो किसी स्त्री से संसर्ग करेगा उसकी मृत्यु हो जाएगी।

पाण्डु अत्यंत क्षोभ के साथ हस्तिनापुर वापस लौटे और राज्य अपने बड़े भाई धृतराष्ट्र को सौंप कर अपनी दोनों पत्नियों के साथ वनवासी हो गए। वन में उन्हें केवल इसी बात की चिंता रहती थी कि उनका वंश उनके साथ ही समाप्त हो जाएगा। उन्हें चिंतित देख कर कुंती ने उन्हें महर्षि दुर्वासा द्वारा दिए गए मन्त्र के बारे में बताया। तब प्रसन्न हो पाण्डु ने उन्हें धर्मराज से पुत्र प्राप्त करने की आज्ञा दी। 

तब धर्मराज के अंश से युधिष्ठिर पाण्डु और कुंती के पहले पुत्र के रूप में जन्मे। तत्पश्चात पाण्डु की आज्ञा से कुंती ने पवनदेव से भीम एवं देवराज इंद्र से अर्जुन को प्राप्त किया। किन्तु इस पर भी पाण्डु का मन ना भरा और उन्होंने कुंती से चौथे पुत्र की कामना की। तब कुंती ने कहा कि इस प्रकार बार-बार उस मन्त्र का दुरूपयोग करना महर्षि दुर्वासा के वरदान का अपमान होगा। ये सुनकर पाण्डु भी संतुष्ट हो गए। किन्तु माद्री निःसंतान होने के कारण बहुत दुखी रहने लगी। तब कुंती ने माद्री को उस मन्त्र की दीक्षा दी जिससे माद्री ने अश्विनीकुमारों, नासत्य से नकुल एवं दसरा से सहदेव को पुत्र रूप में प्राप्त किया।

जब युधिष्ठिर ५ वर्ष के हुए तो एक दिन वन में माद्री के साथ विहार करते हुए पाण्डु के मन में दैवयोग से कामभाव जागा। जैसे ही उन्होंने माद्री के साथ संसर्ग किया, ऋषि किंदम के श्राप के कारण वे तत्काल मृत्यु को प्राप्त हुए। पाण्डु की मृत्यु के पश्चात कुंती उनके साथ सती होने को उद्धत हुई किन्तु पश्चाताप की आग में जल रही माद्री ने स्वयं सती होने का निर्णय लिया। उन्होंने ये भी कहा कि वे उनके समान बिना भेद भाव के पांचों पुत्रों को नहीं पाल सकती इसी कारण कुंती का जीवित रहना अधिक आवश्यक है। इस प्रकार सभी पुत्रों को कुंती को सौंप कर माद्री अपने पति के साथ सती हो गयी। कुंती ने जीवन में कभी भी अपने पुत्रों और माद्री के पुत्रों में कोई अंतर नहीं किया। इसके उलट उन्हें माद्रीपुत्र सहदेव ही सबसे अधिक प्रिय थे।

पाण्डु की मृत्यु के पश्चात ऋषियों ने भीष्म को इसकी सूचना दी और तब भीष्म ने पाण्डु का अंतिम संस्कार कर कुंती एवं पांडवों को हस्तिनापुर बुलवा लिया। हालाँकि तब तक हस्तिनापुर में शकुनि ने अपनी पैठ बहुत गहरी कर ली थी। वो लगातार दुर्योधन को पांडवों के विरुद्ध भड़कता था जिस कारण दुर्योधन में बहुत कम आयु में ही भीम की हत्या करने का प्रयास भी किया। कुंती सब कुछ सहती हुई किसी प्रकार अपने पुत्रों का पालन करती रही। समय आने पर धृतराष्ट्र ने युधिष्ठिर को युवराज बनाया। दुर्योधन से ये सहन नहीं हुआ और उसने शकुनि के परामर्श पर कुंती एवं पांडवों को लाक्षागृह में जला कर मार डालने की योजना बनाई।

वारणावत में एक लाक्षागृह बनाया गया जहाँ कुंती अपने पुत्रों के साथ गयी। एक वर्ष तक वहाँ रहते हुए उन्हें ये पता चल गया कि ये एक लाक्षागृह है। महात्मा विदुर की सहायता से कुंती और पांचों पांडव उस लाक्षागृह से निकलने में सफल हुए किन्तु जनमानस में ये बात फ़ैल गयी कि कुंती अपने सभी पुत्रों से काल को प्राप्त हो गयी। लाक्षागृह से बच कर वे लोग कुछ समय के एकचक्रा नगरी में एक ब्राह्मण के यहाँ ठहरे। उस नगरी में बकासुर नामक एक राक्षस रहता था जो हर हफ्ते एक मनुष्य को खा जाता था। संयोग से एक दिन उसी ब्राह्मण की बारी आयी जिस कारण वे सभी विलाप करने लगे। तब उस अवसर पर कुंती ने अपने अतिथि धर्म का मान रखा और ब्राह्मण के स्थान पर भीम को उस राक्षस का भोजन बना कर भेजा। भीम ने बकासुर का वध कर दिया और वापस लौट आये।

कुछ समय के पश्चात वे पांचाल पहुँचे जहाँ पर भीम का युद्ध हिडिम्ब नामक राक्षस से हुआ। उस युद्ध में हिडिम्ब तो मारा गया किन्तु उसकी बहन हिडिम्बा अकेली रह गयी। वो भीम पर आसक्त थे और तब एक नारी का मान रखने के लिए कुंती ने अपने क्षत्रिय पुत्र को एक राक्षसी से विवाह करने की आज्ञा दी। आगे चल कर भीम और हिडिम्बा का एक पुत्र हुआ घटोत्कच। उसी समय पांचाल नरेश द्रुपद अपनी पुत्री द्रौपदी का स्वयंवर कर रहे थे। पांचों भाई उस स्वयंवर में गए और सबके असफल हो जाने के बाद अंततः अर्जुन ने स्वयंवर की प्रतियोगिता जीत कर द्रौपदी से विवाह किया।

कुंती का एक नियम था कि जो कुछ भी भिक्षा पांडव लाते थे वो उनमे बराबर बाँट देती थी। जब अर्जुन द्रौपदी से विवाह कर लौटे तो उन्होंने ठिठोली में द्वार के बाहर से ही कुंती से कहा कि वो एक अच्छी भिक्षा लाये हैं। तब कुंती ने बिना देखे ही उसे पांचों को बाँट लेने को कहा। सभी ये सुनकर सकते में आ गए। उनका एक परिहास द्रौपदी के जीवन का श्राप बन गया। जब कुंती ने देखा कि उसके पुत्रों ने द्रौपदी को भिक्षा कहा है तो वे बहुत दुखी हुई। आज तक उनके मुख से कभी असत्य वचन नहीं निकला था और ना ही ऐसा कभी हुआ था कि उन्होंने जो आज्ञा दी हो वो पांडवों ने ना मानी हो। वे लोग बड़े धर्म संकट में पड़ गए। तब श्रीकृष्ण और महर्षि वेदव्यास ने वहाँ आकर द्रौपदी को पाँचों पांडवों से विवाह करने को मनाया।

जब हस्तिनापुर और इंद्रप्रस्थ का विभाजन हुआ तो कुंती अपने पुत्रों के साथ ही गयी। जल्द ही दुर्योधन ने द्युत में इंद्रप्रस्थ को जीत लिया और पांडवों को १२ वर्ष का वनवास एवं १ वर्ष का अज्ञातवास मिला। अपनी वृद्धावस्था के कारण कुंती हस्तिनापुर में ही रुकी और पांडव द्रौपदी के साथ वन को चले गए। अपना वनवास समाप्त करने के बाद दुर्योधन के हठ के कारण युद्ध की ठन गयी। उस समय पांडवों ने कुंती को अपने साथ चलने को कहा किन्तु वे हस्तिनापुर में ही रुकी। हालाँकि उन्होंने अपने पुत्रों से कहा कि वे किसी भी स्थिति में द्रोपदी के अपमान का बदला लें।

जब हस्तिनापुर में सभी राजकुमारों ने अपना शक्ति प्रदर्शन किया था तब कर्ण ने उस रंगभूमि में अर्जुन को ललकारा। कर्ण के कवच और कुण्डल देख कर कुंती उसे पहचान गयी किन्तु वो किसी से कुछ कह ना पायी और दुःख से मूर्छित हो गयी। कर्ण उनका पुत्र है ये रहस्य उन्होंने युद्ध तक नहीं खोला। युद्ध में कर्ण के भाग लेने से पहले वो कर्ण से मिलने आयी और उसे पांडवों की ओर युद्ध करने को प्रेरित किया। कर्ण ऐसा नहीं कर सका किन्तु उसने कुंती को वचन दिया कि वो अर्जुन को छोड़ कर शेष पांडवों का वध नहीं करेगा। इस प्रकार कुंती अंतिम बार कर्ण से मिल कर लौट आयी। जब युद्ध में कर्ण की मृत्यु हुई तो कुंती विलाप करने लगी और तब जाकर पांडवों को इस रहस्य का पता चला। तब युधिष्ठिर ने क्रोध में आकर समस्त नारी जाति को ये श्राप दे दिया कि वो किसी भी बात को रहस्य नहीं रख सकेगी।

युद्ध के समाप्त होने पर पांडवों ने हस्तिनापुर और इंद्रप्रस्थ जीत लिया। महाभारत युद्ध के पश्चात ३६ वर्षों तक युधिष्ठिर ने हस्तिनापुर पर शासन किया। युद्ध के १५ वर्ष के बाद धृतराष्ट्र और गांधारी ने वानप्रस्थ लेने का निर्णय लिया। तब अपने पुत्रों का मोह ना करते हुए कुंती ने भी उनके साथ जाने का निर्णय लिया ताकि वन में वे दोनों की सेवा कर सके। संजय भी उन तीनों के साथ वन में गए। वन में तीन वर्ष तक रहने के पश्चात एक दिन धृतराष्ट्र जंगल की आग में फस गए। गांधारी ने उनका अनुसरण किया और कुंती और संजय को वहाँ से जाने को कहा किन्तु कुंती ने अंतिम क्षण तक दोनों का साथ नहीं छोड़ा और उसी दावानल में धृतराष्ट्र और गांधारी के साथ भस्म हो गयी।

संजय अत्यंत दुखी हो हिमालय चले गए जहाँ तपस्या करते हुए उन्होंने अपने प्राण त्यागे। तब देवर्षि नारद ने युधिष्ठिर को धृतराष्ट्र, गांधारी और कुंती के अवसान की सूचना दी जिसे सुनकर वे अत्यंत दुखी हुए और उन्होंने उस वन जाकर तीनों का तर्पण किया। कुंती का जीवन एक आदर्श जीवन है। सदैव संघर्ष करने के पश्चात भी उन्होंने कभी अपना आत्मबल नहीं खोया। उनके सामान कर्मठ स्त्री का उदाहरण हमारे धर्म में बहुत कम ही देखने को मिलता है। पंचकन्या के रूप में वे सदैव प्रातः स्मरणीय हैं। 

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