विकर्ण

विकर्ण
विकर्ण कुरु सम्राट धृतराष्ट्र एवं गांधारी का १९वां पुत्र था (१०० कौरवों का नाम जानने के लिए यहाँ जाएँ)। महाभारत में दुर्योधन और दुःशासन के अतिरिक्त केवल विकर्ण ही है जिसकी प्रसिद्धि अधिक है। अन्य कौरवों के बारे में लोग अधिक नहीं जानते हैं। वैसे तो युयत्सु भी धृतराष्ट्र का एक प्रसिद्ध पुत्र है किन्तु दासी पुत्र होने के कारण उसे वो सम्मान नहीं मिला जिसका वो अधिकारी था। हालाँकि कौरवों में केवल युयुत्सु ही ऐसा था जो महाभारत के युद्ध के बाद जीवित बच गया था। कौरवों में विकर्ण ही ऐसा था जो अपने सच्चरित्र के कारण प्रसिद्ध हुआ।

महर्षि व्यास की कृपा से गांधारी द्वारा प्रसव किये गए मांस पिंड से अन्य कौरवों की भांति विकर्ण का भी जन्म हुआ। कहते हैं सभी कौरव बचपन में सच्चरित्र ही थे किन्तु दुर्योधन और दुःशासन की संगति के कारण वे सभी उनके समान ही अधर्मी हो गए। लेकिन उनमें से केवल विकर्ण ऐसा था जिसने अपने चरित्र और विचार को कभी गिरने नहीं दिया। महाभारत में बचपन में विकर्ण द्वारा दुर्योधन को भीम से द्वेष ना रखने की सलाह देने का भी वर्णन मिलता है। इसके अतिरिक्त भी विकर्ण दुर्योधन को उपयुक्त सुझाव देता रहता था।

दुर्योधन भले ही अहंकारी था किन्तु अपने भाइयों से बहुत प्रेम करता था। दुर्योधन द्वारा उसके किसी भी भाई के प्रति किसी भी प्रकार के द्वेष का वर्णन महाभारत में नहीं मिलता। वो चाहे अपने भाइयों की बातों पर अमल ना करता हो किन्तु उनके सुझावों को महत्त्व अवश्य दिया करता था। कौरवों में से केवल विकर्ण ही ऐसा था जिसने बार-बार दुर्योधन को पांडवों के साथ संधि कर लेने का परामर्श दिया था। हालाँकि उसकी इस बात को किसी ने भी महत्त्व नहीं दिया। द्रौपदी स्वयंवर में भी विकर्ण दुर्योधन के साथ उपस्थित था।

अन्य कौरवों के साथ विकर्ण की शिक्षा भी पहले कृपाचार्य और फिर बाद में गुरु द्रोणाचार्य द्वारा संपन्न हुई। वैसे तो विकर्ण कई प्रकार के अस्त्र-शस्त्र के सञ्चालन में निपुण था किन्तु उसकी कुशलता धनुर्विद्या में अधिक थी। कर्ण और अर्जुन जैसे धनुर्धर के होते हुए विकर्ण को कभी एक महान धनुर्धारी के रूप में प्रसिद्धि नहीं मिली किन्तु महाभारत में इस बात का कई स्थानों पर वर्णन है कि विकर्ण भी अद्भुत धनुर्धारी था। स्वयं द्रोणाचार्य भी विकर्ण की धनुर्विद्या के बड़े प्रशंसक थे। महाभारत युद्ध से पहले कौरव और पांडव पक्ष के योद्धाओं का वर्णन करते हुए पितामह भीष्म ने विकर्ण को रथी की श्रेणी में रखा था और उसकी गिनती कौरवों के प्रमुख योद्धाओं में की थी।

जब द्यूत में पराजित होने के बाद पांडवों को दास बना कर उनका अपमान किया गया उस समय तो विकर्ण ने कुछ नहीं कहा किन्तु जब दुर्योधन ने भरी सभा में द्रौपदी के वस्त्रहरण का आदेश दिया तो ये देख कर कि उस सभा में कोई अन्य उस अन्याय का विरोध नहीं कर रहा, विकर्ण ने मुखर रूप से उस कृत्य का विरोध किया था। उस सभा में महात्मा विदुर के अतिरिक्त केवल विकर्ण ही था जिसने द्रौपदी के चीरहरण का खुले रूप में विरोध किया था। ऐसा वर्णन है कि विकर्ण द्वारा इस प्रकार विरोध करने पर दुर्योधन इतना क्रोधित हुआ कि वो विकर्ण की हत्या करने के लिए उठ गया। हालाँकि बाद में कर्ण ने उसे ऐसा करने से रोक दिया।

चीरहरण का विरोध करते हुए विकर्ण ने एक ऐसा तर्क भी दिया जिससे दुर्योधन समेत समस्त कौरव निरुत्तर हो गए थे। विकर्ण ने कहा - "हे भ्राताश्री! महाराज युधिष्ठिर ने भले ही भाभीश्री द्रौपदी को दाँव पर लगा दिया हो किन्तु केवल वे ही उनके पति नहीं हैं। अन्य पांडव भाई भी द्रौपदी के पति हैं और उनका भी उनपर उतना ही अधिकार है जितना भ्राता युधिष्ठिर का। इसीलिए बिना अपने भाइयों की सहमति लिए अपनी पत्नी को दाँव पर लगाने का भ्राता युधिष्ठिर को कोई अधिकार ही नहीं था। अतः चौसर का ये दाँव अमान्य घोषित होना चाहिए।" विकर्ण के ऐसा कहने पर दुर्योधन निरुत्तर हो गया किन्तु कर्ण अदि के विभिन्न तर्क सुनकर और अभिमान के वश में आकर उसने अपने छोटे भाई की बात नहीं सुनी।

महाभारत युद्ध में भी विकर्ण की महत्वपूर्ण भूमिका रही। भीष्म, द्रोण, विदुर इत्यादि की भांति ही विकर्ण ने भी इस युद्ध को टालने के कई प्रयास किये किन्तु उसका हर प्रयास अंततः व्यर्थ ही गया। ये जानते हुए भी कि वो अधर्म के पक्ष में है और कौरवों की पराजय निश्चित है, उसने दुर्योधन का साथ नहीं छोड़ा और उसके पक्ष में युद्ध करने का निश्चय किया। यहाँ पर हमें विकर्ण में उसी प्रकार की भातृभक्ति दिखाई देती है जैसा राक्षसराज रावण के प्रति उसके छोटे भाई कुम्भकर्ण की थी। कुम्भकर्ण ने भी रावण के द्वारा किये गए कार्य के लिए उसकी भर्स्तना की थी किन्तु अंत तक उसका साथ नहीं छोड़ा। वही दूसरी और युयुत्सु की तुलना विभीषण से की जा सकती है जिसने धर्म के लिए अपने भाई का साथ छोड़ दिया।

युद्ध के चौथे दिन विकर्ण ने अभिमन्यु को रोकने का प्रयास किया और दोनों में घोर युद्ध हुआ। उस युद्ध में विकर्ण ने कई बार अभिमन्यु का रथ पीछे हटा दिया था किन्तु अंततः उसे अभिमन्यु के हांथों पराजय मिली। युद्ध के पाँचवे दिन विकर्ण ने महिष्मति की सेना द्वारा बनाया गया सुरक्षा कवच अकेले ही तोड़ने का प्रयत्न किया किन्तु भीम के वहाँ आ जाने के कारण वो सफल नहीं हो पाया। युद्ध के सातवें दिन उसने अपने कई भाइयों को भीम के कोप से बचाया। युद्ध के दसवें दिन उसने अकेले ही अर्जुन और शिखंडी के रथ को भीष्म की ओर जाने से रोक दिया किन्तु फिर महाराज द्रुपद ने उसे द्वन्द के लिए ललकारा जिससे अर्जुन को आगे बढ़ने का मौका मिल गया।

महाभारत युद्ध में विकर्ण ने पांडव सेना के प्रमुख योद्धाओं चित्रयुद्ध और चित्रयोधिन का वध कर पांडव सेना को अशक्त किया। उनके अतिरिक्त भी उसने युद्ध में पांडव सेना के कई योद्धाओं का वध किया। पांडव सेना के प्रमुख योद्धाओं में विशेष रूप से उसका युद्ध नकुल, सहदेव और घटोत्कच के साथ हुआ जिसमे उसने असाधारण वीरता का परिचय दिया। युद्ध के तेरहवें दिन जब कई महारथियों ने अभिमन्यु का वध किया तब वो मूक ही रहा किन्तु अभिमन्यु वध में उसकी कोई सक्रिय भूमिका नहीं थी।

युद्ध के चौदहवें दिन जब भीम अत्यंत क्रोध में आकर दुःशासन को खोज रहे थे तब दुर्योधन ने विकर्ण को भीम को रोकने के लिए भेजा। जब विकर्ण भीम के समक्ष आये तब उन दोनों के बीच जो संवाद हुआ वो बड़ा भावुक कर देने वाला है। दुःशासन को खोज रहे भीम ने जब विकर्ण को अपने समक्ष आते हुए देखा तब उन्होंने कहा "हे अनुज! तुम आज मुझसे युद्ध ना करो क्यूंकि मैं तुम्हारा वध नहीं करना चाहता। मैं भूला नहीं हूँ कि किस प्रकार केवल तुमने पांचाली के वस्त्रहरण का विरोध किया था। आज यदि तुम मुझसे युद्ध करोगे तो अवश्य मेरे हाथों तुम्हारा वध हो जाएगा। अतः तुम जाकर किसी अन्य योद्धा से युद्ध करो।"

भीम को इस प्रकर बोलते देख कर विकर्ण बोले - "हे भ्राताश्री! मुझे पता है कि मैं आपको पराजित नहीं कर सकता और आपसे युद्ध करने पर मेरी मृत्यु निश्चित हैं किन्तु फिर भी मैं अपने भ्राता के लिए आपसे अवश्य युद्ध करूँगा। मैंने द्यूतसभा में भाभीश्री के वस्त्रहरण का विरोध किया था क्यूंकि उस समय वही मेरा धर्म था और आज इस रणभूमि में आपको रोक रहा हूँ क्यूंकि अब यही मेरा धर्म है।" विकर्ण का ये वक्तव्य उसके उज्जवल चरित्र और दृढ निश्चय को प्रदर्शित करता है।

तत्पश्चात विकर्ण ने भीम से युद्ध किया और उनके हाथों वीरगति को प्राप्त हुआ। विकर्ण की मृत्यु के बाद भीम के रुदन करने का भी वर्णन महाभारत में है। विकर्ण का मृत शरीर देख कर भीम रोते हुए कहते हैं - "हे अनुज! जैसे कीचड़ में कमल खिलता है उसी प्रकार तुम सभी कौरवों में सबसे उत्तम चरित्र वाले थे। पितामह की भांति तुम्हे भी धर्म का ज्ञान था। आज तुम्हारा वध करके मुझे ऐसा लग रहा है जैसे मैंने किसी पांडव को खो दिया है। तुम जैसे भाई के प्राणों की रक्षा के लिए अगर मुझे अपनी प्रतिज्ञा भी तोड़नी पड़ती तो मुझे उसका कोई खेद नहीं होता।"

विकर्ण की मृत्यु पर द्रौपदी को भी बड़ा दुःख हुआ था क्यूंकि चीरहरण के समय केवल विकर्ण ही था जो उसके पक्ष में खड़ा था। भले ही महाभारत में विकर्ण का चरित्र उतनी मुखरता से नहीं बताया गया हो किन्तु इतिहास में उसका नाम सदैव एकमात्र सच्चरित्र और धर्म का ज्ञान रखने वाले कौरव के रूप में अमर रहेगा।

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