महर्षि जाजलि

जाजलि पौराणिक युग के एक महान ऋषि थे। एक बार उन्होंने कठिन तपस्या करने की ठानी। वे एक वन पहुँचे जो जँगली जानवरों से भरा हुआ था। उसी वन में उन्होंने एक जगह अन्न-जल त्याग कर तपस्या प्रारम्भ की। वे तपस्या में ऐसे लीन हुए कि स्तंभित से हो गए। यहाँ तक कि उन्होंने अपनी प्राण-वायु को भी नियंत्रित कर रोक लिया और अविचल भाव से खड़े तपस्या करते रहे। बहुत समय बीत गया और उनकी लम्बी जटाओं ने उनके शरीर को घेर लिया। आस पास की लताएँ भी उनके चारो ओर लिपट गयीं। उनको एक वृक्ष समझ कर कई पक्षियों ने उनके ऊपर अपना घोंसला बना लिया।

समय बीतता गया और पक्षियों ने कई अंडे दिए जिससे अन्य पक्षियों का जन्म हुआ। महर्षि जाजलि का शरीर एक वृक्ष की भांति बन गया जिसपर कई जीव-जंतुओं ने अपना ठिकाना बना लिया। बहुत काल के बाद जब उनकी तपस्या भंग हुई तो अपनी वो दशा देख कर स्वयं उन्हें भी अपनी इस कठिन तपस्या पर आश्चर्य हुआ। साथ ही साथ उन्हें इस बात का अभिमान भी हो गया कि उनके जैसी कठिन तपस्या कोई और नहीं कर सकता। उसी अभिमानवश उन्होंने आकाश की ओर देखकर कहा "आज मैंने धर्म को पा लिया।" 

ईश्वर ने जब देखा कि उनका अनन्य भक्त अभिमान के वश में आ गया है तो उन्होंने उसे सही मार्ग पर लाने की ठानी। उसी समय एक आकाशवाणी हुई - "हे जाजलि! तुमने धर्म को जान लिया है ऐसा सोच कर व्यर्थ अभिमान ना करो। धर्म में तुम काशी के तुलाधार की तुलना नहीं कर सकते। अगर धर्म का वास्तविक ज्ञान चाहते हो तो काशी जाकर तुलाधार से मिलो।" जाजलि ने जब ऐसा सुना तो उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ और वे तुलाधार से मिलने काशी की ओर निकल पड़े।

काशी पहुँच कर वे तुलाधार के पास पहुँचे जो अपनी दुकान पर ग्राहकों को सौदे दे रहा था। देखने में वो एक सामान्य मनुष्य लगता था पर उसके चेहरे पर असाधारण तेज था। जाजलि उसे देख कर आश्चर्य में पड़ गए कि सारा दिन ग्राहकों को सामान बेचने वाला तुलाधार किस प्रकार उनसे अधिक धर्म को समझ सकता है? ये सब सोचते हुए वे तुलाधार की दुकान के अंदर पहुँचे। 

उन्हें देखते ही तुलाधार अपने स्थान से उठा और उनकी अभ्यर्थना करते हुए उन्हें आसन दिया। जलपान के बाद उसने मृदु स्वर में कहा - "आज तो मेरे भाग्य उदय हो गए कि वो महर्षि जाजलि के दर्शन हुए जिन्होंने इतनी घोर तपस्या कि उनके शरीर पर पक्षियों ने अपना घोसला भी बना लिया और उन्हें पता नहीं चला। ना जाने कितने जीव-जंतुओं को उन्होंने आश्रय दिया।"

तुलाधार को इस प्रकार बोलते देख जाजलि आश्चर्यचकित हो गए। उन्होंने उससे पूछा कि "आप मुझे किस प्रकार जानते हैं।" इसपर तुलाधार ने कहा - "हे महर्षि! मैं सब जनता हूँ। अपनी कठोर तपस्या के गर्व में आकर अपने धर्म को जानने की बात की और आकाशवाणी होने पर मुझसे मिलने यहाँ आये।" अब तक जाजलि को भी पता चल गया कि तुलाधार कोई साधारण व्यक्ति नहीं है। उन्होंने कहा - "हे महात्मा! आकाशवाणी की बात सत्य थी। आप अवश्य मुझे धर्म का वास्तविक रहस्य समझा सकते हैं। आपसे प्रार्थना है कि मुझे ये ज्ञान देकर कृतार्थ करें।"

तब तुलाधार ने हाथ जोड़ते हुए कहा "ये क्या कह दिया आपने? मैं तो एक साधारण मनुष्य हूँ। मैं किस प्रकार आप जैसे महाज्ञानी महात्मा को कोई ज्ञान दे सकता हूँ? पर आप मुझसे मिलने इतनी दूर आये हैं तो सुनिए। धर्म-अधर्म क्या है ये मुझे नहीं पता। मैं तो बस वो व्यव्हार की बात बताता हूँ जिसका मैं अनुसरण करता हूँ। ये कोई गूढ़ रहस्य तो नहीं है। 

किसी भी प्राणी से मोह ना करके जीविका चलना ही श्रेष्ठ माना गया है। मैं उसी धर्म के अनुसार जीवन निर्वाह करता हूँ। काठ और घाँस-फूस से मैंने अपना ये घर बनाया है। छोटी बड़ी सभी चीजें तो बेचता हूँ पर मदिरा नहीं बेचता। सब चीजें मैं दूसरों के यहाँ से खरीद कर लाता हूँ, स्वयं नहीं बनाता। सामान बेचने में किसी भी प्रकार के छल-कपट का सहारा नहीं लेता। सामान बेचने में मैं केवल उतना लाभ ही लेता हूँ जिससे मेरा और मेरे परिवार का भरण-पोषण हो सके। अपने ग्राहकों से कभी मैं मूल्य माँगता नहीं हूँ और जो भी वे दे देते हैं उसी में संतुष्ट रहता हूँ। 

मैं ना किसी से अनुराग रखता हूँ, ना द्वेष, ना मैत्री, ना विरोध। सम्पूर्ण प्राणियों के लिए मेरे मन में एक सा भाव है। यही मेरा व्रत है। मेरा तराजू सबके लिए समान तौलता है। मैं किसी की निंदा अथवा स्तुति नहीं करता। क्षणभंगुर विषयों की इच्छा नहीं करता। अहिंसा को सबसे बड़ा कर्तव्य मानता हूँ। किसी को देखकर कोई कार्य नहीं करता। जो मेरी प्रशंसा करते हैं और जो मुझे बुरा-भला कहते हैं, दोनों मेरे लिए समान हैं। मुझे कोई प्रिय अथवा अप्रिय नहीं है। मैं एक झोपडी में भी उतने ही सुख से रह सकता हूँ जितने कि किसी महल में। मेरे लिए मिट्टी और स्वर्ण में कोई अंतर नहीं है। धर्म का रहस्य तो अत्यंत सूक्ष्म है, किसी के लिए कुछ और धर्म है तो किसी के लिए कुछ और। मेरा धर्म तो यही है किन्तु आपका मुझे ज्ञात नहीं।"

तुलाधार को इस प्रकार कहते सुन महर्षि जाजलि उसके सामने नतमस्तक हो गए। उन्होंने अश्रुपूरित स्वर में कहा - "आज आपने मेरी आँखें खोल दी। यही तो धर्म का वास्तविक रहस्य है। इस लोक में समदर्शी होना ही सबसे बड़ा धर्म है।"

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