भगवान शिव और जालंधर का युद्ध

बहुत काल पहले एक बार भगवान शिव की देवी पार्वती के साथ रमण करने की इच्छा हुई। उस समय माता पार्वती अनुष्ठान पर बैठी थी इस कारण उन्होंने महादेव से क्षमा मांगते हुए अपनी असमर्थता जाहिर की। महादेव ने उनका मान रखा और अपने तेज को समुद्र में फेंक दिया। महादेव के तेज को समुद्र संभाल नहीं पाया और तब उससे परम तेजस्वी दैत्य जालंधर की उत्पत्ति हुई।

दैत्यों की दशा उस समय बड़ी दयनीय थी। देवों के भय से दैत्य पातळ में जा छुपे थे। इस महान दैत्य को जन्मा देख कर दैत्यगुरु शुक्राचार्य ने ये निश्चय किया कि ये शिव का अंश ही दैत्यों का उद्धार करेगा। उन्होंने उसे समस्त विद्या का दान दिया और समय आने पर दैत्यों का सम्राट बना दिया। उसने कठिन तपस्या कर ब्रह्मदेव को प्रसन्न किया और उन्होंने उसे आशीर्वाद दिया कि जब तक उसकी पत्नी का सतीत्व अक्षय रहेगा तब तक उसे कोई और नहीं मार सकेगा। इसके पश्चात अपने गुरु शुक्राचार्य की आज्ञा से उसने कालनेमि की कन्या वृंदा से विवाह किया जिसके रूप और गुण की चर्चा पूरे विश्व में थी। वृंदा महान सती और नारायण की परम भक्त थी।

इससे उदण्ड होकर जालंधर ने पूरी पृथ्वी और स्वर्ग पर अधिकार कर लिया। फिर बैकुंठ पर विजय प्राप्त करने पहुँचा। वहाँ उसने देवी लक्ष्मी को देखा और उनके रूप पर मोहित हो गया। जब देवी लक्ष्मी को ये पता चला तो उन्होंने जालंधर से कहा "हे वीर! मेरे लिए तुम्हारे मन में जो भाव आये हैं वो सर्वथा अनुचित हैं। तुम्हारी ही तरह मैं भी समुद्र से उत्त्पन हुई हूँ इसी कारण मैं तुम्हारी बड़ी बहन के समान हूँ। अतः अपने कलुषित विचार को अपने मन से निकल दो।" ये सुनकर जालन्धर को बड़ा क्षोभ हुआ। उसने देवी लक्ष्मी को अपनी बहन स्वीकार किया और उनका आशीर्वाद लेकर वहाँ से चला गया। 

बैकुंठ से निकलने पर वो कैलाश को विजित करने पहुँचा। वहाँ उसकी दृष्टि देवी पार्वती पर पड़ी और वो सुध-बुध खो बैठा। उसने भगवान शिव के समक्ष ही देवी पार्वती से प्रणय निवेदन किया जिसपर माता पार्वती ने उसे खूब खरी-खोटी सुनाई। महादेव ने हँसते हुए कहा कि "हे मुर्ख! कदाचित तुझे ये ज्ञान नहीं है कि तू मेरे ही तेज से जन्मा है इसी कारण जिससे तू प्रणय याचना कर रहा है वो तेरी माता के समान है। ये दुस्साहस तूने अज्ञानता में किया है इसी कारण मैं तुझे क्षमा करता हूँ। यहाँ से तत्काल चला जा अन्यथा इसी क्षण तेरे जीवन का अंत हो जाएगा।" 

भगवान शिव का तेज देखकर जालंधर उस समय तो वहाँ से चला गया किन्तु कुछ समय बाद जब शिव कैलाश पर उपस्थित नहीं थे, तब वो महादेव का रूप बना कर पुनः देवी पार्वती के पास आया। जगतमाता को क्या कोई ठग सकता है? उन्होंने तत्काल उसे पहचान लिया और धिक्कारते हुए कहा "पापी! उस दिन मेरे स्वामी ने तुझे अपना पुत्र मान कर छोड़ दिया था किन्तु तू जीवित रहने के योग्य नहीं है।"

ऐसा कहते हुए देवी ने महादेव का ध्यान किया। महादेव तक्षण वहाँ पहुँचे और क्रोध में जालंधर के वध को उद्धत हुए। उन दोनों का युद्ध देखने के लिए नारायण एवं ब्रह्मदेव के साथ सभी देवता कैलाश में उपस्थित हुए। सभी प्रसन्न थे कि आज उन्हें जालंधर के अत्याचारों से मुक्ति मिल जाएगी। जब दोनों का युद्ध शुरू हुआ तो देवता ये देख कर हैरान रह गए कि भगवान महारुद्र केवल जालंधर का प्रहार रोक रहे हैं किन्तु उसपर कोई प्रहार नहीं कर रहे। तब माता पार्वती ने भगवान शिव से पूछा कि "हे स्वामी! आप इस दानव के वध में इतना समय क्यों लगा रहे हैं?" 

तब महादेव ने मुस्कुराते हुए कहा "हे देवी! इस वीर को स्वयं ब्रह्मदेव का वरदान प्राप्त है कि जब तक इसकी पत्नी का सतीत्व सुरक्षित है तब तक इसका वध असंभव है। अगर मैं इसपर प्रहार करता हूँ तो ये तक्षण मृत्यु को प्राप्त हो जाएगा और ब्रह्मदेव का वचन निष्फल हो जाएगा।" ऐसा कहकर महादेव ने भगवान विष्णु का ध्यान किया और उनसे कोई उपाय करने को कहा। 

भगवान शिव का संकेत मिलते ही नारायण जालंधर का वेश बना कर वृंदा के पास पहुँचे। अपने पति को सामने देख कर वृंदा दौड़ कर उनसे उनके समक्ष आयी और उनसे अपने पति के समान व्यहवार करने लगी। भगवान विष्णु का स्पर्श होते ही वृंदा का सतीत्व भंग हो गया। तब महारुद्र ने युद्ध में अपने त्रिशूल के एक ही प्रहार से जालंधर का शिरोच्छेद कर दिया। उसका कटा सर सीधा वृंदा के सामने जाकर गिरा। उसे देख कर वृंदा समझ गयी कि उसके साथ छल हुआ है।

तब उसने क्रोध में आकर जालंधर रुपी नारायण से उनका परिचय पूछा और तब भगवान विष्णु अपने वास्तविक स्वरुप में आ गए। तब वृंदा ने रोते हुए कहा "हे नारायण! मैंने जीवन भर आपकी भक्ति की और आपने अपने भक्त के साथ ही छल किया।" इतना कहते हुए वृंदा भगवान विष्णु को श्राप देने को उद्धत हुई। तब देवी लक्ष्मी ने वहाँ आकर उसके पति के निष्कृष्ट कर्मों के बारे में बताया और ऐसा ना करने को कहा। इसपर वृंदा ने नारायण को सीधा श्राप तो नहीं दिया किन्तु उनके एक रूप को शिला बन जाने का श्राप दे स्वयं अपने आप को भस्म कर लिया।

उसके भस्म से एक पौधे की उत्पत्ति हुई जिसे नारायण ने "तुलसी" की उपमा दी और फिर अपने एक रूप से स्वयं शालिग्राम के रूप में प्रकट हुए। उन्होंने कहा कि "हे सती वृंदा! तुम्हारा सतीत्व धन्य है। आज से मैं शालिग्राम के रूप में तुम्हे अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार करता हूँ और मेरे इस रूप पर केवल तुलसी का ही अधिकर होगा और किसी अन्य का नहीं।" तब से आजतक भगवान नारायण के शालिग्राम रूप के साथ तुलसी का विवाह होता है।

पंजाब का शहर "जलंधर" दैत्यराज जालंधर के नाम पर ही पड़ा है और वहाँ वृंदा माता का एक मंदिर भी है। आज भी सत्यनारायण की कथा में भगवान विष्णु के शालिग्राम स्वरुप की ही पूजा होती है और उन्हें तुलसी अर्पित की जाती है। तुलसी का पौधा पीपल और वटवृक्ष के साथ हिन्दू धर्म का सबसे पवित्र पौधा माना जाता है। विश्व में सबसे अधिक वास्तविक शालिग्राम नेपाल के गण्डकी नदी में पाया जाता है। आज भी जब इस इस नदी के जल के ऊपर तुलसी के पत्ते रखे जाते हैं तो शालिग्राम स्वयमेव ही जल के ऊपर आ जाता है। ये एक ऐसा रहस्य है जिससे विज्ञान भी आजतक समझ नहीं पाया है। 

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