पञ्चाङ्ग

हिंदू या सनातन धर्म विविधता से परिपूर्ण है या ये कहना अनुचित नहीं होगा कि हिंदू धर्म वास्तव में एक जीवन पद्धति है। हिन्दू धर्म और वैदिक ज्योतिष में व्रत, पर्व, त्यौहार, पञ्चांग और मुहूर्त का विशेष महत्व है जिसके बिना हिन्दू धर्म में किसी उत्सव की कल्पना नहीं की जा सकती है। होली, दिवाली से लेकर हिंदू धर्म में कई शुभ तिथियों और त्यौहारों का बड़ा महत्व है और इन सबों का आधार पंचांग ही है। पंचांग को ही हिन्दू कैलेंडर कहते हैं।

हिन्दू पञ्चांग हिन्दू समाज द्वारा माने जाने वाला कैलेंडर है और इसके भिन्न-भिन्न रूप में यह लगभग पूरे भारत में माना जाता है। पञ्चांग या शाब्दिक अर्थ है पंच+अंग यानि पाँच अंग, यही हिन्दू काल-गणना की रीति से निर्मित पारम्परिक कैलेण्डर या कालदर्शक को कहते हैं। हिंदू कलैंडर यानि पञ्चांग में भी १२ महीने होते हैं। प्रत्येक महीने में १५ दिन के दो पक्ष होते हैं: शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष

प्रत्येक साल में दो अयन होते हैं और इन दो अयनों की राशियों में २७ नक्षत्र भ्रमण करते रहते हैं। १२ मास का एक वर्ष और ७ दिन का एक सप्ताह रखने का प्रचलन विक्रम संवत से शुरू हुआ। महीने का हिसाब सूर्य व चंद्रमा की गति पर रखा जाता है और यह १२ राशियां बारह सौर मास हैं। जिस दिन सूर्य जिस राशि में प्रवेश करता है उसी दिन की संक्रांति होती है। पूर्णिमा के दिन चंद्रमा जिस नक्षत्र में होता है उसी आधार पर महीनों का नामकरण हुआ है। चंद्र वर्ष, सौर वर्ष से ११ दिन, ३ घड़ी और ४८ पल छोटा है। इसीलिए हर ३ वर्ष में इसमे एक महीना जोड़ दिया जाता है जिसे अधिक मास, मल मास या पुरुषोत्तम महीना कहते हैं।

प्रत्येक महीने में तीस दिन होते हैं और महीने को चंद्रमा की कलाओं के घटने और बढ़ने के आधार पर शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष विभाजित करते हैं। एक दिन को तिथि कहा जाता है जो पञ्चांग के आधार पर १९ घंटे से लेकर २४ घंटे तक होती है। दिन को चौबीस घंटों के साथ-साथ ८ प्रहरों में भी बांटा गया है। एक प्रहर करीब तीन घंटे का होता है। एक घंटे में लगभग दो घड़ी होती हैं, एक पल लगभग आधा मिनट के बराबर होता है और एक पल में चौबीस क्षण होते हैं। प्रहर के अनुसार देखा जाए तो ४ प्रहर का दिन और ४ प्रहर की रात होती है। पञ्चांग नाम इसके पांच प्रमुख भागों से बने होने के कारण है, जो इस प्रकार हैं: 
  1. तिथि: चन्द्रमा की एक कला को तिथि कहते हैं। चन्द्र और सूर्य के अन्तरांशों के मान १२ अंशों का होने से एक तिथि होती है। जब अन्तर १८० अंशों का होता है उस समय को पूर्णिमा कहते हैं और जब यह अन्तर ० या ३६० अंशों का होता है उस समय को अमावस कहते हैं। एक मास में लगभग ३० तिथि होती हैं। १५ कृष्ण पक्ष की और १५ शुक्ल पक्ष की। इनके नाम इस प्रकार होते हैं: 
    1. प्रतिपदा
    2. द्वितीया
    3. तृतीया
    4. चतुर्थी
    5. पंचमी
    6. षष्ठी
    7. सप्तमी
    8. अष्टमी
    9. नवमी
    10. दशमी
    11. एकादशी
    12. द्वादशी
    13. त्रयोदशी
    14. चतुर्दशी
    15. पूर्णिमा (शुक्ल पक्ष) अमावस्या (कृष्ण पक्ष)
  2. वार: एक सूर्योदय से दूसरे दिन के सूर्योदय तक की कालावधि को वार कहते हैं। वार ७ होते हैं जो सात ग्रहों के नामों पर रखे गए हैं: 
    1. रविवार (सूर्य)
    2. सोमवार (चंद्र)
    3. मंगलवार (मंगल)
    4. बुधवार (बुध)
    5. गुरुवार (बृहस्पति)
    6. शुक्रवार (शुक्र)
    7. शनिवार (शनि)
  3. नक्षत्र: ताराओं के समूह को नक्षत्र कहते हैं। प्रत्येक नक्षत्र के ४ चरण होते हैं और ९ चरणों के मिलने से एक राशि बनती है। नक्षत्र २७ होते है जिन्हे पुराणों में प्रजापति दक्ष की पुत्रियाँ माना गया है जिनका विवाह चंद्र के साथ हुआ था जिनके नाम इस प्रकार हैं: 
    1. अश्विनी
    2. भरणी
    3. कृत्तिका
    4. रोहिणी (चंद्र अपनी पत्नी रोहिणी को सर्वाधिक प्रेम करते थे जिससे अन्य पत्नियाँ दुखी थी। इसी कारण दक्ष ने चंद्र को अपनी कांति खोने का श्राप दिया था तथा बाद में चंद्र ने भगवान शिव की तपस्या कर अपनी कांति वापस पायी थी। यही कारण है कि चंद्र की कांति प्रति पक्ष घटती तथा बढ़ती है।)
    5. मृगशिरा
    6. आद्रा 
    7. पुनर्वसु
    8. पुष्य
    9. अश्लेषा
    10. मघा
    11. पूर्वाफाल्गुनी
    12. उत्तराफाल्गुनी
    13. हस्त
    14. चित्रा
    15. स्वाती
    16. विशाखा
    17. अनुराधा
    18. ज्येष्ठा
    19. मूल
    20. पूर्वाषाढ
    21. उतराषाढ
    22. श्रवण
    23. घनिष्ठाप
    24. शतभिषा
    25. पूर्वाभद्रपद
    26. उत्तराभाद्रपद
    27. रेवती
  4. योग: सूर्य चन्द्रमा के संयोग से योग बनता है। ये भी २७ होते हैं: 
    1. विष्कुम्भ
    2. प्रीति
    3. आयुष्मान
    4. सौभाग्य
    5. शोभन
    6. अतिगण्ड
    7. सुकर्मा
    8. घृति
    9. शूल
    10. गण्ड
    11. वृद्धि
    12. ध्रुव 
    13. व्याघात
    14. हर्षल
    15. वङ्का
    16. सिद्धि
    17. व्यतीपात
    18. वरीयान
    19. परिधि
    20. शिव
    21. सिद्ध
    22. साध्य
    23. शुभ
    24. शुक्ल
    25. ब्रह्म
    26. ऐन्द्र
    27. वैघृति
  5. करण: तिथि के आधे भाग को करण कहते हैं यानि एक तिथि में दो करण होते हैं। कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी (१४) के उत्तरार्ध में शकुनि, अमावस्या के पूर्वार्ध में चतुष्पाद, अमावस्या के उत्तरार्ध में नाग और शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा के पूर्वार्ध में किस्तुघ्न करण होता है। विष्टि करण को भद्रा कहते हैं जिसमे शुभ कार्य वर्जित माने गए हैं। इनके नाम इस प्रकार हैं: 
    1. बव
    2. बालव 
    3. कौलव
    4. तैतिल
    5. गर
    6. वणिज्य
    7. विष्टि (भद्रा)
    8. शकुनि
    9. चतुष्पाद
    10. नाग
    11. किंस्तुघन
इस गणना के आधार पर हिंदू पञ्चांग की तीन धारायें हैं:
  1. चंद्र आधारित: चंद्रमा की कला की घट-बढ़ वाले दो पक्षों (कृष्ण और शुक्ल) का जो एक मास होता है वही चंद्रमास कहलाता है। यह दो प्रकार का शुक्ल प्रतिपदा से प्रारंभ होकर अमावस्या को पूर्ण होने वाला 'अमांत' मास मुख्य चंद्रमास है तथा कृष्णा प्रतिपदा से 'पूर्णिमांत' पूरा होने वाला गौण चंद्रमास है। यह तिथि की घट-बढ़ के अनुसार २९, ३० व २८ एवं २७ दिनों का भी होता है। पूर्णिमा के दिन, चंद्रमा जिस नक्षत्र में होता है उसी आधार पर महीनों का नामकरण हुआ है। सौर-वर्ष से ११ दिन, ३ घटी, ४८ पल छोटा होने के कारण हर ३ वर्ष में इसमें १ महीना जोड़ दिया जाता है। सौरमास ३६५ दिन का और चंद्रमास ३५५ दिन का होने से प्रतिवर्ष १० दिन का अंतर आ जाता है। इन दस दिनों को चंद्रमास ही माना जाता है, फिर भी ऐसे बड़े हुए दिनों को 'मलमास' या 'अधिमास' कहते हैं। १२ मासों के नाम आकाशमण्डल के नक्षत्रों में से १२ नक्षत्रों के नामों पर रखे गये हैं। जिस मास जो नक्षत्र आकाश में प्रायः रात्रि के आरम्भ से अन्त तक दिखाई देता है या कह सकते हैं कि जिस मास की पूर्णमासी को चन्द्रमा जिस नक्षत्र में होता है, उसी के नाम पर उस मास का नाम रखा गया है। नीचे चंद्रमास के नाम तथा उससे सम्बंधित नक्षत्रों का वर्णन दिया गया है: 
    1. चैत्र (चित्रा, स्वाति)
    2. वैशाख (विशाखा, अनुराधा)
    3. ज्येष्ठ (ज्येष्ठा, मूल)
    4. आषाढ़ (पूर्वाषाढ़, उत्तराषाढ़)
    5. श्रावण (श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा)
    6. भाद्रपद (पूर्वभाद्र, उत्तरभाद्र)
    7. आश्विन (रेवती, अश्विन, भरणी)
    8. कार्तिक (कृतिका, रोहणी)
    9. मार्गशीर्ष (मृगशिरा, आर्द्रा)
    10. पौष (पुनवर्सु, पुष्य)
    11. माघ (अश्लेशा, मघा)
    12. फाल्गुन (पूर्व फाल्गुन, उत्तर फाल्गुन, हस्त)
  2. नक्षत्र आधारित: आकाश में स्थित तारा-समूह को नक्षत्र कहते हैं। साधारणतः यह चंद्रमा के पथ से जुडे हैं। ऋग्वेद में एक स्थान पर सूर्य को भी नक्षत्र कहा गया है। अन्य नक्षत्रों में सप्तर्षि और अगस्त्य हैं। नक्षत्र से ज्योतिषीय गणना करना वेदांग ज्योतिष का अंग है। नक्षत्र हमारे आकाश मंडल के मील के पत्थरों की तरह हैं जिससे आकाश की व्यापकता का पता चलता है। वैसे नक्षत्र तो ८८ हैं किंतु चंद्र पथ पर २७ ही माने गए हैं जिनका विवरण ऊपर दिया गया है। चंद्रमा अश्विनी से लेकर रेवती तक के नक्षत्र में विचरण करता है जिसे नक्षत्रमास कहते है जो लगभग २७ दिनों का होता है। नक्षत्रों के गृह स्वामी हैं: 
    1. केतु: अश्विन, मघा, मूल
    2. शुक्र: भरणी, पूर्वाफाल्गुनी, पूर्वाषाढ़
    3. सूर्य: कार्तिक, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़
    4. चंद्र: रोहिणी, हस्त, श्रवण
    5. मंगल: मॄगशिरा, चित्रा, श्रविष्ठा
    6. राहु: आद्रा, स्वाति, शतभिषा
    7. बृहस्पति: पुनर्वसु, विशाखा, पूर्वभाद्रपदा
    8. शनि: पुष्य, अनुराधा, उत्तरभाद्रपदा
    9. बुध: अश्लेशा, ज्येष्ठा, रेवती
  3. सूर्य आधारित: सौरमास का आरम्भ सूर्य की संक्रांति से होता है तथा सूर्य की एक संक्रांति से दूसरी संक्रांति का समय सौरमास कहलाता है। यह मास प्राय: ३० या ३१ दिन का होता है और फागुन (फरवरी) महीने में २८ और २९ दिन का होता है। मूलत: सौरमास (सौर-वर्ष) ३६५ दिन का होता है। १२ राशियों को बारह सौरमास माना जाता है तथा जिस दिन सूर्य जिस राशि में प्रवेश करता है उसी दिन की संक्रांति होती है। इस राशि प्रवेश से ही सौरमास का नया महीना ‍शुरू माना गया है। सूर्य के धनुसंक्रमण से मकरसंक्रमण तक मकर राशि में रहता है जिसे इसे धनुर्मास कहते है। इस माह का धार्मिक जगत में विशेष महत्व है। सौर-वर्ष के दो भाग हैं: उत्तरायण: जब सूर्य उत्तर ध्रुव की ओर होता है तब हिंदू धर्म अनुसार यह तीर्थ यात्रा व उत्सवों का समय होता है। पुराणों अनुसार अश्विन, कार्तिक मास में तीर्थ का महत्व बताया गया है। उत्तरायण के समय पौष-माघ मास चल रहा होता है। मकर संक्रांति के दिन सूर्य उत्तरायण होता है जबकि सूर्य धनु से मकर राशि में प्रवेश करता है। महाभारत में पितामह भीष्म ने शरीर का त्याग करने के लिए उत्तरायण को ही चुना था। दक्षिणायन: सूर्य कर्क राशि में प्रवेश करता है तब सूर्य दक्षिणायन होता है। दक्षिणायन व्रतों का और उपवास का समय होता है जबकि चंद्रमास अनुसार अषाढ़ या श्रावण मास चल रहा होता है। व्रत से रोग और शोक मिटते हैं। दक्षिणायन में विवाह और उपनयन आदि संस्कार वर्जित है। सौरमास के नाम हैं: 
    1. मेष
    2. वृषभ
    3. मिथुन
    4. कर्क
    5. सिंह
    6. कन्या
    7. तुला
    8. वृश्चि्क
    9. धनु
    10. मकर
    11. कुंभ
    12. मीन
मूल लेख के लिए आभार: श्री पंकज पीयूष (निदेशक, क्रिएटिव क्लासेस, मधुपुर, झारखण्ड)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

कृपया टिपण्णी में कोई स्पैम लिंक ना डालें एवं भाषा की मर्यादा बनाये रखें।