महाकुंभ

हम सभी जानते हैं कि वर्तमान में हरिद्वार में कुंभ पर्व मनाया जा रहा है।सत्य सनातन धर्म में कुंभ पर्व बहुत ही महत्वपूर्ण पर्व है। पुराणों के अनुसार हिमालय के उत्तर में क्षीरसागर है, जहां देवासुरों ने मिलकर समुद्र मंथन किया था। मंथन दंड था- मंदर पर्वत, रज्जु था वासुकि तथा स्वयं विष्णु ने कूर्म रूप में मंदर को पीठ पर धारण किया था। समुद्र मंथन के समय क्रमश: पुष्पक रथ, ऐरावत, परिजात पुष्प, कौस्तुभ, सुरभि, अंत में अमृत कुंभ को लेकर स्वयं धन्वंतरि प्रकट हुए थे।

ज्योतिष शास्त्र एक विज्ञान है, और एक प्रमाणिक विज्ञान है क्योंकि हमारे मनीषियों ने हजारों साल पहले पृथ्वी पर रहते हुए ही आकाशगंगा के अनगिनत ग्रहों के बारे में, उनकी चाल के बारे में, उनके प्रभाव के बारे में प्रमाणिक वर्णन कर दिया था और यह आज भी उतना ही प्रासंगिक है। इसी के अनुसार ही कुंभ मेले का आयोजन भी किया जाता रहा है और आगे भी किया जाता रहेगा।

कुम्भ मेला विश्व में होने वाला सबसे बड़ा मेला है। विशेषकर प्रयाग में होने वाले महाकुम्भ में प्रत्येक दिन २ करोड़ से भी अधिक लोग गंगास्नान करते है। ऐसा उदाहरण विश्व में कोई दूसरा नहीं है। कहा जाता है कि प्रयाग में होने वाले कुम्भ मेले को चन्द्रमा से भी देखा जा सकता है। हमारे पुराणों में जो भी वर्णित है, वह पूर्ण प्रमाणिक है एवं ब्रह्म के समान है क्योंकि शब्द अपने आप में ही ब्रह्म कहे गए हैं। इसी के बारे में कुछ जानकारी प्रस्तुत है:
  • वैसे तो कुंभ मेले का आयोजन प्राचीन काल से हो रहा है, लेकिन मेले का प्रथम लिखित प्रमाण महान बौद्ध तीर्थयात्री ह्वेनसांग के लेख से मिलता है जिसमें छठवीं शताब्दी में सम्राट हर्षवर्धन के शासन में होने वाले कुंभ का प्रसंगवश वर्णन किया गया है।
  • कुंभ मेले का आयोजन चार जगहों पर होता है - हरिद्वार, प्रयाग, नासिक और उज्जैन
  • उक्त चार स्थानों पर प्रत्येक तीन वर्ष के अंतराल में कुंभ का आयोजन होता है, इसीलिए किसी एक स्थान पर प्रत्येक १२ वर्ष बाद ही कुंभ का आयोजन होता है। जैसे उज्जैन में कुंभ का अयोजन हो रहा है, तो उसके बाद अब तीन वर्ष बाद हरिद्वार, फिर अगले तीन वर्ष बाद प्रयाग और फिर अगले तीन वर्ष बाद नासिक में कुंभ का आयोजन होगा। उसके तीन वर्ष बाद फिर से उज्जैन में कुंभ का आयोजन होगा। उज्जैन के कुंभ को सिंहस्थ कहा जाता है।
  • कुंभ क्या है? - कलश को कुंभ कहा जाता है। कुंभ का अर्थ होता है घड़ा। इस पर्व का संबंध समुद्र मंथन के दौरान अंत में निकले अमृत कलश से जुड़ा है। देवता-असुर जब अमृत कलश को एक दूसरे से छीन रह थे तब उसकी कुछ बूंदें धरती की तीन नदियों में गिरी थीं। जहां जब ये बूंदें गिरी थी उस स्थान पर तब कुंभ का आयोजन होता है। उन तीन नदियों के नाम है - गंगा, गोदावरी और क्षिप्रा।
  • अर्धकुंभ क्या है? - अर्ध का अर्थ है आधा। हरिद्वार और प्रयाग में दो कुंभ पर्वों के बीच छह वर्ष के अंतराल में अर्धकुंभ का आयोजन होता है। पौराणिक ग्रंथों में भी कुंभ एवं अर्ध कुंभ के आयोजन को लेकर ज्योतिषीय विश्लेषण उपलब्ध है। कुंभ पर्व हर 3 साल के अंतराल पर हरिद्वार से शुरू होता है। हरिद्वार के बाद कुंभ पर्व प्रयाग नासिक और उज्जैन में मनाया जाता है। प्रयाग और हरिद्वार में मनाए जानें वाले कुंभ पर्व में एवं प्रयाग और नासिक में मनाए जाने वाले कुंभ पर्व के बीच में 3 सालों का अंतर होता है। यहां माघ मेला संगम पर आयोजित एक वार्षिक समारोह है।
  • सिंहस्थ क्या है? - सिंहस्थ का संबंध सिंह राशि से है। सिंह राशि में बृहस्पति एवं मेष राशि में सूर्य का प्रवेश होने पर उज्जैन में कुंभ का आयोजन होता है। इसके अलावा सिंह राशि में बृहस्पति के प्रवेश होने पर कुंभ पर्व का आयोजन गोदावरी के तट पर नासिक में होता है। इसे महाकुंभ भी कहते हैं, क्योंकि यह योग १२ वर्ष बाद ही आता है। इस कुंभ के कारण ही यह धारणा प्रचलित हो गई की कुंभ मेले का आयोजन प्रत्येक १२ वर्ष में होता है, जबकि यह सही नहीं है।
  • हरिद्वार में कुंभ - हरिद्वार का सम्बन्ध मेष राशि से है। कुंभ राशि में बृहस्पति का प्रवेश होने पर एवं मेष राशि में सूर्य का प्रवेश होने पर कुंभ का पर्व हरिद्वार में आयोजित किया जाता है। हरिद्वार और प्रयाग में दो कुंभ पर्वों के बीच छह वर्ष के अंतराल में अर्धकुंभ का भी आयोजन होता है।
  • प्रयाग में कुंभ - प्रयाग कुंभ का विशेष महत्व इसलिए है क्योंकि यह १२ वर्षो के बाद गंगा, यमुना एवं सरस्वती के संगम पर आयोजित किया जाता है। ज्योतिषशास्त्रियों के अनुसार जब बृहस्पति कुंभ राशि में और सूर्य मेष राशि में प्रवेश करता है तब कुंभ मेले का आयोजन प्रयाग में किया जाता है। अन्य मान्यता अनुसार मेष राशि के चक्र में बृहस्पति एवं सूर्य और चन्द्र के मकर राशि में प्रवेश करने पर अमावस्या के दिन कुंभ का पर्व प्रयाग में आयोजित किया जाता है। एक अन्य गणना के अनुसार मकर राशि में सूर्य का एवं वृष राशि में बृहस्पति का प्रवेश होनें पर कुंभ पर्व प्रयाग में आयोजित होता है।
  • नासिक में कुम्भ - १२ वर्षों में एक बार सिंहस्थ कुंभ मेला नासिक एवं त्रयम्बकेश्वर में आयोजित होता है। सिंह राशि में बृहस्पति के प्रवेश होने पर कुकुंभ पर्व गोदावरी के तट पर नासिक में होता है। अमावस्या के दिन बृहस्पति, सूर्य एवं चन्द्र के कर्क राशि में प्रवेश होने पर भी कुंभ पर्व गोदावरी तट पर आयोजित होता है।
  • उज्जैन में कुंभ - सिंह राशि में बृहस्पति एवं मेष राशि में सूर्य का प्रवेश होने पर यह पर्व उज्जैन में होता है। इसके अलावा कार्तिक अमावस्या के दिन सूर्य और चन्द्र के साथ होने पर एवं बृहस्पति के तुला राशि में प्रवेश होने पर मोक्षदायक कुंभ उज्जैन में आयोजित होता है।
  • कुंभ की कथा - अमृत पर अधिकार को लेकर देवता और दानवों के बीच लगातार बारह दिन तक युद्ध हुआ था। जो मनुष्यों के बारह वर्ष के समान हैं। अतएव कुंभ भी बारह होते हैं। उनमें से चार कुंभ पृथ्वी पर होते हैं और आठ कुंभ देवलोक में होते हैं। समुद्र मंथन की कथा में कहा गया है कि कुंभ पर्व का सीधा सम्बन्ध तारों से है। अमृत कलश को स्वर्गलोक तक ले जाने में जयंत को १२ दिन लगे। देवों का एक दिन मनुष्यों के १ वर्ष के बराबर है। इसीलिए तारों के क्रम के अनुसार हर १२वें वर्ष कुंभ पर्व विभिन्न तीर्थ स्थानों पर आयोजित किया जाता है। युद्ध के दौरान सूर्य, चंद्र और शनि आदि देवताओं ने कलश की रक्षा की थी, अतः उस समय की वर्तमान राशियों पर रक्षा करने वाले चंद्र-सूर्यादिक ग्रह जब आते हैं, तब कुंभ का योग होता है और चारों पवित्र स्थलों पर प्रत्येक तीन वर्ष के अंतराल पर क्रमानुसार कुंभ मेले का आयोजन किया जाता है। अर्थात अमृत की बूंदे छलकने के समय जिन राशियों में सूर्य, चंद्रमा, बृहस्पति की स्थिति के विशिष्ट योग के अवसर रहते हैं, वहां कुंभ पर्व का इन राशियों में गृहों के संयोग पर आयोजन होता है। इस अमृत कलश की रक्षा में सूर्य, गुरु और चन्द्रमा के विशेष प्रयत्न रहे थे। इसी कारण इन्हीं गृहों की उन विशिष्ट स्थितियों में कुंभ पर्व मनाने की परम्परा है।
  • अमृत की ये बूंदें चार जगह गिरी थी - गंगा नदी (प्रयाग एवं हरिद्वार), गोदावरी नदी (नासिक), क्षिप्रा नदी (उज्जैन)। सभी नदियों का संबंध गंगा से है। गोदावरी को गोमती गंगा के नाम से पुकारते हैं। क्षिप्रा नदी को भी उत्तरी गंगा के नाम से जानते हैं। यहां पर गंगा गंगेश्वर की आराधना की जाती है। ब्रह्म पुराण एवं स्कंध पुराण के दो श्लोकों के माध्यम इसे समझा जा सकता है:
विन्ध्यस्य दक्षिणे गंगा गौतमी सा निगद्यते उत्त्रे सापि विन्ध्यस्य भगीरत्यभिधीयते।
एव मुक्त्वाद गता गंगा कलया वन संस्थिता गंगेश्वेरं तु यः पश्येत स्नात्वा शिप्राम्भासि प्रिये।।

धन्वन्तरि ने कुंभ को इंद्र को दिया था। इंद्र ने उसे अपने पुत्र जयंत को सौंपा। देवताओं की सलाह पर जयंत उस कुंभ को लेकर स्वर्ग की ओर दौड़ा। यह देखकर दैत्याचार्य ने क्रोधित होकर दैत्यों को आदेश दिया कि बलपूर्वक उस कुंभ को उससे छीने। देवासुर संग्राम होने लगा। १२ दिनों तक युद्ध करने के बाद देवताओं का दल हार गया। इसी बीच पृथ्‍वी के कई स्थानों पर कुंभ को छिपाया गया था। जिन ४ स्थानों पर कुंभ रखा गया था, उन्हीं स्थानों पर तब से 'कुंभ योग पर्व' मनाया जा रहा है। देवताओं के १२ दिवस नरलोक में १२ वर्ष होते हैं। वहीं वजह है कि प्रति १२ वर्ष के पश्चात कुंभ में स्नान करने के लिए यह महोत्सव होता है। 

देवानां द्वादशाहोभिर्मर्त्यै द्वार्दशवत्सरै:। 
जायन्ते कुंभपर्वाणि तथा द्वादश संख्यया:।। 

अर्थात: सूर्य, चंद्र और बृहस्पति देवासुर संग्राम के समय अमृत कुंभ की रक्षा करते रहे। इन तीनों का संयोग जब विशिष्ट राशि पर होता है, तब कुंभ योग आता है। 

गंगाद्वारे प्रयागे च धारा गोदावरी तटे। 
कलसाख्योहि योगोहयं प्रोच्यते शंकरादिभि:।। 

गंगाद्वार (हरिद्वार), प्रयाग, धारा (उज्जयिनी) एवं गोदावरी (नासिक) - इन सभी स्थानों पर प्रति तीन वर्ष बाद कुंभयोग होता है। लगभग १२ वर्ष बाद १-१ स्थान पर कुंभ महामेला का आयोजन होता है। 

पुराणों एवं वेदों में कुम्भ के महत्त्व में बहुत विस्तार से कहा गया है।

"यदि कोई गंगा, यमुना, और सरस्वती के संगम में है, तो वह स्नान करता है और पानी को अर्पित करता है, तथा वह मुक्ति का आनंद लेता है, और इसमें कोई संदेह नहीं है"। - पद्म पुराण 

"जो लोग माघ के महीने में यमुना के गहरे पानी में वा गंगा के उज्ज्वल जल में स्नान करते हैं, हजारों वर्षों में भी इस प्रकार के जल का पुनर्जन्म नहीं होगा"। - मत्स्य पुराण 

कुंभीवर्थों मा व्यषिष्ठा यज्ञा युवे स्यनतिषिक्त। - (ऋग्वेद-१०/८९/९६) 

"प्लाशिव्व्यक्तः शतधार उत्पन्ते दुहे च कुंभी स्वधा पितृभ्यः" - (ऋग्वेद-१२/३/२३) 

"पूर्णों कुंभोधिकाल अहितस्तं वै, पश्यामो बहुधा नु संनत:" - (शुक्ल यजुर्वेद-१९/८९/८) 

"स इमा विश्वा भुवनानि प्रत्यंग काल समाहु परमे व्योमन चतुरः कुंभा चतुर्णां ददामि" - (अथर्ववेद-१९/५३/३) 

चतुरः कुंभाञ्चतुर्धा पूर्णाउदकेन। दध्या एतास्त्वा धारा उपयन्तु सर्वाः स्वर्गे लोके मधूमतं पिन्वमाना उपत्वा। तिष्ठतु पुण्यकरिणोः समन्ताः।। - (अथर्ववेद-४/३७/७)

पूर्ण नारि प्रभर कुंभमेतं घृतस्य धाराममृतेन संभृताम् इमां पातृनभृतेना समझ्गधीष्टापूर्तमभि रक्षात्येनाम्।। (अथर्ववेद-३/१२/८)

अर्थात: हे स्त्री (नारी अथवा प्रकृति)! आप इस घटको अमृतोपम मधुर रस तथा घृत धारा से भली प्रकार भरें। पीने वालों को अमृत से तृप्त करें । इष्टापूर्त इस शाला को सुरक्षित रखती है। 

इन उल्लेखों से स्पष्ट होता है कि 'कुंभ' जैसे पर्व को मनाने की परंपरा वैदिक काल से ही रही है। शनै:-शनैः इसके माहात्म्य को पौराणिक परंपरा के अनुसार विस्तारपूर्वक निर्धारित तीर्थस्थलों पर मनाया जाने लगा। 

पृथिव्यां कुंभयोगस्य चतुर्धा भेद उच्यते। 
चतुःस्थले च पतनाद् सुधा कुंभस्य भूतले।।
विष्णु दुवारे तीर्थराजेऽवन्त्यां गोदावरी तटे। 
सुधा बिन्दु विनिक्षेपाद् कुंभ पर्वेति विश्रुतम्।।

अर्थात: हरिद्वार, तीर्थराज प्रयाग, उज्जैन और नासिक इन चार प्रमुख स्थलों पर अमृत-कुंभ से छलकी हुई बूँदों के कारण 'कुंभ' जैसे महापर्व को मनाए जाने की परंपरा का उल्लेख मिलता है। 

तस्यात्कुंभात्समुत्कषिप्त सुधाबिन्दुर्महीतले। 
यत्रयत्रात्यतत्तत्र कुंभपर्व प्रकल्पितम्।।

अर्थात: अमृत-कुंभ की रक्षा में संलग्न चंद्रमा ने अमृत को गिरने से बचाया, सूर्य ने घड़े को टूटने से, बृहस्पति ने दैत्यों द्वारा छीनने से और शनि ने कहीं जयंत अकेले ही संपूर्ण अमृत पान न कर ले -इस तरह से उस कुंभ की रक्षा की। 

चन्द्रः प्रसवणाद् रक्षा सूर्योविस्फोटनादधौ। 
दैत्येभ्यश्च गुरु रक्षा सौरि देवेन्द्रजात् भयात्।।

अर्थात: इन्हीं ग्रहों के परस्पर संयोग होने पर कुंभ पर्व का योग भिन्न-भिन्न स्थलों पर हुआ करता है। हरिद्वार में कुंभ राशि का बृहस्पति हो और मेष में सूर्य संक्रांति हो तो यह कुंभ का महापर्व हुआ करता है। शास्त्रीय मान्यताओं के अनुसार, विद्वानों का मत है कि सनत, सनंदन और सनत कुमार जैसे महागणों की मंडली बारह वर्षों के बाद हरिद्वार आदि तीर्थों में पधारा करती है, जिनके दर्शन हेतु साधु, संत, महात्मा और श्रद्धालु सामान्य भक्त जन भी उपस्थित होने लगे। योग साधना करनेवाले योगियों की अवधि भी बारह वर्षों की बताई गई है। इन्हीं वर्षों के फलस्वरूप कुंभ जैसे पर्व का समागम होता है। 

देवानां दुवादशैर्भिमत्त्यै द्वादश वत्सरैः। 
जायन्ते कुंभ पर्वाणि तथा द्वादश संख्यया।।

आध्यात्मिक दृष्टि से कुंभ महापर्व का महत्त्व ज्योतिषशास्त्र के अनुसार अत्यंत विस्तृत है। 

चन्द्रः प्रस्रवणाद् रक्षा सूर्योविस्फोटनादधौ। 
दैत्येभ्यश्च गुरु रक्षा सौरि देवेन्द्रजात् भयात्।। 

प्रत्येक ३ वर्ष में इन चारों में से एक स्थान पर कुंभ का आयोजन होता है - पौराणिक ग्रंथों जैसे नारदीय पुराण (२/६६/४४), शिव पुराण (१/१२/२२-२३) एवं वाराह पुराण (१/७१/४७-४८) और ब्रह्म पुराण आदि में भी कुंभ एवं अर्ध कुंभ के आयोजन को लेकर ज्योतिषीय विश्लेषण उपलब्ध है । प्रत्येक १२ वर्ष बाद ही कुंभ का आयोजन होता है। परन्तु इसका क्रम देख जाए तो प्रत्येक तीन वर्ष में इन चारों में से एक स्थान पर कुंभ का आयोजन होता है।

कुंभ तीर्थ का महत्व 

कुंभ मेला हिंदू तीर्थ यात्रियों का एक बड़ा तीर्थ स्थान है। कुंभ को विश्व के सबसे बड़े तीर्थ आयोजन के रूप में उल्लेखित किया जाता है। 

‘तरति पापादिकं यस्मात्

अर्थात: जिसके द्वारा मनुष्य पापादि से तर (मुक्त) जाए, उसे ‘तीर्थ’ कहते हैं।

‘तीर्थैस्तरन्ति प्रवति महीरिति यज्ञकृतः सुकृतो येन यन्ति।।’
अथर्ववेद

अर्थात: बडे़-बडे़ यज्ञों का अनुष्ठान करनेवाले पुण्यात्माओं को जो स्थान प्राप्त होता है, शुद्ध मन से तीर्थयात्रा करनेवाले को भी वही स्थान प्राप्त होता है 

‘तीर्थाभिगमनं पुण्यं यज्ञैरपि विशिष्यते।।’
महाभारत, वनपर्व

अर्थात: तीर्थयात्रा पुण्यकार्य है, यह सब यज्ञों से बढ़कर है। 

‘तीर्थानां स्मरणं पुण्यं दर्शनं पापनाशनम्।।’
वामन पुराण

अर्थात: तीर्थों का स्मरण पुण्य देनेवाला, तीर्थदर्शन पापों का नाश करनेवाला और तीर्थस्नान मुक्तिकारक है। 

'स्नानं मुक्तिकरं प्रोक्तमपि दुष्कृतकर्मण।।’ 
स्कंद पुराण

अर्थात: मन के अंदर यदि दोष भरा है तो वह तीर्थस्नान से शुद्ध नहीं होता। 

कुंभ के साथ ही अर्धकुंभ का सम्बन्ध जुड़ा हुआ है -

चतुरा: कुंभा चतुर्धा ददामि।
अथर्ववेद- ४/३४/७ 

फलत: प्रयाग, हरिद्वार, नासिक, उज्जैन कुंभ पर्वों की शृंखला में प्रयाग में कुंभ का संयोग माघ माघ में अमावस्या के दिन बनता है। अमावस्या और प्रयाग आदिकाल से एक दूसरे के पूरक है। सूर्य का मकर राशि अर्थात् बेटे के घर में आने का पर्व तीर्थराज प्रयाग की अन्तर्वेदी में ही संभव है। ज्ञान और वैराग्य, प्रकृति एवं पुरुष आत्मा एवं परमात्मा धर्म और अर्थ का समन्वय इसी धरती पर देखा जा सकता है।

महाभारत का यह श्लोक (१३/४,४८) देव-दानव-युद्ध तथा अमृत एवं गंगा जल के सामंजस्य को प्रतिष्ठित करता है। 

यथा सुरानाम अमृतम्, प्रवीणां जलं स्वधा 
सुधा यथा च नागानां तथा गंगा जलं नृणाम्।। 

वेद-पुराणों में अर्ध कुंभ की चर्चा भले ही न हो परन्तु ज्योतिष तो हर घड़ी-पल, तिथि का विश्लेषण करता है। ज्योतिष की दृष्टि से छठा वर्ष तथा गुरु, चन्द्र-सूर्य की गति का महत्व है। ज्योतिष परम्परा के अनुसार कुंभ तभी होगा, जब कुंभ योग बनेगा। प्रयाग, नासिक तथा उज्जैन के कुंभ मेलों का सम्बन्ध ‘कुंभ’ शब्द से नहीं है। केवल हरिद्वार मेले का सम्बन्ध कुंभ से है। पौराणिक परम्परा से स्पष्ट होता है कि कुंभ मेला पवित्र स्थानों पर उसी वर्ष होना चाहिए जब सूर्य चन्द्रमा और बृहस्पति का योग ‘कुंभ’ राशि पर है। फलत: प्रयाग नासिक और उज्जैन में कुंभ योग का सम्बन्ध कुंभ राशि से नहीं है। माघ अमावस्या के दिन संगम जैसे स्थान से ही प्रयाग के कुंभ मेले का अर्थ लगाया जाता है। दो मेलों के बीच हरिद्वार और प्रयाग में अर्धकुंभ मेला लगता है। इसके कुछ शास्त्रीय प्रमाण इस प्रकार प्राप्त होते हैं - 

तदर्धे वर्ष माने च कुंभोध्र्व साद्र्ध पंचकम् 
अर्ध कुंभम् विजानीयात् फलार्ध मोक्ष दायक:।।
शक्ति यामलक तंत्र

वृश्चिक राशि स्थित जीवे मकरे च चन्द्र भास्करौ। 
अमावस्या तदा योगार्ध कुंभाख्य्स तीर्थ नायके।।
पंचाङ्ग दिवाकर सं. २०६३ पृ. ८

हरिद्वार के विषय में मान्यता है कि सूर्य के मेष राशि तथा गुरु के सिंह राशि में होने पर हरिद्वार में पुण्य फलदायी अर्धकुंभ लगता है। कुंभ के पश्चात जब क्षय मास होता है। तब छठे वर्ष तुला के गुरु में अर्धकुंभ होता है। मकर राशि में चन्द्र वृश्चिक राशि में गुरु होने पर तीर्थराज प्रयाग में पुण्यदायी अर्धकुंभ का योग बनता है। 

ततो गच्छेत राजेन्द्र शृंगवेर पुरं महत्। 
यत्र तीर्थों महाराज रामो दाशरथिन पुरा।।
महाभारत, वन पर्व, ६५

जघान वृत्रं स्वाधितिर्वनेव रूरोज पुरो अरदन्न सिन्धून, 
विभेद गिरि नवमित्र कुंभ भागतन्द्रो अकृ णुता स्वयुग्मि:। 
ऋगवेद (१०/८९/१७)

कुंभी वर्थो मा व्यषिष्ठा यज्ञा युवे स्यनतिषिक्त।
ऋग्वेद (१२/२/२३)

कुंभ में कई रहस्य छिपे हैं। इसका अर्थ मंगल घट के रूप में, अकाल और अनावृष्टि को दूर करने वाला तथा जनसम्पर्क का घोतक है। इसे कही भावोद्दीपक तो कहीं यज्ञानुष्ठान का प्रतीक माना गया है। कुंभ का पर्याय वाची शब्द ‘घट’ या कलश होता है। इसे कलशोदधि (घट सिन्धु) के रूप में जाना गया है। गुजराती में गरबा, हिन्दी का करवा शब्द भी इसी से अभिन्न प्रतीत होता है। मनुस्मृति में ‘उद् कुंभ’ का उल्लेख मिलता है। 

ऋग्वेद में लिखा है – ‘वह नये कच्चे कुंभ की भांति मेघ का भेदन कर अपने सहयोगी मित्र मारुती के साथ सुदृष्टि प्रदान करता है। शुक्ल यजुर्वेद में प्रयुक्त कुंभ, कुंभी प्रयोग सन्तानोत्पत्ति के रूपक के रूप में देखा गया है। अथर्वेद में कुंभ शब्द का उल्लेख मिलता है।’ 

इसी वैदिक परम्परा को दक्षिण भारत में कुंभकोरणम् अथवा कुंभ घोणम् कुंभ मेला के रूप में देखा गया है। यह केवल हिन्दुओं का ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण देश के वासियों के वैचारिक मंथन का पर्व है। सम्राट हर्षवर्धन तथा आचार्य शंकर ने शास्त्र चर्चा प्रतिपादक अमृत मंथन का संकेत दिया है। 

कुंभ-अर्धकुंभ और विज्ञान 

हमारी सम्पूर्ण सृष्टि जीवन वर्धक तथा जीवन संहारक दो तत्वों से युक्त है। प्रथम का प्रतीक जीवनदायी, प्राणवायु आक्सीजन तथा दूसरी संहारक तत्वों से युक्त कार्बन डाई आक्साइड। राशि, ग्रह, नक्षत्रों की गति के आधार पर इन दोनों तत्वों की स्थितियां बदलती रहती है। कभी जीवन वर्धक तत्वों की अधिकता होती है तो कभी संहारक तत्वों की संरक्षा अधिक होती है। हमारे मनीषियों ने जिन्हें हम सुपर साइंटिस्ट कह सकते हें। इस रहस्य को भली भांति जान लिया था। बृहस्पति पिण्ड जीवन वर्धक वत्वों का सबसे बड़ा केन्द्र माना गया है। इसीलिए ज्योतिष शास्त्र में इसे जीव शब्द से अभिहित किया गया है। 

आध्यात्मिक रहस्य 

गृहस्थ आश्रम में पंचाग्नि विद्या का महत्व है। वानप्रस्थी सन्यासी अथवा नैतिक ब्रहमचारीगण सांसरिक विषय वासनाओं से रिक्त होकर श्रद्धा एवं निष्ठापूर्वक तप एवं सत्य आदि गुणों का आचरण करते हैं। वे उत्तरायण मार्ग अर्थात् अर्चिमार्ग से सूर्य लोक होते हुए ब्रह्मलोक को जाते हैं। वहां पर अनेक कल्पों तक निवास करने के बाद पुन: उसी मार्ग से वापस लौटकर इन्द्र लोक में जाकर स्थाई रूप से निवास करते हैं। सूर्य तथा इन्द्र लोक में रहकर सदगुरू के उपदेशों और सदभावना से ज्ञान प्राप्त कर मुक्त हो जाते हैं। उनका पुनर्जन्म नहीं होता है। 

किन्तु साधारण मनुष्य जो पंचाग्नि विद्या से अनभिज्ञ है और सदगृहस्थ रहकर ईष्ट एवं ग्राम देवता के सानिध्य में रहते हैं, अग्निहोत्र तथा वैदिक क्रियाओं का अनुष्ठान कराते रहते हैं। अनेक बार जन्म मरण आदि से क्लेश से पीड़ित होते हैं। वे मृत्यु के पश्चात मनुष्यों की उत्तम, माध्यम तथा अधम गतियों का वर्णन हमारे उपनिषदों में वर्णित है। जो मनुष्य पूर्व ही गुरूपदेशों, प्रवचनों आदि द्वारा तत्वज्ञान प्राप्त कर लेते हैं, मृत्यु के समय प्राण वायु के साथ उनकी आत्मा उपयुक्त मार्गों से किसी का भी अनुसरण नहीं करती है, वह सीधे ब्रहमलीन हो जाती है। उपनिषदों में ऐसी गति सर्वोत्तम ज्ञानियों के लिए बताई गई है। वस्तुत: अर्धकुंभ तथा कुंभ पर्व के पीछे यही आध्यात्मिक रहस्य छिपा हुआ है। प्रयाग में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष सभी पुरूषार्थ विद्यमान है। इसलिए छ: वर्ष के क्रम में इनकी प्राप्ति का विधान है। 

कुंभयोग का काल निर्णय 

हरिद्वार: हरिद्वार हिमालय पर्वत शृंखला के शिवालिक पर्वत के नीचे स्थित है। प्राचीन ग्रंथों में हरिद्वार को तपोवन, मायापुरी, गंगाद्वार और मोक्षद्वार आदि नामों से भी जाना जाता है। हरिद्वार की धार्मिक महत्‍ता विशाल है एवं यह हिन्दुओं के लिए एक प्रमुख तीर्थस्थान है। मेले की तिथि की गणना करने के लिए सूर्य, चन्द्र और बृहस्पति की स्थिति की आवश्यकता होती है। हरिद्वार का सम्बन्ध मेष राशि से है। सन २०१० का कुंभ मेला मकर संक्रांति (१४ जनवरी २०१०) से वैशाख पूर्णिमा स्नान (२८ अप्रैल २०१०) तक हरिद्वार में आयोजित हुआ था।

पद्मिनीनायके मेषे कुंभराशि गते गुरौ। 
गंगाद्वारे भवेत् योग: कुंभनामा तदोत्तम:।। 

बृहस्पति कुंभ राशि एवं सूर्य राशि जब होते हैं, तब हरिद्वार में अमृत-कुंभयोग होता है। 

वसंते विषुवे चैव घटे देवपुरोहिते। 
गंगाद्वारे च कुन्ताख्‍य: सुधामिति नरो यत:।। 

बसंत ऋतु में सूर्य जब मेष राशि में संक्रमण करता है एवं देव पुरोहित वृहस्पति कुंभ राशि में आते हैं, तब हरिद्वार में कुंभ मेला होता है। इस योग से मानव सुधा यानी अमृत प्राप्त करता है। 

कुंभराशिगते जीवे यद्दिने मेषगेरवो। 
हरिद्वारे कृतं स्नानं पुनरावृत्ति वर्ज्जनम्।। 

जिन दिनों में बृहस्पति कुंभ राशि में एवं सूर्य मकर राशि में रहेंगे, उन्हीं दिनों हरिद्वार में कुंभ स्नान करने पर पुनर्जन्म नहीं होता। 

प्रयाग: ज्योतिषशास्त्रियों के अनुसार जब बृहस्पति कुंभ राशि में और सूर्य मेष राशि में प्रवेश करता है तब कुंभ मेले का आयोजन किया जाता है। वर्ष २०१३ में १४ जनवरी से पूर्ण कुंभ मेला प्रयागराज (पूर्व में इलाहाबाद) में आयोजित है। प्रयाग का कुंभ मेला सभी मेलों में सर्वाधिक महत्व रखता है। 

मेषराशिगते जीवे मकरे चन्द्रभास्करौ। 
अमावस्या तदा योग: कुंभख्यस्तीर्थ नायके।। 

बृहस्पति मेष राशि में तथा चंद्र-सूर्य मकर राशि में जब आते हैं और अमावस्या ति‍थि हो तो तीर्थराज प्रयाग में कुंभयोग होता है। 

नासिक: भारत में १२ में से एक ज्योतिर्लिंग त्र्यम्बकेश्वर नामक पवित्र शहर में स्थित है। यह स्थान नासिक से ३८ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है और गोदावरी नदी का उद्गम भी यहीं से हुआ। १२ वर्षों में एक बार सिंहस्थ कुंभ मेला नासिक एवं त्रयम्बकेश्वर में आयोजित होता है। ऐतिहासिक प्रमाणों के अनुसार नासिक उन चार स्थानों में से एक है जहाँ अमृत कलश से अमृत की कुछ बूँदें गिरी थीं। कुंभ मेले में सैंकड़ों श्रद्धालु गोदावरी के पावन जल में नहा कर अपनी आत्मा की शुद्धि एवं मोक्ष के लिए प्रार्थना करते हैं। यहाँ पर शिवरात्रि का त्यौहार भी बहुत धूम धाम से मनाया जाता है। 

सिंहराशिगते सूर्ये सिहंराश्यां बृहस्पतौ। 
गोदावर्यां भवेत कुंभो जायते खुल मुक्तिद:।। 

बृहस्पति और सूर्य दोनों जब कुंभ राशि पर आते हैं, तब गोदावरी में मुक्तिप्रद कुंभ योग होता है। 

कर्के गुरुस्तशा भानुश्चन्द्रश्चचन्द्रक्षयस्तथा। 
गोदावर्यास्तदा कुंभो जायतेवहनीमण्डले।। 

कर्क राशि में वृहस्पति, सूर्य और चंद्र जब आते हैं, तब अमावस्या ति‍थि को गोदावरी तट पर (नासिक) कुंभ योग होता है। 

उज्जयिनी: उज्जैन का अर्थ है विजय की नगरी और यह मध्य प्रदेश की पश्चिमी सीमा पर स्थित है। इंदौर से इसकी दूरी लगभग ५५ किलोमीटर है। यह क्षिप्रा नदी के तट पर बसा है। उज्जैन भारत के पवित्र एवं धार्मिक स्थलों में से एक है। ज्योतिष शास्‍त्र के अनुसार शून्य अंश (डिग्री) उज्जैन से शुरू होता है। महाभारत के अरण्य पर्व के अनुसार उज्जैन ७ पवित्र मोक्ष पुरी या सप्त पुरी में से एक है। उज्जैन के अतिरिक्त शेष हैं अयोध्या, मथुरा, हरिद्वार, काशी, कांचीपुरम और द्वारका। कहते हैं की भगवान शिव ने त्रिपुरा राक्षस का वध उज्जैन में ही किया था।

मेषराशिगते सूर्ये सिहंराश्यां वृहस्पतौ। 
उज्जयिन्यां भवेत कुंभ: सर्वसौख्य विवर्द्धन:।। 

सूर्य मेष राशि में एवं बृहस्पति सिंह राशि में जब आते हैं, तब उज्जयिनी (धारा) में सभी के लिए सुखदायक कुंभयोग आता है। चूंकि बृहस्पति सिंह राशि पर रहते हैं इसलिए सिंहस्थ कुंभयोग के नाम से यह प्रसिद्ध है। 

घटे सूरि: शशिसूर्य: कुह्याम् दामोदरे यदा। 
धारायाश्च तथा कुंभो जायते खुल मुक्तिद:।। 

तुला राशि में बृहस्पति, चंद्र और सूर्य के एकत्रित होने पर अमावस्या तिथि के दिन धारा (उज्जयिनी) में शिप्रा तट पर मुक्तिप्रद कुंभयोग होता है। 

कुंभ पर्व 

'कुंभ पर्व' एक अमृत स्नान और अमृतपान की बेला है। इसी समय गंगा की पावन धारा में अमृत का सतत प्रवाह होता है। इसी समय कुंभ स्नान का संयोग बनता है। कुंभ पर्व भारतीय जनमानस की पर्व चेतना की विराटता का द्योतक है। विशेषकर उत्तराखंड की भूमि पर तीर्थ नगरी हरिद्वार का कुंभ तो महाकुंभ कहा जाता है। भारतीय संस्कृति की जीवन्तता का प्रमाण प्रत्येक १२ वर्ष में यहाँ आयोजित होता है। पूर्वी उत्तर प्रदेश में गंगा नदी के किनारे बसा इलाहाबाद भारत का पवित्र और लोकप्रिय तीर्थस्थल है। इस शहर का उल्लेख भारत के धार्मिक ग्रन्थों में भी मिलता है। वेद, पुराण, रामायण और महाभारत में इस स्थान को प्रयाग कहा गया है। गंगा, यमुना और सरस्वती नदियों का यहाँ संगम होता है, इसलिए हिन्दुओं के लिए इस शहर का विशेष महत्त्व है। १२ साल बाद यहाँ कुंभ के मेले का आयोजन होता है। कुंभ के मेले में २ करोड़ की भीड़ इकट्ठा होने का अनुमान किया जाता है जो सम्भवत: विश्व में सबसे बड़ा जमावड़ा है। 

कुंभ का योग 

कुंभ बारह-बारह वर्ष के अन्तर से चार मुख्य तीर्थों में लगने वाला स्नान-दान का ग्रहयोग है। इसके चार स्थल प्रयाग, हरिद्वार, नासिक-पंचवटी और अवन्तिका (उज्जैन) हैं। कुंभ योग ग्रहों की निम्न स्थिति के अनुसार बनता है- 

जब सूर्य एवं चंद्र मकर राशि में होते हैं और अमावस्या होती है तथा मेष अथवा वृषभ के बृहस्पति होते हैं तो प्रयाग में कुंभ महापर्व का योग होता है। इस अवसर पर त्रिवेणी में स्नान करना सहस्रों अश्वमेध यज्ञों, सैकड़ों वाजपेय यज्ञों तथा एक लाख बार पृथ्वी की प्रदक्षिणा करने से भी अधिक पुण्य प्रदान करता है। कुंभ के इस अवसर पर तीर्थ यात्रियों को मुख्य दो लाभ होते हैं- गंगा स्नान तथा सन्त समागम। 
  • जिस समय गुरु कुंभ राशि पर और सूर्य मेष राशि पर हो, तब हरिद्वार में कुंभ पर्व होता है। 
  • जब गुरु सिंह राशि पर स्थित हो तथा सूर्य एवं चंद्र कर्क राशि पर हों, तब नासिक में कुंभ होता है। 
  • जिस समय सूर्य तुला राशि पर स्थित हो और गुरु वृश्चिक राशि पर हो, तब उज्जैन में कुंभ पर्व मनाया जाता है। 
प्रयाग कुंभ 

प्रयाग कुंभ का विशेष महत्व इसलिए है क्योंकि यह १२ वर्षो के बाद गंगा, यमुना एवं सरस्वती के संगम पर आयोजित किया जाता है। हरिद्वार में कुंभ गंगा के तट पर और नासिक में गोदावरी के तट पर आयोजित किया जाता है। इस अवसर पर नदियों के किनारे भव्य मेले का आयोजन किया जाता है जिसमें बड़ी संख्या में तीर्थ यात्री आते है। यह कुंभ अन्य कुंभों में सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यह प्रकाश की ओर ले जाता है। यह ऐसा स्थान है जहाँ बुद्धिमत्ता का प्रतीक सूर्य का उदय होता है। इस स्थान को ब्रह्माण्ड का उद्गम और पृथ्वी का केंद्र माना जाता है। ऐसी मान्यता है कि ब्रह्माण्ड की रचना से पहले ब्रह्माजी ने यही अश्वमेध यज्ञ किया था। दश्व्मेघ घाट और ब्रह्मेश्वर मंदिर इस यज्ञ के प्रतीक स्वरूप अभी भी यहाँ मौजूद है। इस यज्ञ के कारण भी कुंभ का विशेष महत्व है। कुंभ और प्रयाग एक दूसरे के पर्यायवाची है।
  • संगम: मुख्य स्नान तिथियों पर सूर्योदय के समय रथ और हाथी पर संतों के रंगारंग जुलूस का भव्य आयोजन होता है। पवित्र गंगा नदी में संतों द्वारा डुबकी लगाई जाती है। संगम तट इलाहाबाद में सिविल लाइंस से लगभग ७ कि.मी. की दूरी पर स्थित है। यहां पर गंगा, यमुना और सरस्वती नदी का संगम है, इसे त्रिवेणी संगम भी कहते हैं। यहीं कुंभ मेला आयोजित किया जाता है जहां पर लोग स्नान करते हैं। इस पर्व को 'स्नान पर्व' भी कहते हैं। यही स्थान तीर्थराज कहलाता है। गंगा और यमुना का उद्‍गम हिमालय से होता है जबकि सरस्वती का उद्‍गम अलौकिक माना जाता है। मान्यता है कि सरस्वती का उद्‍गम गंगा-यमुना के मिलन से हुआ है जबकि कुछ ग्रंथों में इसका उद्‍गम नदी के तल के नीचे से बताया गया है। इस संगम स्थल पर ही अमृत की बूंदें गिरी थी इसीलिए यहां स्नान का महत्व है। त्रिवेणी संगम तट पर स्नान करने से शरीर और आत्मा शुद्ध हो जाती है। यहां पर लोग अपने पूर्वजों का पिंडदान भी करते हैं। 
कुंभ पर्व चक्र 

कुंभ पर्व विश्व में किसी भी धार्मिक प्रयोजन हेतु भक्तों का सबसे बड़ा संग्रहण है। सैंकड़ों की संख्या में लोग इस पावन पर्व में उपस्थित होते हैं। कुंभ का संस्कृत अर्थ है कलश, ज्योतिष शास्त्र में कुंभ राशि का भी यही चिन्ह है। हिन्दू धर्म में कुंभ का पर्व हर १२ वर्ष के अंतराल पर चारों में से किसी एक पवित्र नदी के तट पर मनाया जाता है- हरिद्वार में गंगा, उज्जैन में क्षिप्रा, नासिक में गोदावरी और इलाहाबाद में संगम जहाँ गंगा, यमुना और सरस्वती मिलती हैं। 

कुंभ का अर्थ 

कुंभ का शाब्दिक अर्थ कलश होता है। कुंभ का पर्याय पवित्र कलश से होता है। इस कलश का हिन्दू सभ्यता में विशेष महत्व है। कलश के मुख को भगवान विष्णु, गर्दन को रुद्र, आधार को ब्रह्मा, बीच के भाग को समस्त देवियों और अंदर के जल को संपूर्ण सागर का प्रतीक माना जाता है। यह चारों वेदों का संगम है। इस तरह कुंभ का अर्थ पूर्णतः औचित्य पूर्ण है। वास्तव में कुंभ हमारी सभ्यता का संगम है। यह आत्म जाग्रति का प्रतीक है। यह मानवता का अनंत प्रवाह है। यह प्रकृति और मानवता का संगम है। कुंभ ऊर्जा का स्त्रोत है। कुंभ मानव-जाति को पाप, पुण्य और प्रकाश, अंधकार का एहसास कराता है। नदी जीवन रूपी जल के अनंत प्रवाह को दर्शाती है। मानव शरीर पंचतत्वों से निर्मित है यह तत्व हैं-अग्नि, वायु, जल, पृथ्वी और आकाश। 

पौराणिक वर्णन

कुंभ पर्व की मूल चेतना का वर्णन पुराणों में मिलता है। पुराणों में वर्णित संदर्भों के अनुसार यह पर्व समुद्र मंथन से प्राप्त अमृत घट के लिए हुए देवासुर संग्राम से जुड़ा है। मान्यता है कि समुद्र मंथन से १४ रत्नों की प्राप्ति हुई जिनमें प्रथम विष था तो अन्त में अमृत घट लेकर धन्वन्तरि प्रकट हुए। कहते हैं अमृत पाने की होड़ ने एक युद्ध का रूप ले लिया। ऐसे समय असुरों से अमृत की रक्षा के उद्देश्य से इन्द्र पुत्र जयंत उस कलश को लेकर वहाँ से पलायन कर गये। 

वह युद्ध बारह वर्षों तक चला। इस दौरान सूर्य, चंद्रमा, गुरु एवं शनि ने अमृत कलश की रक्षा में सहयोग दिया। इन बारह वर्षों में बारह स्थानों पर जयंत द्वारा अमृत कलश रखने से वहाँ अमृत की कुछ बूंदे छलक गईं। कहते हैं उन्हीं स्थानों पर, ग्रहों के उन्हीं संयोगों पर कुंभ पर्व मनाया जाता है। मान्यता है कि उनमें से आठ पवित्र स्थान देवलोक में हैं तथा चार स्थान पृथ्वी पर हैं। पृथ्वी के उन चारों स्थानों पर तीन वर्षों के अन्तराल पर प्रत्येक बारह वर्ष में कुंभ का आयोजन होता है। गंगा, क्षिप्रा, गोदावरी और प्रयाग के तटों पर सम्पन्न होने वाले पर्वों ने भौगोलिक एवं सामाजिक एकता को प्रगाढ़ता प्रदान की है। 

हज़ारों वर्षों से चली आ रही यह परम्परा रूढ़िवाद या अंधश्रद्धा कदापि नहीं कही जा सकती क्योंकि इस महापर्व का संबध सीधे तौर पर खगोलीय घटना पर आधारित है। सौर मंडल के विशिष्ट ग्रहों के विशेष राशियों में प्रवेश करने से बने खगोलिय संयोग इस पर्व का आधार हैं। इनमें कुंभ की रक्षा करने वाले चार सूत्रधार सूर्य, चंद्रमा, गुरु एवं शनि का योग इन दिनों में किसी ना किसी रूप में बनता है। यही विशिष्ट बात इस सनातन लोकपर्व के प्रति भारतीय जनमानस की आस्था का दृढ़तम आधार है। तभी तो सदियों से चला आ रहा यह पर्व आज संसार के विशालतम धार्मिक मेले का रूप ले चुका है।

पद्मिनी नायके मेषे कुंभराशि गते गुरौ। 
गंगा द्वारे भवेद्योगः कुंभनाम्रातदोत्तमः।।
स्कन्द पुराण

जिसका अर्थ है कि सूर्य जब मेष राशि में आये और बृहस्पति ग्रह कुंभ राशि में हो तब गंगाद्वार अर्थात् हरिद्वार में कुंभ का उत्तम योग होता है। ऐसे श्रेष्ठ अवसर पर सम्पूर्ण भारत के साधु-संन्यासी, बड़े बड़े मठों के महंत और पीठाधीश और दर्शन शास्त्र के अध्येता विद्वान् हरिद्वार में एकत्र होते हैं। इनके अलावा समाज के सभी वर्गों के लोग छोटे बड़े, अमीर ग़रीब, बड़े बूढ़े, स्त्री पुरुष भी यहाँ आते हैं। इस पावन अवसर पर जनमानस की ऐसी विशालता और विविधता को देखकर विश्वास होता है कि वास्तव में महाकुंभ ही अमृत साधना का महापर्व है। 

ज्योतिषीय दृष्टिकोण 

समुद्र मंथन की कथा में कहा गया है कि कुंभ पर्व का सीधा सम्बन्ध तारों से है। अमृत कलश को स्वर्ग लोक तक ले जाने में इंद्र के पुत्र जयंत को १२ दिन लगे। देवों का एक दिन मनुष्यों के 1 वर्ष के बराबर है इसीलिए तारों के क्रम के अनुसार हर १२वें वर्ष कुंभ पर्व विभिन्न तीर्थ स्थानों पर आयोजित किया जाता है। पौराणिक विश्लेषण से यह साफ़ है कि कुंभ पर्व एवं गंगा नदी आपस में सम्बंधित हैं। गंगा प्रयाग में बहती हैं परन्तु नासिक में बहने वाली गोदावरी को भी गंगा कहा जाता है, इसे हम गोमती गंगा के नाम से भी पुकारते हैं। क्षिप्रा नदी को काशी की उत्तरी गंगा से पहचाना जाता है। यहाँ पर गंगा गंगेश्वर की आराधना की जाती है।

"विन्ध्यस्य दक्षिणे गंगा गौतमी सा निगद्यते उत्‍तरे सापि विन्ध्यस्य भगीरत्यभिधीयते।" 
"एव मुक्‍त्वा गता गंगा कलया वन संस्थिता गंगेश्‍वरं तु यः पश्येत स्नात्वा शिप्राम्भासि प्रिये।"
ब्रह्म पुराण, स्कन्द पुराण

ज्योतिषीय गणना के अनुसार कुंभ का पर्व ४ प्रकार से आयोजित किया जाता है: 
  1. कुंभ राशि में बृहस्पति का प्रवेश होने पर एवं मेष राशि में सूर्य का प्रवेश होने पर कुंभ का पर्व हरिद्वार में आयोजित किया जाता है। "पद्‍मिनी नायके मेषे कुंभ राशि गते गुरोः। गंगा द्वारे भवेद योगः कुंभ नामा तथोत्तमाः।।"
  2. मेष राशि के चक्र में बृहस्पति एवं सूर्य और चन्द्र के मकर राशि में प्रवेश करने पर अमावस्या के दिन कुंभ का पर्व प्रयाग में आयोजित किया जाता है। "मेष राशि गते जीवे मकरे चन्द्र भास्करौ। अमावस्या तदा योगः कुंभख्यस्तीर्थ नायके।।" एक अन्य गणना के अनुसार मकर राशि में सूर्य का एवं वृष राशि में बृहस्पति का प्रवेश होनें पर कुंभ पर्व प्रयाग में आयोजित होता है।
  3. सिंह राशि में बृहस्पति के प्रवेश होने पर कुंभ पर्व गोदावरी के तट पर नासिक में होता है। "सिंह राशि गते सूर्ये सिंह राशौ बृहस्पतौ। गोदावर्या भवेत कुंभों जायते खलु मुक्‍तिदः।।"
  4. सिंह राशि में बृहस्पति एवं मेष राशि में सूर्य का प्रवेश होने पर यह पर्व उज्जैन में होता है। "मेष राशि गते सूर्ये सिंह राशौ बृहस्पतौ। उज्जियन्यां भवेत कुंभः सदामुक्‍ति प्रदायकः।।"
पौराणिक ग्रंथों जैसे नारदीय पुराण (२/६६/४४), शिव पुराण (१/१२/२२-२३) एवं वराह पुराण (१/७१/४७/४८) और ब्रह्म पुराण आदि में भी कुंभ एवं अर्द्ध कुंभ के आयोजन को लेकर ज्योतिषीय विश्लेषण उपलब्ध है। कुंभ पर्व हर ३ साल के अंतराल पर हरिद्वार से शुरू होता है। कहा जाता है कि हरिद्वार के बाद कुंभ पर्व प्रयाग, नासिक और उज्जैन में मनाया जाता है। प्रयाग और हरिद्वार में मनाये जाने वाले कुंभ पर्व में एवं प्रयाग और नासिक में मनाये जाने वाले कुंभ पर्व के बीच में ३ सालों का अंतर होता है।

ज्योतिष शास्त्र के अनुसार ग्रहों का शुभाशुभ फल मनुष्य के जीवन पर पड़ता है। बृहस्पति जब विभिन्न ग्रहों के अशुभ फलों को नष्ट कर पृथ्वी पर शुभ प्रभाव का विस्तार करने में समर्थ हो जाते हैं, तब उक्त शुभ स्थानों पर अमृतप्रद कुंभयोग अनुष्ठित होता है। अनादिकाल से इस कुंभयोग को आर्यों ने सर्वश्रेष्ठ साक्षात मुक्तिपद की संज्ञा दी है। इन कुंभयोगों में उक्त पुण्य तीर्थस्थानों में जाकर दर्शन तथा स्नान करने पर मानव कायमनोभाव से पवित्र, निष्पाप और मुक्तिभागी होता है- इस बात का उल्लेख पुराणों में है। यही वजह है कि धर्मप्राण मुक्तिकामी नर-नारी कुंभयोग और कुंभ मेले के प्रति इतने उत्साहित रहते हैं। 

कुंभ के अनुष्ठान 
  • आरती: कुंभ मेला, विश्व का सबसे विशाल आयोजन है जिसमें अलग अलग जाति, धर्म, क्षेत्र के लाखों लोग भाग लेते हैं। कुंभ भारतीयों के मस्तिष्क और आत्मा में रचा-बसा हुआ है। ऐसी मान्यता है कि कुंभ में स्नान करने से सारे पाप दूर हो जाते हैं और मनुष्य जीवन मरण के बंधन से मुक्त हो जाता है। यहाँ पर अन्य गतिविधियाँ, धार्मिक चर्चा, भक्ति गायन का आयोजन किया जाता है जिसमें पुरुष, महिलाएं, धनी, ग़रीब सभी लोग भाग लेते हैं। कुंभ मेला सभी हिंदू तीर्थ में पवित्र माना जाता है। लाखों पवित्र पुरुष और महिलाएँ (संत और साधु) विश्वास के इस प्रतीक में भाग लेते है। इस पवित्र स्थल ने लोगों के मन में विश्वास प्राप्त करके अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त की है। प्रसिद्ध प्राचीन यात्री, चीन के ह्वेन सांग पहले व्यक्ति थे जिन्होंने कुंभ मेले का उल्लेख अपनी डायरी में किया था। उनकी डायरी हिन्दू महीने माघ (जनवरी - फरवरी) के 75 दिनों के उत्सव का उल्लेख है, जिसको लाखों साधुओं, आम आदमी, अमीर और राजाओं ने देखा है। जाति, धर्म, क्षेत्र के सभी सांसारिक बाधाओं के बावजूद, कुंभ मेला का प्रभाव आम भारतीयों के मस्तिष्क और कल्पनाओं पर है। इतिहास में कुंभ मेला लाखों लोगों के एकत्र होने के लिए प्रसिद्ध है। समय के साथ कुंभ हिंदू संस्कृति और आस्था का एक केंद्र बन गया है। विभिन्न धर्म और सम्प्रदाय के लोग इस लौकिक आयोजन में सम्मिलित होते हैं।
  • शाही स्नान: मकर संक्राति से प्रारम्भ होकर वैशाख पूर्णिमा तक चलने वाले हरिद्वार के महाकुंभ में वैसे तो हर दिन पवित्र स्नान है फिर भी कुछ दिवसों पर ख़ास स्नान होते हैं। इसके अलावा तीन शाही स्नान होते हैं। ऐसे मौकों पर साधु संतों की गतिविधियाँ तीर्थयात्रियों और पर्यटकों के आकर्षण का केन्द्र होती है। कुंभ के मौके पर तेरह अखाड़ों के साधु-संत कुंभ स्थल पर एकत्र होते हैं। प्रमुख कुंभ स्नान के दिन अखाड़ों के साधु एक शानदार शोभायात्रा के रूप में शाही स्नान के लिए हर की पौड़ी पर आते हैं। भव्य जुलूस में अखाड़ों के प्रमुख महंतों की सवारी सजे धजे हाथी, पालकी या भव्य रथ पर निकलती हैं। उनके आगे पीछे सुसज्जित ऊँट, घोड़े, हाथी और बैंड़ भी होते हैं। हरिद्वार की सड़कों से निकलती इस यात्रा को देखने के लिए लोगों के हुजूम इकट्ठे हो जाते हैं। ऐसे में इन साधुओं की जीवन शैली सबके मन में कौतूहल जगाती है विशेषकर नागा साधुओं की, जो कोई वस्त्र धारण नहीं करते तथा अपने शरीर पर राख लगाकर रहते हैं। मार्ग पर खड़े भक्तगण साधुओं पर फूलों की वर्षा करते हैं तथा पैसे आदि चढ़ाते हैं। यह यात्रा विभिन्न अखाड़ा परिसरों से प्रारम्भ होती है। विभिन्न अखाड़ों के लिए शाही स्नान का क्रम निश्चित होता है। उसी क्रम में यह हर की पौड़ी पर स्नान करते हैं।
  • गंगा स्नान और पूजन: गंगा नदी हिंदुओं के लिए देवी और माता समान है। इसीलिए हिंदुओं के लिए गंगा स्नान का बहुत महत्व है। गंगा जीवन और मृत्यु दोनों से जुडी़ हुई है इसके बिना हिंदू संस्कार अधूरे हैं। गंगाजल अमृत समान है। इलाहाबाद कुंभ में गंगा स्नान, पूजन का अलग ही महत्व है। अनेक पर्वों और उत्सवों का गंगा से सीधा संबंध है मकर संक्राति, कुंभ और गंगा दशहरा के समय गंगा में स्नान, पूजन, दान एवं दर्शन करना महत्त्वपूर्ण माना गया है। गंगाजी के अनेक भक्ति ग्रंथ लिखे गए हैं जिनमें श्रीगंगासहस्रनामस्तोत्रम एवं गंगा आरती बहुत लोकप्रिय हैं। गंगा पूजन एवं स्नान से रिद्धि-सिद्धि, यश-सम्मान की प्राप्ति होती है तथा समस्त पापों का क्षय होता है। मान्यता है कि गंगा पूजन से मांगलिक दोष से ग्रसित जातकों को विशेष लाभ प्राप्त होता है। गंगा स्नान करने से अशुभ ग्रहों का प्रभाव समाप्त होता है। अमावस्या दिन गंगा स्नान और पितरों के निमित तर्पण व पिंडदान करने से सदगती प्राप्त होती है और यही शास्त्रीय विधान भी है। हिंदू धर्म में ऐसी मान्यता है कि कुंभ स्थल के पवित्र जल में स्नान करने से मनुष्य के सारे पाप-कष्ट धुल जाते हैं और मोक्ष की प्राप्ति होती है। गंगाजी में स्नान करने से सात्विकता और पुण्यलाभ प्राप्त होता है। 

कुंभ मेले में शैवपंथी नागा साधुओं को देखने के लिए भीड़ उमड़ पड़ती है। नागा साधुओं की रहस्यमय जीवन शैली और दर्शन को जानने के लिए विदेशी श्रद्धालु ज्यादा उत्सुक रहते हैं। कुंभ के सबसे पवित्र शाही स्नान में सबसे पहले स्नान का अधिकार इन्हें ही मिलता है। नागा साधु अपने पूरे शरीर पर भभूत मले, निर्वस्त्र रहते हैं। उनकी बड़ी-बड़ी जटाएं भी आकर्षण का केंद्र रहती है। 

हाथों में चिलम लिए और चरस का कश लगाते हुए इन साधुओं को देखना अजीब लगता है। मस्तक पर आड़ा भभूत लगा, तीनधारी तिलक लगा कर धूनी रमा कर, नग्न रह कर और गुफ़ाओं में तप करने वाले नागा साधुओं का उल्लेख पौराणिक ग्रंथों में भी मिलता है। यह साधु उग्र स्वभाव के होते हैं। नागा जीवन की विलक्षण परंपरा में दीक्षित होने के लिए वैराग्य भाव का होना ज़रूरी है। संसार की मोह-माया से मुक्त कठोर दिल वाला व्यक्ति ही नागा साधु बन सकता है। 

साधु बनने से पूर्व ही ऐसे व्यक्ति को अपने हाथों से ही अपना ही श्राद्ध और पिंड दान करना होता है। अखाड़े किसी को आसानी से नागा रूप में स्वीकार नहीं करते। बाकायदा इसकी कठोर परीक्षा ली जाती है जिसमें तप, ब्रह्मचर्य, वैराग्य, ध्यान, सन्न्यास और धर्म का अनुशासन तथा निष्ठा आदि प्रमुखता से परखे-देखे जाते हैं। कठोर परीक्षा से गुजरने के बाद ही व्यक्ति संन्यासी जीवन की उच्चतम तथा अत्यंत विकट परंपरा में शामिल होकर गौरव प्राप्त करता है। इसके बाद इनका जीवन अखाड़ों, संत परंपराओं और समाज के लिए समर्पित हो जाता है। 

एकसूत्र की कल्पना 

कुंभ मेले के इतिहास के शोधार्थियों का मानना है कि प्राचीन संस्कृत वाङ्मय के अध्ययन से ऐसा नहीं प्रतीत होता कि प्रयाग, हरिद्वार, नासिक और उज्जैन, इन चारों स्थानों पर कुंभ मेलों का सूत्रपात किसी एक केन्द्रीय निर्णय के अन्तर्गत, किसी एक समय पर, एक साथ किया गया होगा। कुंभ की परम्परा का क्रमश: विकास हुआ लगता है। ऐसा प्रतीत होता है कि ये चारों स्थान अपने-अपने कारणों से पवित्र तीर्थस्थल माने जाते थे। गोदावरी, क्षिप्रा, गंगा और संगम के पवित्र तट पर किन्हीं पुण्य राशियोग पर स्नान के निमित्त मेले की परम्परा पहले से चली आ रही थी, जिन्हें आगे चलकर एक पौराणिक कथा के माध्यम से एक शृंखला में पिरो दिया गया। 

किन्तु जिसने भी किया, जब भी किया, उसके पीछे भारत की सांस्कृतिक चेतना और एकता को जाग्रत व सुदृढ़ करने की दृष्टि अवश्य विद्यमान थी। प्रचलित धारणा के अनुसार चार स्थानों पर कुंभ परम्परा प्रारंभ करने का श्रेय भी आदि शंकराचार्य को ही दिया जाता है। यह सहज लगता है; क्योंकि आदि शंकराचार्य ने भारत के चार कोनों पर चार धामों की स्थापना की, जिसके कारण चार धाम की तीर्थयात्रा का प्रचलन हुआ। कहा जाता है कि उन्होंने ही भारत की सन्त-शक्ति को गिरी, पुरी, भारती, तीर्थ, वन, अरण्य, पर्वत, आश्रम, सागर तथा सरस्वती नामक दस वर्णों में गठित किया और भारतीय समाज के प्रत्येक वर्ग में धर्म-चेतना जगाने का दायित्व उन्हें सौंपा। 

कोरोना महामारी और हरिद्वार कुंभ 

इतिहास साक्षी है की वैदिक काल से हमारे यहां कुंभ पर्व का आयोजन होता चला आ रहा है। परंतु किसी भी प्रकार की महामारी भारत में कभी भी दिखाई नहीं पड़ी है ।यह सब पश्चिमी सभ्यताओं और पश्चिमी देशों से ही उत्पन्न होती है जो यहां तक फैलती है ।वर्तमान में भी कोरोना महामारी इसका एक जीवंत उदाहरण है। इसी महामारी के दौरान ही हरिद्वार में कुंभ पर्व का आयोजन किया जा रहा है जिसके चलते केंद्र व राज्य सरकारों द्वारा बहुत से विशेष प्रबंध किए गए हैं। 

कोरोना काल में आयोजित होने जा रहे हरिद्वार महाकुंभ २०२१ की तिथि निर्धारित कर दी गई है। हर बार माह तक लगने वाले कुंभ मेला, इस बार संक्रमण के खतरे को देखते हुए केवल एक माह के लिए आयोजित होगा। कोरोना की रोकथाम और केंद्र सरकार की गाइडलाइन को देखते हुए राज्य सरकार ने मेले की अवधि घटाने का निर्णय लिया है। कुंभ मेले में आने वाले श्रद्धालुओं के लिए सरकार द्वारा विस्तृत गाइड लाइन पहले ही जारी की जा चुकी है। राज्य सरकार ने कुंभ मेले के लिए अब १ अप्रैल से ३० अप्रैल तक की अवधि निर्धारित की है। 

मुख्य सचिव ओमप्रकाश की अध्यक्षता में हुई उच्च स्तरीय बैठक में यह निर्णय लिया गया। जल्द ही कुंभ मेले के संबंध में राज्य सरकार द्वारा आधिकारिक अधिसूचना जारी कर दी जाएगी। कोरोना संक्रमण को देखते हुए पहले कुंभ मेले की अवधि २७ फरवरी से २७ अप्रैल तक प्रस्तावित की गई थी। हालांकि इससे पहले कुंभ मेला जनवरी से शुरू होकर अप्रैल तक, चार महीने के लिए आयोजित होता था।

रजिस्ट्रेशन कराना होगा अनिवार्य: हरिद्वार महाकुंभ जाने वाले श्रद्धालुओं को राज्य सरकार के कुंभ मेला से संबंधित वेब पोर्टल पर भी पंजीकरण करना अनिवार्य होगा और पंजीकरण संबंधी ई-पास भी अपने पास रखना होगा। साथ ही आरोग्य सेतु एप को भी अपने मोबाइल में चालू रखना होगा।

हरिद्वार महाकुंभ में महाशिवरात्रि ११ मार्च २०२१ से शाही स्नान शुरू हो चुका है। कुल चार शाही स्नान में से अभी तीन शाही स्नान बाकी हैं। महाकुंभ का दूसरा शाही स्नान सोमवती अमावस्या (१२ अप्रैल) को होगा, जबकि चौथा यानी आखिरी शाही स्नान चैत्र पूर्णिमा के दिन होगा। हरिद्वार महाकुंभ के लिए राज्य सरकार व केंद्र सरकार की ओर से दिशा-निर्देश भी जारी कर दिए हैं। गाइडलाइन के अनुसार, गंगा स्नान के लिए आने वाले लोगों को ७२ घंटें पहले तक आर.टी.पी.सी.आर प्रणाली से की गई कोरोना वायरस जांच की निगेटिव रिपोर्ट दिखाना अनिवार्य है। 
  1. पहला शाही स्नान: ११ मार्च २०२१, दिन गुरुवार, त्योहार- महाशिवरात्रि। शास्त्रों के अनुसार, पृथ्वी पर गंगा की उपस्थिति का श्रेय भगवान शिव को जाता है। यही कारण है कि इस दिन पवित्र नदी में स्नान करने का विशेष महत्व है।
  2. दूसरा शाही स्नान: १२ अप्रैल २०२१, दिन सोमवार, त्योहार- सोमवती अमावस्या। सोमवती अमावस्या पर गंगा स्नान का विशेष महत्व है। ऐसा माना जाता है कि चंद्रमा जल का कारक है, जल की प्राप्ति और सोमवती को अमावस्या पर अमृत माना जाता है।
  3. तीसरा शाही स्नान: १४ अप्रैल २०२१, दिन बुधवार, त्योहार- मेष संक्रांति और बैसाखी। इस शुभ दिन पर, नदियों का पानी अमृत में बदल जाता है। ज्योतिष के अनुसार, इस दिन पवित्र गंगा में एक पवित्र डुबकी कई जीवन के पापों को नष्ट कर सकती है।
  4. चौथा शाही स्नान: २७ अप्रैल २०२१, दिन मंगलवार, त्योहार- चैत्र पूर्णिमा। पवित्र गंगा में स्नान करने के लिए यह सबसे महत्वपूर्ण दिनों में से एक है और इसे 'अमृत योग' के दिन के रूप में जाना जाता है।
हरिद्वार कुंभ यात्रा २०२१ - एक स्वार्गिक अनुभूति 

हम अक्सर सोचते रहते हैं कि दैनिक कार्यों से कभी थोड़ा सा अवकाश मिलेगा तो हम तीर्थ यात्रा को जाएंगे।अमूमन हम तीर्थ यात्राओं को वृद्धावस्था के लिए ही छोड़ देते हैं। परंतु मेरा ऐसा मानना है कि जब भी इस प्रकार के अवसर प्राप्त हों तो उन्हें सहर्ष स्वीकार कर लेना चाहिए ।वैसे तो सब कुछ ईश्वरेच्छा से संपन्न होता है। मैं स्वयं को सौभाग्यशाली मानती हूं कि मुझे जीवन में पहली बार कुंभ पर्व देखने का एक अविस्मरणीय अवसर प्राप्त हुआ। 

इस साल हरिद्वार में लगने वाले पूर्ण कुंभ का पहला शाही स्नान ११ मार्च २०२१ को महाशिवरात्रि के दिन होना था। हम १० मार्च को ही हरिद्वार के लिए निकल गए। गंगा किनारे पर भजन कीर्तन का जो स्वार्गिक आनंद प्राप्त हुआ उसे शब्दों में व्यक्त कर पाना संभव नहीं है। मां गंगा की कल-कल करती आवाज, अथाह जल राशि ,निरंतर गतिशीलता, अद्भुत सौंदर्य हमें बहुत कुछ सिखाता है । 

वास्तव में ही गंगा हमारी माँ है क्योंकि वह हम सभी को अवगुणों को, हमारी गंदगी को अपने अंदर समेट लेती है। शिवरात्रि के दिन गंगा तट पर ही गंगाजल से रुद्राभिषेक होना बहुत बड़ा सौभाग्य प्रदान करने वाला है। शिवरात्रि का दिन हो, गंगा का किनारा हो और कुंभ पर्व हो ऐसा दुर्लभ संयोग बहुत कम मिलता है। इसी के साथ विद्वान पंडितों के द्वारा सस्वर रुद्राष्टकम, शिव तांडव स्त्रोत्रम का पाठ हो तो इस आनंदानुभूति के बारे में क्या कहा जा सकता है। तत्पश्चात गंगा तट पर ही हवन आदि धार्मिक अनुष्ठानों के द्वारा जितनी आत्मिक शांति और संतुष्टि प्राप्त हुई वह किसी स्वार्गिक आनंद से कम नहीं है।

अपने अनुभव से मैं यह कहना चाहती हूं कि हम सभी को जीवन में एक बार कुंभ पर्व का भ्रमण अवश्य करना चाहिए। धन्य है हमारी सत्य सनातन धर्म संस्कृति, हमारी परंपराएं, हमारे मूल्य, हमारे पर्व आदि जो समय- समय पर आकर हम सभी को एकता के सूत्र में पिरोने का कार्य करते हैं। यही तो मानवीयता है, मानव धर्म है। धन्य है भारत भूमि। सादर वंदन, अभिनदंन।

ये लेख हमें डॉक्टर विदुषी शर्मा से प्राप्त हुआ है। ये दिल्ली की निवासी हैं और वर्तमान में इंदिरा गाँधी मुक्त विश्वविद्यालय में ऐकडेमिक कॉउंसलर के पद पर नियुक्त हैं। साथ ही ये इंटरनेशनल ह्यूमन राइट्स आर्गेनाइजेशन, दिल्ली की महासचिव भी हैं। इनके कई लेख और रचनाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमे ७८ शोध, ३८ पुस्तकें, UGC पत्रिकाओं में ६ आलेख एवं १ ईबुक भी है। इन्होने करीब ४५ अंतर्राष्ट्रीय एवं ५९ राष्ट्रीय सम्मेलनों में हिस्सा लिया है और १५ से अधिक पुरस्कार प्राप्त कर चुकी हैं। इसके अतिरिक्त ये कई पत्रिकाओं और संस्थाओं की सदस्य भी हैं और राष्ट्रपति श्री रामनाथ कोविंद, उपराष्ट्रपति श्री वेंकैया नायडू, डॉक्टर किरण बेदी, हरियाणा के मुख्यमंत्री श्री मनोहरलाल खट्टर एवं अन्य गणमान्य व्यक्तियों के समक्ष अपने शोध प्रस्तुत कर चुकी हैं। धर्मसंसार में इनके सहयोग के लिए हम इनके आभारी हैं।

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