माधवी - ययाति की पुत्री की दारुण कथा

माधवी - ययाति की पुत्री की दारुण कथा
हमारे ग्रंथों में ऐसी कई स्त्रियाँ हैं जिन्हे अपने जीवन में बड़े कष्ट झेलने पड़े किन्तु कुछ स्त्रियाँ ऐसी हैं जिन्हे इतना कुछ झेलना पड़ा जिसे सुनकर हम विश्वास भी नहीं कर सकते कि ऐसा कुछ हो सकता है। ऐसी ही एक कथा चक्रवर्ती सम्राट ययाति की पुत्री माधवी की है। कई जगह उसका नाम वृषदवती बताया गया है। उसके साथ जो हुआ वो कदाचित हम सोच भी नहीं सकते किन्तु अपने पिता के मान के लिए उसने सब सहा। 

ऋषि गालव महर्षि विश्वामित्र के प्रिय शिष्य थे। एक बार विश्वामित्र तपस्या कर रहे थे तब उन्होंने अपने शिष्य गालव से कहा कि जब तक वे तपस्या पूरी ना कर लें, वे उनकी सेवा में रहें। उसी समय उनकी परीक्षा लेने धर्मराज उनके समक्ष पहुँचे और उनसे भोजन माँगा। जब महर्षि विश्वामित्र भोजन तैयार कर उनके पास पहुँचे तो धर्मराज ने कहा कि तुम्हे आने में विलम्ब हो गया है इसीलिए अभी मुझे जाना होगा। जब तक मैं लौट कर ना आऊं, तुम इसी प्रकार भोजन पकडे खड़े रहो। 

तब महर्षि विश्वामित्र उस भोजन को पकडे उसी प्रकार खड़े हुए उनकी प्रतीक्षा करते रहे। इस प्रकार १०० वर्ष बीत गए। तत्पश्चात धर्मराज वहाँ आये और कहा कि मैं ठंडा भोजन किस प्रकार खाऊं? तब विश्वामित्र ने अपने तपोबल से उस भोजन को गर्म और ताजा कर दिया और धर्मराज से प्रार्थना की कि अब उसे ग्रहण करें। उनकी इस निष्ठा से धर्मराज अति प्रसन्न हुए और उन्हें ब्रह्मर्षि पद पाने का वरदान देकर वे अपने लोक चले गए। विश्वामित्र के साथ ऋषि गालव ने भी खड़े रहकर १०० वर्षों तक उनकी सेवा की थी इसी कारण विश्वामित्र ने उन्हें अनेकानेक आशीर्वाद दिए और कहा कि उनकी शिक्षा पूर्ण हो चुकी है अतः वे अब गृहस्थाश्रम में प्रवेश कर सकते हैं।

तब गालव ऋषि ने कहा कि वे बिना गुरुदक्षिणा दिए किस प्रकार जा सकते हैं? गालव बहुत ही निर्धन थे। भोजन तक की व्यवस्था यदा-कदा ही हो पाती थी। विश्वामित्र उनकी दशा से अवगत थे इसी कारण उन्होंने कहा कि गुरुदक्षिणा की आवश्यकता नहीं है। किन्तु गालव ऋषि बार-बार उनसे गुरुदक्षिणा माँगने का अनुरोध करने लगे। जब विश्वामित्र के बार-बार मना करने पर भी गालव ऋषि अड़े रहे तब विश्वामित्र ने खीज कर कहा - "रे मूढ़! तू मेरे बार-बार मना करने पर भी हठ कर रहा है तो जा मुझे ८०० ऐसे अश्व लाकर दे जिनका शरीर तो हिम की भांति श्वेत हो किन्तु कर्ण काले हों।"

अपने गुरु की ऐसी अद्भुत गुरुदक्षिणा सुनकर गालव आश्चर्यचकित रह गए किन्तु वे तनिक भी विचलित नहीं हुए और गुरुदक्षिणा देने के लिए विश्वामित्र से थोड़ा समय माँगा, जो उन्होंने दे दिया। आज्ञा पाकर गालव उन्हें प्रणाम कर वहाँ से चले गए। अब विश्वामित्र पछताए कि उनका शिष्य जो १ साधारण अश्व भी नहीं दे सकता वो ८०० श्यामकर्ण अश्व कहाँ से देगा? किन्तु अब तो उनके मुख से वाणी निकल चुकी थी अतः उसे प्रारब्ध मान कर वे प्रतीक्षा करने लगे।

गालव ने समय तो माँग लिया किन्तु ऐसे अद्भुत अश्व वे लाएं कहाँ से? उन्हें तो ये भी नहीं पता था कि ऐसे विचित्र अश्व पृथ्वी पर होते भी हैं या नहीं? भला ऐसा कैसे संभव था कि किसी अश्व का पूरा शरीर तो श्वेत हो किन्तु कान काले हों? उस प्रकार के अश्व को ढूंढते हुए गालव बहुत काल तक पृथ्वी पर भटकते रहे किन्तु वैसे अश्व उन्हें कही नहीं मिले। अब वे भी निराश हो गए कि ऐसा एक भी अश्व अभी तक उन्हें नहीं मिला तो वे ८०० अश्व कहाँ से लाएंगे? अंत में उन्होंने सोचा कि ऐसी विपत्ति से श्रीहरि ही उनकी सहायता कर सकते हैं इसीलिए वे नारायण की तपस्या करने लगे।

किन्तु बहुत काल तक तपस्या करने पर भी श्रीहरि ने उन्हें दर्शन नहीं दिए। अब गालव बड़े निराश हो गए। उन्होंने सोचा कि बिना श्रीहरि की कृपा के ऐसे अश्व पाना संभव नहीं है और बिना अश्वों के वे किस मुख से अपने गुरु के पास जाएँ? इसी लिए वे आत्महत्या के लिए तत्पर हो गए। अपने भक्त को आत्महत्या करते देख श्रीहरि ने तत्काल गरुड़ को उनकी सहायता के लिए भेजा। नारायण के आदेश पर गरुड़ तत्काल वहाँ पहुँचे और गालव को प्राण त्यागने से रोका। 

गरुड़ और गालव पुराने मित्र भी थे इसीलिए गरुड़ ने उनकी हर संभव सहायता का वचन दिया। उनके ऐसा कहने पर गालव ऋषि के प्राण लौटे। गरुड़ ने उनसे कहा कि वो अकेले इतने श्यामकर्ण अश्व नहीं खोज सकते। उनकी गति अत्यंत तीव्र है और वे उन अश्वों को खोजने में उनकी सहायता करेंगे। तब गरुड़ गालव को अपनी पीठ पर बिठाकर पूर्व दिशा की ओर बढे। उड़ते-उड़ते वे दोनों ऋषभ पर्वत पहुँचे जहाँ उनकी भेंट शाण्डिली नामक योगिनी से हुई। वहीं पर दोनों को शाण्डिली ने भोजन करवाया और तत्पश्चात दोनों गहरी नींद में सो गए।

जब दोनों उठे तो गरुड़ ने देखा कि उनके दोनों पंख गायब हैं। ये देखकर दोनों बड़े घबराये कि अब यहाँ से कैसे जाएंगे। जब उन्होंने शाण्डिली से इस विषय में पूछा तो उसने कहा कि अवश्य ही गरूड ने मेरे अहित सोचा होगा तभी उसके पंख झड़ गए। तब गरुड़ ने क्षमा-याचना करते हुए कहा - "हे माता! मैंने तो केवल इतना सोचा था कि आप जैसी तपस्विनी को ब्रह्मदेव या महादेव के पास छोड़ आऊं। अगर अनजाने में मुझसे कोई अपराध हुआ हो तो मुझे क्षमा करें और मेरे पंख वापस कर दें।"

तब शाण्डिली ने गरुड़ के पंख लौटा दिए। उसकी चमत्कारिक शक्ति देख कर गालव को लगा कि उसी से सहायता मांगनी चाहिए। उन्होंने उनसे अपनी विपदा कही और पूछा कि अब उन्हें क्या करना चाहिए? तब शाण्डिली ने उन दोनों को उन नरेशों के बारे में बताया जिनके पास श्यामकर्ण अश्व हैं। किन्तु समस्या ये थी कि उसे खरीदने के लिए अथाह धन की आवश्यकता थी। तब शाण्डिली ने उन्हें धन का दान माँगने आर्यावर्त के चक्रवर्ती सम्राट ययाति के पास जाने को कहा। शाण्डिली को प्रणाम कर दोनों तत्काल नहुष पुत्र ययाति के पास पहुंचे और उनसे अपनी समस्या कही।

ययाति चक्रवर्ती सम्राट थे और अपार धन सम्पदा के स्वामी थे। गरुड़ ने उनसे कहा कि अगर वे उनकी सहायता कर दें तो वे ८०० क्या संसार के समस्त श्यामकर्ण अश्व खरीद सकते हैं। तब ययाति ने उन्हें कहा - "हे महर्षि! आप आये तो सही स्थान पर हैं किन्तु ये समय अनुकूल नहीं है। मैं अभी-अभी १०० अश्वमेघ यज्ञ कर उठा हूँ और मेरी समस्त सम्पदा मैंने दान कर दी है। किन्तु मैं किसी भी याचक को खाली हाथ नहीं लौटता अतः आपकी भी सहायता अवश्य करूँगा।"

ये कहकर ययाति ने अपनी पुत्री माधवी को बुलाया। जब गालव और गरुड़ ने उसे देखा तो उनकी ऑंखें चौंधिया गयी। ऐसा अद्वितीय सौंदर्य उन्होंने कहीं और नहीं देखा था। तब ययाति ने कहा - "हे ऋषिवर! ये मेरी प्रिय पुत्री माधवी है। उसे वरदान प्राप्त है कि इसके चार तेजस्वी पुत्र होंगे और प्रत्येक प्रसव के पश्चात ये पुनः कन्या हो जाएगी। मैं भी इसके लिए सुयोग्य वर ढूंढ रहा था। आप इसे ले जाइये और इसका कन्यादान कर जितने चाहे श्यामकर्ण अश्व ले आइये। इसका सौंदर्य ऐसा है कि पृथ्वी का कोई राजा क्या, स्वयं देवराज इंद्र इसके लिए स्वर्गलोक छोड़ सकते हैं। किन्तु जैसे ही आपका कार्य हो जाये, आप इसे पुनः मेरे पास छोड़ जाएँ।"

गरुड़ और गालव ने ययाति का हार्दिक आभार माना और माधवी को लेकर अपने साथ चले। जाते हुए ययाति ने माधवी से कहा - "हे पुत्री! मैं जानता हूँ कि तुम चार तेजस्वी पुत्रों की माता बनोगी। ऋषि का वरदान कभी झूठा नहीं होता। मैं तुम्हे ऋषि गालव के सुपुर्द कर रहा हूँ। आज से वही तुम्हारे पालक हैं इसीलिए वे जो भी आज्ञा दें, उसे निःसंकोच पूर्ण करना क्यूंकि ऐसा ना करने पर तुम्हारे पिता का अपमान होगा।" तब माधवी ने उन्हें वचन दिया कि वे वही करेगी जो गालव उसे कहेंगे। गालव ने भी उन्हें वचन दिया कि कार्य की समाप्ति पर वे माधवी को उनके पास छोड़ देंगे। फिर तीनों ने ययाति से विदा ली।

माधवी को लेकर गालव और गरुड़ सर्वप्रथम अयोध्या के राजा हर्यश्व के पास पहुँचे। उन्होंने उनसे कहा कि "हे राजन! किसी कार्यवश हमें ८०० श्यामकर्ण अश्व की आवश्यकता है। इसके बदले महाराज ययाति की ये सुन्दर कन्या आपका वरण करेगी। आज संसार में इससे सुन्दर और शीलवती कन्या नहीं है। अतः आप इस श्रेष्ठ कन्या को पत्नी के रूप में वरण करें और हमें ८०० श्यामकर्ण अश्व प्रदान करें।"

राजा हर्यश्व माधवी को देखते ही मुग्ध हो गए। किन्तु उनके पास केवल २०० श्यामकर्ण अश्व थे। ये बात जब उन्होंने ऋषि गालव को बताई तो वे बड़े निराश हुए। तब हर्यश्व ने उन्हें बताया कि काशी के राजा दिवोदास और भोजनगर के राजा उनीशर के पास भी २००-२०० श्यामकर्ण अश्व हैं। किन्तु समस्या ये थी कि अगर माधवी का विवाह हर्यश्व से कर दें फिर अन्य राजाओं को देने के लिए उनके पास कुछ नहीं बचेगा। तब गालव को एक उपाय सूझा। उन्होंने हर्यश्व से कहा कि वे माधवी को १ वर्ष तक अपनी पत्नी बना कर रखें और पुत्र की प्राप्ति करें। एक वर्ष पश्चात वे वापस उसे लेकर चले जाएंगे। हर्यश्व तुरंत इस बात के लिए तैयार हो गए। 

माधवी ने जब ये सुना उसके दुःख का पार ना रहा। किन्तु उसे अपने पिता को वचन दिया था कि गालव जो कुछ भी कहें वो अवश्य करेगी। तब गरुड़ ने भी गालव को ऐसा करने से मना किया और कहा कि कुछ कारण है कि वे उन्हें ऐसा करने से मना कर रहे हैं। किन्तु गालव ने कहा कि इसके बिना वे अपने गुरु को गुरुदक्षिणा नहीं दे पाएंगे। तब गरुड़ उन्हें वहीँ छोड़ कर चले गए। इसके पश्चात गालव ने माधवी को हर्यश्व से विवाह करने को कहा। अपने पिता को दिए वचन के कारण माधवी ने अपना जीवन व्यर्थ कर हर्यश्व से विवाह कर लिया। हर्यश्व को माधवी से वसुमना नामक पुत्र की प्राप्ति हुई जो महान दानवीर बना। वरदान के कारण प्रसव के बाद माधवी पुनः कन्या हो गयी। 

एक वर्ष पश्चात गालव उन २०० अश्वों को कुछ समय के लिए अयोध्या में ही छोड़ कर माधवी को लेकर काशी पहुंचे। वहाँ २०० अश्वों के बदले उन्होंने राजा दिवोदास के सामने भी वही शर्त रखी। उनकी सहमति के बाद वे माधवी को १ वर्ष के लिए उनके पास छोड़ गए। माधवी से दिवोदास को प्रतर्दन नामक पुत्र की प्राप्ति हुई जो अद्वितीय शूरवीर योद्धा बना।

इसके बाद गालव माधवी को लेकर भोजराज उनीशर के पास पहुँचे और उनके २०० अश्वों के बदले भी उनके सामने वही प्रस्ताव रखा। उनीशर माधवी जैसी सुंदरी को अपनी पत्नी बनाने का मोह छोड़ नहीं पाए और १ वर्ष के लिए उससे विवाह कर लिया। उनीशर को माधवी से शिबि नामक महान सत्यपरायण पुत्र की प्राप्ति हुई। ये वही शिबि थे जिन्होंने कबूतर के प्राणों की रक्षा के लिए स्वयं का माँस पड़ले पर रख दिया था। 

१ वर्ष पश्चात गालव पुनः माधवी को लेकर शेष २०० श्यामकर्ण अश्व की खोज में निकले। तब उनकी मुलाकात पुनः अपने मित्र गरुड़ से हुई। गालव ने उन्हें बताया कि वे बड़े दिनों से शेष अश्वों की खोज में भटक रहे हैं किन्तु उन्हें वैसे अश्व नहीं मिल रहे। तब गरुड़ ने हँसते हुए कहा "अब ऐसे अश्व पृथ्वी पर किसी के पास नहीं हैं। पूर्वकाल में ऋषिक मुनि महाराज गाधि की पुत्री सत्यवती से विवाह के बदले उन्हें १००० श्यामकर्ण अश्व दिए। महाराज गाधि ने सभी अश्व यज्ञ कर ब्राह्मणों को दान दे दिए। वापस लौटते समय हर्यश्व, दिवोदास और उनीशर के पूर्वजों ने उनसे २००-२०० अश्व खरीद लिए। बांकी ४०० अश्वों को लेकर ब्राह्मण जब वितस्ता नदी पार कर रहे थे तो सभी ४०० घोड़े बह गए। मैं ये बात जनता था इसीलिए आपको ऐसा अधर्म करने से रोक रहा था। अब देखिये, माधवी के साथ इतना अधर्म करने के बाद भी आप अपने गुरु को पूरी गुरुदक्षिणा नहीं दे सकते।"

तब गालव ने गरुड़ से ही उपाय पूछा। गरुड़ ने कहा कि वे अपने गुरु से ही प्रार्थना करें। ये सुनकर गालव माधवी और अश्वों को लेकर विश्वामित्र के पास पहुंचे और उनसे कहा - "हे गुरुवर! ययाति की इस सुदर्शन कन्या के कारण मैंने ६०० अश्व तो प्राप्त कर लिए किन्तु इनके अतिरिक्त अब ऐसे अश्व कही है ही नहीं। अतः आप शेष २०० अश्वों के बदले १ वर्ष के लिए इस कन्या को स्वीकार करें।"

गालव की प्रार्थना का अनुमोदन गरुड़ ने भी किया। विश्वामित्र महाज्ञानी थे किन्तु जिस प्रकार मेनका के सौंदर्य ने उनकी तपस्या भंग की थी, उसी प्रकार माधवी के सौंदर्य ने उनका संयम भंग कर दिया और वे गालव की बात मान ली। माधवी के संयोग से अन्य राजाओं की भाँति उन्होंने भी एक तेजस्वी पुत्र की प्राप्ति की, जो कालान्तर में अष्टक के नाम से प्रसिद्ध हुआ। बड़ा होने पर विश्वामित्र की अनुमति से अष्टक ने उनकी राजधानी का सारा कार्य-भार ग्रहण किया और माधवी के शुल्क के रूप में प्राप्त उन छह सौ दुर्लभ श्यामकर्ण अश्वों का भी वही स्वामी हुआ।

१ वर्ष के पश्चात गालव शर्त के अनुसार माधवी को लेकर पुनः ययाति के पास पहुँचे। जब ययाति ने सारी कथा सुनी तो बड़े क्षुब्द हुए। किन्तु वरदान के कारण माधवी पुनः कन्या हो चुकी थी और उसके सौंदर्य में लेश मात्र भी अंतर नहीं आया था। यही सोच कर ययाति ने माधवी का स्वयंवर करने का निश्चय किया। किन्तु तब तक माधवी इतनी विरक्त और दुखी हो चुकी थी कि उसने विवाह करने से मना कर दिया और पिता से वनगमन की आज्ञा मांगी। फिर माधवी ने अपना सारा जीवन वन में ही बिताया और वहीँ तप करते हुए अपने जीवन का अंत कर लिया।

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