द्रौपदी

द्रौपदी
पूर्व काल में एक ऋषि थे मुद्गल। उनका विवाह इन्द्रसेना नामक कन्या से हुआ जो बाद में अपने पति के नाम से मुद्गलनी भी कहलायी। दुर्भाग्य से मुद्गल की मृत्यु विवाह के तुरंत बाद हो गयी। तब इंद्रसेना को अपने पति के जाने का अपार दुःख हुआ किन्तु उसे इस बात का भी दुःख हुआ कि वो अपने वैवाहिक जीवन का भोग नहीं कर सकी। इसी कारण उसने भगवान शंकर की घोर आराधना की। जब महादेव प्रसन्न हुए तो इन्द्रसेना ने उनसे ये वर माँगा कि अगले जन्म में उसे एक ऐसा पति चाहिए जो धर्म का ज्ञाता हो, अपार बलशाली हो, सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर हो, संसार में सर्वाधिक सुन्दर हो एवं जिसके सहनशीलता की कोई सीमा ना हो।

महादेव मुस्कुराये और उन्होंने इन्द्रसेना से कहा कि एक ही पुरुष में ये सारे गुण होना असंभव है। किन्तु इन्द्रसेना अपनी इच्छा पर अड़ी रही और "वर देहि" का पाँच बार उच्चारण किया। तब महादेव ने उससे कहा कि मनुष्य को वरदान सोच समझ कर ही मांगना चाहिए अन्यथा उसका प्रतिकूल प्रभाव होता है। तुमने मुझसे पाँच बार पाँच अलग गुणों के पति की कामना की है इसी कारण अगले जन्म में तुम्हे इन गुणों के पाँच पति प्राप्त होंगे। ये कहकर भगवान शंकर अंतर्धान हो गए।

समय बीता, महर्षि भारद्वाज के आश्रम में पृषत पुत्र द्रुपद एवं स्वयं भारद्वाज पुत्र द्रोण में घनिष्ठ मित्रता हो गयी। खेल-खेल में द्रुपद ने द्रोण से कह दिया कि जब वे राजा बनेंगे तो अपना आधा राज्य द्रोण को दे देंगे। जब दोनों बड़े हुए तो द्रुपद को अपने पिता से पांचाल का राज्य मिला और द्रोण एक निर्धन ब्राह्मण के रूप में दिन बिताने लगे। एक दिन ऐसा भी आया जब द्रोण की पत्नी कृपी के पास अपने पुत्र अश्वथामा को पिलाने हेतु दूध तक नहीं था। तब द्रोण द्रुपद के राज्य में पहुँचे और उन्हें मित्र कह कर सम्बोधित किया। इसपर द्रोण ने भरी सभा में उनका अपमान किया और तब उसका प्रतिशोध लेने के लिए द्रोण ने भगवान परशुराम से शिक्षा प्राप्त की और हस्तिनापुर के राजगुरु के पद पर आसीन हुए। 

जब कौरवों और पांडवों की शिक्षा समाप्त हुई तो द्रोण ने गुरु दक्षिणा में द्रुपद को माँगा। कौरवों के असफल होने के बाद अंततः पांडवों ने विजय प्राप्त की और अर्जुन ने द्रुपद को बंदी बना कर द्रोण के समक्ष प्रस्तुत किया। द्रोण ने पांचाल का विभाजन कर लिया और उत्तरी पांचाल का राजा अश्वथामा को बना दिया। दक्षिण पांचाल द्रुपद के पास ही रहा। 

द्रुपद की दो संतान थी - ज्येष्ठ थी शिखण्डिनी, जिसने बाद में पुरुषत्व प्राप्त किया और शिखंडी कहलायी एवं सत्यजीत। किन्तु द्रोण से प्रतिशोध लेने के लिए द्रुपद को एक दिव्य पुत्र की आवश्यकता थी। इसी लिए उन्होंने एक यज्ञ जिसकी अग्नि से उन्हें धृष्टधुम्न नामक पुत्र प्राप्त हुआ। फिर उसी यज्ञ से एक पुत्री का भी प्रादुर्भाव हुआ। द्रुपद की पुत्री होने कारण वो द्रौपदी कहलायी। पांचाल की राजकुमारी होने के कारण उनका नाम पांचाली,  यज्ञ से प्रकट होने के कारण याज्ञसेनी और सांवले रंग के कारण उसका एक नाम कृष्णा भी पड़ा।

द्रौपदी को इन्द्राणी शचि का अवतार भी माना जाता है। कहा जाता है समस्त संसार में उससे सुंदर स्त्री और कोई नहीं थी। अपनी चंद्रमुखी पुत्री के विवाह के लिए द्रुपद ने एक महान यज्ञ का आयोजन किया। उन्होंने अर्जुन का पराक्रम देखा था और वे चाहते थे द्रौपदी को अर्जुन पति रूप में मिले। इसी कारण उन्होंने एक अत्यंत कठिन धनुर्विद्या की प्रतियोगिता रखी जिसमें ऊपर घूमती हुई मीन के नेत्र को नीचे रखे तेल में उसका प्रतिबिम्ब देख कर बींधना था। उस कठोर धनुष को वहाँ उपस्थित प्रतियोगी हिला भी ना सके, किन्तु फिर अंगराज कर्ण ने सहज ही उस धनुष को उठा कर उसपर प्रत्यंचा चढ़ा दी। किन्तु द्रौपदी ने अपने कुल का ध्यान रखते हुए एक सूतपुत्र से विवाह करने से मना कर दिया। 

द्रौपदी के इस कृत्य को आज कल के लोग जातिवादी बताते हैं किन्तु उन्हें ये भी जानना चाहिए कि इस घटना के विषय में भी अलग-अलग मत हैं। महाभारत के दक्षिणात्य पाठ में ऐसा वर्णित है कि महारथी कर्ण ने वो धनुष उठा तो लिया किन्तु उसपर प्रत्यञ्चा चढाने में असफल रहे। अर्थात इसके अनुसार द्रौपदी ने स्वयंवर में कर्ण का अपमान नहीं किया था। तत्पश्चात ब्राह्मण रुपी अर्जुन ने उस धनुष पर प्रत्यञ्चा चढ़ा कर मत्स्य की आँखों को एक ही बाण से बींध कर द्रौपदी का वरण कर लिया।

उस समय तक द्रौपदी को ये नहीं पता था कि उसका पति सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर अर्जुन है। जब वे पांचों भाई आश्रम पहुँचे तो उन्होंने परिहास में ही अपनी माता कुंती से ये कहा कि वे दान में एक अद्भुत वस्तु लाये हैं। तब कुंती ने बिना देखे ही अनायास ये कह दिया कि उसे पाँचो भाई बराबर आपस में बाँट लें। अब उनके समक्ष एक घोर धर्म संकट आ गया। भला एक कन्या को पाँच पुरुषों में कैसे बाँटा जा सकता था। तभी महर्षि व्यास और श्रीकृष्ण वहाँ पहुँचे और द्रौपदी को धर्मपूर्वक पाँचों पांडवों से विवाह करने को कहा। उन्होंने जटिला नामक एक सती स्त्री का उदाहरण भी दिया जिसने ७ पुरुषों से विवाह किया था। इसके अतिरिक्त १० प्रचेताओं का विवाह भी मारिषि नामक कन्या से हुआ था।

इसके पश्चात भी द्रौपदी के मन में संशय देख कर श्रीकृष्ण ने उन्हें उनके पूर्वजन्म की बात याद दिलाई जिसमें महादेव ने उन्हें पाँच पति पाने का वरदान दिया था। उसी वरदान के फलस्वरूप धर्म के प्रतीक युधिष्ठिर, महाबलवान भीम, परशुराम के सामन पराक्रमी अर्जुन, अद्भुत सौंदर्य के धनी नकुल और अपार सहनशीलता के स्वामी सहदेव उन्हें पति के रूप में मिले हैं। तब द्रौपदी ने कहा कि वो किस प्रकार पवित्र रहकर पाँच पतियों के साथ धर्मपूर्वक रह सकती है? इस दुविधा को समझते हुए महर्षि व्यास ने द्रौपदी को चिरकुमारी होने का वरदान दिया। उन्होंने कहा कि प्रत्येक रात्रि के बाद उसका कौमार्य पुनः अक्षत हो जाएगा जिससे वो पवित्र भाव से अपने सभी पतियों के साथ रह सकती है। इसी कारण उन्हें पंचकन्याओं में भी स्थान मिला।

जब वे द्रौपदी के साथ हस्तिनापुर लौटे और इंद्रप्रस्थ का विभाजन हुआ तब देवर्षि नारद युधिष्ठिर से मिलने आये। उन्होंने उन्हें सुन्द-उपसुन्द की कथा सुनाई और कहा कि उन्हें एक नियम बनाना चाहिए जिससे द्रौपदी एक समय में एक ही पांडव के साथ १ वर्ष तक रह सके। पांडवों ने उनके इस प्रस्ताव को स्वीकार किया। भूलवश उसी अनुबंध का उलंघन करने पर अर्जुन को १२ वर्ष वनवास में बिताने पड़े। द्रौपदी को पांडवों से १-१ पुत्र प्राप्त हुए। युधिष्ठिर से प्रतिविन्ध्य, भीम से सुतसोम, अर्जुन से श्रुतकर्मा, नकुल से शतानीक एवं सहदेव से श्रुतसेन। ये सभी उप-पांडव कहलाये। दुर्भाग्य से अश्वत्थामा ने इन सभी का वध कर दिया। 

इसके बाद वो प्रसंग भी आया जहाँ कुरुकुल में द्रौपदी का भयानक अपमान हुआ। कुछ लोग ये मानते हैं कि इससे पूर्व द्रौपदी ने दुर्योधन को "अंधे का पुत्र अँधा" कहा था किन्तु इसका भी कोई सटीक वर्णन हमें मूल महाभारत में नहीं मिलता। कर्ण के अपमान की भांति ही ये भी लोक कथाओं के रूप में अधिक प्रचलित है जिसकी प्रमाणिकता सिद्ध नहीं है। जब पांडव द्युत में परास्त हुए तो द्रौपदी भी उसमें हारी जा चुकी थी। ऐसा उदाहरण संसार में और कही नहीं मिलता। उस सभा में दुर्योधन के आदेश पर दुःशासन ने सती द्रौपदी के चीरहरण का प्रयास किया और तब श्रीकृष्ण ने द्रौपदी की लाज बचाई। उसी सभा में द्रौपदी ने अपने केशों को तब तक खुला रखने की प्रतिज्ञा की जबतक कौरवों का नाश नहीं हो जाता। 

तत्पश्चात जब पांडवों को वनवास मिला तो भी द्रौपदी ने एक सती की भांति उनका अनुसरण किया। द्रौपदी के पुण्यकर्मों के प्रभाव के कारण भगवान सूर्यनारायण ने उसे एक "अक्षय पात्र" प्रदान किया जिसका भोजन द्रौपदी के भोजन करने तक कभी समाप्त नहीं होता था। उसी की सहायता से वन में रहते हुए भी पांडव ऋषियों की सेवा और सत्कार करने में सक्षम हुए। वनवास के समय ही द्रौपदी का हरण दुःशला के पति जयद्रथ ने कर लिया। भीम और अर्जुन ने उसे मुक्त करवाया और युधिष्ठिर ने जयद्रथ को दण्डित कर उसे मुक्त कर दिया।

वनवास की समाप्ति पर अगला १ वर्ष पांडवों ने गुप्तवास में बिताया। युधिष्ठिर कंक, भीम बल्लभ, अर्जुन बृहन्नला, नकुल ग्रन्थिक, सहदेव तन्तिपाल एवं द्रौपदी सैरंध्री के नाम से मत्स्यराज विराट के दास के रूप में दिन बिताने लगे। किन्तु द्रौपदी के दुर्भाग्य ने यहाँ भी उसका पीछा नहीं छोड़ा और विराट के साले कीचक की कुदृष्टि सैरंध्री पर पड़ी। उसकी रक्षा के लिए भीम ने कीचक और उसके १०५ भाइयों, जो उप-कीचक कहलाते थे, का वध कर दिया। अज्ञातवास के अंतिम दिन ही अर्जुन ने कौरव सेना को विराट युद्ध में परास्त किया और तत्पश्चात अपना राज्य ना मिलने पर महाभारत युद्ध हुआ। महाभारत युद्ध के १४वें दिन भीम ने दुःशासन का वध किया और तब उसके रक्त से प्रक्षालन कर अंततः द्रौपदी ने अपने केश बांघे। 

युद्ध के बाद ३६ वर्षों तक युधिष्ठिर ने हस्तिनापुर पर राज्य किया और द्रौपदी पटरानी के पद पर आसीन हुई। संसार की श्रेष्ठ सतियाँ जैसे रुक्मिणी एवं सत्यभामा भी द्रौपदी को अपना आदर्श मानती थी। एक प्रसंग आता है जब सत्यभामा द्रौपदी से पूछती हैं कि वो किस प्रकार पांडवों को अपने वश में रखती है? ये सुनकर द्रौपदी उनसे कहती है कि कोई भी सती स्त्री अपने पति को वश में रखने का प्रयास नहीं करती। तत्पश्चात सत्यभामा लज्जित होकर उनसे क्षमा मांगती है और तब द्रौपदी उन्हें सतीधर्म की शिक्षा देती हैं। 

श्रीकृष्ण के निर्वाण के तत्पश्चात पांडवों ने शरीर त्यागने का निश्चय कर स्वर्गारोहण किया जहाँ द्रौपदी भी उनके साथ थी। एक एक कर के सभी पांडव और द्रौपदी मृत्यु को प्राप्त हुए किन्तु युधिष्ठिर स्वर्ग की ओर बढ़ते रहे। जब भीम ने पूछा कि पतिव्रताओं में श्रेष्ठ द्रौपदी अपने किस अपराध के कारण मृत्यु को प्राप्त हुई है तब युधिष्ठिर ने कहा कि द्रौपदी पाँचों पांडवों की पत्नी थी किन्तु उसने सदैव अर्जुन से सर्वाधिक प्रेम किया। अपने इसी पक्षपात के कारण वो मृत्यु को प्राप्त हुई।

वैसे तो अन्य पंचकन्याएँ - अहिल्या, तारा, मंदोदरी एवं कुंती के चरित्र के विषय में भी मूढ़ लोग प्रश्न उठाते रहते हैं किन्तु जिस प्रकार के चरित्रहनण का प्रयास द्रौपदी का हुआ है उसकी कोई तुलना नहीं है। हमारे धर्म ग्रंथों में इतनी भरी मात्रा में मिलावट हुई है जिसकी कोई सीमा नहीं है। विशेष कर द्रौपदी के विषय में इतने अनर्गल प्रचार किये गए हैं कि क्या कहा जाये। 

कई घटिया ग्रन्थ जो आधुनिक काल में ही लिखे गए हैं, विशेष रूप से द्रौपदी की कर्ण के प्रति आसक्ति के विषय में लिखते हैं जो बिलकुल भी सत्य नहीं है। और तो और श्रीकृष्ण एवं द्रौपदी के विषय में भी कई अनर्गल प्रलाप आपको मिल जाएंगे जो बिलकुल निरर्थक हैं। द्रौपदी के पाँच पांडवों से सम्बन्ध के विषय में भी लोग प्रश्न उठाते हैं किन्तु वे ये भूल जाते हैं वो एक महासती थी जिसे समझना आजकल के अल्पबुद्धि व्यक्तियों के बस में नहीं है। इस अनर्गल तर्क का एक बड़ा कारण आज कल के अप्रासंगिक टीवी सीरियल्स भी हैं जिन्होंने पूरे गौरवशाली इतिहास को तोड़ने मड़ोड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी है।

तो इस लेख के साथ पंचकन्याओं की श्रृंखला समाप्त होती है। आशा है आपको ये श्रंखला पसंद आयी होगी। पंचकन्याओं के श्लोक से हम इसका अंत करते हैं -

अहिल्या द्रौपदी कुन्ती तारा मन्दोदरी तथा।
पंचकन्या स्मरणित्यं महापातक नाशक॥

अर्थात: अहिल्या, द्रौपदी, कुन्ती, तारा तथा मन्दोदरी, इन पाँच कन्याओं का प्रतिदिन स्मरण करने से सारे पाप धुल जाते हैं।

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