सम्पाती

सम्पाती
रामायण में हमें सम्पाती एवं जटायु नाम दो पक्षियों का वर्णन मिलता है, जो गिद्ध जाति से सम्बंधित थे। रामायण में इन दोनों का बहुत अधिक वर्णन तो नहीं है किन्तु फिर भी जटायु का वर्णन हमें बहुत प्रमुखता से मिलता है। सम्पाती का वर्णन हमें केवल सीता संधान के समय ही मिलता है, किन्तु फिर भी उनकी कथा बहुत प्रेरणादायक है। आज हम इन दोनों भाइयों में से ज्येष्ठ, सम्पाती के विषय में जानेंगे। अगले लेख में हम उनके छोटे भाई जटायु के विषय में चर्चा करेंगे।

परमपिता ब्रह्मा के पुत्र महर्षि मरीचि हुए जो सप्तर्षियों में से एक थे। उन्होंने कर्दम प्रजापति की पुत्री कला से विवाह किया जिनसे उन्हें महर्षि कश्यप पुत्र के रूप में प्राप्त हुए। महर्षि कश्यप ने दक्ष प्रजापति की १७ कन्याओं से विवाह किया और उन्ही के पुत्रों से समस्त जातियों की उत्पत्ति हुई। महर्षि कश्यप के वंश के बारे में विस्तार पूर्वक आप यहाँ पढ़ सकते हैं।

महर्षि कश्यप की एक पत्नी थी विनता जिन्होंने अपने पति से पुत्र प्राप्ति की याचना की। तब महर्षि कश्यप ने उनसे पूछा कि उन्हें कितने पुत्र चाहिए, तब उन्होंने केवल २ प्रतापी पुत्रों की कामना की। समय आने पर विनता ने दो अंडों का प्रसव किया किन्तु १०० वर्ष बीत जाने के बाद भी उन अंडों से किसी जीव की उत्पत्ति नही हुई। तब अधीरता दिखाते हुए विनता ने उनमें से एक अंडे को फोड़ दिया। उस अंडे से एक विशालकाय पक्षी निकला किन्तु उसका शरीर आधा ही बना था, शेष आधा शरीर अभी तक अविकसित था।

तब उन्होंने अपनी माता के अनुचित कृत्य के बारे में रोष दिखाते हुए कहा कि उन्होंने समय से पहले ही उसे अंडे से निकाल दिया जिससे उनका आधा शरीर दुर्बल रह गया। किन्तु अब वो वही भूल दूसरे अंडे के साथ ना करे। महर्षि कश्यप ने उन्हें अरुण नाम दिया और वो सूर्यनारायण की तपस्या करने वन चले गए। अपने पुत्र की बात ध्यान रखते हुए विनता ने दूसरे अंडे को सहेज कर रखा और समय बीतने पर उससे एक महापराक्रमी पक्षी की उत्पत्ति हुई। अरुण के उस छोटे भाई का नाम गरुड़ रखा गया।

उधर अरुण ने अपनी घोर तपस्या से सूर्यदेव को प्रसन्न कर लिया। जब उन्होंने उनसे वरदान मांगने को कहा तो अरुण ने सूर्यनारायण का सारथि होने का वरदान माँगा। सूर्यदेव ने तथास्तु कहा और अरुण ने उनके सारथी का पद ग्रहण किया। समय आने पर अरुण का विवाह श्येणी नामक कन्या से हुआ जिससे उन्हें दो पुत्र प्राप्त हुए - सम्पाती और जटायु। इस प्रकार अरुण से गिद्ध और गरुड़ से गरुड़ जाति की उत्पत्ति हुई।

युवा होने पर एक बार सम्पाती और जटायु में प्रतिस्पर्धा लगी कि दोनों में कौन सूर्य को छू सकता है। उसके पीछे उनकी अपने पिताश्री के दर्शनों की भी अभिलाषा थी। तब दोनो भाइयों ने सूर्य तक दौड़ लगाई। जैसे जैसे वे सूर्य के निकट पहुंचे, वैसे वैसे ही सूर्य के ताप से उन्हें पीड़ा होने लगी। किन्तु फिर भी दोनों में से कोई भी पीछे हटने को तैयार नही हुआ। किन्तु सूर्य के थोड़ा और निकट जाने पर दोनों के पंख जलने लगे। तब अपने भाई को बचाने के लिए सम्पाती ने अपने पंखों से उसे ढक लिया। इससे जटायु तो बच गए किन्तु सम्पाती के दोनों पंख पूरी तरह जल गए और वो समुद्र तट के निकट विंध्य पर्वत पर जा गिरे।

पंख जल जाने और इतनी ऊंचाई से गिरने के कारण सम्पाती छः दिनों तक अचेत रहे। चेतना आपने पर सूर्य के ताप से बचने के लिए वे किसी प्रकार एक कंदरा में पहुँचे, जहाँ उनकी भेंट निशाकर नामक एक सिद्ध ऋषि से हुई। कहीं-कहीं इन ऋषि का नाम चंद्र भी बताया गया है। निशाकर ने अपनी सिद्धि से सम्पाती को उनकी पीड़ा से मुक्ति दिलवाई और कहा कि भविष्य में पंख पुनः उग आएंगे किन्तु अभी उन्हें अपने पंखों से रहित इसी समुद्र तट पर रहना होगा क्यूंकि भविष्य में उन्हें श्रीहरि के अवतार का एक महत्वपूर्ण कार्य करना है।

तत्पश्चात सम्पाती वही समुद्र तट पर रहने लगे और जटायु पंचवटी में जाकर बस गए। बहुत काल के बाद जब श्रीराम, माता सीता और लक्ष्मण पंचवटी आये तो जटायु उन्ही के निकट रहने लगे। जब रावण ने माता सीता का हरण किया तब जटायु अतिवृद्ध होने के बाद भी रावण से उन्हें बचाने के लिए लड़े, किन्तु अंततः उसके हाथों मृत्यु को प्राप्त हुए। बाद में श्रीराम ने स्वयं उनका अंतिम संस्कार किया।

रामायण में सम्पाती की पत्नी का वर्णन नहीं है किन्तु कुछ स्थानों पर उनके एक पुत्र "सुपार्श्व" का वर्णन आता है। चूँकि सम्पाती पंख रहित थे और उड़ नहीं सकते थे, उनके पुत्र सुपार्श्व भी वही अपने पिता के साथ रहने लगे। वही अपने पिता के लिए भोजन, जल इत्यादि की व्यवस्था करते थे। 

एक दिन सुपार्श्व बहुत देर से अपने पिता के पास आये और उनके लिए भोजन की भी उन्होंने कोई व्यवस्था नहीं की। इस पर क्रुद्ध होते हुए सम्पाती ने सुपार्श्व से पूछा कि उन्होंने भोजन की व्यवस्था क्यों नहीं की? तब सुपार्श्व ने उन्हें बताया कि आज उन्होंने एक राक्षस को आकाश मार्ग से एक स्त्री का हरण कर के ले जा रहा था। उसे देखने में ही उसे इतना विलम्ब हो गया और उसने भोजन की व्यवस्था नहीं की। तब सम्पाती को समझ में आ गया कि उसकी मुक्ति का समय निकट आ गया है। 

कुछ काल बाद जब अंगद के नेतृत्व में वानर सेना माता सीता को खोजने दक्षिण दिशा में गयी तो वही उनकी भेंट सम्पाती से हुई। उन्होंने सम्पाती को उनके छोटे भाई जटायु की मृत्यु का समाचार दिया जिसे सुनकर उन्हें अपार दुःख हुआ। जब जांबवंत और हनुमान ने उनसे सहायता मांगी तब सम्पाती ने ही अपनी दूर दृष्टि से देख कर वानरों को ये बताया कि माता सीता को रावण इस १०० योजन समुद्र के पार लंका ले कर गया है। तब हनुमान ने समुद्र पार जाकर उनका पता लगाया। कुछ स्थानों पर ऐसा भी वर्णन है कि सम्पाती ने ही वानरों को समुद्र पार कर माता सीता का पता लगाने के लिए उत्साहित किया। 

कुछ ग्रंथों में ये वर्णित है कि सम्पाती उसी समुद्र तट पर राम नाम लेते हुए मृत्यु को प्राप्त हुए किन्तु वाल्मीकि रामायण में ऐसा वर्णन है कि माता सीता का पता लगाने के बाद ऋषि निशाकर के कथनानुसार सम्पाती के लाल रंग के दो विशाल पंख उग आये और वे वहाँ से उड़ गए। इस प्रकार अरुण के दोनों पुत्र - सम्पाती एवं जटायु, श्रीराम की सहायता कर इतिहास में अमर हो गए। अगले लेख में हम सम्पाती के छोटे भाई जटायु के विषय में जानेंगे।

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