क्या कभी माता सीता का स्वयंवर हुआ था?

क्या कभी माता सीता का स्वयंवर हुआ था?
भगवान श्रीराम और माता सीता का स्वयंवर हिन्दू धर्म के सबसे प्रसिद्ध स्वयंवरों में से एक है। श्री रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास ने सीता स्वयंवर का बहुत विस्तृत और सुन्दर वर्णन किया है। मानस के अनुसार संक्षेप में कथा ये है कि महर्षि विश्वामित्र के साथ श्रीराम और लक्ष्मण जनकपुरी में आते हैं। पुष्प वाटिका में श्रीराम और सीताजी एक दूसरे का दर्शन करते हैं। फिर माता सीता के स्वयंवर का आयोजन होता है।

स्वयंवर में जब कोई भी राजा महादेव के धनुष को उठा नहीं पाता तो महाराज जनक पृथ्वी को वीरों से शून्य बता देते हैं जिसपर लक्ष्मण बहुत क्रोधित होते हैं। फिर महर्षि विश्वामित्र की आज्ञा से श्रीराम उस धनुष को उठा कर भंग करते हैं। फिर भगवान परशुराम वहां आते हैं और श्रीराम के वास्तविक स्वरुप का दर्शन करते हैं। अंततः श्रीराम और सीता जी का विवाह हो जाता है।

अब ये वो कथा है जिसे हम सदियों से पढ़ते और सुनते आ रहे हैं। लेकिन क्या हो यदि मैं आपसे ये कहूं कि वास्तव में माता सीता का स्वयंवर कभी हुआ ही नहीं था? आपको ये बात सुनकर आश्चर्य हो सकता है लेकिन ये बात बिलकुल सत्य है कि मूल वाल्मीकि रामायण में माता सीता के स्वयंवर का कोई वर्णन हमें नहीं मिलता है। इसका विवरण हमें वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड के सर्ग ६६ में मिलता है।

सर्ग ६६ के ५वें श्लोक में महर्षि विश्वामित्र राजा जनक से कहते हैं कि ये दोनों महाराज दशरथ के पुत्र हैं और आपके यहाँ रखे हुए धनुष को देखने की इच्छा रखते हैं। तब महाराज जनक उन्हें इस धनुष का इतिहास बताते हैं कि इसी धनुष से महादेव ने दक्ष के यज्ञ का विध्वंस किया था और फिर मेरे पूर्वज देवरात के पास इस धनुष को सुरक्षित रख दिया। तब से पीढ़ी-दर-पीढ़ी ये धनुष हमारे पास है।

इसके आगे महाराज जनक महर्षि विश्वामित्र को बताते हैं कि खेत में हल चलाते हुए उन्हें माता सीता की प्राप्ति हुई और जब वे युवा हुई तो कई राजा उनसे विवाह करने को आये। तब महाराज जनक ने उन्हें उस धनुष को उठाने को कहा किन्तु वे उसे हिला भी नहीं पाए। तब उन्होंने ये निश्चय किया कि वे अपनी पुत्री सीता का विवाह उसी से करेंगे जो इस धनुष पर प्रत्यंचा चढाने में सफल होगा लेकिन आज तक कोई इस धनुष को हिला भी नहीं पाया है।

फिर आगे सर्ग ६७ में महर्षि विश्वामित्र उस धनुष को दिखाने को कहते हैं तो ५००० सैनिक बड़ी कठिनाई से ८ पहियों वाले लोहे के संदूक में रखे उस धनुष को खींच कर वहां लाये। तब उस धनुष को दिखा कर महाराज जनक महर्षि विश्वामित्र को बताते हैं कि आज तक समस्त देवता, असुर, राक्षस, गन्धर्व, यक्ष, किन्नर और महानाग भी इस धनुष को हिला तक नहीं सके, फिर इसे उठाने और इसपर प्रत्यंचा चढाने की तो कौन कहे।

तब महर्षि विश्वामित्र की आज्ञा से श्रीराम ने खेल खेल में ही उस धनुष को उठा कर उसपर प्रत्यंचा चढ़ा दी। फिर जैसे ही उन्होंने उस प्रत्यंचा को कान तक खींचा, वो धनुष बीच से टूट गया। उससे ऐसा लगा जैसे कोई भूकंप आ गया हो। महर्षि विश्वामित्र, श्रीराम, लक्ष्मण और महाराज जनक को छोड़ कर वहां उपस्थित सभी लोग भय से मूर्छित हो गए। तब महाराज जनक ने अपनी पुत्री सीता का विवाह श्रीराम से करने का निर्णय कर लिया। इसके बाद महाराज दशरथ को सूचित किया गया और अंततः दोनों का विवाह हुआ।

तो वाल्मीकि रामायण के अनुसार माता सीता का कभी स्वयंवर नहीं हुआ था। वो धनुष मिथिला में सार्वजनिक रूप से रखा हुआ था और कोई भी वीर उस पर प्रत्यंचा चढाने का प्रयत्न कर सकता था और सफल होने पर माता सीता को प्राप्त कर सकता था। विगत अतीत में कई महाबलियों ने उस पर प्रत्यंचा चढाने का प्रयास किया भी था किन्तु कोई भी उसे हिलाने में भी सफल नहीं हो पाया था। तो सीता स्वयंवर का वर्णन हमें केवल रामचरितमानस में ही मिलता है, वाल्मीकि रामायण में नहीं।

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